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Thursday, August 15, 2013

यह वह सुबह तो नहीं-पंकज बिष्ट



अगर मुझे आप 'आधी रात की संतान (मिडनाइट्स चिल्ड्रन) भी कहें तो भी मैं पैदा  ''जब दुनिया सो रही थी और भारत जाग रहा था`` या जागने की ओर बढ़ रहा था, वाले नशे के दौर में हुआ।
सौभाग्य है कि मैंने उस पीढ़ी को देखा जिसकी प्रतिबद्धता, ईमानदारी और आत्मत्याग हमारे लिए उदाहरण होता था और आज भी होना चाहिए था। जैसा भी था, उस पीढ़ी ने ऐसा सपना देखने की कोशिश की, जिसमें देश अपनी मध्यकालीन निद्रा से जाग बीसवीं सदी के विचारों और विकास के साथ तालमेल बैठाने के लिए बेचैन नजर रहा था। उस सपने में कमोबेश सब के लिए जगह थी। जगह थी उन मूल्यों, परंपराओं और धरोहरों - प्राकृतिक और सांस्कृतिक - के लिए जो हमें विरासत में मिलीं थीं। वह सपना एक सम्यक समाज का सपना था। गोकि वहां कोई हड़बड़ी नहीं थी। रातों रात सब कुछ को बदल कर पश्चिमी सभ्यता से टक्कर लेने की। हां, प्रतिबद्धता और ईमानदारी स्पष्ट देखी जा सकती थी। पिछले दशकों में हमने क्या किया है? एक अहर्निश उपभोगतावाद को जन्म दिया है जिसने पूरे समाज को बुभुक्षा रोग की महामारी से ग्रस्त कर दिया है। (जितना चाहे खाओ और 'गोलियों` से पचाओ) भौतिकवाद की एक ऐसी दौड़ में शामिल कर दिया है जिसमें मानवीय मूल्यों के लिए कोई जगह नहीं रही है। निजी स्तर पर सब को पीछे छोड़ देने की और उपभोग के स्तर पर, जो भी जहां भी, अच्छा है उसे हड़प लेने की एक सर्वव्याप्त लालसा है। समाज का पूरा ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। उदाहरण के लिए परिवार को लें। संयुक्त परिवार टूटे हैं पर उनकी जगह लेने वाली कोई दूसरी संस्थागत सुरक्षा - भावात्मक और भौतिक- कहीं नजर नहीं आती है। इसने हर स्तर पर गरीबी, असहायता और निराश्रयता को बढ़ाया है।
 
दूसरी ओर लगभग सात दशक बाद भी हमारी एक तिहाई आबादी कुपोषण और भूख से ग्रस्त है। कारण साफ है कोई भी समाज बिना एक ऐसा न्यूनतम आधार बनाए, जिसमें कुछ आधारभूत बिंदुओं पर एकता हो, कोई न्यायसंगत समाज बनना तो रहा दूर उसकी कल्पना तक संभव नहीं है। आज हुआ क्या है? एक ओर समाज का अणु जैसा हिस्सा, पूरे गाजे-बाजे के साथ, दुनिया के सबसे धनी लोगों की जमात में शामिल हो चुका है तो दूसरी ओर बहुसंख्यक लोग दुनिया के सबसे गरीब अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र से भी नीचे की श्रेणी को छू रहे हैं। यह वह तबका है जो कुपोषण से मरता है, बीमारियों से मरता है और प्राकृतिक आपदाओं से मरता है। दूसरे शब्दों में हमारी बेरुखी से मरता है।

इस दौरान हमने क्या किया है?
एक से एक अट्टालिकाओं वाले बड़े-बड़े महानगरों को पैदा किया है, जहां सारी समृद्धि और संसाधन सिमट चुके हैं। दिल्ली आजादी के समय पांच लाख की आबादीवाला शहर भी नहीं था आज डेढ़ करोड़ के निकट पहुंचने जा रहा है। मुंबई को देखें। आजादी के बाद के सबसे सुंदर शहर का आज कैसा क्षरण नजर रहा है। कोलकाता को तो एक अर्से पहले ही 'मरणासन्न शहर` घोषित किया जा चुका है। साफ है कि ये बढ़ती आबादी के दबाव को सह नहीं पाने के कारण बिखर रहे हैं। आजादी के समय मात्र तीन महानगर थे, आज उनसे बड़े दर्जनों शहर पैदा हो गए हैं।
 
आखिर ऐसा हो क्यों रहा है कि गांव खाली हो रहे हैं और शहर विशालकाय और असंतुलित हो अपने ही बोझ से छिन्न-भिन्न हो रहे हैं? सारे औद्योगिकीकरण के बावजूद देश की आधी से ज्यादा जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या चरम पर है। सच यह है कि औद्योगिक विकास ने जो रूप ले लिया है वह किसी भी तरह हमारी इतनी बड़ी आबादी को नौकरी नहीं दे सकता। आज लाभ का बड़ा आधार श्रम के क्षेत्र में बचत करना है। यह अचानक नहीं है कि पूंजीपति देश तीसरी दुनिया या विकासमान देशों में कारखाने लगा रहे हैं। सीधा-सा कारण है सस्ते श्रम की तलाश।  ऐसे में, यानी निजीकरण और उदारीकरण के दौर में, पूर्ण और सुरक्षित रोजगार की अपेक्षा मूर्खता है। मजदूरी घट रही है और उपभोग कम हो रहा है। अर्थव्यवस्था ठहर रही है।
उदारीकरण ने हमारे बाजारों को ही नहीं खोला है, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के द्वार भी पूरी तरह उघाड़ दिए हैं। हमारा शासक वर्ग इस कोशिश में है कि किसी तरह से इस धरती में जो कुछ है उसे खोद-खाद कर  विदेशी मुद्रा कमा ली जाए और फिर उससे निर्बाध विदेशी उपभोक्ता सामान आता रहे। राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हथियार आएं और कमीशन से वोटरों को खरीदना-भ्रमित करना आसान बना रहे।
 इसने एक और तरह के आंतरिक असंतुलन को भी पैदा किया है जिसने उत्तराखंड जैसी त्रासदियों को जन्म देना शुरू कर दिया है।
 
उत्तराखंड देश के अब तक के सबसे नये राज्यों में रहा है। इस एक दशक में यहां की नदियों के दोहन के लिए जो नहीं हो सकता था वह तक किया गया, सिवा उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के विकास के। इस पर भी हर सरकार का एक ही एजेंडा है 'विकास करना` विकास से उसका तात्पर्य है ज्यादा से ज्यादा पहाड़ों को खोद देना और बड़े से बड़ा बांध बनाना। उत्तराखंड का यह दुर्भाग्य है कि वह दिल्ली जैसे महानगर के इतने निकट है। उर्जा के मामले में दिल्ली किसी सुरसा से कम नहीं है।  उसकी मांग थमनेवाली नहीं है क्योंकि वहां ऐसी जीवनशैली को लगातार बढ़ावा दिया जा रहा है जो सिर्फ उर्जा केंद्रित है। उत्तराखंड उसी जीवन शैली का शिकार है। उत्तराखंड में कुल बिजली की खपत का सिर्फ 13 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्रों में होता है। बाकी सारी बिजली प्रदेश के मैदानी भाग में इस्तेमाल होती है या फिर राष्ट्रीय ग्रिड में इजाफा करती है। पर इस बिजली उत्पादन के सारे खतरे पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को भोगने होते हैं और वे भोग रहे हैं।
इस बात को आप कमोबश उत्तराखंड के साथ बने दो और राज्यों पर भी यथावत लागू कर सकते हैं। विकास के इस मॉडल ने इन इलाकों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और भौगोलिक उथल-पुथल मचा दी है। गांव तो उजड़े  ही हैं। जंगल और नदियां खत्म होने के कगार पर हैं और प्राकृतिक असंतुलन अपने चरम पर पहुंच चुका है। अतिवृष्टि, भूस्खलन, बाढ़ का तांडव हर दिन बढ़ रहा है।
 
हम विदेशी पूंजी की आस लगाए दरवाजे पर बैठे हैं। विदेशी पूंजी है कि आने का नाम नहीं ले रही है। जो भी रही है वह अपनी शर्तें लाद रही है। यह विश्वबैंक की 'रिस्ट्रकचरिंग` के अलावा है। अर्थव्यवस्था ठहर चुकी है और मंदी नए सिरे से बढ़ रही है। वे उद्योग जो अपनी वृद्धि की दर के कारण उदाहरण माने जाते थे छंटनी के नजदीक हैं। मोटरगाड़ी उद्योग लीजिए। अगर हमारे नीति नियंताओं ने निजी वाहनों को बढ़ा कर सार्वजनिक यातायात को तरजीह दी होती तो हमारा विदेशी मुद्रा कोष तेल के आयात के दबाव में इस कदर दरकता।
बेरोजगारी निश्चय ही मंदी को और बढ़ाएगी। अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ेगा। पर सरकार कृषि के भी कॉरपोरेटीकरण की फिराक में है। इससे और बेरोजगारी बढ़ेगी। हमारे नियंता यह नहीं समझ रहे हैं कि हम बड़ी आबादीवाले समाज हैं और हमारी सबसे बड़ी चुनौती अपने लोगों को रोजगार मुहैया करवाना है। वह तभी हो सकता है जब हम पश्चिमी विकास के तरीके को आंख मूंद कर बढ़ावा दें। वह समाज अल्प जनसंख्या से पीडि़त है। हमारी समस्या अति जनसंख्या की है। कहा नहीं जा सकता कि आगे क्या होगा पर यह जरूर कहा जा सकता है कि यह विकास हमारे सपने का हिस्सा नहीं था।

नोट: इस लेख का संक्षिप्त रूप दैनिक 'अमर उजाला` में आज 15 अगस्त को प्रकाशित हुआ है।

Tuesday, January 1, 2013

स्त्री आजाद होती तो पुरुष भी और ज्यादा आजाद नहीं होता?- सुषमा नैथानी


स्वतंत्र होना, गुलाम होना,ये एक व्यक्ति तय नही करता, वरन ये किसी एक समाज के परिपेक्ष्य मे ही व्यक्ति के सन्दर्भ मे कहा जा सकता है। निजी स्तर पर एक सीमित दायरे मे, थोडी व्यक्तिगत आज़ादी हासिल कर लेना, किसी को आज़ाद नही करता। क्योंकि इस व्यक्तिगत आज़ादी की घोषणा, और महत्त्व ही दिखाता है कि आज़ादी इस समाज मे एक अपवाद है।

अपने घर और आफिस से बाहर अगर आप सडक पर निकलती है, और असुरक्षा का भय अगर 24 घंटे मे से एक घंटे भी आपके सिर पर है, तो आप सडक पर चलने के लिये आज़ाद नही है।
आप सामाजिक रूप से आज़ाद नही है।अगर आप महिला या किसी जाति विशेष की है, और किसी मन्दिर, मस्जिद मे आपको जाने की मनाही है, तो आप धार्मिक रूप से आज़ाद नही है।

अगर आप गर्भवती महिला है, या सिर्फ महिला है, और आपको इस आधार पर नौकरी नही दी जाति, प्रमोशन नही मिलता, तो समान अवसर पाने के लिये आप आज़ाद नही हैं।

एक लडकी को अगर पिता की सम्पति मे समान अधिकार नही है, पत्नी अगर अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी, जनम भर घर का काम करती है, पर घर की/पति की सम्पत्ति पर अगर उसका अधिकार नही है, तो यहां एक बडा तबका, आर्थिक आज़ादी से बेद्खल है।

ये कतिपय उदाहरण हैं, जिनसे ये समझा जा सकता है, कि आज़ादी एक व्यक्तिगत क़ुएस्ट से बहुत ज्यादा एक समाजिक क़ुएस्ट है। व्यक्तिगत आज़ादी की अपनी सीमा है, और ये व्यक्ति के साथ ही खतम हो जाती है। इससे समाज के बडे हिस्से को कोई फायदा नही मिलता। इसीलिये सही मायनो मे आज़ादी पसन्द लोगों को एक बडी सामाजिक लडाई/प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिये। अकसर महिला आज़ादी का प्रश्न एक व्यक्तिगत सवाल मे तब्दील होता हुआ दिखता है। जैसे अगर महिला ने ठान ली तो मुक्त हो जायेगी। जैसे की स्वतंत्रता का समाज से, कानून से, सभ्यता से कोई लेना देना ही न हो।
एक बंद कमरे मे बैठा व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी से खाने, पहनने, और अपना आचरण करने के लिए ? पर एक सामाजिक स्पेस मे ये स्वतंत्रता व्यक्ति नही समाज तय करता है, धर्म से, क़ानून से, रिवाज़ से, संसाधन में साझेदारी से।

ये सोचने की बात है की बंद कमरे मे कोई इंसान समाज से कितना स्वतंत्र है? अपनी सुविधा के साधन जो इस कमरे मे है, वों समाज से ही आते हैं। चोरी का डर भी समाज से ही आता है। और विनिमय शक्ति भी एक सामाजिक शक्ति है। बंद कमरे वाला इंसान भी कितना सामाजिक है ? इस मायने मे स्त्री की समस्या भी क्या केवल स्त्री की ही है? क्या सिर्फ़ इसका निपटारा व्यक्तिगत स्तर पर हो सकता है? क्या स्त्री की समाज में दुर्दशा का प्रभाव पुरुष पर नहीं पड़ता? क्या पुरुष पूरी तरह आजाद है? घर चलाने का जुआ उसके सर भी तो है। एक ख़ास तरह से चाहते न चाहते उसे भी अपने जेंडर के रोल मे फिट बैठना है।

अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता?

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यह पोस्ट सुषमा नैथानी की फेसबुक वॉल से ली है। 

फोटो Kommuri Srinivas का है जो The Hindu अख़बार में छपा था।