Friday, May 24, 2013

निर्मला गर्ग को दो उपदेश



[वरिष्ठ कवि निर्मला गर्ग पिछले दिनों एक हिंदी अख़बार में गीतकार और फ़िल्मकार गुलज़ार की प्रशंसा में छपे एक लेख को पढ़कर परेशान हो गईं। लेख में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़ को गुलज़ार जैसे 'युग-पुरुष' के मुक़ाबले हल्का-फुल्का और निम्नतर, गुलज़ार पर किताब लिखने वाले किन्हीं खेतान को महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल के बराबर, और हिंदी के कुछ बड़े कवियों, जैसे शमशेर, रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह को गुलज़ार से थोड़ा ऊँचा ठहराया गया। एक ही वार में तीन पुण्य काम सम्पन्न हो गए : हिंदी साहित्य का महिमामंडन, उर्दू साहित्य का मान-मर्दन और गुलज़ार का राज्यारोहण। प्रतिवाद में निर्मला जी ने लेख लिखा जो मूल निबंध के लेखक के लंबे और कातर से जवाब के साथ छपा। बाद में कुछ संदेहास्पद से 'पाठकीय' पत्र भी छपे। निर्मला जी को साथी लेखकों से अनेक प्रतिक्रियाएँ मिलीं जिनमें से दो बड़ी मार्मिक (या कि मज़ेदार) हैं। ये उनकी अनुमति से यहाँ दी जा रही हैं।]


1.
पहली नसीहत

एक बुज़ुर्ग उर्दू शाइर की मुख़्तसर राय : "गुलज़ार साहब के आगे किसका नाम ले दिया, मोहतरमा! फ़ैज़ साहब बेचारे उस दरजे में कहाँ हैं! गुलज़ार साहब की तो ग़ालिब और मीर से बराबरी बैठती है।" [निर्मला जी ने इनसे गुज़ारिश की थी कि वे गोलमोल बात न करें, साफ़-साफ़ बताएँ इस मामले में क्या सोचते हैं।]

2.
दूसरी नसीहत

[इस लेखक ने निर्मला जी की चुनौती के जवाब में ई-मेल संदेश में निम्नलिखित बिरादराना सलाह दी।]
(चुने हुए अंश)

प्रिय निर्मला जी,

अब ज़िक्रे गुलज़ार : अव्वल तो मज़मून जिस अख़बार में शाया है वो एक जिहादी अख़बार है, वहाँ की रीत से आप वाक़िफ़ हैं। कैसी भयानक और जहालत भरी चीज़ें आये दिन प्रायोजित तरीक़े से वहाँ छपती रहती हैं… हमेशा से उस अख़बार का यही हाल है। आप वहाँ सुधार की उम्मीद छोड़ दें …जहाँ तक गुलज़ार पर मेरी राय का सवाल है, आप बखूबी जानती हैं कि मेरी राय क्या है… पर एक बिरादराना सलाह देने से अपने को बाज़ नहीं रख सकता -- 

कि जिन्हें फ़ैज़ और फ़राज़ नहीं चाहिएँ, गुलज़ार ही चाहिए, उन्हें ऐसा चाहने से रोका कैसे जा सकता है! वे गुलज़ार ही को डिज़र्व करते हैं। मिर्ज़ा कह गए हैं : 'चाहिए अच्छों को जितना चाहिए / ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए!' मुझे तो कुछ ताज्जुब इस बात पर है कि नरसिंह राव (मरहूम) और मनमोहन सिंह ने हिंदुस्तान का जैसा नक़्शा बना दिया है उसमें गुलज़ार को राष्ट्रकवि और गोपीचंद नारंग को राष्ट्रीय साहित्य-चिंतक पद अभी तक क्यों नहीं दिया गया! 

इसकी भी क्या शिकायत कि गुलज़ार साहब की निगाहें अब ज्ञानपीठ पुरस्कार, राज्यसभा, दादासाहब फाल्के पुरस्कार, पद्मविभूषण, निशाने-इम्तियाज़ और ऑस्कर फ़ॉर लाइफ़टाइम अचीवमेंट वग़ैरा पर हैं। कोई हैरानी नहीं कि इनमें से कुछ या प्रत्येक इनाम इन्हें मिल जाए। मौसूफ़ हर सरकार, हर अख़बार और हर नौकरशाही के लिए अपनी उपयोगिता बनाए रखते हैं, हर प्रतिष्ठान को नज़दीक से जानते हैं, उन्हें उनकी हुनरमंदी के बदले ये सब क्यों न हासिल हो! वो गवर्नरी के भी हक़दार हैं। गुजरात उनके लिए बिल्कुल ठीक रहेगा। वह वहाँ वली दकनी की कमी किसी को महसूस नहीं होने देंगे। 

अभी कहीं पढ़ने को मिला कि उन्हें असम विश्वविद्यालय का चांसलर नियुक्त कर दिया गया है, और यह कि उधर के लोग इस समाचार को सुनकर बहुत खुश और आशान्वित हैं। 

आवारा पूँजी के इस ज़माने में पता नहीं कैसी कैसी चीज़ें खुशी और आशा का भेस धरकर आती हैं; खेद, हताशा और शोक की तो जगह ही ख़त्म हो गई है।
...

[इति]

Wednesday, March 27, 2013

युद्ध का जख़्मी शरीर


एक मरणासन्न रिटायर फ़ौजी की आख़िरी चिट्ठीः  पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और पूर्व रक्षा मंत्री डिक चेनी के नाम संदेश
मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद/रूपांतरः शिवप्रसाद जोशी

श्री बुश और श्री चेनी,
इराक़ युद्ध की दसवीं बरसी पर, अपने साथी पूर्व फ़ौजियों के हवाले से मैं ये चिट्ठी लिख रहा हूं. मैं ये चिट्ठी लिख रहा हूं उन चार हज़ार चार सौ अट्ठासी सैनिकों के हवाले से जो इराक़ में मारे गए थे. मैं लिख रहा हूं उन सैकड़ों हज़ारों पूर्व सैनिकों की तरफ़ से जो घायल हुए थे जिन्होंने जख़्म खाए थे और मैं भी उनमें से एक हूं. मैं बुरी तरह घायलों में से एक हूं. 2004 में सद्र शहर में घुसपैठियों के साथ मुठभेड़ में मुझे लकवा हो गया. मेरी ज़िंदगी ख़त्म हो रही है. मरणासन्न मरीज़ के तौर पर मैं अस्पताली देखरेख में जीवित हूं.
मैं ये चिट्ठी लिख रहा हूं उन पतियों और पत्नियों की तरफ़ से जिन्होंने अपना दाम्पत्य खो दिया, उन बच्चों की तरफ़ से जिन्होंने अपने मांबाप गंवा दिए, उन पिताओं और मांओं की तरफ़ से जिन्होने बेटे और बेटियां गंवा दी और उन लोगों की तरफ़ से जो मेरे उन साथी फौज़ियों की देखभाल कर रहे हैं जिन्हें दिमागी चोटें आई थीं. मैं ये पत्र लिख रहा हूं उन पूर्व सैनिकों की तरफ़ से जो अपराधबोध से घिरे हैं और जिन्हें ख़ुद से नफ़रत हो गई है कि उन्होंने जो किया, जिसके वे चश्मदीद थे और जो उन्होंने भुगता और इन सब बातों ने उन्हें आत्महत्या की ओर धकेल दिया और क़रीब दस लाख मृत इराकियों की तरफ़ से भी मैं लिख रहा हूं और उन अनगिनत इराकियों की तरफ़ से जो घायल हुए. मैं हम सबकी तरफ़ से लिख रहा हूं- उस इंसानी मलबे की तरफ़ से जो आपके उस युद्ध के बाद पीछे पड़ा रह गया है, वे सारे के सारे लोग जो अपनी ज़िंदगियां कभी न ख़त्म होने वाले दर्द और दुख में काट रहे हैं.  
आपकी सत्ताएं, आपकी लाखों डॉलरों की निजी दौलतें, आपके जनसंपर्क सलाहकार और आपके विशेषाधिकार और शक्तियां आपके किरदार के खोखलेपन को ढांप नहीं सकतीं. आपने हमें लड़ने और मरने के लिए इराक़ रवाना किया, चेनी महोदय आप एक अनिवार्य सैन्य ड्यूटी से निकल भागे थे और आप बुश महोदय अपनी नेशनल गार्ड यूनिट से आधिकारिक रूप से छुट्टी लिए बिना ग़ैरहाज़िर थे. आपकी कायरता और ख़ुदग़र्ज़ी दशकों पहले पता चल गई थी. हमारे राष्ट्र के लिए आप अपनी जान का जोखिम उठाने के लिए कभी भी तत्पर नहीं थे लेकिन आपने सैकड़ों हज़ार युवा आदमियों और औरतों को एक बेमानी युद्ध में बलिदान के लिए झोंक दिया मानो आप महज़ कबाड़ का ढेर हटा रहे थे.
मैं ये चिट्ठी, अपनी आखिरी चिट्ठी आपको बुश महोदय और चेनी महोदय आपको लिख रहा हूं. मैं इसलिए नहीं लिखता कि मैं सोचता हूं आपने अपने झूठों, चालबाज़ियों और दौलत और सत्ता की प्यास के भयानक मानवीय और नैतिक परिणामों को समझ लिया होगा. मैं ये चिट्ठी इसलिए लिख रहा हूं, अपनी मृत्यु से पहले, क्योंकि मैं ये बात साफ़ करना चाहता हूं कि मैं और मेरे जैसे हज़ारों फौजी, और मेरे लाखों सह नागरिक, लाखों करोड़ों वे नागरिक जो इराक़ में और मध्यपूर्व(पश्चिम एशिया) में रहते हैं- हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि आप लोग कौन हैं और आपने क्या किया है. आप इंसाफ़ से बच निकलेंगे लेकिन हमारी निगाहों में आप दोनों अत्यन्त ख़राब युद्ध अपराधों, लूट और आख़िरकार हज़ारों अमेरिकियों की-मेरे साथी फौजियों की (जिनका भविष्य तुमने चुरा लिया)- उन सब की हत्या के दोषी हैं.
नौ बटा ग्यारह हमलों के दो दिन बाद मैं सेना में भर्ती हुआ था. मैं सेना में इसलिए आया क्योंकि हमारे देश पर हमला हुआ था. मैं उन लोगों को जवाब देना चाहता था जिन्होंने हमारे क़रीब तीन हज़ार नागरिकों को मार डाला था. मैंने इराक़ जाने के लिए सेना नहीं ज्वाइन की थी, उस देश का 9 बटा 11 के हमलों से कोई वास्ता नहीं था और वो अपने पड़ोसियों के लिए भी ख़तरा नहीं था. अमेरिका के लिए तो बिल्कुल भी नहीं. मैंने इराक़ियों को मुक्त कराने के लिए या जनसंहार के मिथकीय हथियारों को नष्ट करने या बगदाद या मध्यपूर्व में उस व्यवस्था को स्थापित करने के लिए सेना ज्वाइन नहीं की थी जिसे आप कटाक्ष की हद तक डेमोक्रेसी कहते थे. मैंने इराक़ के पुनर्निमाण के लिए सेना में भर्ती नहीं हुआ था जिसके बारे में आपने एक बार कहा था कि इराक के तेल राजस्वों से उसकी भरपाई हो जाएगी. हुआ उलटा. अमेरिका को युद्ध की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. पैसे में ही सिर्फ़ तीन करोड़ खरब डॉलर. मैं ख़ासकर युद्ध छेड़ने के लिए सेना में भर्ती नहीं हुआ था. इस तरह का युद्ध अंतरराष्ट्रीय क़ानून के दायरे में अवैध है. इराक में सैनिक के रूप में, मैं अब जानता हूं कि आपकी मूर्खता और आपके अपराधों को बढ़ावा दे रहा था. अमेरिकी इतिहास में इराक़ युद्ध सबसे बड़ी सामरिक चूक है. मध्यपूर्व में इसने सत्ता के संतुलन को नष्ट कर दिया है. इससे इराक में एक भ्रष्ट और क्रूर इरान समर्थक सरकार की स्थापना हुई है. जो यातना, जानलेवा दस्तों और आतंक के दम पर सत्ता में जड़ें जमा चुकी है और उसने ईरान को पूरे इलाके में बड़ी ताक़त बना दिया है. हर स्तर पर- नैतिक, सामरिक, सैन्य और आर्थिक- हर स्तर पर इराक़ एक नाकामी थी. और आपने- बुश महोदय आपने और चेनी महोदय आपने- आप दोनों ने ये युद्ध भड़काया. आप दोनों को ही इसके नतीजे भुगतने चाहिए.  
दूसरे घायल और विकलांग रिटायर फौजियों की तरह मैंने भी इलाज में प्रशासन की बदइंतज़ामी और लापरवाही को झेला है. दूसरे घायल और टूटे हुए रिटायर सैनिकों की तरह मैं भी जान गया हूं कि हमारी मानसिक और शारीरिक कमियां और जख़्म आपके किसी काम के नहीं. शायद किसी भी नेता को हममें दिलचस्पी नहीं. हमारा इस्तेमाल किया गया. हमसे छल हुआ. और हमें अब ठुकरा दिया गया है. आप बुश महोदय, खुद को बड़ा ईसाई दिखाते हैं. लेकिन क्या झूठ बोलना पाप नहीं है. क्या चोरी और स्वार्थी इच्छाएं पाप नहीं हैं. मैं ईसाई नहीं हूं. लेकिन मैं ईसाईयत के विचार में यक़ीन रखता हूं. मैं मानता हूं कि जो भी कमतर से कमतर आप अपने भाईयों के साथ करते हैं वैसा ही आप आख़िरकार एक दिन अपने साथ करते हैं, अपनी आत्मा के साथ करते हैं.
अगर मैं अफ़ग़ानिस्तान में उन ताक़तों के ख़िलाफ़ घायल हुआ होता जिन्होंने 9 बटा 11 हमलों को अंजाम दिया था, तो मैं ये पत्र नहीं लिखता. मैं वहां घायल हुआ होता तो अपनी शारीरिक बदहाली और अवश्यंभावी मौत से तब भी वैसा ही घिसटता रहता, लेकिन मुझे तब कम से कम ये जानने की सुविधा रहती कि मेरी चोटें अपने देश के बचाने के मेरे अपने फ़ैसले की वजह से आई हैं-उस देश को जिसे मैं प्यार करता हूं. (अनुवादक, पूर्व सैनिक की भावना और तक़लीफ़ के प्रति पूरे सम्मान और सहानुभूति के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी युद्ध को किसी भी रूप में जायज़ नहीं मानता. सैनिक की मूल युद्ध विरोधी भावना में अफ़ग़ानिस्तान युद्ध के प्रति सहमति का होना अजीब विरोधाभास ही दिखाता है. और ये भी बताता है कि अमेरिकी सैनिकों का एक बड़ा तबका अफ़ग़ान मामले पर अब भी कैसा गुमराह है. हालांकि अफ़ग़ान युद्ध की छानबीन वाली रिपोर्टें/दस्तावेज/किताबें आ चुकी हैं, आ रही हैं) मुझे दर्दनिवारक दवाओं से भरे हुए अपने शरीर के साथ बिस्तर पर पड़े नही रहना था और इस तथ्य से जूझते नहीं रहना था कि तेल कंपनियों में अपने लालच के चलते, सऊदी अरब के तेल धनिक शेखों से अपने गठजोड़ के चलते और साम्राज्य के अपने उन्मादी नज़रिए के चलते आपने बच्चों समेत मेरे जैसे हज़ारों हज़ार लोगों को मौत की ओर धकेल दिया.
हिसाब किताब का मेरा वक़्त नज़दीक है. आपका भी आएगा. मुझे उम्मीद है आप पर मुक़दमा चलेगा. लेकिन ज़्यादा उम्मीद मुझे अब भी यही होती है कि अपनी ख़ातिर आपमें ये नैतिक साहस आ पाएगा कि आप उस सब का सामना कर सकें जो आपने मेरे साथ किया और बहुत सारे लोगों के साथ. उन बहुत सारों के साथ जिन्हें जीना चाहिए था. मैं उम्मीद करता हूं कि इस पृथ्वी पर अपना समय पूरा करने से पहले, जैसा कि मेरा अभी हो रहा है, आपके भीतर विवेक की इतनी जुंबिश आ पाएगी कि अमेरिकी जनता के सामने और दुनिया के सामने और ख़ासकर इराक़ी लोगों के सामने खड़े होकर आप माफ़ी की भीख मांग लेंगे.
बिस्तर पर बीमार और विकलांग पड़े टॉमस यंग इराक युद्ध में हिस्सा ले चुके पूर्व सैनिक हैं. 2007 में बनी बॉडी ऑफ़ वॉर नाम की अद्भुत डॉक्युमेंट्री फ़िल्म में प्रमुख क़िरदार और विषय भी वही थे. जानेमाने टीवी टॉक शो होस्ट फ़िल डोनाह्यु और एलन स्पाइरो ने ये फ़िल्म बनाई थी. 4 अप्रैल 2004 को इराक़ में उनका पांचवां दिन था. जब बगदाद के पड़ोसी शहर सद्र में उनकी यूनिट गोलीबारी की चपेट में आ गईं. एक गोली यंग को लगी, वो घायल हुए और उस गोली से उन्हें सीने से नीचे पूरे शरीर में लकवा मार गया. फिर वे दोबारा नहीं चल सके. तीन महीने बाद सरकारी चिकित्सा देखभाल से रिलीज़ होकर यंग घर लौटे और इराक वेटेरन्स अगेन्स्ट द वार नाम के एक संगठन में सक्रिय सदस्य बन गए. उन्होंने हाल में इच्छा मृत्यु का एलान किया है कि वो अपनी दवाएं और खाना नहीं लेंगे जो उन्हें एक नली के सहारे द्रव के रूप में दिए जाते हैं. खाने की नली को हटा दिए जाने के बाद टॉमस यंग धीरे धीरे मौत का रुख़ कर पाएंगें.
(डेमोक्रेसी नाऊ डॉट ओर्ग से साभार)
इराक युद्ध की 10वीं बरसी पर




Wednesday, March 6, 2013

तीसरी दुनिया के लिए शावेज का महत्वः विद्यार्थी चटर्जी



गरीबों को सशक्त करने का मतलब क्या अमीरों को अलग-थलग छोड़ देना और उनकी नाराजगी मोल लेना है? किताबी सिद्धांत तो ऐसा नहीं कहते, लेकिन व्यवहारिक दुनिया में यह बात सही है। बिस्तर पर पड़े वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज से बेहतर इसका जवाब कौन दे सकता है, जिन्होंने हाल ही में तेल उत्पादन के मामले में सउदी अरब को पहले पायदान से नीचे धकेल दिया है। दुनिया भर की नजरें समाजवाद, बोलिवेरायाई क्रांति (सीमोन बोलिवार के नाम पर, जिन्होंने स्पेन के शासन से कई लातिन अमेरिकी देशों को उन्नीसवीं सदी में मुक्त कराया) और ईसाइयत (ईसा की शिक्षा के मुताबिक गरीबों के प्रति न्याय और करुणा की चेतना) के इस पैरोकार पर आज टिकी हैं जो वास्तव में बहुत बीमार है। गरीबों को सस्ता खाना और आवास दिलाने तथा शिक्षा और स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच बढ़ाने की शावेज की घरेलू नीतियों ने उन्हें लगातार चार बार चुनाव में जीत का सेहरा पहनाया है। पिछली बार वह अक्टूबर 2012 में जीते थे जब उन्हें कुल पड़े वोटों का 54 फीसदी हासिल हुआ था। इससे पहले कभी भी मूलवासी आबादी को इस देश में इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया।

सामाजिक न्याय यानी गरीब तबके के लिए बेहतर जीवन के प्रति शावेज की प्रतिबद्धता ने उन्हें अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और पश्चिमी तेल कंपनियों की खुराफाती तिकड़ी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। शावेज के सत्ता में आने से पहले वेनेजुएला की विशाल तेल संपदा उन्हीं लोगों द्वारा लूटी जा रही थी जो आज उन्हें सत्ता से हटाने की ख्वाहिश रखते हैं। उनका गुस्सा समझ आता है क्योंकि शावेज ने न सिर्फ इस लूट को खत्म किया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक को पश्चिमी देशों से तेल की ज्यादा कीमत मिले। पश्चिमी तेल कंपनियों गल्फ शेल, स्टैंडर्ड ऑयल और टेक्साको को पहले के मुकाबले ज्यादा रॉयल्टी देने को बाध्य कर के शावेज ने करोड़ों लोगों का दिल जीत लिया है। दुनिया भर की ज्ञात समूची तेल संपदा का पांचवां हिस्सा वेनेजुएला में है, इस तथ्य का उन्होंने फायदा अपनी बात मनवाने के लिए बखूबी उठाया है।

अमेरिका द्वारा कराकस के तख्त को पलटने की लगातार कवायद जाहिर तौर पर समूचे लातिन अमेरिका के करोड़ों घरों में चर्चा का विषय बनी हुई है, जो पूंजीवादी जगत के लोभ, धोखे और वर्चस्व के एक माकूल जवाब के तौर पर कैंसर से जूझ रहे राष्ट्रपति को देखते हैं। न सिर्फ लातिन अमेरिका, बल्कि तथाकथित 'तीसरी दुनिया' के कुछ दूसरे हिस्से भी यह जानने के लिए कम उत्साहित नहीं हैं कि इतने जीवट और संकल्प वाले इस शख्स ने जनता के लिए सामाजिक न्याय और बेहतर आर्थिक जीवन सुनिश्चित करने का अपना लक्ष्य कैसे पूरा किया है। अपने गौरवशाली पूर्वजों निकारागुआ के सैंदिनिस्ता या कहीं ज्यादा याद किए जाने वाले चिली के अलेंदे के नक्शे कदम पर चलते हुए शावेज आज प्रतिरोध, बहाली और पुनर्निर्माण का प्रतीक बन कर उभरे हैं। आज वे न सिर्फ अपनी जनता के लिए, बल्कि राहत की छांव खोज रहे एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के दूसरे देशों के लिए भी उदाहरण हैं- उस आत्मसंकल्प की प्रेरणा हैं जिसे पूंजीवादी विश्व के आकाओं ने संगठित तौर पर नुकसान पहुंचाने की कोशिश की और जब कभी उनके हित आड़े आए, उन्होंने अपना लोकतांत्रिक आवरण उतार फेंका।

वेनेजुएला बोलिवेरियाना- पोएब्लो ई लूचा दे ला क्वार्तो गेहा मूंजियाओ (वेनेजुएला बोलिवेरियाना- जनता और चौथे विश्व युद्ध का संघर्ष) नाम की फिल्म के निर्माताओं के मुताबिक दुनिया भर के लोग फिलहाल वैश्विक स्तर पर जारी चौथे विश्व युद्ध का हिस्सा हैं और यह युद्ध नवउदारवादी पूंजीवाद व वैश्वीकरण के खिलाफ है। साक्षात्कारों के कुछ अंश और आर्काइव के फुटेज के मिश्रण से बनी और सुघड़ता से संपादित की गई यह फिल्म तथाकथित बोलिवार क्रांति के रूप में तेजी से पनपते एक वैकल्पिक आंदोलन की छवियों को दिखाती है।

यह आंदोलन फरवरी
1989 में शुरू हुआ था जब ईंधन और खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩे के खिलाफ विद्रोह हो गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। बाद के वर्षों में 1998 तक यहां सामाजिक अस्थिरता कायम रही, जब अचानक राष्ट्रपति के चुनाव में एक पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल ह्यूगो शावेज की जीत हो गई। एक नया संविधान पारित किया गया और शावेज ने भ्रष्टाचार व महंगाई को खत्म करने का वादा किया- वह वादा वे आज तक पूरी शिद्दत से पूरा करने की कोशिश करते आए हैं। दूसरे लातिन अमेरिकी देशों की ही तरह वेनेजुएला के सामने भी वैश्वीकरण, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक राजनीति और अमेरिकी साम्राज्यवाद का खतरा है। इस दौरान एक मजबूत जनाधार और संचार प्रणाली के माध्यम से खड़ा हुआ वेनेजुएला की जनता का संघर्ष नवउदारवादी पूंजीवाद के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो चुका है।

हमेशा अमेरिका को खुश करने में लगे भारत (हाल में एफडीआई के मुद्दे से इसे समझा जा सकता है) से यह उम्मीद करना नाजायज होगा कि वह बोलिवेरियाई आंदोलन को समर्थन दे। लेकिन कहना न होगा कि इस देश के सभी जागरूक लोगों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे इस तरह से मिलजुल कर काम करें जिससे लचीली रीढ़ वाली अपनी भारत सरकार को वे नवउदारवाद के खतरे के करीब जाने से कम से कम रोक सकें।

कामगार तबकों के बीच लोकप्रिय शावेज ने जाहिर तौर पर मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में अपने कई दुश्मन पैदा कर लिए हैं। ये वर्ग नहीं चाहते कि शावेज अपनी योजना के मुताबिक तेल से आने वाला मुनाफा वंचित और कमजोर जनता में दोबारा बांट दें। सितंबर 2001 में आयरलैंड के दो स्वतंत्र फिल्मकार किम बार्टले और डोनाशा ओब्रायन शावेज की जिंदगी पर फिल्म बनाने के लिए कराकस गए थे। उनकी छवि एक चमत्कारी नेता की थी, जनता के आदमी की, जो एक लोकप्रिय राजनेता होने के साथ विचारक और बौद्धिक विमर्शकार भी था और एक राष्ट्रवादी सिपाही भी, जिसके इतिहासबोध और उद्देश्यों में अखिल लातिन अमेरिका की अनुगूंज थी। हुआ ये कि दक्षिणपंथियों द्वारा किए गए एक तख्तापलट में शावेज की सरकार गिर गई और ये फिल्मकार उस देश में हो रही एक क्रांति की तरह ही वहां फंस गए।

कोई जादुई यथार्थवाद था या कुछ और
, लेकिन एक झटके में 48 घंटे के भीतर शावेज दोबारा सत्ता में आ गए। यह फिल्म द रिवॉल्यूशन विल नॉट बी टेलिवाइज्ड इस छोटी सी अवधि में होने वाले तमाम नाटकीय मोड़ों और पड़ावों को कैद करती है। विद्रोहियों के विजयीभाव भाषण, उनके खिलाफ सेना के विद्रोह और अंतत: शावेज की सत्ता में वापसी इस उत्तेजक सेलुलाइड अनुभव में उत्कर्ष के क्षण हैं। अपेक्षा के मुताबिक निजी स्वामित्व वाले टीवी स्टेशनों ने शावेज के तख्तापलट का समर्थन किया था, जैसा कि मीडिया अमीरों और ताकतवरों का हमेशा ही पक्ष लेता है। जिस तरह से खबरों को उस वक्त लिखा गया, वह देखने लायक है। फिल्म के निर्देशक इस सवाल का जवाब बड़ी ईमानदारी से देते हैं कि क्रांति का प्रसारण जब टीवी पर होता है, तो वास्तव में क्या होता है।

प्रतिक्रांति के एजेंट के रूप में मीडिया का जिक्र आया है तो निकारागुआ में मार्क्‍सवादी सैंदिनिस्ता के सत्ता में आने के पल को नहीं भूला जा सकता जब पश्चिमी प्रेस ने इक_े और खास तौर पर मानागुआ के सबसे बड़े अखबार ने उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार अभियान चलाया था। जैसे कि मीडिया के कुत्सा प्रचार और झूठ से मन न भरा हो, अमेरिका में प्रशिक्षित और अनुदानित भाड़े के कॉन्ट्रा विद्रोहियों को निकारागुआ में पड़ोसी देश हॉन्डुरास के रास्ते घुसाया गया ताकि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सैंदिनिस्ता सरकार का तख्तापलट किया जा सके। इसीलिए जब कभी वॉशिंगटन की जबान से लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार आदि शब्द फूटते हैं, तो बाकी दुनिया जो कि कई जगहों पर अमेरिका से भी ज्यादा स्वतंत्र है, तय नहीं कर पाती कि इस पर हंसे या गाली दे, जिसका अमेरिका सच्चा हकदार है।

गैर-दोस्ताना सरकारों के खिलाफ अमेरिका की साजिशों पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और शिक्षक अचिन विनायक ने कोलकाता के एक दैनिक में कुछ साल पहले लिखा था, ''अमेरिका और वेनेजुएला के उसके साझीदार बाहर से आखिर क्या कर पाएंगे, या क्या होने की उम्मीद रख सकते हैं? अमेरिका का पैर पश्चिमी एशिया में फंसा है इसलिए फिलहाल सीधा हमला मुमकिन नहीं है। शावेज विरोधियों के लिए सबसे अच्छी रणनीति तीन काम करने की होगी। विचारधारात्मक स्तर पर उनके खिलाफ यथासंभव ताकत से प्रोपेगैंडा और दुष्प्रचार किया जाए। आर्थिक मोर्चे पर किसी भी तरीके से उनके शासन को अस्थिर किया जाए, चाहे तोड़-फोड़ ही क्यों न करनी पड़ जाए। सैन्य स्तर पर कोलंबिया की सेना 
और सरकार को उकसाया जाए कि वह वेनेजुएला में अघोषित जंग छेड़ दे। लेकिन सबसे असरदार और तात्कालिक उपाय हत्या करवाना होगा, और हाल ही में एक कार में हुए विस्फोट में शावेज के सरकारी वकील की हत्या से यह संभावना मजबूत हो जाती है।''

चालीस साल पहले लोकतंत्र के प्रतीक चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे के साथ अमेरिका ने जो किया, वह आखिर कोई कैसे भूल सकता है। उनका 'अपराध' सिर्फ इतना था कि उन्होंने देश के तांबा उद्योग का राष्ट्रीकरण कर दिया था ताकि देश के मजदूर बेहतर जिंदगी बिता सकें और यह संपदा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों एनाकोंडा, केनेकॉट और सेरो के हाथों लुटने से बचाई जा सके। सीआईए की साजिश से ऑगस्तो पिनोशे द्वारा किए गए इस तख्तापलट में न सिर्फ राष्ट्रपति अलेंदे बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद उनके हजारों समर्थकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, चाहे वे शिक्षक रहे हों, कलाकार, मजदूर नेता या किसान नेता। गलियों से सड़क तक के ऐसे किसी भी शख्स को नहीं बख्शा गया जो सामाजिक विकास और इंसानी तरक्की के वैकल्पिक मॉडल के अलेंदे के नजरिये का समर्थक था। अलेंदे की मौत का फरमान तांबे में छुपा था, उनसे पहले चिली के राष्ट्रपति जोस मैनुअल बाल्माचेदा की मौत नाइट्रेट संपदा लेकर आई थी जबकि इस बार की लड़ाई तेल के कारण शावेज और उनके अमेरिका समर्थित विरोधियों के बीच है जिन्हें ''आठ के समूह'' से भी कुछ का समर्थन हासिल है।

शावेज का हवाना में इलाज चल रहा है। वहां से आ रही खबरों के मुताबिक यदि वे घर आ गए, तब भी अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा पाएंगे। उनके उपराष्ट्रपति निकोलस मादूरो का व्यक्तित्व उतना चमत्कारिक नहीं है, न ही उन्हें शावेज जैसा लोकप्रिय भरोसा घरेलू या अंतरराष्ट्रीय दायरे में हासिल है। पहले की अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को खत्म कर के उसकी जगह ज्यादा समतापूर्ण व्यवस्था लाने की शावेज की नीतियों के विरोधियों के लिए हमला करने का शायद यही सही समय है। लातिन अमेरिका ही नहीं, समूची दुनिया सांस रोके देख रही है कि क्या होने वाला है।

यह समझना मुश्किल नहीं है कि वेनेजुएला के दक्षिणपंथी आखिर शावेज का इतना विरोध क्यों कर रहे हैं। पहली बात तो यही है कि पुराने दिनों में जिस तरीके से वे पैसे और ताकत की लूट मचाए हुए थे, अब वैसा नहीं कर पा रहे और उनके सब्र का बांध टूटने लगा है। एक और वजह यह है कि शावेज का क्यूबा के साथ करीबी रिश्ता है, जो अमेरिकी सांड़ के लिए किसी लाल झंडे से कम नहीं है जबकि अमेरिका खुद वेनेजुएला में विपक्ष के नेता एनहीक कापीलेस राउंस्की जैसे नेताओं का मार्गदर्शक है। क्यूबा में तीस हजार डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मचारी गरीबों के लिए जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के बजाय कापीलेस जैसे नेता उसकी आलोचना करते फिरते हैं। वे शावेज की सत्ता के करीबी अल्पविकसित देशों को सब्सिडीयुक्त तेल बेचने के भी खिलाफ हैं। कराकस में बैठे अमेरिका के पिट्ठुओं को यह बात परेशान करती है कि चीन और भारत को वेनेजुएला ने तेल के मामले में ''तरजीही देश'' का दर्जा दिया क्यों है। शावेज ने तो खुल कर कह दिया है कि अमेरिका के तेल बाजार पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए उनसे जो बन पड़ेगा, वे करेंगे। फिर इसमें क्या आश्चर्य यदि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें अपना असली दुश्मन मानता है?

अमेरिका जितना ज्यादा शावेज से नफरत करेगा, वे उतना ही ज्यादा अपने लोगों के करीब आते जाएंगे जिन्होंने उन्हें बार-बार चुना है। वेनेजुएला के इतिहास में पहली बार हुआ है कि गरीबों को निशुल्क स्वास्थ्य, शिक्षा और मुनाफारहित खाद्य वितरण प्रणाली मुहैया कराई गई है। गरीब वर्ग को इससे सम्मान और ताकत का अहसास हुआ है। पिछले चुनावों में पड़े 81 फीसदी वोट बताते हैं कि इस देश के लोग कितनी शिद्दत से चाहते थे कि शावेज वापस सत्ता में आ जाएं। ऐसी स्थिति में यदि शावेज को कुछ भी होता है, तो वेनेजुएला की जनता के दुख और हताशा का कोई ओर-छोर नहीं रह जाएगा।

ऐसा कुछ भी हुआ
, तो सदमा सिर्फ वेनेजुएला तक सीमित नहीं रहेगा। पिछले डेढ़ दशक के दौरान शावेज एक उभरते हुए लातिन अमेरिका का प्रतीक बन कर उभरे हैं- एक ऐसे उबलते महाद्वीप का प्रतीक, जो अमेरिका की प्रभुत्ववादी साजिशों के खिलाफ उबल रहा है। वास्तव में लंबे समय से झूल रहा गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी अचानक इधर के वर्षों में ही प्रोत्साहित हुआ है और यह सब वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, इक्वेडोर और निकारागुआ की वाम रुझान वाली सरकारों के नेतृत्व का ही परिणाम है। अर्जेंटीना और ब्राजील यदि अमेरिकी नीतियों और हरकतों की उतनी खुल कर निंदा नहीं करते, तो सिर्फ इसलिए इन्हें अमेरिका का समर्थक नहीं कहा जा सकता। पेरू भी अमेरिका से सतर्क है। दुनिया भर में लोगों को आशंका है कि शावेज की गैरमौजूदगी में उनकी विरासत खत्म तो नहीं होगी, लेकिन कमजोर जरूर हो जाएगी। उनका किया रंग ला ही रहा था कि बीच में वे कैंसर की चपेट में आ गए। क्या विडंबना है!
सबसे ज्यादा निराशा हालांकि मुझको इस बात से होती है कि शावेज की निशक्तता या फिर उनकी दुर्भाग्यपूर्ण अनुपस्थिति भारत के राजनीतिक वर्ग को नहीं अखरेगी, जो किसी भी कीमत पर अपनी जेब भरने के टुच्चे खेल में जुटा हुआ है। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदंबरम और विश्व बैंक व आईएमएफ के दूसरे घोषित टट्टुओं के लिए तो शावेज को जीते जी एक प्रेत की तरह नजरंदाज करना और उनकी अनुपस्थिति को यथाशीघ्र भुला देना ही बेहतर है। एक ओर शावेज हैं जो अपनी पूरी क्षमता से अपने प्राकृतिक और मानव संसाधनों का इस्तेमाल कर के एक नया राष्ट्र बनाने में लगे हैं जहां वेनेजुएला के अब तक उपेक्षित रहे लोगों को सम्मान और मजबूत आवाज मिल सके। दूसरी ओर भारत के नेता और उनके आर्थिक सलाहकार हैं जो किसी धार्मिक उपदेश का पालन करते हुए अपने यहां से गरीबों को खत्म करने में जुट गए हैं।

(विद्यार्थी चटर्जी अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक हैं। वे मोटिफ पत्रिका के संपादक रहे हैं। उनका यह लेख समयांतर के फरवरी 2013 अंक में छपा है। यहां यह शावेज के निधन पर उनके संघर्ष और उनकी महान परंपरा को समर्पित है।) 


Saturday, February 2, 2013

द इंडियन आइडियोलॉजी : बदनसीब मुल्क़ के बदग़ुमान रहनुमा (अंतिम क़िस्त)

(पिछली पोस्ट से जारी)


माउंटबेटन के आगमन के साथ भारत में धार्मिक फूट को लेकर साम्राज्यवादी नीति का एक चक्र पूरा हुआ। 19 वीं सदी के दूसरे उत्तरार्ध में अंग्रेज़ी राज को यह शक़ था कि ग़दर में पेशकदमी करने वाले मुसलमान थे और हिन्दुओं को ज़्यादा भरोसेमंद समझा जाता था। बीसवीं सदी के पहले उत्तरार्ध में यह पसंदगी तब बदल गई जब हिन्दू राष्ट्रवाद ज़्यादा आग्रही हो गया और उसे रोकने के लिए मुस्लिम महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया गया। अब अपने अंतिम चक्र में लन्दन ने ज़बर्दस्त झटका देते हुए बहुसंख्यक समुदाय को अपना विशेषाधिकृत सम्भाषी चुन लिया। 1947 में इस भारी परिवर्तन की जज़्बाती शिद्दत उभरी थी  विचारधारारणनीति और शख्सियत के अचानक हुए संगम से। ब्रिटेन की लेबर पार्टी हुकूमत के लिए उनके अपने दृष्टिकोण से सबसे निकटतम भारतीय पार्टी काँग्रेस थीनेहरू के साथ जुड़ी फेबियन कड़ियाँ काफी पुरानी थीं। राष्ट्रीय स्वाभिमान जा कर भावनात्मक अपनेपन से मिल गया। ब्रिटेन ने एक छितरे हुए उपमहाद्वीप को इतिहास में सर्वप्रथम एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना डाला था। सही समझ वाले सारे अंग्रेज़ देशभक्तजिनमें सिर्फ एटली जैसे साम्राज्यवादी शिक्षा के उत्पाद ही शामिल नहीं थे,इस बात को बड़े गर्व के साथ अपने साम्राज्य की सबसे उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि मानते। और उनकी रवानगी के वक़्त उस में दरारें पड़ना उस उपलब्धि पर सवालिया निशान लगने जैसा होता। ब्रिटेन को अगर भारत छोड़ना है तो भारत को वैसे ही रहना होगा जैसा कि अंग्रेज़ों ने उसे गढ़ा था। ब्रिटेन के पास तब भी सिर्फ मलाया ही नहीं बल्कि एशिया में भी कीमती मिल्कियतें थीं -उनके सबसे फायदेमंद उपनिवेश जो जल्द ही कम्युनिस्ट विद्रोह की रंगभूमि बन जाने वाले थे और जिन्हें छोड़ने की ब्रिटेन को कोई जल्दी नहीं थी। उसी समय उत्तर-पश्चिम सीमा से थोड़ी ही दूर अंग्रेज़ी राज का पारंपरिक हौवा बैठा हुआ था जो अब सोवियत संघ के रूप में और भी भयंकर था। आला अफ़सरान इस बात पर एकमत थे कि उपमहाद्वीप के विभाजन से रूसियों को ही फायदा पहुँचेगा। अगर दक्षिण एशिया के दरवाज़ों को साम्यवाद के खिलाफ़ मज़बूती के साथ बंद किया जाना था तो न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि पश्चिम के भी रणनीतिक हितों को संयुक्त भारत के परकोटे की दरकार थी।
ये सारी बातें इसी तरफ इशारा कर रही थीं कि मुस्लिम लीगजो कभी अंग्रेज़ी राज का नीतिगत साधन हुआ करती थीअब उसके मामलों के यथेष्ट निपटारे में एक प्रमुख अड़चन थी और उसका साक्षात रूप जिन्ना थे। काँग्रेस के नेता ब्रिटेन द्वारा उन्हें सौंपे जाने वाले विरसे की अखंडता का झंडा उठाये हुए थे और जिन्ना यह उम्मीद नहीं कर सकते थे कि उनके साथ समतुल्य बर्ताव किया जाएगा। मगर इस ढांचागत विषमता में एक व्यक्तिगत आत्म्श्लाघिता का असंतुलन मिलाया गया और यह सम्मिश्रण घातक साबित हुआ। 'वह झूठा,बौद्धिक रूप से सीमित और चालबाज़ शख्स' - माउंटबेटन के इस अमिट पोर्ट्रेट के लिए हमें एंड्रयू रॉबर्ट्स का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की सेना के प्रतीकात्मक कमांडर के तौर पर कोलम्बो में अपनी कैडिलैक की पिछली सीट पर बैठे-बैठे ख़याली कारनामों में डूबे हुए माउंटबेटन जब दिल्ली आये तो इस बात से बेइंतहा खुश थे कि उन्हें लगभग दिव्य शक्तियों से नवाज़ा गया है। मैंने महसूस किया कि मुझे दुनिया का सबसे ताक़तवर आदमी बना दिया गया है।माउंटबेटन पहनावे और समारोह सम्बन्धी आडम्बर का विकृत रूप थे और झंडों और झालरदार सूटों को लेकर उनका जूनून अक्सर राज्य के मामलों पर तरजीह पा जाता। उनके दो सर्वोपरि सरोकार थे: अंग्रेज़ी राज के अंतिम शासक के तौर पर एक ऐसी हस्ती बनना जो हॉलीवुड को शोभा दे और ख़ासकर यह सुनिश्चित करना कि भारत राष्ट्रमंडल के अंतर्गत का ही एक राज्य बना रहे: विश्व में प्रतिष्ठा और रणनीति दोनों को लेकर यूनाईटेड किंगडम के लिए यह अत्यधिक महत्त्व की बात होगी।'
ऐसा माना गया था कि अगर ब्रिटिश राज का बँटवारा होना ही है तो बड़ा हिस्सा- जितना बड़ा उतना अच्छा - ब्रिटिश उद्देश्यों के लिए महत्त्व रखता है। उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में काँग्रेस अब पसंदीदा सहयोगी क्यों थी इस बात के पीछे के राजनीतिक कारणों में एक व्यक्तिगत कारण भी जुड़ गया था। नेहरू के रूप में माउंटबेटन को एक दिलचस्प साथी मिल गया थाएक से स्वभाव वाले वे दोनों ही सामाजिक तौर पर भी समकक्ष थे। गांधी ने अंग्रेज़ों के साथ हमेशा अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना चाहा था। गांधी द्वारा नेहरू को उत्तराधिकारी चुने जाने का अंशतः कारण यह था कि वे अंग्रेज़ों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखने के लिए सांस्कृतिक तौर पर सुसज्ज थे जबकि पटेल और अन्य उम्मीदवारों में वह चीज़ न थी। सारे सम्बंधित लोगों के लिए यह तसल्ली की बात थी कि कुछ ही हफ़्तों में नेहरू वायसराय के न केवल ख़ास दोस्त बन गए बल्कि जल्द ही उनकी बीवी के साथ हमबिस्तर भी हो गए। इस सम्बन्ध को लेकर भारतीय राज्य इतना संकोची रहा आया है कि पचास सालों के बाद भी वह इस विषय को छूने वाली एक अमरीकी फिल्म का प्रदर्शन रोकने में दखल दे रहा था। भारतीय राज्य के इतिहासकार भी इस विषय के बगल से चुपचाप निकल जाते हैं। दिल के मामले कदाचित ही हुकूमत के मामलों पर असर डालते हैं। मगर इस मामले कम-अज़-कम यह इमकान न था कि त्रिकोण के शेहवानी ताल्लुकात ब्रिटिश नीति को लीग के पक्ष में झुका देते। राजनयिकों को सस्ते में चलता कर दिया जाता है।
फिर भी एक ऐसे दौर में जब ब्रिटेन प्रकट रूप से भारत में विभिन्न दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर ही रहा था और काँग्रेस एकीकृत देश को आज़ादी की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही थीगौरतलब है कि तब जिन्ना के बारे में माउंटबेटन और नेहरू कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और एटली उसमें सुर मिला रहे थे। माउंटबेटन के लिए जिन्ना एक 'पागल', घटिया आदमीऔर 'मनोरोगी केसथेनेहरू के लिए वे एक 'हिटलरी नेतृत्व और नीतियोंवाली पार्टी की अगुआई कर रहे पैरेनोइड थे और एटली के लिए वे 'गलतबयानी करने वालेथे। 
माउंटबेटन जब आये तो पंजाब में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। एक महीने के अन्दर-अन्दर उन्होंने फैसला कर लिया कि विभाजन अपरिहार्य है क्योंकि काँग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर नहीं हो पा रहा है। मगर समूचे इलाके का बँटवारा कैसे होना थाअनिवार्यतः बात पाँच सवालों पर आकर टिक गई। बंगाल और पंजाब इन दो प्रमुख प्रान्तों का क्या होगा जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक तो थे मगर उनका संख्याबल उतना ज़बरदस्त नहीं थारजवाड़ों के शासन वाले अंचलों कोजहाँ काँग्रेस और लीग दोनों की ही उपस्थिति नगण्य थीकैसे आवंटित किया जाएगाविभाजन के सिद्धांत के बारे में या सरहद कहाँ खड़ी की जायेगी इस बात को लेकर क्या जनता की राय पूछी जायेगीविभाजन की प्रक्रिया का पर्यवेक्षण कौन करेगाइस पर अमल कितनी समयावधि में किया जाएगा?
इस मौके पर आकर काँग्रेस और लीग का हिसाब अदल-बदल हो गया। सारे राष्ट्र की नुमाइंदगी करने का काँग्रेस का दावा 1920 के दशक से ही उसकी विचारधारा का केंद्र रहा था। मुस्लिम निर्वाचन मंडल में लीग द्वारा अपनी ताक़त दिखाए जाने पर यह दावा धराशायी हो गया था। मगर अपनी नई-नवेली ताक़त का लीग क्या करने वाली थीलाहौर प्रस्ताव के छह साल बीत जाने पर भी जिन्ना को हिन्दू-बहुल प्रान्तों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संरक्षण के साथ-साथ मुस्लिम बाहुल्य वाले प्रान्तों की सार्वभौमिकता के लिए कोई संभाव्य समाधान नहीं मिला था।  बस इतना भर हुआ था कि पाकिस्तान का नाराजिसे उन्होंने 1943 में खारिज कर दिया थामुसलमानों के बीच इतना मकबूल साबित हुआ कि बिना किसी स्पष्टीकरण के जिन्ना ने उसे अपना लिया और यह दावा किया कि लाहौर प्रस्ताव में 'राज्यकी जगह 'राज्योंमुद्रण की अशुद्धि के कारण आया था। शायद उन्होंने यह हिसाब लगाया था कि चूँकि अंग्रेज़ों के सामने लीग और काँग्रेस के परस्पर विरोधी उद्देश्य हैंवे आखिरकार अपने हिसाब से समय लगाकर दोनों पक्षों पर अपनी पसंद का परिसंघ थोप देंगे। उस परिसंघ में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बाहुल्य वाले इलाके स्वशासी होंगे और केंद्रीय सत्ता न इतनी मज़बूत होगी कि उन पर चढ़ सके और न ही इतनी कमज़ोर कि स्वशासी हिन्दू-बहुल प्रक्षेत्रों में मुसलमान अल्पसंख्यकों की रक्षा भी न कर सके। अंततः कैबिनेट मिशन ने जो योजना तैयार की वह जिन्ना की विजन के काफी करीब थी।
मगर काँग्रेस पार्टी ने हमेशा से एक शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य की आरज़ू की थी और नेहरू का मानना था कि भारतीय एकता को बचाए रखने के लिए ऐसा ज़रूरी है। इसलिए ऐसी कोई स्कीम नेहरू के लिए विभाजन से भी खराब थी क्योंकि वह उनकी पार्टी को उस शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य से महरूम कर देती। राष्ट्रीय वैधता के ऊपर अपनी इजारेदारी पर काँग्रेस ने शुरू से ज़ोर दिया था। यह दावा अब बिलकुल स्वीकार नहीं किया जा सकता था। लेकिन अगर बुरी से बुरी स्थिति भी हुई तो भारत के बड़े हिस्से में सत्ता के अबाधित एकाधिकार के मज़े लेना अविभाजित भारत में उस सत्ता को बाँटकर बँधे पड़े रहने से बेहतर था। इसलिए जब लीग तकसीम की बात कर रही थी तो जिन्ना परिसंघ के बारे में सोच रहे थेऔर जब काँग्रेस संघ की बात कर रही थीतो नेहरू बँटवारे की तैयारी कर रहे थे। कैबिनेट मिशन योजना की लुटिया हस्बे-दस्तूर डुबो दी गई।   
सारी निगाहें अब इस बात पर आ टिकीं कि लूट का बँटवारा कैसे होगा। अंग्रेज़ अब भी राजा थे: बँटवारा माउंटबेटन करेंगे। नेहरू इस बात से निश्चिन्त थे कि उन पर इनायत ज़रूर होगीमगर कितनी इसका अंदाज़ा पहले से होना मुश्किल था। ब्रिटिश राज से जो भी राज्य उभरेंगे उन्हें पुनर्नामित ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत बनाये रखना माउंटबेटन के लिए सबसे अहम बात थी। इसका मतलब था कि उन राज्यों को आज़ादी एक स्वतंत्र-उपनिवेश (डोमिनियन) के तौर पर स्वीकार करनी होगी। मुस्लिम लीग को इस से कोई आपत्ति नहीं थी। मगर लन्दन में चलने वाली जालसाज़ियों के आगे भारत के नतमस्तक होने को काँग्रेस 1928 से ही सिद्धांततः खारिज करती आई थी और इसमें डोमिनियन वाली बात भी ज़ाहिरन शामिल थी। तो जिस छोटी कौम को माउंटबेटन विभाजन के लिए ज़िम्मेदार मानते थेउसी कौम के राष्ट्रमंडल का सदस्य बन जाने की अवांछनीय संभावना माउंटबेटन के सामने इस कारण आ खड़ी हुई। वहीं बड़ी कौम जो उनके अनुसार न केवल अपेक्षाकृत दोषरहित थी बल्कि रणनीतिक और वैचारिक तौर पर अधिक महत्त्वपूर्ण भी थीराष्ट्रमंडल से बाहर रहने वाली थी। इस पहेली को कैसे सुलझाया जाना था?
इसे सुलझाया उस घड़ी के तारणहार वी पी मेनन ने। अंग्रेज़ों की नौकरशाही में केरल के उच्च-पदस्थ हिन्दू अधिकारी मेनन माउंटबेटन के व्यकिगत अमले का हिस्सा थे और काँग्रेस के सांगठनिक बाहुबली सरदार पटेल के मित्र भी।  क्यों न विभाजन सीधे-सीधे इस तरह हो कि काँग्रेस को बहुत बड़ा क्षेत्र और आबादी हासिल हो जाए जिसकी हकदार वह मज़हब के आधार पर थी हीऔर तो और अंग्रेज़ी राज की पूँजी और सैनिक एवं नौकरशाही तंत्र का भी बड़े से बड़ा हिस्सा मिल जाए- और इसके बदले में माउंटबेटन से राष्ट्रमंडल में भारत के प्रवेश का वायदा किया जाएइतना ही नहींमुँह मीठा करने के लिएमेनन ने रजवाड़ों को भी थाली में परोसने की सलाह दी जिस से कि जिन्ना को मिलने वाले हिस्से की क्षतिपूर्ति हो जाए। कुल मिलाकर रजवाड़े क्षेत्रफल और आबादी में भावी पाकिस्तान के बराबर थे और उस समय तक काँग्रेस ने उन्हें अलंघ्य मान रखा था। नेहरू और पटेल को मनाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। अगर मालमत्ता दो महीनों के अन्दर-अन्दर हस्तांतरित हो जाती हैतो सौदा पूरा। इस ब्रेकथ्रू की सूचना मिलने पर माउंटबेटन फूले नहीं समाये और फिर मेनन को उन्होंने लिखा: 'बड़ी खुशकिस्मती रही कि आप मेरे स्टाफ में रिफार्म्स कमिश्नर रहेऔर इस तरह हम बहुत शुरूआती दौर में ही एक दूसरे के करीब आ गएक्योंकि आप वह पहले आदमी थे जो डोमिनियन स्टेटस के मेरे विचार से पूर्णतः सहमत थेऔर आपने ने वह हल ढूंढ निकाला जिसके बारे में मैंने सोचा भी नहीं थाऔर उसे सत्ता के अति शीघ्र हस्तांतरण से पहले ही स्वीकार्य बना दिया। उस निर्णय की इतिहास हमेशा बेहद कद्र करेगाऔर इस बात के लिए मैं आपका मशकूर हूँ।इतिहास उतना कद्रदान नहीं साबित हुआ जितनी उन्हें उम्मीद थी।
आखिरी घड़ी में एक गड़बड़ हो गई। स्वतंत्रता और विभाजन का लन्दन द्वारा स्वीकृत मसौदा शिमला में सभी पक्षों के आगे रखने से पहले माउंटबेटन को पूर्वबोध हुआ कि औरों के देखने से पहले उन्हें वह मसौदा गुप्त रूप से नेहरू को दिखा देना चाहिए। उसे देखकर नेहरू आग-बबूला हो गए: मसौदे में यह बात पर्याप्त रूप से साफ़ नहीं की गई थी कि भारतीय संघ अंग्रेजी राज का उत्तराधिकारी राज्य होगा और इस वजह से वे सारी चीज़ें जो उसे हासिल होंगी और यह भी कि पाकिस्तान उस से अलग हो रहा है। माउंटबेटन ने अपने अंतर्ज्ञान के लिए किस्मत का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि अगर वे मसौदा नेहरू को नहीं दिखाते तो खुद वे और उनके आदमी 'देश की सरकार के सामने निरे अहमक साबित हो जाते कि उन्होंने सरकार को इस खुशफहमी में रखा था कि नेहरू मसौदा स्वीकार कर लेंगे ' और 'डिकी माउंटबेटन बर्बाद हो गए होते और अपना बोरिया-बिस्तर बाँध चुके होते'. मेनन का अमूल्य साथ तो था हीऔर मुश्किल टल गई जब उन्होंने नेहरू की पसंद वाला मसौदा तैयार किया। जून के पहले हफ्ते में माउंटबेटन ने घोषणा की ब्रिटेन 14 अगस्त को सत्ता का हस्तांतरण कर देगाउस तारीख को बाद में उन्होंने स्वयं ही 'हास्यास्पद रूप से जल्दबाज़बताया था। इस जल्दबाज़ी की वजह साफ़ थीऔर वह बताने में माउंटबेटन ने कोई गोलमाल नहीं किया। 'हम क्या कर रहे हैं?  प्रशासकीय तौर पर एक पक्की इमारत बनाने और एक झोंपड़ी या तम्बू तानने में फर्क है। जहाँ तक पाकिस्तान की बात हैहम एक तम्बू तान रहे हैं। इस से ज़्यादा हम कुछ नहीं कर सकते।'
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यह टुकड़ा `थ्री एसेज़ कलेक्टिव` से आई किताब `द इंडियन आइडियोलॉजी` से लिया गया है। हिंदी अनुवाद - भारतभूषण तिवारी।

(समयांतर, जनवरी 2013 से साभार)