एक महिला साथी ने अपने ब्लॉग पर पाठकों से पूछा है कि वे उन तीन स्त्रियों के नाम बताएं, जिनसे वे सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं। उन्होंने ऐसे तीन पुरुषों के नाम बताने का भी आग्रह किया है। सेलिब्रेटीज से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं और वे तपाक से कोई तीन नाम गिना देते हैं जिनमें प्रायः पहले नाम के रूप में मां बोला जाता है।
मैं यूं ही सोचते-सोचते बचपन में लौटने लगा। धुंधली सी यादों में बहुत से धूसर से, बेनाम से चेहरे तैरने लगे। मैले-कुचैले कपड़ों वाली किसान-मजदूर स्त्रियां जो अक्सर चाची, ताई और कोई-कोई बुआ होती थी, बहुत सी युवा लड़कियां जो मां के आग्रह पर मुझे अपने साथ रामलीला ले जाती थीं, इन चेहरों में थीं। अचानक पड़ोस की एक काली लड़की बेहद याद आई जिसने एक भरी दुपहरी मुझे अपने चौबारे में बुलाया और अपने दिल की बातें एक कागज़ पर लिखवा दीं - `मैं तेरी मोहब्बत में मर जाऊंगी, अक्षय।' फ़कत एक लाइन लिखा दी थी और फिर नीचे अपना नाम लिखने के लिए कहा था। उसने मुझ तीसरी कक्षा के मासूम से बच्चे पर भरोसा कर यह चिट्ठी अक्षय तक पहुंचाने का वादा भी लिया। मेरे गांव की उसी पुरानी मनुहार भरी बोली में - `बाई बी मेरा'। अक्षय उस साल रामलीला में राम का पाठ खेल रहा था। उस जमाने में जब टीवी नहीं था तो लड़कियों में ही नहीं, गांव के भले और शोहदे लोगों में भी रामलीला के एक्टरों का भारी क्रेज हुआ करता था।
मुझे जाने क्या सूझा कि मैंने वह चिट्ठी अपनी मां को जा थमाई और कोई बड़ा रहस्य खोल देने के कारनामे के गौरव से भर गया। और मेरी मां ने यह चिट्ठी उस लड़की की मां को थमा दी और फिर वह उसके पिता तक जा पहुंची। गो के न उस लड़की को और न उसके मां-बाप को कोई एक हरुफ पढ़ना आता था पर चिट्ठी का मजमून तो मां ने उन्हें रटवा ही दिया था।
फिर एक ऐसी ही सूनी दोपहर में उस लड़की ने मुझे अपने घर के आगे पकड़ लिया। मैं शर्म और डर से कांप रहा था। वो मुझे अपने किवाड़ के पीछे ले गई। फिर बेहद बेबस से भाव से मेरी ओर देखकर बोली, 'बाई, तुझे क्या मिला?' मेरे पास कोई जवाब नहीं था। उसी कातर दृष्टि के साथ उसने फिर कहा, `तुझे पता, मेरे चाच्चा ने मुझे कितना पिट्टा?' (उस जमाने में मेरे गांव में बहुत से लोग पिता को चाच्चा ही कहते थे।)फिर उसने अपनी टांगों से सलवार थोड़ा ऊपर उठाया और कहा, `देख सारे गात पर लील ही लील पड़रे।' मुझे काटो तो खून नहीं था। मुझे लगा कि वाकई मैंने बहुत बड़ा धोखा किया है। मैं किसी तरह वहां से चला आया पर एक रात, दो रात और कितनी ही रात ढंग से सो नहीं सका।
उस दिन के बाद अचानक वह लड़की जो अपने रंग-रूप की वजह से मुहल्ले भर में बेहद उपेक्षित थी, मुझ बच्चे को बेहद सुंदर लगने लगी। मैं उसके उस सपने में जिसने चिट्ठी की शक्ल अख्तियार की थी, अक्सर घूमता और फिर शर्मिंदा सा लौट आता। अचानक रात में नींद खुलती और मैं सोचता कि मैं किसी तरह उस लड़की से माफी मांग लूंगा।
कोई बेहतरीन कहानी हम पर कई बार गहरा असर करती है और हम चीजों को मानवीय ढंग से देखने लगते हैं। सच बताऊं, इस घटना से उपजे अपराधबोध का असर भी मुझ पर ऐसा ही हुआ। कुछ दिनों बाद उस लड़की का ब्याह हो गया। संयोग यह कि हम फिर कभी मिल भी नहीं पाए। इस बात को जमाने गुज़र गए हैं पर उसकी कातर सी आंखें और उसका सवाल आज तक मेरा पीछा करते हैं। काश मैं बता पाता कि मुझे क्या तहज़ीब और तमीज मिली उससे।
गांव की बेढ़ब ज़िंदगी में ऐसे ही कई और स्त्री चेहरे मुझे याद आ रहे हैं। जिनका जिक्र बेहद निजी को सार्वजनिक करने जैसा लगता है। ये साधारण स्त्री चेहरे गहरे संकटों में मेरे मनुष्य को बचा लेते हैं।
.....काफी देर सोचते रहने के बाद न जाने क्यों मुझे आलोक धन्वा की यह कविता याद आने लगी -
चौक
---
उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा
जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया।
मेरे मोहल्ले की थीं वे
हर सुबह काम पर जाती थीं
मेरा स्कूल उनके रास्ते में पड़ता था
माँ मुझे उनके हवाले कर देती थीं
छुटटी होने पर मैं उनका इन्तज़ार करता था
उन्होंने मुझे इन्तज़ार करना सिखाया
कस्बे के स्कूल में
मैंने पहली बार ही दाख़िला लिया था
कुछ दिनों बाद मैं
ख़ुद ही जाने लगा
और उसके भी कुछ दिनों बाद
कई लड़के मेरे दोस्त बन गए
तब हम साथ-साथ कई दूसरे रास्तों
से भी स्कूल आने-जाने लगे
लेकिन अब भी
उन थोड़े से दिनों के कई दशकों बाद भी
जब कभी मैं किसी बड़े शहर के
बेतरतीब चौक से गुज़रता हूँ
उन स्त्रियों की याद आती है
और मैं अपना दायाँ हाथ उनकी ओर
बढा देता हूँ
बायें हाथ से स्लेट को संभालता हूँ
जिसे मैं छोड़ आया था
बीस वर्षों के अख़बारों के पीछे।
वाह-वाह! क्या बात है! "वही धीरेश मुजफ्फरनगरी है शायद"... (शमशेर जी से क्षमायाचना के साथ). ऐसे ही लिखते रहो प्यारे भाई. शमशेर जी ने यह पढा होता तो खुश होते. कुछ अपने बचपन की बातें बताते, कुछ तुम्हारा हाल पूछते...
ReplyDeleteभइये ये एनोनिमस बंधु क्या कह रहे हैं !
ReplyDeleteअच्छा गद्य और साथ आलोक जी की कविता शानदार! स्वास्थ्य कैसा है अब? केरल में ही जमे हैं क्या?
वैभव तो उन स्त्रियों का ही बच रहता है मेरे भाई!
ReplyDeleteअच्छई कविता छांट कर लगाई.
ek kavita hamare vinod padraj ki bhi hai,JIN STRIYON NE MUJE PALA, use bhi padhege to achcha lagega aapko.
ReplyDeleteaapke shabdon men hi kahun to...कोई बेहतरीन कहानी हम पर कई बार गहरा असर करती है और हम चीजों को मानवीय ढंग से देखने लगते हैं...
ReplyDeletebahut achhi rachna hai!
ReplyDeleteबिलकुल सही कह रहे हो... वे क्षण अक्सर बड़े अनजान किस्म के होते हैं जब हम किसी मूल्य को थाम लेते हैं और फिर वे कभी नहीं छूटते..
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeletesansamaran or kawita, dono ne prabhaawit kiya.
ReplyDeleteआपकी कविता 'चौक' ने आँखों में आंसू ला दिए. मुझे भी अपने गाँव के कितने ही ऐसे किस्से याद आ गए जिन्हें मैंने भी अखबारों के पीछे छोड़ दिया है...मुझे भी याद है की कैसे मैं स्कूल से लौटते समय दुसरे मोहल्ले के कटखने कुत्तों से डरता हुआ खेतों से लौटती, सर पर घास का गट्ठर उठाए आने वाली औरतों की बाट जोहता था. और फिर कुत्तों की नज़रों से बचने के लिए उनके दायें-बाएँ होता हुआ अपने घर तक पहुँचता था. गाँव की कच्ची गलिओयों में गुजरा वह बचपन याद दिलाने के लिए धन्यवाद....
ReplyDeleteRavi bhai ye jane-mane ALOK Dhanva ki kavita hai
ReplyDeleteअद्भुत रे धीरेश! अद्भुत
ReplyDeleteमन भीग गया .
ReplyDelete