Saturday, November 16, 2019

निगरानी के भूमंडलीय तंत्र का ‘पर्मानेंट रिकॉर्ड’ : शिवप्रसाद जोशी


(संदर्भ एडवर्ड स्नोडेन, मास सर्विलांस और डिजिटल डैटा)

प्रस्तुत आलेख माइक्रोसॉफ़्ट की वर्डफ़ाइल में उस कम्प्यूटर पर टाइप किया गया है जो डेल नामक अमेरिकी कंपनी का एक उत्पाद है. जिस किताब के बारे में ये आलेख है वो अमेज़न से ख़रीदी गयी है- ऑनलाइन. आलेख के लिए तथ्यों की जांच और कुछ जानकारी शामिल करने के लिए भारतीय टेलीकॉम कंपनी आईडिया-वोडाफ़ोन की ओर से मोबाइल हॉटस्पॉट यानी इंटरनेट की सुविधा सैमसंग मोबाइल फ़ोन के जरिए मिली है, कम्पयूटर खुला है, जीमेल अकाउंट खुला है और कुछ समाचार साहित्यिक वेबसाइटें खुली हुई हैं जहां लेख के लिए सामग्री देखने आवाजाही की गयी है. हो सकता है इस दौरान कुछ कहा बोला जा रहा हो. किसी से फ़ोन पर कोई ज़िक्र किया जा रहा हो. किताबें जो हैं सो हैं. ये तमाम ऑनलाइन और ऑफ़लाइन कार्य करते हुए क्या लेखक को कोई देख रहा या सुन रहा हो सकता है. दरोदीवार से नहीं बल्कि इसी वर्चुअल दुनिया में उस पर आवाजाही पर नज़र बनी हुई है. किसकी? कौन हैं वे? और आखिर वे चाहते क्या होंगे?  (उपरोक्त पैरा को इस सूचना के साथ जोड़ते हुए पढ़ें कि पेंटागन का दस अरब डॉलर की क्लाउड कम्प्यूटिंग का करार जीतने में हाल ही में माइक्रोसॉफ़्ट ने बाज़ी मारी है. ठेका हाथ से छूटने पर अमेज़न तिलमिलाया हुआ है.)
लेख को इस तरह इंट्रोड्यूस करने का उद्देश्य इस ओर इशारा करना है कि कैसे नवसूचना प्रौद्योगिकी और भूमंडलीय निगरानी तंत्र का रिश्ता निरंतर गाढ़ा होता जा रहा है. प्राइवेसी को तोड़ने की कोशिशों के बीच एक ओर कंपनियों और खुफिया सिस्टम की सांठगांठ है तो दूसरी ओर संचार क्षेत्र की अन्य कंपनियां हैं जो खुफिया तंत्र की नकेल को परे धकेलने की कोशिशों में लगी हैं क्योंकि उनके लिए अपने उपभोक्ताओं के हितों की अनदेखी करना नामुमकिन है.  वे अपने प्लेटफॉर्मों पर संचार को इन्क्रिप्ट तो कर रही हैं लेकिन सरकारों के दबाव बने हुए हैं कि ये इन्क्रिप्शन हटाओ. ये सवाल और दुश्चिंता आज के समय का यथार्थ हैं जिसे एडवर्ड स्नोडन ने अपनी कुछ महीने पहले प्रकाशित आत्मकथा के ज़रिए उद्घाटित करने का प्रयास किया है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस घटाटोप में लिखा जाना भी एक तरह से अपनी निजता को अनावृत्त करने की तरह है. क्योंकि बात क़ाग़ज और कलम की ही नहीं, कम्प्यूटर और टंकन और नेट की भी हो चली है.
ब्रिटिश प्रकाशक मैकमिलन से आयी इस तूफ़ानी किताब का नाम हैः पर्मानेंट रिकॉर्ड. अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से संबद्ध पूर्व इंजीनियर-जासूस एडवर्ड स्नोडेन के जीवन का वृत्तांत जो उन्होंने ख़ुद दर्ज किया है. पैदाइश से लेकर 2017-18 तक के मॉस्को (मस्कवा) में निर्वासित जीवन की कुछ आड़ीतिरछी, मार्मिक और यातना भरी झलकियों तक. स्नोडेन से अपनी एक हाल की मुलाक़ाता का ज़िक्र लेखिका अरुंधति रॉय ने पहले द गार्जियन में प्रकाशित और फिर किताब की शक्ल में आए संस्मरण में किया है. उनके मुताबिक, मैंने जो सोचा था, एडवर्ड स्नोडेन क़द में उससे भी छोटा था. नन्हा सा, नर्म, फ़ुर्तीला, साफ़ किसी पालतू बिल्ली की तरह. वो एकदम लिपटकर डैन (डैनियल एल्सबर्ग- अमेरिकी एक्टिविस्ट और वियतनाम युद्ध के दौरान के व्हिसलब्लोअर) से मिला और हमसे गर्मजोशी से. मैं जानता हूं तुम यहां क्यों आई हो, उसने मुझसे मुस्कराते हुए कहा.क्यों?” मुझे रेडिक्लाइज़ करने के लिए.
स्नोडेन अभी भी रूस में निर्वासित जीवन जी रहे हैं. दो साल पहले ही उन्होंने अपनी लिव इन पार्टनर  लिंडसे से शादी कर ली थी. ये किताब उन्हीं को समर्पित है और उनके संघर्ष को भी तहेदिल सलाम करती है. स्नोडेन के देश छोड़ने के बाद उन पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा था लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने हमसफ़र का बख़ूबी साथ निभाया. 2013 में हांगकांग में स्नोडेन पत्रकारों के समक्ष अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के मास सर्विलांस से जुड़े गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक किए थे, जिनसे पूरी दुनिया में भूचाल सा आ गया और सत्ता केंद्रों की दरोदीवार हिलने लगीं थी. स्नोडेन ने जो फ़ाश किया उसके मुताबिक अमेरिकी खुफिया समुदाय, सीआईए और एनएसए जिसका हिस्सा हैं, किस तरह उन परियोजनाओं की ओर प्रवृत्त हुए जिनका संबंध दुनिया के किसी भी कोने में होने वाले डिजिटल संचार पर नज़र रखने, उसे पढ़ने, स्टोर करने और उसके साथ छेड़छाड़ करने से है. स्नोडेन ने इसे पूंजीवाद, नव पूंजीवाद, क्रोनी पूंजीवाद से भी आगे का पूंजीवाद करार दिया है. एक भयावह निगरानी पूंजीवाद (सर्विलांस कैपिटलिज़्म)!
अपनी किताब की भूमिका में स्वीकारोक्ति के अंदाज़ में उन्होंने अपना परिचय कुछ यूं दिया हैः मेरा नाम एडवर्ड जोसेफ़ स्नोडेन है. मैं सरकार के लिए काम करता था, लेकिन अब जनता के लिए करता हूं...मैं अब अपना समय जनता को उस शख़्स से महफ़ूज़ रखने में खर्च करता हूं जो कि मैं हुआ करता था- केंद्रीय ख़ुफ़िया एजेंसी (सीआईए) और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) का एक जासूस, एक बेहतर दुनिया बनाने के बारे में कृतसंकल्प एक नौजवान तकनीकिज्ञ. अमेरिकी ख़ुफ़िया समुदाय (इंटेलिजेंस कम्युनिटी) में मेरा करियर महज़ सात साल का ही था. और मुझे ये जानकर हैरानी है कि ये पूरा वकफ़ा उस अवधि से एक साल ज़्यादा है जो मुझे उस देश में निर्वासित रहते हो गया है जिसका चुनाव मैंने नहीं किया था. उस सात साल के कार्यकाल के दौरान मैंने अमेरिका के जासूसी इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव में भागीदारी की थी- मैंने एक सरकार के लिए तकनीकी रूप से ये आसान बनाया था कि वो पूरी दुनिया के डिजिटल संचार को इकट्ठा कर सके, लंबे वक़्तों के लिए उन्हें स्टोर कर सके और जब मर्जी हो तब उनकी तलाशी ले सके.
इस किताब से रोंगटे खड़े कर देने वाले उस भूमंडलीय दुष्चक्र को समझने का एक रास्ता खुलता है जो आज अमेरिकी साम्राज्य की ख़ुफ़िया एजेंसियों का पूरी दुनिया में मास सर्विलांस के नाम पर मचाया हुआ है और दुनिया के बहुत से देश, लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भी इसमें अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं. आख़िर अमेरिकी एजेंसियां कैसे मास सर्विलांस कराने के लिए उद्युत हुई. स्नोडेन अपनी भूमिका में बताते हैं, 9/11 के बाद, इंटेलिजेंस समुदाय अमेरिका को बचाने से नाकाम रह जाने पर अपराधबोध से भरा हुआ था. पर्ल हार्बर के बाद देश पर ये सबसे विध्वंसक और तबाह कर देने वाला हमला था. इसके जवाब में, नेताओं ने सोचा कि ऐसा सिस्टम तैयार किया जाए कि हमें आइंदा कभी ऐसे औचक न पकड़ लिया जाए. इसकी बुनियाद में प्रौद्योगिकी होनी चाहिए थी लेकिन राजनीति शास्त्र के उनके पंडितों और बिजनेस प्रशासन के उस्तादों के लिए ये चीज़ परदेसी थी. सबसे गुप्त खुफिया एजेंसियों के दरवाजे मुझ जैसे युवा टेक्नोलॉजिस्टों के लिए खुल गए. और इस तरह धरती पर कम्प्यूटर के माहिर लोगों का अवतरण हो गया.
भूमंडलीय जासूसी ने नागरिकों को पीड़ित ही नहीं वांछित भी बना दिया है. यही इस समय की असाधरणता है या नव सामान्यता है जिसे स्नोडेन ने पहले अपने बेमिसाल नैतिक साहस के ज़रिए और अब इस किताब के ज़रिए फ़ाश करने की कोशिश की है. वो कहते हैं, मेरी पीढ़ी ने इंटेलिजेंस के काम को प्रौद्योगिकीकृत कर देने से कुछ अधिक ही किया था, हमने इंटेलिजेंस की परिभाषा ही बदल दी थी.यानी ये पीछा करने, खुफ़िया सूचनाएं देनें या खुफ़िया जगहों पर ख़ुफिया चीज़ें छिपाने जैसी पारंपरिक और पुरानी बातें नहीं रह गयी थीं. नये ख़ुफिया निजाम का संबंध डैटा से था, वो बिग डैटा जो आज कॉरपोरेट से लेकर गर्वनेंस तक धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है, थोक की मंडी सजी हुई है, बोलियां और निवेश के सौदे सजाए जा रहे हैं और सूचनाओं पर मुनाफ़ाख़ोर टूटे हुए हैं. ये बिग डैटा आता कहां से है. ये आता है हमारी डिजिटल और इंटरनेट गतिविधियों, वॉट्सऐप से लेकर फ़ेसबुक तक, जीमेल से लेकर अमेजन तक. ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर ऑनलाइन डेटिंग तक. हमारी आदतों से लेकर हमारे डिजिटल व्यवहार, हमारी पसंद नापंसद.  कम्प्यूटर और फोन से लेकर सीसीटीवी कैमरा तक और यही नहीं अपनी डिजिटल डिवाइसों और 24x7 की इंटरनेट उपलब्धतता के बीच हमारा अपना रोज़मर्रा का जीवन और संवाद भी बहुत छनछन कर डिवाइसों में जा रहा है जहां पहले से  किसी न किसी रूप में हमने उन तमाम ऐप्स या वेब सेवाओं को टर्मस ऐंड कन्डीशन्स पर टिक किया हुआ है. अपनी निजता को अंशतः अनजाने ही जारी करते हुए. 
वेब और तकनीकी से जुड़ी एजेंसियों के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में वॉटसऐप पर रोज़ाना 65 अरब संदेश भेजे जाते हैं. फ़ेसबुक पर एक हज़ार टेराबाइट(टीबी) से ज़्यादा का डैटा बन रहा है. ट्विटर पर 50 करोड़ ट्वीट हर रोज़ होते हैं औऱ करीब 300 अरब ईमेल यहां से वहां होते हैं. और भी सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर निर्मित हो रहा डैटा या जिन वेबसाइटों को हम अपने कप्म्यूटरों पर या मोबाइल फ़ोन पर खोलते हैं, देखते हैं, पढ़ते हैं, जो ऑनलाइन टिप्पणियां करते हैं, जो पसंद या नापंसद जाहिर करते हैं वो सब बिग डैटा का हिस्सा बनता जाता है और संख्या कल्पनातीत है. एक अनुमान ये है कि पूरी दुनिया में हर रोज़ साढ़े चार सौ एक्साबाइट (ईबी) से ज़्यादा का डैटा पैदा होता है. ( बाइट डिजिटल सूचना संग्रहण की इकाई है.  एक बाइट आठ बिट्स की होती है.) एक एक्साबाइट का मतलब है एक अरब गीगाबाइट. यानी हर रोज़ 20 करोड़ से ज़्यादा डीवीडी पर भरा जा सकने वाला डैटा. इसी कल्पनातीत डैटा पर सेंध लगाने की कोशिशें बहुराष्ट्रीय कंपनियां, ताकतवर कॉरपोरेट करते हैं और अब सरकारें भी पीछे नहीं रहना चाहती हैं. अमेरिका ने निगरानी का नशा दिखा दिया है कितना सफल,  और मुनाफ़े की खान सरीखा है. और देश पीछे क्यों रहे. और इन तमाम अभियानों, दुष्चक्रों, वाणिज्यिक-सामरिक-प्रशासनिक-ख़ुफिया मंतव्यों में नागरिकों की जगह कहां हैं. हम और आप कहां हैं और क्या हैं. उनके लिए हम भी उत्पाद  हैं.
स्नोडेन बताते हैं: “ई-कॉमर्स कंपनियों के उत्तराधिकारी जो इसलिए फेल हो रहे थे क्योंकि समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी दिलचस्पी क्या खरीदने में है, अब उनके पास बेचने के लिए नया उत्पाद आ गया था. वो नया उत्पाद हम थे. हमारा ध्यान, हमारी गतिविधियां, हमारी लोकेशन, हमारी इच्छाएं- हमारे बारे में जो भी सूचना या जानकारी हमने ही जाने या अनजाने ज़ाहिर की थीं या शेयर की थी, अब उन सूचनाओं की निगरानी की जा रही थी और गुप्त ढंग से उन्हें बेचा जाने लगा था, ताकि उल्लंघन के उस अवश्यंभावी अहसास को, जिसका अब जाकर हममें से अधिकांश लोगों को आभास होने लगा है, टालते रह सकें. और ये निगरानी, मुस्तैदी से प्रोत्साहित की जा रही थी, और सरकारों की फौज निगरानी के विशाल जखीरे के लिए इसे फंड भी कर रही थीं. शुरुआती दिनों में लॉग-इन और वित्तीय लेनदेन को छोड़कर कोई भी ऑनलाइन संचार इन्क्रिप्टेड नहीं था जिसका अर्थ ये है कि सरकारों को तब कई मामलों में कंपनियों के पास ये पूछने के लिए जाने की जरूरत भी नहीं थी कि उनके ग्राहक क्या कर रहे थे. वो किसी को भनक तक नहीं लगने देती और दुनिया की जासूसी करती रह सकती थी.
एक बात ग़ौरतलब है कि स्नोडेन के भंडाफोड़ के बाद खुफिया सिस्टम तो तिलमिलाया ही था, मास सर्विलांस की परियोजनाओं को भी बड़ी हद तक झटका लग चुका था. जर्मनी जैसे देशों ने सख्त आपत्तियां जताईं. खुद चांसलर आंगेला मर्केल के डिजिटल संचार हैक किए गए थे. भारी विरोध और एतराज़ों के बीच कई देशों और निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों और टेलीकॉम क्षेत्र से जुड़े संस्थानों ने अपनी निजी और आंतरिक परिधियों को प्रौद्योगिकीय लिहाज़ से मुस्तैद और सुरक्षित करने का सिलसिला शुरू किया. ये एक अलग कॉरपोरेट एक्सरसाइज़ थी. बहरहाल कंपनियों को बिग डैटा हासिल करने की चाहत के दूसरे सिरे पर ये भी देखना था कि उपभोक्ताओं का उनकी डिवाइसों और अन्य साजोसामान पर विश्वास कहीं टूट न जाए, कहीं ऐसा न हो कि उपभोक्ता अपनी निजता से समझौता करने वाली किसी कंपनी की डिवाइस से दूरी बना लें और बाजार में वो प्रोडक्ट पिटता चला जाए. तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएं इस विश्वास बहाली के लिए भी ली गईं और एनक्रिप्टेड सेवाएं सामने आई. ये डिजिटल सूचना जगत की अब तक की अभूतपूर्व और बहुत असाधारण उपलब्धि रही है, एनक्रिप्शन हो जाने के बाद कोई संदेश या दस्तावेज या तस्वीर या ग्राफ़िक विवरण चुरा लेना या हैक कर लेना या लीक होना कमोबेश असंभव हो गया बशर्ते कि इंटरनेट का इस्तेमाल किसी एनक्रिप्टड एम्बियन्स में हो रहा हो.
डैटा की निजता स्नोडेन घटनाक्रम के बाद थोड़ा बहाल हुई लेकिन इस पूरे उत्तर डिजिटल भूमंडल में सेंध लगाने के लिए सिर्फ़ देशों की सरकारों, राजनयिकों, सेनाओं, संदिग्धों, वांछितों का सूचना डैटा ही नहीं दूसरी तरह की बहुत सी सूचनाएं और सक्रियताएं हैं जिनसे बिग डैटा का निर्माण होता है,  जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, अलेक्सा, स्मार्ट वॉच, ब्लूटूथ, क्लाउड आदि ऐसी ही प्रविधियां हैं जिनके पीछे वहीं संस्थान हैं जो संदेशों और संवादों के इन्क्रिप्शन की सुविधा देकर, अन्य तरीकों से संदेश और व्यवहार रिकॉर्ड कर रहे हैं. कई कंपनियां इस गतिविधि में मुब्तिला हैं. सोर्स से लेकर आखिरी रिसीवर तक.  ये एक आक्रामक वाणिज्य है. प्रकट तौर पर नागरिक उपभोक्ताओं पर ज़रा भी खरोंच नहीं आती.  और गहराई से पता करेंगे तो निजता का अधिकार धूलधूसरित हो चुका होता है.  ई-कॉमर्स का एक दैत्याकार स्वरूप जिसके जबड़े में सूचना, नागरिक, उत्पाद, मुनाफ़ा- सब समाहित होता जाता था. स्नोडेन ने अपनी किताब में बताया है कि आखिर ये डिजिटल उपनिवेशीकरण का सिलसिला कैसे शुरू हुआ.
कॉमर्स को ई-कॉमर्स में बदलने की शुरुआती तेजी एक बुलबुले की ओर ले गई और फिर सहस्रत्राब्दी के मोड़ पर ढह गई. उसके बाद कंपनियों ने पाया कि जो लोग ऑनलाइन थे, वे खर्च करने में साझेदारी की अपेक्षा बहुत कम रुचि रखते थे. दूसरी बात कंपनियों को ये पता चल गयी कि जो मनुष्य संपर्क इंटरनेट ने संभव किया था उससे पैसा बनाया जा सकता है. अगर अधिकांश लोग इसलिए ऑनलाइन रहना चाहते थे कि अपने बारे में अपने परिवार, दोस्तों और अजनबियों को बता सकें और बदले में परिवार, दोस्त और अजनबी भी उन्हें बता सकें कि वे क्या कर रहे थे तो ऐसे में कंपनियों को सिर्फ़ ये पता लगाना भर था कि इन सोशल आदानप्रदानों के बीच में खुद को कैसे स्थापित करें और कैसे इस प्रक्रिया को लाभ में बदल दें.
अमेरिकी खुफ़िया सेवाओं, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएएसए) और केंद्रीय जांच एजेंसी (सीआईए)की निगरानी में स्नोडेन और उनकी टीम ने एक नयी तरह का कम्प्यूटिंग वास्तुशिल्प तैयार किया था- एक क्लाउड,” जिसकी बदौलत दुनिया में किसी भी कोने पर मौजूद हर एजेंट डैटा तक पहुंच सकता था और खोज सकता था, दूरी भले ही कुछ भी हो. स्नोडेन के मुताबिक इंटेलिजेंस के प्रवाह को मैनेज करने और उससे जोड़ने का काम, हमेशा के लिए उसका स्टोरेज कर सकने के तरीके खोजने के काम में बदल गया था, और ये काम भी ये सुनिश्चित करने के काम में तब्दील हो गया था कि इंटेलिजेंस सार्वभौम रूप से उपलब्ध और तलाशी के क़ाबिल रहे. एक भूमिगत पर्ल हार्बर युगीन पूर्व विमान फ़ैक्ट्री- मैं टर्मिनल पर बैठता था जहां से मुझे व्यवहारिक रूप से दुनिया के लगभग हर आदमी, औरत और बच्चे के संचार तक असीमित पहुंच थी जिन्होंने कभी फ़ोन डायल किया होगा या कम्प्यूटर को छुआ होगा. इन लोगों में मेरे 32 करोड़ सह अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे जिनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगियों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की ही नहीं बल्कि किसी भी मुक्त समाज के बुनियादी मूल्यों की धज्जियां उड़ाते हुए निगरानी रखी जा रही थी.स्नोडेन इसे ही निगरानी के पूंजीवाद (सर्विलांस कैपिटैलिज़्म) की शुरुआत कहते हैं और इंटरनेट का अंत भी.
अरुंधति रॉय ने स्नोडेन से अपनी मुलाक़ात में बताया कि सर्विलांस के बारे में एक सवाल के जवाब में स्नोडेन ने कहा था- अगर हम कुछ नहीं करते है, तो हम एक संपूर्ण निगरानी राज्य के भीतर नींद में चलने जैसा व्यवहार कर रहे होते हैं. हमारा एक सुपर स्टेट होता है जिसके पास दो तरह की असीमित क्षमताएं होती हैं- ताक़त को आज़माने की और सब कुछ (लक्षित लोगों के बारे में) जानने की- और ये एक बहुत ख़तरनाक काम्बनेशन है. ये एक अंधकार से भरा भविष्य है. वे हम सब के बारे में सब कुछ जानते हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते हैं- क्योंकि वे ख़ुफ़िया हैं, राजनीतिक वर्ग हैं, संसाधनयुक्त वर्ग हैं- हम नहीं जानते कि वे कहां रहते हैं, हम नहीं जानते हैं कि वे क्या करते हैं, हम नहीं जानते हैं कि उनके दोस्त कौन हैं. उनके पास हमारे बारे में ये सब चीज़ें जानने की क्षमता है. भविष्य इसी तरफ़ बढ़ रहा है, लेकिन मैं समझता हूं कि इसमें बदलाव की संभावनाएं भी निहित हैं. 
मास सर्विलांस से पहले स्नोडेन के मुताबिक इंटरनेट एक साझा फ़्रंटियर हुआ करता था जिस पर विविध प्रजातियों का निवास था, वे शोषक नहीं थे बल्कि एकदूसरे के साथ प्यार से रहते थे, क्योंकि वो संस्कृति  रचनात्मक और सहयोगी थी, कमर्शियल और प्रतिस्पर्धी नहीं. बेशक एक टकराव था, लेकिन अच्छाई और अच्छी भावनाएं उसे दरकिनार कर देती थीं- एक सच्ची पथ प्रदर्शक भावना. लेकिन आज का इंटरनेट पहचान में नहीं आता. ये ग़ौर करने वाली बात है कि ये बदलाव एक सोचसमझा विकल्प था, चुनिंदा प्रिविलेज्ड लोगों की ओर से सिस्टेमेटिक कोशिशों का नतीजा.सात साल की अपनी सीआईए वाया एनएसए वाया डेल की नौकरी के दौरान स्नोडेन को धीरे धीरे ये समझ में आया की डैटा संग्रहण और उसे सुरक्षित रखने की ये मारामारी क्यों की जा रही है. उन्हें इस बात का भी इल्हाम हुआ कि ये नागरिक अधिकारों का दमन भी था जिसका उन्हें अंदाज़ा भी न था. खुद को कोसते हुए स्नोडेन कहते हैं कि उनकी अंतरात्मा बार बार इस पूरे मामले को समझने और इससे बाहर निकलने के लिए ही नहीं इसका प्रतिरोध करने के लिए कह रही थी. लेकिन कैसा प्रतिरोध, वो क्या कर सकते थे कि इससे अलग हट जाएं या चुप होकर रिटायर हो जाएं या एक क्या करें क्या न करें की दुश्चिंता हथौड़े की तरह बजती रहती थी क्योंकि उन्हें ये भी लगता था कि दुनिया को ये जानने का हक़ था कि खुफ़िया एजेंसियां कितना बड़ा खिलवाड़ उनकी निजता के साथ कर रही हैं. और ये सब कानून और देशहित में अपरिहार्य भी बताया जा रहा था. स्नोडेन ने अपनी विचलित अवस्था का वर्णन कुछ यूं कियाः
मैंने खुद सेवा की शपथ ली थी, किसी एजेंसी के लिए नहीं, न ही किसी सरकार के लिए बल्कि जनता के लिए, संविधान के समर्थन और उसकी हिफ़ाज़त में, जिसकी नागरिक आज़ादियों की गारंटी का इतना खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया गया है. इस उल्लंघन का एक हिस्से से कुछ अधिक मैं भी थाः मैं इसमें शामिल था. सारा का सारा वो काम, वे सारे वर्ष- मैं किसके लिए काम कर रहा था? अपनी सीक्रेसी का अनुबध मैं उन एजेसिंयों के साथ कैसे संतुलित करता जिन्होंने मुझे काम पर रखा था और उस शपथ के साथ जो मैंने अपने देश के बुनियादी आदर्शों के नाम पर ली थी. मैं आखिर किसके प्रति और किस चीज़ के लिए ज्यादा जवाबदेह था. मैं आखिर किस मोड़ पर कानून तोड़ देने के लिए नैतिक तौर पर उपकृत या विवश था.
लेकिन स्नोडेन के अंतःकरण का आयतन संक्षिप्त नहीं था. उनमें धीरे धीरे जमा हो रहा साहस ही था कि आख़िरकार एक रोज़ वो फैसला कर पाए कि जीवन और घर परिवार को दांव पर लगाकर उन्हें क्या करना हैःकिसी देश की आज़ादी उसके नागरिक अधिकारों के प्रति उसके सम्मान से ही मापी जा सकती हैं और मेरा दृढ़ विश्वास है कि ये अधिकार ही एक तरह से राज्य सत्ता की सीमाएं हैं जो ठीक यही परिभाषित करती हैं कि सरकार कहां और कब निजी या वैयक्तिक आज़ादियों के डोमेन में दख़ल नहीं दे सकती है जिसे अमेरिकी क्रांति के दौरान लिबर्टी कहा गया था और इंटरनेट क्रांति के दौर में प्राइवेसी कहा जाता है. 
स्नोडेन ने भीषण आंतरिक आपाधापी, यातना, उधेड़बुन, डर, चिंता और अनिद्रा और मिरगी के आघातों के बीच एक रोज़ दफ्तर से मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर कुछ दिनों का अवकाश ले लिया. इससे पहले अपनी लाइफ़ पार्टनर को कहा कि वो कुछ दिन के लिए एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में बाहर रहेंगे. लिंडसे को जिस दिन दूसरे शहर निकलना था उसी दिन स्नोडेन ने अपने बैंक खाते से सारे पैसे निकाले. कुछ घर पर ही एक जगह ऐसे रख दिए जहां घर के लोगों को आसानी से मिल जाएं, अपने कम्प्यूटर और अन्य उपकरणों के सारी सूचनाएं हमेशा के लिए इरेज़ कर दीं. अपने डेस्कटॉप और अन्य डिजिटल चीज़ों को इन्क्रिप्ट किया अपने साथ वो चिप रख ली जिस पर लाखों करोड़ों बाइट्स की वे सूचनाएं थीं जो स्नोडेन ने एजेंसियों के कम्प्यूटरों और सर्वरों से कई दिनों की भयावह मशक्कत के बाद स्टोर कर लेने में सफलता हासिल कर ली थी और जिन सूचनाओं को सबूत के तौर पर उन पत्रकारों को दिया जाना था जिनके चयन में भी स्नोडेन की रातों की नींद कई कई तक गायब रही थी. आखिरकार वे दो पत्रकार चुन पाए थे, जिनके ज़रिए पूरी दुनिया के मीडिया में खबर ब्रेक हो पाई थी. तीन चार लैपटॉप और बहुत चतुराई और सावधानी से चिप को अपने शरीर में रखकर स्नोडेन एयरपोर्ट को निकले, हॉंगकांग का टिकट लिया, चेकइन कराते हुए विमान पर बैठ गए और एक लंबी गहरी सांस ली. पकड़े न जाने की, मुक्त हो जाने की और घर परिवार देश से दूर एक नये लेकिन अनिश्चित और संभावित डरावने अंजाम की ओर रवाना होने की.
स्नोडेन कम्प्यूटरविद् हैं लेकिन उनकी भाषा सपाट , बहुत अधिक तेज़ी से भागती, अपना गुणगान करती हुई, ख़ुद से चमत्कृत होती हुई और तकनीकी भारीपन से घिरी हुई भाषा नहीं है. वे मंझे हुए शांतचित्त गंभीर और ज़िम्मेदार लेखक की तरह अपनी दास्तान को प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के साथ सुना पाते हैं. और ये कहानी एक थरथराते हुए रोमांच से आपको रूबरू कराती है, और पूरी किताब एकबारगी पढ़ने को विवश करती है. संघर्ष की समझ की और चेतना की रूपरेखाओं का निर्माण किसी व्यक्ति के भीतर किस तरह होता है- उसकी जटिल बारीक और पारदर्शी प्रक्रिया समझने के लिए ये भी किताब कारगर है. स्नोडेन अपनी भूमिका में एक जगह लिखते हैं- पत्रकारिता को अवैद्य बनाने की चुने हुए नेताओं की कोशिशों को सच्चाई के सिद्धांत पर चौतरफा हमले से मदद और हवा मिली है. जो सच है उसे जानबूझकर एक मक़सद के साथ, जो फर्जी है, उसके साथ मिलाया जा रहा है, उन प्रौद्योगिकियों के ज़रिए जो उस मिलावट को एक अभूतपूर्व और अविश्वसनीय वैश्विक असमंजस के स्तर तक पहुंचा देने में समर्थ हैं. मैं इस प्रक्रिया को बहुत क़रीब से जानता हूं. क्योंकि काल्पनिकताओं का निर्माण, इंटेलिजेंस समुदाय की हमेशा से सबसे काली कला रही है.
स्नोडेन की किताब के कुछ हिस्सों को पढ़ते हुए हिंदी कवि वीरेन डंगवाल की कविता राम सिंह की याद भी सहसा आ जाती है. भारत में इंटरनेट युग के आगमन से बहुत पहले (संभवतः 1970 में) की इस कविता में रामसिंह नामक फ़ौज़ी किरदार से कवि पूछ रहा हैः
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगुली हो?
किसका उठा हुआ हाथ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार?
कौन हैं वे, कौन?
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं....

21वीं सदी का दूसरा दशक ख़त्म होते होते एक कम्प्यूटरविद् और टेक्नोलॉजिस्ट और भूतपूर्व जासूस एडवर्ड स्नोडेन ने अपनी किताब के ज़रिए कुछ जवाब निकाले हैं. लेकिन इसके लिए अपना जीवन अनिश्तितताओं और अवश्यंभावी ख़तरों के प्रछन्न भूगोलों में डुबो दिया है. उन्हें ढूंढने के लिए कलेजा चाहिए. स्नोडेन कहते हैं, अपने प्रियजनों की निजता का बचाव करते हुए और वैधानिक सरकारी गोपनीयताओं को भंग किए बिना अपनी जीवनी लिखना साधारण कार्य नहीं है. लेकिन यही मेरा काम है. इन दो जिम्मेदारियों के बीच की किसी जगह पर मुझे ढूंढा जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि सरकारों को खुफ़िया सूचनाएं लेने का अधिकार नहीं हैं. कानून व्यवस्था के लिए अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए और शांतिपूर्ण व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्नोडेन के मुताबिक सब जानते हैं कि सरकार कुछ सूचनाओं को छिपाए रख सकती है. यहां तक कि दुनिया के सबसे पारदर्शी लोकतंत्र को भी कुछ सूचनाओं को क्लासीफाइड करने की इजाज़त दी जा सकती है, उदाहरण के लिए, अपने अंडरकवर एजेंटों की पहचान और युद्ध के मैदान पर अपनी फ़ौज की मूवमेंट को ज़ाहिर नहीं कर सकते. स्नोडेन कहते हैं कि उनकी किताब में वैसा कोई सीक्रेट नहीं है. उनकी किताब बस यही बताती है कि कैसे अपने संविधान की अवहेलना कर लोगों की निजता से खिलवाड़ किया गया. ये वे एजेंसियां हैं जो अपहरण को असाधारण प्रस्तुतिकरण, टॉर्चर को परिष्कृत पूछताछ और जन-निगरानी (मास सर्विलांस) को थोक सूचना संग्रहण कहती हैं और युद्धों के झूठ को महिमामंडित करने में सरकारों की मदद करती हैं.  ठीक उसी तरह जैसे लातिन अमेरिकी देश, उरुग्वे के महान लेखक पत्रकार एदुआर्दो गालियानो ने अपनी किताब डेज़ ऐंड नाइट्स ऑफ़ लव ऐंड वॉर में सत्ता समय पर अपनी शार्प भाषा-निगाह में लिखा था, मेरे देश में आज़ादी राजनैतिक क़ैदियों के लिए जेल का नाम है और लोकतंत्र आतंक के विभिन्न साम्राज्यों का एक टाइटल है, प्रेम से तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति का अपनी कार से क्या रिश्ता है. और क्रांति वो है जो एक डिटर्जेंट आपकी किचन में कर सकता है, महिमा एक मुलायम से साबुन का प्रभाव है जो इस्तेमाल करने वाले के भीतर पैदा होता है. और ख़ुशी वो उत्तेजना है जो हॉट डॉग खाते हुए अनुभव की जाती है. लातिन अमेरिका में एक शांतिपूर्ण देश का अर्थ है- एक सुव्यवस्थित क्रबिस्तान और बाज़दफ़ा तंदुरस्त आदमी”’ से आशय होता है एक कमज़ोर आदमी.
घोर वाणिज्यिक अंधकारों में भटकती और रोज़ नयी चुनौतियों का सामना करती पत्रकारिता और नये मीडिया के छात्रों, शोधार्थियों, साहित्यकारों, विद्वानों और डिजिटल मीडिया के पेशेवर उस्तादों के लिए भी ये किताब एक रेफ्रेंस का काम कर सकती है. इसे नागरिक सजगता के साथ और एक पेशेवर नैतिकता के हवाले से भी पढ़ा जा सकता है. निजता की हिफ़ाज़त की लड़ाई अब अधिक कठिन हो चुकी है. इसे व्यापक होना था लेकिन सूरतेहाल दिखाते हैं कि नागरिक चिंताएं सिकुड़ रही हैं, स्पेस सिकुड़ रहा है, जनता को एक आकर्षक, लुभावने और सैन्यपराक्रम से सज्जित विभूषित वितंडाओं में उलझाया जा चुका है. अपनी लड़ाइयां और अपने अधिकार ऐसे किनारे रख दिए जा रहे हैं जैसे उनके बारे में सोच लेना भी जघन्यता हो या किसी अनिष्ट को न्यौता. लेकिन इन्हीं डरी हुई अवस्थाओं और अवधियों से ऐसे साहसी भी निकल रहे हैं, जिनकी झलक हम निर्वासित स्नोडेन में देख सकते हैं. और साहस और नैतिक आदर्शों के ऐसे ही उदाहरण भूमंडलीय सत्ता-निरंकुशताओं को चुनौती दे रहे हैं.

 (शिवप्रसाद जोशी का यह लेख यहाँ `समयांतर` के नवंबर 2019 से साभार लिया गया है।)


Saturday, October 12, 2019

कविता के अनुर्वर प्रदेश की ज़रख़ेज़ ज़मीन

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह में शुभम श्री आई नहीं थीं। अच्युतानंद मिश्र पहले ही कविता पढ़ चुके होंगे। अदनान कफ़ील दरवेश पढ़ रहे थे। उनकी तस्वीरों और कविताओं से तो परिचय था पर उन्हें रूबरू सुनने का यह पहला मौक़ा था। उन्हें पढ़ना जितना अच्छा लगता है, सुनना उससे भी बेहतर था। वे कविता के नाम पर अललटप कुछ भी करते हुए इस वक़्त से नज़रें चुराने वाले कवियों में नहीं हैं। वे भाषा और कविता की तमीज़ वाले कवि हैं। प्रेम, सौंदर्य, एक तरह की शाइस्तगी उनके यहाँ है पर एक गहरी बेचैनी के साथ और वे अपने वक़्त की विडंबनाओं से वाबस्ता हैं, जिन्हें वे रेटरिक का सहारा लिए बग़ैर शिद्दत के साथ बयान करते हैं।

और फिर विहाग वैभव कविता सुनाने के लिए खड़े हुए। आह! इस वक़्त ऐसा साहसी कवि! कविता सुनने से पहले उन्हें देखकर ख़ुशी हुई। जैसे किसी ज़माने में किसी कवि या लेखक को देखने से होती थी कि ये है वो शख़्स जिसका लिखा मुझे इतना पसंद है। सामने विहाग थे कविता सुनाने के लिए और पीछे श्रोताओं में ऐसे ही प्रिय कवि उनके छोटे भाई पराग पवन।

विहाग की कविता का दुर्लभ सौंदर्य उसके खरेपन में है। उस साहस में जिसका इस फ़ासिस्ट दौर में लगभग अभाव है। वे रेटरिक के कई मशहूर पूर्ववर्ती कवियों से इस तरह अलग हैं कि वे फासिस्टों को फासिस्ट कहने के लिए प्रतीकों की ओट नहीं लेते। रेटरिक के फैशनेबल कवियों की तरह उनकी कविता कोरी गुस्सैल कविता नहीं है, वह बेहद मार्मिक, संवेदनशील, अपमान और व्यथा को वहन करने वाली और चुनौती पेश करने वाली कविता है। उनकी ताक़त, उनकी संवेदना, उनके हौसले का स्रोत दालित-उत्पीड़ित जन के संघर्षों, उनके अपमानों, उनके दुखों और उनके गुस्से में है। कवि वहीं पर है। विहाग ने 'लगभग फूलन के लिए' कविता भी सुनाई जिसमें वे यह भी पूछते हैं -

"अब जब अय्याश ज़ुबानों के कथकहे फूलन को हत्यारिन कहते हैं
तब मैं पूछना चाहता हूँ गुजरात की नदियों में जिसने पानी की जगह ख़ून बहाया, वह कहाँ है
कहीं वह देश का नेतृत्व तो नहीं कर रहा ?

मैं भोपाल और मुज़फ़्फ़रनगर पूछना चाहता हूँ
बाबरी और गोधरा पूछना चाहता हूँ
उन सभी हत्या-कांडों के बारे में पूछना चाहता हूँ
जो समाजसेवा की तरह याद किये जाते रहे हैं"

दिल्ली के त्रिवेणी में हुए भारत भूषण पुरस्कार से जुड़े रज़ा फाउंडेशन के इस कार्यक्रम की बदौलत मुझे 'उर्वर प्रदेश' पढ़ने की प्रेरणा भी हुई। मर्हूम कवि भारत भूषण अग्रवाल की बेटी अन्विता अब्बी ने इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की शुरुआत किस तरह हुई, किस तरह इस पुरस्कार से जुड़े कवि भविष्य के बड़े कवि साबित हुए और किस तरह पुरस्कृत कविताओं के संग्रह शोधार्थियों के लिए मानक रेफरेंस सामग्री बन चुके हैं, वगैरा बातों पर रोशनी डाली। उन्होंने मंच पर ही विराजमान अरुण कमल की तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि पहली ही पुरस्कृत कविता 'उर्वर प्रदेश' नाम से ही पुरस्कृत कविताओं के संग्रह निकाले गए। अशोक वाजपेयी ने गर्व से कहा कि वे यह श्रेय लेना चाहेंगे कि 'उर्वर प्रदेश' को पुरस्कृत करने का फ़ैसला उनका था। उन्होंने चयन प्रक्रिया के उस नियम का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक निर्णायक मंडल के किसी एक सदस्य को एक वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करना होता है और बाक़ी सदस्यों को उससे सहमत होना ही होता है।

इस कार्यक्रम से लौटते ही मैंने सबसे पहला काम 'उर्वर प्रदेश' को तलाश करके पढ़ने का किया। एक बार-दो बार और बार-बार। यह स्वीकार करते हुए भी कि कविता को समझ पाने की तमीज़ मुझे नहीं है, मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि इस कविता में ऐसा क्या है जो अशोक वाजपेयी अपनी पीठ थपथपा रहे थे। यह 1980 की सर्वश्रेष्ठ कविता कैसी थी? क्या 1980 कविता की दृष्टि से इतना बंजर था?
नेट पर उपलब्ध जानकारी के मताबिक, इस कविता के पक्ष में अशोक वाजपेयी ने ये ख़ूबियाँ गिनाईं थीं - "सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन, और आत्मीयता"।

यहां 'संयत कला अनुशासन' दिलचस्प है। 1980 इमरजेंसी के ठीक बाद का समय। अनुशासन इमरजेंसी का नियंत्रणकारी शब्द था। सन्त भी इमरजेंसी को अनुशासन पर्व कह रहा था और कवि भी संजय गांधी के लिए नारों में यही शब्द इस्तेमाल कर रहा था। 'दूरदृष्टि, कठिन अनुशासन...।' अशोक वाजपेयी अंतर्दृष्टि और संयत अनुशासन कह रहे हैं। सवाल यह है कि वे किस ख़तरे से घबराकर कला को  कंट्रोल्ड डिसिप्लिन दायरे में देखने के हिमायती थे। उस वक़्त कविता में ऐसा क्या 'ख़तरनाक' घटित हो रहा था जो उन्हें संयत कला अनुशासन की दुहाई देकर ऐसी निष्प्राण, फुसफुसी, अनुर्वरता को मानक की तरह पेश कर पुरस्कृत करने की जरूरत पड़ी? 1980 से पहले और 1980 में कविता में देश-दुनिया में जिस तरह की सामाजिक-राजनीतिक हलचलें थीं, हिन्दी कविता में वे शानदार ढंग से मौजूद थीं। क्या यह चीज़ अशोक वाजपेयी को असंयत, अराजक, परायी और अंतर्दृष्टिविहीन लगी होगी और यह पुरस्कार 'कविता की वापसी' के नाम पर निष्प्राण-राजनीतिक दृष्टिविहीन कविता का स्पेस बनाने के लिए उठाया गया राजनीतिक पैंतरा था? ऐसा पैंतरा जिसके लिए प्रगतिशील-वाम खेमे के कहे जाने वाले उस समय के कई महत्वाकांक्षी कवियों का समर्थन आसानी से हासिल था।

नेट पर 'उर्वर प्रदेश' कविता की तारीफ़ और आलोचना में तरह-तरह की बातें मिलीं। यह भी कि कविता में अंकुर जहां नवजीवन के प्रतीक हैं, वहीं अंत में जलकुंभियां विनाशकारी-अनिष्टकारी। मैं शायद अपनी इलाक़े वाली भाषाई सीमाओं की वजह से शुरुआत में ही 'पोटली में बंधे बूटों ने फेंके हैं अंकुर' पर असहज हुआ। अपने यहां भी 'खाना डाल दो', 'बच्चे को स्कूल में डाल दो' जैसे भाषाई प्रयोग कोफ़्त पैदा करते हैं पर 'फेंके हैं अंकुर' मेरे लिए नया है। अंकुर फूटना, अंकुर निकलना और ये फेंकना! ख़ैर, ये बाल की खाल हो सकती है पर इस कविता को समझने की उत्सुकता मुझमें है और किसी अच्छे व्याख्याकार को पढ़ने की चाह भी।

कमाल की बात यह है कि 'उर्वर प्रदेश' के नाम पर जिस कविता की वापसी की कोशिश की गई होगी, वह कल मंच पर मौजूद तीनों पुरस्कृत कवियों की कविता नहीं थी। वह वही कविता थी शायद जिसे नियंत्रित-अनुशासित करने की चाह में 1980 में सारी कवायद की गई होगी।
***

अरुण कमल की कविता

उर्वर प्रदेश


मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बंधे हुए बूटों ने
फेंके हैं अंकुर
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों, कपडों और निर्ज़न हवा की
फेंटी हुई गंध

पड़ी है चारों और धूल की एक पर्त
और जकडा है जग में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएं करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ।

तट की तरह स्थिर,पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल -
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बंधे हुए बूटों ने फेंके है अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे ये अंकुर

खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली सा हिलाती

मुझसे बाहर
मुझसे अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है सारा संसार

आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद
आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रान्त का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जल्कुम्भियों का घना संसार भरे।

Monday, September 2, 2019

सत्याग्रही का साम्प्रदायिक इस्तेमाल : धीरेश सैनी



कल (इतवार) कई सालों बाद एनएसडी में जाकर कोई नाटक देखा। गाँधी पर केंद्रित यह नाटक `पहला सत्याग्रही` देखने जाने की एकमात्र वजह इसके लेखक रवीन्द्र त्रिपाठी रहे। वही इस कशमकश की वजह हैं कि नाटक ने जो निराशा और क्षोभ पैदा किया है, उसका ज़िक्र करुं, न करुं और करुं तो कैसे करुं। एक तरीक़ा यह सोचा कि नाटक की अच्छाइयों पर कुछ तबसरा करते हुए वह नागवार बात कहूं जो कहना चाहता हूँ। बार-बार लिखने और डिलीट करने के बाद लगा कि ऐसे में अपना जो ढंग है, वही काम आ सकता है। जो बात कहे जाने के लिए मजबूर कर रही है, उसे सीधे कहा जाए। नाटक गाँधी के जरिये सत्ता में बैठे लोगों के साम्प्रदायिक इरादों को प्रचारित करता है। हैरानी यह है कि इस नाटक के लेखक के रूप में रवींद्र त्रिपाठी जैसे उस पढ़े-लिखे शख़्स का नाम जुड़ा है जिसके प्रति आकर्षण की शुरुआत उसकी विष्णु खरे से हुसेन पर लिखे गए एक लेख (खरे के) को लेकर वैचारिक भिड़ंत थी।

एक घंटे 50 मिनट का यह नाटक जो निर्देशक सुरेश शर्मा के मुताबिक, गांधी से महात्मा बनने की गाथा है, दक्षिण अफ्रीका में गाँधी को रेल के प्रथम श्रेणी के कोच से बाहर फेंकने से उनकी हत्या तक जाता है। जहाँ तक गांधी से महात्मा बनने की गाथा की बात है, श्याम बेनेगल एक प्रभावी फिल्म The Making of the Mahatma बना चुके हैं। सत्ता के चरित्र को देखते हुए उसके अधीन आने वाले किसी संस्थान में खेलने के लिए गाँधी पर शायद कोई ऐसा नाटक तैयार किया जा सकता था जो पूरी तरह राजनीतिक गाँधी की राजनीति को छुए बिना आध्यात्मिक सी, भले मानुस की सी, देवता की सी छवि बनाकर काम चला लेता। जैसा कि निर्देशकीय में कहा गया है, ``मैं इस चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहता था कि स्वाधीनता संग्राम में गांधी जी का क्या-क्या योगदान रहा। उस समय के उनके समकालीन नेताओं के साथ उनके क्या-क्या संवाद हुए, कहां-कहां विचारों पर मतभेद, किन-किन नेताओं के विचारों के साथ उनकी सहमति थी इत्यादि।`` अफ़सोस कि यह दावा ठीक नहीं है।

यह नाटक बेहद सचेत ढंग से और बेहद सलेक्टिव ढंग से गाँधी के मतभेद पर फोकस करता है। भारतीय नेताओं से मतभेद के रूप में कई बार एक ही नाम आता है, वो जिन्ना का है या फिर मुस्लिम लीग का। इसके अलावा देश में कोई और राजनीतिक विचार, संगठन या शख़्स थे, जिससे गाँधी असहमत थे या जो गाँधी के ख़िलाफ़ थे, उनको लेकर नाटक ख़ामोशी ओढ़े रहता है। नाटक के बीच में आता है कि जिन्ना और मुस्लिम लीग विभाजन की मांग उठाते हैं। जिन्ना की वजह से नोआखाली हो जाता है।  नाटक के एक आख़िरी दृश्य में जो काफ़ी प्रभावी ढंग से रचा गया है जिसमें बूढ़े गाँधी दक्षिण अफ्रीका वाले युवा बैरिस्टर मोहन से संवाद कर रहे होते हैं तो भी अकेला नाम जिन्ना ही विभाजन के लिए जिम्मेदार होता है।

दक्षिण अफ्रीका की घटनाओं और चम्पारण के अलावा जिस घटना पर सबसे ज़्यादा फोकस किया गया है बल्कि सबसे ज़्यादा अग्रेसिव ढंग से किया गया है, वह है नोआखाली के दंगे। `जिन्ना के डाइरेक्ट एक्शन` से हुए दंगों की ख़बर पाकर व्यथित गाँधी वहाँ पहुंच जाते हैं। मुसलमानों को नसीहत देते हैं कि स्त्रियों का अपहरण और बलात्कार क़ुरान का अपमान है। हिंदुओं को अपने घरों में लौटने के लिए कहते हैं और पीड़ितों के लिए सेवा कार्य करते हैं। दंगों का लाइव करने में नाटक का लेखक या निर्देशक कौन अपनी रचनात्मकता के `शिखर` पर पहुंचता है, यह वे दोनों तय कर लें। गोल टोपियां पहने मुसलमान हिंदू स्त्रियों को घेरते हैं। पीले वस्त्रों वाले जोगी-जोगिन नोआखाली की व्यथा गाते हुए गुज़रते हैं। इस दौर में करियर के उज्जवल भविष्य के लिए और क्या चाहिए? बंगाल का हिंदू इलीट क्या कर रहा था, गाँधी की हत्या तक देश में जिन्ना के अलावा भी क्या कोई और ताक़तें थीं जो थोड़ा-बहुत साम्प्रदायिकता या देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार थीं, नाटक नहीं बोलता। हिन्दू महासभा, आरएसएस, आर्य समाज के लोग क्या कर रहे थे, नाटक नहीं बताता। क्या नोआखाली के अलावा भी दंगे हुए? हाँ, नाटक स्वीपिंग कमेंट स्टाइल में बताता है कि नोआखाली की प्रतिक्रिया में बिहार में। शायद कलकत्ते में भी। 1947 तक गाँधी दिल्ली तक में किस तरह जूझ रहे थे और पटेल तक से कैसे उन्हें उलझना पड़ रहा था, यह नाटक नहीं बताता। बस जिन्ना, मुस्लिम लीग और मुसलमान अपवाद हैं। इधर पंजाब में भी क्या हुआ और दिल्ली व आसपास भी क्या हो रहा था, उसे दिखाने की ज़रूरत होती तो रवींद्र त्रिपाठी और सुरेश शर्मा क्या लिखते-दिखाते? तब हत्यारों और बलात्कारियों के सिरों पर गोल टोपियों ही पहनाई जातीं या उनका रंग काला-पीला होता? अच्छा है, पंडितजी द्वय इस चक्कर में नहीं पड़े। गाँधी की हत्या दिखाई गई पर इस तरह कि नहीं दिखाई गई। अपनी मृत्यु के आभास का उल्लेख करते हुए गाँधी प्रार्थना सभा में मतलब मंच से ग्रीन रूम में चले जाते हैं और अँधेरे में गोलियां चलने की आवाज़ें आती हैं। वे कौन हैं जिन्होंने गाँधी को मारा, नहीं पता। दर्शक मान सकते हैं, नोआखाली वाले गोल टोपी वाले मुसलमान ही होंगे, नाटक में हत्यारे और बलात्कारी वही तो हैं।

(मुसलमानों का अभिनय कर रहे कलाकारों के पहनवावे की बात से नोआखाली गए गाँधी से प्रभावित होकर उनके अभियान में शामिल हुई ग़रीब बुर्के वाली औरत भी याद आ रही है। उन दिनों का पता नहीं, पर आज भी बुर्का बंगाल की महिलाओं का प्रतिनिधि पहनावा नहीं है। सूती साड़ी शायद वो असर न पैदा करती? गाँधी के अभिवादन के बदले बंगाली मुसलमान का नोमोस्कार के बजाय सलाम वालेकुम/“सलाम अलैकुम ज्यादा ऑथेंटिक होगा? हिन्दू गाँधी के हाथ पर बंधे कलावे के लिए भी तो तारीफ़ हो। यही छोटी-छोटी पकड़ तो लेखक और निर्देशक को 'विश्वसनीय' बनाती हैं।)

गाँधी को अगरबत्ती दिखाने के बाद उनके भजन से शुरू हुआ नाटक उनके भजन पर ही सम्पन्न हो जाता है। बा को `श्री रामचन्द्र क़ृपालु भजमन` पहले ही सुनाया जा चुका होता है। नाटक में और भी गीत हैं। एकला चला रे भी और कुछ लोकगीत शैली वाले भी। गाँधी की स्वच्छता अभियान वाली छवि भी है। और सर्व धर्म सद्भाव व दूसरी बहुत सारी अच्छी-अच्छी बातें हैं जिन्हें आप एनएसडी के सम्मुख सभागार में आज सोमवार शाम 6.30 बजे ख़ुद गाँधी के सहयोगी महादेव देसाई, प्यारे लाल, सोनिया शलेसिन, कैलिन बाख और जोसफ के. डोक के मुंह से सुनेंगे तो और अच्छी लगेंगी।

शुरू में ही मैंने उन रवींन्द्र त्रिपाठी का ज़िक्र किया था जिन्होंने विष्णु खरे के हुसेन पर लिखे का कड़ा प्रतिवाद किया था। याद है कि जनसत्ता में हुसेन पर छपे विष्णु खरे के लेख का तब सबसे पहला प्रतिवाद मैंने अपने ब्लॉग पर लिखकर किया था जिसका शीर्षक था - `हुसेन प्रकरण : क्या विष्णु खरे ने बूढ़े कन्धों से सेक्युलरिज्म का `भार` उतार फेंका?` मैं किसी निर्देशक सुरेश शर्मा को नहीं जानता। अपने उसी प्रिय लेखक रवीन्द्र त्रिपाठी को ही जानता हूँ। सवाल है कि क्या रवींद्र त्रिपाठी ने भी अपने कन्धों से कुछ उतार फेंका है?

Saturday, April 27, 2019

समझौता एक्सप्रेस: न्याय की गाड़ी पटरी से कैसे उतरी?- धीरेश सैनी

`हालांकि ऐसा हो सकता है कि उनका मामला लंबा खिंचे लेकिन उन्हें जरूर रिहा कर दिया जाएगा।`
`द कैरवैन` में फरवरी 2014 में छपी लीना रघुनाथ की स्टोरी के मुताबिक असीमानंद ने उनके साथ इंटरव्यू में आतंकी गतिविधियों में अपनी संलिप्तता और इस बारे में आरएसएस लिंक की बात स्वीकार करने के साथ यह उपरोक्त पंक्ति भी बोली थी। स्वामी असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस विस्फोट केस में भी एनआईए कोर्ट ने 21 मार्च 2019 को बरी कर दिया है। इस केस के चारों आरोपियों असीमानंद, कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा के बरी हो जाने के साथ ही आतंक की इतनी बड़ी वारदात `अनसुलझी` रह गई है। लेकिन, इस `राष्ट्र-राज्य` और सरकार के लिए इस केस की शुरुआती जांच से खड़े हुए सवाल जस के तस बरक़रार हैं। इनकी वजह से ही एक नया सवाल पैदा होता है कि असीमानंद और इस केस के दूसरे आरोपी बरी हुए या सरकार के इशारे पर नैशनल इनंवेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) ने उन्हें बरी होने दिया। जिस समय यह लेख प्रेस में जाने के लिए तैयार है, स्पेशल एनआईए कोर्ट के जज जगदीप सिंह के फैसले का सार अखबार में शाया हो चुका है कि एनआईए ने केस के ज़रूरी साक्ष्यों को दबा दिया। उन्हें रिकॉर्ड पर लाया ही नहीं गया।

गौरतलब है कि इस आतंकवादी वारदात में जांच जिन नामों तक पहुंची थी, उनमें से कई आरएसएस से जुड़े बड़े नाम थे। खास बात यह है कि केस की शुरुआती जांच करने वाली हरियाणा पुलिस की इस एसआईटी के प्रमुख रहे सीनियर आईपीएस (अवकाश प्राप्त) विकास नारायण राय भी इस केस में जुडिशल ट्रायल को लेकर संतुष्ट होने के बावजूद एनआईए की भूमिका को लेकर सवाल खड़े करते हैं। हरियाणा पुलिस की एसआईटी की लाइन ऑफ इन्वेस्टीगेशन पर क़ायम विकास कहते हैं कि सरकार यूपीए की रही हो या एनडीए की और जांच एजेंसी सीबीआई रही हो या एनआईए, जांच की लाइन वही रही जो उनके नेतृत्व वाली हरियाणा पुलिस की एसआईटी ने इस्टेबलिश की थी। चार्जशीट भी उसी पर जारी हुई और गवाहियां भी उसी पर हुईं।

समझौता एक्सप्रेस केस में असीमानंद समेत चारों आरोपियों के बरी हो जाने के बावजूद फैसले में जज ने जो कहा, वह सरकार और उसकी जांच एजेंसी एनआईए दोनों के लिए शर्मनाक है। स्पेशल एनआइए कोर्ट के जज जगदीप सिंह ने 160 पन्नों के अपने फैसले में साफ़ कहा है कि अभियोजन पक्ष द्वारा दबा लिए गए सबूत रिकॉर्ड पर नहीं लाए गए। जिन स्वतंत्र गवाहों का हवाला दिया गया, उनसे पूछताछ नहीं कि गई। अभियोजन पक्ष को सपोर्ट न करने वाले गवाहों से जिरह तक नहीं की गई। आरोपियों की किसी मीटिंग, अपराध को लेकर किसी तरह की सहमति या अपराध में उनके शामिल होने को लेकर कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया। अपनी स्टोरी के पक्ष में एनआईए ने न सीसीटीवी फुटेज खंगालकर पेश करने की ज़रूरत महसूस की, न उन डोरमेट्रीज के रेकॉर्ड जुटाए गए जहां आरोपियों के ठहरने की बात कही गई थी। आरोपियों की यात्रा का भी कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया। यहां तक कि मौका ए वारदात से मिले सूटकेस के कवर इंदौर की जिस दुकान पर सिले होने की बात जांच में सामने आई थी, उस महत्वपूर्ण साक्ष्य को भी सुचारु जांच प्रक्रिया के अभाव में बेकार जाने दिया गया। प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डांगे और असीमानंद के बीच फरवरी-मार्च 2007 में होती रही बातचीत के कॉल रिकॉर्ड का दावा तो किया गया पर इस सम्बंध में न कॉल रिकॉर्ड, न मोबाइल फोन या कोई सम्बंधित साक्ष्य ही अदालत में पेश किया गया। (देखें, Indian Express 29 मार्च 2019)

गौरतलब है कि पाकिस्तान जा रही समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा के पानीपत शहर के पास 18 फरवरी 2007 को किए गए विस्फोट में 68 लोग मारे गए थे जिनमें से अधितर पाकिस्तान के नागरिक थे। इस विस्फोट में ट्रेन के दो डिब्बे पूरी तरह जल गए थे। इस बात को लेकर कभी कोई दोराय नहीं रही कि यह एक बड़ी आतंकी वारदात थी। सवाल यह था कि इस वारदात के पीछे कौन सा आतंकी संगठन है। `हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है` जैसे सवाल उछालकर आरएसएस से जुड़े उग्र हिंदुत्ववादी तत्व मुसलमानों को आतंकवाद का पर्याय प्रचारित करते ही रहे थे। यूं भी विभिन्न आतंकवादी घटनाओं में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के नाम आते रहे थे। हरियाणा पुलिस की जांच में आरएसएस से जुड़े लोगों के नाम सामने आने से पहले तक इस विस्फोट के पीछे भी सिमी या किसी अन्य मुस्लिम कट्टरवादी संगठन की भूमिका की आशंका जताई जा रही थी।

हरियाणा पुलिस के पूर्व महानिदेशक विकास नारायण राय उस समय पानीपत से लगे करनाल जिले के मधुबन में स्थित हरियाणा पुलिस एकेडमी के डायरेक्टर थे। यह संयोग था कि केस की जांच के लिए गठित की गई हरियाणा पुलिस की एसआईटी के नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई थी। विकास बताते हैं कि जब यह वारदात हुई थी, उसके दो दिनों बाद दिल्ली में भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश मंत्रियों के स्तर की वार्ता प्रस्तावित थी। उन्हें भी लगा था कि यह विस्फोट इस बातचीत को पटरी से उतारने के लिए ही किया गया है और इसके पीछे पाकिस्तानी सेना के इशारे पर आईएसआई या उसके द्वारा संचालित किसी ग्रुप का हाथ है। विकास मौके पर पहुंचने वाले पहले अफसर थे और रात में ही की गई छानबीन में उन्हें महत्वपूर्ण सुराग हासिल हो गया था। यह एक अटैची में डिवाइस इंटेक्ट था जो फटा नहीं था। इसे डिस्मेंटल किया गया। इसकी ट्यूब की प्लेट पर लिखे कंप्यूडटर फार्मूले के आधार पर एसआईटी इस तरह की अटैची के ठिकानों की तलाश करते हुए इंदौर की एक दुकान तक जा पहुंची थी। आख़िरकार इस केस में हिंदुत्ववादी संगठन के सुनील जोशी, डांगे और रामचंद्र कलसांगरा का नाम उभरने लगा था। इनमें से सुनील जोशी तो मध्य प्रदेश में आरएसएस से जुड़ा रह चुका जाना-पहचाना नाम था। यह बेहद चौंकाने वाली और आँखें खोल देने वाली जानकारी थी और इसने एक अजीब किस्म का सन्नाटा पैदा कर दिया था। ऐसा सन्नाटा कि मध्य प्रदेश पुलिस केस में सहयोग करने के लिए तैयार नहीं थी।

समझौता एक्सप्रेस विस्फोट केस में हरियाणा पुलिस की एसआईटी की जांच में शुरू में सामने आए तीन लोगों में से एक सुनील जोशी की 29 दिसंबर 2007 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। बाकी दोनों सुनील डांगे और रामचंदर कलसांगरा रहस्यमय ढंग से गायब हो गए थे। (यह भी याद रखना होगा कि सुनील जोशी की हत्या के आरोप में मध्य प्रदेश की स्वयंसेवक शिवराज सिंह की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के दौरान वहां की पुलिस ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार किया था। यह प्रज्ञा ठाकुर की पहली गिरफ्तारी थी।) समझौता एक्सप्रेस केस बाद में एनआईए को ट्रांसफर कर दिया गया था। विकास नारायण राय कहते हैं कि सुनील जोशी की हत्या हो जाने के बावजूद डांगे और कलसांगरा को गिरफ्तार कर पूछताछ की जाती तो केस का नतीज़ा कुछ और होता। सवाल यह है कि डांगे और कलसांगरा कहां गायब हो गए। विकास कहते हैं कि एनआईए को दोनों का ट्रेस मिलता रहा था। बाद में दोनों को रहस्यमय ढंग से छुपा दिया गया। अपने प्रफेशनल रवैये के लिए मशहूर इस अवकाश प्राप्त आईपीएस का मानना है कि डांगे और कलसांगरा को `बाई डिजाइन` न छुपाया जाए तो उनके पकड़ में न आने का सवाल ही पैदा नहीं होता। आखिर कोई कहां गायब हो सकता है?
गौरतलब है कि विकास नारायण राय के नेतृत्व में हरियाणा पुलिस की जांच ने हडकंप मचा दिया था। आतंकवाद से जुड़े विभिन्न मामलों को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय की कॉआर्डिनेशन मीटिग में भी इस बात को लेकर हैरानी थी। भारतीय गृह मंत्रालय को पाकिस्तान से बातचीत में अपमैनशिप (अपना हाथ ऊपर रखने) के लिहाज से पाकिस्तानी एंगल की तलाश थी। कॉआर्डिनेशन मीटिंग्स के दौरान ही उन्होंने पाया कि 2006 के मालेगांव ब्लास्ट, 2007 के मक्का मस्जिद ब्लास्ट और  अजमेर शरीफ ब्लास्ट का तरीक़ा ए वारदात (मोडस ऑपरेंडी) ठीक समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट जैसा था। मालेगावं ब्लास्ट के सिलसिले में महाराष्ट्र एटीएस के चीफ हेमंत करकरे को अहम सुराग हाथ लग चुके थे और उनकी जांच में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित और असीमानंद के नाम सामने आए थे। ये तीनों अभिनव भारत नाम के संगठन के सदस्य बताए जा रहे थे। असीमानंद आरएसएस में भी बड़ी हैसियत रखते थे। आरएसएस के वनवासी कल्याण आश्रम के विस्तार में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। प्रज्ञा सिंह ठाकुर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रह चुकी थीं। करकरे अपनी जांच की उपलब्धियों के चलते भारी दबाव में थे और उन पर हिंदुत्वविरोधी साजिशों के आरोप लगाए जा रहे थे। विकास नारायण राय ने हेमंत करकरे से बात की थी। इससे पहले कि काफी हद तक एक से सुराग हासिल कर रहे इन दोनों पुलिस अधिकारियों की बैठक हो पाती, मुंबई आतंकी हमले में 27 नवंबर 2008 को करकरे की हत्या हो गई थी।

सवाल यह है कि हेमंत करकरे या विकास नारायण राय जैसे अपवाद माने जा सकने वाले अफसर इन मामलों की जांच से न जुड़े होते तो? समझौता एक्सप्रेस विस्फोट की जांच विकास नारायण राय न कर रहे होते तो क्या कोई दूसरा आसान रास्ता न अपना लिया जाता? मसलन जैसा कि विकास खुद शुरू में इस केस में सिमी या ऐसे किसी संगठन का हाथ मान कर चल रहे थे, कोई और अफसर गहन जांच के फेर में पड़ने के बजाय किन्हीं मुसलमान युवकों को दबोच कर केस खोल देने का दावा नहीं कर सकता था?
विकास कहते हैं कि सिमी से जुड़े लोगों से भी पूछताछ की गई थी। सुरागों और सबूतों के आधार पर तफ़्तीश करते हुए नतीज़े तक पहुंचना पुलिस ट्रेनिंग का हिस्सा होता है और किसी भी पुलिस अधिकारी को इसी रास्ते पर चलना ही चाहिए था। हाँ, बहुत से मामलों की तरह मक्का मस्जिद केस में उसी शाम मुस्लिम मुहल्ले के लड़के उठा लिए गए थे। विरोध खड़ा होने पर पुलिस फायरिंग में 6-7 लोग मारे भी गए थे। अजमेर शरीफ केस में भी जांच की यही लाइन थी। बाद में स्थिति बदलती गई। समझौता एक्सप्रेस केस में हमें गिरफ्तारियों की जल्दी नहीं थी। हम सामने आ रहे सुरागों के सहारे पुख़्ता ढंग से गहराई तक जाना चाहते थे।

लेकिन, क्या हर पुलिस अधिकारी इतना प्रतिबद्ध और सेक्युलर हो सकता है, विकास कहते हैं कि ऐसा होना पुलिस की ट्रेनिंग का हिस्सा है। देश का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य जिस तरह का है, क्या चाहकर भी ऐसे केस में हर कोई अफसर अपनी जान पर खेल कर प्रतिबद्ध रह सकता है? इस सवाल पर विकास कहते हैं कि दबाव हमेशा होते हैं पर अगर पुलिस अधिकारी संविधान और अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध है तो वह अपना काम करेगा ही। लेकिन तथ्य यह भी है कि विकास खुद इस केस में भयंकर असहयोग का सामना कर चुके थे। हरियाणा पुलिस की एसआईटी को इंदौर में पूछताछ के बाद हिंदुत्व लिंक के सुराग हासिल होते ही मध्य प्रदेश पुलिस ने पूरी तरह असहयोग का रवैया अख्तियार कर लिया था। यहां तक कि डांगे और कलसांगरा के फोटो तक उपलब्ध नहीं कराए जा रहे थे। समकालीन तीसरी दुनिया पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू (मीडिया विजिल वेबसाइट पर उपलब्ध) में विकास ने बताया था कि इंदौर की सूटकेस की दुकान के दो लड़कों जिनमें एक हिंदू था और एक मुसलमान, को पकड़ कर पानीपत में एक महिला मजिस्ट्रे ट के सामने पेश कर रिमांड मांगी गई तो `बड़ा अजीब अनुभव हुआ। हमारी समझ में आया कि वो दबाव में थी। उसने कहा तुम लोग किसी को भी पकड़ लाते हो और रिमांड मांगते हो। उसे लगा कि हम लोग तो इससे पहुंच जाएंगे वहां… ये बता देंगे उस लड़के का नाम कि कौन आया था। उसने आखिर में हमारा अप्लिकेशन पढ़ा और रिमांड दे दी क्योंयकि कोई चारा था नहीं। उन लड़कों ने सहयोग किया, फिर हमने उन्हेंे डिस्चार्ज कर दिया। उसी दौरान सुनील जोशी, सुनील डांगे और कलसांगरा का नाम आना शुरू हो गया।`

विकास नारायण राय इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनकी टीम की इन्वेस्टीगेशन लाइन में गड़बड़ी होती तो उसे बदल देना दूसरी जांच एजेंसियों के लिए आसान हो जाता। शुरू में सीबीआई की मॉनिटरिंग के बाद केस एनआईए के पास चला गया था। विकास मानते हैं कि यह उचित ही था क्योंकि एनआईए का गठन इस तरह के केसेज देखने के लिए ही किया गया था। उनकी जांच टीम ने जो लाइन तय की थी, सीबीआई और एनआईए उसी पर बढ़ीं। यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही नहीं बल्कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी। असीमानंद की या दूसरे आरोपियों की गिरफ्तारियां भी हरियाणा पुलिस की एसआईटी ने नहीं की थीं बल्कि उसकी इन्वेस्टीगेशन लाइन को फॉलो करते हुए एनआईए ने ही की थीं। बाद में जांच की लाइन को डीरेल करने की कुछ कोशिशें जरूर हुईं। मसलन, अटारी बोर्डर पर पकड़े गए किसी आदमी का हवाला दिया गया जिससे पूछताछ में कुछ हासिल नहीं हुआ था या फिर किसी नये डॉक्यूमेंट का दावा किया गया। लेकिन सवाल यह है कि इन्वेस्टीगेशन लाइन को बदल देने वाला कोई नया सबूत या अहम सुराग था तो सरकार या एनआईए ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट पेश किए जाने में दिलचस्पी क्यों नहीं ली। विकास कहते हैं कि इस केस के जुडिशल ट्रायल में कोई कमी नहीं रही पर लगता है कि एनआईए ने केस को जान-बूझकर खराब किया।
 
आतंकवादी वारदातों के हिंदुत्व लिंक के सबूतों को लेकर यूपीए सरकार के दौरान ही उतनी मुस्तैदी नहीं बरती जा रही थी जितनी कि इस तरह के मामलों में अपेक्षित थी। जांच एजेंसियों के असीमानंद तक पहुंच जाने के बाद आरएसएस के एक महत्वपूर्ण नेता इंद्रेश कुमार को लेकर भी तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं। सीबीआई ने उनसे पूछताछ भी की थी। हालांकि, उन्होंने आरोपों को निराधार बताते हुए आक्रामक तेवर बनाए रखे थे और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर व स्वामी असीमानंद आदि पर लगे आरोपों को भी साजिश करार दिया था। लेकिन सवाल संघ की टॉप लीडरशिप को लेकर भी उछल रहे थे। दावा तो यह भी किया गया था कि मोहन भागवत को भी इस बारे में जानकारी थी। असीमानंद के चार साक्षात्कारों के आधार पर `कैरवान` में प्रकाशित हुई लीना रघुनाथ की चर्चित स्टोरी में भी दावा किया गया है कि असीमानंद ने उन्हें इस बारे में जानकारी दी थी। लीना रघुनाथ की इसी स्टोरी के मुताबिक, कोर्ट के सामने अपने इक़बालिया बयान में भी असीमाननंद ने कहा था कि `हमलों का षडयंत्र आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य को जानकारी में रखकर किया गया था`।
` दिसंबर 2010 और जनवरी 2011 में असीमानंद ने कोर्ट के सामने दो अपराधों की स्वीकारोक्ति की। ये बयान दिल्ली और हरियाणा की कोर्ट में हुए जिनमें उन्होंने हमले की योजना बनाने की बात स्वीकारी। उन्होंने कानूनी सहायता लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने न्यायिक हिरासत में 48 घंटे गुजारे थे और इस दौरान उन्हें जांच एजेंसियों से दूर रखा गया था जिसके बाद उन्होंने ये बयान दिए थे। इसका अभिप्राय ये था कि उनके ऊपर कोई दबाव न रहे और उन्हें मन बदलने का मौका मिल सके। दोनों बार असीमानंद ने तय किया कि वे अपने अपराध स्वीकारेंगे और इसी के तहत कोर्ट में अपने बयान दर्ज करवाए। उनके और उनके दो साथी षडयंत्रकारियों के गुनाह कबूलने में एक समान बात सामने आई जिसमें कहा गया था कि इन हमलों का षडयंत्र आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य को जानकारी में रखकर किया गया था।` (लीना रघुनाथ/कैरवान)

कांग्रेस की तरफ से `भगवा आतंकवाद`की बात भी उठाई गई थी पर आरएसएस और उसके संगठन आक्रामक तेवर में आ गए थे तो सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन गड़बड़ा जाने के डर से कांग्रेस घबराकर चुप हो गई थी। लेकिन, जांच एजेंसियों के पास जिस तरह के सबूत लग रहे थे, आरएसएस उनकी गंभीरता को समझ रहा था। 2010 में आरएसएस और हिंदुत्व पर आतंक का तमगा लगाने की साजिश का आरोप लगाते हुए आरएसएस नेताओं ने देशभर में प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था। लखनऊ में मोहन भागवत खुद धरने में शामिल हुए थे।

जाहिर है कि मीडिया में आए असीमानंद के इंटरव्यू का अदालती लिहाज से कोई महत्व नहीं था। असीमानंद ने कोर्ट में दिए गए इक़बालिया बयान से भी
28 मार्च 2011 को पलटते हुए दावा किया था ये बयान दबाव का नतीजा थे। लीना रघुनाथ के मुताबिक, उन्होंने ट्रायल कोर्ट के सामने एक अर्जी दी थी जिसमें लिखा था, “असीमानंद के कथित स्वीकारोक्ति को मीडिया को लीक किया गया। ये चौंकाने वाला है और जानबूझकर किया गया लगता है। ये एक डिजाइन का हिस्सा लगता है जिसके तहत मामले का राजनीतिकरण करके इसका प्रचार किया जा सके। इससे ये भी लगता है कि इसका मीडिया ट्रायल किए जाने की भी योजना है जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदू आतंक की धारणा को बल दिया जा सके और इससे देश की सरकार चला रही पार्टी को फायदा पहुंचाया जा सके।”  गौरतलब है कि लीना रघुनाथ ने यह भी जिक्र किया था कि उन्हें दिए गए इंटरव्यू में असीमानंद ने किसी तरह के टॉर्चर से इंकार किया था। बाद में असीमानंद ने कैरवान मैगजीन की रिपोर्टर से मिलने की बात तो स्वीकार की थी पर उसकी खबर को झूठा और बनावटी बताया था।

यूं भी आरएसएस अपने सदस्यों यहां तक कि पदाधिकारियों के कामों के लिए सुविधानुसार खुद को जोड़ने या अलग करने की नीति पर चलता रहा है। आरएसएस इस बात पर जोर देता रहा है कि वह उससे जुड़े रहे किसी व्यक्ति के कामों के लिए जिम्मेदार नहीं होता है। विकास नारायण राय कहते हैं कि यह बात जरूर है कि ब्लास्ट की जांच में सामने आए कई नाम संघ से जुड़े रह चुके थे लेकिन सिर्फ़ इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता था कि संघ किसी योजना में शामिल था।
 
2014 में आरएसएस की राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में ताकतवर सरकार बनाने में कामयाब हो गई तो यूं भी स्थितियां बदल चुकी थीं। मालेगांव विस्फोट केस में विशेष सरकारी वकील रोहिणी सालियन ने अक्तूबर 2015 में दावा किया था कि केंद्र में नई सरकार बनने के बाद एनआईए उन्हें `भगवा आतंक` के मामलों में नरम रुख अख्तियार करने के लिए कह रही है। एनआईए की कार्यशैली को लेकर विकास नारायण राय ने सितंबर 2016 में `समकालीन तीसरी दुनिया`पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में भी सवाल उठाए थे। रिटायर होने जा रहे एनआईए के तत्कालीन चीफ के कार्यकाल में विस्तार को लेकर भी सवाल उठा था। जाहिर है कि ऐसी स्थितियों में कोर्ट में इन मामलों की पैरवी कमजोर पड़ जाने की आशंकाएं स्वाभाविक रूप से जोर पकड़ रही थीं।

गौरतलब है कि समझौता एक्सप्रेस केस का फैसला आने से पहले मक्का मस्जिद विस्फोट केस में भी इसी तरह का फैसला आ चुका है। असीमानंद का नाम मक्का मस्जिद केस में भी शामिल था और एनआईए के पास जो सबूत थे, उन्हें काफी मजबूत माना जाता था। इसके बावजूद एनआईए ने फैसले को लेकर ऊपरी अदालत में अपील की जरूरत नहीं समझी थी। समझौता एक्सप्रेस केस में भी सरकार या उसकी जांच एजेंसी एनआईए फैसले के खिलाफ अपील करेगी, ऐसी किसी भी संभावना को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने पूरी तरह खारिज कर दिया है। भले ही इससे आतंकवाद से लड़ने की भारतीय सरकार की प्रतिबद्धता के दावे कमज़ोर पड़ते हों और पाकिस्तान पर आतंकवाद के मामलों में दबाव बनाने की रणनीति पर भी असर पड़ता हो।

समझौता एक्सप्रेस का फैसला आने के बाद संघ और उसके सहयोगी संगठनों की खामोशी हैरान करने वाली थी। इस बार इन संगठनों से जुड़े लोगों की प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी जैसी कि मक्का मस्जिद केस के फैसले के बाद रही थी। तब फैसले को भगवा और हिंदुत्व को बदनाम करने की साजिश नाकाम हो जाने के रूप में प्रचारित किया गया था। हो सकता है कि मीडिया की मुख्यधारा के अनुकूल होने के बावजूद इस केस की जांच से जुड़ी बातों को तत्काल नये सिरे से चर्चा में न आने देने के लिए यह रणनीति अपनाई गई हो। लेकिन, 29 मार्च को फैसले की कॉपी सार्वजनिक हो जाने जिसमें साक्ष्यों को रोकने के मामले में एनआइए पर सवाल हैं, भाजपा को अपनी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली को आगे करना पड़ा। बाद में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इस बारे में बयान दिए। जेटली ने कहा `कांग्रेस ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए 'हिंदू आतंकवाद' की थ्योरी को गढ़ा था और इसे स्थापित करने के लिए फर्जी सबूतों के आधार पर बेगुनाह लोगों के खिलाफ केस दर्ज किए थे। लेकिन, अब अदालत के आदेश आने के बाद इसका पटाक्षेप हो गया है। यूपीए सरकार के कदम से धमाके को अंजाम देने वाले वास्तविक गुनहगार बच निकले।` जेटली के इस बयान के खोखलेपन और सरकार की संदिग्ध भूमिका को जाहिर करने के लिए फैसले से जज की इस टिपप्णी को दोहराना ही काफी होगा कि एनआईए ने कारगर सबूतों को रेकॉर्ड पर आने से रोक दिया था। जहां तक बेगुनाहों के बच निकलने का सवाल है तो `आतंकवाद के खिलाफ सबसे मजबूत सरकार` पांच साल पूरा कर लेने के बावजूद क्यों `वास्तविक गुनहगारों` तक नहीं पहुंच पाई। वास्तविकता यही है कि इस केस में शुरू में ही इस्टेबलिश हुई जांच की लाइन को सरकार बदल जाने के बावजूद बदल पाना मुमकिन नहीं हो सका। वास्तविकता यह भी है कि इस केस में जिस तरह के एविडेंस हासिल हो रहे थे, उन्हें अंज़ाम तक पहुंचाने के लिए जांच एजेंसी को अपेक्षित आज़ादी यूपीए सरकार के दौरान भी नहीं थी। कांग्रेस का गुनाह असल में यह है।
(समयांतर, अप्रैल 2019 में प्रकाशित) 

Thursday, April 18, 2019

उत्तरआधुनिकता (पोस्टमॉडर्निज़्म) के बारे में नोट्स : शिवप्रसाद जोशी


हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
 (उत्तरआधुनिकता (पोस्टमॉडर्निज़्म) के बारे में नोट्स)
शिवप्रसाद जोशी

उत्तरआधुनिकता यह नहीं कहती कि तुम आधुनिकता के ऊपर से छलांग लगाकर एक नये भाषा उत्पात में अपनी सनसनी के साथ दाखिल हो जाओ. वह छलांग जैसी फ़ुर्तीली कार्रवाई है ही नहीं. वह तो बहुत धीरे धीरे आधुनिकता में आ चुकी दरारों से रिस कर अंदर आती है और आधुनिकता के वृक्ष को भीतर से सोखने की तिकड़में करती है.

उत्तरआधुनिकता उत्तर-सत्य की जननी है. वह धर्मबहुल महानता और प्रकांडता वाले प्राचीन संसार के गल्पों, नैरेटिवों, मिथकों की पुनर्रचना भी है. वह एक प्राचीनता का निर्माण करती है और उस प्राचीनता के मिथ का निर्वहन. वह धर्म को एक नितांत निजी वृत्त से खींचकर ले आने वाली रस्सी है. वह तोड़फोड़ नहीं है जैसा कि उसके बारे में बहुप्रचारित है, वह व्यवस्थाओं का विपर्यय भी नहीं है जैसा कि अक्सर मान लिया जाता है. वह न बेचैनी है न उलझन न गड्डमड्ड. जैसा कि उसका ग्राफ़िक प्रेजेन्टेशन है. वह एक होशियार फ़ितरत है. मॉर्डेनिज़्म का वह विचलन है. जैसे वाम का उत्तर वाम. नया वाम नहीं. उसका उत्तर. लेकिन न दिशा न जवाब. बस पोस्ट. लेकिन आगे का भी नही, न अग्रिम, न आगामी. वह पीड़ित व्यक्ति की आह को बुझाने का उपक्रम करती प्यास है. वह प्यासों को पानी नहीं देती- उसकी अपरिहार्यता बताती रहती है, बाज़दफ़ा वो कहती है- अरे यह प्यास भ्रम है या यह असत्य है! या हो सकता है वो व्याकरण में पानी के पर्यायवाची खोजने चले जाएः जब तक मैं इसे जल न कहूं/ मुझे इसकी कल-कल सुनाई नहीं देती/ मेरी चुटिया इससे भीगती नहीं/ मेरे लोटे में भरा रहता है अंधकार. (असद ज़ैदी)

वह ख़ुद को, किसी निष्कर्ष पर न जाती हुई किसी लक्ष्य को असमर्पित, कहती है. लेकिन पोस्टमॉडर्निज़्म का लक्ष्य स्पष्ट है. वह मनुष्य की स्वाभाविकता का हरण है, एक अस्वाभाविक, सुन्न और मुग्ध मनुष्य की रचना उसका एक लक्ष्य है. नो मैन इज़ ऐन आईलैंड (कोई भी मनुष्य द्वीप नहीं है)- जॉन डोन्ने ने कहा था. नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड (कोई भी पाठ द्वीप नहीं है)- उत्तरआधुनिक कहते हैं. कोई भी पाठ अपने तई मुकम्मल या संपूर्ण नहीं है. हर पाठ अधूरा है. वो समस्त का अंश है. फिर वे ये भी कहते हैं कि हर पाठ का अपना अर्थ है. एक पाठ के कई अर्थ और आशय संभव है. सही तो कहते हैं, आप कहेंगे. इसमें कैसी परेशानी. सही तो कहते हैं लेकिन करते नहीं हैं. वे अधूरा कहते हैं. वे पाठों के सुनियोजित पुनर्पाठ के उतावले हैं. वे चुने हुए पाठ उठाते हैं. सेलेक्टड. उन्हें मनमाने ढंग से खोलते हैं और कहते हैं कि इस पाठ में यह कहां है और यह क्यों नहीं है. वे मार्क्स को उनकी जमीन से उखाड़ लेना परम समझते हैं. वे जानते हैं कि सत्य क्या है. लेकिन कुछ देर बाद वे कहेंगे कि सत्य कुछ और है. और नहीं सत्य अनेक हैं. इसे वह पाठ की गैर-रेखीयता कहते हैं. इस तरह बुनियादी सच्चाई उत्तरआधुनिक भंवरों में डूब जाती है या उलट कर कहें कि वहां सच्चाई की बुनियाद नहीं होती है. वह निर्वात में टंगा हुआ एक भ्रम है. इस तरह उत्तरआधुनिक सच्चाई के संहारक हैं और झूठ के प्रचारक- घोषित अघोषित. नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड उनकी ढाल है. फ़्रेडरिक जेमसन ने कहाः उत्तरआधुनिकता, हालिया (द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर) पूंजीवाद की सांस्कृतिक दलील है. ज़ियाउद्दीन सरदार ने कहाः उत्तरआधुनिकता पश्चिमी संस्कृति का नया साम्राज्यवाद है. उत्तरआधुनिक कंधे उचकाएंगें: ये महज़ उद्धरण हैं. वे ऐसा क्यों करेंगें. क्योंकि उत्तरआधुनिकता उद्धरणों से बचती फिरती चलती है. उद्धरण उसकी शिनाख़्त करते हैं. वह सिर्फ़ अपना उद्धरण धारण करती है. उसे लगता है उसका अपना कोट पर्याप्त है.

उदीयमान दक्षिणपंथी कहते हैं यह मार्क्सवाद की बला है. पहले वे पूछते थेः यह मार्क्सवाद क्या बला है. कुछ अन्य निरपेक्षतावादियों का मत है कि उत्तरआधुनिकता नहीं रही- वो विलुप्त हो चुकी है. इसके उलट जब जब आधुनिकता अपने को बेहतर कर रही होती है तब तब वह दोगुने वेग से उस पर प्रहार करने आ जाती है. वह यही हैं. अपनी कृत्रिमता में. लेकिन अपने मक़सद में फलतीफूलती. उत्तरआधुनिकता एक समकालीन ऐंठन है. कोई इस तक नहीं पहुंचता, यह अपने शिकार चिह्नित करती है और फिर उनका वरण और फिर उन्हें लपेट देती है. उत्तरआधुनिक व्यक्तित्व एक सर्पीला और कई घुमावों और खांचों वाली कील की तरह होता है. वहीं पूरा होता जाता घुमाव. अगर कवि है तो उसके किरदार में, अगर लेखक है तो उसके विचार में, नेता है तो उसकी ज़बान में यह कील होगी. लेकिन वह दुख नहीं होगाः वह क्य़ा है जो इस जूते में गड़ता है/ यह कील कहां से रोज़ निकल आती है/ इस दु:ख को क्यों रोज़ समझना पड़ता है?” (रघुबीर सहाय). उत्तरआधुनिकता के पास आत्मा से टकराते ऐसे प्रश्न नहीं हैं. वह दुःख नहीं जानती. दुःख का उत्सव जानती है. निराशा को वह आत्मरुदन में बदल देती है और पता भी नहीं चलता. करुणा की उसे परवाह नहीं. प्रेम के लिए उसके जखीरे में एक से एक वार हैं. उत्तरआधुनिकता बस प्रतीकों में अपना सफ़र तय करती है. या उन्माद में. राष्ट्रीय झंडे में फड़फड़ाहट या फिसलन की तरह चिपकी है. अस्थियों, विसर्जनों और श्रद्धांजलियों में गोंद की तरह या लोटों में गेंद की तरह. यह चित्र भी है और भाव भी और संदेश भी. प्रणब मुखर्जी भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं. उससे पहले एक संदेश हैं. वह एक सिंबल भी हैं. उनके पास जो संदेश है वही मीडियम यानी माध्यम है. मीडियम इज़ द मैसेज वाले मैकलुहानी दिन गए, अब संदेश ही माध्यम बना दिया जाता है. नाना स्वरूपों में विचरण करती हुई उत्तरआधुनिकता राम को खंजर बना देती है हनुमान को प्रचंड. वॉट्सऐप से भीड़ के बीचोंबीच वही है जो बम की तरह फटती है. उत्तर आधुनिकता एक भीड़ है जो आधुनिक जीवन पर हिंसक उतावली है. भीमा कोरेगांव के यथार्थ में अरबन नक्सली का नैरेटिव उसी का सजाया हुआ है. स्पर्शों को घात में बदल देती है. उसे आज़माया ही जाता है इसलिए कि नागरिक लड़ाइयां देश तोड़ने का षडयंत्र पेश हो सकें. देश का और उसके वजूद का  इतना काल्पनिकीकरण और वॉट्सऐपीकरण वो कर देती है. उसी की कृपा है कि देशभक्ति भाव नहीं चाशनी है. हमारे चेहरे टपके हुए और लिथड़े हुए हैं. अस्मिताएं डरी हुई हैं. भय अब प्रछन्न नहीं है, वह नागरिक होने का एक लक्षण है. सत्ता के उपकरणों से उत्तरआधुनिकता एक नया क़िला बनाने की ओर उन्मुख  है जिसे वो आगे चलकर राष्ट्र कहेगी.

उत्तरआधुनिकता एक महा-स्वप्न से उभरी क्रिटिकल धाराओं से पीछा छुड़ाने चली थी. उसे बहुत काम करने थे. भाषा और कला को पांडित्य से छुटकारा और दबेछिपे सांप्रदायिक मंतव्यों को फ़ाश करना था. उसे और इतालो काल्विनो बनाने थे और यथार्थ और स्मृति के नायाब शहरों में लेखक की तरह भटकना था. मिशेल फ़ूको को उसने क्या से क्या बना दियाः एक घाघ  नॉर्मेटिविस्ट (युर्गेन हाबरमास ने कहा). वह ऐन इस दुष्कर हिंदी पट्टी से एदुआर्दो गालियानो और टैरी एगल्टन की तलाश करती, उन्हें पहचानती. वोअपार ख़ुशी का घराना” (मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस) क्यों नहीं बना पाई जो इतने सारे नैरेशन में गुंथा हुआ है और जिन थरथराहटों से भरा हुआ है, वो उत्तरआधुनिकों को समझ क्यों न आईं? बाढ़ एक कुदरती फ़िनोमेना है, कुदरती आफ़त नहीं.’ लेकिन उत्तरआधुनिकता एक ग़ैर कुदरती आफ़त है, क्योंकि वह एक ग़ैर कुदरती फ़िनोमेना है. वह चालाकी से देरिदां के विखंडन में जा मिली, वहां उसका देर टिकना नामुमकिन था, उत्तर संरचना में दाख़िल हुई. वह उत्तरऔपनिवेशिक होकर प्रतिरोध, दमन, हाशिया, एलजीबीटी पर मुखर हुई, वह दलितों और उत्पीड़ितों के लिए आई थी लेकिन वह उत्तर इतिहास बनाने लगी और उत्तर सत्य गढ़ने लगी. उत्तरआधुनिकता ख़ुद को सबऑल्टर्न साबित करने कहां नहीं उतरी. लेकिन गायत्री स्पीवाक ने सही कहा कि अपने लिए जगह हासिल करने यानी सांस्कृतिक वर्चस्व में अपनी जगह सुनिश्चित कर लेने वाली जद्दोजहद, सबऑल्टर्न होना नहीं है. उत्तरआधुनिकता का लंबी लड़ाई से वास्ता नहीं. उसमें उपलब्ध जीवन को ठुकराने’ (मंगलेश डबराल) की ताब नहीं है. और न ही उस दृश्य को बचाने का साहस जो चारों तरफ़ अदृश्य हुआ जाता है. आगे और आगे जाने की, ऊंचा और ऊंचा होने की, नया और नया होने की उसकी लालसा एक विकरालता में तब्दील हो गई. वह बाड़ों को गिराना चाहती थी- ठीक था, नो टेक्स्ट इज़ ऐन आईलैंड- उसका कहना बनता था, वह भाषा की देहरियां ड़ना चाहती थी- ठीक था, वह ज़िद और साहस के नये प्रतिमान गढ़ना चाहती थी- ठीक था, वह मुख्यधारा नहीं मानती थी- ठीक था, वह नये मनुष्य के निर्माण को प्रतिबद्ध बताई जाती थी- ठीक था. लेकिन यह क्या. उत्तर आधुनिकता, तुम जो निशान मिटाती जाती हो, जो हुंकार और अहंकार तुमसे उठता है, जो धूल तुम उड़ाती हो- यह तो किसी बर्बरता के प्रवेश के संकेत हैं- तुम आततायी की आंधी क्यों बनी. 

दुनिया के वैचारिक, साहित्यिक, कला आंदोलनों में उत्तरआधुनिकता को एक अवस्था या एक चरण या एक दर्शन के रूप में मान्यता दिलाने की कोशिशें भी जारी हैं. और ये काम आज से नहीं, 20वीं सदी के चौथे दशक से चला आ रहा है. जब दूसरा विश्व युद्ध ढलान पर था, बंटवारे हो चुके थे, हिंसाओ ने नरसंहार कर दिए थे, चार्ली चैप्लिन और सार्त्र पिकासो आदि से लेकर अपने यहां फैज और मुक्तिबोध तक आधुनिक मनुष्य की चीखें और संताप, आगामी लड़ाइयों की रूपरेखा बना रहे थे, आगे चलकर और अंदर दाखिल होकर भाषाओं में जाएं और अपनी हिंदी में जाएं तो लेखक कवि कहानीकार अपनी रचनाओं में एक उद्विग्न और जूझते मनुष्य के संकटों की शिनाख्त कर रहे थे, हां बेशक यही वह दौर भी था जब उत्तरआधुनिक अपनी छटाओं और प्रशस्ति बेलाओं के साथ आसपास मुखर थे. वे हरगिज़ नहीं चाहते थे कि भाषा और विचार की आधुनिकता अपना स्पेस बनाए. लेकिन ऐसा कहां होता है. ऐसा भी कहां होता है कि सच्चाई को लड़ना ही न पड़े. उत्तरआधुनिकता दरअसल एक थोपी हुई वैचारिकता है, वह चीज़ों का नुकसान करने आई है. हम अपने स्वप्न बना रहे होते हैं और वो इस स्वप्न को एक चटपटा विलास या एक आतुर याचना बना देती है. हिंदी जैसी भाषाओं में यह संकट आया है. गद्य और कविता में यह संकट दिखता है. प्रयोगों पर उत्तरआधुनिकता का कब्ज़ा तो खासा चिंताजनक है. और यह उतरकर सामाजिक व्यवहारों में भी दाखिल हो रहा है- भयावह है. आधुनिक मनुष्य की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि अभी 21वीं सदी में भी उसकी लड़ाइयां जबकि जारी हैं और कठिन हैं, उसे उत्तरआधुनिक का लबादा पहनाकर शिथिल किया जा रहा है. इस विंडबना को तोड़ना भी उसका मौजूदा कार्यभार होना चाहिए. 

एक सच्चे, सजग और साहसी नागरिक के लिए तीन लड़ाइयां हैं. ख़ुद से लड़ना और दुष्टताओं से लड़ना है. आधुनिक मनुष्य को उत्तरआधुनिकता के कभी नाज़ुक कभी सख़्त आघातों से भी बचना है. उत्तरआधुनिकता नहीं जानती लेकिन इस तरह एक तत्पर और मुस्तैद नागरिक के निर्माण के काम आती है जैसे तानाशाह के भेस में हमारा चार्ली अपना विख्यात भाषण देने जाता है और उम्मीद पर उदास होता हुआ विकल मनुष्यता में पुकारता हैः बर्बरों की नहीं हमारी है यह दुनिया. अपनी विख्यात आत्मकथा में चैप्लिन ने कहाः ग़ैर-नात्सी होने के लिए यहूदी होना ज़रूरी नहीं है. एक नॉर्मल, डीसन्ट मनुष्य होना काफ़ी है. उन शब्दों को थोड़ा बदलकर कह सकते हैं: प्रतिबद्ध होने के लिए उत्तरआधुनिक होना ज़रूरी नहीं है. इस फ़िल्म से ठीक पहले साहित्य में उत्तरआधुनिकता को प्रस्थापित किया जा रहा था. कला और संगीत में वो पहले आ चुकी थी. उत्तरआधुनिकता झपटने आई थी. लेकिन....वे ऐतिहासिक पुकारें थीं, कठिन और जानलेवा समयों की. दक्षिण एशिया का भूगोल देखिएः मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं / सँवारती हुई मुझे / उठी सहास प्रेरणा. (मुक्तिबोध) दशक वही चालीस. या शायद कुछ ज़रा पहले नक्श-ए-फ़रियादीः अरसा-ए-दहर की झुलसी हुयी वीरानी में / हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है / अजनबी हाथों के बे-नाम गरांबार सितम / आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है...(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

उत्तरआधुनिकता अतीत में लौट नहीं सकती है. लौटना उसका लक्षण नहीं है. उसे गवारा नहीं है. लौटेगी तो वह अपनी परिभाषा से उतर जाएगी. ऐसा वह भला क्यों करेगी. वह अतीत से सीखती नहीं है उसे सोखती है. अतीत उसकी कामनाओं का कंकाल है. टकराव और वैमनस्य के नैरेटिवों में वह अतीत का विद्रूप कर उलीच देती है. चालीस का दशक आया ही चाहता था जब वह कला और संगीत में घुसपैठ करने पहुंची. पसीने, संघर्ष, ख़ून और जद्दोजहद से तरबतर आधुनिकता के रचनाकार जब नये संसार का स्वप्न देखते थे तब वह साहित्य पर अपना चोला डालने पहुंच गई थी.

उत्तरआधुनिकता हमारे स्वप्नदर्शियों के बीच से, हमारे साधारण जन के बीच से तुम जाओ, तुम बेशक राख उड़ाओ, अपनी भव्यताओं से हैरान करो, अपने ज्ञान और और मानमर्दन की अपनी ध्वंस-शक्ति पर उत्सव करो या अवैज्ञानिकता को अपने प्रणाम पर भयानक गदगद हो उठो- हमें बख़्श दो. हमें तुमसे भय नहीं है. हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है. अपनी आधुनिकता की विकृतियां दूर कर उसे बेहतर बनाना है, हिफ़ाज़त हर हाल में करनी है. मार्क्स ने कहाः “Mein Verhältnis zu meiner Umgebung ist mein Bewußtsein. (माइन फरहेल्टनिज त्सू माइनर उमगेबुंग इस्त माइन बिवुस्स्टज़ाइन) हिंदी रूपांतरण कुछ इस तरह से कि अपने पर्यावरण से मेरा संबंध ही मेरी चेतना है.इस आधुनिकतम विचार को फांद पाना उत्तरआधुनिकता के लिए मुमकिन नहीं. इसलिए नहीं कि यह दीवार है इसलिए कि यह बुलंदी है.

(नोटः इस निबंध में उत्तरआधुनिकता को शब्द द्वय की तरह नहीं लिखा गया है. यानी यहां उत्तर और आधुनिकता के बीच कोई हाइफ़न यानी समास चिन्ह नहीं रखा गया है. इसलिए कि इसे आधुनिकता की निरतंरता में आगे की कोई स्थिति या चरण या अवस्था मानने की अपेक्षा लेखक का मानना है कि यह आधुनिकता के समांतर एक प्रवृत्ति एक वैचारिक सैद्धांतिक और सामरिक पोज़ीशन है. वह उत्तरआधुनिक इसलिए नहीं है कि आधुनिकता के बाद उसका आना हुआ है, कि उसका कोई ऐतिहासिक काल है, वह उत्तरआधुनिक इसलिए है कि वह आधुनिकता की वैचारिक ज़मीन पर क़ब्ज़े की नीयत से कला, साहित्य, संस्कृति, दर्शन में लाई गई प्रविधि है. वह नयेपन का छद्म है.  इसकी सबसे अधिक चोट राजनीतिक चेतना पर पड़ रही है. यही चिंता है. हालांकि उत्तरआधुनिकता को लेकर ऐसे संदेहों या चिंताओं को कॉन्सपिरेसी थ्योरी से पीड़ित ग्रंथि बता देने का चलन है लेकिन आधुनिकों को हर तरह के हमले के लिए तैयार रहना चाहिए और भाषा और विचार और राजनीति में शैलीगत और व्यवहारिक परिवर्तनों का स्वागत एक सचेत आधुनिक की तरह करना चाहिए. इतालो काल्विनो ने जब एक अद्भुत भाषा और अद्भुत संरचना की तलाश की तो उन्होंने नहीं कहा कि वह उत्तरआधुनिक हैं, उत्तरआधुनिकों ने कहा कि वह उत्तरआधुनिक भाषा है. जबकि काल्विनो का गद्य, भाषा और विचार की महान आधुनिकता ही थी. और ऐसे काल्विनो अकेले लेखक नहीं थे. भारत समेत दक्षिण एशिया, लातिन अमेरिका, यूरोप- साहित्यिक सांस्कृतिक भूगोलों की यह लिस्ट बहुत लंबी तो नहीं लेकिन इतनी छोटी भी नहीं कि उत्तरआधुनिकता के कोट में समा जाए.)
-शिवप्रसाद जोशी

(समयांतर, अप्रैल 2019 में प्रकाशित)

Wednesday, April 10, 2019

बेटे, जब तक ये दलीप सिंह है, घबराने की ज़रूरत नहीं

ज़हूर साहब और निशात आपा

(डीयू से सेवानिवृत्त असोसिएट प्रफेसर ज़हूर सिद्दीक़ी प्रग्रेसिव मूवमेंट से जुड़े रहे हैं। वे रटौल में अपने पुश्तैनी घर में ग़रीब लड़कियों के लिए स्कूल चलाते हैं। इन दिनों बीमार हैं। फोन पर बात की तो वे मुज़फ़्फ़रनगर शहर जो मेरा भी शहर है, पहुंच गए। फिर एसडी इंटर कॉलेज जो मेरा भी स्कूल था। जब उन्होंने अपने टीचर दलीप सिंह को याद किया तो मैं रो पड़ा। यह लिखते हुए भी यही हाल है। दलीप सिंह की बहुत ज़रूरत है। ज़हूर साहब से हुई बातचीत यहां पोस्ट कर रहा हूँ।) 

जब मुल्क़ का बंटवारा हुआ तो बहुत दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गरम रहा करता था। मैं मुज़फ़्फ़रनगर में एसडी में पढ़ता था। अफ़वाह फैल गई कि कोई ट्रेन आई है जिसमें लोगों को मारकाट के भेजा गया है। मेरी माँ ने उस दिन मुझे स्कूल नहीं भेजा। अगले दिन...। वो गोल चेहरा, सुंदर..। वो पर्सनालिटी...एक दम से वो चेहरा पूरा का पूरा उभर आता है। वो हमारे टीचर...शानदार। दलीप सिंह। दलीप सिंह था उनका नाम। बोले, `कल क्यों नहीं आए?`  मैंने कहा कि अम्मी ने नहीं आने दिया। बोले, `बेटे जब तक ये दलीप सिंह है, घबराने की ज़रूरत नहीं है। जो होगा पहले दलीप सिंह को होगा, तब कोई किसी बच्चे तक पहुंचेगा।` 80 साल का हो गया हूँ। अब तक मेरे दिल पर उस बात का असर ज्यों का त्यों बना हुआ है। ऐसे लोग थे। ऐसे ऊंचे कि माहौल कैसा भी हुआ, डिगे नहीं।

मेरे पिता नुरुद्दीन अहमद सिद्दीक़ी मुज़फ़्फ़रनगर में पोस्टेड थे। डिप्टी कलेक्टर। एससडीएम जानसठ। अंग्रेज कलेक्टर को उनकी ईमानदारी पर यक़ीन था। बाहर से रिफ्युजी आ रहे थे। उनको सही सामग्री मुहैया कराने, उनके रहने की जगह का इंतज़ाम कराने जैसी बड़ी ज़िम्मेदारी थी। मुज़फ़्फ़रनगर में ठीक रहा। इंतज़ामात ठीक रहे। दंगे नहीं हुए। सहारनपुर से दिल्ली तक रेलवे स्टेशनों के पास के शहरों-कस्बों में रिफ्युजीज की बड़ी तादाद थी। ज़्यादातर दुकानदार लोग थे। सौदागरी जानते थे। वे छोटी-छोटी चीज़ें बेचने लगे। बहुत कम रेट पर। जैसे मैं अपनी रिश्तेदारी में सहारनपुर था। मुझे याद है, वहां भी बाज़ार में छोटे-छोटे बच्चे छोटी-मोटी चीज़ें बेच रहे थे। मसलन, लड्डू। बाज़ार में डेढ़ रुपये-दो रुपये पाव मिलने वाला लड्डू चार आना पाव बेचते थे। कम से कम मुनाफा लेकर। कुछ क्वालिटी में समझौता करके। मसलन बेसन कुछ कम करके, चीनी कुछ ज़्यादा करके, देसी घी के बजाय वनस्पति घी का इस्तेमाल करके। रेट को काफ़ी कम रखके। टॉफियां, छोटी-छोटी मीठी गोलियां वगैराह। देहात से जो लोग शहर आते तो लौटते वक़्त बच्चों के लिए ये सस्ते दामों वाली चीज़ें पाकर ख़ुश होते। मतलब, मुश्किलों में इधर आए लोगों की बाज़ार में बहुत दिलचस्पी थी और मेहनत का जज्बा था।

आज़ादी के बाद इधर का ज़्यादातर मुसलमान आज़ादी की लड़ाई के नेताओं पर भरोसा करके यहीं रहना चाहते थे। जो जाने की चाहत रखते थे, वे 10 फीसदी होंगे। बहुत से हिस्सों में फ़सादात के बावजूद इधर देहात में, शहरों-कस्बों में भी भाईचारा बना रहा। कुछ बातें हो जाती थीं पर भरोसा बना रहा। देहरादून में मुसलमानों को दंगों का सामना करना पड़ा तो लोग इकट्ठा होकर सहारनपुर में मौलवी मंज़ूर उल नबी के पास आए। वे बड़े सादे शख़्स थे। लोगों में और नेताओं के बीच उनकी इज़्ज़त थी। लोगों ने उन्हें कहा कि हम तो आपके भरोसे पर हिंदुस्तान में रह गए पर अब क्या करें। आप ने तो कहा था कि आज़ादी के बाद एक नयी दुनिया होगी। कांग्रेस के राज में सब को एक नज़र से देखा जाएगा। मौलवी साहब ने कहा कि मैं तो कोई हाकिम नहीं, मेरे पास तो कोई ओहदा, कोई ताक़त नहीं, जो तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं। लेकिन, मौलवी साहब लखनऊ रवाना हो गए। लखनऊ पहुंचे तो मुख्यमंत्री पंत सुबह-सुबह अचानक उन्हें देखकर हैरान रह गए। नाश्ता कराया, बात सुनी और कहा कि अच्छा, मौलवी साहब आप जाइए। उनके लौटने से पहले नये कलेक्टर रामेश्वर दयाल पहुंच चुके थे। नये कलेक्टर ने सुबह-सुबह गाड़ी लगाने के लिए कहा तो स्टाफ ने जानना चाहा कि जाना कहां है। लेकिन, उन्होंने किसी को बताया नहीं ताकि उनकी योजना लीक न हो। वे बाज़ार पहुंचे तो कुछ लोग दुकानों के ताले तोड़ रहे थे। कलेक्टर ने शूट एट साइट का हुक्म दिया। शूट एट साइट का मतलब पांवों के पास गोली चलाना ही हुआ करता था। फायरिंग हुई, दंगाई भाग खड़े हुए और दूर-दूर जिलों तक मैसेज चला गया।

चौ. चरण सिंह मंत्री बने। देहात में पढ़ाई को लेकर उत्साह पैदा हुआ। देहात से लोग चौधरी साहब के पास पहुंचते थे, बेटों के लिए नौकरियां मांगने। वे कहते थे कि पढ़ाई कीजिए। देहात के लोग अंग्रेजी तालीम में भी आगे बढ़े। बड़ी नौकरियों में जाने लगे। फ़ौज़ में सिपाही भी बने।

इतनी उम्र हो गई। ज़माना बदल गया पर उस ज़माने के दोस्त याद आते हैं। उनके नाम याद आते हैं। दोस्तों में, उनके घरवालों में हिंदू-मुसलमान का भेदभाव नहीं था।

अफ़सोस कि दलितों की स्थिति अच्छी नहीं थी। वे बहुत भेदभाव का सामना करते हुए, संघर्ष करते हुए आगे बढ़े हैं। 
ज़हूर साहब और निशात आपा के घर (जो लड़कियों का स्कूल है) पर हम