हैरत यह भी है कि जिस ब्लॉगर ने यह लेख लिखा है, वह पहले उदय प्रकाश की करतूत पर नाराजगी जता चुका है लेकिन फिर वो उदय प्रकाश के घर गया और उसे उनकी आंखों के कोर में अपने सही रास्ते का इलहाम हो गया। इस ब्लॉगर का कहने के मुताबिक यह मान लिया जाए कि उदय प्रकाश का विरोध करने वालों में कई बेदाग़ नहीं हैं, इसलिए उन्हें इस मुद्दे पर विरोध का अधिकार नहीं है। ऐसा है तो इस ब्लॉगर का निकट इतिहास ही बलात्कार के गंभीर आरोपों से बदनुमा है, फिर वो किस नैतिकता से यह फरमान जरी कर रहा है?
जनसत्ता के इस लेख में हिन्दी लेखकों को इस नाते असिह्ष्णु माना गया है कि उन्होंने उदयप्रकाश की चुप्पी को ग़लत ढंग से लिया और उनसे कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी। अब इससे से बड़ा झूठ ही शायद कोई हो। उदय प्रकाश जब योगी के हुजूर से लौटे तो उनका ब्लॉग यह जानकारी नहीं दे रहा था। किसी भी तरह के करियरिज्म से दूर रहे बेमिसाल पत्रकार अनिल यादव (जो जनसत्ता के लेखक के मुताबिक नौजवान हैं और इस नाते लेखक दुधमुहाँ है ) ने इस बारे में गोरखपुर के अख़बारों में छपी ख़बर और फोटो को ब्लॉग पर छाप दिया था तो उदय प्रकाश हिंसा पर उतारू हो गए थे। पुरस्कार वो लाए थे और इस ख़बर को दूसरों की साजिश बता रहे थे, अनिल यादव को नौकरी से निकलवाने की धमकी दे रहे थे और इस घटना का विरोध करने वाले लेखकों को लांछित करा रहे थे। यह उनके परिवार के संघ की मजबूती के लिए उठा कदम था और योगी इस संघ की प्रेरणा शक्ति थे (हैं )। बाद में उनका सफाईनामा और उसके समर्थन में उनके द्वारा छापे जा रहे कमेन्ट भी गज़ब हैं। कई तो योगी आदित्यनाथ को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बना दे रहे हैं और लगभग सभी सेकुलरिज्म को गरियाते हुए उदय प्रकाश-आदित्यनाथ कंपनी को जायज ठहरा रहे हैं। उदय प्रकाश इन समर्थकों के शुक्रगुजार हैं।
ऐसा भी कहा जा रहा है कि कभी अटल बिहारी और कभी सोनिया के कसीदे पढ़ चुके नट के हुनर से लोग जल रहे हैं. कमाल यह भी है कि इस भयानक मसले में असली मुद्दे को दरकिनार करने के लिए `कौन दूध का धुला है` और `विरोध करने वालों में कितने बिरहमन-कितने कायस्थ` आदि सवाल उठाने वालों में ऐसे लोग भी हैं जिनसे आदित्यनाथ जैसे मसले पर जिम्मेदारी की उम्मीद की जा सकती थी. कुछ लोग कह रहे हैं कि बात ठीक है पर व्यक्तिवादी बात न हो. तो क्या हिटलर को हिटलर कहना व्यक्तिवादी निंदा होगी?
कुछ लोगों को विरोध और गुस्से की भाषा पर एतराज है और वीरेन डंगवाल की टिप्पणी का खासकर ज़िक्र किया जा रहा है। नफरत और आतंकवाद के सरगना को लेकर कौन से शालीन भाव व् शब्द मन में उठते हैं, यह अशोक वाटिका और संघ परिवार के लोग ही बता सकते हैं। सवाल तो यह उठता है कि इस मसले पर संतुष्ट किस्म की चुप्पी साधे बैठे बहुत से बड़े लेखक जिनमें नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव और दूसरे तमाम लेखक कब अपना रुख जाहिर करेंगे (`संतो कुछ तो कहो इस गाढ़े वक़्त में `)।
दरअसल यह मसला सांप्रदायिक ताकतों के उभार के बाद लेखकों के एक तबके में यह साफ़ हो जाने का है कि अब धर्मनिरपेक्षता से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। पहले लेखकों का हिन्दुवाद थोड़ा सफाई के साथ सामने आ रहा था, मगर अब उदय प्रकाश ने जरा आगे बढ़कर खुलेआम इस डेरे की शरण ले ली (हालाँकि निर्मल verma कुछ राह दिखा ही गए थे और कई दोयम पहले ही उस डेरे में बैठ भी चुके थे) । एक तरह से उन्होंने असमंजस में रहे लोगों के लिए रास्ता साफ़ कर दिया है। वे साहित्य के जोर्ज फर्नाडीज कहे जा सकते हैं। देखना है कि अब उनके पीछे कितने लोग इस ट्रेंड का अनुसरण करते हैं।
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जनसत्ता शायद हर न्यायकारी आवाजों पर हमले करने का मंच बन गया है. पांचजन्य का `बौद्धिक` वहां छपता ही रहता है. सरकारी हत्यारे गिरोह सलवा जुडूम द्वारा प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान आयोजित करने के नाटक और उसमें कई लेखकों के शामिल होने का कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने विरोध किया था। इस कदम का न्याय की पक्षधर शक्तियों ने स्वागत किया है पर जनसत्ता में अशोक वाजपेयी अपना अलग ही राग अलाप रहे हैं। यह पुराने अफसर का स्वाभाविक अफसर प्रेम भी है और उनका हमेशा परगतिशील जनपक्ष का विरोधी होने का भी.
--इस बीच ख़बर यह है की गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया है की उन्होंने उदयप्रकाश को समझाया था की वे उनसे ईनाम न लें क्योंकि इससे उनके वामपंथी साथी नाराज हो जायेंगे।