इंडियन प्रीमियर लीग से पाकिस्तानी खिलाड़ियों को अलग कर दिया जाना बेहद तकलीफदेह है। पाकिस्तान टी-२० क्रिकेट का विश्व चैम्पियन है और इंडियन प्रीमियर लीग के मैच इसी फोर्मेट में खेले जाते हैं। अपने खराब से खराब दौर में भी पाकिस्तानी खिलाड़ी ऐसी स्थिति में कभी नहीं रहे कि उन्हें प्रतिभा के आधार पर ऐसे किसी टूर्नामेंट में नाकाबिल करार दिया जा सके। फिर शाहिद अफरीदी जैसे सितारे तो ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के लिए ही मशहूर हैं। फिर दोनों देशों के बीच यह खेल हमेशा ही पुल का काम करता रहा है। हिन्दुस्तान में पाकिस्तानी क्रिकेटर बेशुमार शोहरत रखते हैं और उस पार भी लोगों के मन में इधर के खिलाड़ियों के लिए ऐसा ही सम्मान रहा है। तमाम तनावों, धमकियों और टुच्ची सियासत के बावजूद आखिर में क्रिकेटर ही दोनों देशों के बीच राहत की बयार बनकर बहते हैं। इंजमामुल हक़ जैसे खिलाड़ी `अजी वो जोन सा` जैसे जुमले अटक-अटक कर बोलते हैं तो वो सहज ही याद दिलाते हैं कि वो हम में से ही एक हैं या कहें कि हम ही हैं। वसीम अकरम जैसा बेमिसाल गेंदबाज किसी रिपोर्टर को अचानक अकेले करनाल के किसी सादे से ढाबे पर दाल-रोटी खाता मिल जाता है और बताता है कि यहाँ की दाल उसे पसंद है। दरअसल यहाँ के लोग और कल्चर जो हमारी भी है, हमें पसंद हैं। दोनों देशों के बीच संगीतकारों का भी ऐसा ही रुतबा है लेकिन आप जानते ही हैं कि इन दोनों देशों में (यूँ तो श्रीलंका और बांग्लादेश में भी) क्रिकेट का जादू लोगों के सिर किस कदर चढ़कर बोलता है। शायद यह बात पैसे-ताकत वालों को पसंद नहीं है और जो काम संघ और शिव सेना चाहकर नहीं कर पाते हैं, वो आईपीएल कर दिखा रही है। कहीं यह आईपीएल का संघीकरण तो नहीं है या कहें कि भ्रष्ट पूंजी का चरित्र ही सेक्युलरिज्म का विरोधी है।
हैरानी की बात यह है कि इस बात पर एतराज के स्वर भी नहीं के बराबर ही आ रहे हैं। कुछ लोग इसे तकनीकी मामला कहकर टालने की कोशिश कर रहे हैं पर यह गले उतरना आसान नहीं है। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ बट का कहना है कि मंगलवार को हुई नीलामी के बाद से ही वह ललित मोदी से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं मगर इसमें कोई सफलता नहीं मिली है। बट ने कहा, "हम जानना चाहते हैं कि क्या हुआ। हम तो ये सोच रहे थे कि उन खिलाड़ियों के नामों पर विचार होगा। ये तो लग रहा है कि सिद्धांत तौर पर फ़ैसला कर लिया गया था कि किसी खिलाड़ी को शामिल नहीं किया जाएगा."
हिन्दुस्तान के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा का यह कह देना काफी नहीं है कि इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने भी कुछ ऐसा ही कहा है कि जो कम्पनियाँ पैसा खर्च कर रही हैं, उन पर दबाव कैसे बनाया जा सकता है। लेकिन कृष्ण और नटवर यह तो जानते ही हैं कि इस स्थिति पर शर्मिंदा हुआ जा सकता है, इस तरह के बर्ताव की खेल विरोधी कहकर निंदा तो की ही जा सकती है। लेकिन लगता है कि भारतीय सियासत भी पूरी तरह भ्रष्ट पूंजी के दलालों की ही भाषा बोलने लगी है। भ्रष्ट पूंजी की हिमायत में जो सरकार गृह युद्ध तक छेड़ने को तैयार हो उससे पूंजी के दलालों पर उंगली उठाने की अपेक्षा बेमानी है।
भारत के भूतपूर्व विदेश सचिवों मुचकुंद दुबे और कँवल सिब्बल ने जरूर इस मसले को शर्मनाक बताया है। हिन्दुस्तानी मीडिया का हाल बदकिस्मती से ख़ासा साम्प्रदायिक, पाकिस्तान के नाम पर उत्तेजना फैलाने वाला और भ्रष्ट पूंजी को सलाम करने वाला हो चला है। आपको याद होगा कि भारतीय लोकतंत्र लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटा था और इंडियन प्रीमियर लीग के कमिश्नर ललित मोदी चुनाव के बजाय आईपीएल को तरजीह देने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे थे। तब मीडिया भी बेशर्मी के साथ लोकतंत्र की चिंता करने के बजे मोदी की दलाली में गला फाड़ रहा था।