Sunday, September 14, 2008

दिल्ली के धमाके - मुश्किल वक्त में कुछ ज़रूरी बातें


सांप्रदायिक ताकतों का काम हमेशा बेहद आसान होता है और इनके खिलाफ लडाई उतनी ही मुश्किल होती है। कई बार या कहें अधिकतर समय यह रास्ता बेहद तनहा, बार-बार हार का अहसास कराने वाला और खतरे व अपमान पैदा कराने वाला होता है. हम पाते हैं कि मुश्किल लड़ाई में शामिल कोई प्यारा साथी साम्प्रदायिक बहाव का शिकार हो गया है या फ़िर लोकतंत्र, न्याय, निष्पक्षता जैसे तर्कों का इस्तेमाल करते हुए ही वह घोर फासीवादी बातें करने लगा है.

साम्प्रदायिक ताकतों की असल जीत किसी धमाके में कुछ या बहुत सी जिंदगियां ले लेना नहीं होती, बल्कि यही होती है कि लोग उनके एजेंडे पर सोचना और रिअक्ट करना शुरू कर दें।

दिल्ली के धमाके मुझे भी बेहद दुखी और परेशां कर रहे हैं पर मैं ऐसे मौकों के लिए उत्साह से बयानों में भडास निकालने वाले पत्रकारों, नेताओं और राष्ट्रभक्तों से और भी ज्यादा परेशां होता हूँ। मसलन - आतंकवाद से आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है, पकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, पोटा-सोटा कुछ हो, चूडियाँ कब तक पहने रहेंगे (और मुसलमानों को सबक सिखाना होगा) जैसी बातें वो काम कर रही होती हैं, जो बम के धमाके भी नहीं कर पाते। या कहें जो धमाका करने वाले लोग चाहते हैं।

ऐसे मौके बीजेपी और पूरे संघ परिवार के लिए टोनिक का काम करते हैं। १९४७ में देश के बंटवारे और हाल के दो दशकों में इसी तरह की राजनीति से देश को छिन्न-भिन्न कर देने की कीमत पर ताकतवर होता गया संघ परिवार ऐसे धमाकों की इंतज़ार ही नहीं करता बल्कि ऐसी स्थितियां पैदा करने के लिए खाद-पानी भी देता है।

देखने में यह बेहद सामान्य और बेहद साफ़ बात है कि कोई भी सिमी-विमी किसी भी संघ-वंघ को और संघ-वंघ,सिमी-विमी को अपने-अपने अस्तित्व के लिए कितना जरूरी मानते हैं। दुर्भाग्य यह है कि सामान्य और साफ़ बातें देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहता आया है. यह देखने के लिए मूलगामी नज़र की जरूरत होती है, जो माइंड सेट को तोड़ सके. यह नज़र एक चेतना का हिस्सा होती है, जो इस तरह के धमाकों को किसी धर्म के लोगों से नफरत की शक्ल में नहीं देखने लगती बल्कि यह पड़ताल कर लेती है कि इस साजिश से क्या चीज बन रही है. सांप्रदायिक ताकतों से मूलगामी नजर के साथ लम्बी लड़ाई लड़ते रहे मार्क्सवादी आन्दोलन के ही बहुत से साथी इस चेतना के अभाव में जब-तब अजीबोगरीब बातें करते दिख जाते हैं (हाल में हुसेन के चित्रों को लेकर और असद जैदी की कुछ कविताओं को लेकर भी यह देखा गया). लिब्रेलिज्म की आड़ में तो वैसे भी साम्प्रदायिकता और तमाम तरह का फासीवाद इत्मीनान से पलता रहता है। ऐसे लिबरल गुडी-गुडी बातें करते हुए मजे से डेमोक्रेसी की दुहाई देते रहते हैं और मौका मिलते ही साम्प्रदायिक नफरत उनके पेट से बाहर आ जाती है.

हाँ जरूरी नहीं कि हर कोई एक मूलगामी नज़र पैदा करने की कुव्वत रखता हो, पर अगर उसमें वैल्यूज़ की गहरी जड़ें हैं तो भी वह सांप्रदायिक साजिशों का शिकार होने से बचा रह सकता है. नेहरू ने एक सेकुलर और प्रगतिशील समाज की लडाई लड़ी थी तो प्रगतिशीलता और वैल्यूज़ उनकी बड़ी ताकत थी लेकिन गाँधी अपने पिछडेपन के बावजूद इंसानी वैल्यूज़ में गहरी आस्था के बूते ही साम्प्रदायिकता के खिलाफ इतनी बड़ी लडाई लड़ सके थे. अगर मूलगामी नज़र और वैल्यूज़ दोनों ही न हों, तो फ़िर साम्प्रदायिकता ही क्या, जाति और जेंडर के सवालों पर भी कोई लडाई लड़ना मुमकिन नहीं हो सकता. हम देखें कि हम किस नज़र और किन वैल्यूज़ को लेकर फासीवाद से लड़ना चाहते हैं.

(पेंटिंग The Wolf at the Door; water colour on paper by Atul Dodiya`सहमत` से साभार)


7 comments:

  1. बहुत सही बात कही है आपने। संघ हो या सिमी-साम्राज्यवाद के चाकरों की ही भूमिका निभाते हैं।आपकी सोच को सलाम।

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  2. विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता का एक हिस्सा मौजूं लग रहा है इसे पढ़ कर:

    नफ़रत उस्ताद है विरोधाभासों की -
    विस्फ़ोट और मरी हुई चुप्पी
    लाल खून और सफ़ेद बर्फ़।
    और सब से बड़ी बात - यह थकती नहीं
    अपने नित्यकर्म से - धूल से सने शिकार के ऊपर
    मंडराती किसी ख़लीफ़ा जल्लाद की तरह
    हमेशा तैयार रहती है नई चुनौतियों के लिए।
    अगर इसे कुछ देर इंतज़ार करना पड़े तो गुरेज़ नहीं करती


    लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
    अंधी?
    छिपे हुए निशानेबाज़ों जैसी
    तेज़ इसकी निगाह - और बगैर पलक झपकाए
    यह ताकती रहती है भविष्य को
    -क्योंकि ऐसा बस यही कर सकती है।

    बढ़िया लिखा!

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  3. इतिहास पढ़ कर और थोड़े-बहुत अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि विचारधार की लड़ाइयां ही सबसे खतरनाक होती हैं। हर नई पनपी विचारधारा भविष्य के बहाव के साथ नहीं बह पाती। तब ये विचारधाराएं उसी तरह समाज में बजबजाकर सडांध मारती हैं, जैसे कोई ओवरफ्लो नाला। कारण, कालांतर में विचारधारा सिर्फ अनुयायी पैदा करती है। ये अनुयायी उसे हनुमान चालीसा की तरह पढ़ते हैं। (हनुमान चालीसा लिखने से मेरा तात्पर्य सिर्फ उस भावना से है, जब हम भाव और अर्थ भूल कर सिर्फ आस्थावश अध्ययन करते हैं) मार्क्स का वर्ग संघर्ष तो उस विकराल रूप में अभी शुरू नहीं हुआ, जिसका वर्णन उन्होंने किया था, मगर हेडगवारवादियों से उनके अनुयायियों का संघर्ष, या लादेनवादियों का अमेरिकापरस्तों से संघर्ष ईसाइयत और खुदा के बंदों और भगवान के भक्तों के बीच की लड़ाइयां विचारधाराओं के ओवर फ्लो की ही सड़ांध हैं। हम इस सबके खिलाफ किसी नई विचारधार की बात करें तो भविष्य के लिए खतरनाक ही होगा। हमें इनसे मुक्ति की तलाश है।

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  4. आप में सही जब भी ऐसे धमाके होते है तो हम उसका बाजारीकरण कर देते से जिसे आतंकवाद को बढावा मिलता है .........जो वह नहीं कर पाते है ........वह डर अलगाव को पिअदा कर के कर देते है .............बहुत अच्छा लेख है आप का .........शुक्रिया khalid a khan

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  5. an interesting attempt to analyse the situation.

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