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Wednesday, April 25, 2018

त्रिपुरा: यह किसकी हार है? - धीरेश सैनी


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हिंदुस्तान का नैशनल मीडिया त्रिपुरा का जिक्र पहले शायद ही कभी करता हो लेकिन एक-दो साल से वह भारतीय जनता पार्टी के `ऑपरेशन त्रिपुरा` का हिस्सा था तो वहां की खास एंगल की खबरें भी अखबारों और चैनलों पर दिखाई देने लगी थीं। शेष भारत के लिए इस छोटे से गुमनाम राज्य में लंबे समय से सरकार चला रही बाद माकपा की अगुआई वाले लेफ्ट फ्रंट की हार के बाद मीडिया सीधे-सीधे भाजपा के जश्न में शामिल हो गया था।

इस उपेक्षित किए जाते रहे छोटे से खित्ते की जीत को भाजपा और मीडिया इतना ज्यादा महत्व दे रहे थे तो इसकी वजह भी साफ थी। भाजपा और कॉरपोरेट मीडिया दोनों को इसमें कोई संदेह नहीं रहा है कि देश और राज्यों के स्तर पर उसकी विपक्षी पार्टियां कहने को भले ही कांग्रेस व कई क्षेत्रीय पार्टियां हों पर वास्तव में विचार और नीतियों के लिहाज से कोई विपक्ष है तो वह सिर्फ वाम है। तो त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की हार को वाम के सफाये के तौर पर पेश किया गया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो इस हार के आधार पर दावा किया कि वामपंथियों को देश में कोई पसंद नहीं करता है।

मीडिया में बार-बार जिस शोर को दोहराया गया, वह यह था कि वाम मोर्चा सरकार ने इतने बरसों के शासन में त्रिपुरा को विकास से दूर रखा। विकास इन दिनों जिस शै का नाम है, उस आधार पर यह आलोचना की जाती तो बात अलग थी पर बार-बार इस बात पर जोर दिया गया कि त्रिपुरा में न इलाज की सुविधा है, न शिक्षा की। यह भी दोहराया जाता रहा कि त्रिपुरा में गांवों तक न सडकें पहुंची हैं और न बिजली-पानी। कई बार तो यह तोहमत त्रिपुरा की राजधानी अगरतला पर भी थोपी गई। जो त्रिपुरा में रहे हैं और जिन्होंने हवा के रुख के हिसाब से अपनी राय बदलना नहीं सीखा है, वे कहेंगे कि यह झूठ है। 2013 तक कई साल अगरतला में रहते हुए और इस दौरान त्रिपुरा के विभिन्न इलाकों में जाने के अवसर के मद्देनज़र मेरे अनुभव इस लिहाज से भिन्न रहे हैं। सबसे पहले तो उस छोटे से सुंदर और प्यारे से शहर की सादगी भरी छवि ही मन में उभरती है जो दूसरी कई राजधानियों की तरह आतंकित करने के बजाय सहज रिश्ता बनाता है। बेंगलुरु में रहकर लंदन और मुंबई में रहकर न्यूयॉर्क के लिए तडपने वाले बीमारों की इस शहर में कुछ भी न मिल पाने की झूठी शिकायतों पर क्या कहा जा सकता है?  

स्वास्थ्य क्षेत्र का सत्य 

जैसा मुझे याद आ रहा है, अगरतला शहर में दो सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं गोविंद बल्लभ पंत हॉस्पिटल एंड अगरतला गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज (जीबी के नाम से मशहूर) और दूसरा त्रिपुरा मेडिकल कॉलेज। दोनों में मुझे जाना पड़ा। शहर के बीच में स्थित इंदिरा गांधी मेडिकल हॉस्पिटल में भी मैं इलाज के लिए गया। भारी भीड़ के बावजूद इन अस्पतालों में डॉक्टर और स्टाफ हमेशा ड्यूटी पर दिखाई दिए। त्रिपुरा सरकार डॉक्टरों को एनपीए (नॉन प्रैक्टिसिंग अलॉएंस) नहीं दे पाती थी इसलिए डॉक्टर शाम के वक़्त गैर ड्यूटी टाइम में प्राइवेट क्लीनिक चलाने के लिए स्वतंत्र होते थे। जाहिर है कि इस तरह शहर में फीस लेकर भी विशेषज्ञ डॉक्टर बड़ी संख्या में उपलब्ध थे। हालांकि जिन राज्यों में सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों को एनपीए मिलता है, वहां भी उनमें से अनेक के प्राइवेट प्रैक्टिस और प्राइवेट नर्सिंग होम्स चलते ही हैं। इस मामले में केंद्रीय सरकार की सेवा में काम करने वाले डॉक्टर (दिल्ली तक में) अपवाद नहीं हैं। अंतर यह है कि अगरतला में एनपीए न मिलने की वजह से प्राइवेट प्रैक्टिस की छूट का अर्थ यह नहीं था कि डॉक्टरों को सरकारी ड्यूटी में कोताही बरतने की छूट हो। यही बात उन्हें नाराज करती थी।
त्रिपुरा के राजधानी से दूरस्थ इलाकों के स्वास्थ्य केंद्रों तक डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ की ड्यूटी सुनिश्चित की गई। डॉक्टरों को शुरुआती चार साल ग्रामीण इलाकों में सेवा करने के लिए बाध्य किया गया। अपने इलाकों के स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली देख चुके हमारे जैसे लोगों के लिए खुशी की इस बात पर वहां डॉक्टर और नर्स हमेशा नाराज रहे। यह जरूर था कि अगरतला में मेदांता मेडिसिटी नहीं था। लेकिन, अगरतला में प्राइवेट नर्सिंग होम तो थे। कलकत्ते के डॉक्टर भी वहां उसी तरह आते थे जैसे शिलॉन्ग में गुवाहाटी के और मेरठ में दिल्ली के डॉक्टर खास दिनों में आते हैं।
यूं वहां फाइव स्टार होटल क्लचर का भी एक अस्पताल खुल चुका था और कम से कम हमारे अनुभव उसे लेकर बहुत खराब रहे थे। बच्चे को फिट्स आने पर हम वहां के न्यूरोलोजिस्ट की लिखी दवाएं उसके निर्देश के मुताबिक तुरंत शुरू कर चुके होते, अगर डॉ. रामप्रकाश अनत और लालटू जी सख्ती से यह सलाह नहीं देते कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर की सलाह के बाद ही कोई दवा दी जाए। औऱ हम हैरान थे कि अगरतला के जीबी पंत से लेकर बेंगलुरू के निम्हान्स और दिल्ली के एम्स तक यही कहा गया कि बच्चे को किसी दवा पर लाना, उसे जीवन भर अंतहीन समस्याएं सौंप देना होता। इस विश्वास की वाजह ही थी कि एक साल से भी कम उम्र का बच्चा मेरी लापरवाही की वजह से बुरी तरह चोट खा बैठा था तो उसके ऑपरेशन के लिए जीबी जाने का फैसला लेने में जरा भी झिझक नहीं हुई थी। लेकिन, जिन लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं चौपट कर मेदांता मेडिसिटी जैसे होटलनुमा हस्पतालों को तरजीह देना ही विकास का पैमाना हुआ करता है, उन्हें तो यह समझाना संभव नहीं है कि ऐसे अस्पतालों का जाल फैल जाने के बावजूद उत्तर भारत में मामूली बुखार तक से मरने वालों का सिलसिला टूटता नहीं है।


सड़क-पानी

इस झूठ पर कि त्रिपुरा में गांवों को सड़कें और बिजली-पानी मयस्सर नहीं हैं, यही कह सकता हूं कि त्रिपुरा के सुदूर गांवों तक की सड़कों पर मैं घूमा हूँ। टिन शेड के घरों में भी बल्ब की रोशनी और पानी देती टोटियां देखी हैं। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विकसित हरियाणा जैसे राज्यों में आज तक महिलाओं के सिरों से पानी भरी टोकनियां और घडे नहीं उतरे हैं। यह भी कि पानी उत्तर के दोआबे के गांवों में गहराई पर चला गया है और इतना जहरीला हो गया है कि कैंसर फैलाने का कारण बन गया है।

शिक्षा का सच

त्रिपुरा की निवर्तमान वाम मोर्चा सरकार पर गांवों खासकर जनजातीय लोगों तक शिक्षा न पहुंचाने के आरोप के शोर में सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि भाजपा की सत्ता वाले आदिवासी बहुल राज्यों ही नहीं, कथित मुख्यधारा वाले विकसित राज्यों में पिछले कुछ सालों में नए सरकारी स्कूल खुलना तो दूर, कितने स्कूल बंद किए जा चुके हैं। उच्च शिक्षा का जिस तरह निजीकरण किया जा रहा है, उसके दुष्परिणाम कुकुरमुत्ते की तरह उग आए इंजीनियरिंग कॉलेजों के रूप में भी देख सकते हैं। विश्वविद्यालयों की जो दुर्गति की जा रहा है और जेएनयू जैसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों को जिस तरह निशाना बनाया जा रहा है, किसी से छिपा नहीं है। मीडिया अपने इस शोर के बीच जरा त्रिपुरा की साक्षरता दर पेश करने का साहस भी दिखाता और बताता कि कोई राज्य जहां की सरकार `शिक्षा विरोधी` वाम मोर्चा चला रहा हो, कैसे साक्षरता में अव्वल ठहरता है। त्रिपुरा में जनजातियों के बीच शिक्षा के अधिकार के लिए वाम मोर्चा का योगदान ऐतिहासिक रहा है। वहां की राजशाही से लेकर लोकतंत्र स्थापित हो जाने के बाद तक दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी शख्सियतों के नेतृत्व में चलाई गई जनशिक्षा समिति की मुहिम में वाम शामिल था।
हकीकत तो यह है कि त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने सीमित संसाधनों के बावजूद दूर-दराज के इलाकों तक स्कूल और उनमें शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित की। स्थिति तो यह है कि वाम मोर्चे की हार की समीक्षा करते वाम नेताओं को भी लगता है कि राज्य में शिक्षा के प्रसार से जिस तरह शिक्षित युवाओं की संख्या बढी, उस लिहाज से उन्हें उपयुक्त रोजगार नहीं दिया जा सका। नया शिक्षित वर्ग परंपरागत कामों में खपा नहीं रह सकता था और इतने रोजगार पैदा कर पाना राज्य सरकार के बूते की बात नहीं थी। भाजपा ने वादा किया कि त्रिपुरा में उसकी सरकार आई तो हर घर में रोजगार दिया जाएगा। गौरतलब है कि भाजपा की यह वादाबाजी नई नहीं है। उसने केंद्र में सरकार बनाने के लिए 2014 के लोकसभ चुनाव में हर साल दो करोड रोजगार देने का वादा किया था और तीन साल के बाद उसी पार्टी की सरकार के प्रधानमंत्री ने पकौडे बेचने को रोजगार की संज्ञा दे दी है। त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव के दौरान ही केंद्र सरकार के प्रतिनिधि सरकारी नौकरी को गुलामी और भीख भी करार दे रहे थे। यहां तक कि केंद्र सरकार ने अपनी असफलता छिपाने के लिए यह तक ऐलान कर दिया था कि रोजगार के आंकडे बताए नहीं जाएंगे। सवाल है कि रोजगार को लेकर इस हद तक झूठ बोलने वाली भाजपा पर त्रिपुरा के युवाओं ने यकीन क्यों किया!
वाम पर एक बेशर्मी भरा आरोप लIता रहा है कि वह गरीबी पर फलती-फूलती है। गरीबों के लिए योजनाओं और पहलकदमी की बात करें तो त्रिपुरा की वाम सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह आम गरीब लोगों की न्यूनतम जरूरतों को ध्यान में रखकर चल रही योजनाओं के क्रियान्वयन के मामले में भी बेहतरीन रही है। मनरेगा और दूसरी योजनाओं का पैसा रिलीज करने में केंद्र के निराशाजनक रवैये के बावजूद त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने गरीब तबके से मुंह नहीं मोडा। बंगाल की हार के बावजूद वाम मोर्चा ने त्रिपुरा में पिछले चुनाव में जीत का सिलसिला बरकरार रखा था तो इस बात के लिए माणिक सरकार और त्रिपुरा के वाम नेताओं की प्रशंसा हुई थी कि उन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में भी अपने रास्ते से समझौता नहीं किया। माकपा के केंद्रीय नेताओं ने भी कहा था कि विकास का अगर कोई जनपक्षधर मॉडल है तो वह त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की नीतियों वाला मॉडल ही है।

गरीब बनाम नया मध्यवर्ग

सवाल यह है कि त्रिपुरा में इस हार के बाद माकपा जैसी वाम पार्टियों का अपनी `गरीब परवर` वाली छवि पर कितना भरोसा रह पाएगा। लगता है कि यह सवाल माकपा के भीतर ही काफी हलचल मचाए हुआ है। हार के नतीजों के बाद माकपा से जुडे रहे कुछ बुद्धिजीवियों ने इस तरह के संकेत भी दिए। एक ने लिखा कि बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य को विकास के लिए फ्री हैंड नहीं दिया गया था, जिसके नतीजों से सबक नहीं लिया गया। दिलचस्प यह है कि बुद्धदेव ने नये मध्यवर्गीय युवाओं की आकांक्षाओं को तुष्ट करने के लिए कथित विकास की तरफ बेहद तेज कदम बढाए थे। इस तरह कि माकपा का भरोसा रखने वाला वंचित तबका बुरी तरह निराश हुआ था। बंगाल में न खुदा ही मिला, विसाले सनम की स्थिति झेल चुकने के बावजूद इस तरह की बातें चौंकाने वाली हैं। दरअसल, त्रिपुरा में भी माकपा के भीतर से यह बात उठ रही है कि गरीबों के बीच चलाई गई योजनाओं से नया शिक्षित व नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है जिसकी आकांक्षाएं समझने या पूरा कर पाने में पार्टी सफल नहीं हुई है। मध्य वर्ग की आकांक्षाएं नई आर्थिक नीतियों से पैदा हो रहे भ्रष्टाचार और लालच के आकर्षण से संचालित हैं, उन्हें समझ भी लिया जाता तो क्या उन्हें साकार करने में जुटा जा सकता था?
वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन नहीं मिल पाने की राज्य कर्मचारियों की नाराजगी तो कोई छुपी बात नहीं थी। लेकिन, यह भी छुपा हुआ नहीं था कि ये सिफारिशें लागू होतीं तो इसकी कीमत भी कमजोर तबकों को ही चुकानी पडती। पिछले चुनाव में भी यह मुद्दा था पर तब माकपा यह समझाने में सफल रही थी कि कसूर केंद्र का है। केंद्र ने राज्य की मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपये कम दिए। वाम सरकार का जोर यह समझाने पर भी था कि वेतन के रुपयों से ज्यादा महत्वपूर्ण कर्मचारियों की गरिमा और सरकारी विभागों की सुरक्षा है जिसके लिए वह प्रतिबद्ध है। माणिक सरकार यह समझाने पर जोर देते थे कि त्रिपुरा में न सरकारी विभाग खत्म किए जा रहे हैं, न छंटनी की जा रही है और न कर्मचारियों को उत्पीडन का शिकार बनाया जा रहा है और हर हाल में महीने की पहली तारीख को वेतन का भुगतान किया जा रहा है। बहरहाल, इस बार वाम मोर्चा की हार के बाद त्रिपुरा की नई सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए एक तीन सदस्यीय समीक्षा पैनल गठित कर दिया है। क्या होगा, किसे लाभ होगा और किसे खमियाजा भुगतना होगा, यह बाद में पता चलेगा पर फिलहाल यह जानना दिलचस्प होगा कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए गठित किए गए समीक्षा पैनल के काम में यह भी शामिल है कि ग्रुप डी की नौकरियां बनी रहनी चाहिए या नहीं।

स्थिरता, शांति और विकास   
2012 में इस रिपोर्टर की जंपुई हिल्स (त्रिपुरा) की यात्रा
नयी दुनिया में अमीरों के मन में ही नहीं बल्कि निम्न मध्य वर्ग तक में गरीबों के प्रति नफरत बेहद बढ चुकी है। शहरी बंगाली तबका पहले ही वाम को गरीबों की हमदर्द या विकास विरोधी मानते हुए दिल से पसंद नहीं करता था। इस चुनाव में इलीट बंगाली और नया मध्य वर्ग भारतीय जनता पार्टी का उत्साह से टूल बना और वंचित तबका भी आक्रामक प्रचार का शिकार हुआ। ऐसे में मामला ज्यादा पेंचीदा है: कि माकपा की अगली रणनीति किस लाइन पर भरोसा जताएगी? कि क्या कोई प्रग्रेसिव राज्य सरकार सिर्फ सब्सिडी का वितरण सुनिश्चित करके दमनकारी केंद्र की इच्छा के विरुद्ध सर्वाइव कर सकती है? हालांकि, त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार की उपलब्धियों को सिर्फ यहीं तक सीमित कर देखना ज्यादती ही होगी। एक बुरी तरह डिस्टर्ब रहे उपेक्षित राज्य जहां पर्यटकों की आवाजाही भी नहीं थी, को केंद्र की सरकारों के विरोध के बावजूद स्थिरता, शांति और विकास के रास्ते पर ले जाने का वाम मोर्चा सरकार का कारनामा ऐतिहासिक है।

यह भी ध्यान रखना होगा कि भौगोलिक रूप से त्रिपुरा दूसरे राज्यों की तरह सडक और रेल से जुडा हुआ नहीं था। कुछ सालों पहले तक अगरतला पहुंचने के लिए एक छोटी रेलवे लाइन पर निर्भर रहना पडता था जो गुहावाटी से अगरतला तक बेहद लंबे रास्ते से पहुंचती थी। गुहावाटी से अगरतला पहुंचने वाला सडक मार्ग भी बेहद लंबा और कठिन है। कोलकाता और अगरतला के बीच बांग्लादेश पडता है। पहले कोलकाता से अगरतला पहुंचने का जो सुगम मार्ग था वह अब बांग्लादेश का हिस्सा है। ऐसे में अगरतला से कोलकाता के बीच यातायात का आसान रास्ता वायुमार्ग ही है जिसकी अपनी सीमाएं हैं।
इन्हीं परिस्थितियों में त्रिपुरा सामाजिक सूचकांकों के लिहाज से आगे ही रहा। प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से वह उत्तर पूर्व के राज्यों में शीर्ष पर पहुंचा। फल, सब्जी, दूध आदि के उत्पादन में आत्मनिर्भर इस राज्य से कभी किसानों की आत्महत्या की खबरें नहीं आईं, न ही भूख से मौत की। अकारण नहीं है कि नई सरकार के विकास के शोर के बीच ये आशंकाएं भी शुरु हो गई हैं कि आने वाले दिनों में यह राज्य भी किसानों की आत्महत्या के मामले में अपवाद नहीं रहेगा। सोशल मीडिया पर पी साईंनाथ के नाम से इस आशंका वाला बयान काफी वायरल भी हुआ है।

प्राकृतिक संसाधनों पर नज़र 

यह भी याद रखना होगा कि त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार ने जो कुछ किया, राज्य के वन और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की यथासम्भव रक्षा करते हुए किया। नए मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब इसी उपलब्धि को शिकायत के तौर पर गिनाते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में संसाधनों की कमी न होने के बावजूद विकास नहीं हुआ है। गौरतलब है कि त्रिपुरा में जंगल का मतलब सिर्फ चीड़ के जंगल नहीं हैं बल्कि वहां साल, सागौन आदि दूसरे पेड़ों के वन भी मौजूद हैं तो इसलिए कि रबर की खेती को बढ़ावा देने के बावजूद परंपरागत वनों व पहाड़ों के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए वाम मोर्चा सरकार यथासंभव प्रतिबद्ध रही। तेल, गैस आदि खनिज संपदा हासिल करने के लिए भी गेल जैसी सरकारी संस्थाओं का ही सहारा लिया गया। अब विकास के नाम पर वनों और खनिज संपदा के दोहन में देसी-विदेशी कंपनियों को छूट की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। भाजपा शासित दूसरे आदिवासी बहुल राज्यों के लूट-खसोट और दमन के अनुभव हमारे सामने हैं।


केंद्र का रवैया

बंगाल की ज्योति बसु सरकार में वित्त मंत्री रहे अर्थशास्त्री और लेखक अशोक मित्र का दशकों पहले का यह कथन भारतीय गणतंत्रात्मक व्यवस्था की आज भी पोल खोल रहा है कि राज्य सरकारें बहुत हुआ तो डिग्नीफाइड म्यूनिस्पेलिटीज हैं। केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा की सरकार आने के बाद तो यह विश्लेषण भी बेकार हो गया है। यहभी नहीं कहा जा सकता है कि किसी राज्य में गैर भाजपाई सरकार की डिग्निटी भी सुरक्षित रह सकती है। ऐन दिल्ली में केजरीवाल सरकार को लगातार रौंदने और अपमान की कोशिशों यह तो समझा हही जा सकता है कि त्रिपुरा में वामपंथी सरकार को गिराने के लिए क्या नहीं किया गया होगा। इसी साल गणतंत्र दिवस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री माणिक सरकार का संदेश रिकॉर्ड कर लेने के बाद दूरदर्शन ने प्रसारित करने से इंकार कर दिया जाना तो एक बानगी भर था।

ट्राइबल और बंगाली
असल में माकपा के लिए भी यह चुनाव ऐसा पहला अनुभव रहा होगा। चुनाव से पहले ही राज्य को जबरन हिंसा में झोंक दिया गया था। माणिक सरकार ने अपने गणतंत्र दिवस के संदेश में यही आशंका जाहिर की थी और फासिस्टों से चौकन्ना रहने की अपील की थी। `ट्राइबल बनाम बंगाली` यह मुद्दा त्रिपुरा में बेहद संवेदनशील रहा है। त्रिपुरा ने इसी मसले को लेकर भयंकर रक्तपात और आतंक के दौर भी देखे हैं। त्रिपुरा में बंगाली लोग पहले अंग्रेजों के साथ और फिर विभाजन के वक्त पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से विस्थापित होकर आए हैं और यहां की सत्ता और संस्कृति पर हावी हुए हैं। दमन के आरोपों के बावजूद एक बडा सच यह है कि माकपा ने ही इस खाई को यथासंभव पाटने की भरसक कोशिशें की हैं। त्रिपुरा में सीएम पद तक पहुंचे एकमात्र ट्राइबल दशरथ देब भी माकपा से ही थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार बनी थी तो केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार व राज्य के चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) का गठन किया गया था। ट्राइबल्स के जंगल-जमीन के अधिकार सुनिश्चित करने जैसे कामों के चलते भी ट्राइब्लस एरिया में माकपा का आधार मजबूत था। लेकिन पिछले चुनाव में ट्राइबल एरिया में 20 में से 19 सीटें जीतने वाला वाम मोर्चा इस बार एक भी सीट नहीं जीत सका। भाजपा ने अलग ट्राइबल राज्य के लिए संघर्षरत रहे एक विवादास्पद `चरमपंथी` संगठन से चुनावी गठबंधन किया था। चुनाव से पहले ही हिंसक हालात पैदा कर दिए गए थे जो भाजपा की जीत के बाद और भयावह शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। वाम मोर्चा अनचाही परिस्थितियों में फंस चुका था। ट्राइबल्स की बोली कोरबरोक की लिपि को लेकर चले आ रही नाराजगी और अलग राज्य की मांग वाले संगठन के असर को माकपा भांप पाने में भी नाकाम रही। आतंक के दौर को याद दिलाने वाले भाषण ग्रामीण बंगाली समाज के बीच भी बेअसर रहे। जिस पीढी ने उस भयावह दौर को देखा ही नहीं था, उस पर ऐसे भाषण बेअसर रहने ही थे। लेकिन, कमाल की बात यह रही कि बंगाली समाज ने भाजपा के चुनावी गठबंधन को भी आसानी से पचा लिया। शायद उसी प्रचार और समझ के चलते जिससे हिंदी प्रदेशों का `हिंदू` अभिभूत रहता आया है और तमाम विरोधाभासों के बावजूद भाजपा की झोली में चला जाता है।


सेक्युलर संस्कृति

उस्ताद राशिद खान के साथ माणिक और उनकी पत्नी पांचाली (नज़रुल कला केंद्र)
गौरतलब है कि देश के बंटवारे के दौरान विस्थापित होकर भारत आए पंजाबियों की तरह त्रिपुरा का विस्थापित हिंदू बंगाली भी साम्प्रदायिकता का बेहद संभावित लक्ष्य था। लेकिन, यह वाम मोर्चा सरकार की सांस्कृतिक मुहिम का ही कारनामा था कि त्रिपुरा का बंगाली समुदाय उस तरह आक्रामक साम्प्रदायिक दिखाई नहीं देता था या कम से कम पिछले सात दशक में वह इस संकीर्णता का उस तरह शिकार नहीं था जिस तरह विस्थापित होकर आया उत्तर भारत का पंजाबी समुदाय। बांग्लादेश की सीमाओं पर बाघा बोर्डर जैसे उन्मादी माहौल के बजाय सहज स्थिति का श्रेय भी वाम मोर्चा सरकार की सांस्कृतिक मुहिम को दिया जा सकता है। दोनों देशों और विभिन्न समुदायों-संस्कतियों के बीच आदान-प्रदान वाले सुरुचिपूर्ण सांस्कतिक उत्सव आम बात थी और इनमें मुख्यमंत्री (अब पूर्व)
माणिक सरकार की उपस्थिति भी। लेकिन, लगता है कि संघ के लंबे अभियानों और देश में सरकार के चलते भाजपा की आक्रामक नीतियों ने त्रिपुरा की इस सांस्कृतिक परंपरा में सेंध लगा दी है। आशंका यही है कि त्रिपुरा में नयी सरकार के बाद इस परंपरा पर निर्णायक हमले होंगे।

निर्ममता, नाउम्मीदी और हताशा?

यह भी गौर करना चाहिए कि क्या यह वाकई कोई लोकतांत्रिक चुनाव था और यह कि लोकतंत्र भारत में सचमुच के चुनावों के लिए कितनी गुंजाइश बची है। माणिक सरकार की सीट के मतों की गिनती के दौरान हुए ड्रामे और ईवीएम की विश्वनसीयता पर सवालों को छोड भी दें तो जरा चुनाव से पहले के घटनाक्रम पर नजर डालते हैं। पूरी की पूरी कांग्रेस हाईजैक की जा चुकी थी। क्या सत्ता और पैसे के दुरुपयोग के बिना यह संभव था? सवाल यह भी है कि ऐसी स्थिति में क्या सत्ता परिवर्तन की राजनीति में सफलता की गुंजाइशें बची रह जाती हैं। चुनाव में उतरने वाली वाम पार्टियां पहले ही यह आलोचना झेलती रही हैं कि उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन की जगह सत्ता परिवर्तन को लक्ष्य बना लिया है और बुर्जुआ व्यवस्था में उनकी ऐसी नियति सुनिश्चित है। स्वाभाविक है कि त्रिपुरा के नतीजों के बाद फिर यह बात उठ रही है कि संसदीय प्रणाली हर क्रांतिकारी राजनीतिक दल को अंततः बर्जुआ रेडिकल पार्टी बनाकर आत्मसात करने में देर नहीं लगाती है और धीरे-धीरे उसके कैडर को भ्रष्ट करती है। उसके नेताओं को भी  कामप्लिसेंट (व्यवस्था अनुवर्ती) बनाने में देर नहीं लगाती।
त्रिपुरा में वाम मोर्चा सरकार की हार के बाद निर्मम आलोचनाओं और विश्लेषणों से गुरेज नहीं होना चाहिए। जो हुआ, उसकी आशंकाएं तो पिछली जीत के बावजूद छुपी हुई नहीं थी जिनसे पार पा न पाने की नाकामी से वाम मोर्चा इंकार नहीं कर सकता है। सबसे बडी नाकामी तो यह भी है कि माकपा माणिक सरकार का विकल्प पेश नहीं कर सकी। त्रिपुरा के पिछले चुनाव के बाद समयांतर में ही छपे अपने लेख का यह वाक्य दोहराना जरूरी लग रहा है- ``तमाम चुनौतियों के साथ लेफ्ट की सबसे बड़ी चुनौती इस वक्त यह है कि वह वृद्ध हो रहे माणिक सरकार जैसा तपा-तपाया ईमानदार, कल्पनाशील और यर्थावादी नेता कमान संभालने के लिए तैयार रखे।`` त्रिपुरा में वाम मोर्चा ने नृपेन चक्रवर्ती के बाद दशरथ देब और उनके बाद माणिक सरकार जैसे मुख्यमंत्री दिए जिनकी अपनी छवि लेजेंड्री रही। हालांकि खुद माणिक सरकार अपनी छवि को बहुत महत्व दिए जाने को खारिज करते रहे हैं। 2013 के चुनाव की जीत के बाद उन्होंने कहा था, ``इतिहास में व्यक्ति की एक भूमिका तो होती है, लेकिन व्यक्ति की भूमिका इतिहास से बड़ी नहीं होती है। जनता का संगठित आंदोलन ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है और मैं भी उसी आंदोलन का हिस्सा हूं।`` लेकिन यह भी सच है कि नेता के व्यक्तित्व जो उसके विचारों और कामों से ही बनता है, का बडा महत्व होता है। अब जबकि शानदार विजय अभियानों के बाद यह काफी निर्णायक किस्म की हार भी माणिक सरकार के नेतृत्व के खाते में ही जाती है तो मुडकर उनकी, उनके समकालीनों और पूर्ववर्ती सहयोगियों, नेताओं की और अंतत: वाम मोर्चा सरकार की अविश्वसवनीय सी लगने वाली उपलब्धियों को आवेग या निराशा में आंखें मूंदकर भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।     
समीक्षाओं और विश्लेषणों के बीच कई प्रगतिशील व उदार बुद्धिजीवियों की ऩफरत भरी मुहिम का जिक्र भी बतौर याददिहानी जरूरी है। जब प्रदेश भर में वाम कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा जारी थी, लेनिन की मूर्तियां गिराई जा रही थीं और राज्यपाल तक विवादास्पद बयान दे रहे थे तो कई प्रगतिशील और उदार कहे जाने वाले बुद्धिजीवी भी इसकी निंदा करने के बजाय वाम मोर्चा की ही निंदा करने में जुटे हुए थे। यहां तक कि माणिक सरकार की ईमानदार और सादगीपूर्ण छवि पर हमले में भी वे आरएसएस से पीछे नहीं थे। जबकि एक सवाल तो यही था कि क्या माणिक सरकार जैसे नेतृत्व की हार किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्म का कारण नहीं है। यह मूलत: मूल्यों और ईमानदारी की हार है। अव्वल तो यह लोकतंत्र की हार है और इस बात का प्रमाण है कि भारत में लोकतंत्र के नाम पर आगे क्या होने जा रहा है। ऐसे में जरा ठहरकर यह महसूस करने के बजाय भ्रष्ट शासक वर्ग की दृष्टिहीनता और उसकी भाषा के उन्माद के उत्सव में शामिल हो जाना विचलित करने वाली स्थिति थी। वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी ने इस पर टिप्पणी भी की थी, ``जिन लोगों के मन में लड्डू फूट रहे हैं, उनका हाल अजीब है। उनके लहजे की चहक, आंखों की चमक, चेहरे के बदलते रंग छिपाए नहीं छिप रहे। अभी वे फुर्ती से कुछ खा, चबा और पी रहे हैं। यह मध्यांतर है। वे फिर से खेल शुरू होने के इन्तिज़ार में हैं।``

(समयांतर, अप्रैल 2018 अंक में प्रकाशित)

Thursday, August 17, 2017

माणिक सरकार का भाषण जिसका प्रसारण `बैन` कर दिया गया

प्यारे त्रिपुराबासी,

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप सब को मुबारकबाद और शुभकामनाएं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की महान स्मृति को मेरी श्रद्धांजलि। हमारे बीच मौजूद स्वतंत्रता सेनानियों को भी मैं अगाध सम्मान प्रकट करता हूँ।

स्वतंत्रता दिवस समारोह सिर्फ रस्मी मौका नहीं है। इसके ऐतिहासिक महत्व और इस के साथ हिन्दुस्तानियों के गहरे भावनात्मक जुड़ाव के मद्देनज़र इसे राष्ट्रीय आत्मविश्लेषण के लिए एक विशेष आनुष्ठानिक अवसर के रूप में लेना होगा।

इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे सामने बहुत सारे प्रासंगिक, ज़रूरी और सामयिक मुद्दे हैं।

`अनेकता में एकता` हिन्दुस्तान की पारंपरिक विरासत है। सेक्युलरिज़्म के महान मूल्यों ने हिन्दुस्तानियों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रखा है। लेकिन, आज सेक्युलरिज्म की इस भावना पर हमले हो रहे हैं। हमारे समाज में अवांछित जटिलता व फूट पैदा करने, धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर हमारी राष्ट्रीय चेतना पर हमला करने और हिन्दुस्तान को खास धार्मिक देश में तब्दील करने के लिए गौरक्षा के नाम पर उन्माद भड़काने की साजिशें-कोशिशें जारी हैं। इन सब वजहों से अल्पसंख्यक और दलित समुदायों के लोग गंभीर हमले की जद में हैं। उनकी खुद को सुरक्षित महसूस कर पाने की भावना को ध्वस्त किया जा रहा है। उनका जीवन ख़तरे में है। इन नापाक प्रवृत्तियों को बने रहने नहीं दिया जा सकता है। ये नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हैं। ये विध्वंसकारी प्रयास हमारे स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों, सपनों और लक्ष्यों के प्रतिकूल हैं। जो आज़ादी के आंदोलन के साथ जुड़े हुए नहीं थे बल्कि जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन से प्रतिघात किया था, जो जालिम लुटेरे बेरहम अंग्रेजों के ताबेदार थे, उनके अनुयायी राष्ट्रविरोधी शक्तियों के साथ गठजोड़ करके खुद को विभिन्न नामों-रंगों से सजा कर भारत की एकता-अखंडता की जड़ों पर चोट पहुंचा रहे हैं। आज हर वफ़ादार-देशभक्त भारतीय को `संगठित भारत` के आदर्श के प्रति प्रतिबद्ध रहने और इन विभाजनकारी साजिशों व हमलों का सामना करने का संकल्प लेना होगा। हम सब को अल्पसंख्यकों, दलितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए मिलकर संघर्ष करना होगा।

आज साधनसंपन्न और वंचितों के बीच की खाई तेजी से चौड़ी होती जा रही है। राष्ट्र के अथाह संसाधन और सम्पदा मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमटती जा रही है। जनता का विशाल हिस्सा ग़रीबी की मार झेल रहा है। ये लोग अमानवीय शोषण के शिकार हैं। इन्हें भोजन, छत के साये, कपड़ों, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और निश्चित आय के लिए जरूरी रोजगार सुरक्षा से वंचित किया जा रहा है। यह हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के लक्ष्यों-उद्देश्यों के प्रतिकूल है। यह हाल पूरी तरह से हमारी मौजूदा राष्ट्रीय नीतियों की वजह से है। ऐसी जनविरोधी नीतियों को पलटना होगा। लेकिन यह कोरे शब्दों से संभव नहीं है। वंचित-शोषित हिन्दुस्तानियों को उठ खड़ा होना होगा, उन्हें आवाज़ उठानी होगी, निडर व संगठित होकर अनवरत प्रतिरोध करना होगा। हमें एक वैकल्पिक नीति की दरकार है जो हिन्दुस्तानियों के विशाल बहुमत के हितों की पूर्ति करती हो। इस वैकल्पिक नीति को हक़ीकत में तब्दील करने के लिए वंचित-शोषित हिन्दुस्तानियों को इस स्वतंत्रता दिवस पर संगठित होकर एक व्यापक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आंदोलन खड़ा करने का संकल्प लेना होगा।

बेरोजगारी की विकराल होती समस्या ने हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में अवसाद और निराशा की भावना पैदा कर दी है। एक तरफ लाखों नौकरीपेशा लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो रहे हैं, दूसरी तरफ करोड़ों बेरोजगार नौकरी की बाट जोह रहे हैं जो मृग मरीचिका के सिवा कुछ नहीं है। मुनाफाखोर कॉरपोरेट्स के छोटे से समूह को मजबूती देने का काम करने वाली राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को पलटे बिना और आम हिन्दुस्तानियों की क्रय शक्ति बढ़ाए बिना इस विशालकाय राष्ट्रीय समस्या का हल सम्भव नहीं है। इसिलए, इन विध्वंसकारी नीतियों को पलटने के लिए विद्यार्थियों, नौजवानों और कर्मचारियों को इस स्वतंत्रता दिवस पर एक संगठित और सतत आंदोलन खड़ा करने का अहद उठाना होगा।

केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के बरक्स त्रिपुरा की राज्य सरकार ने अपनी सीमाओं के बावजूद जीवन से जुड़ी सभी जरूरतों के लिहाज से जनकल्याणकारी नीतियों को जारी रखा है। दबे-कुचले तबकों पर विशेष फोकस किया गया है। हमें उनके सहयोग से आगे बढ़ना है। यह पूरी तरह अलग और एक वैकल्पिक राह है। इस रास्ते ने न केवल त्रिपुरा के लोगों को आकर्षित किया है बल्कि मुल्क के दबे-कुचले लोगों का भी सकारात्मक रुख हासिल किया है। त्रिपुरा में प्रतिक्रियावादी ताकतों को यह बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, राज्य के अमन, भाईचारे और अखंडता को तोड़ने के लिए जनशत्रु एक के बाद एक साजिशें रच रहे हैं। विकास कार्यों को तहस-नहस करने की कोशिशें भी जारी हैं। हमें इन नापाक मंसूबों का प्रतिकार करना होगा, प्रतिक्रियावादी शक्तियों को अलग-थलग करना होगा। इसके मद्देनज़र, इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी बेहतर ढंग से सोचने वाले, शांतिप्रिय और विकास की चाह रखने वाले लोगों को इन विध्वंसकारी शक्तियों के खिलाफ आगे आने और मिलकर काम करने का दृढ़ संकल्प लेना होगा।
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(सीपीआईएम की ओर से मीडिया को जारी किए गए `भाषण` का अंग्रेजी से अनुवाद)

त्रिपुरा की वाम मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के मुताबिक, 12 अगस्त, 2017 को दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रसारण के लिए उनके भाषण की रिकॉर्डिंग की थी। 14 अगस्त, 2017 को इस भाषण के प्रसारण में असमर्थता जताते हुए इसे बदलने के लिए कहा गया जिससे उन्होंने इंकार कर दिया। इस बारे में उन्हें जो मेल भेजा गया, उसमें `शुचिता`, `गंभीरता` और `भारत के लोगों की भावनाओं` के लिहाज से भाषण को अवसरानुकूल बनाने की मांग की गई थी। ऑल इंडिया रेडियो के `हेड ऑफ प्रोग्राम` की तरफ से भेजे गए इस मेल के साथ `Assistant Director of Programmes (Policy) for Director General AIR` का पत्र संलग्न था। पत्र में सीईओ प्रसार भारती और दिल्ली में लिए गए सुझावों का भी हवाला दिया गया था। इस फैसले को लेकर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार पर तानाशाही और सेंसरशिप का आरोप लगाया जा रहा है।

Saturday, April 5, 2014

माणिक सरकार को आप कितना जानते हैं? : धीरेश सैनी


मेरी दिलचस्पी त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मणिक सरकार (बांग्ला डायलेक्ट के लिहाज से मानिक सरकार) के बजाय उनकी पत्नी पांचाली भट्टाचार्य से मिलने में थी। मैंने सोचा कि निजी जीवन के बारे में `पॉलिटिकली करेक्ट` रहने की चिंता किए बिना वे ज्यादा सहज ढंग से बातचीत कर सकती हैं, दूसरे यह भी पता चल सकता है कि एक कम्युनिस्ट नेता और कड़े ईमानदार व्यक्ति के साथ ज़िंदगी बिताने में उन पर क्या बीती होगी। पर वे मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा सहज और प्रतिबद्ध थीं, मुख्यमंत्री आवास में रहने के जरा भी दंभ से दूर। बातचीत में जिक्र आने तक आप यह भी अनुमान नहीं लगा सकेंगे कि वे केंद्र सरकार के एक महकमे सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड के सेक्रेट्री पद से रिटायर हुई महिला हैं। 

फौरन तो मुझे हैरानी ही हुई कि एक वॉशिंग मशीन खरीद लेने भर से वे अपराध बोध का शिकार हुई जा रही हैं। मैंने एक अंग्रेजी अखबार की एक पुरानी खबर के आधार पर उनसे जिक्र किया था कि मुख्यमंत्री अपने कपड़े खुद धोते हैं तो उन्होंने कहा कि जूते खुद पॉलिश करते हैं, पहले कपड़े भी नियमित रूप से खुद ही धोते थे पर अब नहीं। वे 65 साल के हो गए हैं, उनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है, बायपास सर्जरी भी हुई, ऊपर से भागदौड़, मीटिंगों, फाइलों आदि से भरी बेहद व्यस्त दिनचर्या। पांचाली ने बताया कि दिल्ली में रह रहे बड़े भाई का अचानक देहांत होने पर मैं दिल्ली गई थी तो भाभी ने जोर देकर वादा ले लिया था कि अब वॉशिंग मशीन खरीद लो। लौटकर मैंने माणिक सरकार से कहा तो वे राजी नहीं हुए। मैंने समझाया कि हम दोनों के लिए ही अब खुद अपने कपड़े धोना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है तो उन्होंने पैसे तय कर किसी आदमी से इस काम में मदद लेने का सुझाव दिया। कई दिनों की बहस के बाद उन्होंने कहा कि तुम तय ही कर चुकी हो तो सलाह क्यों लेती हो। 

सीएम आवास के कैम्प आफिस के एक अफसर से मैंने हैरानी जताई कि क्या मुख्यमंत्री के कपड़े धोने के लिए सरकारी धोबी की व्यवस्था नहीं है तो उसने कहा कि यह इस दंपती की नैतिकता से जुड़ा मामला है। मणिक सरकार ने मुख्यमंत्री आवास में आते ही अपनी पत्नी को सुझाव दिया था कि रहने के कमरे का किराया, टेलिफोन, बिजली आदि पर हमारा कोई पैसा खर्च नहीं होगा तो तुम्हें अपने वेतन से योगदान कर इस सरकारी खर्च को कुछ कम करना चाहिए। और रसोई गैस सिलेंडर, लॉन्ड्री (सरकारी आवास के परदे व दूसरे कपड़ों की धुवाई) व दूसरे कई खर्च वे अपने वेतन से वहन करने लगीं, अब वे यह खर्च अपनी पेंशन से उठाती हैं।

मैंने बताया कि एक मुख्यमंत्री की पत्नी का रिक्शा से या पैदल बाज़ार निकल जाना, खुद सब्जी वगैरहा खरीदना जैसी बातें हिंदी अखबारों में भी छपी हैं। यहां के लोगों को तो आप दोनों की जीवन-शैली अब इतना हैरान नहीं करती पर बाहर के लोगों में ऐसी खबरें हैरानी पैदा करती हैं। उन्होंने कहा कि साधारण जीवन और ईमानदारी में आनंद है। मैंने तो हमेशा यही सोचा कि मणिक मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे तो ये स्टेटस-प्रोटोकोल आदि छूटेंगे ही, तो इन्हें पकड़ना ही क्यों। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से मेरे पति पर कोई उंगली उठे। मेरा दफ्तर पास ही था सो पैदल जाती रही, कभी जल्दी हुई तो रिक्शा ले लिया। सेक्रेट्री पद पर पहुंचने पर जो सरकारी गाड़ी मिली, उसे दूर-दराज के इलाकों के सरकारी दौरों में तो इस्तेमाल किया पर दफ्तर जाने-आने के लिए नहीं। सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद अब सीआईटीयू में महिलाओं के बीच काम करते हुए बाहर रुकना पड़ता है। आशा वर्कर्स के साथ सोती हूं तो उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि सीएम की पत्नी उनकी तरह ही रहती है। एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के लिए नैतिकता बड़ा मूल्य है और एक नेता के लिए तो और भी ज्यादा। मात्र 10 प्रतिशत लोगों को फायदा पहुंचाने वाली नई आर्थिक नीतियों और उनसे पैदा हो रहे लालच व भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और उससे मिलने वाली नैतिक शक्ति सबसे जरूरी चीजें हैं।

दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी। करीब अढ़ाई लाख रुपये की इस सम्पत्ति में उनकी मां अंजलि सरकार से उन्हें मिले एक टिन शेड़ के घर की करीब 2 लाख 22 हजार रुपये कीमत भी शामिल है। हालांकि, यह मकान भी वे परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए ही छोड़ चुके हैं। इस दंपती के पास न अपना घर है, न कार। कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर अक्सर उपेक्षा या दुष्प्रचार करने वाले अखबारों ने `देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री` शीर्षक से उनकी संपत्ति का ब्यौरा प्रकाशित किया। किसी मुख्यमंत्री का वेतन महज 9200 रुपये मासिक (शायद देश में किसी मुख्यमंत्री का सबसे कम वेतन) हो, जिसे वह अपनी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) को दे देता हो और पार्टी उसे पांच हजार रुपये महीना गुजारा भत्ता देती हो, उसका अपना बैंक बेलेंस 10 हजार रुपये से भी कम हो और उसे लगता हो कि उसकी पत्नी की पेंशन और फंड आदि की जमाराशि उनके भविष्य के लिए पर्याप्त से अधिक ही होगी, तो त्रिपुरा से बाहर की जनता का चकित होना स्वाभाविक ही है।

हालांकि, संसदीय राजनीति में लम्बी पारी के बावजूद लेफ्ट पार्टियों के नेताओं की छवि अभी तक कमोबेश साफ-सुथरी ही ही रहती आई है। त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल की लेफ्ट सरकारों में मुख्यमंत्री रहे या केंद्र की साझा सरकारों में मंत्री रहे लेफ्ट के दूसरे नेता भी काजल की इस कोठरी से बेदाग ही निकले हैं। लेफ्ट पार्टियों ने इसे कभी मुद्दा बनाकर अपने नेताओं की छवि का प्रोजेक्शन करने की कोशिश भी कभी नहीं की। मणिक सरकार से उनकी साधारण जीवन-शैली और `सबसे गरीब मुख्यमंत्री` के `खिताब` के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरी पार्टी और विचारधारा मुझे यही सिखाती है। मैं ऐसा नहीं करुंगा तो मेरे भीतर क्षय शुरू होगा और यह पतन की शुरुआत होगी। इसी समय केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के लिए अभूतपूर्व बदनामी हासिल कर चुकी थी और उसकी जगह लेने के लिए बेताब भारतीय जनता पार्टी केंद्र में अपनी पूर्व में रही सरकार के दौरान हुए भयंकर घोटालों और अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के मौजूदा कारनामों पर शर्मिंदा हुए बगैर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश को स्वच्छ व मजबूत सरकार देने का वादा कर रही थी। अल्पसंख्यकों की सामूहिक हत्याओं और अडानी-अंबानी आदि घरानों पर सरकारी सम्पत्तियों व सरकारी पैसे की बौछार में अव्वल लेकिन आम-गरीब आदमी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि मसलों पर फिसड्डी गुजरात को विकास का मॉडल और इस आधार पर खुद को देश का भावी मजबूत प्रधानमंत्री बताते घूम रहे नरेंद्र मोदी की शानो शौकत भरी जीवन-शैली के बरक्स मणिक सरकार की `सबसे गरीब-ईमानदार मुख्यमंत्री की छवि` वाली अखबारी कतरनों ने विकल्प की तलाश में बेचैन तबके को भी आकर्षित किया जिसने इन कतरनों को सोशल मीडिया पर जमकर शेयर किया। हालांकि, ये कतरनें मणिक सरकार की व्यक्तिगत ईमानदारी के तथ्यों को जरा और मिथकीय बनाकर तो पेश करती थीं पर इनमें भयंकर आतंकवाद, आदिवासी बनाम बंगाली संघर्ष व घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे पूरी तरह संसाधनविहीन अति-पिछड़े राज्य को जनपक्षीय विकास व शांति के रास्ते पर ले जाने की उनकी नीतियों की कोई झलक नहीं मिलती थी। लोकसभा चुनाव में जाने से पहले माकपा का शीर्ष नेतृत्व सेंट्रल कमेटी की मीटिंग के लिए अगरतला में जुटा तो उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस और सार्वजनिक सभा में त्रिपुरा के विकास के मॉडल को देश के विकास के लिए आदर्श बताते हुए कॉरपोरेट की राह में बिछी यूपीए, एनडीए आदि की जनविरोधी आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दरअसल, मणिक सरकार और त्रिपुरा की उनके नेतृत्व वाली माकपा सरकार की उपलब्धियां उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी की तरह ही उल्लेखनीय हैं लेकिन उनका जिक्र कॉरपोरेट मीडिया की नीतियों के अनुकूल नहीं पड़ता है।

लेकिन, भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं के लिए मणिक सरकार की ईमानदारी को लेकर छपी छुटपुट खबरों से ही अपमान महसूस करना स्वाभाविक था। गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के सिलसिले में अगरतला आए तो वे विशाल अस्तबल मैदान (स्वामी विवेकानंद मैदान) में जमा तीन-चार हजार लोगों को संबोधित करते हुए अपनी बौखलाहट रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट खुद को ज्यादा ही ईमानदार समझते हैं और इसका खूब हल्ला करते हैं। उन्होंने गुजरात के विकास की डींग हांकते हुए रबर की खेती और विकास के सब्जबाग दिखाते हुए कमयुनिस्टों को त्रिपुरा की सत्ता से बाहर कर कमल खिलाने का आह्वान किया। लेकिन, उनका मुख्य जोर बांग्लादेश सीमा से लगे इस संवेदनशील राज्य में साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने और तनाव की राजनीति पर जोर देने पर रहा। उन्होंने कहा कि त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण खतरा पैदा हो गया है जबकि गुजरात से सटा पाकिस्तान मुझसे थर्राता रहता है। झूठ और उन्माद फैलाने के तमाम रेकॉर्ड अपने नाम कर चुके मोदी को शायद मालूम नहीं था कि मणिक सरकार की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण सीआईए-आईएसआई के संरक्षण में चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर नियंत्रण और आदिवासी बनाम बंगाली वैमनस्य की राजनीति को अलग-थलग कर दोनों समुदायों में बड़ी हद तक विश्वास का माहौल बहाल करना भी है।

माकपा के नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब जैसे दिग्गज नेताओं के मुख्यमंत्री रहने के बाद 1998 में मणिक सरकार को यह जिम्मेदारी दी गई थी तो विश्लेषकों ने इसे एक अशांत राज्य का शासन चलाने के लिहाज से भूल करार दिया था। 1967 में महज 17-18 बरस की उम्र में छात्र मणिक प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ चले खाद्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल रहे थे। उस चर्चित जनांदोलन में प्रभावी भूमिका उन्हें माकपा के नजदीक ले आई और वे 1968 में विधिवत रूप से माकपा में शामिल हो गए। वे बतौर एसएफआई प्रतिनिधि एमबीबी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के महासचिव चुने गए और कुछ समय बाद एसएफआई के राज्य सचिव और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1972 में वे माकपा की राज्य इकाई के सदस्य चुने गए और 1978 में प्रदेश की पहली माकपा सरकार अस्तित्व में आई तो उन्हें पार्टी के राज्य सचिव मंडल में शामिल कर लिया गया। 1980 के उपचुनाव में वे अगरतला (शहरी) सीट से विधानसभा पहुंचे और उन्हें वाम मोर्चा चीफ व्हिप की जिम्मेदारी सौंपी गई। 1985 में उन्हें माकपा की केंद्रीय कमेटी का सदस्य चुना गया। 1993 में त्रिपुरा में तीसरी बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उन्हें माकपा के राज्य सचिव और वाम मोर्चे के राज्य संयोजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं। 1998 में पार्टी ने उन्हें पॉलित ब्यूरो में जगह दी और त्रिपुरा विधानसभा में फिर से बहुमत में आए वाम मोर्चा ने विधायक दल का नेता भी चुन लिया। कहने का आशय यह कि यदि अशांत राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी एक मुश्किल चुनौती थी तो उनके पास जनांदोलनों और पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का कीमती अनुभव भी था।

मणिक के मुख्यमंत्री कार्यकाल की शुरुआत को याद करते हुए जॉर्ज सी पोडीपारा (त्रिपुरा में उस समय सीआरपीएफ के आईजी) लिखते हैं कि आज के त्रिपुरा को आकर देखने वाला अनुमान नहीं लगा पाएगा कि उस समय कैसी विकट परिस्थितियां थीं जिन पर मणिक सरकार ने कड़े समर्पण, जनता के प्रति प्रतिबद्धता, विश्लेषण करने, दूसरों को सुनने, अपनी गलतियों से भी सीखने और फैसला लेने की अद्भुत क्षमता, धैर्य और दृढ़ निश्चय से नियंत्रण पाया था। जॉर्ज के मुताबिक, `एक सच्चे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राज्य के लिए बाधा बनी समस्याओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया। उस समय राज्य में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच आपसी अविश्वास और वैमनस्य सबसे बड़ी चुनौती थे। दो जाति समूहों के बीच का बैर किसी भी तरह के आपसी संवाद को बांस के घने बाड़े की तरह बाधित किए हुए था। निर्दोषों की हत्या, अपहरण और संपत्ति की लूटपाट 1979 तक भी एक आम रुटीन जैसी बातें थीं। मणिक सरकार ने महसूस किया कि जब तक यह दुश्मनी बरकरार रहेगी और जनता के बड़े हिस्से एक दूसरे को बर्बाद करने पर तुले रहेंगे, राज्य गरीब और अविकसित बना रहेगा। उन्होंने अपना ध्यान इस समस्या पर केंद्रित किया और अपनी सरकार के सारे संसाधन इससे लड़ने के लिए खोल दिए।

मणिक सरकार ने एक तरफ टीयूजेएस, टीएनवी और आमरा बंगाली जैसे आतंकी व चरमपंथी संगठनों के खिलाफ सख्ती जारी रखी, दूसरी तरफ आदिवासी इलाकों में विकास को प्राथमिकता में शामिल किया। यहां की कुछ जनजातियों के नाम भाषण में पढ़कर आदिवासियों के प्रति भाजपा के प्रेम का दावा कर गए नरेंद्र मोदी को क्या याद नहीं होगा कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के जंगलों में रह रहे आदिवासियों को कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए उजाड़ने और उनकी हत्याओं के अभियान चलाने में उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों की ही सरकारों की क्या भूमिका रहती आई है? इसके उलट मणिक सरकार ने त्रिपुरा में आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज कर निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया। उनकी अगुआई वाली लेफ्ट सरकार ने सुदूर इलाकों तक बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित कीं और कांग्रेस के शासनकाल में आदिवासियों की जिन ज़मीनों का बड़े पैमाने पर अवैध रूप से मालिकाना हक़ ट्रांसफर कर दिया गया था, उन्हें यथासंभव आदिवासयों को लौटाने की पूर्व की लेफ्ट सरकारों में की गई पहल को आगे बढ़ाया। प्रदेश में जंगल की करीब एक लाख 24 हेक्टेयर भूमि आदिवासियों को पट्टे के रूप में दी गई, जिसके संरक्षण के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जा रही है।

खास बात यह रही कि उस बेहद मुश्किल दौर में मुख्यमंत्री मणिक सरकार ने यह एहतियात रखी कि शांति स्थापित करने के प्रयास निर्दोष आदिवासयों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं का सिलसिला न साबित हों। वे सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के अधिकारियों से नियमित संपर्क में रहे और लगातार बैठकों के जरिए यह सुनिश्चित करते रहे कि आम आदिवासियों को दमन का शिकार न होना पड़े। इसके लिए माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में आगे रहकर शहादतें भी देनी पड़ीं। यूं भी आदिवासियों के बीच लेफ्ट के संघर्षों की लम्बी परंपरा थी। त्रिपुरा में राजशाही के दौर में ही लेफ्ट लोकतंत्र की मांग को लेकर संघर्षरत था। उस समय दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी शख्सियतों द्वारा आदिवासियों को शिक्षा के अधिकार के लिए जनशिक्षा समिति के बैनर तले चलाई गई मुहिम में लेफ्ट भी भागीदार था। 1948 में वामपंथ के प्रसार के खतरे के नाम पर देश की तत्कालीन नेहरू सरकार ने जनशिक्षा समिति की मुहिम को पलीता लगा दिया और आदिवासी इलाकों को भयंकर दमन का शिकार होना पड़ा तो त्रिपुरा राज्य मुक्ति परिषद (अब त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद यानी जीएनपी) का गठन कर संघर्ष जारी रखा गया। 1960 और 1970 में आदिवासियों के लिए शिक्षा, रोजगार, विकास और उनकी मातृभाषा कोरबरोक को महत्व दिए जाने के चार सूत्रीय मांगपत्र पर लेफ्ट ने जोरदार आंदोलन चलाए थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार आते ही केंद्र की कांग्रेस सरकार व राज्य के कांग्रेस व दूसरे चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) के गठन जैसे कामों के चलते भी आदिवासियों में माकपा का मजबूत आधार था। 
जाहिर है कि आतंकवाद के खिलाफ सख्त पहल और विकास कार्यों में तेजी के अभियान में मणिक सरकार की पारदर्शी कोशिशों को परेशानहाल आदिवासियों और खून-खराबे का शिकार हुए गरीब बंगालियों दोनों का समर्थन हासिल हुआ। हालांकि, शांति की इस मुहिम में तीन दशकों में माकपा के करीब 1179 नेताओं-कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस की राज्य इकाई हमेशा आदिवासियों और बंगाली चरमपंथी संगठनों को हवा देकर दंगे भड़काने में मशगूल रहती आई थी और इन संगठनों की बी टीमों को चुनावी पार्टनर भी बनाती रही थी। केंद्र की कांग्रेस सरकारें भी आतंकवादी संगठनों से जूझने के बजाय उनके साथ गलबहियों का खेल खेलती रहीं। लेकिन, आदिवासियों के बीच लेफ्ट का प्रभाव बरकरार रहा और राज्य में शांति स्थापित हुई तो दोनों ही समुदायों ने चैन की सांस ली। मणिक सरकार का यह कारनामा दूसरे राज्यों और केंद्र के लिए भी प्रेरणा होना चाहिए था लेकिन इसके लिए विकास की नीतियों को कमजोर तबकों की ओर मोड़ने की जरूरत पड़ती और कॉरपोरेट को सरकारी संरक्षण में जंगल व वहां के रहने वालों को उजाड़ने देने की नीति पर लगाम लगाना जरूरी होता।

मुख्यमंत्री मणिक और उनकी लेफ्ट सरकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का ही नतीजा रहा कि बेहद सीमित संसाधनों और केंद्र सरकार की निरंतर उपेक्षा के बावजूद त्रिपुरा में जनपक्षधर नीतियां सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो पाईं। केंद्र व दूसरे राज्यों में जहां सरकारी नौकरियां लगातार कम की जा रही हैं, एक के बाद एक, सरकारी महकमे बंद किए जा रहे हैं, वहीं त्रिपुरा सरकार ने तमाम आर्थिक संकट के बावजूद इस तरफ से अपने हाथ नहीं खींचे हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी से चलने वाली कल्याणकारी योजनाएं बदस्तूर जारी हैं और सरकार की वर्गीय आधार पर प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। मसलन, राज्य कर्मचारियों को केंद्र के कर्मचारियों के बराबर वेतन दे पाना मुमकिन नहीं हो पाया है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कर्मचारियों के बीच इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन मुख्यमंत्री राज्य कर्मचारियों को यह समझाने में सफल रहे थे कि केंद्र ने राज्य की मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपए कम दिए हैं।  लेकिन, तमाम दबावों के बावजूद राज्य सरकार हर साल 52 करोड़ रुपये की सब्सिडी उन गरीब लोगों को बाज़ार मूल्य से काफी कम 6.15 रुपये प्रति किलोग्राम भाव से चावल उपलब्ध कराने के लिए देती है जिन्हें बीपीएल कार्ड की सुविधा में समाहित नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि बीपीएल कार्ड धारकों को तो 2 रुपये प्रति किलोग्राम चावल दिया जा ही रहा है। गरीबों को काम देने के लिए लेफ्ट के दबाव में ही यूपीए-1 सरकार में लागू की गई मनरेगा स्कीम जहां देश भर में भयंकर भ्रष्टाचार का शिकार है, वहीं त्रिपुरा इस योजना के सफल-पारदर्शी क्रियान्वयन के लिहाज से लगातार तीन सालों से देश में पहले स्थान पर है।

तार्किक आलोचना की तमाम जगहों के बावजूद त्रिपुरा सरकार की विकास की उपलब्धियां महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश की 95 फीसदी जनता चिकित्सा के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर है। सुदूर क्षेत्रों तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही राज्य सरकार अपने कॉलेजों से पढ़कर नौकरी पाने वाले डॉक्टरों को पहले पांच साल ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने के लिए विवश करती है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से त्रिपुरा उत्तर-पूर्व राज्यों में पहले स्थान पर है तो साक्षरता दर में देशभर में अव्वल है। प्राथमिक स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के फैलाव, एनआईटी और दो मेडिकल कॉलेजों ने राज्य के छात्रों, खासकर आदिवासियों व दूसरी गरीब आबादी के छात्रों को आगे बढ़ने और सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने का मौका दिया है। सिंचाई सुविधा के विस्तार, सुनियोजित शहरीकरण, फल, सब्जी, दूध, मछली उत्पादन आदि में आत्मनिर्भरता पर त्रिपुरा गर्व कर सकता है। कभी खूनखराबे का पर्याय बन गया त्रिपुरा आज रक्तदान के क्षेत्र में भी देश में पहले स्थान पर है और इसमें आदिवासी युवकों का बड़ा योगदान है।  

नरेंद्र मोदी ने अगरतला में अपने भाषण में त्रिपुरा सरकार पर रबर की खेती को बढ़ावा देने के लिए गुजरात की तरह जेनेटिक साइंस का इस्तेमाल न करने का आरोप भी लगाया था। लेकिन, रबर उत्पादन में त्रिपुरा की उपलब्धि की जानकारी मोदी को नहीं रही होगी। रबर उत्पादन में त्रिपुरा देशभर में केरल के बाद दूसरे स्थान पर है। यह बात दीगर है कि रबर की खेती से आ रहा पैसा नई चुनौतियां भी पैदा कर रहा है। मसलन, परंपरागत जंगल और खाद्यान्न उत्पादन के मुकाबले काफी ज्यादा पैसा देने वाली रबर की खेती त्रिपुरा की प्राकृतिक पारिस्थितिकी में अंसतुलन पैदा कर सकती है लेकिन उससे पहले सामाजिक असंतुलन की चुनौती दरपेश है। आदिवासियों में एक नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है, जो गरीब आदिवासियों को सदियों के सामूहिक तानेबाने से अलग कर देखता है। उसके बीच सामाजिक-आर्थिक न्याय के सवालों पर बात करना इतना आसान नहीं रह गया है। यह नया मध्य वर्ग और दूसरे पैसे वाले लोग गरीब आदिविसियों की जमीनों को 99 साला लीज़ की आड में हड़पना चाहते हैं और एक बड़ी तबका अपनी ही ज़मीन पर मजदूर हो जाने के लिए अभिशप्त हो रहा है। माकपा के मुखपत्र `देशेरकथा` के संपादक और माकपा के राज्य सचिव मंडल के सदस्य गौतम दास कहते हैं कि उनकी पार्टी ने प्रतिक्रियावादी ताकतों से और गरीबों की शोषक शक्तियों से वैचारिक प्रतिबद्धता के बूते ही लड़ाइयां जीती हैं। उम्मीद है कि युवाओं के बीच राजनीतिक-वैचारिक अभियानों से ही इस चुनौती का भी मुकाबला किया जा सकेगा।

पड़ोसी देश बांग्लादेश के साथ त्रिपुरा सरकार के संबंधों का जिक्र भी तब और ज्यादा जरूरी हो जाता है जबकि आरएसएस और बीजेपी लम्बे समय से बांग्लादेश के साथ हिंदुस्तान के संबंधों को सिर्फ और सिर्फ नफ़रत में तब्दील कर देने पर आमादा हैं। मोदी ने उत्तर-पूर्व के दूसरे इलाकों की तरह अगरतला में भी नफ़रत की इस नीति पर ही जोर दिया। लेकिन, मुख्यमंत्री मणिक सरकार और उनकी सरकार का बांग्लादेश की सरकार साथ बेहतर संवाद है। बांग्लादेश में अमेरिका और पाकिस्तानी एंजेसियों के संरक्षण में सिर उठा रही साम्प्रदायिक ताकतों के दबाव के बावजूद वहां की मौजूदा शेख हसीना सरकार हिंदुस्तान के साथ दोस्ताना है और त्रिपुरा सरकार के साथ भी उसके बेहतर रिश्ते हैं। इस सरकार ने त्रिपुरा में आतंकवाद के उन्मूलन में भी मदद की है। अगरतला से सटे आखोरा बॉर्डर पर तनावरहित माहौल को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बांग्लादेश के उदार, प्रगतिशील तबकों व कलाकारों के साथ त्रिपुरा के प्रगाढ़ रिश्तों को अगरतला में अक्सर होने वाले कार्यक्रमों में देखा जा सकता है जिनमें मणिक सरकार की बौद्धिक उपस्थिति भी अक्सर दर्ज होती है। त्रिपुरा के लेफ्ट, उसके मुख्यमंत्री और उसकी सरकार की यह भूमिका दोनों ओर के ही अमनपसंद तबकों को निरंतर ताकत देती है।

56 इंच का सीना जैसी तमाम उन्मादी बातों और देह भंगिमाओं के साथ घूम रहे उस शख्स से त्रिपुरा के इस सेक्युलर, शालीन, सुसंस्कृत मुख्यमंत्री की तुलना का कोई अर्थ नहीं है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से कॉमर्स के इस स्नातक की कला, साहित्य, संस्कृति में गहरी दिलचस्पी है और यह उसके जीवन और राजनीति का ही जीवंत हिस्सा है। बहुत से दूसरे ताकतवर राजनीतिज्ञों और अफसरों की आम प्रवृत्ति के विपरीत इस मुख्यमंत्री को सायरन-भोंपू के हल्ले-गुल्ले और तामझाम के बिना साधारण मनुष्य की तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सुनते-समझते, कलाकारों से चर्चा करते और संस्कृतिकर्मियों से लम्बी बहसें करते देखा-सुना जा सकता है।  

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(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार पोट्रेट स्केच-उदयशंकर गांगुली)