Tuesday, January 1, 2013

स्त्री आजाद होती तो पुरुष भी और ज्यादा आजाद नहीं होता?- सुषमा नैथानी


स्वतंत्र होना, गुलाम होना,ये एक व्यक्ति तय नही करता, वरन ये किसी एक समाज के परिपेक्ष्य मे ही व्यक्ति के सन्दर्भ मे कहा जा सकता है। निजी स्तर पर एक सीमित दायरे मे, थोडी व्यक्तिगत आज़ादी हासिल कर लेना, किसी को आज़ाद नही करता। क्योंकि इस व्यक्तिगत आज़ादी की घोषणा, और महत्त्व ही दिखाता है कि आज़ादी इस समाज मे एक अपवाद है।

अपने घर और आफिस से बाहर अगर आप सडक पर निकलती है, और असुरक्षा का भय अगर 24 घंटे मे से एक घंटे भी आपके सिर पर है, तो आप सडक पर चलने के लिये आज़ाद नही है।
आप सामाजिक रूप से आज़ाद नही है।अगर आप महिला या किसी जाति विशेष की है, और किसी मन्दिर, मस्जिद मे आपको जाने की मनाही है, तो आप धार्मिक रूप से आज़ाद नही है।

अगर आप गर्भवती महिला है, या सिर्फ महिला है, और आपको इस आधार पर नौकरी नही दी जाति, प्रमोशन नही मिलता, तो समान अवसर पाने के लिये आप आज़ाद नही हैं।

एक लडकी को अगर पिता की सम्पति मे समान अधिकार नही है, पत्नी अगर अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी, जनम भर घर का काम करती है, पर घर की/पति की सम्पत्ति पर अगर उसका अधिकार नही है, तो यहां एक बडा तबका, आर्थिक आज़ादी से बेद्खल है।

ये कतिपय उदाहरण हैं, जिनसे ये समझा जा सकता है, कि आज़ादी एक व्यक्तिगत क़ुएस्ट से बहुत ज्यादा एक समाजिक क़ुएस्ट है। व्यक्तिगत आज़ादी की अपनी सीमा है, और ये व्यक्ति के साथ ही खतम हो जाती है। इससे समाज के बडे हिस्से को कोई फायदा नही मिलता। इसीलिये सही मायनो मे आज़ादी पसन्द लोगों को एक बडी सामाजिक लडाई/प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिये। अकसर महिला आज़ादी का प्रश्न एक व्यक्तिगत सवाल मे तब्दील होता हुआ दिखता है। जैसे अगर महिला ने ठान ली तो मुक्त हो जायेगी। जैसे की स्वतंत्रता का समाज से, कानून से, सभ्यता से कोई लेना देना ही न हो।
एक बंद कमरे मे बैठा व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी से खाने, पहनने, और अपना आचरण करने के लिए ? पर एक सामाजिक स्पेस मे ये स्वतंत्रता व्यक्ति नही समाज तय करता है, धर्म से, क़ानून से, रिवाज़ से, संसाधन में साझेदारी से।

ये सोचने की बात है की बंद कमरे मे कोई इंसान समाज से कितना स्वतंत्र है? अपनी सुविधा के साधन जो इस कमरे मे है, वों समाज से ही आते हैं। चोरी का डर भी समाज से ही आता है। और विनिमय शक्ति भी एक सामाजिक शक्ति है। बंद कमरे वाला इंसान भी कितना सामाजिक है ? इस मायने मे स्त्री की समस्या भी क्या केवल स्त्री की ही है? क्या सिर्फ़ इसका निपटारा व्यक्तिगत स्तर पर हो सकता है? क्या स्त्री की समाज में दुर्दशा का प्रभाव पुरुष पर नहीं पड़ता? क्या पुरुष पूरी तरह आजाद है? घर चलाने का जुआ उसके सर भी तो है। एक ख़ास तरह से चाहते न चाहते उसे भी अपने जेंडर के रोल मे फिट बैठना है।

अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता?

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यह पोस्ट सुषमा नैथानी की फेसबुक वॉल से ली है। 

फोटो Kommuri Srinivas का है जो The Hindu अख़बार में छपा था।

1 comment:

स्वप्नदर्शी said...

ये सब २००८ के आसपास लिखा था, हिन्दी न लिखे हुये १५ साल बीत गये थे।
हिन्दी लिखने में ज्यादा दिक्कत होती थी तब, बहुत सी बिन्दु/मातरा की गलतियॉं हैं, उसके लिये माफ़ी...