दिलीप कुमार (11 दिसंबर, 1922-7 जुलाई, 2021) पर बात शुरू करते हुए एम. एस. सथ्यू की फ़िल्म `गर्म हवा` की बड़ी शिद्दत के साथ याद आ रही है। बँटवारे के पस-ए-मंज़र बनी इस फ़िल्म के मुख्य पात्र आगरे के एक जूता कारोबारी मिर्ज़ा सलीम हैं जो पाकिस्तान जाने के बजाय हिन्दुस्तान में ही रहना पसंद करते हैं। भारी मुश्किलों और बेइन्तिहा ज़िल्लत का सामना करने को मज़बूर मिर्ज़ा टूट जाते हैं। हार कर वह पाकिस्तान जाने के लिए रेलवे स्टेशन की तरफ़ निकल तो पड़ते हैं पर बदलाव की उम्मीद के लिए संघर्ष का प्रतीक एक जुलूस जिसमें उनका बेटा भी शामिल है, उन्हें रोक लेता है। मिर्ज़ा की भूमिका भारतीय सिनेमा के एक अज़ीम-तरीन अभिनेता बलराज साहनी ने अदा की थी जिसमें मुसलमानों के साथ हिन्दुस्तानी सेकुलरिज़्म के धोखे, उनकी कशमकश, जिद्दोजहद और ज़िल्लत की सच्ची व मार्मिक तस्वीर थी। देखने से गुरेज़ न किया जाए तो स्टारडम, अदाकारी और शख़्सियत के बेमिसाल उरुज पर रहे दिलीप कुमार की विडंबना को भी इस छवि में देखा जा सकता है।
पेशावर के फल कारोबारी पठान सरवर
ख़ान का बेटा यूसुफ़ ख़ान पहले पढ़ाई और फिर कारोबार के सिलसिले में बंबई में था।
बॉम्बे टाकीज की मालकिन, हिन्दी सिनेमा की पहली स्टार और लेजेंड्री शख़्सियत
देविका रानी की उस पर नज़र पड़ी और हिन्दी सिनेमा में अप्रत्याशित रूप से एक नया
सितारा दाख़िल हुआ। यूसुफ़ ख़ान नहीं, दिलीप कुमार।
यूसुफ़ ख़ान को दिलीप कुमार नाम
दिए जाने के क़िस्से थोड़ी-बहुत फेर बदल के
साथ मज़े-मज़े में सुनाए जाते हैं। दिलीप कुमार की यह बात भी दोहराई जाती है कि
पिता से फ़िल्मों में आने की बात छिपाए रखने में नाम का बदला जाना मददगार महसूस
हुआ। ये क़िस्से उनके इंतिक़ाल के साथ फिर चर्चा में आए। सेकुलर अदीबों के बीच एक
धीमा स्वर अफ़सोस का रहा कि मिली-जुली कल्चर के एक मुल्क में कैसे एक मुसलमान
कलाकार को हिन्दू चलन का एक नाम अपनाना पड़ा। हिन्दी के अदीबों के बीच आमतौर पर
ऐसी किसी भी आवाज़ का बुरा मनाने का चलन रहा है। मोटे तौर पर कम्युनल हारमनी की
हिमायती धारा भी प्रतिगामी को प्रगतिशील, थोपी गई मज़बूरियों को स्वेच्छा,
विडंबनाओं को लोकमंगल और समर्पण को सद्भावना कहने की आदी रही है।
दिलीप कुमार से मोहब्बत दिखाते हुए ही लिखे गए एक लेख की इन्तिहाई खोज यह रही-
``उन्होंने नामों के संतुलन को अपने सलूक व सलीके से इस कदर साधा कि यह युग्म ‘यूसुफ बनाम दिलीप कुमार’ न हुआ, बल्कि ‘यूसुफ़ बरक्स (समानांतर) दिलीप कुमार’ होकर उनकी ज़िंदगी का एक गाढ़ा रूपक बन गया. यूसुफ़ को उन्होंने न छोड़ा, न छिपाया और दिलीप कुमार को भी समूचा अपना लिया. नामों की यह एकता-समता निजी जीवन व कला की संगति से होते हुए बहुत आगे निकलकर हिंदू-मुस्लिम एकता की प्रतीक भी बनी.`` सत्य देव त्रिपाठी के लेख का अंश। (https://samalochan.com/dilip-kumar-sataydev-tripathi/)
सवाल यह है कि यह स्टार अगर दिलीप कुमार न होकर सिर्फ़
यूसुफ़ ख़ान होता और `नामों की यह एकता-समता ` संभव न होती तो क्या वह `हिंदू-मुस्लिम
एकता` का प्रतीक कहला सकता था। लगता है
कि ऐसे निष्कर्षों के लिए की जा रही ज़ेहनी कसरत में ज़ेहन से ज़्यादा दिल का
इस्तेमाल किया जाता है। फ़राख़-दिल के पीछे तंग-दिल ही काम कर रहा होता है जो उन
हादसात को देखने से इंकार कर रहा होता है जिनका असर सियासत से लेकर कल्चरल इदारों
तक पर छा रहा था। वर्ना क्या वजह है कि हमारे कई उदार बुद्धिजीवियों तक का ज़ोर यह
साबित करने में लगा रहा कि सिनेमा की दुनिया में कलाकारों के नाम बदले जाने का एक
व्यापक चलन था। मिसाल के तौर पर उन हिन्दू अभिनेता-अभिनेत्रियों के नाम भी गिनाए
गए जिन्हें सिने-परदे पर आने से पहले दूसरे नाम दिए गए थे या उनके बड़े नामों को छोटा
करके `स्मार्ट` कर दिया गया था। ऐसी मिसालें पेश करते
हुए हिन्दू और मुसलमान कलाकारों के नाम बदले जाने में एक साफ़ फ़र्क़ को अनदेखा किया जाता रहा। वह यह कि हिन्दू कलाकारों के नाम बदले जाकर भी हिन्दू चलन के ही रहे जबकि मुसलमान कलाकारों
को हिन्दू चलन के नाम दिए गए। मीना कुमारी (महजबीं बानो), मधुबाला (मुमताज़ जहाँ
देहलवी), अजीत (हामिद अली ख़ान), जगदीप (सैयद इश्तियाक़ अहमद जाफ़री), जयंत
(ज़कारिया ख़ान) जैसे कुछ बड़े नाम उदाहरण के तौर पर देखे जा सकते हैं।
एक दलील यह पेश की जा रही है कि फ़िल्मों में बतौर
संगीतकार, गीतकार, डायरेक्टर, कैमरामैन वगैराह दूसरे मुस्लिम फ़नकार बड़ी संख्या
में प्रभावी रूप से उपस्थित रहे। वे अपनी धार्मिक पहचान के साथ ही पब्लिक में
मक़बूल हुए। जाहिर है कि फ़िल्म जनता के बीच सबसे पहले अदाकारों पर फ़िदा होने का
माध्यम रहा है। नाम भी अदाकारों के ही बदले गए।
एक दलील यह है कि अभिनय की दुनिया में भी ऐसे बहुत से लोग
थे जो अपने मुस्लिम पहचान वाले नामों के साथ ही काम कर रहे थे और मशहूर थे। तो फिर
ऐसी क्या ज़रूरत थी कि मुस्लिम कलाकारों को हिन्दू पहचान वाले नाम देने का चलन
पैदा किया गया था? वहीदा रहमान तो तब वहीदा रहमान
रह सकीं जब उन्होंने अपना नाम बदलने से साफ़ इंकार कर दिया और फ़िल्मी दुनिया के गुरुदत्त
जैसे असरदार लोग उनकी हिमायत में खड़े हुए।
यह माना जा सकता है कि युसूफ़
ख़ान को दिलीप कुमार बनाने के पीछे सीधे कोई साम्प्रदायिक मंशा नहीं थी। देविका
रानी जो एक मुसलमान कलाकार नजमुल हसन के प्यार में डूबकर एक दफ़ा हिमांशु रॉय को
छोड़कर भी चली गई थीं, मुसलमान नाम से घृणा क्यों करतीं? कहा जाता है कि गीतकार नरेंद्र
शर्मा ने युसूफ़ ख़ान के लिए तीन नाम वासुदेव, जहाँगीर और दिलीप कुमार सुझाए थे।
उनमें से युसूफ़ ख़ान ने जहाँगीर को पसंद किया था पर भगवतीचरण वर्मा के सुझाव पर
देविका रानी ने दिलीप कुमार नाम को ही चुना। यह मान लिया जाए कि मुसलमान कलाकारों
को हिन्दू चलन के नाम देने के पीछे कमर्शल दबाव या दिमाग़ था तो भी यह जानना
ज़रूरी है कि इसकी जड़ें कहाँ थीं।
देश के बँटवारे और आज़ादी से पहले ही एक हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक दबाव कभी उग्र रूप में और कभी बड़़े सहज ढंग से चारों तरफ़़ मौजूद था। गाँधी-नेहरू की उपस्थिति के बावजूद कांग्रेस पार्टी तक इस गिरफ़्त में थी। बंबई तो यूँ भी तिलक, सावरकर, हेडगेवार वगौराह का `इलाक़ा` था। आज़ादी के बाद तो देश में पाकिस्तान के बरक्स हिन्दू हिन्दुस्तान के आग्रह को और ज़्यादा हवा दी गई। यहाँ तक कि गाँधी का क़त्ल कर दिया गया और नेहरू की बहुत हद तक घेराबंदी कर दी गई। न तो बँटवारा और न भयानक मारकाट अचानक पैदा हुई स्थिति थी और न गाँधी की हत्या किसी तात्कालिक उन्माद का नतीजा थी। हिन्दी सिनेमा की सेकुलरिज़्म की अद्भुत परंपरा के बावजूद वहाँ की बीमारियाँ भी कोई एक दिन की चीज़ नहीं थीं। आज़ादी के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में बे-शक़ एक लंबा दौर सेकुलर ट्रेडिशन में यक़ीन रखने वाले डायरेक्टरों और दूसरे कलाकारों के ही दबदबे का रहा। ऐसी तमाम फ़िल्में बनीं जिनके लिए आज कोई स्पेस ही नहीं है। लेकिन, यह साबित करते रहना कि सब कुछ अचानक ढह गया और पहले साम्प्रदायिकता मौजूद ही नहीं थी, नेहरू के असर के सेकुलर बुद्धिजीवों तक की भी एक पुरानी बीमारी रही है।
इस ट्रैजडी को दिलीप कुमार के दबदबे और उनकी लाचारी से भी समझा जा सकता है। वह एक ऐसे स्टार थे जिनकी पहली फ़िल्म `ज्वार भाटा` 1944 में आई पर उनकी चमक 2021 में उनकी मौत तक ज़माने और रुचियाँ बदल जाने के बावजूद भी क़ाएम थी जबकि वे अपनी सुधबुध खो जाने की वजह से लंबे समय से किसी तरह के सार्वजनिक जीवन तक में नहीं थे। वे नेहरू के क़रीबी थे। कहा जाता है कि उनके व्यक्तित्व, उनकी डायलॉग डिलीवरी के अंदाज़ और उनकी सोच पर नेहरू का साफ़ असर था। नेहरू भी उनकी जवाहिरनिगारी से मुतासिर थे और उनकी छवि के राष्ट्रीय इस्तेमाल के रूप में भी सचेत थे। नेहरू के परिवार और उनकी पार्टी के साथ उनका सक्रिय रिश्ता बाद में भी लंबे समय तक बरक़रार रहा। एक कामयाब सितारे के तौर पर, पीढ़ियों पर असर डालने वाले एक महान अभिनेता के रूप में और अपने नफ़ीस तौर-तरीक़ों से बौद्धिक हलकों और आम लोगों के बीच उनका अपना जादू भी कम नहीं था। इसके बावजूद एक मुसलमान के रूप में उन्हें मौत के बाद तक ज़लील हमलों का सामना करते रहना पड़ा।
फ़ासिस्ट मीडिया और उसकी सोशल
मीडिया इकाइयों ने दिलीप कुमार की मौत के बाद यह ज़हर उगला कि यूसुफ़ ख़ान ने अपना
हिन्दू नाम दिलीप कुमार करके बेशुमार दौलत कमाई, और करोड़ों रुपये का दान किसी
मुसलमान संस्था को दिया। यह सब पहली मर्तबा नहीं था। उन पर भयानक हमले कांग्रेस के
`सेकुलर राज` में ही शुरू हो गए थे। 1964 में पाकिस्तान से जंग से एक बरस पहले
उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्ज़ाम लगा दिया गया था। उनके बाथरूम में
ट्रांसमीटर होने की बात प्रचारित की गई और उनके घर की तलाशी भी हुई। बाद में
फ़ासिज़्म के उभार के दिनों में `फायर` फ़िल्म के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे अभियान पर उन्होंने फ़िल्म
इंडस्ट्री की एक सजग शख़्सियत के नाते स्टैंड लिया तो उन्हें राज्य सभा में
पाकिस्तानी बोल दिया गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बंबई में दंगों से पैदा हुई
बदहाली के बीच वे पीड़ितों की मदद के लिए निकले तो बाल ठाकरे ने उनके ख़िलाफ़
मोर्चा खोल दिया। शिव सेना उनके घर के बाहर प्रदर्शन करती रही। उम्र के आख़िरी दौर
में उन्होंने पाकिस्तान की यात्रा की तो वहाँ उनका ज़ोरदार ख़ैर-मक़्दम किया गया।
उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान `निशान-ए-इम्तियाज़` से नवाजा
गया। बाल ठाकरे ने फिर उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी और प्रदर्शन कराए। उन्हें दिल्ली
जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने अपना पक्ष रखना पड़ा।
`भारत रत्न` और
दूसरे बड़े राष्ट्रीय सम्मानों के स्वाभाविक हक़दार दिलीप कुमार को इनसे क्यों
महरूम रखा गया, यह अहम सवाल इस बात के सामने कितना मामूली है कि एक बुलंद-तरीन
शख़्सियत को कैसी हक़ीर-तरीन
हरकतों का सामना करते हुए ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी। उन्हें भारत-पाक दोस्ती के
सिम्बल के तौर पर याद करते हुए एक सानिहा यह भी दोहराया जा रहा है-
``प्रधानमंत्री अटल बिहारीजी वाजपेयी ने जब उन्हीं
सम्बंधों का वास्ता देते हुए बात करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़
शरीफ़ को फ़ोन लगाया, तो
उनके साथ दिलीप कुमार भी जुड़े थे. तब दिलीप साहब ने युद्ध बंद करने की अपील करते
हुए साफ़-साफ़ कहा था कि जब भारत-पाकिस्तान-सीमा पर तनाव पैदा होता है, तो हिंदुस्तान के
मुसलमानों की हालत बहुत पेचीदा हो जाती है. उन्हें अपने घरों से निकलने में भी
दिक़्क़त महसूस होती है, कुछ
कीजिए,.`` (सत्यदेव त्रिपाठी के ही लेख से।)
रणनीति-कूटनीति
कुछ भी कहिए पर यह कैसी बात है कि हिन्दुस्तान के किसी मुसलमान के मुँह से
पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म से यह गुहार लगवाई जाए या उसे अपने प्रधानमंत्री की
मौजूदगी में यह कहना पड़े कि अपने मुल्क में मुसलमान किस पेंचीदी हाल में हैं!
यूसुफ़ ख़ान को दिलीप कुमार बना दिए जाने की `स्वेच्छा` के
लिए भी ज़लील होना पड़ा और यूसुफ़ ख़ान होने की हक़ीक़त के लिए भी। असल में, यह
ट्रैजिड़ी हिन्दी फ़िल्मों के `ट्रैजिडी किंग` की न होकर इंडियन
सेकुलरिज़्म की ट्रैजिडी है।
2002 के गुजरात नरसंहार के बाद दिलीप कुमार ने एक नागरिक के नाते अपना मुखर विरोध दर्ज़ कराया था। तब सुभाष झा से उनकी बातचीत का एक हवाला महमूद फ़ारूक़ी ने अपने लेख में दिया है - ``अपने ही लोगों की बर्बरता से बचकर कहाँ जाऊं? …मुसलमान ज़ल्द ही तारीख़ का हिस्सा होकर रह जाएंगे। हर सिविलाइज़ेशन एक चक्र है जिसे ख़त्म होना ही है। मेरा अपना मानना है कि आख़िरकार हिन्दुस्तानी मुस्लिम आबादी को ख़त्म कर दिया जाएगा।`` Where can I go to escape the barbarism of my own people? … The Muslims will soon become a part of history. Every civilization is cyclic and must end. My personal view is that the Indian Muslim population may eventually be annihilated.’
देखें- A few word about Dilip Kumar, Mahmood Farooqui, (https://womendastangos.wordpress.com/)
नेहरुवियन सेकुलरिज़्म के मुरीद
जो हर बात को मामूली मानकर प्रफुल्लता से लीपापोती करने के आदी हैं, शायद इस
हृदय-विदारक बयान से कुछ समझ सकें। नुक्ता-चीं शायद उनकी इंतिहाई हज़्म-ओ-एहतियात
के पीछे की वजह समझ सकें। और समझ सकें कि यूसुफ़ ख़ान की जैसी स्वेच्छा दिलीप
कुमार हो जाने में थी, वैसी ही इंदिरा-संजय से लेकर ठाकरे-अटल के साथ रिश्तों में
थी।
(समयांतर, अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित)
बहुत ही तर्किक लेख 👍
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