Friday, January 2, 2015

बहुसंख्यकवाद, मास मीडिया और मारवा अमीर ख़ान का : शिवप्रसाद जोशी





सही तो है.. अमीर ख़ान ने जो गाया. जग बावरा. जग बावरा ही तो है. वरना ऐसी मूर्खताएं कहां नज़र आती. ऐसी हिंसाएं. ऐसा कपट ऐसी बेईमानियां.

जग बावरा सुनते हुए मुझे अहसास हुआ कि अरे अमीर ख़ान तो सदियों का हिसाब लिखने बैठ गए. और लिखते ही चले जाते हैं. धीरे धीरे. चुपके चुपके. ऐसा इतिहासकार विरल ही है. गाता संगीत है लेकिन सोचता समय है. अमीर ख़ान का मारवा समकालीन इतिहास का एक अलग ही स्वरूप हमारे सामने पेश करता है. ये एक नया मुज़ाहिरा है. है तो कुछ पुराना लेकिन ये सुने जाते हुए नया ही हो उठता है. समीचीन. समसामयिक. जैसे समकालीन साधारण इंसान का आर्तनाद.

अमीर ख़ान का मारवा जैसे एक एक कर सारे हिसाब बताता है. हमारी बुनियाद बताता है. हमारी करुणा. फिर हमारी नालायकी और बदमाशी के क़िस्से वहां फंसे हुए हैं. सारी अश्लीलताएं जैसे गिरती है और फिर आप सामने होते हैं. सच्चे हैं तो सच्चे, झूठे हैं तो झूठे. सोचिए क्या किसी के गा भर देने से ये संभव है.

लेकिन असल में ये गायन सिर्फ़ सांगीतिक दुर्लभता या विशिष्टता की मिसाल नहीं है, ये जीवन और कर्म और समाज के दूसरे पैमानों पर भी उतना ही खरा उतरता हुआ है. मिसाल के लिए मैं इसे जनसंचार के यूं नये उदित क्षेत्र में एक अध्ययन की तरह पढ़ता हूं. फ़्रेंच स्कूल की जो धारा ग्राम्शी से आगे बढ़ती है, मैं उसके हवाले से कहना चाहता हूं कि अमीर ख़ान उस स्कूल को न सिर्फ़ रिप्रेज़ेंट करते हैं बल्कि उनकी आवाज़ में आप नये वाम को समझने के तरीक़े भी विकसित कर सकते हैं.

वो स्थिर आवाज़, विचलित होती हुई, दाद से बेपरवाह लेकिन टिप्पणी करती हुई, अपने रास्ते के धुंधलेपन को आप ही साफ़ करती हुई, आगे बढ़ती हुई एक निश्चिंत लय में, एक निर्भीक स्पष्टता के हवाले से, एक निस्वार्थ कामना, एक ज़िद्दी धुन सरीखी है वो आवाज़ वो मारवा उनका.

अमीर ख़ान की आवाज़ एक साधारण औजी का ढोल है जो हमारे गांवों में बजाते हैं वे. औजी की अपनी कल्पनाशक्ति से निकला वो नाद ही अमीर ख़ान की आवाज़ में जाकर मिल जाता है. सोचिए तो इतना सिंपल गायन है वो. उसमें क्यों जटिलताएं देखनी. आप चाहें तो एक एक रेशा पढ़ सकते हैं उस गायन का. न चाहें तो भी फ़ितूर ही है. 
मैं अपनी नाकामियां ढूंढता हूं. और उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश करता हूं. बहुत सारे लोग जो ब्लॉगों से, लिखने से, गाने से और चिंतन से दूर हैं वे भी सोचते होंगे, और आगे का सोचते होंगे. ऐसे भी तो होंगे जो उस आवाज़ में घुल जाते होंगे. उनको सलाम है.

आज के दौर में, जब बहुसंख्यक हिंसाएं हम पर आमादा हैं, दोस्तों, अमीर ख़ान का ये मारवा ही हिफ़ाज़त करेगा और तैयार करेगा. अपना ख़याल दुरुस्त रखने की बात है बस.

1 comment:

कविता रावत said...

सार्थक सामयिक चिंतन प्रस्तुति हेतु आभार!