Thursday, August 30, 2007

मैंने यह नाम कयों रखा...`अजीब ज़िद्दी धुन थी कि हारता चला गया`

मेरी एक पसंदीदा कविता की पंक्ति है-
`अजीब ज़िद्दी धुन थी 
कि हारता चला गया'।

इसमें में `एक बात है` जो शायद आप को भी अपील करे। इस ब्लॉग में ऐसी ही ज़िद्दी धुन के लोगों का स्वागत है जो बेहतर दुनिया के मक़सद को लेकर असफलताओं की गरिमा की क़द्र करते हैं।

जिस कविता से मैंने यह पंक्ति ली है, वह हिंदी के वरिष्ठ कवि मनमोहन की कविता है और उसका शीर्षक है `याद नहीं`।


याद नहीं

-----
स्मृति में रहना
नींद में रहना हुआ
जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ

ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी
याद नहीं निमिष भर की रात थी
या कोई पूरा युग था

स्मृति थी
या स्पर्श में खोया हाथ था
किसी गुनगुने हाथ में

एक तक़लीफ थी
जिसके भीतर चलता चला गया
जैसे किसी सुरंग में

अजीब ज़िद्दी धुन थी
कि हारता चला गया

दिन को खूँटी पर टांग दिया था
और उसके बाद कतई भूल गया था

सिर्फ बोलता रहा
या सिर्फ सुनता रहा
ठीक-ठीक याद नहीं
-मनमोहन

3 comments:

  1. acha kya aap ke pass aur bhee ache naam the? naam main kya rakha hai bhai....ise aur aage tu barahao na...puri kavita kab likhogae?

    ReplyDelete
  2. दिमाग को जाम कर देने वाली चारो तरफ से बढ़ रहे शोर के बीच से बेहतर जिन्‍दगी का रास्‍ता तलाशने के लिए कई और जिदृदी धुनों की जरूरत है आपका स्‍वागत है

    ReplyDelete
  3. 2010 के आगमन पर कुछ संकल्पों में से एक संकल्प ये भी लिया कि "एक जिद्दी धुन" को शुरु से पढ़ूंगा...

    इब्तिदा ही इतनी सश्क्त है कि ...उफ़्फ़!

    मनमोहन जी की इस अद्‍भुत कविता से वर्ना वंचित ही रह जाता।

    ReplyDelete