Friday, September 26, 2025

विनोद कुमार शुक्ल की कविता पर अच्युतानंद मिश्र



विसंगति की विडंबना

60’ के दशक में जिन कवियों ने विशिष्ट कहन शैली से अपनी पहचान निर्मित की, विनोद कुमार शुक्ल उन थोड़े कवियों में से हैं. कवि के साथ-साथ उनकी ख्याति एक चर्चित कथाकार की भी रही है. उनके उपन्यासों की ख़ूब सराहना हुयी है. उनके दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनकी कविताओं की विशिष्टता और उत्कृष्टता को लेकर बहुत विवाद नहीं है. अधिकांश आलोचकों, पाठको की दृष्टि में वे एक उत्कृष्ट और सजग कवि हैं. 

इसे विडंबना ही कहेंगे कि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं पर लिखे गये अधिकांश निबन्ध निष्कर्षात्मक हैं. वे उनकी कविता, उनके कवि-व्यक्तित्व के विषय में निर्णय रखती हैं. लेकिन वह ये खुलासा नहीं करती कि वे इन निष्कर्षों पर किस तरह पहुंचे? इसके क्या कारण हो सकते हैं? यह प्रश्न कविता को पढने समझने और विश्लेषण की जरूरतों से जुड़ा है. यह एक विचारोत्तेज़क प्रश्न तो है ही कि किसी कवि को समझने के हमारे तरीके उनके विषय में मान लिए गये या कुछ रख दिए गये निष्कर्ष भर क्यों हैं. उनकी कविताओं की बुनावट और उसके विश्लेषण की तरफ हम क्यों नहीं गये ? यह तो स्पष्ट ही है कि विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ हिंदी कविता में चली आ रही परिपाटी का अनुसरण नहीं करती, यह बात एक हद तक शमशेर के संदर्भ में भी कही जा सकती है. हिंदी आलोचना में शमशेर के विषय में भी कुछ निष्कर्ष बना लिए गये हैं. उदाहरण के तौर पर शमशेर की शमशेरियत जैसे मुहावरों ने शमशेर की व्याख्या को अधिक अमूर्त और निष्कर्षात्मक बनाया है. शमशेर की कविता के केंद्र में बिम्ब रचना है तो विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ भाषिक संरचना की विशिष्टता. 

1971 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. लगभग जयहिंद शीर्षक कविता 1965 की है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1964 का वर्ष हिंदी कविता में तीव्र परिवर्तन की लहर पैदा करने का वर्ष है. इसी वर्ष नेहरु की मृत्यु, मुक्तिबोध की मृत्यु और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ. इन घटनाओं का सम्यक एक तीक्ष्ण प्रभाव हिंदी कविता पर पड़ा. फलस्वरूप कुछ कवि समय समाज की विडम्बना को अकविता की भाषा में व्यक्त करने लगे तो कुछ कवि भाषा के सीमित अर्थों का अतिक्रमण कर भाषिक अभिव्यक्ति के नये अभिप्रायों की खोज में लग गये. अतिक्रमण करने वाले कवियों में रघुवीर सहाय श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी और विनोद कुमार शुक्ल प्रमुख थे. 1967 में ही आत्महत्या के विरुद्ध, मायादर्पण एवं मुक्तिप्रसंग कविता का प्रकाशन हुआ. इन कविताओं के समक्ष अगर हम लगभग जयहिंद को रखे और पढ़कर देखने की कोशिश करें तो यह स्पष्ट होता है कि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में भाषा का मूल उद्देश्य चित्रात्मकता है, रघुवीर सहाय के यहाँ संवेदनाओं के विविध आयाम, श्रीकांत वर्मा के यहाँ तीव्र आवेग तो राजकमल के यहाँ भाषा अंतर बाहय की विडंबनाओं का तीखा मगर बेलौस क्रम प्रस्तुत करती है. 

भाषा के स्तर पर विनोदकुमार शुक्ल सर्वाधिक सजग नज़र आते हैं. इस हद तक सजग कि अक्सर कविता कहन के अर्थ और संवेदना के मार्ग को छोड़कर कहन के वैचित्र्य को ही उद्देश्य मान लेती है. 

फिर जीवित दिखने के लिए 
इधर-उधर हिलते हुए 
थोड़ी-बहुत कोशिश 
छलाँग लगाने की 
जिसमें ख़ास-ख़ास लोगों के लिए 
दीवाल के बीच चार क़ीलों से ठुका
अपना ही इकतीस साल पुराना 
कपड़े पहने हुए 
मात्र छलाँग लगाता हुआ एक फ़ोटो ही। 
फ़ोटो में बाएँ हाथ से 
क़मीज़ की जेब दबाए हुए। 
जेब में अठन्नी थी 
या फ़ोटो में बचत की 
आठ आने की स्थिरता! 
और सामने चहल-पहल करती आबादी 
आठ बजे रात को चली गई 

यह मोहभंग की कविता है. यहाँ जीवन की इच्छा-आकांक्षा, उम्मीद और संभावनाएं ताकत और वर्चस्व, हिंसा और दमन के रूपाकारों में ढल रही है. एक विशाल दीवार है, जिसे न तो पार पाया जा सकता है और न ही उसे तोड़ा जा सकता है. ऐसे में चल रहे सतत संघर्ष को लेकर एक तरह का विद्रूप, निरर्थकता और अकर्मण्यता से उपजा हास्य बोध, इस कविता के केंद्र में है. सवाल यह है कि ताकत के समक्ष सतत संघर्ष की निरुपायता करुणा और क्रोध उत्पन्न क्यों नहीं करती. वह एक खिलंदर किस्म की जुगुप्सा पैदा करने तक ही सीमित क्यों रह जाती है? विनोद कुमार शुक्ल की आरंभिक कविताओं से लेकर हाल की कविताओं तक में मानवीय स्थितियों की गतिशीलता की जगह, उसकी स्थिरता, उसकी निरुपायता, असहायता ही दिखाई देती है . 

यह जरुरी नहीं कि कवि नकली विश्वास जगाये या झूठा आशावाद फैलाये लेकिन यह तो जरुर है कि वह मानवीय संघर्ष की निरंतरता को विद्रूप से उपजे हास्यबोध में न बदले. अब प्रश्न उठता है कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता करुणा या तनाव अथवा क्रोध के स्थान पर विद्रूपता से उपजे हास्यबोध को क्योंकर चुनती है? क्या उनकी काव्यभाषा में इसकी शिनाख्त की जा सकती है? आखिर कोई कवि एक सी स्थितियों से भिन्न दृष्टियों पर किस तरह पहुँचता है? ध्यान से देखें तो कवि के पास जो भाषा है, वही उसकी कुल पूंजी है. वह भाषा ही उसकी दृष्टि, उसकी कल्पनाशीलता और उसकी वैचारिकता को दर्शाती है. 

विनोद कुमार शुक्ल गतिशील एवं जीवंत दृश्यों -स्थितियों को एक स्थगित और निर्जीव दृश्यों-स्थितियों में बदलते हैं. यह रूपांतरण उनके काव्य विवेक के मूल में है. मूलतः शुक्ल की भाषा सजीव वस्तुओं को, गतिशील दृश्यों को, निर्जीव परिघटनाओं एवं स्थगित रूपाकारों में ढालती है. उनकी कल्पनाशीलता जीवित वस्तुओं का किन्हीं खास प्रसंग स्थितियों एवं वस्तुओं से तादात्म्य निर्मित करती है. यही वह प्रक्रिया है, जहाँ विनोद कुमार शुक्ल आन्तरिक परिघटनाओं का बाह्यकरण करते हैं. वे तादात्म्य की भाषा खोजते हैं, लेकिन इस भाषा के मूल में उनका यह विश्वास कार्य करता है कि हर विषय, विषयगत स्थितियों का एक वस्तुगत चित्र, प्रारूप बाह्य वस्तुगत संसार में मौजूद है. कल्पना के रास्ते वे गणित के सूत्रों की तरह इस अंतर बाह्य का मिलान करते हैं. इस प्रक्रिया में उनकी काव्य भाषा सूत्रात्मक अधिक होने लगती है. वह सतत, बाह्य प्रतीकों की खोज का एक जखीरा पैदा करती है, लेकिन ऐसा करते हुए वह विषय और वस्तु के बीच के तनाव को, तादात्म्य न बन पाने की मुश्किलों को छोड़ देती है. इसलिए यह कविता भाषिक प्रारूप में तो चमत्कृति पैदा करती है, परन्तु अर्थ के स्तर पर उच्चतर की परिकल्पना तथा संवेदना के स्तर पर सूक्ष्मतम की धारणा प्रस्तुत नहीं करती है. उनकी कविता भाषिक प्रारूप की संगति पर अधिक बल देती है. अर्थ और संवेदना के द्वैत को काव्योप्लब्धी या कविता के साध्य के तौर पर नहीं देखती. 

इसे स्पष्ट करते हुए उनकी एक अन्य प्रसिद्ध लम्बी कविता `रायपुर विलासपुर संभाग` पर विचार किया जाना चाहिए- 

पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में 
लपकते वही फिर एक साथ दूसरे डिब्बे में 
एक भी छूट गया अगर 
गाड़ी में चढ़ने से तो उतर जाएँगे सब के सब। 
डर उससे भी ज़्यादा है 
अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत 

ग्रामीण मजदूरों का वर्णन है. जो रेलगाड़ी में सवार हो रहे हैं. परिवेश से अलगाव, उनके भीतर भय, आश्चर्य और झिझक पैदा करता है. उनकी मनःस्थिति का वर्णन करते हुए कवि बताता है कि वे इतने भयाक्रांत है कि अगर एक भी डब्बे में चढ़ सकने में असमर्थ रहा तो सब के सब उतर जायेंगे. हालाँकि यह प्रसंग अतिरिक्त नाटकीय प्रतीत होता है, क्योंकि अगर ट्रेन के चलने की वजह से एक का चढ़ना संभव नहीं हो सका तो उसके उपरांत बाकियों का उतरना उस चलती ट्रेन से किस तरह संभव होगा. बहरहाल इसे कवि की कल्पना द्वारा विसंगति उत्पन्न करने की चेष्टा मान ले और कविता में आगे बढे तो हम देखते हैं कि कवि इस अ-यथार्थ का विस्तार करते वह एक ऐसे बिंदु तक चला जाता है जो उस जत्थे को मानवीय प्रक्रियाओं से ही रिक्त कर देता है. हालाँकि इस कविता में उसे समूह के मानवीय विवेक की झलक हमें बार बार दिखाई देती है, जब कवि उनकी सामूहिक चेतना की समग्रता को उनके भय निवारण की चेष्टाओं, उनकी गतिशीलता आदि संदर्भों में व्यक्त करता है. हम देखते हैं कि आरम्भ में वे स्थिर नहीं है. वे अपने घरों से चलकर एक समूह में शामिल हो रहे हैं. वे अपने विषय में निर्णय ले रहे हैं. वे तटस्थ और निष्क्रिय मनुष्यों का जत्था भर नहीं हैं. लेकिन रेल के डब्बे में उनके प्रवेश के पश्चात, कवि इस गतिशील समूह की गतिशीलता की उपेक्षा कर, उसे एक स्थिर, प्रतिक्रियाविहीन दृश्य में बदलता है. ऐसा करने के लिए वह इस समूह की आन्तरिकता को, उनकी विषयवत्ता को नकारते हुए उसे एक निष्क्रिय वस्तुपरकता में बदल देता है. वे यह दिखाते हैं कि वे- 

घुस जाएँगे डिब्बों में 
ख़ाली होगी बेंच 
यदि पूरा डिब्बा तब भी 
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में 
या उकड़ूँ बैठ जाएँगे 
थककर नीचे 
डिब्बे की ज़मीन पर। 
निष्पृह उदास निष्कपट इतने 
कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका 
या फल्ली का कचरा 
तब और सरक जाएँगे 
वहीं कहीं 
जैसे जगह दे रहे हों 
कचरा फेंकने की अपने ही बीच। 

यह कैसे संभव होता है? क्या वे सब मानवीय प्रतिक्रियाओं से रिक्त हो चुके हैं? अगर यह महज़ कवि की कल्पना है, उसकी वैचारिक दृष्टि है तो ऐसा क्यों है ? वह एक गतिशील जनसमूह की ऐसी निष्क्रिय प्रतीति क्यों प्रस्तुत करता है? यहाँ भी स्पष्ट तौर पर ट्रेन में घुसने से पूर्व और ट्रेन में घुसने के पश्चात् जो काव्य प्रक्रिया घटित होती है, वह काबिले गौर है. एक सतत सक्रिय, गतिशील जन समूह, जिसकी अपनी विषयवत्ता है, जो अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं के साथ समूह में शामिल है, जो निर्णय लेता है, अपने घर से, परिवेश से, अपनी चौहद्दी से बाहर निकलने का पराक्रम मंसूब करता है, वही जन समूह बाद में कवि की निगाह में एक स्थिर चित्र (स्टिल फोटोग्राफ ) में बदल जाता है. एक प्रतिक्रियाविहीन जत्थे में रूपांतरित हो जाता है. एक ऐसे समूह चित्र में वह रूढ़ हो जाता है जहाँ सारी गतिशीलता, मानवीय दृष्टि एक अमानवीय परिकल्पना में ढल जाती है. कवि उस जन समूह की वैयक्तिक विशिष्टताओं को, उनकी विषयवत्ता को नज़रंदाज़ करता है . 

प्रतिक्रियाविहीन समूह की परिकल्पना कहीं अति-यथार्थ को तो इंगित नहीं करती? इसके विपरीत हम देखते हैं कि उनकी कविता में यथार्थ का अतिक्रम नहीं, नकार है. दरअसल समूह की परिकल्पना कवि के मष्तिष्क में व्यक्ति की परिकल्पना (वैयक्तिक विशिष्टता नहीं) भर है, ऐसा इसलिए कि समूह की विषयसत्ता (अलग उम्र और संवेदना से बने लोग एक ही जीवन स्थिति में भिन्न भिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं) को व्यक्ति की वस्तुपरकता में बदल देते हैं. विनोद कुमार शुक्ल विद्रूप से उत्पन्न हास्यबोध से इस कदर संचालित होने लगते है कि वे उस दृश्य की गतिशीलता, उसकी मानवीय प्रतिक्रिया की उपेक्षा कर देते हैं. 

जब बाह्य जगत के अनुभव ऐन्द्रिक चेतना में ढलकर भाषिक अभिव्यक्ति का स्वरुप अख्तियार करते हैं तो सामान्य अनुभव काव्य अनुभव में परिवर्तित हो जाता है. ऐंद्रिकता, बाह्य वस्तु जगत को विषयगत अंतर्जगत में रूपांतरित करती है. विनोद कुमार शुक्ल की अधिकांश कविताओं में ऐन्द्रिक अनुभव से गुजरे बगैर भाषिक अभिव्यक्ति का कौशल हम देखते हैं. अब प्रश्न उठता है कि कवि इसे कैसे संभव करता है? वह रूपांतरण की प्रक्रिया में संलग्न होने की जगह बुद्धि के रास्ते भाषिक अभिव्यक्ति की खोज करता है. 

इसलिए अधिकांश कवितायेँ भाषिक अभिव्यक्ति का कौशल बनकर रह जाती हैं. उनमें पाठकीय अनुभव या सहृदय की सहानुभूति का उभार संभव नहीं हो पाता. इस समस्या को किसी एक कवि तक महदूद न कर रचना प्रक्रिया की बुद्धिजन्य विसंगति के तौर पर समझने की जरुरत है . 

आधुनिकता के विकास के फलस्वरूप मनुष्य ह्रदय के बजाय बुद्धि पर अधिक यकीन करता है. आधुनिकता का यह विकास मनुष्य के अंतर्जगत, उसकी विविध प्रातक्रिया, उसकी संवेदना आदि आदि चीज़ों को नकारने की दिशा में उद्धत होता है. आधुनिक चेतना संसार को प्रकट तार्किकता और रूपगत भाषिक अभिव्यक्ति के तौर पर देखने की दृष्टि बन जाती है. कविता का काम आधुनिकता की इस विसंगति के विरुद्ध संघर्ष के तौर पर अथिक कठिन होता जाता है. आधुनिक समय समाज में कवि कर्म की कठिनता इस बात में परिलक्षित होती है कि कविता का काम बुद्धि और संवेदना के द्वैत से संचालित होता है. जबकि जीवन व्यापार में सतत गतिशीलता और सफलता बुद्धि की मांग करती है. यही वजह है कि आधुनिकता जीवन और कविता में फांक उत्पन्न करती है. एक तरह का अलगाव निर्मित होता है. कामायनी में प्रसाद ने इस समस्या को व्यापक स्तर पर प्रस्तुत किया था. जीवन के केंद्र में बुद्धि का आधिपत्य बना रहता है. कविता उसके प्रति आलोचना की दृष्टि उत्पन्न करती है और बुद्धि के साथ मानवीय संवेदना के सह-अस्तित्व की परिकल्पना प्रस्तुत करती है. कहना न होगा कि कविता द्वारा प्रस्तुत इस जीवन दृष्टि को उत्तर-औद्योगिक और सूचना समाज में हास्यास्पद मान लिया जाता है. यह प्रक्रिया कठिन से कठिनतर होती जाती है.

अन्तः जगत और बाह्य जगत के संघर्ष से रूप और अंतर्वस्तु का सतत संघर्ष निर्मित होता है. मुक्तिबोध के यहाँ यही कवि का आत्मसंघर्ष है, जहाँ वह बुद्धि की चरम सार्थकता को सतत प्रश्नांकित करता है. वह ऐन्द्रिक अनुभव और अन्तः जगत की क्रियाशीलता को नकारता नहीं है और बाह्य जगत को बाह्य की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखता. इस संदर्भ में अगर हम विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को देखें तो हम पाते हैं कि उनके उनके यहाँ ऐन्द्रिक अनुभव की जगह सापेक्ष अनुभव पर बल है. सापेक्ष अनुभव चीज़ों के बाह्य संदर्भ पर, रूप, आकार ,गति पर बल देती है. वह एक तुलनात्मक दृष्टि का निर्माण करती है. प्रश्न यह है कि आधुनिक समाज में यह दृष्टि किस तरह आकार लेती है. तुलनात्मक दृष्टि का निर्माण बाइनरी निर्माण की प्रक्रिया के द्वारा होता है. विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में बाइनरी की यह चेतना सर्वत्र विद्यमान है. वे सतत भाषिक -युग्मों का निर्माण करते हैं. मसलन 

नींद बहुत थकने के बाद 
जगे रहने की ताकत का समाप्त होना है 
और मृत्यु स्वप्न देखने की ताकत का― 
इस तरह किसी भी बात को 
ताकत से जोड़ कर देखने लगा हूँ 
कि घर में रहने की ताकत जब समाप्त हो जाती 
तो बाहर निकल जाता 
बाहर रहने की ताकत समाप्त होने पर लौट आता 

XXXX
 
जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के 
जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार 
जाकर ही वहाँ पहुँचा जा सकेगा 
जो बहुत दूर संभव है 
पहुँचकर संभव होगा 
जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे 
जाते-जाते बचा रहेगा आगे 

इन काव्यांशों में बाइनरी की सरल गणितीय चेतना और तुलनात्मक सापेक्षवादी दृष्टि व्याप्त है. यह अनुभवजन्य दृष्टि नहीं है. बुद्धि के द्वारा कुछ स्थितियों को बेहतर मान लिया जाता है. वर्चस्व की चेतना तथा उपयोगितावाद की दृष्टि उन वस्तुओं, स्थितियों के मूल में कार्य करती है. वह उनको बेहतर मूल्य के रूप में स्थापित करती है. भाषा के सहज संस्कार इस चेतना को स्वीकार कर लेते हैं. वे इस मूल्य-व्यवस्था को सच की तरह आत्मसात करते हैं. उदाहरण के तौर पर काला-गोरा, स्त्री-पुरुष, आगे-पीछे, अंदर-बाहर. इन तमाम युग्मों में हम श्रेष्ठता की दृष्टि को स्पष्ट तौर पर देखते हैं. यह पूछा जा सकता है कि इन युग्मों के मध्य एक का महत्वपूर्ण होना दूसरे का गौण होना किस तरह होता है और हमारी बुद्धि इसे प्रश्नांकित क्यों नहीं करती है? यह अपने आप में कितना हैरतंगेज़ तथ्य है कि जो आधुनिकता आलोचना का विवेक जाग्रत करती है, वही आलोचनात्मक विवेक को वर्चस्व की चेतना में बदल देती है. 

विनोद कुमार शुक्ल की काव्यभाषा इन बाइनरी युग्मों के तहत कार्य करती है. वे कुछ सूत्रात्मक वाक्य या स्थितियों का निर्माण करते हैं, जिनमें सहज गणितीय या तुलनामक दृष्टि सक्रीय रहती है. उनके यहाँ इन सूत्रात्मक वाक्यों की निर्मित में उक्तिवैचित्र्य पर बहुत अधिक जोर रहता है, लेकिन कवि का आत्मसंघर्ष जो इन वस्तुगत स्थितियों को ऐन्द्रिक बोध में बदल सके, अनुपस्थित ही रहता है. पहले काव्यांश में कवि ताकत के स्वरुप को रखता है. वह उसके व्यापक प्रभाव को नींद, स्वप्न से जोड़ते हुए तर्क की भाषा में घर और बाहर को रखता है, लेकिन वह ताकत के आंतरिककरण, उसके सार्वभौमिक होने की प्रक्रिया, उसके आत्मघाती होने के स्वरुप को नहीं देख पाता. वह सिर्फ ताकत को एक बाह्य परिघटना के रूप में देखता है. वह कुछ स्थितियों से उनकी तर्कपूर्ण स्थिति का मिलान करता है. एक तुलनात्मक स्थिति को प्रस्तुत करता है, जिसके मूल में बाह्य तार्किकता सक्रिय रहती है. आंतरिक गुणों और परिघटनाओं को वह बहुत महत्व नहीं देता. प्रसंगवश रघुवीर सहाय की कविता के एक अंश पर विचार करने से यह स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी- 

मैं कभी ताक़त से नहीं बोला 
उम्मीद से बोला हूँ 
कि शायद मैं सही हूँ 

अगर इन पंक्तियों पर विचार करें तो यहाँ ताकत के बरक्स उम्मीद को रखा गया है. अगर बुद्धि को ही चुनना होता तो वह ताकत के विरुद्ध असाहयता, निरुपायता, क्षीणता ,हीनता आदि आदि को रखती, लेकिन रघुवीर सहाय ताकत के विरुद्ध उम्मीद को रखते हैं. यहाँ यह चयन मात्र बुद्धि पर ही निर्भर नहीं है, कवि के संवेदनात्मक बोध पर भी निर्भर है. ताकत और उम्मीद बाइनरी युग्म नहीं बनाते. वे किसी तुलनात्मक अनुभव को नहीं रखते. एक का दूसरे पर वर्चस्व या अख्तियार नहीं है. ताकत के क्रियाशील होने के सबसे सघन क्षणों में भी मनुष्य का उम्मीद बनाये रखना, उसके आंतरिक जगत के प्रतिरोध और सक्रियता को दिखाता है. यह सक्रियता जब कवि के अनुभव जगत से, उसकी ऐन्द्रिक चेतना से तादात्म्य स्थापित करती है तो वह उसे काव्यानुभव में बदलता है. यह अनुभव साधारणीकृत होकर पाठक की चेतना से एकाकार हो जाती है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कविता का अंतिम और अनिवार्य लक्ष्य कवि की चेतना और पाठक की चेतना का एकाकार होना है. अगर कोई कविता ऐसा नहीं करती है या कर सकने में समर्थ नहीं दिखाई देती है यानि वह कवि की चेतना और पाठक की चेतना के मध्य अन्तराल पैदा करती है, तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि उस कविता ने काव्यानुभव का निर्माण नहीं किया. पाठकीय संवेदना का विस्तार करने में वह असफल रही. सच्ची कविता पाठक और कवि को अनुभव की सामान्य जमीन पर ला खड़ा करती है. हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता पढ़ते हुए क्या पाठक स्वयं को अनुभव की उसी जमीन पर पाता है, जहाँ कवि विराजमान है? 

दूसरे काव्यांश में भी उधर-इधर, इस पार-उस पार, पीछे-आगे आदि बाइनरी युग्म देखे जा सकते हैं. इनमे भी वही सरल गणितीय युक्तियाँ दिखाई देती हैं. पाठक इन उक्तियों पर चमत्कृत तो हो सकता है क्योंकि वे सहज ही उसकी प्रकट तार्किकता को प्रभावित करती हैं पर क्या वह किसी सूक्ष्म काव्यानुभूति को भी अर्जित करता है? विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ पढ़ते हुए हम इस प्रश्न से सहज ही बावस्ता होते हैं. 

प्रश्न यह है कि युक्ति या उक्तिवैचित्र्य क्या कविता को सार्थक नहीं बनाता? वास्तव में युक्ति या उक्तिवैचित्र्य का उद्देश्य कविता की संप्रेषणीयता और सार्थकता को बढ़ाना है. चमत्कृति पाठकीय अनुभव को विस्तृत और संभाव्य बनाती है. मगर यह तब होगा जब किसी संवेदनात्मक धरातल पर इसे संभव किया जाए. सिर्फ युक्ति या उक्तिवाचित्र्य के द्वारा कविता संभव नहीं हो सकती है. रसायन की भाषा से दृष्टान्त ले- हम जानते हैं कि रासायनिक क्रिया को शीघ्र और सहज संभाव्य बनाने के लिए उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) की जरूरत रहती है, मगर सिर्फ उत्प्रेरक के रास्ते रासायनिक क्रिया संभव नहीं. विनोद कुमार शुक्ल की कविता उत्प्रेरक के रास्ते ही काव्यबोध निर्मित करने का प्रयत्न करती है. वह लगातार कुछ युक्तियों को दुहराती है. भाषिक चमत्कृति में पाठक उलझ जाता है और इसी उलझन को कई बार वह काव्य-बोध मान बैठता है. 

विनोद कुमार शुक्ल की कविता, उस चमकदार फल की तरह है, जो बाहर से रसदार और गूदादार प्रतीत होती है. पर उसे काटने पर मालूम होता है, रस और गूदा का भ्रम उसके मोटे चमकदार छिलके की वजह से है. यह कम दिलचस्प नहीं कि उनकी कविता के अधिकांश पाठक चमत्कृति पर ही मुग्ध रहते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते. वे वास्तविक काव्यबोध से महरूम रहते हैं. आस्वाद के परिवर्तित रूपों ने मानवीय सभ्यता के समक्ष सौन्दर्यबोध के नये प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं. हालाँकि उत्तर-औद्योगिक समाज में जहाँ मनुष्य का विवेक आत्मघाती होता जा रहा है, कविता और काव्यबोध का यह हश्र युगानुरूप ही प्रतीत होता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि कविता का काम चेतना में आये इस अनुकूलन के प्रति सचेत करना है. संवेदना के संसार का सजग और क्रियाशील नागरिक बनाये रखना, कविता का अंतिम मगर अनिवार्य लक्ष्य है. 

विनोद कुमार शुक्ल का दूसरा संग्रह `वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह` बहु चर्चित रहा है. इस संग्रह की कविताओं में भी उनका रुख पूर्ववत ही रहा है . भाषिक स्फीति पर बल यहाँ भी उसी तरह है. इस संग्रह को पढ़ते हुए कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है. सबसे पहले संग्रह के शीर्षक पर. विनोद कुमार शुक्ल की अगर समग्र कविता पर विचार करें तो यह कहना सही होगा कि उनकी कविताओं के केंद्र में निम्न मध्यवर्ग और श्रमिक समूह है, जिसकी अपनी कुछ निजी विशिष्टताएं हैं. कवि उन विशिष्टताओं के प्रति बहुत सपाट और सर्व-स्वीकार्य दृष्टिकोण के साथ मगर विशिष्ट प्रतीत होती, बेतरतीब होने का भ्रम रचती हुयी भाषा में वर्णन करता है. सवाल यह है कि वह जिनकी कविता लिख रहा है, उन्हें एक भाषिक वैशिष्ट्य के साथ कहने की अनिवार्यता वह क्योंकर मानता है ? इसके मूल में विषय और कहन के बीच के अलगाव और इस अलगाव के मूल में उसकी दृष्टि का प्रश्न काबिले गौर है. कहीं उसकी विशिष्ट भाषा उस अनुभव की न्यूनता को उजागर न करने के चिंता से तो निर्मित नहीं है, जहाँ वह विषय के प्रति अपनी संवेदना को अपनी वर्गीय ढर्रे से अलग नहीं कर पाता? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह जिस समाज समुदाय की कविता लिख रहा है, उसके साथ उसकी चेतना का एकाकार संभव नहीं हो पाता. मुक्तिबोध की तो अधिकांश कवितायेँ इसी जद्दोजेहद को कहने और समझने की इमानदार अभिव्यक्ति प्रतीत होती है. पर इस तरह की कोशिश अगर हम विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ नहीं देखते तो इस पर विचार करने की जरुरत है. 

जब वे कहते हैं - वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह तो वह आदमी कौन है? जैसा कि ऊपर कहा गया है वह आदमी निम्न वर्गीय समाज का प्रतिनिधि चरित्र है. कवि की दृष्टि उस आदमी के जाने की तरफ है. नया गरम कोट क्या है? मनुष्य की नई विचार संपदा, नई भावयात्रा, नया प्रस्थान है, जिसमें मानवीय ऊष्मा का संस्पर्श विद्यमान है. कवि उस विचार संपदा, उस भावयात्रा, उस प्रस्थान की तरफ से चले जाने को एक वैचारिक निष्पत्ति की तरह देखता है. एक असाहयता बोध की तरह, असफलता की तरह, पराजय की तरह, परन्तु वह इस परिघटना से पूर्व उस आदमी के आने को दर्ज नहीं करता. वह इस बात को महत्व नहीं देता कि वह शख्श अपनी यथास्थिति से संघर्ष कर, अपनी वर्गीय चेतना से संचालित होकर, बार-बार नये गरम कोट की तरफ आता है. सवाल यह है कि कवि को सिर्फ उसका जाना ही क्योंकर दिखता है? वह उसके आने को नज़रंदाज़ क्यों करता है? क्या यह बार-बार आना उन तमाम असफलताओं, असहायताओं के प्रति मनुष्य के सतत संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़ नहीं? कवि का यह नकार उसकी स्वतः स्फूर्त मनःस्थिति, उसकी वैचारिक दृष्टि उसकी वर्गीय मान्यता, उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि तथा उसकी सामाजिक चेतना का प्रतिफल नहीं है? 

मनुष्य ने कला और संस्कृति को रचा. यह जरुर है कि रचने की इस प्रक्रिया में वह उतरोत्तर अधिक मानवीय होता गया, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कला और संस्कृति द्वारा मनुष्य की रचना हुयी है. मनुष्य की रचना श्रम और प्रकृति के साथ संघर्ष और साहचर्य से हुयी है. इसी संघर्ष और साहचर्य के फलस्वरूप संस्कृति और कलाओं का निर्माण हुआ है. कला को ही सबकुछ मान लेना कलावाद की तरफ ले जाता है. कला का अतिरेक यह भ्रम रचता है कि कलाओं ने ही मनुष्य को रचा है. विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार यह बोध और गहरा होता जाता है. यह भ्रम एक छद्म बोध में रूपांतरित होने लगता है. 

मनुष्य के रोजमर्रा का जीवन संघर्ष और सतत क्रियाशील विवेक, सामाजिक जीवन के संसर्ग से कलाओं का विकास करता है. यह एक गतिशील प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया हमें अधिक मानवीय बनाती है, साथ ही सौन्दर्यबोध को बनाये रखने की चुनौती भी पेश करती है. कला के मूल में मनुष्य है, उसका श्रम है, उसकी सक्रिय और जागरूक चेतना है. इसके अतिरिक्त कला का कोई और उद्गम, कोई अन्य श्रोत नहीं है. मनुष्य के बगैर, जीवन की गति के बगैर, सामाजिक व्यापार के बगैर कला की कोई जमीन निर्मित नहीं हो सकती. इसीलिए मनुष्य तमाम असफलताओं के बाद, निराशा और ना-उम्मीदी के बाद भी नये गरम कोट की तरफ आता है. यह आना सच्ची कला से छिपा नहीं रहा सकता. बकौल रघुवीर सहाय- 

वह उठी 
अरे वह कितनी सुंदर लगती थी. 

इस सौन्दर्य को स्वीकारना, आत्मसात करना, मानवीय होना है. कला इस अर्थ में हमें अधिक मानवीय, अधिक सुंदर, अधिक मनुष्य बनाती है, लेकिन अगर कोई कला इस आने को, इस जागने को, इस उठने को नज़रंदाज़ करे तो हमें उसकी कला चेतना और मानवीय दृष्टि पर संशय करना चाहिए ,प्रश्न उठाना चाहिए. 

इसी संग्रह की एक अन्य कविता है- `प्यारे नन्हे बेटे को`. यह कविता देश भर के अनेक विद्यालयों के पाठ्क्रम में शामिल है. इस कविता का रचनाकाल 1978 का है. कविता एक निम्न-वर्गीय परिवार का वितान रचती है. स्त्री-पुरुष एक बेटा और एक बेटी. सबके हिस्से में कुछ काम है. उस काम को करने से उनकी पहचान है. यह पहचान ही उनके भीतर की ताकत है. उनका लोहा है - 

इसी तरह 
घर भर मिलकर 
धीरे धीरे सोच 
सोचकर एक साथ ढूंढेंगे 
कहाँ कहाँ है लोहा- 
इस घटना से 
उस घटना तक 
कि हर वो आदमी 
जो मेहनतकश 
लोहा है 
हर वो औरत 
दबी सतायी 
बोझ उठाने वाली, लोहा !- 

पहले पाठ में यह एक सरल और मार्मिक कविता प्रतीत होती है. इन पंक्तियों से पूर्व घर के लोग एक-एक कर रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली लोहे की चीजों की सूची बनाते हैं. अंतिम पंक्तियों तक पहुँचने से पूर्व कवि निम्न वर्ग के जीवन सघर्ष और उस संघर्ष की सादगी और सौदर्य को काव्यात्मक अनुभव की ऊँचाई तक ले जाता है. यह कविता इसी धरातल पर समाप्त नहीं होती. कवि की वर्गीय चेतना के अन्तर्विरोध उभरते हैं. संघर्ष-शील समाज के प्रति उसकी स्वानुभूति सहानुभूति में रूपांतरित होने लगती है. 

किसी रचनाकार की सबसे बड़ी चुनौती कायांतरण ही है. कला का जादू परकाया प्रवेश कर सकने की क्षमता में ही मौजूद रहती है. यहाँ तक कि वे ही आत्मकथाएं बड़ी कलाओं का रूप ले पाती हैं जहाँ लेखक आपनी काया से बहार आकर अतीत की काया में प्रवेश कर पाता है. अन्य होते हुए भी लेखक विषय के साथ एक जादुई तादात्म्य निर्मित करता है. रचना का जादुई प्रभाव इसी तादात्म्य पर निर्भर करता है. अगर पाठक लेखक को उसकी रचना में पहचान ले तो रचना असफल हुयी. हर बड़ी और सार्थक रचना भ्रम रचती है. अरस्तु का यह कथन कि होमर ने ही संसार को सर्वप्रथम झूठ बोलना सीखाया उसकी कला की सार्थकता का स्वीकार है. प्रकट अर्थों में रचना में रचनाकार की अनुपस्थिति ही उसकी सार्थकता है. इस कविता के अंतिम हिस्से में रचनाकार अपनी वर्गीय चेतना एवं सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ प्रकट हो जाता है. वह यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए सदिच्छा व्यक्त करता है. वह कहता है - 

जल्दी जल्दी मेरे कंधे से 
ऊँचा हो लड़का 
लड़की का हो दूल्हा प्यारा. 

यहाँ बेटे के लिए ऊंचाई तक पहुँचने की कामना है. हर सुख सुविधा और ऐश्वर्य तक पहुँचने की सदिच्छा है, लेकिन बेटी के लिए एक दूल्हा प्यारा. क्योंकि कवि का वर्गीय बोध, उसकी सामाजिक चेतना, उसकी सांस्कृतिक दृष्टि स्त्री-पुरुष को, बेटे-बेटी को इसी तरह देख पाती है. वह बेटी की सार्थकता की कामना इसी अर्थ में करता है. वह श्रम के सौन्दर्य की बात भले करता हो, लेकिन वह श्रम के विभाजन की सामाजिक संकुचनवादी दृष्टि से खुद को बचा नहीं पाता. ज्योंही कवि यथार्थ का अतिक्रमण करता है, वह अपनी वास्तविक जमीन पर लौट आता है. वह पहिचान लिया जाता है. उसके नये गरम कोट का टूटा बटन दिख जाता है. 

1992 में उनका सबसे महत्वपूर्ण संग्रह सब कुछ होना बचा रहेगा प्रकाशित होता है. इस संग्रह की कविताओं में भी कवि की सदिच्छा बरक़रार रहती है. वह कल्पनालोक में विचरता है. वह भाषा के बड़े से ढेर पर खड़े होकर संकल्प व्यक्त करता है कि 

मुझे बचाना है 
एक एक कर 
अपनी प्यारी दुनिया को 
बुरे लोगों की नज़र है 
इसे खत्म कर देने को

 
कवि का यह सहज सरल संकल्प- क्या दुनिया को बचा सकेगा? क्या यह दुनिया उतनी ही बुरी या अच्छी है, जितनी की उसके मष्तिष्क में ? कवि अपने आस पड़ोस, अपने घर परिवार के विषय में सोचते हुए महसूस करता है कि दुनिया बच जायेगी. 

50 से भी अधिक वर्षों के विस्तार में फैली उनकी कविताओं में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखाई नहीं देता. करुणा, आवेग, तनाव उनकी कविताओं में लगभग नहीं है. कवितायेँ एक ही धरातल पर मौजूद रहती है. भाषिक विन्यास के करतब से वे बार-बार कविता को सफल बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सवाल यह है की क्या कविता में भाषा एक सजावटी आवरण भर है? क्या वह कवि के अन्तःस्थल तक, हमें नहीं ले जाता? 

विनोद कुमार शुक्ल बार बार किसी विचार को, युक्ति को, तार्किक संगति के सतत क्रम को भाषा के वैचित्र्य के साथ कविता में रूपांतरित करते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए जिस चीज़ को वे बार बार छोड़ देते हैं वह है- मार्मिकता, आक्रोश, वेदना. इसलिए उनकी अधिकांश कवितायेँ बुद्धि द्वारा निर्मित होकर बुद्धि के द्वारा ही ग्रहण की जा सकती हैं. वहां ह्रदय से ह्रदय का मार्ग नहीं दिखाई देता. इस संदर्भ में उनके इस संग्रह की भी बहुत सी कविताओं पर विचार किया जा सकता है, मसलन -जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के, सबसे गरीब आदमी की, चलने के लिए, अभी अपनी पचास की उम्र में, पंजाब के किसी गांव में, ज़िन्दगी में दर्द बेहद आदि. इन कविताओं में भी वही भाषिक खिलंदरपन दिखता है. कवि के भीतर दुनिया को भाववादी दृष्टि के तहत बचा लेने की आकांक्षा बार बार परिलक्षित होती है .एक मस्तिष्कीय विचार की तरह, जिसका व्यवहारिक जीवन बोध से, संघर्ष के भीतरी बाहरी रूपों से, गहरा सम्बन्ध नहीं है. वह सदिच्छाओं और सदकामनाओं की फेहरिश्त बनाता है. लेकिन दुनिया स्थिर नहीं है, वह गतिशील है. वह जितना हमारे मष्तिष्क में है, उससे कहीं अधिक हमारे मस्तिष्क के निर्माण की प्रक्रिया में मशगूल है. इसलिए दुनिया को समझने जानने का रास्ता सिर्फ मस्तिष्क से होकर नहीं गुजरता. कलाएं इसी अर्थ में संसार के प्रति हमारे दृष्टिकोण को अधिक सूक्ष्म जीवंत और गतिशील बनाती हैं. 


`मजदूरों उस तरफ चलो` शीर्षक कविता मजदूरों के जीवन का एक स्टीरियोटाइप चित्रण करती है. यहाँ भी कवि का भाववादी दृष्टिकोण उसकी दृष्टि को निर्धारित करता है. वह मजदूरों के जत्थे का एक स्थिर चित्र निर्मित करता है, और उसे अपने बोध के अनुरुप संचालित करता है. इसलिए यह कविता भी सतही भावुकता की कविता बनकर रह जाती है. 

यह दिलचस्प है कि तकरीबन आधी सदी के अपने काव्य व्यापार में विनोद कुमार शुक्ल की काव्य चेतना अपरिवर्तित नज़र आती है. उनकी भाषा एक सतही खिलंदरपन और स्थिर दृश्यात्मकता के निर्माण और निर्धारण में खप जाती है. जीवन का संगीत, उसका संघर्ष, उसके आरोह-अवरोह, उसकी ऊष्मा, उसकी गरिमा, उसकी ऊंचाई, उसकी महान पराजय, उसका ऐतिहासिक विलाप, उसकी कोमल तान, उनके यहाँ अनुपस्थित है. 

विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में मनुष्य, स्त्री, बच्चा, लड़की ,शहर देश आदमी आदि अमूर्त अवधारणायें हैं, कोटियाँ हैं. अमूर्त इसलिए कि कवि उन्हें किसी देश-काल में प्रस्तुत नहीं करता. उनके नाम, उनकी पहचान और उनका समय विशेष से जुड़ा विशेष अर्थ प्रकट नहीं होता. उनकी बहुत सी कवितायेँ ऐसी हैं जो उन विषयों, अवधारणाओं का कोई वर्तमान, वर्तमान से उसके अन्तर्विरोध को प्रस्तुत नहीं करती. इसके क्या मायने हो सकते हैं? क्या यह कवि का पलायन तो नहीं, जहाँ वह यथार्थ से सीधे मुकाबला न करना चाहता हो? वक्त की आँख में आँख डालकर, उसके प्रश्नों पर विचार न करना चाहता हो ? उससे भरसक बचने की कोशिश करता हो? 

इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उनकी आदिवासी और छत्तीसगढ़ विषयक कवितायेँ देखनी चाहिए. वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के पश्चात् आदिवासियों के जीवन को, उनकी बसावट और उनके रहने सहने के ढंग को बार-बार सरकारों ने, सरकारी संस्थाओं ने, एन. जी. ओ. समूहों ने अपने आर्थिक फायदे के लिए तबाह किया. आदिवासी जीवन का सीधा अर्थ है प्रकृति से सहयोग, साहचर्य और संघर्ष .शुक्ल इस सहयोग, साहचर्य और संघर्ष की जटिलता और व्यापकता को न देखकर, उसे कुछ चिन्हों प्रतीकों में बदल देते हैं.वे बार-बार उसे वर्तमान समय के पार किसी अमूर्त अतीत में ले जाते हैं. 

इसका नक्शा संयोग से 
जंगली फूल हो जाता 
या फूल की कली 
पकते हुए भात की हांडी हो जाती घर-घर में 
परन्तु उजाड़ जंगल,खेतों, गरीब भूखों का यहाँ आदि दृश्य है 
जैसा कि है. 

कवि इसे समय-समाज की उपभोगवादी, वर्चस्ववादी चेतना से जोड़कर नहीं देखता. वह यह नहीं कहता कि आदिवासियों के जीवन में हाहाकार का नया संदर्भ इधर विकसित हुआ है, विकास की अंधी दौर ने उन्हें उपभोग की वस्तु बनाकर छोड़ दिया है. ताकतवर समू,ह उन्हें मुर्गे की तरह पकड़कर हलाक कर देते हैं. उनका लहू उनकी हड्डियाँ सब चाट कर जाते हैं. बाँध बनाने से लेकर कारखाने बनाये जाने तक, देशी विदेशी पूंजीपतियों के हाथों जंगलों को आदिवासियों की हजारो बरस पुरानी रिहाइस को नष्ट भ्रष्ट किया जा रहा. उनकी तबाही को सभ्यता और विकास का नाम दिया जा रहा. कवि इस सबकी चर्चा नहीं करता, बल्कि उलटे वह उन्हें जाहिर करने से बचता है. वह इस तबाही को, बर्बादी को वर्तमान की उपज न बताकर आदि दृश्य बताता है. और इस तरह वह अपनी कविता में उन गुनहगारों को पनाह देता है, जो आदिवासियों के जीवन को तहस नहस करते हैं. उनके बच्चो को मारते हैं. सवाल यह है कि कवि ऐसा क्यों करता है? वह समय समाज के प्रति, शोषण के प्रति, अपमान और हिंसा के प्रति एक मूकदर्शक की भूमिका निभाता है. वह हर तूफान को ,बवंडर को, चुपचाप देखता है. वह भूल जाता है कि कविता के शब्द अनुपस्थिति को चुप्पी को उजागर करते हैं. वे कवि के विरोध में गवाही देते हैं. 

जब भी कवि यथार्थ के प्रति सजग होकर चयनित विवेक से चीज़ों को दर्ज करता है तो भाषा का तापमान बुझने लगता है, शब्द निरर्थक से जान पड़ते हैं. वे अपनी जादुई आभा और प्रश्नाकुलता खो देते हैं. वे अर्थ से च्युत होकर मलिन होते जाते हैं. ऐसे बेजान और अर्थहीन शब्दों से कवि का काम नहीं चल सकता. 

परन्तु 1 नवम्बर 2000 को 
जब 36 गढ़ राज्य बना 
तब मैं 63 वर्ष का छत्तीसगढ़ी हुआ 
36 के विपरीत के आंकड़े में 63 का – 
अपनी ही आड़ से निकल 
अपनी तरफ घुमा हुआ सम्मुख 
सयाना या जवाबदेह. 

क्या यह गणितीय उठा-पटक यह सतही चमत्कृति आदिवासिय्यों के जीवन से उनके जीवन संघर्ष से कोई विशेष अर्थ रखती है ? लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ इन प्रश्नों का जवाब नहीं देती. उलटे उनकी कविता सायास वर्तमान को, वर्तमान के हाहाकार को, झुठलाने के लिए उसे अतीत की क्रमिकता में बार-बार दर्ज करती है- 

हो सकता था की – 
इस छोटी सी कथा में 
एक पाठ्यक्रम है 
कि हाथी पर बैठा 
एक राजा है 
और जय-जयकार करती 
गरीब प्रजा 
जो शुरू से है 

क्या कवि की निश्चिन्तता के मूल में यही मान्यता है कि यह शोषण अन्याय, गरीबी, बेकारी, भुखमरी इसलिए समाप्त नहीं हो सकते क्योंकि वे शुरू से है ? शुरू से कबसे ? जब ईश्वर(?) ने इस धरती को बनाया तभी उसने आमिर गरीब पैदा कर दिए और चूँकि ईश्वर प्रदत्त इस संसार को ईश्वर ही बदल सकता है इसलिए वर्तमान से परेशान होने की जरुरत नहीं. अन्याय से लड़ने की जरुरत नहीं है. भूख शाश्वत है, इसलिए उसे मिटाने के संघर्ष में शामिल होने की कोई अनिवार्यता नहीं हैं. विनोद जी कविताओं से उसकी एक रैखिकियता से यही निष्कर्ष निकलता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है मगर सच्चाई है कि उनकी कविताओं में जो आसपास के स्थिर दृश्य हैं जो समय और संसार के पार की अनुभूति पैदा करने की चेष्टा करते हैं वस्तुतः एक ऐसे कवि का दृष्टिकोण व्यक्त करती है जो अपने समय की सच्चाई से मुंह फेरता है. कविता को मात्र मनोरंजन एवं बुद्धि विलास की चीज़ समझता हैं. 

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद 
भोपाल जाते हुए 
यह नहीं लग रहा है 
कि छत्तीसगढ़ से मद्यप्रदेश जा रहे हैं 
संक्षिप्त में म.प्र. 
कोष्ठक का (म.प्र.) भी नहीं. 

शब्दों के खिलवाड़ से उनकी कविता भरी पड़ी है. उनके यहाँ बुद्धि, वह भी जो कॉमन सेंस तक महदूद हो- सतह पर उठते पानी के बुलबुलों की मानिंद- का ही प्रयोग सर्वत्र दिखाई देता है. बुद्धि भी सूक्ष्म और मानवीय तभी होती है, जब वह संवेदनात्मक लगाव से पैदा हो. उसके बगैर वह शुष्क और सतही होती जाती है. संवेदनात्मक विलगाव उसे एक चालाकी में, चुनी हुयी चुप्पियों में बदल देता है. 

उनके संग्रह `अतिरिक्त नहीं` में उनकी अर्थपूर्ण कविता `हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था` संकलित हैं. यह कविता मनुष्यता के संवेदन का इतिहास दर्ज करती है. वह उस गरिमा और ऊष्मा को पहचानती है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है. यह कविता उनकी अनेक कविताओं से भिन्न है. इसमें न तो वह भाषिक खिलंदरपन है और न ही चीज़ों को एक दूसरे का निरर्थक प्रतीक बनाकर, विसंगति उत्पन्न करने की अतिरिक्त कोशिश. वह वायवियता भी नहीं जो चुनौती देती हो कि बुझों तो जाने. ऐसी कवितायेँ विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ कम हैं, जहाँ भाषा का मानवीय ताप और जीवन के समुद्र की लहरों का गर्जन दोनों हो. 

विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं पर गंभीरता के साथ चर्चा होनी चाहिए. उनकी कविताओं के बारे में मान ली गयी, स्वीकार कर ली गयी तथा निर्धारित कर दी गयी मान्यताओं से ऊपर उठकर, बुनियादी प्रश्नों के साथ विचार करने की जरुरत है. उनकी कविताओं में विसंगतियों की भरमार है. यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि दुनिया भर के कवियों ने विसंगति का रचनात्मक उपयोग किया है. विसंगति का प्रयोग करते हुए वे अर्थ और संवेदना के उच्चतर धरातल पर पहुँचने की चेष्टा करते रहे हैं. क्या यह बात हम विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं के विषय में भी कह सकते हैं ? क्या उनके यहाँ विसंगति अर्थ और संवेदना का उच्चतर स्तर को प्रस्तुत करती है? कहीं वह विसंगति की ओट में सिर्फ विचित्र सी प्रतीत होती चीज़ों का जमावड़ा तो बनकर नहीं रह जाती. कविता में विसंगति का अर्थ पहेलियाँ बुझाना नहीं है, बल्कि संवेदना के उन महीन तंतुओं को उजागर करना है, जिसे भाषा की प्रकट निगाहों से देखना संभव नहीं. उनकी कविताओं के आशय, मंतव्य और अभिव्यक्ति कौशल की छानबीन होनी चाहिए. किसी पूर्वग्रह के बिना उनके निहितार्थों पर विचार किया जाना चाहिए. 

अगर लेखकीय कौशल, पाठकीय संवेदना में दाखिल न हो तो क्या कविता को पूर्ण माना जा सकता है ? क्या कविता का काम किसी सामूहिक जिम्मेवारी का काम नहीं है. वह भाषा जो कवि समाज से, अपने परिवेश से, अपने इर्द गिर्द के लोगों से ग्रहण करता है- क्या कविता में उसे लौटाने का दबाव कवि पर नहीं होता? क्या लिखते हुए कवि पाठक की निगाहों से बचकर रह सकता है? क्या कविता का सम्बन्ध लिखने की कुशलता भर है? 

यह नहीं भूलना चाहिए कि समय की गर्द में कवियों का यश, प्रशस्ति, चर्चा ,पुरस्कार सब नष्ट होकर रह जाता है .पाठकों के साथ कवितायेँ अमर रहती हैं. हताशा और निराशा के बावजूद सच्ची कवितायेँ अपना रास्ता ढूंढ लेती हैं. किसी स्त्री की आँखों के कोर में दबे आंसू की एक अदेखी सी बूंद में, किसी बच्चे की निश्छल मुस्कराहट में,
कवितायेँ देश काल के पार अपना रास्ता ढूँढ़ लेती हैं. वे किसी अनाम कवि की अमर कवितायेँ बनकर असंख्य हृदयों में वास करती हैं.


(हिन्दी के सुपरिचित कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र का यह लेख `अन्विति` पत्रिका के जून 2025 अंक से साभार लिया गया है।)

Tuesday, May 14, 2024

मृणाल सेन का संस्मरण: रात में फूल खिलते हैं, पानी मे बेलें फलती हैं

अगस्त 14-15, 1947. देश ने स्वतंत्रता की खुशियाँ मनाईं और विभाजन का मातम भी. एक ओर तो लोग अतीव आनंद की अवस्था में थे वहीं दूसरी ओर क्रोध और हताशा ने लाखों लोगों को चूर-चूर कर दिया था - पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब से बेघर हुए लोग एक के बाद एक आने वाली लहरों की तरह सरहदें पार करते - हर कोई सिर छुपाने के लिए जगह ढूँढ़ता. ख़ुशी तो दीवाना कर देने वाली थी पर वह दोनों पडोसी देशों में ज़्यादा देर टिकी नहीं. पश्चिम में, सांप्रदायिक दंगों का मनहूस साया हर तरफ पसर गया, ख़ासकर भारत की राजधानी में और पाकिस्तान में अन्यत्र. सरहद के दोनों ओर से पनाहगीरों का आना-जाना चलता ही रहा. क्रूरता, हत्या और विनाश की ख़बरें और साथ में लूटपाट, आगजनी का वहशीपन. महात्मा जी, जो अब दिल्ली में थे, बेहद व्यथित महसूस कर रहे थे. अक्सर वे बड़े नेताओं, जो अब सब बड़े प्रशासक थे, को बुलवा भेजते और ताज़ा स्थितियों के बारे में और अधिक जानना चाहते. परिस्थिति कुछ इस तरह नियन्त्रण के बाहर हुई कि एक बार तो अपनी चिर-परिचित सादगी और सौम्यता के साथ उन्होंने कहा,”मैं इस वक़्त चीन में नहीं हूँ, दिल्ली में हूँ. और न मैंने अपनी आँखें और कान खो दिए हैं. अगर तुम मुझसे कहते हो कि मैं अपनी आँखों और कानों का भरोसा न करूँ, तो पक्की बात है कि न मैं तुम्हें समझा सकता हूँ और न तुम मुझे....” महात्मा जी को लगा उस वक़्त उनके पास अपने सबसे मज़बूत अस्त्र - अनशन - का इस्तेमाल करने के अलावा और कोई चारा नहीं है. उन्होंने अतीव आत्मविश्वास के साथ कहा, “स्वयं को कष्ट देकर मुझे प्रायश्चित करना होगा और मुझे आशा है कि मेरे अनशन से उनकी आँखें खुलेंगी और वे वास्तविकता देख पाएँगे.” कुछ दिनों में हर किसी ने मान लिया कि चमत्कार आखिर हो गया. हवा बदली और नतीजा चौंकाने वाला था. महात्मा जी, हालाँकि कमज़ोरी से उबर नहीं पाए थे, हमेशा की तरह संध्या काल में अपनी नियमित प्रार्थना सभाएँ करते रहे जिसमें गीता, क़ुरआन और बाइबिल की पंक्तियाँ पढ़ी जातीं. 30 जनवरी 1948 को उन्हें गोली मार दी गई.
स्वतंत्रता के पाँच महीने बाद, एक बार फिर नेहरू की आवाज़ रेडियो पर सुनाई दी. शोकाकुल, उन्होंने राष्ट्र को संबोधित किया: साथियो, उजाला हमारी ज़िंदगियों से चला गया है और हर तरफ अँधेरा है. मैं नहीं जानता आपसे क्या कहूँ और कैसे कहूँ. हमारे प्रिय नेता, जिन्हें हम बापू कह कर बुलाते थे, राष्ट्र के पिता, अब नहीं रहे.... फिर भी ज़िन्दगी चलती रही, प्रशासन चलता रहा और अब भी चला जाता है - लोग जीते रहे, प्यार करते रहे, हसरतें पालते रहे और हर मोड़ पर लड़ते और अंततः मिटते और फिर-फिर जीते रहे. मेरे माता-पिता ने, जो अब भी अपने गाँव में थे, कभी उस घर को छोड़ने के बारे में सोचा नहीं था जिसे उन्होंने इतने प्यार से खड़ा किया था. महीने गुज़रे और एक साल निकल गया. दिन प्रतिदिन मुसीबतें आती रहीं और हालात बद से बदतर होते रहे. आख़िरकार परिस्थितियों से होकर मेरे माता-पिता ने फैसला किया कि जो भी सम्पत्ति है उसे बेचकर देश छोड़ दिया जाए. सब कुछ औने-पौने दामों पर बेच दिया गया और एक दिन वे शरणार्थियों की तरह महानगर आ गए. अपना बनाया घर और जायदाद छोड़ने से पहले मेरे पिता ने नए बाशिंदे से छोटी से अर्ज़ की, “मैं नहीं कहूँगा कि तुम वचन दो लेकिन हो सके तो कोशिश करना वहाँ पानी के किनारे बने छोटे से स्मारक को सहेजने की.” वह हमारी सबसे छोटी बहन रेबा का स्मारक था. वह पाँच साल की नन्ही उम्र में ही चल बसी थी. वह फिसली और पोखर में गिर कर डूब गई. हम सब भाई-बहनों में रेबा सबसे ज़्यादा अज़ीज़ थी. हम एक बड़े परिवार में पले-बढ़े - सात भाई और पाँच बहनें. भाइयों में मैं छठा था और बहनों में रेबा सबसे छोटी. और वह सबसे ज़्यादा प्यारी थी- मुहल्ले के लोग भी उसे बेहद चाहते थे. उस मनहूस दिन- जहाँ तक याद पड़ता है वह छुट्टी का दिन था- हम साथ बैठकर दोपहर का खाना खा रहे थे. हमारा खाना पूरा होने से पहले ही रेबा हमें छोड़कर चुपके से घाट पर चली गई. मुझे साफ़-साफ़ याद है कि घाट बड़ी ख़ूबसूरती के साथ बना था- हमारे पोखर को उतरती हुई सीढ़ियाँ और एक बाहर निकला हुआ हिस्सा, पानी की सतह से बस कुछ इंच ऊपर, जो लगभग पोखर की चौड़ाई के लगभग एक-चौथाई हिस्से तक अंदर पहुँचता था - और यह सब बाँस से बना हुआ. हम सब को बेहद पसंद था उस पर चलना, दोनों तरफ पानी और फिर अपने पाँव पानी में डुबोए वहाँ बैठे रहना. रेबा भी इससे अछूती न थी. इसके अलावा उसे सबसे आगे बैठना अच्छा लगता था ताकि वह बड़ी आसानी से झूम पाए और गुनगुना पाए. मगर कोई नहीं जानता कि उस दिन क्या हुआ क्योंकि वहाँ कोई नहीं था. हम बस यह अनुमान लगा पाए कि वह उस हिस्से के मुहाने तक गई, वहाँ बैठी, अपने पाँव पानी में डुबोए और अनजाने में फिसल पड़ी. फिर बहुत बाद में जब हम उसे ढूँढ़ने निकले तो वह कहीं न मिली- न पड़ोसियों के घरों में, कहीं नामोनिशाँ नहीं. आख़िरकार, मेज दा, मेरे तैराक भाई ने पोखर में डुबकी लगाई और क्षण भर में उसका बेजान शरीर बाहर निकाला. पानी के अंदर वह बेजान पड़ी थी. रेबा की मौत की खबर सारे इलाके में फ़ैल गई. सब लोग आए क्योंकि वे सब रेबा से प्यार करते थे. मेरे सबसे बड़े भाई, शैलेश (हम सब के दादा), जो महानगर में रहते थे, भी आए. उनके साथ आए जसीमुद्दीन, दादा के जिगरी दोस्त, क्योंकि उन्हें भी रेबा बहुत अज़ीज़ थी. उनके आने पर, जसिम दा, जैसा कि हम उन्हें बुलाते थे, ने हम में से कुछ लोगों से थोड़ी-थोड़ी बातें सुनीं और एक मिनट भी ज़ाया किए बिना सीधे उस हत्यारे घाट पर पहुँच गए. उन्होंने सारा दिन घाट पर बिताया. चाय पहुँचाई गई जो उन्होंने लौटा दी. दोपहर में खाना परोसा गया जो उन्होंने थोड़ा सा खाया. बहुत थोड़ा सा. दोपहर गुज़र जाने पर उन्होंने मेरी माँ को बुलवा भेजा. वे जैसे-तैसे घाट तक पहुँची. जसिम दा उनसे लिपट कर बच्चों की तरह रोने लगे. फिर दोनों कुछ देर चुप रहे और उसके बाद जसिम दा ने मेरी माँ को बताया रेबा का एक राज़. रेबा के कई सारे राज़ थे जिनसे सिर्फ जसिम दा वाक़िफ़ थे. जो राज़ उन्होंने मेरी माँ से कहा वह रेबा ने उन्हें महीने भर पहले ही बताया था. वह जसिम दा से वायदा चाहती थी कि किसी दिन वह उसे रात भर जागने देंगे ताकि वह देख पाए कि किस तरह रात में फूल खिलते हैं, कैसे और कब पानी में बेलें फलती-फूलती हैं. बहुत बाद में मेरी माँ ने मुझे इन सब के बारे में बहुत कुछ बताया और रेबा से जुड़ी बहुत सारी कहानियाँ भी. अपने प्राइमरी स्कूल के दिनों से ही.जसिम दा में कविताई की प्रेरणा थी. बड़े होने पर वह कवि के तौर पर मशहूर हुए और हमारे प्रिय जसीमुद्दीन का टैगोर ने भी बड़े प्रेम से संज्ञान लिया. दरअसल नकशी काँथार माठ का, जो उनका एक शानदार और बेहतरीन संगीत नाटक है, मंचन कलकत्ते में हाल ही में हुआ था. उनकी सारी कविताएँ और गीत ग्रामीण परिवेश से उपजे हैं. उस दिन सूरज ढलने पर, जसिम दा घाट से उठकर आये और कुछ देर हमारे साथ रहे. उनका घर गोबिंदपुर नाम के गाँव में था जो हमारे यहाँ से पाँच-दस मील की दूरी पर था और उनके पिता वहाँ रहते थे. अपने घर लौटने से पहले उन्होंने घाट पर बैठकर लिखी एक लम्बी कविता मेरी माँ के हवाले की. .जसिम दा ने माँ को आगाह किया कि उस कविता को कभी प्रकाशित न किया जाए, कभी भी नहीं. वह सिर्फ उनके लिए थी. वह कविता रेबा के बारे में थी. मेरी माँ ने वह कविता सितम्बर 1973 में अपनी मृत्यु तक एक राज़ की तरह अपने पास सहेज कर रखी. इतने सालों तक वह एक लिफ़ाफ़े में रखी रही. मेरे पिता के साथ उन्होंने जब अपना घर हमेशा के लिए छोड़ा, तब भी वे वह अनमोल लिफाफा अपने साथ रखना नहीं भूली. उनके अंतिम संस्कार के साथ ही वह लिफाफा भी आग की लपटों के हवाले कर दिया गया. बेहद लम्बे अंतराल के बाद, 1990 में, कभी न लौटने के लिए अपना गृह नगर छोड़ने के सैंतालीस सालों बाद, वह दिन आया जब मेरी पत्नी और मैं उसी नगर में उसी घर के सामने खड़े थे, जो अब एक सार्वभौम राज्य बांग्लादेश में था. वह घर जहाँ मैंने अपना बचपन और कच्ची उम्र के साल बिताये. उन सैंतालीस सालों में उस घर की मिल्कियत केवल एक बार बदली. वह आदमी जिसने मेरे पिता से वह घर और अन्य संपत्ति खरीदी थी, उसने वह नए मालिकों को उस वायदे के साथ दी जो उसने मेरे पिता से किया था - पानी के किनारे बने स्मारक की देखभाल करने का- और फिर जैसा कि मुझे बताया गया, वह कराची चला गया. अजीब बात यह है कि उन सैंतालीस सालों में मैंने मेरे उस सुदूर अतीत को एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा. क्या ऐसा इसलिए हुआ कि इतने सारे सालों में मेरे मन में विभाजन को लेकर इतनी सी भी टीस नहीं उठी? अगर ऐसा है, तो फिर अब क्यों? ऐसा पिछले पंद्रह सालों में क्यों नहीं हुआ, जब आमंत्रित किये जाने पर मैंने ढाका की कई सारी यात्राएँ कीं. क्यों लगभग पाँच-छह बार इस दौरान मैंने अपने गृहनगर आने के आमंत्रण ठुकरा दिए? ढाका से फरीदपुर और फिर लौटकर ढाका? आखिरकार, सैंतालिस सालों बाद, अब क्यों? बाहक़ मुझे नहीं पता. मेरे बचपन और किशोरावस्था के सालों में ढाका और फरीदपुर के बीच की यात्रा खूबसूरत होते हुए भी पूरा एक दिन ले लेती. हमेशा नदी के रास्ते जाना पड़ता- नारायणगंज से दुमंजिला बड़ी नाव, एमु या ऑस्ट्रिच या उस जैसा कोई, में बैठकर अशांत पद्मा नदी से गुज़रना और फिर पानी के बीच में उस बड़ी नाव से उतर कर छोटी सी नाव, दमदिम, में बैठना और अंततः एक पतली सी नहर में, दोनों तरफ जूट और धान के खेतों को पीछे छोड़ते हुए, फ़रीदपुर की ओर. अब यातायात के साधनों के हैरतअंगेज़ ढंग से बढ़ जाने पर- पहले मोटर और फिर उसी में बैठे-बैठे एक बड़ी नाव द्वारा पद्मा पार करने की छोटी सी यात्रा और आख़िर में फिर मोटर. यह सब कुछ चार घंटों में.
इस बार, 1990 में, जैसे ही मैं और मेरी पत्नी ढाका पहुँचे, हमने फैसला किया कि हम फरीदपुर जायेंगे भले ही चंद घंटों के लिए. बिना किसी विशेष कारण के. एक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में शिरकत करने के लिए हम तीन दिनों तक ढाका में थे और चौथे दिन हमने यात्रा करने की योजना बनाई. हमारे साथ मेरे युवा कैमरामैन शशि आनंद थे जिनके माता-पिता पश्चिमी हिस्से अर्थात रावलपिंडी से भारत आये थे. वे जिस साल विभाजन हुआ उस साल आये थे. जब वे आये तो शरणार्थी थे पर शशि शरणार्थी न थे. वे भारत में पैदा हुए थे- मेरे महानगर में- और मेरी ही तरह वहाँ बने थे. जब वे बड़े हुए, उनके माता-पिता ने उन्हें अपने गृहनगर के बारे में अनेकों कहानियाँ सुनाईं और अब वे खुद देखना चाहते थे के पूर्वी हिस्से में मेरा गृहनगर कैसा लगता होगा. वह एक अविस्मरणीय यात्रा थी. हम, विदेशी लोग, तीन लोगों का एक परिवार, मेरी पत्नी गीता और मैं, और शशि. और हमारे साथी और उस सफ़र के गाइड, मेरे मित्र अब्दुल खाएर. एक हँसोड़ आदमी. जैसे-जैसे हम शहर के पास आते जा रहे थे, ज़ाहिर तौर पर मेरा तनाव बढ़ता जा रहा था. “क्या हुआ?” हमारे गाइड ने पूछा. मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा, “आगे नहर है”, और फिर उन्हें चौंकाने के लिए कहा, “वह लकड़ी का पुल!” “इस से पहले कि वह खुद टूट कर गिर जाए, वह लकड़ी का पुल तोड़ दिया गया,” अब्दुल खाएर ने बताया, “और अब तुम एक कंक्रीट का पक्का पुल देखोगे, जो थोड़ा आगे है, पंद्रह साल पुराना.” तब तक हम पुल पार करने को थे. हमारी गाड़ी ने पुल पार किया, कुछ देर तक नाक की सीध में जाने के बाद एक गली में मुड़ी - एकदम साफ़-सुथरी, सभ्य, इज्ज़तदार लगती हुई जो मेरे समय में वेश्याओं का इलाका था. कार एक घर के सामने रुकी. हम नीचे उतरे. खूब स्वागत-सत्कार और खाने-पीने के बाद हमने थोड़ा आराम किया. फिर हम माज़ी की खोज में निकल पड़े. पैदल.
जहाँ तक मेरा सवाल है, यादें अपने-आप मेरे मन में घुमड़ रहीं थी, एक के बाद एक. लगभग सौ स्थानीय नागरिक पीछे से हमें देख रहे थे. उन्होंने मुझे पहचान लिया, पीछे आने लगे, दो-दो तीन-तीन के झुण्ड में, और हमारा घर ढूँढने तक के रास्ते में लोगों की तादाद बढती गई. उत्तेजना बढ़ रही थी क्योंकि हर बढ़ते कदम के साथ मैं अनेको अनिश्चितताओं से दो-चार हो रहा था. स्मृतियों के टुकडों को बेपर्दा करते हुए. लॉस्ट होराइज़न की तरह, रॉनल्ड कोलमन की तरह. और मैं चाहता कि स्थानीय जन मुझे अपनी राह ख़ुद बनाने दें और एक लफ्ज़ न कहें चाहे किसी जगह पहुँच कर मैं उलझ क्यों न जाऊँ. वह ऐसा अनुभव था जो मैं कभी नहीं भुला पाऊँगा. और मैंने घर ढूँढ़ ही लिया- अपने दम पर. सैंतालीस सालों बाद! अब घर के सामने मेरी ओर मुँह किये, कुछ लोग थे, बिखरे हुए. कोई कुछ नहीं बोला- न हमसे और न ही आपस में. ऐसी नीरवता जो बहुत कुछ कहती है! गीता ने फुसफुसा कर कहा, “क्या तुम यहाँ की चीज़ों को पहचान रहे हो? और इन लोगों को भी?” मैंने मुड़कर देखा, गीता ने हलके से मुझे छुआ. मैं रोना चाहता था पर रोया नहीं. पीछे से कोई सामने आया. उसने कहा कि मेरे सामने खड़े लोग उस घर के नए मालिक हैं. उस वक़्त एक प्रौढ़ महिला, एक आम गृहिणी, वैसे ही लिबास में, कुछ कदम आगे आई और मेरी पत्नी को एक गुलदस्ता दिया और मुस्कुराते हुए कहा, “तुम अपने ससुर के घर आई हो.” साफ़ था कि गीता का दिल भर आया था. उस महिला ने फिर मुझसे कहा, “आओ, पानी के किनारे बना स्मारक तुम्हें दिखाई देगा.” मैं चौंक गया. चौंकी गीता भी जिसने मेरी बहन के बारे में मुझसे सब कुछ सुन रखा था. “मेरा मतलब है तुम्हारी बहन रेबा का स्मारक”, घर की मालकिन ने हौले से कहा, ‘रेबा’ पर कुछ जोर देकर. गीता और मैंने एक दूसरे की ओर देखा. महसूस हुआ जैसे कलेजा मुँह में आ गया हो. “आओ!”, उसने फिर एक बार कहा. एकाएक मुझे राष्ट्रपिता की याद आई, महात्मा जी. याद आईं वे सभी पीड़ाएँ जो उन्होंने अपनी हत्या से पहले भोगीं. काश आज महात्मा जी यहाँ होते. काश मैं गर्व से अपने पिता को बता पाता कि उनकी छुटकी रेबा का छोटा स्मारक उनसे घर और जायदाद खरीदने वालों ने बड़े प्यार से सहेजा था. नए मालिकों द्वारा वह अब भी सहेजा जा रहा है. पानी के किनारे! काश मैं अपनी माँ को बता पाता कि उनकी मृदुभाषी बिटिया अब भी उस हत्यारे-घाट के किनारे है जहाँ जसिम दा ने अकेले पूरा दिन बिताया था और लम्बी कविता लिखी थी. एकाएक मेरी आँखों के आगे अपनी माँ के आलिंगन में उस बेटे की छवि कौंधी जो बहुत पहले बिछुड़ चूका था - जसिम दा और मेरी माँ की आखिरी मुलाक़ात. उनकी मृत्यु के तीन साल पहले. शायद यह तब की बात है जब जसिम दा ढाका विश्वविद्यालय में बाँग्ला के विभागाध्यक्ष के पद से निवृत्त हुए थे.
वह यादगार मौका था जब जसिम दा को उनके सृजनात्मक कार्य के लिए रविन्द्र भारती विश्वविद्यालय ने डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की. समारोह हो चुका था पर वे मेरे शहर में रुक गए. उन्होंने मुझे कई बार फ़ोन किया. मैं कलकत्ते से बाहर था. लौटने पर मैंने उन्हें फ़ोन किया. उन्होंने मुझे तुरंत उनके मित्र के घर आकर मिलने और उन्हें मा से मिलने ले जाने को कहा. मा मतलब मेरी माँ. वे तब मेरे भाई के साथ रह रही थीं- मेरे तीसरे नंबर के भाई गणेश जो शहर से दूर दक्षिण में बसे नाकतला में रहते थे. हमारी माँ बहुत बीमार थीं, दिल की बीमारियों से जूझ रही थीं और बिस्तर पर ही थीं. मैं उन्हें जसिम दा की खबर देता रहा और आधे घण्टे में हम घर के दरवाज़े पर पहुँच गए. जिस घड़ी कार का इंजन ‘दहाड़ा’ और गाड़ी घर के सामने जा रुकी, हमने माँ की पुकार सुनी, “ज..सि..म!” “मा….!” जसिम दा ने जवाब में पुकार लगाई. गाड़ी से उतरने और माँ की ओर लपकने में उन्होंने एक लम्हा भी ज़ाया नहीं किया. क्षण भर में मैंने उन्हें अंदर के आँगन के बीचोंबीच देखा. वे एक दूसरे से लिपट गए थे, माँ और बेटा. वे बच्चों की तरह रो रहे थे. चुपचाप अंदर आते हुए और पोर्च में बैठते हुए, मैं उन्हें दूर से देखता रहा- बड़े सम्मान के साथ.
[मृणाल सेन की संस्मरणात्मक पुस्तक 'ऑलवेज बीइंग बॉर्न' 2011 में मुझे यूएनसी चैपल हिल की लाइब्रेरी में मिली थी. इस मार्मिक टुकड़े का अनुवाद करने से पहले मैंने इंटरनेट पर ढूँढ़ कर कुणाल सेन का नंबर हासिल किया जो अमेरिका में ही रहते थे. उन्हें फ़ोन कर बताया कि मैं अनुवाद हेतु अनुमति चाहता हूँ तो उन्होंने वादा किया कि वह अपने पिता तक मेरी बात पहुँचा देंगे और फिर कुछ दिनों में मृणाल सेन का ईमेल मुझे मिला (जो अब मेरी उपलब्धि है - स्क्रीनशॉट दे रहा हूँ). इस अनुवाद को पूरा करने में मुझे लगभग आठ साल लग गए जिसकी वजह प्रकाशक द्वारा माँगे गए 2000 रुपये कम और मेरी अपनी काहिली ज़्यादा है. संयोग (या दुर्योग) ऐसा कि अभी तीन चार दिन पहले ही इन्दर राज आनंद के बारे में पढ़ते हुए मैं (वाया सत्यजित राय) विकिपीडिया पर मृणाल सेन तक पहुँचा था और आश्वस्त हुआ था कि वे जीवित हैं. दूसरा संयोग यह कि कवि जसीमुद्दीन की आज पहली जनवरी को जयंती है.-भारतभूषण तिवारी] नोट- यह संस्मरण हिन्दी अनुवाद के रूप में 1 जनवरी 2019 को जनचौक वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था लेकिन तकनीकी कारणों से अब वहाँ उपलब्ध नहीं है। आज मृणाल सेन के जन्मदिन पर यहाँ सहेजा जा रहा है।

Wednesday, September 14, 2022

यहाँ मेरा घर बन रहा है (मोहन मुक्त के कविता संग्रहः “हिमालय दलित है” पर कुछ नोट्स) : शिवप्रसाद जोशी

वो तुम थे एक साधारण मनुष्य को सताने वाले अपने अपराध पर हँसे ठठाकर, और अपने आसपास जमा रखा मूर्खों का झुंड अच्छाई को बुराई से मिलाने के लिए, कि न छंट सके धुंध, बेशक हर कोई झुका तुम्हारे सामने कसीदे पढ़े तुम्हारी शराफ़त और अक़्ल के तुम्हारे सम्मान में झलके गोल्ड मेडल जीवित रहे, ख़ुश हुए, न सोच लेना ख़ुद को महफ़ूज़. कवि को याद है. एक को मारोगे, और जन्म लेंगे सब कुछ हो गया है दर्जः शब्द, हरकतें और तारीख और तुम्हारे काम आ सकती है बेहतर एक सर्द सुबह एक रस्सी, और तुम्हारे भार से झुकी हुई एक डाल. पोलिश कवि चेस्लाव मिवोश की कविताः सताने वाला रिचर्ड लाउरी के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित रूपांतर (साभारः द कलेक्ट्ड पोएम्सः 1931-1987, द एक्को प्रेस, 1988) युवा कवि मोहन मुक्त ने अपनी कविताओं से हिंदी कविता संसार में खलबली मचा दी है. मोहन के काव्य पर नोट्स लिखते लिखते, देहरादून स्थित समय साक्ष्य प्रकाशन से “हिमालय दलित है” (2022) का दूसरा संस्करण भी छप कर आ चुका है. हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनकी जगह क्या है, इस बारे में स्पष्ट रूप से कोई दलील यहां पर नहीं दी जा रही है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये रिश्ता शायद उतना सहज और गलबही वाला न हो क्योंकि मोहन साहित्य के मठाधीशों, और जातीय, सवर्णवादी, सामंती वर्चस्वों को न सिर्फ़ फ़ाश कर रहे हैं बल्कि उनकी धज्जियां भी अपनी कविता और विचारों के माध्यम से उड़ाते आ रहे हैं. दूसरा वो दलित साहित्य का वो स्वर है जो पहली बार इतने मुखर और बेबाक हैं कि अपने दलित होने की व्यथा-कथा नहीं बल्कि प्रखर अंदाज़ में आत्मसजगता और अंतर्विरोधों का वर्णन कर रहा है और दलितों और उत्पीड़ितों को अपने खोये सम्मान के लिए एक नयी भाषा में जगा रहा है. वो एक नयी पुकार के लिए उठा स्वर है. उसकी अदम्यता और हौसले का ही ये उन्मेष है कि वो ये कहने का साहस करता है कि हिमालय दलित है. और ‘वो ख़ुद जमा हुआ है, वो ख़ुद थमा हुआ है.’ (पृ 17, पृ 120) मोहन उस अनुनय विनय सत्कारी सद्भाव के छद्म वाली कुलीन, अभिजात सवर्ण दुनिया के सामने विनीत होकर अपनी बात नहीं रखते क्योंकि इस छद्म विनम्रता या कथित सौम्यता की आड़ में जो घटित होता आया है उससे भी वो बाख़बर हैं लिहाज़ा अपनी बात दो टूक रख देते हैं. इसका आशय ये नहीं कि मोहन भाषा में संयमी नहीं हैं और एक मानवीय गुण से वंचित हैं. आप उनकी कविताओं को पढ़कर जानेंगे कि दबेकुचले नागरिक समुदाय से समानुभूति यानी एम्पैथी का कैसा विरल संसार उन कविताओ में व्याप्त है. अपने जन की चिंता का ऐसा नागरिक उद्वेग ऐसी बेचैनी, सिर्फ किसी नारे या जोश की मोनोटनी नहीं हो सकती. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और ऐतिहासिक हैं. जब मैं कहता हूँ लौटों जड़ों की ओर तो उसका मतलब है लौटो जड़ की ओर जो एक है...केवल एक ही जब मैं कहता हूँ लौटों जड़ों की ओर तो मैं उस जगह की बात करता हूँ जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं (कविता जड़ों की ओर...पृ 71) मोहन सदियों के अत्याचारों और शोषणों से कराहती आ रही पीड़ित मनुष्यता का पक्षधर कवि है. वो सीधे उस जनता को संबोधित कवि है जो अदृश्य अप्रकट और अगोचर और अमूर्त नहीं है, बाकायदा उपस्थित है, हाड़मांस वाली है और प्राणवान है और रक्तरंजित है. सदियों के जख्मों की याद दिलाती, उन्हें भरते हुए भी न भूलने के लिए हमेशा जगाए रखती, प्रेरित करती रहती कविता है उनकी, उसमें शास्त्रीयता का, व्याकरण का कविता की अपनी छटाओं और विशिष्टताओं का बोलबाला नहीं है, वो सजीधजी बनीठनी नहीं है वो बिल्कुल खुरदुरी सख्त और बाज़दफा शुष्क है. कविता के पंडितो और मान्यवरों को ये कविताएं शायद स्वीकार्य न हो, हो सकता है इसमे हज़ार कमियां गल्तियां कमज़ोरियां और काव्यगत विशेषताओं-ख़ूबियों का अभाव या कमी बताई जाए या बताई जा रही हो लेकिन यहां तो ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि मोहन की कविताओं की विशिष्टता उनका वो उबड़खाबड़ स्वर ही है. वो शुष्कता और खुरदुरापन ही उनकी कविता की ज़मीन है और उनकी सादगी और सच्चाई मौलिक है, ठीक जैसे एक धरती होती है जिसमें अपनी प्यास बुझाने के लिए नागरिकों को भटकना और तड़पना पड़ता है. मोहन इस धरती के संसाधनों पर मजलूमों और वंचितों, दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, और समाजों-संस्कृतियों-राजनीतियों से बेदखल लोगों के हक के लिए जगह बनाती, आवाज़ उठाती, लड़ती भिड़ती, चोट खाती, गिरती फिर उठती कविता के शिल्पकार हैं. जब भी पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेतों की बात होती है उनके सौंदर्य की बात होती है तो मुझे उनमें दर्जे दिखाई देते हैं इंसानों के दर्जे ऊपर और नीचे तक फैले अपनी अपनी जगह स्थिर जब उन खेतों के किनारे की पगडंडियों का ज़िक्र होता है तो मुझे डोलियाँ याद आती हैं अरे सुहागनों और दुल्हनों वाली डोलियाँ नहीं अजन्मे बच्चों के साथ तड़पती अपने जिस्म से बहते ख़ून की तरह बर्बाद हो चुकी औरतों की डोलियाँ रोगियों की डोलियाँ (कविताःनिराश, पृ 101) चिली (चीले) के कवि पाब्लो नेरुदा ‘इम्प्योर पोएट्री’ यानी अशुद्ध या मैलीकुचैली, खुरदुरी कविता के पक्षधर थे. इसे लेकर उन्होंने 1935 में एक छोटा सा लेकिन तीक्ष्ण निबंध भी लिख डाला था. निबंध क्या है गद्य कविता जैसा एक लंबा थरथराता नोट है. नेरुदा के इस नोट को उनके चाहने वाले उनका एक घोषणापत्र भी कहते हैं. “दिन और रात के कुछ खास पलों में स्थिर चीज़ों के संसार को क़रीब से देखना अच्छा है. खनिजों और सब्जियों का बोझ ढोते हुए लंबी धूल भरी दूरियों को पार करने वाले चक्के, कोयले के ढेरों से निकले बोरे, पीपे और टोकरे, कारपेंटर के औजारों के बक्से के हत्थे और कुंदे. आदमी का धरती से संपर्क का बहाव इन तमाम चीज़ों से होता है जैसे कि तमाम संकटग्रस्त गीतकारों का एक पाठ...” “…वही हो वो कविता जिसकी हमें तलाश हैः हाथ के अहसानों से उधड़ी हुई, जैसे कि एसिडों से, पसीने और धुएं मे तरबतर, लिली और पेशाब की गंध से सराबोर, हमारी रोज़ीरोटी के कारोबारों में अलग अलग ढंग से छितरी हुई, कानून के भीतर और उससे आगे कहीं. कविता हो इतनी बेरौनक, इतनी मैली, इतनी अशुद्ध जैसे कि हमारे पहने हुए कपड़े, या हमारी देहें, सूप के दाग से भरे, हमारे शर्मनाक व्यवहार में धूल-धूसरित, हमारी त्यौरियां और हमारी झुर्रियां और हमारे रतजगे और हमारे सपने, पर्यवेक्षण और भविष्यवाणियां, नफ़रत और प्रेम के हमारे ऐलान, हमारी मौजें और दरिंदगी, मुठभेड़ के धक्के, राजनीतिक वफ़ादारियां, इंकार और संदेह, अभिपुष्टियां और आज़माइशें और वसूलियां.” इस तूफ़ानी नोट के अंत में नेरुदा लिखते हैं, “जिन्हें चीज़ों के बुरे स्वाद से परहेज़ है वे मुंह के बल बर्फ़ पर गिरेंगे.“ (https://penguin.co.in/toward-an-impure-poetry-by-pablo-neruda/) नेरुदा ने कहा था कि, “मैं अपनी कविता में हमेशा लोगों के हाथों को देखना चाहता हूं...मैंने हमेशा ऐसी कविता को तरजीह दी है जिसमें अंगुलियों के निशान दिखाई देते हैं- दोमट जैसी उपजाऊ मिट्टी की कविता जिसमें पानी गा सकता है, रोटी की कविता जिसमें हर कोई खा सकता है.” बर्तोल्त ब्रेख़्त की ‘बुरे वक्तों में क्या होगा गान’ वाली प्रसिद्ध और लीजेन्डरी कविता को भी हम यहां पर याद कर सकते हैं. भाषा अगर दमन और सामाजिक कलंक का ठिकाना है तो वो प्रतिरोध और संघर्ष का ठिकाना भी है. ये प्रतिरोध ऐसी मुखर, बेबाक, ठोस, और गैरकुलीन, गैर अभिजात, गैर पवित्रतावादी, गैर शुचितावादी, गैर शुद्धतावादी, गैर संस्कारवादी भाषा में प्रकट होता है जिसका कोई सानी नहीं. ये हमें फिर संगीत में उपजे प्रतिरोधों और बेचैनियों की ओर ही ले जाता है जो हम आदिवासियों के गीतों से लेकर कालों के जैज़ में कांपता उठता थरथराता देख सुन सकते हैं. वो संगीत के अलावा कला में भी मौजूद है. इस लिहाज़ से देखेंगे तो अमूर्तता कोई बुरी चीज़ नहीं है. अन्यायों के खिलाफ दलित चेतना एक अमूर्त बुलंदी में भी अपना आकार पा सकती है- एक ठोस अमूर्तता, एक अमूर्त अमूर्तता नहीं. ये थोड़ा पेचीदा सी बात है और मोहन की कविताएं समाज और समय और संस्कृति की पेचीदगियों को अपने ढंग से उद्घाटित करती है. ये भाषा सजीधजी नही है, सजावट और ऋंगारिक उपायों का रुख नहीं करती है. विषय को दबाती छिपाती या न्यूट्रलाइज़ नही करती है. ब्राह्मनवादी संस्कृति के अनाचारों को उद्घाटित अनावृत्त कर देने वाली भाषा है. तमिल लेखक बामा ने कहा था, दलित को दलित की तरह लिखना चाहिए. और इस नाते यथास्थिति की सतही स्वच्छता और सुव्यवस्था को, व्याकरण, वाक्य-विन्यास और छंद के नियमों, शुद्ध, दैवीय और संस्कारी भाषा की कथित श्रेष्ठता को छिन्नभिन्न कर देना चाहिए. मैं गड़ता रहूँगा तुम्हारी आँखों में मैं चुभता रहूँगा तुम्हारे जबड़ों में तुम्हारे हर मज़े को मैं बेमज़ा कर दूँगा घृणा से जब थूक दोगे तुम मुझे तो मैं थालियों में संगीत बनकर बज उठूँगा जिसकी आवृत्ति ज्वालामुखी के गहरे हृदय को झकझोर देगी कंकड़ हूँ मैं... (कविताः कंकड़, पृ 264) *** बाज़दफ़ा ये भी महसूस होता है कि मोहन की ये कविताएं मेरी लिखी कविताओं को आईना दिखाती हैं. वे मेरी कविताओं से सवाल पूछती और उनके आसमान पर मंडराती छायाओं की तरह है. बाज़दफा ये साए मेरे दिल में उतर आते हैं और वहां उत्पात मचाते हैं. एक दलित वेदना या अपमान या संघर्ष क्या मेरी कविता समझ सकती है. क्या वो उसका बखूबी और इन्टेन्स वर्णन कर सकती है, क्या मैं एक दलित आह के भीतर झांक सकता हूं कि वहां कितना गहन और विराट अंधकार है क्या मैं उस अंधकार को पहचानता हूं, क्या मैं उस चेतना को ग्रहण कर सकता हूं जो एक दलित होने से निबद्ध रहती है. मेरे पास ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो मुझे झिंझोड़ते और फटकारते आए हैं और मोहन मुक्त की कविताएं नये अंदाज़ में नयी भाषा में लेकिन एक ऐतिहासिक क्षोभ और पीड़ा के साथ याददिहानी के लिए मेरे पास आई हैं. भाई तुम कहां हो. तुम्हारी कविता क्या कर रही है, हिंदी की कविता का सवर्ण कुलीन संसार क्या कर रहा है. क्या तुम उसमें जगह रखते हो अगर नहीं रखते हो तो फिर कौनसी जगह के आकांक्षी हो फिर कौन सा नया रास्ता तुमने अख़्तियार किया है या बनाया है. हिंदी के भीतर इतनी सारी हिंदियां किस हाल में हैं. तुम कौनसी हिंदी के प्रतिनिधि हो और मोहन मुक्त कौनसी हिंदी का. क्या तुम दोनों एक ही हिंदी लिखते हो बोलते हो सोचते हो अमल में लाते हो. अगर नहीं तो ऐसा क्यों हैं और इसके पीछे कौन है. क्या तुम उस शक्ति को पहचानते हो क्या उसे टोक सकते हो क्या मोहन की कविता उस शक्ति को पहचानती है और उसे चेलैंज करती है और उसकी आवाज़ की निर्मितियां इतनी व्यापक हैं कि अनुगूंज की तरह सदियों से तुम्हारे और तुमसे पहले के लोगों, पूर्वजों के कानों से गुज़रती आई हैं. क्या तुम अनसुने के कवि हो. या जो अनसुना रहता आया है उसका कवि मोहन मुक्त है, तुम नहीं या तुम्हारे जैसे लोग नहीं है. मोहन की कविताएं सहसा एक स्थानीय दंश से उठकर वंचितों की सर्वकालिक और विश्वव्यापी व्यथा, यातना और प्रतिरोध की कविता बन जाती है. फिर हमारे सामने एक बड़ा भूमंडल ज़ाहिर होने लगता है, वही वैश्विक सवर्णों का, कुलीन अधिपतियों का, साम्राज्यवादियों और नवपूंजीपतियों का, एक चाटुकार और ढहे हुए मध्यवर्ग का, लिबर्टी और लड़ाई और धन और ऐश्वर्य को एक साथ साधते एनजीओवादियों का. और इसी भूमंडल के किनारों से धधकती रौशनियों की प्रखरता और ज्वालाओं की तपिश हमें महसूस होने लगती है. अफ्रीकी महाद्वीप के जनसंघर्ष, ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों का दमन, औपनिवेशक कॉमनवेल्थ की क्रूरताएं और लोकतंत्र की आड़ में चली आ रही धूर्तताएं, अमेरिका के कालों का आंदोलन, लातिन अमेरिकी समुदायों का पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा संघर्ष- मोहन मुक्त की कविताओं में ये सारी छवियां अपना आकार बनाती हुई हमारे समक्ष उपस्थित हो जाती हैं और अपने अपने सवालों से हमें सराबोर और परेशां और बेचैन करती हैं. इसी सिलसिले मे भारतीय उपमहाद्वीप में वंचितो की लडाई को भी देखना चाहिए. श्रीलंका और म्यांमार के बौद्धों का आंतक, पाकिस्तान में उपजातीयताओं और दबेकुचलों पर वहां के कुलीनों और अभिजातों के प्रहार, और भारत में हिंदी पट्टी के अलावा, देश भर में दलितों और गैर सवर्णों पर पीढ़ियों के ज़ुल्म. पंजाब की दलित चेतना में चमार पॉप और रैप का उभार एक तरह से मोहन मुक्त की कविता संसार में भी धड़कता है. संग्रह में एक महत्वपूर्ण कविता ऋंखला है “लोक संस्कृति.” 27-28 पेजों में फैली इस सीरीज की कविताएं, अलग से ही एक ज़ोरदार कलेक्शन की तरह हैं. पहाड़ी मुख्यधारा के समाज में व्याप्त जातीय विभाजनों और विमर्श की चालाकियों पर इन्हें एक लंबे निबंध की तरह भी पढ़ा जा सकता है. लोक संस्कृति को लेकर जो रवैया आदिवासी, पहाड़ी, मूलनिवासी समुदायों के इर्दगिर्द निर्मित हो चुके हेजेमनी के समाजों का बन चुका है, मोहन बहुत बेबाकी और तीक्ष्णता से ही नही बल्कि एक शोधपरक निरीक्षण, अध्ययन और सजगता के साथ उसकी तफ़्सील सामने रखते हैं. लोक संस्कृति ऋंखला की शुरुआत से पहले मोहन ने एक छोटा सा नोट भी दिया है. पाठकों की सुविधा के लिए ताकि वे एक अंदाज़ा लगा सकें कि जिस लोकसंस्कृति को लेकर वे वाह-वाह या हाय-हाय करते आए हैं वो असल में कितनी साज़िशी चीज़ है और आखिर किन उद्देश्यों, इरादों, स्वार्थों का पोषण करती हुई पाई जाती है. जब संस्कृति ही एक पिरामिड हो तो इसके पहले लोक लिख देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता जैसे तंत्र के पहले लोक होने का मतलब लोकतंत्र तो नहीं होता... (पृ 201) मेवों की सस्ती से दिक्कत डुमड़ों की मस्ती से दिक्कत मुसलमान हस्ती से दिक्कत तुम्हें नहीं आराम गुमानी, सुनो गुमानी (सुनो गुमानी, पृ 205) उपयोगी लोग जो सब जगह...सभी जगह हैं मार्क्सवादी प्रतिबद्ध मार्क्सवादी दलित पेशों को बताते हैं लोककलाएँ और बन जाते हैं कलावादी प्रतिबद्ध कलावादी... (पृ 225) 2020 में हार्पर कोलिंस से मलयाली लेखक एस हरीश के चर्चित और सवर्ण, ब्राह्मणवादी हल्कों में विवादास्पद उपन्यास “माशी” का मलयालम से अंग्रेज़ी अनुवाद “मस्टैश” (मूँछ) के नाम से प्रकाशित हुआ था. जयश्री कलाथिल ने ये अद्भुत अनुवाद संभव किया है. किताब के प्रारंभ में अपने उपन्यास की पृष्ठभूमि, संदर्भ और भूगोल के बारे में सूक्ष्मता से बताते हुए हरीश केरल समाज में सदियों से व्याप्त जाति प्रथा और जाति टकराहटों और दलितों पर घिनौनी कब्जेदारी का चिंताजनक ब्यौरा भी देते हैं. वो बताते हैं कि अपने उपन्यास के लिए जब वो अपने जन्मस्थान कुटनाड जिले के बीहड़ दलदली भूगोल का दौरा कर रहे थे और लोगों से मिल रहे थे तो उन यात्राओं और मुलाकातों ने उनके अपने नज़रिए और समझ में गहरा बदलाव कर दिया था. हरीश के मुताबिक, “उपन्यास लिखने की तैयारी करते हुए मुझे समझ में आया कि दलित इतिहास को, उस इतिहास के बारे में दलितों के खुद के ज्ञान को और नतीज़तन कुटनाड की जातीय राजनीति के इतिहास को किस तरह गहनता से सुनना चाहिए.” ***
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट के निवासी और रैबासी मोहन मुक्त, इस पर्वतीय भूगोल के दलित इतिहास को लेकर एक सचेत और सुचिंतित और सुपठित अध्ययन करते आ रहे हैं और सोशल मीडिया में अपनी छाप छोड़ चुके हैं. उन्होंने अपने अध्ययन से हासिल तर्कों और दलीलों से पहले तो माननीय, महानुभाव समुदाय को चकित किया फिर उन्हें खिन्न भी किया. एक सजीसजायी भव्य फुलवारी में ये नाक़ाबिलेबर्दाश्त हस्तक्षेप था. भारत में बेशक दलित कविताएं लिखी जाती रही हैं और अपनी प्रखरताओ के लिए जानी भी जाती रही हैं. मेरे प्रिय लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं आज भी अपना एक महत्व रखती हैं. उसी आग की ताप में मोहन जैसे कवि भी बने हैं, इस बात से कोई क्यों इंकार करेगा. दलित साहित्यकारों और एक्टिविस्टों ने आधुनिकता के मुहावरे और ढांचे में अपने संघर्ष को स्थापित किया है. मूल्यों के असमान हिंदू सिस्टम के खिलाफ उन्होंने तार्किकता और सार्वभौमिकता के विचार निबद्ध किए हैं. वे दलित चेतना में बाहरी घुसपैठ या दलित संघर्षॆं पर लिखने वाले या उनकी पैरवी करने वाले या प्रवक्ता बनने वालों का भी विरोध करते हैं. “कास्ट एज़ द बैगेज ऑफ द पास्ट, ग्लोबल मॉडर्निटी एंड द कॉस्मोपॉलिटन दलित आइडेन्टिटी” शीर्षक से अपने एक निबंध में के सत्यनारायण लिखते हैं कि सबअलटर्न अध्येताओं पर भी अक्सर ये तोहमत लगती है. उदाहरण के लिए गायत्री स्पीवाक पर कि दलितों और आदिवासियों पर उनका का व्यापक रूप से, अपरकास्ट लेखिका महाश्वेता देवी की रचनाओं पर आधारित है. (दलित लिटरेटर्स इन इंडिया, संपादन- जोशिल के अब्राहम और जूडिश मिसराही-बराक, रूटलेज, 2018) दलित इस बात का इंतज़ार नहीं करते हैं कि कोई उनके लिए लिखे या उनकी ओर से बोले, बल्कि वे लगातार अपनी आवाज़ को न सिर्फ बुलंद करते आ रहे हैं बल्कि उसका असर भी होते देखना चाहते हैं. ये लड़ाई उनकी अपनी लड़ाई है. इसीलिए वे दया या सहानुभूति के वायुमंडल से निकलकर खुली हवा में सांस लेते हुए लड़ना चाहते हैं. मोहन मुक्त की कविताओं पर लिखते हुए ये एक नैतिक चुनौती भी है कि क्या ऐसा करना सही है, क्या मुझे ऐसा करने का हक़ है. क्या एक सवर्ण बामनवादी पर्यावरणों में पोषित व्यक्ति, इन कविताओं के बारे में लिखने की जुर्रत कर सकता है. जो अभिलाषा बताई गई वो चतुर्वेदी की अभिलाषा थी वो फूल की अभिलाषा नहीं थी फूल की कोई चाह नही थी उसे तो खिलना था... (पुष्प की अभिलाषा...पृ 119) के सत्यनारायण लिखते हैं कि इसीलिए दलित लेखकों में अपनी आत्मकथा लिखने की एक एक लंबी समृद्ध परंपरा रही है. असहाय बनकर वे अपने उद्धार का इंतज़ार नहीं करते रह सकते और ना ही एक सुधार में रत वृहद हिंदू समाज में घुलमिल जाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं. दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से लेखक कहते है कि दलित इतिहास के वेटिंग रूम में नहीं पड़े रह सकते. अगर कोई रूम या कक्ष उनके लिए मुकर्रर है या ऐसे किसी कक्ष में उन्हें घुस पाने या बैठने की अनुमति भी नहीं है. हालांकि इतिहास के वेटिंग रूप की अपेक्षा ये कहना सही होगा कि वे इतिहास के किनारों और हाशियों पर पड़े नहीं रह सकते. लिहाज़ा में अपनी स्थिति को सुव्यवस्थित कर रहे है और तमाम प्रभुत्वशाली विमर्शों के बाहर अपनी आवाज़ को पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. वे जाति प्रथा को दमनकारी मानते हुए उसका खात्मा चाहते हैं लेकिन दलित के तौर पर अदृश्य होकर हिंदु मुख्यधारा में अपने विलय से उन्हें इंकार है. आंबेडकर इस बारे में अंतर्निहित सच्चाई को पहले ही उजागर कर चुके हैं. ‘नो नेम इज़ युअर्स अनटिल यू स्पीक इट’ नामक निबंध में लेटिशिया ज़ेकिनी (Laetitia Zecchini) लिखती हैं कि दलितों में भी दलित औरतों की स्थिति शोचनीय है जो जाति और पितृसत्ता का कहर झेलती आ रही हैं. मराठी कवि ज्योति लेंजवार ने कहा है, स्त्रीत्व भी दलित्व है. (वुमनहुड टू, इज़ दलितहुड) मीना कंडासामी तो इस मामले में और मुखर होकर बोलती हैं कि आदमी के लिए, औरत घर की दलित है. मोहन इस विडंबना से पूरी तरह वाकिफ़ ही नहीं ज़िम्मेदारीपूर्वक सचेत भी हैं. 264 पृष्ठों और 97 कविताओं वाले इस संग्रह में औरतों के अधिकारों, संघर्षों पर तो कविताएं हैं ही, हिंदी में ये पहला कविता संग्रह है जिसे उन बेमिसाल पांच औरतों को समर्पित किया गया है जिन्होंने इंसानी हकहकूक की लड़ाई में और जातिवादी, पितृसत्ता के वर्चस्व को तोड़ने में अपना जीवन खपा दिया. मोहन की याददिहानी में ये चुनिंदा विलक्षण और साहसी औरतें हैं- नंगेली जिन्होंने ब्रेस्ट टैक्स भरने से इंकार करते हुए अपने प्राण दे दिए, मुक्ता साल्वे जो सावित्रीबाई फुले के स्कूल में पढ़ने वाली पहली दलित लेखिका थीं और 14 साल की उम्र में ब्राह्मणवाद पर तीखा लेख लिखा था, लक्ष्मी टम्टा जो कुमाऊं की पहली महिला ग्रेजुएट और पहली महिला संपादक थीं और दलित अधिकारों के पत्र सामना का संपादन किया था, फूलन देवी जिन्होंने व्यवस्थागत जातीय और मर्दवादी हिंसा का प्रतिकार कर खुद को न्याय दिलाया, और गेल ओमवेट जिन्होंने जाति, वर्ग, पितृसत्ता और इनके ख़िलाफ़ बाबासाहेब के लोकतांत्रिक इंकलाब को समझने के बुनियादी सैद्धांतिक सूत्र तैयार किये. एक कविता संग्रह इस तरह, अपने पुरखों की लड़ाइयों की याददिहानी का एक बड़ा दस्तावेज भी बन जाता है. “मेरे पुरखे” कविता में मोहन के स्वर में खीझ, उदासी, आक्रोश और संघर्ष घुलामिला हुआ है. अपने पुरखों को याद करते हुए और एक तरह से उनकी याददिहानी को समकालीन यातना का बिंब बनाते हुए मोहन बताते हैं कि इतिहास विजेताओं का, जातीय श्रेष्ठियों का होता है, दलितों का इतिहास कौन लिखेगा और कौन जानेगा. मैं ख़ुश हूं कि मैं अपने पुरखों के बारे में नहीं जानता मैं नहीं जानता क्योंकि वो इतिहास में नहीं हैं वो इतिहास में नहीं हैं क्योंकि वो आक्रमणकारी नहीं थे उन्होंने कोई नगर नहीं जीते कोई गाँव नहीं जलाये उन्होंने औरतों के बलात्कार नहीं किये उन्होंने अबोध बच्चों के सर नहीं काटे वो धर्माधिकारी नही थे वो ज़मींदार नहीं थे निश्चित ही वो लुटेरे नही थे. (मेरे पुरखे...पृ 111) *** समयांतर पत्रिका के दिसंबर 2021 अंक में, क्रिस्टॉफ़ जाफ्रलां की किताब के राजकमल से प्रकाशित अनुवाद- “भीमराव अंबेडकरः एक जीवनी, जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण” की, समीक्षा में मोहन मुक्त ने लिखा कि “भारत के बौद्धिक वर्ग मे डॉ भीमराव आंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके अवदान को लेकर आमतौर पर दो तरह का नज़रिया देखने को मिलता है. पहला उनकी उपेक्षा करता है और उन पर बात ही करना चाहता है, दूसरा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साम्राज्यवाद का पक्षधर और भारतीय संविधान में मामूली अथवा जमींदारो पूंजीपतियों के पक्ष की भूमिका निभाने वाला बौद्धिक मानता है...एक तीसरा नजरिया भी है तो आंबेडकरवादी और कुछ नवबौद्ध दलित लेखको द्वारा स्थापित होने की जद्दोजहद में है...लेकिन इस नजरिए के साथ सबस बड़ी समस्या इसका आंबेडकर के आभामंडल से अत्यधिक प्रभावित होकर उनके प्रति अनालोचनात्मक हो जाना और तटस्थ न रह पाना है.” लेखक का कहना है कि आंबेडकर पर अपेक्षाकृत अधिक ठोस काम विदेशी अथवा विदेशी मूल के लेखकों द्वारा किया गया है. मोहन मुक्त पहाड़ से और हिंदी में युवा दलित कविता के प्रखर स्वर के तौर पर जाने जा चुके हैं लेकिन इससे पहले, जैसा कि ऊपर एक जगह उल्लेख किया गया है कि वो पहाड़ी समाज में और वृहद् भारतीय समाज में दलितों की स्थिति और उनके ऐतिहासिक दमन और उन पर होते आ रहे सांस्कृतिक-राजनीतिक हमलों के बारे में शोधपूर्ण विशद् अध्ययनों, लेखों और सोशल मीडिया पोस्टों, ऑनलाइन वक्तव्यों के ज़रिए भी एक सार्थक धूम बनाते आ रहे हैं. उत्तराखंड के पहाड़ों मे तो उन्होंने जो तीक्ष्ण और भेदक प्रस्थापनाएं दी हैं और इतिहास में दफ्न तथ्यों को जिस मेहनत और तर्क के साथ सबके सामने रखा है, वो बहुत सिग्नीफिकेंट है और उस पर ग़ौर किया जा रहा है. लेकिन इससे भी अधिक नाइंसाफ़ी में साझेदार समझौतावादियों और यथास्थितिवादियों को चुनौती भी मिल रही हैं. ये अकेला बीड़ा मोहन ने उठाया है. ऐसा पहले उत्तराखंड में कभी नहीं हुआ. चुनौतियों और ढोल की सही मायनों में गूंज अब पता चली है. वरना तो पुरोहितगण ढोल को भी अपने कृत्रिम सागरों में हस्तगत कर बैठे थे. ओह... मेरे पास मेरी अपनी कोई संस्कृति नहीं तीज त्यार मेले संस्कार देखा देखी नकल उधार कोई उत्सव नहीं यहाँ जो मेरे आह्लाद को व्यक्त कर सके ये संस्कृति तो फिर मेरी संस्कृति नहीं होगी. (कविता- मूल अधिकार, पृ 107) *** पोस्टकलोनियल नज़रियों से दलित संघर्षों की छानबीन करने वाले निबंधों के सिलसिले में एक लेख गोपाल गुरू का है. “फॉर दलित हिस्ट्री इज़ नॉट पास्ट बट प्रेज़ेंट” शीर्षक वाले इस लेख में गोपाल गुरू कहते हैं कि दलितों का विस्थापन सिर्फ भौतिक या भौगौलिक (टैरीटोरियल) विस्थापन नहीं है और न ही ये सामाजिक और आर्थिक प्रभुत्व की हानि है, ये असल में उनके इंसानी वजूद का एक वृहद मॉरल नुकसान है. ब्राह्मनवाद की शुद्धता की प्रदूषित वैचारिकी ने दलितों को अभिशप्त बनाए रखने की साज़िशें की हैं. वे उनसे काम भी लेते हैं और उनसे नाक भौं सिकोड़ते हैं. और साया भी छू जाए तो कोहराम मचा देते हैं. ये जातिवाद के साथ साथ रंगभेद भी है. मोहन मुक्त की “काला बामण” कविता सात हिस्सों में बंटी हुई एक लंबी कविता है जिसमे दलित पुरोहित कहे जाने वाले दलितों के राग और उनकी वंचना और और विडंबना को उजागर करते हैं जिनके जजमान केवल दलित होते हैं, कथित ऊंची जातियां उनकी सेवाएं नहीं लेती हैं. मोहन बताते हैं कि उत्तराखंड में दलित शिल्पकार समुदाय को ब्राह्मणीय सांस्कृतिक व्यवस्था में जकड़ने के लिए काला बामण संस्था बहुत अधिक ज़िम्मेदार प्रतीत होती है. अरे यह तो ग़ज़ब हो गया लोकतंत्र के दौर में ओड़, ल्वार, बारुड़ी बनने लगा है बामण ख़ास किस्म का बामण...काला बामाण अरे तो क्या जातियां हो जाएंगी ख़त्म गर्म उबलता बहता हुआ लावा जब दुनिया की सबसे ठंडी चीज़ से टकराता है तो ख़ुद भी हो जाता है ठंडा फिर वह कुछ नहीं जलाता ना टूटता है ना तोड़ता है बेडौल सा पड़ा रहता है हो जाता है इतना सख़्त कि... ल्वार का आफर भी पिघला नहीं सकता उसे शिल्पकार नहीं बना सकता इसमें कोई मूरत जनेऊ के दायरे के भीतर खदबदाने वाले लावे किए लिये गाय का पेशाब ही सबसे ठंडी चीज़ होता है... (पृ 128) मीना कंडासामी ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद एक क्षुब्द आलेख में कहा था कि जब कोई दलित, कोई शूद्र, कोई आदिवासी, कोई बहुजन, कोई औरत अकादमिक जगत में अपना दावा ठोके तो हर एक घिनौनी जातिवादी शक्ति को सिहर कर सिकुड़ जाने दो, उन्हें महसूस होने दो कि हम उस सिस्टम को नेस्तनाबूद करने आए हैं जो हर हाल में हमारे लिए हर दरवाजा बंद करना चाहता है, कि हम अपने सपनों को छीनने की हिम्मत करने वालों को दुःस्वप्न देने आए हैं. उनका बौद्धिक वजूद भी वर्चस्ववादियों और वर्चस्वप्रेमियों को परेशान करता रहता है. उन्हें लगता है कि आखिर कोई दलित कैसे अकादमिक जगत की धवल शुद्ध प्रकांड ज्ञान से सिंचित भूमि पर आकर खड़ा हो सकता है. “मेरा पहाड़???” कविता मे मोहन मुक्त बताते हैं- मुंडा कोल गोंड नाग बौद्ध द्रविड़ या हड़प्पन बाद के जो कोई भी थे मेरे पुरखे उन्होंने कभी नहीं कहा...मेरा पहाड़ कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं अगर कहा भी हो तो कैसे जानें उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई जो कुछ बच गया उनकी भाषा का वो गाली बन गया... (पृ 63) तो आखिर, मेरा पहाड़ मेरा पहाड़ की रट लगाते आ रहे लोग कौन हैं. मोहन मुक्त अपनी जातीय स्मृति और ऐतिहासिक सच्चाइयों से पर्दा उठाते हुए बताते हैं- जो भी कहता है ‘मेरा पहाड़’ वो प्यार नहीं करता वो जताता है दावा जीती गई लूटी गयी छीनी गयी कब्ज़ाई गयी और बांटी गयी ज़मीनों पर जागीरों पर... (पृ 64) मलयाली और अंग्रेजी के वरिष्ठ कवि, के सच्चिदानंदन ने फिलस्तीनी युवा कवि आस्मा अज़ाज़ेह को एक साक्षात्कार में कहा कि हम जानते हैं साहित्य ने अरब क्रांतियों, कालों की जागरूकता, नारीवादी चेतना और फासीवाद विरोधी संघर्षों में अहम भूमिका निभाई थी. (https://www.modernliterature.org/poet-first-and-last-k- satchidanandan/) वो कहते हैं कि कविता कोई सीधी अपील की तरह काम नहीं करती बल्कि वो एक प्रति चेतना को आकार देती है और अप्रत्यक्ष रूप से अपना एक खास सौंदर्यबोध निर्मित करती है. अपनी मां को संबोधन, अपनी प्रेमिका को चिट्ठी, या एक पेड़ के गिरने पर कविता- ये सब एक राजनीतिक बयान भी हो सकते हैं. लेकिन जाहिर है समय समय पर कविता को प्रत्यक्ष और सीधा भी होना पड़ता है जैसे निजार कब्बी या नाजिम हिकमत की कविता है. “कहाँ” कविता में कवि प्रेमिका से पूछता है- वो कौन सी जगह है इस धरती पर जहाँ कुछ न हो जात जैसा कृत्रिम अनश्वर और स्थायी निरोध... (पृ 57) मोहन की एक बेमिसाल कविता कुंवर प्रसून पर है. कुंवर जी उत्तराखंड के जानेमाने यायावर पत्रकार एक्टिविस्ट थे. और सही मायनों में बहुजन चेतना के प्रतिनिधि थे. मोहन ने उन्हें बड़ी मोहब्बत से और गंभीरता से याद किया है और उनकी शख़्सियत के बहाने अपने परिचित अंदाज़ में पहाड़ के मठों, मठाधीशों और ब्राहमणवादियों की ख़बर भी ली है. यकीनन कुंवर प्रसून पहाड़ के एक गुमनाम नायक थे, संघर्षकर्ता थे और उन्हें परवाह नहीं थी सफलता या पद या धन या विलास या पुरस्कार की. कविता की शुरुआती लाइनें ही हमें, हम मगन कुलीनों को हिलाने के लिए काफ़ी हैं- कुंवर प्रसून... एक ही तस्वीर मिल पाई है आपकी हर किसी के पास एक ही तस्वीर एक ही याद एक ही चित्र इस चित्र को मैं और बड़ा नहीं करूँगा नहीं तो ये धुंधला जाएगा... (पृ 58) मोहन की करीब पांच पेज की ये कविता उत्तराखंड में जल, जंगल, ज़मीन के आंदोलनों, अभियानों और दूसरे जनांदोलनों की सच्चाइयों से रूबरू कराती है और बहुत से अदेखे अज्ञात छिपा दिए गए कोनों खुंजो तक बेधड़क जाती है. कुंवर प्रसून को किसी बड़े नामचीन की तरह नही बल्कि एक आदमी की तरह याद करती है, वो कुंवर प्रसून ‘जो आखिर तक आदमी ही बना रहा.’ *** पोलिश कवि चेस्लाव मिवोश ने कहा था, एक कमरे में जहां लोग साज़िशी चुप्पी ओढ़े रहते हैं, सच्चाई का एक शब्द पिस्तौल दागने जैसी आवाज़ करता है. मोहन की विख्यात कविता है नाज़ी.. जिसमें वो बताते हैं कि नाज़ी जल्लाद नही होते जल्लाद नाज़ी नहीं होते जल्लाद श्रमिक होते हैं नाज़ी श्रमिक नहीं होते नाज़ी कसाई नहीं होते कसाई नाज़ी नहीं होते कसाई हमें भोजन देते हैं नाज़ी भोजन नहीं देते इसी कविता में वो आगे चलकर कविता के सरमाएदारों और अधिपतियों और सुभद्रजनों को ललकारते हुए कहते हैं- अरे कविता के कब्ज़ेदारों ओ भाषा के ज़मींदारो अपने बिम्ब दुबारा देखो जो इतिहास में हारा देखो (पृ 50-51) मोहन मुक्त की एक कविता है “स्मृति”. वो लिखते हैं. वो क्या था... कि चार होंठ पूरी कोशिश के बाद भी उसे गीला नहीं कर पाये वो बहुत रूखा है होंठो की आंसुओं की ज़िन्दगी की या ख़ून की नमी भी उसे नम नहीं कर पाती वो जो नहीं होता नम और नम्र प्यार और वासना की विभाजक लेकिन साझी नदी में डूबकर भी क्या वो इस धरती की चीज़ है? (पृ 47) *** एक दिलचस्प चीज़ की ओर इस संग्रह को पढ़ते हुए ध्यान जाता है. मोहन अपनी कविताओं के शीर्षकों के बाद, और हर कविता के अंत में तीन डॉट लगाते है...मानो ये शीर्षक या वर्णन के कभी न खत्म होने वाले सिलसिले की ओर इशारा है, मानो ये है कि ये तीन बिंदु किसी नयी ज़मीन नये आयाम की ओर पाठकों का ध्यान दिला रहे होते हैं. मानो इन कविताओं की आस है ये, नये सिलसिलों की तलाश, नये दर्द नये सवालों की तलाश...मोहन मुक्त ने दलित मुखरता को नया आयाम दिया है. जैसे पंजाब मे चमार पॉप के ज़रिए लाल धीर और कुछ साल पहले गिनी माही ने एक नया दलित तूफ़ान खड़ा कर दिया था. उनके गाये गीत देश भर में दलित आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और विदेशों में वे भी बड़े लोकप्रिय हैं. मोहन मुक्त के तीन डॉट मानो अमेरिकी जैज़ की तड़प को जगाती, सैक्सोफोन की फूंक हैं. मानो वो जैज और कालों की मिलीजुली पुकार के बिंदु हैं जो कई भाषाओं में, कई बोलियों में, कई अनाचारों और कई शोषणों में उद्दाम तौर पर हिलतेडुलते रहते हैं. उनका मॉमेंटम नहीं टूटता, गति भंग नहीं होती. दलित प्रश्न को निर्भीक और निस्संकोच होकर सामने लाने वाले कवि के रूप में मोहन पहले कवि-चिंतक नहीं हैं, उनकी विशिष्टता और ख़ूबी ये है कि उन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण दलित कवियों की परंपरा से होते हुए अपना एक अलग रास्ता अख़्तियार किया है जो जाति के सवालों पर अपर कास्ट से चुभते हुए और मर्मभेदी सवाल करता है, संस्कृति और वर्चस्व और ज्ञान और भाषा के स्थापित प्रतीकों और बिंबों को ध्वस्त करने का माद्दा रखता है और उसमें अहंकार नहीं खुदमुख्तारी है. वो पहाड़ और हिमालय की दलित जड़ों को तलाशता-भटकता, हिमालय की दलित पहचान को सामने लाता, तमाम हेजेमनीज़ को फटकारता, चुनौती देता, अपने अंतर्विरोधों और अपनी दुश्वारियों की शिनाख़्त करता एक कवि-योद्धा है, आत्मविश्वास और अध्ययन ही जिसके सबसे सशक्त हथियार हैं. मोहन लिखता है- ज़िंदगी में सब कुछ हो लेकिन इंतज़ार ना हो दुख ना हो मलाल न हो पछतावे की कुछ सिलवटें ना हो तो समझना कि ज़िंदगी अभी शुरू नहीं हुई... (कविताः तत्व, पृ 110) शुक्रिया मोहन. तुम्हारी कविताएं, प्रकट-प्रछन्न जंज़ीरो से दबीकुचली इंसानियत की, मुक्ति का गान हैं.
(कवि-पत्रकार-विचारक शिवप्रसाद जोशी देहरादून में रहते हैं)

Sunday, May 15, 2022

एक सुबुक आवाज़ की फैलती स्याही

 (अदनान कफ़ील दरवेश की कविताओं पर कुछ बातें)

शिवप्रसाद जोशी   



XV

We, the mortals, touch the metals, the wind, the ocean shores, the stones, knowing they will go on, inert or burning, and I was discovering, naming all these things:it was my destiny to love and say goodbye.

- Pablo Neruda (from Still Another Day) Trans. By William O’Daly

 

अदनान कफ़ील दरवेश की कविताओं को पढ़ते हुए उपरोक्त कविता के अलावा चिली के महाकवि पाब्लो नेरुदा का विख्यात नोबेल भाषण  भी याद हो आता है जिसमें उन्होंने लातिन अमेरिकी भूगोल, लातिन अमेरिकी समय और संस्कृति के परतदार बहुआयामों, उसकी बीहड़ताओं और स्वप्नों और रोमानो, पसीने धूल और गंध और ग्राम, नदी और पत्थरों पहाड़ों और चट्टानों का रास्तों का लोगों की ज़िंदगियों का एक व्यापक चित्र प्रस्तुत किया था. वो भाषण एक तरह से नेरुदा की कवि शख़्सियत को समझने की कुंजी भी है.

 

मेरा यक़ीन कीजिए

हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है

और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है

जिसके बीच

मैं बस अपना घर ढूँढ रहा हूँ.

 

(मैं बस अपना घर ढूंढ रहा हूं, पृ. 61)

 

अदनान की कविताओं की किताब `ठिठुरते लैम्प पोस्ट` उनके कवि किरदार और शख़्सियत के बारे में बख़ूबी बता देती है. 175 पृष्ठों वाले अपने पहले कविता संग्रह की करीब 100 कविताओं के वितान से अदनान भी अपने कवि-पुरखों से जुड़ जाते हैं. और इस तरह पुरखों की आवाजाही से, स्मृति और प्रेम की और अनुभवों की आवाजाही से उनकी यह पुस्तक सम्पृक्त है, उससे रशन है. `ठिठुरते लैम्प पोस्ट` के ज़रिए अदनान कविता के आंतरिक ताप की हिफ़ाज़त करते हैं. वह एक कांपती हुई सी रोशनी है, और अपनी डगमगाहट में भी बने रहने की ताब उसमें है. शांत और आहिस्ता. नाज़ुक सी है और जैसे मुंडेर पर आई चिड़िया की तरह एक मालूम-नामालूम से किसी अवर्णनीय सी स्पेस में स्थिर या उड़ान में लेकिन हमारी निगाह में स्थिर, अविचल. तिल के भीतर भी एक जगह जैसी. "अंतःकरण के आयतन" की झलक दिखलाती रहती है. उसके बारे में बतलाती है. 

 

अब नींद में मुलायम संगीत नहीं

है एक सुबुक आवाज़ की

फैलती स्याही

एक धुंध का साम्राज्य है चारों तरफ़

जहाँ नमक की बोरियों से

रिसता रहता है ख़ून...

 

(चमकती कटार, पृ 57)

 

ब्रिटिश चिंतक जॉन बर्जर 2006 की अपनी किताब कन्फ़ैब्यलेशनमें विज़ुअल भाषा से आगे शब्द की दृश्यात्मकता की अहमियत बताते हैं. बर्जर मानते हैं कि भाषा एक देह है, एक जीवित प्राणी...और इस प्राणी का निवास अव्यक्त भी है और व्यक्त भी. उनके मुताबिक विश्वसनीयता में एक अजीब तरह का द्वंद्व रहता है. किसी अनुभव की संदेहार्थकता और अनिश्चितता के प्रति, यहां तक कि वो निश्चितता का अनुभव ही क्यों न हो, उसके प्रति लेखक का खुलापन ही है जो लेखन को स्पष्टता और इसलिए एक क़िस्म का यक़ीन मुहैया कराता है. फ़ॉर्म और कंटेट एक दूसरे से गुंथे हुए हैं, इस तरह कि उनसे एक साथ ख़ून रिसता है. लेखन में प्रामाणिकता, अनुभव की संदेहार्थकता के प्रति वफ़ादारी से ही आती है.

अदनान ने एक व्यापक संसार की बैचेनियों और मामूली ख़ुशियों की कविताएं लिखी हैं. इस अकेले एक संग्रह में ही एक कवि के क़द का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. अदनान की कविता जीवन की कविता है. वो एक उदास, थकी हुई, मेहनत से पस्त, दुखों और झंझटों में लिथड़ी और अपने संघर्षों पर कभी हैरान तो कभी तैयार, आम नागरिक के अनुभवों के पर्यवेक्षण से तैयार कविता है. इस नाते कहना चाहिए, हालांकि इस कहने में भी दुस्साहस या अतिरंजना भी माना जा सकता है लेकिन ये ज़ोर देकर कहना ज़रूरी है कि हिंदी में नागरिक जीवन के बहुत मामूली और बहुत अदेखे से लेकिन अपनी संवेदनशीलता में बहुत तीक्ष्ण और गहन वृत्तांतों वाली कविता है जिसके यूं तो कई पुरोधा और शिरोमणि इधर भारतीय साहित्य के आसमान में चमकते रहे हैं. लेकिन इस आसमान को अपडेट की सख़्त ज़रूरत है.

ये कविताएं आठवें और नौवें दशक के कई कवियों की कविताओं से अलग मक़ाम रखती हैं. तो इसकी भी वजह है. हमें नहीं पता वे अध्ययन कहां होते हैं और कब होते हैं जब हिंदी में कविताओं की एक मुकम्मल, पारदर्शी छानबीन होती हो. या वही होता हो जैसा कि समरसेट मॉग्घम ने एक जगह लिखा था और जिसका ज़िक्र लेखक द्वारा अन्यत्र किया जा चुका है. ब्रिटिश उपन्यासकार और नाट्यकार विलियम समरसेट मॉग्घम अ राइटर्स नोटबुक में लिखते हैः साहित्यिक फ़ैसलों में नेकनीयती हासिल करना कठिन होता है. ये लगभग असंभव है कि कोई व्यक्ति किसी रचना के बारे में किसी आलोचनात्मक या सामान्य मत के न्यूनतम प्रभाव में आए बगैर अपना कोई मत बना ले. इस कठिनाई को बढ़ाने वाली एक बात ये भी है कि महान स्वीकृत हो चुकी रचनाओं के संबंध में आम राय या साधारण मत से भी उनकी महानता का कुछ हिस्सा बनता है. कविता पढ़ने वाले पहले पाठक की नज़र से कविता पढ़ने की कोशिश करना एक लैंडस्केप को उस वातावरण के बिना देखने की कोशिश करना है जो उसका आवरण है.       

तो आख़िरी लाइन की मदद से कहूं तो अदनान की कविता का पहला पाठ ही हमें उन कविताओं के आवरणविहीन लैंडस्केप के सामने खड़ा कर देता है. अदनान ने इस मामले में अपने पूर्ववर्तियों और अपने समकालीनों से एक अलहदा जगह हासिल की है. अदनान को आवरण से अपने मंतव्य को और अपनी कविता को और अपनी अमूर्तता को ढकने का न कोई इरादा नज़र आता है न कोई तरतीब. उसमें तो बसः

 

ऊपर पिघल रहा है आकाश

नीचे खदक रही है पृथ्वी

...और पीछे से

बस्ती के पर्दे को चीरती हुई

चली आ रही है

अजान की धुँधली आवाज़.

 

(एक नीरस शाम की सिम्फ़नी, पृ 50-51)

 

जैसे मुझे इस बात की ख़ुशी है कि एक कवि के तौर पर मैं खुद को उस लैंडस्केप का ही एक रहबर पाता हूं. और मानता हूं कि ये मेरी ही कविता है. वे मेरी ही लाइनें हैं जिन्हें कवि अपने संताप में और अपनी कुछ मीठी कुछ दर्द भरी कुछ बेकल कर देने वाली स्मृतियों में ढाल रहा है.

 

जिस दिन हमारे भीतर

लगातार चलती रही रेत की आँधी

जिसमें बनते और मिटते रहे

कई धूसर शहर

उस रोज़ मैंने देखा

ख़ौफ़नाक चीखती सड़कों पर

झुके हुए थे

बुझे हुए

ठिठुरते लैम्प पोस्ट...

 

(ठिठुरते लैम्प पोस्ट, पृ 65-66)

 

अदनान ने ग्राम्य और कस्बाई जीवन के इतने सूक्ष्म बिंबो को उकेरा है जो बहुत विरल हैं और वैसी तहकीकात कम नज़र आती है. तुलनाएं अपेक्षित नहीं हैं और ना ही हमारा ऐसा इरादा है. बल्कि हम ध्यान ये दिलाना चाहते हैं कि कविता में लालटेन के अलावा एक ढिबरी की याद भी है.

 

ये बात है उन दिनों की

जब रात का अँधेरा एक सच्चाई होता था

और रौशनी के लिए सीमित साधन ही मौजूद थे मेरे गाँव में

जिसमें सबसे इज़्ज़तदार हैसियत होती थी लालटेन की

जिसे साँझ होते ही पोंछा जाता

और उसके शीशे चमकाए जाते

हर रोज़ राजा बेटा की तरह माँ और बहनें तैयार करती थीं उसे

लेकिन मुझे तो वो बिल्कुल मुखिया लगता था

शाम को, घर के अँधेरों का.

 

बेशक पहाड़ पर लालटेन और लालटेन की तरह जलना, हमारे दो अत्यंत प्रिय कवियों मंगलेश डबराल और विष्णु खरे की अत्यंत महत्त्वपूर्ण, मानीख़ेज़ और लोकप्रिय कविताएं हैं लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक के आख़िरी साल यानी 2019 में लिखी अदनान की ढिबरी कविता जैसे एक आख़िरी लौ की तरह जलती रहती है. यह ख्याति की विराट रोशनी में तब्दील नहीं हो जाती बल्कि ढिबरी ही बनी रहती है. एक कोने में सांस लेती हुई, हिलती कांपती हुई लौ. लेकिन अपने प्रिय कवि को अदनान लालटेन के हवाले से याद करते हैं. मंगलेश डबराल की याद में लिखी कविता लालटेन और कवि में वो कहते हैं- कवि नहीं मरते वे महज़ ओझल हो जाते हैं हमारी कमख़ाब नज़रों से.

अदनान की कविता की एक ख़ूबी ये भी है या एक साहस कह लीजिए कि वो अपनी बिरादरी अपने परिवार अपने समाज और अपनी क़ौम के आह्लाद, राग, दुख और बेचैनी के बारे में बताते हुए संकोच नहीं करते हैं. वे नमाज़ी की एक भावना को व्यक्त कर देते हैं जैसी कि वो है चाहे वो नन्हा नमाज़ी क्यों न हो जिसके लिए घर का बूढ़ा फाटक भी धीरे धीरे खुलने लगता है. अदनान उन्हें खोलकर आगे जाते हैं और खुलकर बताते हैं कि इस देश में नागरिक जीवन कितनी विविधताओं और कितने विविध क्लेशों और यातनाओं में व्याप्त है. अपने गांव को याद करते हुए शीर्षक से कविता इसका एक उदाहरण कही जा सकती है.

 

जब मुल्क की हवाओं में

चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है

ठीक उसी बीच मेरे गाँव में

अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम माँएँ

हर शाम वक़्ते-मग़रिब

चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ

मस्जिद की सीढ़ियों पर

 

(पृ 18)

 

अदनान की कविताओ की एक नैसर्गिक ख़ूबी ये भी है कि वे अपनी सहजता, सहजबोध, साधारणता को एक पल के लिए भी नहीं गंवाती हैं. उनकी कविता अपने आसपास के मामूली जीवन को, उस जीवन के राग-रंग को  डॉक्युमेंट करती चलती है. वे विश्वसनीय और ऐतिहासिक कथाएँ हैं और इसीलिए उन्हें अपनी सब्जेक्टिविटी से भी परहेज नहीं हैं. वे वस्तुनिष्ठ होने की शर्तको भी अनदेखा करने का माद्दा रखती है ऐसे समय में जबकि वस्तुनिष्ठता का भी हमें नहीं मालूम कि वो एक पक्ष के पक्ष में निष्ठावान हो चुकी है या नहीं.  इस मिलावटी या कृत्रिम वस्तुनिष्ठता का आडंबर हम इधर लिबरलों और प्रगतिशीलों और वाम वर्चस्ववादियों की हरकतों और कारगुज़ारियों में देख ही चुके हैं, देख ही रहे हैं.

वेनेज़ुएला के अप्रतिम कवि और गद्यकार इयुखेनियो मोंतेहो (Eugenio Montejo, 1938-2008) ने कविताओं पर अपने नायाब छिटपुट नोट्स में एक जगह लिखा हैः उस कविता से पहले, जो हर हाल में और लाज़िमी तौर पर हमारी अपनी कविता होती है, उससे पहले हम कमज़ोर होते हैं. एक सर्वोच्च शक्ति उसके भीतर निवास करती है. कविता को घुसपैठ के लिए कमज़ोरी की दरकार है, इसीलिए तर्क शक्ति या विचार शक्ति कमोबेश हमेशा ही उसके आगे एक अवरोध होती है. प्रामाणिक कवि इस प्रतिरोध को खाली कर देते हैं, उसे गिरा देते हैं (उसे लैस नहीं करते, जैसी कि साहित्यिक नियमावलियों की सलाह होती है), ऐसे कवि असहायता की प्रविधियों और प्रतिबिम्बों का सृजन करते हैं ताकि कविता उनमें अपनी घुसपैठ कर सके. इस लिहाज से सृजनात्मकता भी निश्चेष्ट तौर पर स्त्रैण या स्त्रियोचित है, वो जितनी निश्चेष्ट होगी उतना ही गहराई से वो  काव्यात्मक आवाज़ को जन्म देने में योगदान करेगी.

इन दिनों जब पत्रकारिता में वस्तुनिष्ठ कहने की याद दिलाई जाती है जिसके मायने तटस्थ या निरपेक्ष रहने से भी बाज़दफ़ा होते हैं, तो कविता में भी इस तटस्थता की लाभ उठाए जा रहे हैं और कविता से मज़े लिए जा रहे हैं, लगता है. ये उसका नव-कौशल है. ज़ाहिर है यह कौशल कोई आज ही तो जन्म नहीं लेता, उसकी भी एक धारा, एक परंपरा और पदानुक्रम और पीढ़ी है. अदनान की सबसे महत्त्वपूर्ण कविताओं में से एक तारीख़ी फ़ैसला इसे फ़ाश करती है. 2019 में लिखी ये कविता बताती हैः

 

एक उदार सुब्ह

मुल्क की आलातरीन अदालत ने

जैसे ही अपना तारीख़ी फ़ैसला आम किया

मस्जिद का चौथा गुम्बद

आप ही बे-आवाज़ ज़मीन पर गिरा

जिसमें क़ैद थी मस्जिद की आख़िरी

लहूलुहान अज़ान

जो मुल्क के हर मज़लूमों-इंसाफ़पसन्द फ़र्द के भीतर

सत्तर बरस बाद गूँज उट्ठी

 

ये कैसा राज है मियाँ?

लोग बतलाते हैं

मस्जिद में तो केवल तीन गुम्बद थे.

 

(पृ 98)

 

जर्मन चिंतक वुल्फ़गांग आइज़र (1996-2007) ने साहित्यिक रचना पर ग़ौर फ़रमाने के तरीके सुझाते हुए कहा था कि न सिर्फ़ वास्तविक टेक्स्ट पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि उस टेक्स्ट के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाले ऐक्शन को भी देखना चाहिए. वुल्फ़गांग आइज़र के मूल सिद्धांत नामक लेख में नसरुल्लाह माम्ब्रोल लिखते हैं कि आइज़र के मुताबिक साहित्यिक रचना के दो छोर हैः एक कलात्मक जो लेखक के रचित पाठ से बनता है, और दूसरा एस्थेटिक जिसका आकार पाठक बनाता है. पाठ और पाठ के वास्तविकीकरण से साहित्यिक रचना को नहीं पहचाना जा सकता बल्कि उन दोनों के बीच किसी स्थिति में ही उसे आंका जा सकता है. यानी ऐसी स्थिति जब पाठ और पाठक का विलय हो जाए. यानी रीडिंग अपने आप में एक सक्रिय और रचनात्मक प्रक्रिया है.

इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं जैसे खुद के भीतर भी झांक रहा हूं और देख रहा हूं कि मैं ही तो हूं वो. और इन कविताओं में जो दुख, उदासी और आंतरिक वेदना से भीगा हुआ जो साहस है जो उत्तेजना है वो उन्हें और प्रखर बनाता है. यह समय में आवाजाही भर नहीं है, न समय यहां विभाजक रेखा है, बस जो है वो अंतर्तम है. वहां जहां कहां कविता में आख़िरी पंक्ति है- मैं हूं वहां जहां मैं क़तई नहीं हूं...

 

हृदय

एक सहमा प्रदेश

जिसके असंभव दिगंत में

लटकी है धूल से बनी तुम्हारी तस्वीर

 

मेरी तिरछी टोपी के असम्भव द्वार में खुँसे हैं

तुम्हारे भेंट किए हुए पिछली सर्दियों के मुरझाये फूल

 

मैं हूँ वहाँ जहाँ मैं क़तई नहीं हूँ...

 

(वहाँ जहाँ कहाँ, पृ 120) 

 

एक अच्छी कविता का बुनियादी गुण उसमें निहित ईमानदारी नहीं तो और क्या है. फिर ये बात कविता ही नहीं तमाम विधाओं पर भी लागू होगी. फिर विधाएं और कलाएं ही क्यों, मनुष्य पर भी तो यही लागू होगा. तो इस बुनियादी गुण के थ्रेड के सहारे देखें कि वो कविता से लेकर मनुष्य होने तक और मनुष्य से कविता तक जाता है. दूसरे शब्दों में कविता में निहित ईमानदारी में रचनाकार ही रिफ़लेक्ट होगा. या रचनाकार का ईमान कविता में रिफ़लेक्ट होगा. हिंदी की महत्त्वपूर्ण कवि कात्यायनी की एक कविता के हवाले से एक अहम बात को याद करें-  फ़िलहाल कुछ निराशा-भरी कविताएँ/ लिखी जानी चाहिए/ और ग़लत समझे जाने का जोखिम/ मोल लिया जाना चाहिए/ ईमानदारी एक बार फिर कविता की/ बुनियादी शर्त बनाई जानी चाहिए.

अदनान के इस संग्रह में ऐसी कविताएँ हमें पढ़ने को मिलती है जो अपने अतीत अपने घर गांव देहात और मां और अब्बा और बच्चों और ग्राम्य संसार की कोमल, मर्मस्पर्शी स्मृतियों का स्वप्नलोक सी बुनती है. और इसकी एक स्वप्नकथा भी है जिसमें वो कहते हैं- घर एक सूखा पत्ता जो रात भर खड़खड़ाता है मेरे सिरहाने...यह लंबी कविता अपने अंतर्निहित सौंदर्य से नहीं अपने संगीत से भी हमें हैरान करती रहती है. एक घर की कथा एक जीवन और स्मृतियों का एक जीवंत समुच्चय जैसे यातना और ख़ुशी का एक मिलाजुला गान है, जिसमें कई तानें निबद्ध हैं. एक दूसरे को ओवरलैप करती हुई. एक दूसरे में गुम होती हुई और फिर से प्रकट होती हुई. और फिर हमें सुनाई देती है एक नीरस शाम की सिम्फ़नी.

 

एक नीरस शाम की सिम्फ़नी बज रही है जैसे

अँधियारा, जूँ बिहान का धोखा दे रहा है...

(पृ 50)

 

अदनान की अपने अब्बा की स्मृति में लिए लिखी छाता कविता पढ़ते हुए एक देहरी पर दीवार के सहारे रखा मक़बूल फ़िदा हुसैन का छाता यादा आ जाता है और याद ही क्यों वह खुलने लगता है और अपने ज़माने की बेरहमी पर तना काला छाता बन जाता है. इसी तरह हमारा साबका एक और असाधारण कविता से होता है. जिसका शीर्षक है गमछा. ऐसे समय में जब पराजित, हताश, कुछ घोषित-अघोषित समझौतों की ओर बढ़ती, बदली हुई मनःस्थितियों के सेमेन्टिक्स, संकेत और प्रकट व्यवहार, साहित्यिक-सांस्कृतिक मुख्यधारा में सघन होने लगे हैं, तब अदनान की 2015 में लिखी की ये कविता एक ख़ास याददिहानी की तरह आती है. जिसकी आख़िरी लाइनों में वो कहते हैं-

 

गांव से हज़ारों मील दूर

इस महानगर में

जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ

तो उदास और कड़े दिनों के साथी

अपने गमछे को उठाता हूँ

और उसे ओढ़ लेता हूं

क्यूँकि मुझे यक़ीन है

इस गमछे पर

इसके एक-एक रेशे पर

जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है

 

और सच कहूँ

तो एक पुरबिहा के लिए गमछा

महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर नहीं है

बल्कि उसके कंधों पर

बर्फ़ की तरह जमा

उसका समय भी है.

(पृ 17)

अदनान के काव्यात्मक स्वर की ईमानदारी का निर्माण करने वाले तत्व आख़िर कौन से हैं. बहुत सारी कविताओं से भरे इस संग्रह को बार बार उलटने पलटने कविताओं को बार बार देखने के बाद ये तत्व हमें नज़र आते हैं- सबसे पहला है साहस, मासूमियत, सच्चाई को बयान करने का हुनर, अपनी पहचान के प्रति एक अटूट ज़िद, अपने मुलुक अपने देस अपनी मिट्टी के प्रति गहरा प्रेम, गहरी अंतर्दृष्टि, एक व्यापक समझ, भाषा की सादगी और विचार की दृढ़ता. एक अदद ईमानदारी का निर्माण हंसी-ठट्ठा नहीं है, अनगिनत अणुओं से उसकी रचना होती है. वे अणु जो शब्द, भाव, दृष्टि, बोध और विवेक में निहित होते हैं. और वे उन अलग अलग तत्वों क निर्माता होते हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया हैं. कविता में ईमानदार हो पाना बहुत पेचीदा बहुत कठिन सा काम है और लिहाज़ा दुर्लभ भी. अदनान को इस लिहाज़ से सचेत भी रहना चाहिए और होशमंद भी कि वे इस दुर्लभ भूगोल के चुनिंदा कवि-नागरिकों में से एक हैं. उनके रास्ते और चक्करदार होंगे और इम्तहान और कड़े. फिर एक रोज़ वह क्षण कला का प्रकाशित हो उठेगा जैसे हमारे प्यारे हमारे वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी अपनी एक कविता कोरा काग़ज़ में बताते हैं- आज कवि नहीं रहा मनुष्य बन गया/ साधारण हो गया हो गया सादा/ कोरा कागज रह गया.

और आख़िर में अदनान के संग्रहठिठुरते लैम्प पोस्ट की पहली कविता फ़जिर की चंद लाइनें उस अज़ान के नाम जिसके बारे में कभी सुदीप बैनर्जी ने लिखा था कि समतल नहीं होगा कयामत तक/ पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा/ ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग/ इबादतगाह की आख़िरी अज़ान/ विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई.

 

फ़ज़िर की अज़ान

बस होने ही वाली है

और मैं सोच रहा हूँ

कि ऐसा कब से है

और क्यूँ है

कि मेरे गाँव के तमाम-तमाम लोगों की घड़ियाँ

आज भी

फ़ज़िर की अज़ान से ही शुरू होती हैं.

***

 

  

शिवप्रसाद जोशी   
कवि-पत्रकार-विचारक शिवप्रसाद जोशी देहरादून में रहते हैं।