Wednesday, April 25, 2018

त्रिपुरा: यह किसकी हार है? - धीरेश सैनी


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हिंदुस्तान का नैशनल मीडिया त्रिपुरा का जिक्र पहले शायद ही कभी करता हो लेकिन एक-दो साल से वह भारतीय जनता पार्टी के `ऑपरेशन त्रिपुरा` का हिस्सा था तो वहां की खास एंगल की खबरें भी अखबारों और चैनलों पर दिखाई देने लगी थीं। शेष भारत के लिए इस छोटे से गुमनाम राज्य में लंबे समय से सरकार चला रही बाद माकपा की अगुआई वाले लेफ्ट फ्रंट की हार के बाद मीडिया सीधे-सीधे भाजपा के जश्न में शामिल हो गया था।

इस उपेक्षित किए जाते रहे छोटे से खित्ते की जीत को भाजपा और मीडिया इतना ज्यादा महत्व दे रहे थे तो इसकी वजह भी साफ थी। भाजपा और कॉरपोरेट मीडिया दोनों को इसमें कोई संदेह नहीं रहा है कि देश और राज्यों के स्तर पर उसकी विपक्षी पार्टियां कहने को भले ही कांग्रेस व कई क्षेत्रीय पार्टियां हों पर वास्तव में विचार और नीतियों के लिहाज से कोई विपक्ष है तो वह सिर्फ वाम है। तो त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की हार को वाम के सफाये के तौर पर पेश किया गया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो इस हार के आधार पर दावा किया कि वामपंथियों को देश में कोई पसंद नहीं करता है।

मीडिया में बार-बार जिस शोर को दोहराया गया, वह यह था कि वाम मोर्चा सरकार ने इतने बरसों के शासन में त्रिपुरा को विकास से दूर रखा। विकास इन दिनों जिस शै का नाम है, उस आधार पर यह आलोचना की जाती तो बात अलग थी पर बार-बार इस बात पर जोर दिया गया कि त्रिपुरा में न इलाज की सुविधा है, न शिक्षा की। यह भी दोहराया जाता रहा कि त्रिपुरा में गांवों तक न सडकें पहुंची हैं और न बिजली-पानी। कई बार तो यह तोहमत त्रिपुरा की राजधानी अगरतला पर भी थोपी गई। जो त्रिपुरा में रहे हैं और जिन्होंने हवा के रुख के हिसाब से अपनी राय बदलना नहीं सीखा है, वे कहेंगे कि यह झूठ है। 2013 तक कई साल अगरतला में रहते हुए और इस दौरान त्रिपुरा के विभिन्न इलाकों में जाने के अवसर के मद्देनज़र मेरे अनुभव इस लिहाज से भिन्न रहे हैं। सबसे पहले तो उस छोटे से सुंदर और प्यारे से शहर की सादगी भरी छवि ही मन में उभरती है जो दूसरी कई राजधानियों की तरह आतंकित करने के बजाय सहज रिश्ता बनाता है। बेंगलुरु में रहकर लंदन और मुंबई में रहकर न्यूयॉर्क के लिए तडपने वाले बीमारों की इस शहर में कुछ भी न मिल पाने की झूठी शिकायतों पर क्या कहा जा सकता है?  

स्वास्थ्य क्षेत्र का सत्य 

जैसा मुझे याद आ रहा है, अगरतला शहर में दो सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं गोविंद बल्लभ पंत हॉस्पिटल एंड अगरतला गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज (जीबी के नाम से मशहूर) और दूसरा त्रिपुरा मेडिकल कॉलेज। दोनों में मुझे जाना पड़ा। शहर के बीच में स्थित इंदिरा गांधी मेडिकल हॉस्पिटल में भी मैं इलाज के लिए गया। भारी भीड़ के बावजूद इन अस्पतालों में डॉक्टर और स्टाफ हमेशा ड्यूटी पर दिखाई दिए। त्रिपुरा सरकार डॉक्टरों को एनपीए (नॉन प्रैक्टिसिंग अलॉएंस) नहीं दे पाती थी इसलिए डॉक्टर शाम के वक़्त गैर ड्यूटी टाइम में प्राइवेट क्लीनिक चलाने के लिए स्वतंत्र होते थे। जाहिर है कि इस तरह शहर में फीस लेकर भी विशेषज्ञ डॉक्टर बड़ी संख्या में उपलब्ध थे। हालांकि जिन राज्यों में सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों को एनपीए मिलता है, वहां भी उनमें से अनेक के प्राइवेट प्रैक्टिस और प्राइवेट नर्सिंग होम्स चलते ही हैं। इस मामले में केंद्रीय सरकार की सेवा में काम करने वाले डॉक्टर (दिल्ली तक में) अपवाद नहीं हैं। अंतर यह है कि अगरतला में एनपीए न मिलने की वजह से प्राइवेट प्रैक्टिस की छूट का अर्थ यह नहीं था कि डॉक्टरों को सरकारी ड्यूटी में कोताही बरतने की छूट हो। यही बात उन्हें नाराज करती थी।
त्रिपुरा के राजधानी से दूरस्थ इलाकों के स्वास्थ्य केंद्रों तक डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ की ड्यूटी सुनिश्चित की गई। डॉक्टरों को शुरुआती चार साल ग्रामीण इलाकों में सेवा करने के लिए बाध्य किया गया। अपने इलाकों के स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली देख चुके हमारे जैसे लोगों के लिए खुशी की इस बात पर वहां डॉक्टर और नर्स हमेशा नाराज रहे। यह जरूर था कि अगरतला में मेदांता मेडिसिटी नहीं था। लेकिन, अगरतला में प्राइवेट नर्सिंग होम तो थे। कलकत्ते के डॉक्टर भी वहां उसी तरह आते थे जैसे शिलॉन्ग में गुवाहाटी के और मेरठ में दिल्ली के डॉक्टर खास दिनों में आते हैं।
यूं वहां फाइव स्टार होटल क्लचर का भी एक अस्पताल खुल चुका था और कम से कम हमारे अनुभव उसे लेकर बहुत खराब रहे थे। बच्चे को फिट्स आने पर हम वहां के न्यूरोलोजिस्ट की लिखी दवाएं उसके निर्देश के मुताबिक तुरंत शुरू कर चुके होते, अगर डॉ. रामप्रकाश अनत और लालटू जी सख्ती से यह सलाह नहीं देते कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर की सलाह के बाद ही कोई दवा दी जाए। औऱ हम हैरान थे कि अगरतला के जीबी पंत से लेकर बेंगलुरू के निम्हान्स और दिल्ली के एम्स तक यही कहा गया कि बच्चे को किसी दवा पर लाना, उसे जीवन भर अंतहीन समस्याएं सौंप देना होता। इस विश्वास की वाजह ही थी कि एक साल से भी कम उम्र का बच्चा मेरी लापरवाही की वजह से बुरी तरह चोट खा बैठा था तो उसके ऑपरेशन के लिए जीबी जाने का फैसला लेने में जरा भी झिझक नहीं हुई थी। लेकिन, जिन लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं चौपट कर मेदांता मेडिसिटी जैसे होटलनुमा हस्पतालों को तरजीह देना ही विकास का पैमाना हुआ करता है, उन्हें तो यह समझाना संभव नहीं है कि ऐसे अस्पतालों का जाल फैल जाने के बावजूद उत्तर भारत में मामूली बुखार तक से मरने वालों का सिलसिला टूटता नहीं है।


सड़क-पानी

इस झूठ पर कि त्रिपुरा में गांवों को सड़कें और बिजली-पानी मयस्सर नहीं हैं, यही कह सकता हूं कि त्रिपुरा के सुदूर गांवों तक की सड़कों पर मैं घूमा हूँ। टिन शेड के घरों में भी बल्ब की रोशनी और पानी देती टोटियां देखी हैं। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विकसित हरियाणा जैसे राज्यों में आज तक महिलाओं के सिरों से पानी भरी टोकनियां और घडे नहीं उतरे हैं। यह भी कि पानी उत्तर के दोआबे के गांवों में गहराई पर चला गया है और इतना जहरीला हो गया है कि कैंसर फैलाने का कारण बन गया है।

शिक्षा का सच

त्रिपुरा की निवर्तमान वाम मोर्चा सरकार पर गांवों खासकर जनजातीय लोगों तक शिक्षा न पहुंचाने के आरोप के शोर में सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि भाजपा की सत्ता वाले आदिवासी बहुल राज्यों ही नहीं, कथित मुख्यधारा वाले विकसित राज्यों में पिछले कुछ सालों में नए सरकारी स्कूल खुलना तो दूर, कितने स्कूल बंद किए जा चुके हैं। उच्च शिक्षा का जिस तरह निजीकरण किया जा रहा है, उसके दुष्परिणाम कुकुरमुत्ते की तरह उग आए इंजीनियरिंग कॉलेजों के रूप में भी देख सकते हैं। विश्वविद्यालयों की जो दुर्गति की जा रहा है और जेएनयू जैसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों को जिस तरह निशाना बनाया जा रहा है, किसी से छिपा नहीं है। मीडिया अपने इस शोर के बीच जरा त्रिपुरा की साक्षरता दर पेश करने का साहस भी दिखाता और बताता कि कोई राज्य जहां की सरकार `शिक्षा विरोधी` वाम मोर्चा चला रहा हो, कैसे साक्षरता में अव्वल ठहरता है। त्रिपुरा में जनजातियों के बीच शिक्षा के अधिकार के लिए वाम मोर्चा का योगदान ऐतिहासिक रहा है। वहां की राजशाही से लेकर लोकतंत्र स्थापित हो जाने के बाद तक दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी शख्सियतों के नेतृत्व में चलाई गई जनशिक्षा समिति की मुहिम में वाम शामिल था।
हकीकत तो यह है कि त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने सीमित संसाधनों के बावजूद दूर-दराज के इलाकों तक स्कूल और उनमें शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित की। स्थिति तो यह है कि वाम मोर्चे की हार की समीक्षा करते वाम नेताओं को भी लगता है कि राज्य में शिक्षा के प्रसार से जिस तरह शिक्षित युवाओं की संख्या बढी, उस लिहाज से उन्हें उपयुक्त रोजगार नहीं दिया जा सका। नया शिक्षित वर्ग परंपरागत कामों में खपा नहीं रह सकता था और इतने रोजगार पैदा कर पाना राज्य सरकार के बूते की बात नहीं थी। भाजपा ने वादा किया कि त्रिपुरा में उसकी सरकार आई तो हर घर में रोजगार दिया जाएगा। गौरतलब है कि भाजपा की यह वादाबाजी नई नहीं है। उसने केंद्र में सरकार बनाने के लिए 2014 के लोकसभ चुनाव में हर साल दो करोड रोजगार देने का वादा किया था और तीन साल के बाद उसी पार्टी की सरकार के प्रधानमंत्री ने पकौडे बेचने को रोजगार की संज्ञा दे दी है। त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव के दौरान ही केंद्र सरकार के प्रतिनिधि सरकारी नौकरी को गुलामी और भीख भी करार दे रहे थे। यहां तक कि केंद्र सरकार ने अपनी असफलता छिपाने के लिए यह तक ऐलान कर दिया था कि रोजगार के आंकडे बताए नहीं जाएंगे। सवाल है कि रोजगार को लेकर इस हद तक झूठ बोलने वाली भाजपा पर त्रिपुरा के युवाओं ने यकीन क्यों किया!
वाम पर एक बेशर्मी भरा आरोप लIता रहा है कि वह गरीबी पर फलती-फूलती है। गरीबों के लिए योजनाओं और पहलकदमी की बात करें तो त्रिपुरा की वाम सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह आम गरीब लोगों की न्यूनतम जरूरतों को ध्यान में रखकर चल रही योजनाओं के क्रियान्वयन के मामले में भी बेहतरीन रही है। मनरेगा और दूसरी योजनाओं का पैसा रिलीज करने में केंद्र के निराशाजनक रवैये के बावजूद त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने गरीब तबके से मुंह नहीं मोडा। बंगाल की हार के बावजूद वाम मोर्चा ने त्रिपुरा में पिछले चुनाव में जीत का सिलसिला बरकरार रखा था तो इस बात के लिए माणिक सरकार और त्रिपुरा के वाम नेताओं की प्रशंसा हुई थी कि उन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में भी अपने रास्ते से समझौता नहीं किया। माकपा के केंद्रीय नेताओं ने भी कहा था कि विकास का अगर कोई जनपक्षधर मॉडल है तो वह त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की नीतियों वाला मॉडल ही है।

गरीब बनाम नया मध्यवर्ग

सवाल यह है कि त्रिपुरा में इस हार के बाद माकपा जैसी वाम पार्टियों का अपनी `गरीब परवर` वाली छवि पर कितना भरोसा रह पाएगा। लगता है कि यह सवाल माकपा के भीतर ही काफी हलचल मचाए हुआ है। हार के नतीजों के बाद माकपा से जुडे रहे कुछ बुद्धिजीवियों ने इस तरह के संकेत भी दिए। एक ने लिखा कि बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य को विकास के लिए फ्री हैंड नहीं दिया गया था, जिसके नतीजों से सबक नहीं लिया गया। दिलचस्प यह है कि बुद्धदेव ने नये मध्यवर्गीय युवाओं की आकांक्षाओं को तुष्ट करने के लिए कथित विकास की तरफ बेहद तेज कदम बढाए थे। इस तरह कि माकपा का भरोसा रखने वाला वंचित तबका बुरी तरह निराश हुआ था। बंगाल में न खुदा ही मिला, विसाले सनम की स्थिति झेल चुकने के बावजूद इस तरह की बातें चौंकाने वाली हैं। दरअसल, त्रिपुरा में भी माकपा के भीतर से यह बात उठ रही है कि गरीबों के बीच चलाई गई योजनाओं से नया शिक्षित व नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है जिसकी आकांक्षाएं समझने या पूरा कर पाने में पार्टी सफल नहीं हुई है। मध्य वर्ग की आकांक्षाएं नई आर्थिक नीतियों से पैदा हो रहे भ्रष्टाचार और लालच के आकर्षण से संचालित हैं, उन्हें समझ भी लिया जाता तो क्या उन्हें साकार करने में जुटा जा सकता था?
वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन नहीं मिल पाने की राज्य कर्मचारियों की नाराजगी तो कोई छुपी बात नहीं थी। लेकिन, यह भी छुपा हुआ नहीं था कि ये सिफारिशें लागू होतीं तो इसकी कीमत भी कमजोर तबकों को ही चुकानी पडती। पिछले चुनाव में भी यह मुद्दा था पर तब माकपा यह समझाने में सफल रही थी कि कसूर केंद्र का है। केंद्र ने राज्य की मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपये कम दिए। वाम सरकार का जोर यह समझाने पर भी था कि वेतन के रुपयों से ज्यादा महत्वपूर्ण कर्मचारियों की गरिमा और सरकारी विभागों की सुरक्षा है जिसके लिए वह प्रतिबद्ध है। माणिक सरकार यह समझाने पर जोर देते थे कि त्रिपुरा में न सरकारी विभाग खत्म किए जा रहे हैं, न छंटनी की जा रही है और न कर्मचारियों को उत्पीडन का शिकार बनाया जा रहा है और हर हाल में महीने की पहली तारीख को वेतन का भुगतान किया जा रहा है। बहरहाल, इस बार वाम मोर्चा की हार के बाद त्रिपुरा की नई सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए एक तीन सदस्यीय समीक्षा पैनल गठित कर दिया है। क्या होगा, किसे लाभ होगा और किसे खमियाजा भुगतना होगा, यह बाद में पता चलेगा पर फिलहाल यह जानना दिलचस्प होगा कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए गठित किए गए समीक्षा पैनल के काम में यह भी शामिल है कि ग्रुप डी की नौकरियां बनी रहनी चाहिए या नहीं।

स्थिरता, शांति और विकास   
2012 में इस रिपोर्टर की जंपुई हिल्स (त्रिपुरा) की यात्रा
नयी दुनिया में अमीरों के मन में ही नहीं बल्कि निम्न मध्य वर्ग तक में गरीबों के प्रति नफरत बेहद बढ चुकी है। शहरी बंगाली तबका पहले ही वाम को गरीबों की हमदर्द या विकास विरोधी मानते हुए दिल से पसंद नहीं करता था। इस चुनाव में इलीट बंगाली और नया मध्य वर्ग भारतीय जनता पार्टी का उत्साह से टूल बना और वंचित तबका भी आक्रामक प्रचार का शिकार हुआ। ऐसे में मामला ज्यादा पेंचीदा है: कि माकपा की अगली रणनीति किस लाइन पर भरोसा जताएगी? कि क्या कोई प्रग्रेसिव राज्य सरकार सिर्फ सब्सिडी का वितरण सुनिश्चित करके दमनकारी केंद्र की इच्छा के विरुद्ध सर्वाइव कर सकती है? हालांकि, त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की उपलब्धियों को सिर्फ यहीं तक सीमित कर देखना ज्यादती ही होगी। एक बुरी तरह डिस्टर्ब रहे उपेक्षित राज्य जहां पर्यटकों की आवाजाही भी नहीं थी, को केंद्र की सरकारों के विरोध के बावजूद स्थिरता, शांति और विकास के रास्ते पर ले जाने का वाम मोर्चा सरकार का कारनामा ऐतिहासिक है।

यह भी ध्यान रखना होगा कि भौगोलिक रूप से त्रिपुरा दूसरे राज्यों की तरह सडक और रेल से जुडा हुआ नहीं था। कुछ सालों पहले तक अगरतला पहुंचने के लिए एक छोटी रेलवे लाइन पर निर्भर रहना पडता था जो गुहावाटी से अगरतला तक बेहद लंबे रास्ते से पहुंचती थी। गुहावाटी से अगरतला पहुंचने वाला सडक मार्ग भी बेहद लंबा और कठिन है। कोलकाता और अगरतला के बीच बांग्लादेश पडता है। पहले कोलकाता से अगरतला पहुंचने का जो सुगम मार्ग था वह अब बांग्लादेश का हिस्सा है। ऐसे में अगरतला से कोलकाता के बीच यातायात का आसान रास्ता वायुमार्ग ही है जिसकी अपनी सीमाएं हैं।
इन्हीं परिस्थितियों में त्रिपुरा सामाजिक सूचकांकों के लिहाज से आगे ही रहा। प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से वह उत्तर पूर्व के राज्यों में शीर्ष पर पहुंचा। फल, सब्जी, दूध आदि के उत्पादन में आत्मनिर्भर इस राज्य से कभी किसानों की आत्महत्या की खबरें नहीं आईं, न ही भूख से मौत की। अकारण नहीं है कि नई सरकार के विकास के शोर के बीच ये आशंकाएं भी शुरु हो गई हैं कि आने वाले दिनों में यह राज्य भी किसानों की आत्महत्या के मामले में अपवाद नहीं रहेगा। सोशल मीडिया पर पी साईंनाथ के नाम से इस आशंका वाला बयान काफी वायरल भी हुआ है।

प्राकृतिक संसाधनों पर नज़र 

यह भी याद रखना होगा कि त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने जो कुछ किया, राज्य के वन और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की यथासम्भव रक्षा करते हुए किया। नए मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब इसी उपलब्धि को शिकायत के तौर पर गिनाते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में संसाधनों की कमी न होने के बावजूद विकास नहीं हुआ है। गौरतलब है कि त्रिपुरा में जंगल का मतलब सिर्फ चीड़ के जंगल नहीं हैं बल्कि वहां साल, सागौन आदि दूसरे पेड़ों के वन भी मौजूद हैं तो इसलिए कि रबर की खेती को बढ़ावा देने के बावजूद परंपरागत वनों व पहाड़ों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए वाम मोर्चा सरकार यथासंभव प्रतिबद्ध रही। तेल, गैस आदि खनिज संपदा हासिल करने के लिए भी गेल जैसी सरकारी संस्थाओं का ही सहारा लिया गया। अब विकास के नाम पर वनों और खनिज संपदा के दोहन में देसी-विदेशी कंपनियों को छूट की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। भाजपा शासित दूसरे आदिवासी बहुल राज्यों के लूट-खसोट और दमन के अनुभव हमारे सामने हैं।


केंद्र का रवैया

बंगाल की ज्योति बसु सरकार में वित्त मंत्री रहे अर्थशास्त्री और लेखक अशोक मित्र का दशकों पहले का यह कथन भारतीय गणतंत्रात्मक व्यवस्था की आज भी पोल खोल रहा है कि राज्य सरकारें बहुत हुआ तो डिग्नीफाइड म्यूनिस्पेलिटीज हैं। केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा की सरकार आने के बाद तो यह विश्लेषण भी बेकार हो गया है। यहभी नहीं कहा जा सकता है कि किसी राज्य में गैर भाजपाई सरकार की डिग्निटी भी सुरक्षित रह सकती है। ऐन दिल्ली में केजरीवाल सरकार को लगातार रौंदने और अपमान की कोशिशों यह तो समझा हही जा सकता है कि त्रिपुरा में वामपंथी सरकार को गिराने के लिए क्या नहीं किया गया होगा। इसी साल गणतंत्र दिवस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री माणिक सरकार का संदेश रिकॉर्ड कर लेने के बाद दूरदर्शन ने प्रसारित करने से इंकार कर दिया जाना तो एक बानगी भर था।

ट्राइबल और बंगाली
असल में माकपा के लिए भी यह चुनाव ऐसा पहला अनुभव रहा होगा। चुनाव से पहले ही राज्य को जबरन हिंसा में झोंक दिया गया था। माणिक सरकार ने अपने गणतंत्र दिवस के संदेश में यही आशंका जाहिर की थी और फासिस्टों से चौकन्ना रहने की अपील की थी। `ट्राइबल बनाम बंगाली` यह मुद्दा त्रिपुरा में बेहद संवेदनशील रहा है। त्रिपुरा ने इसी मसले को लेकर भयंकर रक्तपात और आतंक के दौर भी देखे हैं। त्रिपुरा में बंगाली लोग पहले अंग्रेजों के साथ और फिर विभाजन के वक्त पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से विस्थापित होकर आए हैं और यहां की सत्ता और संस्कृति पर हावी हुए हैं। दमन के आरोपों के बावजूद एक बडा सच यह है कि माकपा ने ही इस खाई को यथासंभव पाटने की भरसक कोशिशें की हैं। त्रिपुरा में सीएम पद तक पहुंचे एकमात्र ट्राइबल दशरथ देब भी माकपा से ही थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार बनी थी तो केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार व राज्य के चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) का गठन किया गया था। ट्राइबल्स के जंगल-जमीन के अधिकार सुनिश्चित करने जैसे कामों के चलते भी ट्राइब्लस एरिया में माकपा का आधार मजबूत था। लेकिन पिछले चुनाव में ट्राइबल एरिया में 20 में से 19 सीटें जीतने वाला वाम मोर्चा इस बार एक भी सीट नहीं जीत सका। भाजपा ने अलग ट्राइबल राज्य के लिए संघर्षरत रहे एक विवादास्पद `चरमपंथी` संगठन से चुनावी गठबंधन किया था। चुनाव से पहले ही हिंसक हालात पैदा कर दिए गए थे जो भाजपा की जीत के बाद और भयावह शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। वाम मोर्चा अनचाही परिस्थितियों में फंस चुका था। ट्राइबल्स की बोली कोरबरोक की लिपि को लेकर चले आ रही नाराजगी और अलग राज्य की मांग वाले संगठन के असर को माकपा भांप पाने में भी नाकाम रही। आतंक के दौर को याद दिलाने वाले भाषण ग्रामीण बंगाली समाज के बीच भी बेअसर रहे। जिस पीढी ने उस भयावह दौर को देखा ही नहीं था, उस पर ऐसे भाषण बेअसर रहने ही थे। लेकिन, कमाल की बात यह रही कि बंगाली समाज ने भाजपा के चुनावी गठबंधन को भी आसानी से पचा लिया। शायद उसी प्रचार और समझ के चलते जिससे हिंदी प्रदेशों का `हिंदू` अभिभूत रहता आया है और तमाम विरोधाभासों के बावजूद भाजपा की झोली में चला जाता है।


सेक्युलर संस्कृति

उस्ताद राशिद खान के साथ माणिक और उनकी पत्नी पांचाली (नज़रुल कला केंद्र)
गौरतलब है कि देश के बंटवारे के दौरान विस्थापित होकर भारत आए पंजाबियों की तरह त्रिपुरा का विस्थापित हिंदू बंगाली भी साम्प्रदायिकता का बेहद संभावित लक्ष्य था। लेकिन, यह वाम मोर्चा सरकार की सांस्कृतिक मुहिम का ही कारनामा था कि त्रिपुरा का बंगाली समुदाय उस तरह आक्रामक साम्प्रदायिक दिखाई नहीं देता था या कम से कम पिछले सात दशक में वह इस संकीर्णता का उस तरह शिकार नहीं था जिस तरह विस्थापित होकर आया उत्तर भारत का पंजाबी समुदाय। बांग्लादेश की सीमाओं पर बाघा बोर्डर जैसे उन्मादी माहौल के बजाय सहज स्थिति का श्रेय भी वाम मोर्चा सरकार की सांस्कृतिक मुहिम को दिया जा सकता है। दोनों देशों और विभिन्न समुदायों-संस्कतियों के बीच आदान-प्रदान वाले सुरुचिपूर्ण सांस्कतिक उत्सव आम बात थी और इनमें मुख्यमंत्री (अब पूर्व)
माणिक सरकार की उपस्थिति भी। लेकिन, लगता है कि संघ के लंबे अभियानों और देश में सरकार के चलते भाजपा की आक्रामक नीतियों ने त्रिपुरा की इस सांस्कृतिक परंपरा में सेंध लगा दी है। आशंका यही है कि त्रिपुरा में नयी सरकार के बाद इस परंपरा पर निर्णायक हमले होंगे।

निर्ममता, नाउम्मीदी और हताशा?

यह भी गौर करना चाहिए कि क्या यह वाकई कोई लोकतांत्रिक चुनाव था और यह कि लोकतंत्र भारत में सचमुच के चुनावों के लिए कितनी गुंजाइश बची है। माणिक सरकार की सीट के मतों की गिनती के दौरान हुए ड्रामे और ईवीएम की विश्वनसीयता पर सवालों को छोड भी दें तो जरा चुनाव से पहले के घटनाक्रम पर नजर डालते हैं। पूरी की पूरी कांग्रेस हाईजैक की जा चुकी थी। क्या सत्ता और पैसे के दुरुपयोग के बिना यह संभव था? सवाल यह भी है कि ऐसी स्थिति में क्या सत्ता परिवर्तन की राजनीति में सफलता की गुंजाइशें बची रह जाती हैं। चुनाव में उतरने वाली वाम पार्टियां पहले ही यह आलोचना झेलती रही हैं कि उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन की जगह सत्ता परिवर्तन को लक्ष्य बना लिया है और बुर्जुआ व्यवस्था में उनकी ऐसी नियति सुनिश्चित है। स्वाभाविक है कि त्रिपुरा के नतीजों के बाद फिर यह बात उठ रही है कि संसदीय प्रणाली हर क्रांतिकारी राजनीतिक दल को अंततः बर्जुआ रेडिकल पार्टी बनाकर आत्मसात करने में देर नहीं लगाती है और धीरे-धीरे उसके कैडर को भ्रष्ट करती है। उसके नेताओं को भी  कामप्लिसेंट (व्यवस्था अनुवर्ती) बनाने में देर नहीं लगाती।
त्रिपुरा में वाम मोर्चा सरकार की हार के बाद निर्मम आलोचनाओं और विश्लेषणों से गुरेज नहीं होना चाहिए। जो हुआ, उसकी आशंकाएं तो पिछली जीत के बावजूद छुपी हुई नहीं थी जिनसे पार पा न पाने की नाकामी से वाम मोर्चा इंकार नहीं कर सकता है। सबसे बडी नाकामी तो यह भी है कि माकपा माणिक सरकार का विकल्प पेश नहीं कर सकी। त्रिपुरा के पिछले चुनाव के बाद समयांतर में ही छपे अपने लेख का यह वाक्य दोहराना जरूरी लग रहा है- ``तमाम चुनौतियों के साथ लेफ्ट की सबसे बड़ी चुनौती इस वक्त यह है कि वह वृद्ध हो रहे माणिक सरकार जैसा तपा-तपाया ईमानदार, कल्पनाशील और यर्थावादी नेता कमान संभालने के लिए तैयार रखे।`` त्रिपुरा में वाम मोर्चा ने नृपेन चक्रवर्ती के बाद दशरथ देब और उनके बाद माणिक सरकार जैसे मुख्यमंत्री दिए जिनकी अपनी छवि लेजेंड्री रही। हालांकि खुद माणिक सरकार अपनी छवि को बहुत महत्व दिए जाने को खारिज करते रहे हैं। 2013 के चुनाव की जीत के बाद उन्होंने कहा था, ``इतिहास में व्यक्ति की एक भूमिका तो होती है, लेकिन व्यक्ति की भूमिका इतिहास से बड़ी नहीं होती है। जनता का संगठित आंदोलन ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है और मैं भी उसी आंदोलन का हिस्सा हूं।`` लेकिन यह भी सच है कि नेता के व्यक्तित्व जो उसके विचारों और कामों से ही बनता है, का बडा महत्व होता है। अब जबकि शानदार विजय अभियानों के बाद यह काफी निर्णायक किस्म की हार भी माणिक सरकार के नेतृत्व के खाते में ही जाती है तो मुडकर उनकी, उनके समकालीनों और पूर्ववर्ती सहयोगियों, नेताओं की और अंतत: वाम मोर्चा सरकार की अविश्वसवनीय सी लगने वाली उपलब्धियों को आवेग या निराशा में आंखें मूंदकर भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।     
समीक्षाओं और विश्लेषणों के बीच कई प्रगतिशील व उदार बुद्धिजीवियों की ऩफरत भरी मुहिम का जिक्र भी बतौर याददिहानी जरूरी है। जब प्रदेश भर में वाम कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा जारी थी, लेनिन की मूर्तियां गिराई जा रही थीं और राज्यपाल तक विवादास्पद बयान दे रहे थे तो कई प्रगतिशील और उदार कहे जाने वाले बुद्धिजीवी भी इसकी निंदा करने के बजाय वाम मोर्चा की ही निंदा करने में जुटे हुए थे। यहां तक कि माणिक सरकार की ईमानदार और सादगीपूर्ण छवि पर हमले में भी वे आरएसएस से पीछे नहीं थे। जबकि एक सवाल तो यही था कि क्या माणिक सरकार जैसे नेतृत्व की हार किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्म का कारण नहीं है। यह मूलत: मूल्यों और ईमानदारी की हार है। अव्वल तो यह लोकतंत्र की हार है और इस बात का प्रमाण है कि भारत में लोकतंत्र के नाम पर आगे क्या होने जा रहा है। ऐसे में जरा ठहरकर यह महसूस करने के बजाय भ्रष्ट शासक वर्ग की दृष्टिहीनता और उसकी भाषा के उन्माद के उत्सव में शामिल हो जाना विचलित करने वाली स्थिति थी। वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी ने इस पर टिप्पणी भी की थी, ``जिन लोगों के मन में लड्डू फूट रहे हैं, उनका हाल अजीब है। उनके लहजे की चहक, आंखों की चमक, चेहरे के बदलते रंग छिपाए नहीं छिप रहे। अभी वे फुर्ती से कुछ खा, चबा और पी रहे हैं। यह मध्यांतर है। वे फिर से खेल शुरू होने के इन्तिज़ार में हैं।``

(समयांतर, अप्रैल 2018 अंक में प्रकाशित)

Saturday, April 21, 2018

सैम हैमिल, वाइट हाउस से भिड़ जाने वाला कवि



9 May 1943 – 14 April 2018
दोस्त विक्टर इन्फान्ते की पोस्ट से मालूम हुआ कि सैम हैमिल नहीं रहे। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक पोएट्स अंगेस्ट दि वॉर (अब याद नहीं कहाँ की) पब्लिक लाइब्रेरी से पुरानी किताबों की सेल में मैंने शायद दसेक साल पहले ख़रीदी थी। `वाइट हाउस` से भिड़ जाने वाले इस एक्टिविस्ट कवि से यह मेरा पहला परिचय था। वह वाक़या तो अब, जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, `स्टफ़ ऑफ़ लेजंड` है।
2003 में मोहतरमा लॉरा बुश ने `वाइट हाउस` में कवियों की एक संगोष्ठी आयोजित करने का ऐलान किया; निमंत्रण भेजे गए। सैम हैमिल ने न केवल वह निमंत्रण ठुकराया बल्कि इराक़ युद्ध की मुख़ालफ़त में पोएट्स अगेंस्ट दि वॉर नाम की वेबसाइट शुरू की जो एक वैश्विक आंदोलन में बदल गई। इस वेबसाइट पर लगभग बीस हज़ार प्रतिरोध की कविताएँ संकलित हैं। इन्हीं में से कुछ कविताएँ पुस्तकाकार छापी गईं जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है।
हमारे देश में जब चाटुकारिता और सत्ता के पिछलग्गूपन के नए अध्याय रचे जा रहे हैं, सैम हैमिल का जाना और भी तकलीफ़देह है। उन्हें और उनके जज़्बे को सलाम करते हुए उनकी तीन कविताएँ (मूल अंग्रेज़ी से अनुदित) पेश हैं।
-भारत भूषण तिवारी



स्टेट ऑफ़ दि यूनियन, 2003

यरूशलम मैं कभी नहीं गया,
लेकिन शिर्ली बात करती है बमों की.
मेरा कोई ख़ुदा नहीं, पर मैंने देखा है बच्चों को
दुआ माँगते कि बमबारी रुके. वे दुआ माँगते हैं अलग-अलग खुदाओं से.
ख़बर अब फिर वही पुरानी ख़बर है,
जो दुहराई जाती एक बुरी आदत, सस्ते तम्बाखू, सामाजिक झूठ की तरह.

बच्चों ने इतनी अधिक मृत्यु देख ली है
कि अब उनके लिए मृत्यु का कोई अर्थ नहीं.
वे रोटी के लिए क़तार में हैं.
वे पानी के लिए क़तार में हैं.
उनकी आँखें मानों काले चन्द्रमा हैं जिनमें से झाँकता है खालीपन.
हमने उन्हें हज़ारों बार देखा है.
कुछ ही देर में राष्ट्रपति भाषण देंगे.
उनके पास कहने लिए कुछ न कुछ होगा बमों के बारे में
आज़ादी के बारे में
हमारी जीवन पद्धति के बारे में.
मैं टीवी बंद कर दूँगा. हमेशा करता हूँ.
क्योंकि मेरे लिए बर्दाश्त से बाहर है
उनकी आँखों के स्मारकों को निहार पाना.




जेम्स ओस्को अनामरिया की मौत पर

जब उसकी लाश उन्हें
अबानकाइ में
पचाचाका ब्रिज के पास
कचरे के ढेर में मिली,

कौन कह सकता था
कि किसने
उखाड़े थे उसके नाख़ून,

किसने पैर तोड़े,
नोंच ली आँख किसने,
किसने अंततः उसका गला रेता.

कौन कह सकता था
किसने उसे कचरे में फेंक दिया
बोतल में बंद सन्देश की तरह.

कौन कह सकता था
कि वह कौन था
और क्यों

मगर कोई तो है जिसे पता है
कि किसका हाथ गर्दन पर है
और किसका बन्दूक पर.

युवा कवि ने ऐसा क्या कहा था
जो उसे मरना पड़ा?
क्या मौत का दस्ता था
इस ट्रेजेडी का लिखने वाला?

जिसे सीआईए ने प्रशिक्षण दिया हो?
कह नहीं सकते.

कोई तो जानता था
उसकी ज़ुबां के नाज़ुक स्पर्श को
क्योंकि वह कविता के हर स्वर
और हर व्यंजन में
जान फूँक देती.

लोर्का की मृत्यु पर बोलते हुए
उसकी आँख में छलका आँसू
कोई याद करता है
और जन पर बात करते हुए
उसकी आवाज़ की लय

कोई याद करता है उसके ख़्वाब
एंडीज़ के सायों में
एक लोकतांत्रिक संगीत के;
पंखों वाली कविता के.

बेशक, युवा कवि को पता था
कि कविता प्रेम है
और इस दुनिया में,
प्रेम एक ख़तरनाक शै है.


इराक़ में चल रही लड़ाई के तीन साल पूरे होने पर हेडन करूथ के नाम एक ख़त

लगभग चालीस साल हुए
उन सब जंगों के ख़िलाफ कविता लिखने के बारे में
तुमने कविता लिखी थी, हारलन काउंटी से लेकर इटली
और स्पेन. जब तुम्हारी चुनी हुई कविताएँ
आज मिलीं, उनमें से एक यह कविता थी जिसे
फिर पढ़ते हुए मैं ठिठका.

हम तबसे लगातार युद्धरत हैं.
मैं महायुद्ध के दौरान पैदा हुआ
और मैंने भी अपने सारे दुखदायी दिनों में
उस ख़ास अहमकपन
और बेमतलब और लाचार दर्द को जिया
और उसके खिलाफ लिखा है.
क्या उससे एक जान भी बच पाई?
कौन बता सकता है?
बजाय इसके कि ऐसा करने से
मेरी अपनी जान बची.

आह, मैं बता पाता तुम्हें बची हुई जानों
के बारे में. सित्का में थी
वह एक जवान ख़ूबसूरत औरत
जिसके पति ने, जो उसकी कविता से ईर्ष्या
करता था, उसके दोनों पैर
एक रस्सी से बाँध दिए और
फेंक दिया अपनी नाव से.
दक्षिण-पूर्वी अलास्का के उन पानियों में
आपके पास ज़िन्दगी के लगभग १२ मिनट होते हैं.

या ऊटा की दादी अम्मा
जो छंदबद्ध, रूमानी सॉनेट लिखा करती
और एक दिन रात गए
मुझे मोटेल में फ़ोन किया क्योंकि
उसका जबड़ा टूटा हुआ था, और उसकी नाक,
और वह अब भी पी रहा था. या मैं तुम्हें
एलेक्स के बारे में बता सकता हूँ, जो ड्रग्स
से जुड़े जुर्म में उम्रक़ैद काट रहा था
और क्लासिक्स से रूबरू होने पर उसकी आँखें
कैसे चमक उठीं.

हाँ, कविता ज़िंदगियाँ बचाती है.
सारी जंगें घर से ही शुरू होती हैं
युद्धरत आत्म के भीतर.
ना, हमारी कविताएँ नहीं रोक सकतीं
जंग, ना यह जंग और ना कोई और
बल्कि वह जो
अपने अंदर धधकती है.
जो पहला और एकमात्र कदम है.
यह एक
पाक यकीन है, एक कर्तव्य
कवि का शगल.
हम लिखते हैं कविता जो हमें लिखनी चाहिए.


नोट्स:

  1. स्टेट ऑफ़ दि यूनियन: अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्र के नाम दिया जाने वाला सालाना अभिभाषण
  2. दूसरी कविता का सन्दर्भ है प`रू देश के जेम्स ओस्को अनामरिया नामक कवि और एक्टिविस्ट की दिसम्बर 2005 में टॉर्चर के बाद की गई हत्या। प`रू में अबानकाइ एक शहर है जो पचाचाका नदी पर बसा है।
  3. हेडन करूथ (1921-2008): अमेरिका के एक और रेडिकल कवि जिनसे सैम हैमिल प्रभावित रहे।