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Saturday, May 8, 2010

कसाब के बहाने उन्माद का जश्न

अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुना दी है। दुनिया ने भारतीय न्याय प्रक्रिया में मुल्क की डेमोक्रेसी को देखा जो मुल्क के बाहरी और भीतरी दुश्मनों को रास नहीं आती है। लेकिन मीडिया अदालत के फैसले का इंतज़ार करने के पक्ष में नहीं था।उसने फैसला आने से पहले ही उन्माद का जश्न परोसना शुरू कर दिया था। अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों के लोकल पन्ने भी इस बारे में परिचर्चाओं से रंगे पड़े थे। परिचर्चा क्या थी, सवाल और जवाब सब पहले से ही तैयार। जो जितना `जोशीला` बोले, उतना बड़ा देशभक्त। आरएसएस आखिर ऐसे ही `राष्ट्रवाद` की ज़मीन तैयार करता रहता है जो संविधान और अदालत का काम अपने हाथों में लेकर ही मजबूत होता है। अब तो कांग्रेस भी इस अभियान में खुलकर शामिल हो गयी है। सो, एक आवाज मुख्य थी कि कसाब पर मुकदमा क्यूँ चलाया, कानूनी प्रक्रिया पर पैसा क्यों ख़र्च किया, अदालत ने इतना लम्बा समय (हालांकि यह सबसे तेज सुनवाई थी) क्यूँ लिया। और यह भी कि कसाब को सरेआम सड़क पर क्यूँ नहीं लटका दिया जाता। जाहिर है कि बीजेपी का `राष्ट्रवाद` ऐसी ही फासीवादी और बर्बर कारगुजारियों का नाम है। (आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है।)

लेकिन कोई ऐसी सेंसिबल आवाज क्यूँ नहीं सुनायी दी कि हिन्दुस्तान को किसी आतंकवादी हमले से नहीं तोडा जा सकता है, बल्कि उसकी डेमोक्रसी को बेमानी करके ही यह काम किया जा सकता है? आरएसएस गांधी की हत्या से लेकर गुजरात में नरसंहार तक सरेआम कत्लो-गारत का `अनुष्ठान` करता भी रहा है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि तमाम हमलों के बावजूद हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आधा-अधूरा ही सही, उसके मंसूबों में बाधक भी बन जाता है।

इस दौरान हिन्दुवाद के नाम पर खड़े किये गए आतंकवादी संगठनों के खिलाफ भी लगातार सबूत मिल रहे हैं। जाहिर है कि इन कारगुजारियों के लिये भी न्याय प्रक्रिया के तहत ही कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। जो नागरिक मुल्क और उसके लोकतंत्र में आस्था रखते हैं, उन्हें निश्चय ही उन्माद में बहने के बजाय विवेकपूर्ण ढ़ंग से लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को टालने के लिये संघर्ष करना चाहिए। उन्माद फैलाकर ही साम्प्रदायिक राजनीति करना आसान होता है और उन्माद फैलाकर ही आदिवासियों की जमीन पूंजीपतियों को लुटाने के लिये सैनिक अभियान चलाना सुगम हो जाता है। उन्माद फैलाकर ही यह काम आसान होता है कि किसी भी न्यायप्रिय , डेमोक्रेटिक, देशभक्त आवाज़ को पाकिस्तान या नक्सलवाद समर्थक करार दे दिया जाय।