Tuesday, December 1, 2009

हिन्दी कविता के पिछले बीस साल : असद ज़ैदी



(असद ज़ैदी ने यह लेख 'संबोधन' पत्रिका के `युवा कविता विशेषांक` के अतिथि संपादक के तौर पर लिखा है। `यह ऐसा समय है` और `दस बरस` की भूमिकाओं की तरह ही यहाँ भी वे कविता को निरा कविताई की तरह देखने के बजाय मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक सवालों के साथ जूझने की उसकी क्षमता और इच्छाशक्ति की पड़ताल करते हुए देखते हैं. )

ऐजाज़ अहमद ने कहीं लिखा है कि हिन्दुस्तान में बीसवीं सदी के पटाक्षेप का क्षण बाक़ी दुनिया से तीन साल पहले ही आ गया था – वह क्षण जब दिल्ली में लाल क़िले की प्राचीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक कार्यकर्ता प्रधानमंत्री के रूप में देश को संबोधित करने में सफल हो गया। कुछ इसी अंदाज़ से इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने अभूतपूर्व राजनीतिक-सामाजिक तूफानों से भरी बीसवीं सदी को 'संक्षिप्त सदी' ('ए शॉर्ट ट्वेन्टिएथ सेंचुरी') कहते हुए इसका जीवनकाल 1914 -1989 बताया है। इस काल-निर्धारण को भी चुनौती देना आसान नहीं है. अगर हम वैश्विक से भारतीय या दक्षिण एशियाई सन्दर्भ की और लौटें – हमारा इतिहास अंततः विश्व इतिहास का ही हिस्सा है, न कि इससे बाहर की कोई चीज़ – तो हमारे सामने तारीखों के कई विकल्प हैं : 1919-1997, 1919-1992, 1905-2002, 1937-1992 ... और इन तारीखों से बाहर जाने की स्वतंत्रता भी कहीं गयी नहीं है. यह कहना कि कविता का (या किसी भी सांस्कृतिक माध्यम का) अपना कैलेंडर होता है एक बारीक स्तर पर, बल्कि अनेक स्तरों पर, सही है, पर इसका सरलीकरण और सामान्यीकरण करना विवेक और कल्पना दोनों से विदाई लेना है. अपने ऐतिहासिक हाल की तशवीश, अपनी ख़बर, अगर कविता में नहीं होगी तो कहाँ होगी?
कुल मिलाकर, इतिहासबोध का मामला समकालीन कविता का मुँह ताकता खड़ा है। इससे संबोधित हुए बिना नए का संधान नहीं किया जा सकता. इसकी चिंता काव्यालोचना और साहित्येतिहास वाले करें या न करें कवियों को करनी ही होती है. उनके लिए यह स्वेच्छा का मामला भी नहीं है. आज कविता के सामने जो बड़ा संकट है वह तथाकथित जातीय स्मृति या अस्मिता का संकट नहीं, बल्कि आधुनिक स्मृति के लोप का संकट है. हमारे सामने मसला आधुनिकता और जनवाद की परियोजना की रिकवरी या पुनर्प्राप्ति का मसला है, जो कि बड़े संघर्ष, आत्मसंघर्ष और आलोचनात्मक श्रम की मांग करता है, न कि सामंती-छद्म्लोकधर्मी यूटोपिया की पुनर्प्राप्ति का जो कि बड़े चैन से प्रदत्त संवेदना से ही अपनी खुराक लेता रहता है.

हम जिस युग में रह रहे हैं उसकी शुरूआत 1989-90 से हुई है; इससे पहले की दुनिया कुछ और थी। यह कोई सांस्कृतिक विभाजक रेखा नहीं, आलमी पैमाने पर समाजार्थिक और ऐतिहासिक विभाजक रेखा है. वक़्त गुज़रने के साथ यह तथ्य और भी स्पष्ट होता जाएगा. इस दौर की पहचान भूमंडलीकरण (या पूंजीवादी नव-साम्राज्यवाद) के जिन विशेष पहलुओं से की जा सकती है वे हैं परिवर्तन की समकालिकता (simultaneity of change) और अपरिवर्तनीय गति (absolute speed). कोई समाज या इलाक़ा अब परिवर्तन या adaptation अपनी मर्जी या रफ़्तार से नहीं कर सकता, नए आलमी श्रम-विभाजन में जिस को जो भूमिका और मक़ाम मिला है उसका तत्काल और प्रभावी क्रियान्वयन अब न सिर्फ़ मध्यस्थ तबकों की बल्कि राज्य और राज्यसत्ता की प्रमुख ज़िम्मेदारी है. पूंजी की ऐसी सार्वभौमिक तानाशाही पहले कभी न थी – इसने राजनीतिक समय और सांस्कृतिक समय को एक कर देने का अभियान छेड़ रखा है, और इस अभियान के नतीजे हमारे मुल्क में, हमारे दैनिक जीवन में और हमारे राष्ट्रीय आचरण में हरदम दिखाई देते हैं.

यह तो स्पष्ट है कि कविता का कैलेंडर सामाजिक-राजनीतिक कैलेंडर से अक्सर तालमेल बनाकर नहीं चलता। तो हमारी सांस्कृतिक घड़ियाँ कौन सा समय बता रही हैं – यह कैसा सांस्कृतिक समय है? यह कलावादियों और उत्तर-आधुनिकतावादियों के लिए कोई मसला ही नहीं है : उनका कैलेंडर हमेशा अपने समय के शक्ति-समीकरणों के अनुरूप संशोधित होता रहता है, उनका तालमेल हमेशा बना रहता है, वे अपनी घड़ियाँ हर समय मिलाये रखते हैं. यह मसला प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति का मसला है, जहां सांस्कृतिक स्वायत्तता का इस्तेमाल मानव-मुक्ति के मूलभूत परिवर्तनकारी आयोजन के पक्ष में किया जाता है न कि उसके विपक्ष में. इसी प्रक्रिया में कविता अपने सच्चे द्वंद्व को हासिल कर पाती है. कविता की स्वायत्तता इतिहास-निरपेक्ष नहीं होती. आखिर रघुवीर सहाय की मृत्यु और बाबरी मस्जिद के ध्वंस फासला इतना भी नहीं है कि इस संयोग के मर्म को अनदेखा रहने दिया जाए या रेखांकित न किया जाए.

जल्द ही रघुवीर सहाय को गुज़रे भी बीस साल हो जाएंगे – स्मृति और विस्मरण के दो दशक। इन दो दशकों के दौरान उभरे नए कवियों की रचनाशीलता का एक मुख्तसर जायजा लेता हुआ यह अंक आपके सामने है.

समकालीन हिन्दी कविता को लेकर करीब 15 -20 साल से कई सवाल कभी ब-आवाज़े-बुलंद तो कभी स्वगत या बुदबुदाते हुए पूछे जा रहे हैं, जिनमें मुख्य चिंता यह है कि कविता कुछ रुक सी गयी है। क्या यह एक अवरोध है या आराम का एक वक़्फ़ा? या क्या यह शक्ति-अर्जन/कन्सॉलिडेशन का, उपलब्ध संसाधनों के बेहतर नियोजन और मानकीकरण/स्तरीकरण का दौर है? ऐसा दौर जिसमें एक पूरी परम्परा की अनुभव संपदा परिपक्वता और सांद्रता अर्जित करती है? या यह किसी ऐतिहासिक कार्यसूची के त्याग और खामोश पलायन का दौर है? क्या ऐसा हो सकता है कि कविता जैसी अराजक विधा में सतह पर नज़र आती यह शान्ति और नॉर्मल्सी अपने भीतर आगामी हलचल या बड़े युगीन परिवर्तन तो छुपाये हुए है जिसपर ग़ौरो-फ़िक्र की दरकार है? क्या आज के दौर की कविता सिर्फ प्रतीक्षा की कविता है? प्रतीक्षा की कविता भी बेकली की कविता होती है; पूछने की बात यह है कि वह बेकली कहाँ अवस्थित है, और वह बेकली कैसी है. क्या आज की कविता अपने आज के यथार्थ को जागरूक ढंग से देख और आँक रही है और लिहाज़ा प्रतिपक्ष बना रही है, या एक अस्तित्वगत प्रवाह है जिसमें सब लोग बहे जा रहे हैं? इस अंक के कवि आपनी रचनाओं के साथ इन परेशानाकुन सवालों का अपनी अपनी तरह से जवाब देते हैं.

हम यह भी चाहते हैं कि इस संकलन के बहाने हिन्दी कविता की नई फसल पर स्थगित या बिखरे हुए विमर्श को जीवंत संवाद की सूरत मिले। हम सुधी पाठकों और हमदर्द आलोचकों से आग्रह करते हैं कि वे इस उपक्रम में आगे आयें, और 'संबोधन' के एक आगामी अंक के लिए आज की कविता पर और उससे जुड़े सवालों पर अपनी बात सामने रखें.

इसे पिछले बीस सालों में बनी और उभरी कविता का प्रतिनिधि संकलन कहना मुनासिब नहीं होगा – कई अच्छे और संभावनाशील कवि यहाँ हमारी कोशिश के बावुजूद संकलित नहीं हो पाए हैं – पर यह एक अच्छी-खासी झांकी ज़रूर है। यहाँ अपवादस्वरूप दो-एक कवि ऐसे भी हैं जो उम्र में लगभग वरिष्ठ हैं पर कवि के बतौर उनकी आमद देर से हुई है या देर से मानी गयी है. कोई ऐसी ही वजह है कि हम यहाँ कृष्ण कल्पित की 'रेख़ते के बीज' जैसी कविता को छापने का मोह नहीं छोड़ पाए हैं.

हम यह अंक प्रतिभाशाली कवि और गद्यकार ज्योत्स्ना शर्मा (1965 -2008) की स्मृति को समर्पित करते हैं. अपने संक्षिप्त और असाधारण जीवन के दौरान उन्होंने बहुत कुछ लिखा और सोचा पर प्रकाशन से गुरेज़ करती रहीं. भारी मन से हम अपने पाठकों को यह बता रहे हैं कि यह उनकी रचनाओं का प्रथम प्रकाशन है।
(ज्योत्स्ना की कुछ अप्रकाशित कवितायेँ जल्द ही अनुनाद पर और कृष्ण कल्पित की 'रेख़ते के बीज' इसी ब्लॉग पर देने की कोशिश रहेगी.)

2 comments:

  1. प्रस्तुति के लिए आभार !

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  2. संबोध्‍ान का डाक पता, मूल्‍य टेलिफोन नंबर भी डाल दें तो और अच्‍छा रहे.

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