`इधर हिंदी-पट्टी में कुछ घुमंतू स्वयम्भू “फिल्म-समारोह-निदेशक” कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो अपने फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं के बल पर निरीह दर्शकों को बहका कर कस्बाई सिने-बजाज बने कमा-खा रहे।`
ये लाइनें ईरानी फिल्मकार जफ़र पनाही पर लिखे विष्णु खरे के लेख से ली गई हैं जो कादम्बिनी के जुलाई अंक में छपा था।
दुनिया तेजी से बदल रही है। देखते-देखते झोला लटकाए किसी मकसद के लिये घूमते-फिरना अपमान का सबब मान लिया गया है। झोला फटीचर हो और उसमें पुरानी चिंदी चीजें हों तो आपकी खैर नहीं। कमबख्त गली के कुत्ते भी उसे ही भौंकते हैं। लेकिन हिन्दी का `मार्क्सवादी` कवि-आलोचक भी ऐसे लोगों को फटकारने लगे तो समझना चाहिए कि दुनिया वाकई बदल गई है या फिर नफा-नुकसान भांपकर हमारे `बुद्धिजीवी` बदल गए हैं। एक अखबार के संपादक के पास हजारों फिल्मों की सीडी हैं और वे अक्सर अपने इस प्रिविलेज का प्रदर्शन भी करते हैं लेकिन इससे उनकी राजनीति ज्यादा प्रोग्रेसिव नहीं हो जाती। ऐसे बहुत से लेखक हैं जो आज अचानक अपने ज्यादा पढ़े-लिखे होने का ढिंढोरा खुद पीट रहे हैं और अहंकार में अपने से पहले की पीढी को बेपढ़ा और मूर्ख घोषित करते रहते हैं,लेकिन उनके सरोकार उतने ही ज्यादा नंगे होते जाते हैं।
मैं जिन कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में रहता हूँ वहाँ बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास बेहद कम किताबें है, हालाँकि उनमें किताबों की भूख बेहद ज्यादा है। जिनके पास बेहद सस्ती हो जाने के बावजूद न डीवीडी है, न सीडी और न टीवी। फिर भी उनके सरोकार बेहद साफ़-सुथरे हैं और वे आज भी साइकलों पर फटे झोलों में चाँद किताबें लिये, छोटे-छोटे गाँवों में मीटिंगें करते हैं, नाटक जत्थे चलाते हैं और बेहतर दुनिया का ख्वाब ही नहीं देखते, अपने तईं उसके लिये संघर्ष भी करते हैं।
लेकिन विष्णु खरे निश्चय ही बड़े, बेहद बड़े कवि, आलोचक,फिल्म और विविध कलाओं के समीक्षक हैं। कुछ दिनों पहले तक उन्हें भी `कुछ फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं` के सहारे हिन्दी पट्टी में प्रतिरोध का सिनेमा दिखाने का दावा करने वालों के साथ देखा जाता था। ठीक ही है जो उन्होंने अपने रुतबे को आगे ऐसे `फटीचरों` के साथ बेआबरू होने से बचा लिया है। मालूम नहीं कि यह सब उन्होंने हुसेन प्रकरण में एक `नागवार` लेख छपने के बाद महसूस किया या फिर `कादम्बिनी` वाली पंक्तियाँ पहले ही छपचुकी थीं।
जाहिर है एक `बड़े` आदमी को हक़ है कि वो जब चाहे जिसे फटकार लगाए, फिर वो हुसेन हों, असहमति जताने वाले रवीन्द्र त्रिपाठी हों या किसी कार्यक्रम के श्रोता हों (जसम के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुए एक कार्यक्रम में उनका फट पड़ना ज्यादा पुरानी घटना नहीं है)। यह उनके `बड़े` होने का ही कमाल है कि जब वे हुसेन प्रकरण में खालिस संघी स्याही से पन्ने के पन्ने रंग रहे थे तो एक वरिष्ठ (खरे जी से वरिष्ठ नहीं) कवि बेबसी से कह रहे थे- `लेकिन वे बड़े कवि हैं।` अब भी कोई क्या बोले?
विष्णु खरे के तईं एक शिकायत इस लेख में भी कहीं हैं।
ReplyDeleteउपरोक्त लेख मैने भी कुछ समय पहले ’सबद’ पर पढ़ा था..और इन पंक्तियों मे प्रयुक्त भाषा पर मुझे भी कड़ा ऐतराज है..भले ही मै कोई समारोह-निर्देशक या सिनेमा आदि से तअल्लुक नही रखता हूँ..यही नही ईरानी सिनेमा के वर्तमान के जिन संदर्भों मे यह बात कही गयी है वह मुझे (अपनी अल्पज्ञता के आधार पर) अधूरी जानकारियों से निःसृत एक पूर्वाग्रहपूर्ण सोच का प्रतीक लगती है..यदि इस आरोप-प्रत्यारोप को हम व्यक्तिगत स्तर पर न ले जायें..तो ’फटीचर झोलों’, ’कुकुरमुत्तों’ या ’पाइरेटेड सीडियों’ के रूपकों के सहारे एक ’वर्ग-रचना’ मे से झाँकते संदिग्ध मंतव्यों पर स्वयं लेखक की अपनी सदाशयता को भी अफ़सोस होना चाहिये..मगर मै कहूँगा कि यहाँ पर ’प्रवृत्ति’ के बजाय ’व्यक्ति’ पर निशाना साधना भी बात को नकारात्मक दिशा मे ले जाना ही है..किसी कवि/समीक्षक के ’बड़े’ और ’विस्फोटक’ होने के बहाने उसके पिछले बहीखातों का हिसाब पलटना बहस को एक व्यक्तिगत और नकारात्मक स्तर देना होगा..वैसे भी बड़ा होना जबावदेही से परे होना नही होता..उन्हे अपनी इन पंक्तियों के मंतव्य को स्पष्ट करना ही चाहिये..फ़ोकस ’सोच’ पर रहे न कि व्यक्ति की जन्मकुंडली पर तो शायद बात को एक अधिक तार्किक और सकारात्मक दिशा मिले...
ReplyDeleteapporv se sahmat
ReplyDeleteबल्कि आदमी के *बड-अप्पन* के साथ साथ उस की जवाबदेही भी बढ़ती जाती है. वह झोले वाला चाहे कोई भी हो, खरे जी ने ऐसा नीयतन लिखा है तो मामला खतर्नाक है. सन्दर्भ जान कर फिर यहाँ लौटूँगा.
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ReplyDeleteमैं नहीं समझता की इस टिप्पणी का मकसद व्यक्तिविशेष पर व्यकतिगत कारणों से निशाना साधना है. विष्णुजी हिंदी समाज के लोकवृत्त में हैं , उनका लिखा पढ़ा सार्वजनिक बहस के दायरे में कैसे नहीं आयेगा. गौरतलब यह है कि इरानी फिल्मकार पर लिखते हुए विष्णु जी को हिंदी प्रदेश के उन सिनेआन्दोलनकारियों पर ऐसी अपमानजनक टिप्पणी क्यों करनी चाहिए , जो एक जिद के तहत , संकल्प पूर्वक सरकारी/ गैरसरकारी प्रतिष्ठानों के प्रलोभन को जूते की नोक पर रखते हुए , केवल दर्शकों के चंदे से अपनी फटी झोलियों के बल पर प्रतिरोध के सिनेमा का एक जन आन्दोलन खडा करने में जुटे है और गोरखपुर जैसे शहरों में साम्प्रदायिकता के जोगियों और नाथों से सीधा मुकाबला कर रहें हैं. क्या इस टिप्पणी को उनकी व्यक्तिगत कुंठा समझ कर भुला देना चाहिए ?क्या यह संयोग मात्र है ki ek or उन की कलम से हुसैन के उत्पीड़कों के लिए आस्थावादी सफाई पेश की जाती है और दूसरी और ठीक उन्ही उत्पीड़कों से जमीनी स्तर पर लोहा लेने वाले फटी झोलियों वाले संस्कृतकर्मियों को अपमानित किया जाता है?
ReplyDeletebhai sahab,in BARE ADMIYO,bare kaviyon par lanat bhejiye.ye sarvasattavadi hain,ya to inki chaplusi kariye,ya ye apake achhe kamo ko bhi tabah kar denge.
ReplyDeletebhai sahab,in BARE ADMIYO,bare kaviyon par lanat bhejiye.ye sarvasattavadi hain,ya to inki chaplusi kariye,ya ye apake achhe kamo ko bhi tabah kar denge.
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