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Monday, October 19, 2015

नफ़रत की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है : लाल्टू






देश भर में तकरीबन पचीस साहित्यकारों ने अपने अर्जित पुरस्कार लौटाते हुए मौजूदा हालात पर अपनी चिंता दिखलाई है। जब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया तो यह चर्चा शुरू हुई कि इसका क्या मतलब है। क्या एक लेखक महज सुर्खियों में रहने के लिए ऐसा कर रहा है। और दीगर पेशों की तरह अदब की दुनिया में भी तरह-तरह की स्पर्धा और ईर्ष्या हैं। इसलिए हर तरह के कयास सामने आ रहे थे। उस वक्त भी ऐसा लगता था कि अगर देश के सभी रचनाकार सामूहिक रूप से कोई वक्तव्य दें तो उसका कोई मतलब बन सकता है, पर अकेले एक लेखक के ऐसा करने का कोई खास तात्पर्य नहीं है। अब जब इतने लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं, यह चर्चा तो रुकी नहीं है कि सचमुच ऐसे विरोध से कुछ निकला है या नहीं, पर साहित्यकारों को अपने मकसद में इतनी कामयाबी तो मिली है कि केंद्रीय संस्कृति मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी बौखलाहट दिखला गए। तो क्या ये अदीब बस इतना भर चाहते थे या इसके पीछे कोई और भी बात है।

आम तौर से कई अच्छे रचनाकार सीधे-सीधे ऐसा कोई कदम लेने से कतराते हैं जिसमें सियासत की बू आती हो। खास तौर पर साहित्य अकादमी जैसी संस्था को जो स्वायत्तता मिली हुई है, उसे बनाए रखना और राजनीति से उसे दूर रखना ज़रूरी है। पर सियासत की जैसी समझ अदब की दुनिया के लोगों को होती है, वैसी आम लोगों में नहीं होती। सियासत में उतार-चढ़ाव से इंसानी रिश्तों में कैसे फेरबदल आते हैं, इसकी समझ किसी भी अच्छी साहित्यिक कृति को पढ़ने से मिल सकती है। यहाँ तक कि प्राचीन महाकाव्यों में भी यही खासीयत होती थी कि उनमें समकालीन सियासी दाँव-पेंच के बीच पिसते इंसानियत की तस्वीर होती थी। महाभारत को तो इसका आदर्श माना जा सकता है। इसलिए जब इतने सारे अदीब एक साथ ऐसा कदम ले रहे हैं तो वह महज सुर्खियों में रहने के लिए उठाया गया कदम नहीं है। जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइट की उपाधि वापस कर दी थी तो वह एक ऐतिहासिक कदम था। कुछ ऐसा ही आज के साहित्यकार कर रहे हैं। कोई कह सकता है कि रवींद्र तो जालियाँवाला बाग हत्याकंड के विरोध में ऐसा कर रहे थे। क्या ऐसा कुछ हुआ है जिसे उस हत्याकांड के बराबर माना जा सकता है? यह वाजिब सवाल है और इसका जवाब यह है कि हाँ, आज ऐसा ही एक ऐतिहासिक समय है। मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी तक हमारे सामने एक के बाद एक भयंकर घटनाएँ होती जा रही हैं। चुनावों में बुनियादी समस्याओं की जगह इस पर बात होती है कि आप का खान-पान क्या है। राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं में भाषा से लेकर व्यवहार के हर पहलू में हिंसा बढ़ती जा रही है। अदीब इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी ऐतिहासिक भूमिका है कि वे इस देश को तबाह होने से बचाएँ।

एक सामान्य किसान या कामगार को भड़काना आसान होता है। देश, धर्म, जाति आदि कई हथियार हैं जिनसे एक आम आदमी को उसके शांत सामान्य जीवन से भटकाकर उसे हत्यारी संस्कृति में धकेल देना संभव है। ऐसा होता रहा है। जब तक यह सीमित स्तर तक होता है, उदारवादी लोग इसे दूर से देखते हैं और कुछ कह सुनकर बैठ जाते हैं। हमारे ज्यादातर लेखक कवि ऐसे ही हैं। पर जब बात यहाँ तक आ जाती है कि आस-पास समूची इंसानियत खतरे में दिखती हो तो यह लाजिम है कि साहित्यकारों को सोचना पड़े। सही है, 1984 में सब ने पुरस्कार नहीं लौटाए, 2002 में भी नहीं लौटाए। यह पुरस्कृत रचनाकारों की सीमा थी। शायद तब इतना साहस नहीं था जितना आज वे दिखला पा रहे हैं। यह भी है कि इनमें से अधिकतर को तब पुरस्कार मिले नहीं थे। वे इसे अलग-अलग तर्क देकर ठीक ठहराते होंगे। पर ये बातें कोई मायना नहीं रखतीं। आज सांप्रदायिक ताकतों का राक्षस हर अमनपसंद इंसान को निगलता आ रहा है। ऐसे में हमारे अदीब उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका को समझा है, यह महत्वपूर्ण बात है।

जो लोग भाजपा के समर्थक हैं या जो संघ परिवार की गतिविधियों को देश के हित में मानते हैं, उन्हें तकलीफ होती है कि उनके विरोध में इतनी आवाजें उठ रही हैं। कल्पना करें कि अफ्रीका के किसी मुल्क में बिना किसी तख्तापलट के देश के गृह मंत्री को अल्पसंख्यकों का कत्लेआम करवाने के लिए सज़ा--मौत हो जाती है। ऊपर की अदालत इसे आजीवन कारावास में बदल देता है और देश की सरकार कुछ वक्त तक अपने ही मंत्री को मृत्युदंड देने के लिए अदालत में पैरवी करती है। इस सरकार के साथ काम कर रहे पुलिस प्रमुख और दीगर अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ों के लिए कई सालों की कैद होती है। हमारी नस्लवादी सोच के लोग यही कहेंगे कि अरे ये अफ्रीकी ऐसे ही होते हैं, साले मारकाट करते रहते हैं। यही बात जब आज़ादी के बाद पहली बार हमारे देश में एक राज्य की सरकार के साथ होता है, और हमें कुछ भी ग़लत नहीं लगता तो यह गहरी चिंता की बात है। उल्टे सांप्रदायिक नफ़रत की संस्कृति बढ़ती चली है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि देश की सारी समस्याएँ अल्पसंख्यकों की वजह से हैं, जो कुल जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा हैं। विज्ञान और तर्कशीलता से दूर पोंगापंथी सोच को लगातार बढ़ाया जा रहा है। रचनाकारों का विरोध संघ परिवार के साथ जुड़े काडर को और आम लोगों को यह सोचने को मजबूर करेगा कि क्या वे सही रास्ते पर हैं।

आज़ादी के बाद पहली बार हम ऐसी स्थिति में हैं कि पाकिस्तान जैसे ग़लत माने जाने वाली विचारधारा के मुल्क के लोग खुद को हमारे नागरिकों से बेहतर मान सकते हैं। न केवल दानिशमंद अदीबों की हत्याएँ हुई हैं, महज इस अफवाह पर कि एक जानवर को मारा गया है, एक इंसान का कत्ल हुआ। बेशक गाय महज जानवर नहीं है, इसके साथ आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं, पर जब भीड़ कानून को अपने हाथ ले लेती है और यह आम बात बनती जा रही है तो सोचना लाजिम है कि हम कहाँ जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं पर जो भी कारवाई हो रही है, उस पर किसी को यकीन नहीं है। सरकार पर आम आदमी का कोई भरोसा नहीं रह गया है। ऐसे में अगर पढ़ने लिखने वाले लोग विरोध के तरीके न ढूँढें तो कोई उन्हें ज़िंदा कैसे कहे! सृजन बाद में आता है, पहले तो जीवन है। नफ़रत और हत्या की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है। इसलिए हमारे अदीब विरोध में सामने आ रहे हैं। 1905 में बंगभंग के विरोध में रवींद्रनाथ साथी रचनाकारों के साथ सड़क पर उतर आए थे। बंगाल की अखंडता को लेकर तब उन्होंने कविताएँ और गीत लिखे थे जो आज तक पढ़े गाए जाते हैं। आज वक्त है कि हमारे कवि लेखकों को सड़क पर उतरना होगा। लोगों तक संवेदना के जरिए यह पैगाम ले जाना होगा कि इंसानियत को बचाए रखना है। विविधताओं भरी हमारी साझी विरासत को बचाए रखना है। तर्कशील तरक्कीपसंद भारत को बचाए रखना है।

कवि की यह तस्वीर सतीश कुमार ने रोहतक में क्लिक की थी।
(यह लेख दैनिक भास्कर के `रसरंग` में प्रकाशित हो चुका है।)

Wednesday, January 14, 2015

पिथागोरस का प्रमेय - सब्ब बेद में बा : आशीष लाहिड़ी



(बांग्ला अखबार 'एई समय' में प्रकाशित आशीष लाहिड़ी के लेख का वरिष्ठ कवि व वैज्ञानिक लाल्टू का किया अनुवाद। आशीष लाहिड़ी नैशनल काउंसिल ऑफ साइंस म्युज़ियम में विज्ञान के इतिहास के अध्यापक हैं)


वैज्ञानिक मेघनाद साहा कम उम्र में ही ताप-आधारित आयनीकरण की खोज 

कर दुनिया भर में प्रख्यात हो चुके थे। उनका मन हुआ कि बचपन के गाँव 

जाकर आम लोगों से बातचीत कर आएँ। एक बूढ़े वकील ने उनसे पूछा, 'बेटा,  

का खोजा है तुमने कि एतना नाम हो गया।' मेघनाद ने समझाने की कोशिश की 

कि सूरज के प्रकाश में रंगों का विश्लेषण कर वहाँ मौजूद या जो मौजूद नहीं हैं,
  
उन तत्वों को जानने का तरीका निकाला है। सुनकर उम्रदराज वकील साहब 

बोले, 'हँ:, इसमें नया का है, सब्ब बेद में बा।'

बीजेपी के सत्ता में आने के बाद यह 'सब्ब बेद में बा' बात काफी फैल चुकी है। 

ताप-आधारित आयनीकरण की जगह पिथागोरस के प्रमेय या अंग 

ट्रांस्प्लांटेशन (गणेश इसके प्रमाण हैं) ने ले ली है। एन आर आई की ताकत के 

बल पर पहलवान बने बजरंगबली की पूँछ में तीन ''शालें धू-धू जल रही हैं
  
मनी, मैनेजमेंट, मीडिया। हाल में इस मशाल की लपटें विज्ञान महासभा तक 

धधक उठीं। भले लोग आतंकित हैं। पर अगर ऐसा नहीं होता तो क्या हिसाब 

ठीक रहता? पढ़े लिखे लोगों ने बीजेपी से इससे अलग और क्या अपेक्षा रखी 

थी? पिछली बार बीजेपी के सत्ता में आने पर विश्वविद्यालयों में ज्योतिष (हस्तरेखा)-

'विज्ञान' को अलग विषय मानकर पढ़ाना लगभग चालू ही हो गया था। नार्लिकर 

समेत दीगर वैज्ञानिकों ने विरोध जताया था। यह सब जानकर ही तो पढ़े लिखे 

लोगों ने बीजेपी को सत्ता दी है। तो फिर बंधु अब क्यों चीखो मम्मी, मम्मी...!'
 
सवाल प्रधानमंत्री या बीजेपी के आचरण का नहीं है। सवाल यह है कि लोग 

आज क्यों चौंक रहे हैं? इसमें बड़ी बेईमानी है। अगर बीजेपी सत्ता में नहीं भी 

होती, तो क्या देश के लोगों के बड़े हिस्से की, वैज्ञानिकों की भी, आस्था क्या 

ऐसी ही नहीं है? सब्ब बेद में होने की परंपरा तो आधुनिक हिंदू-चेतना में 

अमिट, अमर है। विद्यासागर ने 1853 में कहा था, 'भारत के पंडितों' के लिए 

वैज्ञानिक सच गौण हैं, गैरज़रूरी हैं, वे यह देखते हैं कि इस सच के साथ हिंदुओं 

के शास्त्रों के किसी विचार का सही या कल्पित मेल कितना है। अक्षय दत्त ने 

आजीवन ऐसे खयालों का विरोध करते हुए खुद को समाज से बहिष्कृत तक 

करवा लिया, पर क्या इससे किसी का विचार बदला? जी नहीं, अगर बदला 

होता तो विवेकानंद क्यों कहते कि न्यूटन के जन्म के एक हजार साल पहले ही 

हिंदुओं ने गुरुत्वाकर्षण की खोज कर ली थी। विवेकानंद के हमउम्र प्रकांड 

विद्वान योगेशचंद्र राय विद्यानिधि ने इसका विरोध करते हुए कहा था, 'कम 

जानकारी रखने वाले कुछ लोग भास्कराचार्य के कथन पेश कर न्यूटन के महत्व 

को कम करना चाहते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि दोनों में ज़मीं आस्मान का 

फर्क है। मेघनाद साहा स्वभाव से तीखा लिखते थे, 'इस देश में कई लोग 

सोचते हैं कि ग्यारहवीं सदी में भास्कराचार्य गुरुत्वाकर्षण पर धुँधला सा कुछ 

कह गए तो वे न्यूटन के बराबर हो गए। और न्यूटन ने नया क्या किया है? पर ये 
  
'नीम हकीम खतरे जान' वाले श्रेणी के लोग भूल जाते हैं कि भास्कराचार्य ने 

कहीं यह नहीं कहा कि धरती और दीगर ग्रह सूरज के चारों ओर अंडाकार परिधि 

में घूम रहे हैं। उन्होंने कहीं यह सिद्ध नहीं किया कि गुरुत्वाकर्षण और गति के 

नियमों को जोड़कर धरती और दीगर ग्रहों के गति-कक्ष पता लगाए जा सकते 

हैं। इसलिए भास्कराचार्य या कोई हिंदू, ग्रीक या अरब केप्लर-गैलीलिओ या 

न्यूटन के बहुत पहले ही गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज चुके हैं, ऐसा कहना 

पागल का प्रलाप ही होगा। बदकिस्मती से इस मुल्क में ऐसे अंधविश्वास फैलाने 

वाले लोगों की कमी नहीं है, ये लोग सच के नाम पर महज खाँटी झूठ फैला रहे 

हैं।'





इससे हमारी निष्क्रिय चेतना पर कोई खरोंच पड़ी क्या? नहीं, अगर पड़ती तो 

हिग्स बोज़ोन की खोज के बाद देश के उच्च-शिक्षित लोग क्यों कह रहे थे कि 

अब भारत ने जो वेदांतिक सच खोजा था, वह सिद्ध हुआ।





1961 में रवींद्रनाथ की विज्ञान-चेतना की चर्चा करते हुए परिमल गोस्वामी ने 

लिखा था, 'प्राचीन भारत में सब कुछ ग्रामीण मान्यताओं पर आधारित था, इस 

देश में विज्ञान के आने के बाद कई पढ़े-लिखे लोगों में इसका असर दिखने 

लगा था।... बिना प्रमाण और तर्क के कई बार ऐसा कहा गया है कि आधुनिक 

यूरोपी विज्ञान असल में प्राचीन भारतीय विज्ञान के एक छोटे से हिस्से की खोज 

मात्र है। मेरे विचार में बंगाल में आधुनिक विज्ञान को पूरी आस्था के साथ 

स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति अक्षयकुमार दत्त थे। पर अकेले उनके प्रचार 

की औकात ही क्या कि वह नए उभरते घमंड के बनिस्बत तर्कशीलता की 

प्रतिष्ठा करे। रवींद्रनाथ के वक्त झूठे घमंड में बढ़ोतरी होती चली थी।' और 

इसके विरोध में रवींद्रनाथ ने वयंग्य के औजार की मदद ली थी। हेमंतबाला को 

लिखे अमर ख़तों में रवींद्रनाथ ने इस मूढ़ता की जम कर खिंचाई की थी। क्या 

उस तिरस्कार कोई असर हम पर पड़ा था? नहीं। किसी भी बात से हम पर 

कोई असर नहीं पड़ने वाला।


1891 में ज्योतिराव फुले ने लिखा था, 'कुछ साल पहले मराठी में लिखी एक 

पुस्तक में मैंने ब्राह्मणों के संस्कारों के असली रुप की पोल खोली थी।' उसी 

महाराष्ट्र में गणेश आगरकर ने लिखा था, 'इंसान के चमड़े के रंग से उसकी 

काबिलियत कैसे पहचानी जा सकती है? इस चतुर्वर्ण प्रथा को किसने शुरू 

किया? किस ने यह अतिवादी कथा चलाई कि ब्राह्मणों का जन्म 'समाजपुरुष'  

नामक किसी पुराणकल्पित आदमी के मुँह से और अछूतों का उसके पैर से 

जन्म हुआ? ऐसे अन्यायी शास्त्रों का विनाश हो।' विनाश हुआ क्या? नहीं। 

इसीलिए फुले-आगरकर की चेतावनी के सौ सालों से भी ज्यादा समय के बाद 

उसी महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथों तर्कशील जनसेवक चिकित्सक 

नरेंद्र दाभोल्कर की मौत हुई। सनातन धर्म संस्था के सिद्धांतों के नेता डा.  

जयंत अठवले ने अपनी निजी मानविकता का ब्रांड दिखलाते हुए सार्वजनिक 

रूप से कहा, हत्यारे के हाथों मारा जाना दाभोलकर का कर्मफल है; अच्छा ही 

हुआ, डॉक्टर की छुरी सहकर, ऑपरेशन टेबल पर मरने से तो यह तो बेहतर 

है! उस प्रांत के कुछ वैज्ञानिकों के अलावा हममें से और किसी के सीने में कहीं 

कोई आग धधकी? नहीं धधकी। रोशनी नहीं चमकी।
 
हाँ, यह मानना पड़ेगा कि अंधविश्वास और अंधविश्वास मौसेरे भाई हैं। 

हिंदुत्ववादी सब्ब वेद में है कहकर जो हुंकार देते हैं, उसकी बिल्कुल एक जैसी 

प्रतिध्वनि पश्चिमी सीमा के पार सुनाई पड़ती है। बस 'बेद' की जगह वे 'कुरान'  

कहते हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध नाभिकीय भौतिकी के माहिर परवेज हूदभाई ने 

इसके कुछ नमूने पेश किए हैं। जैसे 'इस्लामाबाद में विज्ञान सम्मेलन में एक 

जर्मन प्रतिनिधि ने कहा कि उन्होंने गणितीय टोपोलोजी का इस्तेमाल कर सिद्ध 

कर दिया है कि वे 'अल्लाह का कोण' माप सकते हैं। यह है पाई बटा n, जहाँ 

पाई का मान है 3.1415927... और n का मान अनिश्चित है। पाठक इस 

बात को मानने से इन्कार कर सकते हैं। सही है, ऐसा अजीब हिसाब किसी के 

दिमाग में कैसे आ सकता है? पर पाकिस्तान के विज्ञान और प्रौद्योगिकी 

मंत्रालय के इस्लामी विज्ञान सम्मेलन के संक्षिप्त विवरण-ग्रंथ (1983) के पृ

82 को देखिए। अगर देखें तो अपनी ही आँखों पर यकीन नहीं कर पाएँगे। 

पाठक यह भी जान लेंगे कि इस पागल को पाकिस्तान सरकार ने निमंत्रण कर 

उसकी आवभगत का खर्च तक उठाया था। सवाल उठ सकता है कि इस 

आदमी को ईश निंदा के ज़ुर्म में क्यों नहीं पकड़ा गया? इसकी दो वजहें हैं। एक 

तो इस आदमी की ऊल-जलूल बातें (जो छपी हैं) ऐसी निरर्थक हैं, कि वह 

किसी के समझ नहीं आ सकतीं। दूसरी बात यह कि उस सभा में वे अकेले ऐसे 

पागल नहीं थे।' क्या मुंबई विज्ञान कॉंग्रेस की सभा में मौजूद विद्वान जन हूदभाई 

की इस पुरानी टिप्पणी से वक्त रहते कोई सीख ले पाए?

इसलिए, बीजेपी का काम बीजेपी कर रही है, इससे दुखी होने का नाटक करने 

से पहले, हे साधुजन, अपनी नज़र साफ करो।