भारत के मशहूर फिल्म निर्माता निर्देशक कुमार शाहानी पिछले सप्ताह कोची में एक सेमिनार में हिस्सा लेने आये थे। चाय के वक़्त मैंने उनसे यों ही बतियाने की कोशिश की। मैं जानना चाहता था कि आखिर `माया दर्पण`, `क़स्बा` `तरंग` और ऐसी ही कई यादगार फिल्में दे चुका शख्स खामोश क्यों है। उन्होंने कहा कि फिल्म के लिए एक टीम चाहिए और टीम के हर मेंबर को देने के लिए पैसा चाहिए। मैंने कहा कि २० साल दुनिया में बेइंतहा बदलाव के साल हैं और हिन्दुस्तान भी इस दौरान तरह-तरह के सितम झेलता रहा है। एक फिल्मकार के नाते आप इस बारे में क्या सोचते हैं और क्या आपको इस सब को अपनी विधा में दर्ज करने की बेचैनी नहीं होती। शाहानी के चेहरे पर दुःख छलक आया और वे बोले,
``मुझे अचरज होता है कि मैं जिंदा क्यों हूँ। रियली...। इतना redundant हो गए हैं। समझ नहीं आता क्यों जी रहे हैं।``
(शीर्षक विष्णु नगर और असद ज़ैदी के संपादन में छपी कविता की किताब से)
Aise logon ke liye aaj ke bazar mein tik pana behad mushkil hai.
ReplyDeleteऐसा सोचने वाले वे अकेले तो नहीं होंगे ?
ReplyDeletekumar se ek dafa achanak main bhi mila tha...maine un dinon nritya par unka ek nibandh padha tha...aur ek chota tukda smita patil par bhi jo unhone pathkatha ke ek purane ank me likha tha...bahut dilchaspi se baten karte rahe the aur un baton me bhi aisa hi afsos taak-jhank karta raha tha...kumar jaisi film banate the, uski jagah yahan na ke barabar hai...kumar kya unse kuch kamtar k liye bhi jagah nahi hai...''yah bharat men ek kalakmak vidha ke roop men film ke liye aisa samay hai''...
ReplyDeleteधीरेश, मुझे कुमार साहनी जैसी और भी कई चुप्पियों पर अफ़सोस और हैरानी है। यह चुप रहने का दौर तो नहीं है।
ReplyDeleteमुझे लगता है सिनेमा के रुपहले जगत मे लोगों की स्मृतियाँ क्षणिक होती हैं..और हर जाती लहर कई आती लहरों के बीच खो जाती है..
ReplyDelete.... बदलते परिवेश मे हर चीज बदल जाती है,आज की दौड जरा कठिन है जिसमे हर कोई नही दौड सकता!!!!!
ReplyDeletemujhe lagta hai cinema ab virodh ki vidha nahi raha hai. mr.sahni jaise logon ke liye space nahi hai ab.
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