Saturday, August 1, 2020

लेनिन और हिन्दी पट्टी के अपूर्वानन्द जैसे गुबरैले बुद्धिजीवी : -धीरेश सैनी

सीपीआई से यात्रा शुरू कर चोरी वगैराह विवादों से और कांग्रेस-वांग्रेस से होकर मोटिवेटर टाइप करियर तक पहुँच जाने वाले हिन्दी के सवर्ण बुद्धिजीवी के लिए सबसे ज़रूरी क्या होता है? सेकुलर-साहसी जेस्चर में बात करना और आरएसएस को बार-बार आशवस्त करना कि मैं कुछ भी हूँ पर फ़ासीवाद और पूँजीवाद जिसे सबसे बड़ा दुश्मन मानता है, मैं उस विचार पर दुर्भावना और नफ़रत की जगह से सबसे ज़्यादा हमलावर हूँ। लिबरल्स और फ़ासिस्ट्स दोनों को नामवर सिंह के क्लोन जैसे इन दलालों की ज़रूरत रहती है और प्रगतिशीलों में ये सफलता के मॉडल के तौर पर लोकप्रिय रहते हैं। ये वैचारिक स्पेस में प्रतिरोध की जगह घेरे रहते हैं। थोड़ा बैलेंस दिखने की कोशिश करने वाले अंग्रेजी मीडिया घरानों को भी इन्हें जगह देने में में दिक्कत नहीं होती और हर सेकुलर स्पेस में पैसा और पद हड़पने की कोई भी जगह निकले तो वहाँ हाथ मारने में भी।
देश और दुनिया में इस वक़्त एक बड़ी माहामारी और उसे डील करने के नाम पर ग़रीबों को बेहाल छोड़ दिए जाने की वजह से जो हालात हैं, सब देख रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की कमी, डॉक्टरों-मेडिकल स्टाफ व सफाईकर्मियों तक के लिए पीपीई और मास्क जैसे सुरक्षा उपायों के अभाव और सड़कों पर मार खाते-दम तोड़ते मज़दूरों की बेबसी किससे छुपी है? दुनिया इतनी एकध्रुवीय है कि डबल्यूएचओ को मानवीय आधार पर कुछ सलाहें और आपत्तियां ज़ारी करना महंगा पड़ जाता है। इस तरह पूंजीवादी देश अपने ग़रीब नागरिकों के हत्यारे की भूमिका में निर्द्वंद्व हैं। कहने को, ये देश लोकतंत्र के चैम्पियन हैं।
कल्पना कीजिए कि सोवियत संघ का पतन न होता और दुनिया शक्ति के इस कदर एकध्रुवीय हो जाने से पूंजीवादी और फ़ासिस्ट ताक़तों के चंगुल में न आ गई होती तो क्या ये `लोकतंत्र` अपने ग़रीब नागरिकों के साथ खुलेतौर पर इतनी नृशंसता कर रहे होते। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने अपने उपनिवेश भारत के सैनिकों और यहां की धन-सम्पदा को बेतहाशा झोंक दिया था। भारत के नेताओं और रसूख़दार लोगों ने इस काम में ब्रिटेन की खुलकर मदद की थी। यह प्रचार किया गया था कि ब्रिटेन इस मदद के बदले भारत के प्रति उदार हो जाएगा। हुआ उलटा। ब्रिटेन व फ्रांस दोनों ही अपने उपनिवेशों के प्रति और क्रूर हो गए और उधर अमेरिका भी ज़्यादा ताकतवर होकर उभरा। जाहिर है कि इस विश्वयुद्ध के पीछे एक बड़ी वज़ह उपनिवेशों पर कब्ज़ा बनाए रखकर लूट की होड़ थी।
इसी दैरान लेनिन नाम का शख़्स क्या कर रहा था? आज दुनियाभर में पिट रहे बेसहारा आम मेहनतकश जन की एकता, उसके अंतरराष्ट्रीयवाद की ज़रूरत की सैद्धांतिक स्थापना, अपने देश के जनशोषकों के खिलाफ़ संघर्ष और सर्वहारा सत्ता की स्थापना, विश्वयुद्ध से अलग होकर अपने यहाँ किसानों-मज़दूरों की सत्ता की मज़बूती से लेकर दुनिया भर में शांति और सर्वहारा की सत्ता की ज़रूरत के लिए संघर्षों को प्रेरणा देने जैसे कामों में यह शख़्स दिन-रात जुटा रहा। वह कथित मित्र देशों, ज़ार युग के जनरलों वगैराह की साजिशों से पैदा होते रहे युद्धों से जूझता हुआ देश और दुनिया में एक सर्वहारा नेता, विचारक और स्टेट्समैन के रूप में प्रेरणा पैदा करता रहा। बाद के सालों की अपनी बीमारी और कुछ अप्रिय विवादों के बावजूद।
लेकिन, यह लेनिन ही थे जिन्होंने दुनिया में पहली बार वो काम कर दिखाया जो आज भी नामुमकिन लगता है। लुटेरे अमीरों से संपत्ति छीनकर उसे आम लोगों में वितरित कर देने का काम। अपने जातिवादी संस्कारों से ही ऐसी कल्पना से चिढ़ रखने वाले अपूर्वानंद जैसे करियरिस्टों को छोड़िए, दुनियाभर में आज भी हर पूंजीवादी, तानाशाह, जनद्रोही को यही डर सताता है कि आम किसान-मजदूर, आम मेहनतकश जन एकजुट न हो जाएं, उन्हें नेतृत्व देने वाला लेनिन जैसा कोई विचारक-नेता प्रभावी न हो जाए।
दिलचस्प है कि अपूर्वानंद लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं और दुनिया में लोकतंत्र में जो भी सार रहा और लोकतंत्र में यक़ीन रखने वाले लोग जिस सार को पुन: हासिल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं, उस सार का श्रेय अगर किसी को है तो वह लेनिन को ही है। लेनिन तो शायद यह भी कहते थे कि मज़दूरों का अधिनायकवाद ही सच्चा लोकतंत्र है। आज मज़दूरों की हालत देखिए और ज़रा दुनिया के लोकतंत्रों को परखिए। याद रखिए कि लेनिन ने अपने राष्ट्र के आम नागरिकों की ही संसाधनों में गरिमामय भागीदारी सुनिश्चित नहीं की थी बल्कि दुनियाभर के मज़दूरों की एकता और अंतरराष्ट्रीयवाद पर ज़ोर देते हुए इस दिशा में ठोस कदम बढ़ाए थे।
लेनिन का ही असर था कि मेहनतकशों का लहू चूसने वाले पूंजीवादी तंत्र को `वेलफेयर स्टेट` का रास्ता अपनाना पड़ा था। इस एक शख़्स को हटाकर दुनिया की कल्पना करके देखिए। जो आज हो रहा है, वह आज से पहले इससे क्रूर रूप में हो चुका होता। सोवियत संघ के पतन से पहले और बाद के परिदृश्य को देख लीजिए कि कैसे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लोकतंत्र से गायब कर दिया गया। सरकारों ने बेहतर और पर्याप्त संख्या में सरकारी अस्पताल, स्कूल, यात्रा के संसाधन, खाने-रहने के उपाय सबसे हाथ खींच लिए। यह मांग, यह सपना भी अपराध हो गया। भारत की आज़ादी की लड़ाई और आज़ाद भारत के निर्माण में भी लेनिन के बेशक़ीमती असर को कौन नहीं जानता? भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ही नहीं, उनसे पहले के अशफ़ाक़, आदर्शवादी गणेश शंकर विद्यार्थी, उदारवादी नेहरू किस पर लेनिन के समाजवादी स्वपन का असर नहीं था। लोकतंत्र में जो चीज़ वाकई आम जनता के उत्थान में कारगर रही, वो उसका समाजवादी असर ही रहा जो आज किसी बाधा की तरह निशाने पर है।
कोरोना महामारी की बात करते हुए ही देखें कि सर्वाधिक शक्तिशाली होने का दंभ रखने वाले अमेरिका की सत्ता किस तरह दुनिया के बाकी देशों और अपने ही नागरिकों के लिए कोरोना से बड़ी महामारी साबित हो रही है और क्यूबा जैसा छोटा सा समाजवादी देश ख़ुद पर हमलावर अमेरिका के मित्र ब्रिटेन के कोरोना पीड़ितों को उनका शिप रुकवाकर मदद देता है, उनकी वापसी के लिए हवाई यात्रा का प्रबंध करता है। यह भी दिलचस्प है कि लेनिन के असर के दबाव वाली वेलफेयर स्टेट वाली स्वास्थ्य सेवाएं जिन देशों में जितनी प्रभावी ढंग से बची हैं, वे कोरोना से लड़ने में अपने आक़ा अमेरिका से उतने ही बेहतर रहे हैं।
लेनिन की उपलब्धियों, उनकी ज़रूरत और उनके ज़िक्र से कुंठित होकर मारतोव को पेश किया गया है जिनसे विच्छेद को लेकर लेनिन भी दुखी थे। पिछले दिनों सुभाष गाताडे के एक लेख में पढ़ा था कि उनकी बीमारी की ख़बर पर लेनिन ने आर्थिक मदद की पेशकश भी की थी। बेशक, उस समय भी बहुत से विवाद, असहमतियां और अंतरविरोध भी रहे होंगे पर दुनिया को जनता की गरिमा और बराबरी के लिहाज से सुंदर बनाने में लेनिन के योगदान और उनकी सार्वकालिक उपस्थिति को नकारने की कोशिशें इतनी ओछी हैं कि हिन्दी पट्टी के गुबरैलों के लिए बार-बार इस्तेमाल होने वाली यह पंक्ति भी शरमाने लगी है- `पहुंची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था`।
-धीरेश सैनी
(3  मई 2020 को फेसबुक पर लिखी गई पोस्ट)

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