(दिल्ली से हैदराबाद लौटते हुए)
नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
जहाँ हुआ है, ठीक ठीक किन कारणों से हुआ है, यह मुझे नहीं मालूम
पर सोचता हूँ कि हुसैन सागर पर आज शाम कोई न जाए
सागर के साथ हुसैन का जुड़ना हिंदुओं को नागवार लग सकता है
बीचोबीच बुद्ध की प्रतिमा होने पर
कोई मुसलमान परेशान हो सकता है कि हुसैन समंदर नहीं झील ही सही में ऐसा कैसे
बौद्धों की औकात मुल्क में कम ही है, उन्हें भी समस्या कोई तो हो ही सकती है
बाकी सब का भी रब या परम पिता ईश्वर कुछ कुछ तो कहला ही सकता है अपने भक्तों से
ऐ अप्रतिम विशाल नभ, ओ निर्मल, तू जो परंपराओं को सीने में लिए शाम अँधेरे चला गया
तूने तो हुसैन को दिखला दीं झील में समंदर की लहरें
अब बड़े वामपंथी कवि लेखक भी ढूँढ रहे जीवंत परंपराएँ और आस्थाएँ
और विशाल टैंकर ट्रक सब हिंद महासागर के पार कहीं फेंक आने हुसैन सागर को उठा ले जा रहे हैं
देखने वालों में से एक पूछता है कि आप रो तो खूब लिए हल नहीं बतलाते
एक हल है कि सुबह सुबह दो से चार ग्लास पानी पिया जाए
दिमाग को दुरुस्त रखा जाए
दूसरा यह कि हो जाए कविता गद्यमय
पर बंदूक चलानी सीखा जाए
तीसरा हल यह भी कि ऐलबर्ट आइन्स्टाइन को पढ़ा जाए
कि जितना आश्चर्य आस्थावादी विचारकों की भीड़ देखकर होती है आज
उतना ही हुआ था उस महान वैज्ञानिक को भिन्न कारणों से कभी गाँधी को जानकर
नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
मैं ऐलबर्ट आइन्स्टाइन बार बार पढ़ सकता हूँ।
नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
जहाँ हुआ है, ठीक ठीक किन कारणों से हुआ है, यह मुझे नहीं मालूम
पर सोचता हूँ कि हुसैन सागर पर आज शाम कोई न जाए
सागर के साथ हुसैन का जुड़ना हिंदुओं को नागवार लग सकता है
बीचोबीच बुद्ध की प्रतिमा होने पर
कोई मुसलमान परेशान हो सकता है कि हुसैन समंदर नहीं झील ही सही में ऐसा कैसे
बौद्धों की औकात मुल्क में कम ही है, उन्हें भी समस्या कोई तो हो ही सकती है
बाकी सब का भी रब या परम पिता ईश्वर कुछ कुछ तो कहला ही सकता है अपने भक्तों से
ऐ अप्रतिम विशाल नभ, ओ निर्मल, तू जो परंपराओं को सीने में लिए शाम अँधेरे चला गया
तूने तो हुसैन को दिखला दीं झील में समंदर की लहरें
अब बड़े वामपंथी कवि लेखक भी ढूँढ रहे जीवंत परंपराएँ और आस्थाएँ
और विशाल टैंकर ट्रक सब हिंद महासागर के पार कहीं फेंक आने हुसैन सागर को उठा ले जा रहे हैं
देखने वालों में से एक पूछता है कि आप रो तो खूब लिए हल नहीं बतलाते
एक हल है कि सुबह सुबह दो से चार ग्लास पानी पिया जाए
दिमाग को दुरुस्त रखा जाए
दूसरा यह कि हो जाए कविता गद्यमय
पर बंदूक चलानी सीखा जाए
तीसरा हल यह भी कि ऐलबर्ट आइन्स्टाइन को पढ़ा जाए
कि जितना आश्चर्य आस्थावादी विचारकों की भीड़ देखकर होती है आज
उतना ही हुआ था उस महान वैज्ञानिक को भिन्न कारणों से कभी गाँधी को जानकर
नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
मैं ऐलबर्ट आइन्स्टाइन बार बार पढ़ सकता हूँ।
हुसेन के सुन्दर चित्र के साथ लाल्टू की खूबसूरत रचना की प्रस्तुति ! क्या बात है !
ReplyDeleteरचना में झकझोर देने वाली क्षमता है।
ReplyDeleteक्या इसे भी कविता कहते हैं?
ReplyDeleteJi, bhala yh bhi koi kavita hai. ye to sampradaayikta par bhi pareshan hoti hai aur Vishnu khare jaise Vampanthiyon ke prampra aur astha ke moh par bhi.
ReplyDeleteACHA LIKHTE HE
ReplyDeleteSHEKHAR KUMAWAT
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ReplyDeleteमैंने तो सिर्फ अपनी मनस्थिति का बयान किया है। सवाल यह नहीं कि कौन अपराधी है, सवाल यह है कि बहुसंख्यक लोगों की संस्कृति(यों) और परंपराओं के वर्चस्व में जीते हुए हममें से कोई भी मुख्यधारा से अलग मुद्दों पर किस हद तक खुला दिमाग रख सकता है। कहने को हम किसी एक कवि या लेखक को निशाना बना सकते हैं, पर मेरा मकसद यह नहीं है, मैं एक तरह से खुद को निशाना बना रहा हूँ। किसी भी बड़े और सजग कवि से तो मैं सीख ही सकता हूँ। अगर एक सचेत कवि की किसी बात में हमें किसी प्रकार की संकीर्णता दिखती है, तो मैं या कोई और भी उस संकीर्णता से मुक्त हों, ऐसा नहीं हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि हममें से हर कोई इस बात को सोचे कि हम कितनी ईमानदारी से जो कहते हैं उसको वाकई अपने जीवन में जीते हैं। मुझे लगता है कि हमें आपस की खींचातानी या किसी एक कवि या लेखक का नाम लेकर बहस करने से बचना चाहिए। मैं अक्सर देखता हूँ कि इस तरह की बहस से मूल बात हाशिए पर चली जाती है। अपनी कमजोरियों और पूर्वाग्रहों को समझते हुए और उन्हें स्वीकार करते हुए ही हम बेहतरी की ओर बढ़ सकते हैं।
ReplyDeleteयह कविता एक तरफ साम्प्रदायिक लोगों को निशाने पर रखती है, दूसरी तरफ विष्णु खरे को और तीसरी तरफ उन सभी पाठकों को जो कविता को गद्यमय किए जाने से असहज महसूस करते हैं।
ReplyDeleteइस तीसरे तरफ में तो मैं स्वयं को भी खड़ा पा रहा हूँ। मैं यह नहीं कह रहा कि यह कविता लोगों को निशाने पर रखने के लिए लिखी गई है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ निशाने पर रखने के खतरे से बचने के लिए यह गद्य 'कवितामय' हो गया है। मैं सिर्फ यह कह रहा हूँ कि यह जो कुछ भी है उसने मुझे और मुझ जैसे बहुत से पाठकों को निशाने पर ले लिया है !
aap dono ko laaltu ji ko aur dhiresh bhai ko aisi rachna ke liye bhut bhut dhnywad. laatu ji ko isliye ki unhone ise likha aur dhiresh bhai ko iss kvita ko meri phunch tk laane ke liye
ReplyDeleteलाल्टू जी से सहमत!
ReplyDeleteज़रूरी कविता है… बस इतना कहुंगा अभी
लाल्टू जी आपको इतना स्पष्टिकरण देने की क्या आव्श्यकता है । सही तो कह रहे है आप ।
ReplyDeleteतीसरा हल यह भी कि ऐलबर्ट आइन्स्टाइन को पढ़ा जाए
ReplyDeleteकि जितना आश्चर्य आस्थावादी विचारकों की भीड़ देखकर होती है आज
उतना ही हुआ था उस महान वैज्ञानिक को भिन्न कारणों से कभी गाँधी को जानकर
लाल्टू जी !
ReplyDeleteबेहतर कविता के लिए उदास बधाई!
क्यूँ उदास नहीं होना चाहिए?
दंगे का कम से कम भी जो मतलब होता है
वह सिर्फ उदास और बे इंतिहा परेशान कर देता है.
ऐसे में जहाँ से इसके खिलाफ आवाज़ क़ी उम्मीद हो,
वही से आस्था के तर्क हाथ लगें तो रोने का ही मन होगा!
सर्वेश्वर ने कुमार गन्धर्व के लिए एक बार लिखा था
"जलते हुए वन में छटपटाता हुआ हिरन"
हमारी हालत ऐसी ही है
इस वक्त हैदराबाद में होना यातना क़ी ढेरो खिड़कियाँ खोल देता होगा
गुजरात अयोध्या और हुकूमते!
@ रंगनाथ जी !
ReplyDeleteआपके साथ मैं भी निशाने पर हूँ।
कविता निशाने भी साधती है और गोली भी चलाती है।
कविता की बंदूक के शिकार को यह सुविधा होती है कि उसकी इच्छा हो तो गोली से घायल हो और न होतो न हो। बहुत से लोग कविता के पद्य से खुशी-खुशी और शीघ्र घायल होते हैं। कविता के गद्य से शायद उतने नहीं..
और सर ! गोली तो पद्य से क्या ग़ज़ब की निकलती है...
"doosra yeh ki ho jaae kavita gadyamaya
ReplyDeletepar bandook chalaanee seekha jaae"
laltu ki zayada kavitayen nahin parhi, par jo parhi unhe zayada sarah nahi paaya. Is kavita main yeh do pankityaan is kavita ko saarthak banaati hai, meri samajh main.