Saturday, January 2, 2010

कृष्ण कल्पित की एक कविता - रेख़ते के बीज

रेख़ते के बीज
(उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लंबा पर अधूरा वाक्य)
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एक दिन मैं दुनिया जहान की तमाम महान बातों महान साहित्य महान कलाओं से ऊब-उकताकर उर्दू-हिन्दी शब्दकोष उठाकर पढ़ने लगा जिसे उर्दू में लुग़त कहा जाता है यह तो पता था लेकिन दुर्भाग्यवश यह पता नहीं था कि यह एक ऐसा आनंद-सागर है जिसके सिर्फ़ तटों को छूकर मैं लौटता रहा तमाम उम्र अपनी नासमझी में कभी किसी नुक़्ते-उच्चारण-अर्थात के बहाने मैं सिर्फ जलाशयों में नहाता रहा इस महासमुद्र को भूलकर और यह भूलकर कि यह लुग़त दुनिया के तमाम क्लासिकों का जन्मदाता है और एक बार तो न जाने किस अतीन्द्रिय-दिव्य प्रेरणा से इसे मैंने कबाड़ी के तराज़ू पर रखकर वापस उठा लिया था इसकी काली खुरदरी जिल्द का स्पर्श किसी आबनूस के ठंडे काष्ठ-खण्ड को छूने जैसा था जिससे बहुत दिनों तक मैं अख़बारों के ढेर को दबाने का काम लेता रहा जिससे वे उड़ नहीं जाएँ अख़बारी हवाओं में इसे यूं समझिए कि मेरे पास एक अनमोल ख़ज़ाना था जिसे मैं अपनी बेख़बरी में सरे-आम रखे हुए था यह वाक्य तो मैंने बहुत बाद में लिखा कि एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ कि दुनिया के तमाम आबशार यहीं से निकलते हैं कि इसकी थरथराती आत्मा में अब तक की मनुष्यता की पूरी कहानी लिखी हुई है कि इसकी पुरानी जर्जर काया में घुसना बरसों बाद अपने गाँव की सरहदों में घुसना है कि मैंने इसके भीतर जाकर जाना कि कितनी तरह की नफ़रतें होती हैं कितनी तरह की मुहब्बतें कैसे कैसे जीने के औज़ार कैसी कैसी मरने की तरकीबें कि इसकी गलियों से गुज़रना एक ऐसी धूल-धूसरित सभ्यता से गुज़रना था जहाँ इतिहास धूल-कणों की तरह हमारे कंधों पर जमता जाता है और महाभारत की तरह जो कुछ भी है इसके भीतर है इसके बाहर कुछ नहीं है एक प्राचीन पक्षी के पंखों की फड़फड़ाहट है एक गोल गुम्बद से हम पर रौशनी गिरती रहती है जितने भी अब तक उत्थान-पतन हैं सब इसके भीतर हैं इतिहास की सारी लड़ाइयां इसके भीतर लड़ी गईं शान्ति के कपोत भी इसके भीतर से उड़ाए गए लेकिन वे इसकी काली-गठीली जिल्द से टकराकर लहूलुहान होते रहे और यह जो रक्त की ताज़ा बूँदें टपक रही हैं यह इसकी धमनियों का गाढ़ा काला लहू है जो हमारे वक़्त पर बदस्तूर टपकता रहता है जो निश्चय ही मनुष्यता की एक निशानी है और हमारे ज़िंदा रहने का सबूत गुम्बदों पर जब धूप चमक रही हो तब यह एक पूरी दुनिया से सामना है यह एक चलती हुई मशीन है वृक्षों के गठीले बदन को चीरती हुई एक आरा मशीन जिसका चमकता हुआ फाल एक निरंतर धधकती अग्नि से तप्त-तिप्त जहाँ काठ के रेशे हम पर रहम की तरह बरसते हैं पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह अपने रंग-रेशों-धागों को अपनी आत्मा से सटाए हुए हम हमारे इस समय में गुज़रते रहते हैं यह जानते हुए कि जिन जिन ने भी इन शब्दों को बरता है वे हमारे ही भाई-बंद हैं एक बहुत बड़ा संयुक्त परिवार जिसके सदस्य रोज़ी-रोटी की तलाश में उत्तर से पच्छिम व पूरब से दक्खिन यानी सभी संभव दिशाओं में गए और वह बूढ़ा फ़क़ीर जो रेख़ते के बीज धरती पर बिखेरता हुआ दक्खिन से पूरब की तरफ आ रहा था जिसे देखकर धातु-विज्ञानियों ने लौह-काष्ठ और चूने के मिश्रण से जिस धातु का निर्माण किया उससे मनुष्य ने नदियों पर पुल बनाए लोहे और काष्ठ के बज्जर पुल जिन पर से पिछली कई शताब्दियों से नदियों के नग्न शरीर पर कलकल गिर रही है चूना झर रहा हैं अंगार बरस रहा है और जिसके कूल-किनारों पर क़ातिल अपने रक्तारक्त हथियार धो रहे हैं वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम तांडव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोष की जीर्ण-शीर्ण काया में सर छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और क़ाश के बग़ल में और क़ाबिले-ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे क़ाबिलियत और क़ाबिले-रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है और बावजूद क़ातिलों को पनाह देने के यह दुनिया की सबसे पवित्र किताब है जबकि दुनिया के तमाम धर्मग्रंथों को हर साल निर्दोष लोगों के रक्त से नहलाने की प्राचीन प्रथा चलती आती है इस तरह पीले नीले गुलाबी हरे रेशम वस्त्रों में लिपटे हुए धर्मग्रंथ मनुष्य के ताज़ा खून की तरह प्रासंगिक बने रहते हैं जबकि यहाँ दरवाज़े से झाँकते ही हमें दरिन्दे और दरवेश एक से लबादे ओढ़े हुए एक साथ नज़र आते हैं लुग़त के एक ही पन्ने पर गुज़र-बसर करते और उस काल्पनिक और पौराणिक धार की याद दिलाते हुए जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पीते थे और यह तो सर्वथा उचित ही है कि शराब शराबख़ाना शराबख़ोर और शराबी एक ही इलाक़े में शिद्दत से रहें लेकिन क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं कि शराफ़त जितनी शराबी के पास है उतने पास किसी के नहीं हालाँकि शर्मिन्दगी उससे दो-तीन क़दम दूर ही है यह कोई शिगूफ़ा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुज़ारियों पर शर्मसार है जिसका हिन्दी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसके लिए फिर लज्जित होता हूँ कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है १८५७ जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पढ़ रहा हूँ जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं इसके सारे शब्द १८५७ के स्वतंत्रता-सेनानी हैं ये सूखे हुए पत्ते हैं किसी महावृक्ष के जिससे अभी तक एक प्राचीन संगीत क्रंदन की तरह राहगीरों पर झरता रहता है यह एक ऐसी गोर है जिसके नीचे नमक की नदियाँ लहराती रहती हैं आँधियों में उड़ता हुआ एक तम्बू जो जैसा भी है हमारा आसरा है एक मुकम्मल भरोसा कि यह हमें आगामी आपदाओं से बचाएगा कहीं से भी खोलो इस कोहे-गिराँ को यह कहीं से भी समाप्त नहीं होता है न कहीं भी शुरू जैसे सुपुर्द का मानी हुआ हस्तांतरित तो क्या कि शराब का मटका और सुपुर्दगी होते ही हवालात में बदल जाता है गाने-बजाने का सामान होता है साज़ पर वह षड्यंत्र भी होता है मरते समय की तकलीफ़ को सकरात कहते हैं शब्द है तो मानना ही पड़ेगा कि वह चीज़ अभी अस्तित्व में है सकरात की तकलीफ़ में भी शब्द ही हमारे काम आएँगे यह भरोसा हमें एक शब्दकोष से मिलता है जिसे मैं क्लासिकों का क्लासिक कहता हूँ जिस उर्दू-हिन्दी शब्दकोष को मैं इस समय पढ़ रहा हूँ उसे ख़रीद लाया था सात बरस पहले एक रविवार दिल्ली के दरियागंज से एक किताबों के ढेर से फ़क़त बीस रुपयों में उस कुतुब फ़रोश को भला क्या पता कि गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेच रहा है वह एक समूची सभ्यता का सौदा कर रहा है सरे-राह जिसमें सकरात के फ़ौरन बाद सुकूत है और इसके बाद सुकून इसके बाद एक पुरानी रिहाइश है जहाँ हम सबको पहुँचना है काँटों से भरा एक रेशम-मार्ग सिल्क जिसे कभी कौशेय कभी पाट कभी डोरा कभी रेशम कहा गया यह एक सिलसिलाबंदी है एक पंक्तिबद्धता जो हमारे पैदा होने से बहुत पहले से चली आती है क्या आप जानते हैं कि समंदर एक कीड़े का नाम है जो आग में रहता है ऐसी ऐसी हैरत अंगेज़ आश्चर्यकारी बातें इन लफ़्ज़ों से बसंत के बाद की मलयानिल वायु में मंजरियों की तरह झरती रहती हैं ऐसे ऐसे रोज़गार आँखों के सामने से गुज़रते हैं मसलन संगसाज़ उस आदमी को कहते हैं जो छापेख़ाने में पत्थर को ठीक करता और उसकी ग़लतियाँ बनाता था और यह देखकर हम कितने सीना सिपर हो जाते थे कि हर आपत्ति-विपत्ति का सामना करने को तैयार रहने वालों के लिए भी एक लफ़्ज़ बना है तथा जिसे काया प्रवेश कहते हैं अर्थात अपनी रूह को किसी दूसरे के जिस्म में दाखिल करने के इल्म को सीमिया कहते हैं जो लोग यह सोच रहे हैं कि अश्लीलता और भौंडापन इधर हाल की इलालातें हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उरयानी बहुत पुरानी है पुरानी से भी पुरानी दो पुरानी से भी अधिक पुरानी काशी की तरह पुरानी लोलुपता जितनी पुरानी लालसा और कामशक्तिवर्द्धक तेल तमा जितनी पुरानी और जिसमें उग्रता, प्रचंडता और सख्त तेज़ी जैसी चीज़ें हों उसे तूफ़ान कहा जाता है और आदत अपने आप में एक इल्लत है जैसा कि पूर्वकथन है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है कहीं पर भी समाप्त किया जा सकता है फिर से शुरू करने के लिए एक शब्द के थोड़ी दूर पीछे चलकर देखो तुम्हें वहाँ कुछ जलने की गंध आएगी एक आर्त्तनाद सुनाई पड़ेगा कुछ शब्द तो लुटेरों के साथ बहुत दूर तक चले आए लगभग गिड़गिड़ाते रहम की भीख माँगते हुए शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं फिर भी वे सिपाहियों की तरह सन्नद्ध हैं रेगिस्तान नदियों समन्दरों पहाड़ों के रास्ते वे आए हैं इतनी दूर से ये शब्द विजेताओं की रख हैं जो यहाँ से दूर फ़ारस की खाड़ी तक उड़ रही है इनका धूल धूसरित चेहरा ही इनकी पहचान है ये अपने बिछड़े हुओं के लिए बिलखते हैं और एक भविष्य में होने वाले हादसे का सोग मनाते हैं और इनके बच्चे काले तिल के कारण अलग से पहचाने जाते हैं यहाँ उक़ाब को गरुड़ कहते हैं जिसे किसने देखा है एक ग़रीबुल-वतन के लिए भी यहाँ एक घर है कहने के लिए कंगाल भी यहाँ सरमाएदार की तरह क़ाबिज़ है यह एक ऐसा भूला हुआ गणतंत्र है जहाँ करीम और करीह पड़ोसी की तरह रहते हैं यह अब तक की मनुष्यता की कुल्लियात है हर करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप गूँज रही है और इससे गुज़रते हुए ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा यह उत्तर-आधुनिक समय दर अस्ल देरीदा-हाल नहीं बल्कि दरीदा-हाल है किंवा यह फटा-पुराना समय पहनकर ही हम इस नए ज़माने में रह सकते हैं यह जानते हुए कि लिफ़ाफ़ा ख़त भेजने के ही काम नहीं आता हम चाहें तो इसे मृत शरीरों पर भी लपेट सकते हैं एक निरंतर संवाद एक मनुष्य का दूसरे से लगातार वाकोपवाक एक अंतहीन बातचीत कई बार तो यह शब्दकोष जले हुए घरों का कोई मिस्मार नगर लगता है जहाँ के बाशिंदे उस अज्ञात लड़ाई में मारे गए जो इतिहास में दर्ज नहीं है एक कोई डूबा हुआ जहाज़ एक ज़ंग खाई ज़ंजीर टूटा हुआ कोई लंगर एक सूखा हुआ समुद्र उजाड़ रेगिस्तान एक वीरान बंदरगाह एक उजड़ा हुआ भटियारख़ाना इसी तरह धीरे धीरे हमारी आँखें खुलती हैं और हवा के झोंकों से जब गुज़िश्ता गर्द हटती है तब हमारा एक नई दुनिया से सामना होता है जहाँ विपत्तियों-आपदाओं और बुरे वक़्त में इस शब्दकोष से हम उस प्राचीन बूढ़े नाविक की तरह एक प्रार्थना बना सकते हैं;
एक जीर्णशीर्ण शब्दकोष इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह मुसीबत के दिनों में मनुष्यता के लिए एक प्रार्थना बन जाए, भले ही वह अनसुनी रहती आई हो.
***

(कृष्ण कल्पित की यह अद्भुत कविता संबोधन के समकालीन युवा कविता विशेषांक में छपी है.)

38 comments:

  1. कविता की धूल!
    इसे फिर से पढ़ूँगा.

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  2. अत्यंत प्रभावशाली कविता. विश्व-स्तरीय. यह कृष्ण कल्पित कौन हैं? बहुत समय से ऐसा युवा स्वर सुनाई नहीं दिया. ऐसी प्रौढ़ कविता तो हिन्दी के सीनियर कविगण भी नहीं लिख सकते. निरंजन पाठक

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  3. कृष्ण कल्पित नाम देख कर ही समझ गया था अच्छा आलेख होगा... मैं फिर से आता हूँ...

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  4. paaThak jee aap kavitaa se juDe hain , jaipur se ek patrikaa nikalatee hai, " kriti or " vijendra jee is ke sansthaapak sampaadak hain.aajkal ramakaant jee dekhate hain. kalpit jee kee, "kavitaa ki raakh" naam se ek mahatva poorn kavyaalochanaa series gat varsh yahaan dekhaa gayaa, jo yuvaa kaviyon ne bahut saraahaa.

    aur "sharaabee kee sooktiyaan" to pichhale dino khaasee charchit rahee.mere blog par is kaa link dekhaa jaa sakataa hai. ab is me kya ulajhanaa ki kavi prouDh hain ya yuvaa.

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  5. सचमुच बेहद सुंदर। स्कूल के दिनों में बातें नाम का एक बाठ पढ़ा था. तब लगा था ऐसे टॉपिक पर भी लिखा जा सकता है। यहां तो शब्द पर समुद्र सुखा दिया गया है।

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  6. अद्भुत! विस्मयकारी!

    शब्द कैसे तस्वीरें गढते हैं कोई देखे यहां


    पर भाई लोग इसके कविता होने पर भी सवाल उठायेंगे!

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  7. विगत तीन दिनों से रह-रह कर पढ़ रहा हूँ शब्दों के इस अद्‍भुत प्रवाह को....आज हिम्मत करके कुछ कहने बैठा तो चकित हृदय कुछ भी सोच नहीं पा रहा...

    " गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेचने" का बिम्ब हो या फिर "करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप"....

    कल्पित साब, जो कहीं ये टिप्पणियाँ पढ़ रहे हों तो सैल्युट है सर आपको इस फौजी का।

    @अशोक भाई,

    यदि इशारा मेरी ओर है तो मैं मुस्कुरा रहा हूँ। मुझे तो कई बार प्रियवंद, मनीषा और प्रत्यक्षा की कहानियाँ भी कविता लगती हैं और कई बार कुछ नामचीन कवियों{नाम नहीं लूंगा, मेरे भगवान लोग खफ़ा हो जायेंगे} की कवितायें भी निबंध जैसी लगती हैं। पाठक हूँ और कोई भी कवि या कविता अपने पाठक के बिना पर कवि या कविता होते हैं।

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  8. धन्यवाद गौतम! आप्ने इसे कविता माना.
    लेकिन मैं लय की बात करना चाहता हूँ , जिसे शायद आप कविता का अनिवार्य तत्व मानते हैं . इस कविता में ज़ोर् दार प्रवाह (फ्लो) तो है, ( एक कोमा, एक सेमि कोलन और एक फुलस्टॉप के सिवा कोई विराम चिन्ह नहीं ) लेकिन एक रिदम(लय) भी तो चाहिए . जो वक़्फा(गैप) से आता है और पाठ को अलग अर्थ ध्वनियाँ देता है .उसे हम विराम चिन्हों या स्टेंज़ा में स्पेस दे कर व्यक्त करते हैं .... या लय का मतलब मैं कुछ गलत समझ रहा हूँ ?
    क्षमा करना सीखने के लिए मैं यहाँ भी आ पहुँचा. अन्यथा न लें , सच मुच ये टेक्निकल चीज़ें मुझे बहुत उलझाती हैं . पहली नज़र में जो चीज़ कविता लगती है, उसे मैं कविता ही मान लेता हूँ. बाद में विषेशज्ञ इंगित करते हैं तो लगता है एक तरह से वे भी ठीक कह् रहे हैं. लय को ज़रा परिभाषित करेंगे ?

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  9. @अजेय जी को प्रणाम,
    विलंब से आया तो आपका सवाल देखा। दरअसल जिस जगह पर हूँ, वहाँ इंटरनेट कनेक्शन की सुलभता किसी दैव-वरदान से कम नहीं...
    खैर, ये लय की परिभाषा पूछ कर, वो भी मुझ अदने से, आपने अचंभित कर दिया है। मैं वैयाकरण नहीं हूँ सर। कविता का पाठक हूँ तो अपनी राय-दो राय इधर-उधर डालता रहता हूँ। एक बचपन से छंदों से प्रेम रहा है...उर्दू के छंद-शास्त्र का तनिम-मनिक ज्ञान है।
    लय को परिभाषित करना तो बड़ा मुश्किल है। मैं सिपाही हूँ तो मेरे लिये तो एके-47 की मैगजिन से निकल चैंबर तक जाने वाली बुलेट के "क्लिंग-क्लैंग" में भी एक लय है, ट्रिगर दबाने के पश्चात एक निश्चित अंतराल पर मैगजिन की तीसों गोलियों के निकलने के धांय-धांय में भी एक ग़ज़ब का लय है। जैसा की आपने ही कहा था अनुनाद पर कि चिड़ियों की चहचहाहट, आदिवासियों का लोक-संगीत, नदी का बहाव, झील का ठहराव...सबमें अपना एक लय। भीमसेन जोशी के अलाप या बाबा सहगल के ’ठंढ़ा ठंढ़ा पानी’ में भी उतना ही लय पाता हूँ मैं जितना रफ़ी के गले की उठान में...एमिनेम के रैप से लेकर जैक्सन की बीट इट तक में लय मिलता है मुझे तो। जहाँ प्रियवंद की कहानियों में ऐसा ग़ज़ब का प्रवाह मिलता है कि वो किसी कविता से कम लयात्मक नहीं लगती मुझे, वहीं पंकज राग की बहुचर्चित "1857" को कविता कहने में हिचक होती है मुझे।
    अब लय को परिभाषित करने कहेंगे, तो वो नहीं होगा मुझसे। वैसे एक तस्वीर देखी थी एक दिन भटकते-भटकते आपके ब्लौग पर...पानी के नल से जमा हुआ ठिठका पानी का एक कतरा...वैसे तो यहां कश्मीर् की इस वादी में ऐसे दृश्यों से जाने कितनी बार पाला पड़ा है, किंतु उस तस्वीर में भी एक ग़ज़ब का लय और सही मायने वो अकेली तस्वीर एक मुकम्मल कविता है।

    ग़ालिबो-मीर के शेरों में लय है- अद्वितिय लय है। उस लय को समझता हूँ, लेकिन आप फिर पूछेंगे कि लय क्या है तो वो न कह पाऊंगा.....अब अपने इसी पोस्ट में कल्पित साब जब लिखते हैं "शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं" और ऐसी कितनी ही पंक्तियां पुराने छंद या मुकम्मल बहर पे बैठी नजर आती हैं।

    बस....

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  10. गौतम जी के कहे पर आया हूँ। बात गम्भीर है।
    फिर आता हूँ। फिलहाल इसमें डूब उतरा रहा हूँ।

    http://ramyantar.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html

    एक संस्कृत सूत्र:
    "कवयाम वयाम याम."

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  11. मेजर गौतम ने यहाँ का लिंक दिया और मैं यहाँ पहुंच गया ..वैसे भी देर सबेर आता ही और यहाँ पहुंचकर चमत्क्रत ही होता इसीलिये बहुत सारी बातें कहने का मन हो रहा है कविता के बारे में लेकिन यह सब तो मैं कह चुका हूँ कथ्य शिल्प लय सभी के बारे में और जो कुछ मैने कहा है उसे मैने अपने प्रोफाइल "मेरे बारे में " के विवरण में लगा रखा है और यह भी कि यह कविता क्यों है.. अगर आप उसे पढ़ेंगे तो वहाँ भी आपको कविता भी दिखाई देगी जैसे कि मेजर को बन्दूक से निकली गोलियों की आवाज़ में भी दिखाई देती है और तम्बू की छत से टपकती बून्दों में ।
    कृष्णकल्पित हिन्दी कविता के पाठकों के लिये एक परिचित नाम है .. । इस कविता के लिये उन्हे बधाई ।

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  12. ओह god ...............
    कमाल...मेजर.......!!!!!

    कमाल..............!!!!!!!!!!!!!!!
    !!!!!!!!!!!!!

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  13. ग़ालिबो-मीर के शेरों में लय है- अद्वितिय लय है। उस लय को समझता हूँ, लेकिन आप फिर पूछेंगे कि लय क्या है तो वो न कह पाऊंगा.....

    यहाँ पर कुछ मत समझाओ मेजर...

    ये अन्दर की बातें हैं...

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  14. मनु भाई major हैं वो .....अन्दर तक मार के आयेंगे....जाने दो..
    @अजय....
    कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद
    ज्यों गुलाब के पुष्प में रूप रंग रस गंध.

    जय हिन्द :-)

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  15. लगता है मनुष्यता का सारा इतिहास लिपिबद्ध हो गया है वेगवती नदी की बल खाती इठलाती चल के साथ -बहुत आभार इस अद्भुत कृति को पढवाने के लिए .

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  16. # गौतम , लाजवाब्. आप ने कमाल की कविता लिखी है. जान कर खुशी हुई कि कविता उन इदारों में बची हुई है जहाँ प्रायः उम्मीद नही की जाती. अभिभूत हूँ... 'अजेय' के अगले पोस्ट में अपनी एक पुरानी कविता आप और आप के साथियों को समर्पित कर रहा हूँ. मुझे भी इन सब चीज़ों में लय दिखता है.सिवा कल्पित जी की इस कविता को छोड़ कर. लेकिन मैं इस कविता को फिर भी कविता ही मानता हूँ. बिना लय की कविता(?) हम याद करें बात कहाँ से शुरु हुई थी.
    आप ने ठीक किया कि कम से कम एक कविता और कवि का नाम ले लिया. इस से कंफ्युजंज़ दूर होते हैं.
    # शरद भाई, आप का प्रोफाईल नैं देख चुका हूँ. मैं चाहता था कि अनुनाद पर कुछ सार्थक काव्य चर्चा हो, उन मुद्दों पर जिन से वरिश्ठ कवि अक्सर बचते हैं, और खामियाज़ा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ता है.फिलहाल
    इस बीच मै दो चार चीज़ें समझ पाया. एक, लय को परिभाषित करना ज़रा टेढ़ा काम है.दो, परिवेश , देश काल, प्रोफेशन और भूगोल के हिसाब से भी लय की अलग अलग परिभाषाएं हो सकती हैं. मतलब कि एक पहाड़ी भेड़ चरवाहा अपनी लय मे जीता है, पंजाब के ट्र्क ड्राईवर की अपनी लय होती है, महनगर मे बैठा बुद्धिजीवी अपनी लय मै डूब रहा होता है,कस्बे मे संघर्ष रत दस्त कार अप्ना अलग लय तय्यार कर रहा है.. विदर्भ का किसान अपने लिए एक अलग लय ढूंड रहा होता है.सियाचिन या शुगर सेक्टर मे तैनात फौजी को एक अलग लय चाहिए..एंड् सो ऑन. तीन, इन सब से बेदखल हुए जा रहे आधुनिक कवि की भी तो एक लय हो सकती है जो शायद हम पकड़ न पा रहे हों.
    चार, लय अमूर्त होती है. ईश्वर जैसी कोई चीज़, जिसे हम मह्सूस करते हैं, परिभाषित नही कर सकते. या करने से डरते हैं, कि कहीं ऐसा करते हुए हम उसे एक सीमा में न बाँध दें.

    # मनु , आप्ने तो अपना मुद्दा ही छोड़ दिया. हम कुछ तय शुदा चीज़ों की बात कर रहे थे,

    # अनोनिमस जी, मारिए मत यार, यह काव्य चर्चा है , अखाड़ा नहीं. वैसे आप काफी पढ़े लिखे मालूम होते हैं. आप ही लय की परिभाषा दे दीजिए ज़रा. येह भी समझा दीजिए कि ये जो चार तत्व आप ने गिनाए इन में से अंतिम दो कल्पित जी कविता में कहाँ हैं? क्या लय और छन्द गद्य में भी होता है? क्या गद्य भी कविता हो सकती है? यदि हाँ , तो फिर ये दो अलग नाम क्यों दे दिए , उन्होने, जो चीज़ों को " तय " करते हैं. और हम उन तय शुदा माप दण्डों से बाहर क्यों नहीं जाना चाहते?

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  17. यधिपी साहित्य में कोई व्याख्या अंतिम नहीं होती ओर कोई परिभाषा मुकम्मल .लेकिन फिर भी मेरा मानना है की कविता हो या गध जब लिखने वाले की विद्ता या व्याकरण का आंतक उसके अर्थ पर हावी हो ...तो वो ना केवल कविता को दुरूह ओर जटिल बनाता है ..बल्कि उसे साहित्य के विधार्थियों के लिए आरक्षित करता है .माना की कविता को उथली ओर सपाट अभिव्यक्ति भी नहीं होना चाहिए पर आखिर समझ की अनिवार्य प्रक्रिया की भी तो कोई सीमा रेखा होती है ...भाषा ओर व्याकरण के नाप तौल में लिपटी कविता मुझ जैसे आम पाठक को उत्साहित नहीं करती है....क्या कविता की पहली शर्त उसका पठनीय होना नहीं है ?मानता हूँ के" अकविता आन्दोलन " के कवि किसी रुल बुक को फोलो नहीं करते ...पर कविता मनुष्य का यतार्थ भी है ओर उसका स्वपन भी ...हर कवि के अपने संस्कार होते है अपने नियम....
    उदारहण के लिए केदारनाथ सिंह की ये कविता ....
    छोटे से आँगन में /मान ने लगाये है तुलसी के बिरवे दो/पिता ने उगाया है /बरगद छतनार /मै अपना नन्हा गुलाब /कहाँ रोप दूँ
    यहाँ विम्ब ही कविता का अर्थ है ........
    शब्दों को सिलेवार ढंग से लगाकर अपने को उलीचना गर कविता होगा ...तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी......
    मई २००७ के वागर्थ में देश के प्रमुख कवि लीलाधर जुगडी की एक कविता जिसका शीर्षक है .".एक रिपोर्ट जिसका उद्देश्य कविता होना नहीं है "छपी है .कविता बहुत लम्बी है ....पर अपनी ले खो देती है .....वे सिरमोर कवि है .ज्ञानी है .अपनी प्रतिभा ओर सोच से उन्होंने कई बार प्रभावित किया है पर शायद यहाँ अकविता का प्रयोग करते वे कवि नहीं लगते .....केवल लम्बी कविता कहना गुणवत्ता की कसौटी है ....दो महीने पहले इसी पत्रिका में छपी "अपना घर फूंकने का विकल्प अभी खुला है "यदि अकविता है भी तो भी अपना अर्थ पूरा करती नजर आती है ..
    अगर हर कवि ग़ालिब की तरह ऐसे सोचने लग जाए .......
    बकोल ग़ालिब

    मुश्किल है जक्स कलाम मेरा ए दिल
    सुन सुन के उसे सुखनवराने कामिल
    आसान कहने की करते है फरमाइश
    गोयम मुश्किल ,वगरना गोयम मुश्किल

    तो यक़ीनन मामला ओर पेचीदा हो जाएगा .

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  18. तो मैं कल्पित सर को फ़ोन कर के बता दूँ की उन्हें पढने के लिए महफ़िल सज गयी है... संजय व्यास जी से कहिये वे आपको उनकी कृति "बढई का बेटा" भेज दें साथ ही कल्पित सर की इस लिंक को देखा jaye ... mujhe vishwas nahi hota 2007 mein prakashit इस post par itne kam logon ne comment kyon kiye hain ?

    http://krishnakalpit.blogspot.com/2007/01/blog-post.html

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  19. @मित्र अजयji,
    http://www.khabarexpress.com/
    Vartmaan-Sahitya-Magzine-1-3-47.html

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  20. डा० अनुराग के इस टिप्पणी के बाद और अनाम जी की उन दो पंक्तियों और वर्तमान-साहित्य के इस लिंक के पश्चात अब कुछ शेष नहीं रह जाता कुछ कहने को।

    @सागर,
    अब कर ही डालो फोन यार, कल्पित साब को। उन्हें भी तो पता चले की उनकी रचना के बहाने क्या कुछ जिक्र हुआ यहाँ पर।

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  21. # gautam,मनु, शुक्रिया. इस चर्चा में मज़ा आया. इस बहाने गौतम् की ताज़ा पोस्ट देखी, प्यारी सी कविता भी पढ़ी. बहस को हम फोकस्सड नही रख पाए,लेकिन भटकाव मे भी बहुत काम की बाते हुईं. बात इतनी सी है कि इस भीषण दौर में हम सम्वेदनाओं को बचा सकें.

    # अनुराग जी , आप ने भी सार्थक बात की.
    # कल्पित जी , आप की कविता का बहाना बना कर हम अनाप शनाप बहस् किए... सॉरी. होना तो यह चाहिए था कि मिल कर हम सब इस कविता को थोड़ा खोलते, खैर वक़्त आएगा,इस का विष्लेशण होगा. खाली वाह कहने में मज़ा नहीं है. आप कि यह रचना बहुत दिनों से ज़ेहन में है.
    # अनोनिमस जी, आप का लिंक खुल नही पाया. उस मे जो भी था साराँश बता देते....
    और भाई जी , गोली न मार देना. आप ही की तरफ का आदमी हूँ . जय हिन्द!
    फौजियों के लिए कविता ले कर जल्द ही अपने ब्लॉग पर हाज़िर हूँगा.

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  23. वैसे तो कृष्ण कल्पित जी की यह अद्वितीय रचना इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुका था, शिरीष जी द्वारा संजय व्यास जी के ब्लॉग पर उसकी चर्चा करने के बाद. मगर गौतम साहब के द्वारा निर्देशित करने के बाद थोडा लेट ही सही पर दोबारा आना हुआ इधर, और लगा कि पिछली बार इसे कितना सरसरे और सतही तौर पर पढ़ने की भूल की थी. इसके लिये गौतम जी को जितना भी शुक्रिया कहूँ, काफ़ी नही होगा. और कविता के इस रूप पर एक सार्थक चर्चा मे डूब कर लाभ लेना मुझ अज्ञानी के लिये बोनस के तौर पर रहा. और जब अजेय जी, अनुराग जी, शरद जी, अशोक जी और स्वयं गौतम जी के द्वारा विषय का इतना विशद विवेचन इस चर्चा को अपनी तार्किक परिणिति पर पहुँचा चुका है, कुछ और कहने को नही रहा. खैर गौतम जी के आदेश का पालन करते हुए अपनी बात भी रखूँगा, यह बताते हुए कि कविता के संबंध मे मेरी समझ नही के बराबर है, यद्यपि इसे सीखने की ललक हमेशा रहेगी.
    केदारनाथ सिंह लिखते हैं- ’कविता अपने अनावृत रूप मे एक विचार, एक भावना, एक अनुभूति, एक दृश्य, इन सबका ’कलात्मक संगठन’ अथवा इन सबके ’अभाव’ की एक तीखी पकड़ होती है. और यह पकड़ जीतनी वास्तविक होगी, कवि का संवेद्य उतना ही तीखा व प्रभावशाली होगा.’
    बात सिर्फ़ कविता की ही नही है. कविता कला का एक अंश है. और कला अपने समग्र रूप मे किसी अनुभूति की मौलिक अभिव्यक्ति होती है. और इस अनुभूति का अथवा उसकी अभिव्यक्ति के तरीके का विकास ही कला का विकास होता है. और फिर प्रागेतिहासिक काल के भित्तिचित्रों या संकेतध्वनियों, वर्णलिपियों से वर्तमान युग के भाषा, सिनेमा, साहित्य आदि कलारूपों का विकास इस अभिव्यक्ति का ही विकासक्रम रहा है. या कहें तो कला का विकास रहा है. और इसी विकासक्रम मे कला के नये रूप, अभिव्यक्ति के नये माध्यम समय-परिस्थितियों के अनुसार जुड़ते जाते हैं. कुछ समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं तो कुछ लोकप्रिय हो कर मेन्स्ट्रीम बन जाते हैं. यहाँ इन कलारूपों के सार्थक और सोद्देश्य विकास के लिये ही नये नियम, व्याकरण रचे जाते हैं, मगर अक्सर इन्ही नियमों तथा व्याकरण के वायलेशन अथवा मोडिफ़िकेशन के बहाने कला की नयी धाराएं अस्तित्व मे आती हैं.
    यदि आर्ट के विकास मे हम देखें तो पिछली कुछ शताब्दियों मे नियो-क्लासिसिज्म, रियलिज्म, इम्प्रेशनिज्म, आर्ट-नुवो से ले कर अवांत-गार्ड, सरियलिज्म और पोस्टमाडर्निज्म तक हर विधा का निहित अंतर्विरोधों के बावजूद आर्ट के विकासक्रम मे कुछ न कुछ योगदान रहा. इसी तरह हिंदी कविता मे छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अकविता आदि अपने-अपने समय की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने के बहाने कविता के विकासक्रम के साक्षी बने.
    कला का एक उद्देश्य जहाँ हमारे सौन्दर्यबोध को और परिपक्व एवं आदृत करना है तो दूसरी ओर तत्कालीन समय की विडम्बनाओं व विद्रूपताओं को हाइलाइट करना भी है. सो जहाँ कला समय की जड़ता तोड़ते हुए प्रचिलित प्रतिमानों को भंग करती है वही बात कला के अपने व्याकरण पर भी लागू होती है. यही वजह है कि अमेरिकी ब्ल्यू म्यूजिक या रैप म्यूजिक का विकास जहाँ संगीत की विक्टोरियन शुद्धतावादियों की त्योरियाँ चढ़ाता था, वही दूसरी ओर वह तमाम अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी जनता के लिये अपनी सदियों लंबी सामाजिक कुंठा या फ़्रस्टेशन को अभिव्यक्त करने का माध्यम भी बना. कला के किसी भी रूप को बदलते समय के साथ अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिये सबसे जरूरी स्वयं को रि-इन्वेंट करते रहना व अपनी सीमाओं को चुनौती देते रहना है. ऐसा मैं समझता हूँ.

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  24. (पिछले कमेंट से आगे जारी)

    कविता मे लय की अनिवार्यता को मैं आवश्यक समझता हूँ. मगर क्या इस लय का अस्तित्व हमारे गढ़ी परिभाषाओं मे ही समाहित है, यह एक विचारणीय प्रश्न है. मुझे ऐसा लगता है कि प्रकृति के अपने व्याकरण मे भी एक लय है जो हमारी परिभाषाओं से परे, हमारे इंद्रियबोध से बाहर भी उतनी ही यथार्थ है, एक ऑब्जेक्टिव रियलिटी. यह लय ध्वन्यात्मकता की लय के प्रचिलित मानकों से परे है. पृथ्वी का सूर्य के परितः या चंद्रमा का पृथ्वी के परितः घूर्णन मे, ज्वार-भाटे मे समंदर की लहरों के समवेत आरोह-अवरोह मे, गुलाब मे कितनी पंखुड़ियों का सतत-क्रम या खेत मे गेहूँ की असंख्य बालियों के समवेत पकने मे एक लय है है, जो हमारे द्वारा रची परिभाषाओं की सीमा को दर्शाती हैं. वैसे ही काव्य मे उच्चारण के इस आरोह-अवरोह से परे भी एक लय का अस्तित्व है तो उसके प्रवाह मे होती है. और यह वही लय है जो गौतम जी के दिये उदाहरणों मे महसूस की जा सकती है. और यह मुझे कविता का अनिवार्य तत्व लगता है.
    हिंदी की कविता का विकास अवधी व ब्रज की काव्यपरंपरा से हुआ. अत: इसका छंदव्याकरण भी इन्ही भाषिक परंपराओं से प्रभावित रही है. मुझे लगता है कि किसी कविता की विषयवस्तु को उसी के अनुरूप भाषा छंद की दरकार रहती है, जो उस अनुभूति को और संघनित कर सके. शायद इसी कारण रत्नाकर के उद्दवशतक के कवित्तों का अद्भुत प्रभाव उसी को खड़ी बोली मे लिखने पर नही आ सकता. या राजेश जोशी की कविताओं मे उपस्थित सहजता उस भाषा को बदल देने पर वैसी नही रहेगी. इसी बात को अनुभव कर समर्थ कवि अपनी कविता के योग्य उचित भाषा व छंदविधान तलाशते हैं. यही वजह है कि नागार्जुन की ’बादल को घिरते देखा है’ या ’सिंदूर तिलकित भाल’ की तत्सम संस्कृतनिष्ठ भाषा ’हम ढोयेंगे पालकी’ जैसी कविता मे बिल्कुल बदल जाती है. इसी बात पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी कहते हैं- ’रूप-विधान का पूर्ण अनुशासन मानने पर यदि विषय की तीव्रता जरा भी दबती है या उसका प्रभाव कम होता है तो मैं उस अनुशासन को भंग करने के लिये तैयार हूँ. क्योंकि मेरे निकट विषय की तीव्रता और पूर्ण प्रभाव रूप-विधान से अधिक महत्वपूर्ण है.’
    कल्पित जी की यह कविता काव्यशास्त्र की उन्ही प्रचिलित मिथकों से बाहर जा कर इस विषय-तीव्रता को और सघन बनाने के नये प्रयोग करती है. पूरी कविता मे विरामादि चिह्नों के न होने का कारण कविता के आरंभ मे लिखे ’(उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लंबा पर अधूरा वाक्य)’ से स्पष्ट हो जाता है.
    कला का कौन सा प्रयोग या कौन सा रूप अधिक पापुलर या स्वीकार्य होगा इसका परीक्षण तो समय की कसौटी पर ही होता है. मगर ऐसे प्रयोगों को संदेह या पूर्वाग्रह की बजाय उत्सुकता से देखा जाना साहित्य के विकास के लिये आवश्यक है.
    मुकुटधर पांडेय जी ने कही इसी बात पर लिखा है- ’हम यहाँ अव्यक्त परबृह्म से कविता की समानता करते हैं. जिस प्रकार अव्यक्त के रहस्य को समझने के लिये ’पांडित्य-भाव’ को एक ओर रख कर श्रद्धापूर्वक विनम्र भाव से अग्रसर होना आवश्यक है, उसी प्रकार कविता का मर्म अमझने के लिये हमें परिभाषा के पचड़े मे न पड़ कर अपने हृदय को श्रद्धालु बनाने की जरूरत है.’

    यहाँ मै पुनः स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कला साहित्य के विषय मे मै अज्ञानी हूँ अतः संभव है (बल्कि निश्वित है) कि मै कई बातों मे गलत भी होऊँ, मगर उम्मीद करता हूँ कि विद्वान लोग मेरी अनापशनाप ’ब्रैगिंग’ को साहित्य को समझने मात्र का प्रयास समझ कर अन्यथा नही लेंगे

    अंततः पंत जी के शब्दों मे-
    छंद-बंध-ध्रुव तोड़, फ़ोड़ कर पर्वतकारा
    अचल रूढियों की, कवि, तेरी कविता-धारा
    मुक्त-अमाद-अमंद रजत-निर्झर सी निःस्रत
    गलित, ललित आलोक-राशि, चिर अकलुष-अविजित

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  25. आप सभी विज्ञ जनों को इस नौसिखिया का प्रमाम् !

    कल्पित जी की इस रचना को कविता मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह कम से कम उस अंश तक तो कविता है ही जिस अंश तक कल्पित जी युवा हैं। पढ़ने के स्थान पर अगर आप इसे कल्पित जी से सुनें तो इस रचना का आस्वादन १०० गुणा बढ़ जायेगा, मुझे उनके साथ मंच साझा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। (कल्पित जी युवा हैं इस लिये मैंने बहुत से उन कवियों की कविता भी पढ ली है जो अभी तक गर्भस्थ हैं या जिनको उनकी माँऔं ने अभी कन्सीव ही नहीं किया है।) अगर हम मानले कि प्रत्येक व्यक्ति कवि है और प्रत्येक अभिव्यक्ति कविता तभी कुछ लोगों की जिद संतुष्ट हो सकती है। और कुछ लोग तब तक हमारी गालियों का बुरा नहीं मानेंगे जब तक हम उन्हें गाकर न सुनायें। यह तो रही एक बात।
    यह भी सही है कि विविध जगहों और विविध व्यक्तियों की पृथक-पृथक लय है , लय के अर्थ अलग हैं बल्कि एक-एक जगह, एक-व्यक्ति की सैकड़ो लय हैं। बात यह कि लय जो भी है उसका निर्वाह किया जाना चाहिये और रचना से उसे निरूपित किया, पहचाना जा सकना चाहिये। लय का, कविता का एक अन्तर्अनुशासन होना ही चाहिये। यदि कविता अभिव्यक्ति के किसी अनुशासन का नाम नहीं हैं तो कविता पृथक से क्या है ? इस रचना में यदि विराम चिह्नों का न होना ही कविता है तो फिर अनामदास का पोथा या राग दरबारी से विराम चिह्नों को विलोप कर उन्हें महाकाव्य की तरह भी पढ़ा जा सकता है ! कम से कम व्यंग्य लेखों और निबन्धों के साथ तो ऐसा किया जा सकता है, क्यूँ ! मेरा आप विज्ञ जनों से जिज्ञासावश केवल इतना सा प्रश्न है कि माना यह कविता है, और है भी लेकिन यह गद्य क्यों नहीं है ?

    जब आप लोग पूरी कायनात को कविता कहलने पर उतारू हैं, गुलाब का फूल का खिलना, पेड़ की छाया, बंदूक की गोली आदि -आदि में लय के कारण कविता है। तो खटारा बस के खस्ता हाल सड़क पर घसटने में भी एक कविता है ? मेरा जो स्पष्ट मानना है वह यह कि कविता एक मानवीय अभिव्यक्ति है, इसलिये गुलाब के फूल के खिलने में और बंदूक की गोली चलने में जो कविता है वह उस समय है जब उसे मानवीय अभिव्यक्ति में कहा जाता है, झरनों के गिरने का संगीत तो फिर भी सुना जा सकता है लेकिन इसकी कविता तब तक पूर्ण नहीं होती जबतक इसे किसी मानवीय अभिव्यक्ति में रूपान्तरित नहीं किया जाता।
    जारी..........

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  26. पिछली टिप्पणी से जारी.....

    इसलिये किसी अभिव्यक्ति को कविता कहने में चाहे वह छंदबद्ध है या छंदमुक्त कविता के कुछ अनुशासन निरूपित होने चाहियें। वे अनुशासन परम्परागत न भी हों तो जिस अभिव्यक्ति को कविता कहा जा रहा है उसमें से एक परम्परा के विकास के लक्षणों को चिह्नित किया जा सके। वरना तो कविता वह भी है जो हम आपस में बात करते हैं, या एक लड़का शाम को घर लौटकर अपनी माँ को दिनभर का हाल सुनाता है, ...बस एक घण्टे लेट आयी, बहुत भीड़ थी, एक जेबकतरे ने किसी की जेब काटली, भीड़ ने खूब धनाई की .... यह भी कविता है इसे सुनकर पिता को अपना लड़कपन याद आ सकता है।
    यदि हम गद्य और पद्य को अलग मानते हैं तो उनका स्वरूप भी अलग होना चाहिये। दवाई में संतरे का फ्लेवर होने मात्र से वह संतरा या संतरे का जूस नहीं हो जाती है।

    अब मेरा सबसे बड़ा आश्चर्य जो है वो यह है--

    कि मेरे जैसे अनेक कवि जो किसी भी प्रकार का अनुशासन न फोलो कर सकते हैं न करना चाहते हैं फिर वे अपनी रचना को कविता कहने और कवि कहलाने के प्रति इतने आग्रही क्यूँ होते हैं ?

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  27. गौतम भाई

    अरे मेरा इशारा आपकी तरफ़ कतई नहीं था।

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  28. kavita per bad me. abhi to yah bahut acha laga ki tumne apna namber sms ker dia. bat karoonga.

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  29. क्या ये बारहठ जी की हठ है कि वे कविता की अंतर्वस्तु पर, उसके मिजाज़ पर और उसकी सेक्युलर ताकत पर बात करने ke बजाय kavi kee umr par baat kar rahe hain. मन ने कंसीव नहीं किया अदि, आदि बात unke star ko बयां kar rahee hain. जाहिर hai aisi kavita par baat karna unke liye uchit bhi nahi hai. जहाँ तक शिल्प का प्रश्न है तो ये तुक, छंद की बहस बीते जमाने की बात है.

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  30. दीपेन्द्र जी,

    कविता में रुचि रखते हैं तो उसके विधान, उसके उपकणों, (प्रतीक, बिम्बो और कविता की व्यंजना) के विषय में भी जानते होंगें। मेरा स्तर वही है जो मुझसे जाहिर होता है इसलिये अपने मुहँ से अपने आपको स्तरीय कहने की आवश्यकता नहीं है। मेरी टिप्पणी का क्रम २५-३० वां है, और मैंने पूर्व की टिप्पणीयों के क्रम में अपनी बात रखी है, यहाँ स्तरीय लोगों ने भी वही बात की है। आपने भी तो कविता की अन्तर्वस्तु, मिजाज पर कोई बात नहीं की है,जबकि मैने तो की है आपने शायद पूरी टिप्पणी पढ़ी ही नहीं है। जहाँ तक माँओं ने कन्सीव नहीं किया की बात है तो यह प्रतिभाओं की भ्रुणहत्या की और मेरा इशारा है, इसी पोस्ट में कहा गया है कि यह युवा कविता विशेषांक में छपी है। यह टिप्पणी कल्पित जी की उम्र पर नहीं उस कब्जाधारी प्रवृत्ति पर है जो युवा मंचों से युवाओं को बेदखल करती है। इसी पोस्टपर जिज्ञासा जाहिर करने बाद भी किसी टिप्पणीकार ने नहीं कहा कि कल्पित जी वरिष्ठ कवि हैं उनके सामने युवा कहाँ टिकेंगें। सोनिया गाँधी के अनुसार यदि मनमोहनसिंह युवा प्रधानमंत्री हैं तो २० वर्ष के राजनेता का जन्म हो गया है क्या ? इस कविता पर बात करना मेरे लिये उचित नहीं लेकिन आप तो करिये।

    मेरी टिप्पणी के जवाब में आपके पास बीते जमाने की बात के सिवा भी तर्क हों तो रखें उससे शायद मेरा स्तर भी उँचा हो। बाकी कौनसी बात किस जमाने की है यह न तो अकेले आप तय कर सकते हैं और न मैं। यहाँ मेरे जैसे बहुत हैं जो इस बात को इस जमाने में न केवल लगातार किये जा रहे हैं बल्कि जिये जा रहे हैं। मेरा स्तर तो शायद आप न उठा सकें लेकिन कृपया कविता का स्तर बनाये रखें।
    कल्पित जी मेरे सम्माननीय हैं और अपनी उम्र की वजह से पूजनीय भी हैं.

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  31. प्रीतीश जी आपने इस बहस को थोड़ा जमीनी बनाया इसके लिए आभार। वरना गगनविहारीयों की भाषा और परिकल्पना मेरे समझ से ऊपर थी। मेरा अनुरोध है कि शास़्त्रीय अध्येता खासकर "युवा" अध्येता हम जैसे सामान्य समझ वाले पाठकों का थोड़ा ख्याल रखा करें। ज्यादा नहीं थोड़ा ही सही। मानवता के नाते। सबसे दिलचस्प है बात है कि ऐसी कविताओं के कारखाने बाएं बाजु से ही आ रहे है। अशोक कुमार पाण्डेय ने सही सवाल उठाया है कि कुछ लोग इसे कविता मानने से ही इनकार करेंगे !! लेकिन कुछ लोग तो भगवान को मानने से भी इनकार करेंगे इससे क्या ? अशोक जी का इशारा जिसकी तरफ भी हो वह मानीखेज इशारा है।

    धीरेश जी साहित्य-प्रेमी हैं। न जाने क्या बात है कि उन्हीं के ब्लाग पर यह कविता होने न होने का विवाद बार-बार उठ जाता है। और ऐसी रचना के कविता होने के पीछे हजार तर्क गढ़े जाने लगते हैं। उचित यह हो कि धीरेश जी किसी रचना के कविता होने या न होने के प्रतिमान के बारे में अपनी राय पाठकों के सामने रख दें। इससे पाठकों को सहूलियत रहेगी। पाठक समझ जाएंगे कि सिद्धांतकारों का एक जिद्दी धुन स्कूल है जो ऐसी रचनाओं को कविता मानता है और दूसरा ऐसा वर्ग है जो ऐसी रचनाओं को कविता नहीं मानता। इसका एक फायदा यह भी होगा कि विश्व-कविता में हिन्दी आलोचना का यह पहला मौलिक भारतीय सैद्धांतिक स्कूल स्थापित हो जाएगा होगा। कुछ वैसे ही जैसे शुक्लजी,द्विवेदीजी,रामविलासजी, के आलोचना में खप जाने के लम्बे समय बाद हिन्दी साहित्य इतिहास में "आलोचना की पहली किताब" आई थी। एक पुराने पापी ने कहा है कि संगठित अपराध को व्यवसाय कहते हैं ! उसने कुछ सोच कर ही कहा होगा।

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  32. @ डा अनुराग

    आपसे मेरी सहमति है। लेकिन एक स्प्ष्टीकरण देना चाहुंगा कि अकविता आंदोलन शिल्प से ज्यादा कथ्य का आंदोलन था। ऐसी हेगेलियन रामलीलाओं का अकविता से कोई संबंध है इसमें मुझे गंभीर संदेह है। एक उदाहरण,

    जब मैंने
    भूख को भूख कहा
    प्यार को प्यार कहा
    तो उन्हें बुरा लगा

    जब मैंने
    पक्षी को पक्षी कहा
    आकाश को आकाश कहा
    वृक्ष को वृक्ष
    और शब्द को शब्द कहा
    तो उन्हें बुरा लगा

    परन्तु जब मैंने
    कविता के स्थान पर
    अकविता लिखी
    औरत को
    सिर्फ़ योनि बताया
    रोटी के टुकड़े को
    चांद लिखा
    स्याह रंग को
    लिखा गुलाबी
    काले कव्वे को
    लिखा मुर्गाबी

    तो वे बोले-
    वाह ! भई वाह !!
    क्या कविता है
    भई वाह !!

    - अमरजीत कौंके

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  33. दीपेन्द्र जी!

    आप नहीं लौटे, न ही आपने मेरे मेल का उत्तर दिया इसलिये मेरे स्तर के अनुसार एक और टिप्पणी करने को बाध्य हूँ। आप किसी तरह का संकोच न करें, कल्पित जी के प्रति आपकी भावनाओं के लिये आप मेरे भी प्रिय हैं और कल्पित जी के प्रति श्रद्धा के कारण यदि मरी अवमानना होती है तो मैं उसका बुरा नहीं मानता। आप आयें और कविता की अन्तर्वस्तु पर बात करें तो इससे हमको लाभ होगा और यह बहस अपने मुकाम तक पहुँचेगी।

    रंगनाथ जी, आपका शुक्रिया। कुछ बातें पिछली टिप्पणीयों में नहीं कर सका था। कुछ महानुभावों के प्रश्न भी मन में शंका उठाये हुए हैं। इसलिये यह अन्तिम टिप्पणी भी कर रहा हूँ।

    1. बार-बार यह कहा गया है कि छन्दहीन कविताओं की भी अपनी एक लय हो सकती है जिसे शायद हम नहीं पकड़ पा रहे हों। मुझे लगता है यह तर्क दोहरा छद्म है, एक तो यह कि सीधे-सीधे यह स्वीकार करने से बचना कि हाँ छन्दहीन अमुक कविता में लय नहीं है, दूसरा लय हीनता में यह भ्रम पैदा करना कि उसमें लय है और इस आधार पर उसे कविता माना जाये। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि छन्दहीन कविता के समर्थक भी एक ओर कविता में लय (कला) के महत्त्व को न केवल जानते हैं बल्कि उसे मान्यता भी देते हैं। चलिये पाठक उस लय को नहीं पकड़ सकता लेकिन कवि तो अपनी लय को जानता होगा। जिसकी लय है वह तो उसे दोहरा सकता है !
    2. आचार्य शुक्ल ने भी कहा है कि हृदय की मुक्तावस्था ही काव्य दशा है, इस बहस में भी लगभग सभी साथी सहमत हैं कि जो अभिव्यक्ति हृदय के नजदीक है वह कविता है। लेकिन मामला केवल इतना नहीं है, हृदय के नजदीक होना कविता का प्रमुख गुण तो है लेकिन एकमात्र गुण नहीं है। हृदय के नजदीक कलापूर्ण चमत्कारिक अभिव्यक्ति ही काव्य है। स्पष्ट है कि कविता में प्रधानता हृदय पक्ष की रहेगी लेकिन अनिवार्यता कलापक्ष की, चमत्कार भी रसास्वादन करता है वह हो तो ऐसा हो कि दिल से वाह उठे वह हास्यास्पद नहीं हो, जैसा कि बिहारी समेत श्रृंगार के अन्य कवियों के बारे में शुक्ल जी कहते हैं। दिल को तो कहानी भी छू लेती है और व्यंग्य भी, कई बार समाचार भी दिल को छू लेते हैं लेकिन वह गद्य की कला है, वह कविता नहीं कहला सकते।
    3. यहाँ बहस में ऐसे तर्क भी आये हैं कि अनुशासन भंग में भी काव्य है, मैं इससे असहमत हूँ यदि कोई उदाहरण देकर बताया जाता तो बात ज्यादा स्पष्ट होती। अनुशासन भंग होने से काव्य में कोई नया अर्थ प्रगट हुआ हो ऐसा कोई मामला अभी तक सामने नहीं आया। जबकि मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ध्वनि, नाद, अलंकार, छंद, तुक, आरोह-अवरोह, यति, गति आदि से काव्य में अद्भुत अर्थ और ग्राह्यता पैदा होती है।
    4. यह कहा जाता है कि नियमों में बंधी हुई रचना में अभिव्यक्ति बाधित होती है। मैं इससे भी पूरी तरह असहमत हूँ। यह रचनाकार की सीमा हो सकती है कि वह अपनी बात किसी छंद में नहीं कह पा रहा हो, यह छंद की सीमा नहीं हो सकती। बल्कि तुलसी, सूर, गालिब या मीर की किसी रचना को छंदमुक्त कर दीजिये और देखिये कि अब क्या वह वही बात कह रही है जो छंद में कह रही थी। यहाँ तक की आप उसकी टीका कर दीजिये लेकिन वह उस तरह दिल को नहीं छुयेगी जिस तरह छंद मे छू रही है और जबान पर चढ़ रही है। इसके विपरीत, मैं ग़ज़ल लिखता हूँ, सिद्धहस्त नहीं हूँ अतः कई बार काफिये, रदीफ, मीटर आदि का निर्वाह नहीं कर पाता जहाँ भी ऐसा होता है वहीं मुझे अपनी बात अधूरी सी लगने लगती है, वे शेर उतने हृदयस्पर्शी भी नहीं रहते। तो क्या ग़ज़ल भी मुक्त छंद में की जा सकती है?


    जारी.....

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  34. और आगे...

    5. यह तो सही है कि कुछ विषय काव्य के होते हैं कुछ नहीं पर यह भी कहा गया है कि कुछ खास कथ्य –विषय ऐसे होते हैं जिनकी अभिव्यक्तियाँ मुक्त छंद में ही संभव हैं। हम जानते हैं कि मुक्त छंद या अकविता का समूचा आंदोलन जनपक्षधर साहित्य का रहा है। दलितों, शूद्रों, किसानों, जनजातियों, मजदूरों के वे कौनसे सुख-दुख और सपने हैं जिनकी अभिव्यक्ति उनके लोक साहित्य, सांस्कृतिक गीतों या लोक गीतों में नहीं हुई है। जितनी हृदय को छूने वाली अभिव्यक्ति उनके लोक गीतों में पायी जाती है माफ़ करें उतनी हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति मुक्त छंद में नहीं हुई है। ये वर्ग भी छंद के साथ ही सहजता से अपना जुड़ाव कर पाते हैं। क्या कोई वर्ग ऐसा है जिसने इतने वर्षों के अकविता आंदोलन में अपना जुडाव मुक्तछंद के साथ स्थापित किया है। कोई ऐसा वर्ग जो मुक्त छंद को गुनगुनाता हो। एक अनपढ़, अशास्त्रीय और ग्राम्य वर्ग के पास सुसंस्कृत भाषा का अभाव तो हो सकता है लेकिन छंद उनके पास है। और ऐसा छंद जिसमें उनके हर सुख-दुख और सपने को अभिव्यक्त किया गया है। जब वो ऐसा कर सकते हैं तो हमारे कवि क्यों नहीं कर पा रहे ? आपस में मिल-बैठकर एक परीक्षण किया जा सकता है,मेरे जैसे काव्यप्रेमी जो छंद के पक्ष में तर्क देते हैं उनको काव्य के ऐसे कथ्य और विषय दिये जायें जिनको समझा जाता है कि मुक्त छंद में ही कहा जा सकता है छंद में नहीं। ऐसे विषयों की छंद में की गई प्रस्तुतियों और मुक्त छंद में की गई प्रस्तुतियों का परीक्षण कर इस तर्क की समीक्षा की जा सकती है। गौतम जी के ब्लाग पर पढ़ा है कि किसी ने कल्पित जी की इस कविता को भी छंद में प्रस्तुत कर दिया है उसे देखने की इच्छा है।
    6. आदिम भाषा संगीतात्मक थी, फिर काव्यात्मक हुई और अंत में गद्यात्मक हुई अतः पिछडे वर्ग से संवाद के लिये आज भी काव्य गद्य से कहीं अधिक अनुकूल और प्रभावी है। यह जरूर है कि छंदहीन कवितायें कम अध्यवसाय मांगती हैं अतः एक दिन में पचास भी लिखी जा सकती हैं छंदयुक्त कविता इतनी मात्रा में नहीं लिखी जा सकती हैं।
    कल्पित जी यह कविता मात्र एक विचार कि शब्द कोष में सम्पूर्ण भाषा समाहित होती है और उसमें शब्दों का एक क्रम होता है, की उपज है और उसीके इर्द-गिर्द ताना बाना बुनकर अपनी बात कही, इसके जरिये कल्पित जी ने ये लाजवाब लम्बा अधूरा वाक्य लिखा। इसमें जो काव्य गुण है वह इसका मूल्य आधारित होना ही है। वरना शब्दों का यही क्रम किसी दूसरी भाषा के शब्दकोश में उलट सकता है। इसमें भी माँ और ममता, भाई और भाईचारा में काफी दूरी है। मानवता का स्रोत शब्द कोष नहीं है, उसमें मानवता है तो दानवता भी उसी में है। इस वाक्य का कलापक्ष ही इसे कविता के नजदीक लाता है।
    7. हम परिणाम से कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं, क्या मुक्त छंद काव्य ने कविता को नई गरिमा प्रदान की है, कविता के स्तर को छंदयुक्त कविता की तुलना में बालिश्त भर भी ऊँचा किया। अधिक जनसाधारण को काव्य की ओर आकृष्ट किया या श्रेष्ठ प्रतिभायें प्रदान की? हाँ गोदाम जरूर भर दिये हैं अब हम कविता के निर्यात की क्षमता में आ गये हैं।
    भाषा में शब्दों का अर्थ परंपरागत होता है। कविता शब्द मुक्त छंद से बहुत पहले से भाषा में मौजूद है और उसका अर्थ भी रूढ़ है वह छंद के लिये ही है। साहित्य में नई विधाओं का जन्म होता है और होता रहेगा उसके अनुसार उनका नामकरण भी होता रहेगा। तो क्यों नहीं मुक्त छंद विधा के लिये कोई नया नामकरण किया जाता है और उसका नया शास्त्र रचा जाता? कई कविताएं ऐसी आती है जिनके बारे में बताने पर पता चलता है कि यह कविता है।

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  35. बहुत दिन से सोच रहा था कि कोई कवि होना ही चाहिए जो मेरा सबसे पसंदीदा कवि हो, खरा और बेबाक इंसान हो, कबीर और भुवनेश्वर वाला फक्कड़पन हो। गुणी हो, शब्दों का शऊर हो, काव्यपरंपरा और अपने समकालीन कवियों के बारे में एक पुख्ता समझ हो, अनौपचारिक रूप में ही सही लेकिन विद्वान हो। सौभाग्य-दुर्भाग्य से ये सारे गुण कृष्ण-कल्पित जी में मौजूद हैं। ये मेरे सबसे पसंदीदा कवि हैं। अभी हाल ही में प्रक्षित इनकी विशाल कृति बाग़-ए-बेदिल पढ़-पढ़ कर खूब झूमा हूँ, चकित हुआ हूँ,कई-एक जगह रोया हूँ। कृष्ण कल्पित हिन्दी काव्यजगत की मुख्यधारा में सत्ता-यश-रस लोभियों के द्वारा भले रोक दिये जाएँ लेकिन फिलहाल हिन्दी काव्यजगत के वे अद्भुत चमक के साथ स्थिर-जीवित सितारा हैं। आप दीर्घायू हों और हुमलोगों के प्रेरणास्रोत बने यही उम्मीद है।

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  36. कविता भी अच्छी और परिचर्चा भी। बारबार पढ़ने लायक़। बहुत मज़ा आया और आयगा अभी। शुक्रिया।

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