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Friday, September 16, 2016

सीपीआईएम की आंखों पर हिंदुत्व का परदा?

`लग्गी जे तेरे कालज़े हाल्ले छुरी नहीं
एह ना समझ शहर दी हालत बुरी नहीं`
(सुरजीत पात्तर की पंक्तियां)

 


`देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उसमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।` 

- प्रकाश करात


CPIM (माकपा) के अब चल बसे, रिटायर हो गए या कर दिए गए नेताओं की पीढ़ी की अगुआई के दौरान युवा नेता-कार्यकर्ता कहा करते थे कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे युवाओं (असल में तब अधेड़) के हाथ में बागडोर आएगी तो पार्टी अपने सच्चे इंक़लाबी ट्रैक पर दौड़ने लगेगी। इन दोनों में से भी करात को ही ज्यादा सिद्धांतवादी और टंच खरा माना जाता रहा था। पार्टी के सर्वोच्च पद पर करात के बाद येचुरी की बारी आई है। इस बीच फासिस्ट ताकतों के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष का दम भरने वाली पार्टी अपना गढ़ कहे जाने वाले बंगाल में ही बद से बदतर स्थिति का शिकार होती गई है। देश के मौजूदा हालात के बीच किसी भी प्रगतिशील या सेक्युलर कही जाने वाली पार्टी को ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ ही सकता है। लेकिन, निराशाजनक यह है कि ऐसी विकट परिस्थितियों में CPIM अपने दो सबसे दैदीप्यमान कहे गए सितारों के लगातार टकराव के लिए चर्चा में रही है। यहां तक कि पार्टी के सबसे पुराने नेताओं में शामिल अच्युतानंदन तक को सार्वजनिक अपमान का बार-बार सामना करना पड़ा। खुले में हो रही इन कारगुजारियों को पीत पत्रकारिता या सिनीसिज़्म कहकर टाल पाना भी तब मुमकिन न रहा जब करीब तीन महीने पहले CPIM की सेंट्रल कमेटी की बैठक में से गुस्से से बाहर निकलीं सेंट्रल कमिटी की मेंबर और एडवा की जनरल सेक्रेट्री जगमति सांगवान ने मीडिया के सामने पार्टी के सभी पदों और सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। जगमति को बंगाल चुनाव में करारी हार पर चर्चा के दौरान कांग्रेस से गठजोड़ को लेकर प्रस्ताव की भाषा पर ऐतराज था। उनके मुताबिक हल्के शब्द का इस्तेमाल कर बंगाल में हुई गलती को छुपाने की कोशिश हो रही थी। माना यह भी गया था कि जगमति करात केम्प से थीं और इसलिए इतनी आक्रामक हुई थीं। बहरहाल, पार्टी ने इस्तीफा दे देने वालों को भी निष्कासित करने की अपनी परंपरा जगमति के साथ भी दोहरा दी थी। इसके बाद भी कांग्रेस से गठजोड़ के इस मुद्दे के बहाने पार्टी की भीतरी कलह जारी रही थी। लेकिन, कांग्रेस से गठजोड़ के औचित्य-अनौचित्य की बहस के बीच करात ने अचानक बीजेपी और संघ परिवार को सर्टीफिकेट देते हुए कह दिया कि `देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उनमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`

स्वभाविक है कि हिंदुस्तान की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के एक शीर्ष नेता का यह बयान सकते में डालने वाला था। और यह अचानक `जुबान फिसलने वाला मसला नहीं था`, बाकायदा अखबार में लेख लिखकर छपवाया गया था। अाउटलुक के मुताबिक- इरफान हबीब ने माकपा पोलित ब्यूरो को एक कड़ी चिट्ठी लिखकर पार्टी की राजनीतिक-रणनीतिक लाइन को लेकर सवाल उठाया था। इरफान हबीब के अनुसार, `माकपा को भाजपा एवं संघ परिवार जैसे फासीवादी ताकतों को रोकने के उपाय सोचने चाहिए। न कि कांग्रेस को लेकर बेमतलब की बहस में उलझना चाहिए।` जवाब में प्रकाश कारात का मन्तव्य आया है कि `देश में अभी जो राजनीतिक हालात हैं, उनमें यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है। इन हालात में माकपा को किसी अन्य की जरूरत नहीं। माकपा की वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है।`

करात चाहते तो सिर्फ इतना कह सकते थे कि बंगाल के चुनावी गठजोड़ से लेकर यूपीए सरकार को समर्थन समेत तमाम पुराने अनुभवों और कांग्रेस की राजनातिक-आर्थिक नीतियों के मद्देनज़र अब आगे कांग्रेस से गठजोड़ का कोई तुक नहीं बनता है। माकपा को किसी अन्य की जरूरत नहीं है। वे पार्टी के पारंपरिक वाक्य को भी साथ में रख ही सकते थे कि माकपा की वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है। कांग्रेस से गठजोड़ के विरोध के लिए क्या इतना काफी नहीं था? पर शायद उन्हें बीजेपी-संघ को एक सर्टीफिकेट देने की ही जरूरत थी और यह मुमकिन नहीं है कि वे नहीं जानते थे कि पूरा फोकस इसी पर होना है और इसी पर विवाद खड़ा होना है। सवाल यह है कि इसके पीछे वजह क्या थी। क्या वे संघ के फासिस्ट हिंदुत्ववादी अभियानों के देशव्यापी व्यापक असर के बीच हिंदू जनता को कोई संदेश देना चाहते थे? आखिर, सभी सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियां मान ही चुकी हैं कि मुसलमानों पर जुल्मो सितम के मसले पर बहुत कड़े सैद्धांतिक स्टेंड पर रहने से बदली हुई परिस्थितियों में चुनावी राजनीति के लिहाज से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी CPIM ग़रीब मुसलमान जनता का विश्वास वापस हासिल करने में नाकाम रह चुकी थी। केरल में करात के विश्वसनीय माने जाने वाले पी. विजयन ने भी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही अखबारों में जो विज्ञापन जारी किया था, उसमें भी केरल को A Truly God`s Own Country  में तब्दील करने की प्रतिबद्धता जताई थी। दक्षिण में संघ के बढ़ते असर से भी शायद विजयन एंड कंपनी को यह खतरा हो कि भविष्य में केरल में भी कांग्रेस के बजाय मुकाबला बीजेपी से ही हो सकता है। शायद यह अकारण नहीं है कि एक तरफ केरल की CPIM सरकार संघ की शाखाओं को लेकर कुछ कड़े फैसले ले रही हो और तभी केरल के ही पार्टी के सर्वाधिक प्रसार वाले मलयाली मुखपत्र में करात लिख रहे हों कि `यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`।

हर स्याह-सुफ़ेद के बावजूद सीपीआईएम से उम्मीद का रिश्ता बनाए रहे सेक्युलर कार्यकर्ताओं और पार्टी से बाहर रहकर भी उस पर यक़ीन रखने वालों पर क्या गुजरी होगी, यह सोचकर भी दिल परेशान हो उठता है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी या उसके महासचिव तुरंत करात के कथन से पल्ला झाड़ सकते थे। लेकिन, सियासत के उस प्रचलित जुमले `यह उनकी निजी राय है, पार्टी इससे इत्तेफाक नहीं रखती है`, को भी कष्ट देना जरूरी नहीं समझा गया। कुछ लोगों का ख्याल था कि करात का बयान पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के लिए चल रही उठापटक का हिस्सा है। लेकिन, इस बारे में जवाब देने के बजाय बंगाल इकाई भी चुप्पी ही साधे रही। तो क्या बंगाल इकाई और उसके संरक्षक कहे जा रहे सीताराम येचुरी को भी यह भय सताया कि करात के बयान का स्पष्ट विरोध जिस बहस को जन्म दे सकता है, वह बंगाल के हिंदू अभिजात्य और हिंदू मध्य वर्ग को और दूर छिटका सकती है? या फिर जो भी मजबूरी रही हो, पार्टी नेतृत्व की चुप्पी ने करात के कथन को (जो बकौल एक बुजुर्ग कॉमरेड, प्रकाश करात के चेहरे पर bad patch की तरह है) पार्टी के चेहरे पर नहीं चिपका दिया? क्या अब यह नहीं माना जाना चाहिए कि यही पार्टी लाइन है?  
`वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है`, में यूं भी पार्टी के प्राय: हर इलाके के नेतृत्व के लिए व्यापक अपील है। जब कि फासिस्ट झुंड़ कभी भी, कहीं भी, बिना किसी भी वजह के सामूहिक हत्याओं और रेप जैसी वारदातों को उत्सव की तरह अंजाम दे रहे हों, संवैधानिक संस्थाओं को बेमानी किया जा रहा हो, तब सिर्फ मज़दूर एकता ज़िंदाबाद जैसे नारे लगाकर आंखें मूंद लेना ही शायद ज्यादा सुविधाजनक हो। वरना क्या वजह थी कि पार्टी काडर भी अपने नेता के बयान पर खामोशी ओढ़कर बैठ जाए? आखिर एक कार्ड होल्डर का फर्ज़ प्रतिवाद भी होता होगा? लेकिन, एक बड़ा बुद्धिजीवी तबका जो लगातार खुद भी बता रहा था कि फासिस्ट घेरेबंदी हो चुकी है और यह कई मायनों में अभूतपूर्व है, कि यह घेरेबंदी लोकतंत्र को प्रहसन में तब्दील कर बिना किसी इमरजेंसी के ही कर दी गई है, कि फासिस्ट हमारी जनता की चेतना का अपहरण कर चुके हैं, कि मीडिया और देशी-विदेशी पूंजीवादी घराने, कितने ही डोमा उस्ताद और तमाम लुंपन समूह फासिस्टों के साथ खड़े हैं, कि देश को युद्धोन्माद पर रख दिया गया है, कि देश में कई राज्यों में जनता के खिलाफ ही युद्ध जैसी स्थितियां पैदा कर दी गई हैं, कि देश की गरिमा, तमाम संसाधन गिरवी रख दिए गए हैं, कि...। जी, एक बड़ा बुद्धिजीवी तबका जो हमें लगातार फासिस्टों से आगाह कर रहा था, उसे भी अचानक काठ मार गया। क्या उसे अपना लिखा-कहा अब एक पार्टी के नेता के बयान के बाद डिलीट करना था? उस कथन के पक्ष में तर्क जुटाने थे? या हमेशा की तरह हस्तिनापुर की गद्दी से बंधे होने की भीष्म पितामही घुटन में डूबकर मर जाना था? 
लेकिन, जब लंबी प्रैक्टिस बड़े नामों को खामोश रहने पर मजबूर कर दे, तब भी कोई बोल ही पड़ता है। जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया बोले-  `एक वामपंथी बुजुर्ग नेता जो कि जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष भी हैं, ने कहा है कि मोदी सरकार निरंकुश है लेकिन फासिस्ट नहीं है. मेरा उन कामरेड से कहना है कि अगर वह और लड़ना नहीं चाहते हैं तो रिटायर हो जाएं और न्यूयॉर्क चले जाएं. हम अपनी लड़ाई खुद लड़ लेंगे.' दूसरी-तीसरी पंक्ति के लोगों से जवाब में जो कहलाया गया, उसमें बौखलाहट ज्यादा थी- 'कन्हैया कल का लड़का, पोस्टर बॉय, अति उत्साही, अचानक लाइम लाइट में आ गया हीरो, उसे सीमा में रहना चाहिए, फासीवाद फासीवाद...हुं...बुर्जुआ..' टाइप। लेकिन, कन्हैया खुद संघर्ष और यातनाओं से गुजर रहे हैं, उनका मजाक उड़ाना उलटा ही पड़ रहा था। इन्हीं कन्हैया को सीपीआईएम चुनाव प्रचार में ले जाने के लिए उतावली थी। बात तो यह है कि इस युवा का आने वाला कल पतनशील भी हो जाए तो भी न उसका आज का संघर्ष बेमानी होगा, न उसका सवाल। असल में, कन्हैया की नसीहत की चोट गहरी थी। एक सज्जन लिख रहे थे कि क्या कन्हैया के कहे से कांग्रेस और भ्रष्ट क्षेत्रीय दलों से समझौते कर लिए जाएं। कोई पूछ सकता था कि क्या आपकी पार्टी अभी तक लगातार यही नहीं करती आई थी। 
लेकिन, गौरतलब यह था कि कन्हैया को दिए जा रहे जवाब में साम्प्रदायिकता का जिक्र भी भेड़िया आया-भेड़िया आया जैसे जुमले से किया जा रहा था। 2 सितंबर की हड़ताल का हवाला देकर कहा जा रहा था कि मजदूरों की लड़ाई यानी वर्ग संघर्ष ही एक रास्ता है। मध्य वर्गीय मसलों को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। यह दिमाग़ी पतन, गद्दारी और बेशर्मी का चरम था। क्या सामूहिक हत्याओं का शिकार बनाए गए लोग, बलात्कार का शिकार बनाई गई महिलाएं, जलती आग में फेंक दिए गए बच्चे - ये मध्य वर्ग के मसला थे? 
Jairus Banaji ने प्रकाश करात के जवाब में जो तीखा लेख लिखा, उस पर भी कई दिन गहरी चुप्पी रही। आख़िर अब Vijay Prashad ने उनका रिजोइंडर लिखा है पर वह भी मूल सवाल का जवाब देने के बजाय 2 सितंबर की हड़ताल, वर्ग संघर्ष और फासिज्म की परिभाषाएं ही देता है। आपको याद होगा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद के वर्षों में पहले बीजेपी की केंद्र में साझा सरकार बनने और फिर गुजरात हिंसा के बाद केंद्र में मोदी के बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का प्रधानमंत्री बनने तक कहा जाता था कि देश में इतनी विविधताएं हैं और उसका सेक्युलर ढांचा इतना मजबूत है कि बीजेपी मनमानी करने लायक बहुमत हासिल नहीं कर सकती है। यह भी नसीहत दी जाती थी कि मोदी का जिक्र करना ही मोदी को मजबूती देता है। करात और उनकी बुद्धिजीवी टीम अभी भी न सिर्फ लगभग वैसी ही बातें दोहरा रही है बल्कि नई हास्यास्पद बातें भी कर रही है-  
`There is no imminent crisis to the fractured and complex Indian bourgeoisie, nor is there any indication that the BJP government has the stomach to move against the Constitution or even towards an Emergency regime. The BJP pushes its right-wing agenda, but it is hampered by a host of political adversaries – not only political parties, but also pressure groups and mass sentiment that will not allow it to enact its complete agenda. The fact that one hundred and eighty million workers went on strike shows that there remains wide opposition to the BJP’s ‘labour reform’ agenda, one that is otherwise quite acceptable to large sections of the parliamentary opposition (including the Congress Party).`
हालांकि इस बात का जवाब ऊपर दिया जा चुका है और असल में तो जवाब देना ही गैरजरूरी है कि क्या बीजेपी के संविधान के खिलाफ जाने या इमेरजेंसी लाने की संभावनाएं हैं। और क्या यह सब करने के लिए इमरजेंसी की जरूरत है? क्या आपके नेताओं और बुद्धिजीवियों के पुराने कहे-लिखे और आपके अखबारों के पन्नों को ही आपके आगे नहीं कर दिया जाना चाहिए? क्षेत्रीय दलों और प्रेशर ग्रुप्स के हालात और नतीजों पर भी क्या अलग से रोशनी डालने की जरूरत है? और मास सेंटीमेंट? क्या सारा खेल मास सेंटीमेंट पर ही नहीं खेला जा रहा है? क्या मास सेंटीमेंट के नाम पर ही घरों में घुसकर हत्याएं नहीं की जा रही हैं? क्या आपको याद है कि फांसी के फैसले तक में The collective conscience of the society का हवाला दिया जा चुका है? 
आप अब एक खोज लाते हैं कि आरएसएस की विचारधारा फासिस्ट न होकर सेमी फासिस्ट है। क्योंकि `it can never hope to achieve hegemony over the popular imagination, but has to impose its fascistic ideology from above, through the institutions, by manipulation of the media, by deceit rather than by the creation of conviction.` काश इतना भी सही होता। संघ का यक़ीन मीडिया और तमाम संस्थाओं पर कब्जे से ज्यादा  popular imagination पर ही रहा है। या कहिए कि इसी रास्ते से वह इस स्थिति में पहुंची है कि पूंजीवादी ताकतें और अमेरिका उस पर यकीन कर सके कि उनके एजेंडे को निर्बाध ढंग से लागू करने की क्षमता कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी में है। popular imagination पर असर डालकर या वहां पहले ही मौजूद कचरे से तालमेल कर वह तमाम संस्थाओं को कब्जाने और संचालन करने की स्थिति में पहुंचा है। हकीकत यह है कि इतनी विशाल पार्टी होने और संघर्षों का इतिहास होने के बावजूद CPIM और दूसरी सेक्युलर शक्तियां इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा नाकाम रही हैं।  
``Fissures along caste and regional lines are too deep to allow the RSS to dig its roots into the Indian popular imagination. If it elevates Hindi, it will alienate Tamils. If it pushes the Ram Mandir, it does not speak as loudly to Bengalis as those who read Tulsidas. The BJP – the electoral arm of the Parivar – finds it hard to break into regions of India where the RSS is not as powerful. It makes alliances. These are opportunistic. These alliances strengthen the BJP in Delhi, but do not allow it to penetrate the popular consciousness elsewhere.`` क्या कोई भोलेपन से इन बातों पर यक़ीन कर सकता है? जाति और क्षेत्रवाद के गड्ढ़ों का सबसे ज्यादा फायदा संघ ने ही उठाया है. दलितों और पिछड़ों से घोषित घृणा के बावजूद, आरक्षण का सैद्धांतिक विरोध करने के बावजूद अपने अभियानों में इनका सबसे ज्यादा इस्तेमाल भी करने की कुव्वत को संघ साबित करता रहा है। लगभग एक ही खित्ते में वह एक जगह एक जाति की घृणा का इस्तेमाल कर सकता है और लगभग उसी जगह में दूसरी जाति की घृणा का। हरियाणा और वेस्ट यूपी के दंगों का अध्ययन आपके काम का हो सकता है। बंगाल, नोर्थ ईस्ट, साउथ कहां उसकी ताकत नहीं है? दरअसल, कॉमन सेंस का जैसा निर्माण या इस्तेमाल संघ ने किया है और जिस तरह की सामग्री लगातार वॉट्सएप और सोशल मीडिया के दूसरे साधनों से लगातार प्रसारित होती है और उसका जैसा असर होता है, उसका कोई अनुमान आपको क्यों नहीं है? ऐसा नहीं है कि दूसरी संभावनाएं नहीं थीं या नहीं हैं, पर या तो इस मोर्चे पर ईमानदारी से काम नहीं किया गया या फिर इसका हवाला देकर काम चलाया जाता रहा।

`When the BJP is on the RSS’s (and VHP’s) turf, then matters are different. The Gujarat pogrom of 2002 took place in a setting where the RSS and the VHP had prepared the terrain.`  ऐसी बातों पर क्या कहा जाए? बीजेपी कहां आरएसएस (हां VHP भी तो वही है) के टर्फ पर नहीं है? जहां बीजेपी आपको अकेली मजबूत नहीं दिखाई देती, वहां भी आरएसएस टर्फ बिछा रही होती है या बिछा चुका होता है। आप क्या नहीं जानते हैं कि नॉर्थ ईस्ट में भी, केरल में भी, बंगाल में भी? कई बार अपनी रणनीति के तहत उस टर्फ पर वह दूसरी पार्टियों को चलने दे रहा होता है। 
कांग्रेस के साथ गठजोड़ न करें, आप अकेले संघर्ष करें, इससे क्या एतराज हो सकता है? सवाल आपकी इसी लाइन से है- `यह कहना उचित नहीं कि फासीवाद आ गया है। भाजपा और संघ परिवार की जो कोशिश चल रही है, उसे अधिनायकवादी मानसिकता कहा जा सकता है।`। 
और इसके बचाव में आपके तर्कों से। `वर्गसंघर्ष की लाइन ही पर्याप्त है` कहते हुए आप अरसे तक दलितों और स्त्रियों के सवालों से मुंह मोड़ते रहे। आपके नेतृत्व से वे गायब रहे और फिर तमाम संघर्षों के बावजूद आप उन तबकों में विश्वसनीयता खोते रहे। एक सवाल आपसे लगातार और अब सच्चर आयोग का हवाला देकर पूछा ही जाता रहा है कि आखिर बंगाल में इतने बरसों के शासन में मुसलमान और दूसरे कमजोर तबकों की हालत इतनी दयनीय क्यों रही। यह भी कि आदिवासी क्षेत्रों में जब भयंकर दमन शुरु हुआ, तो आप कहां खड़े थे? सोनी सोरी तो नक्सलवादी नहीं थीं। यदि वे नक्सल या संघ की भी कार्यकर्ता होतीं तो भी एक स्त्री की योनि में पत्थर भर देने के कृत्य के इतना चर्चित हो जाने के बावजूद आप की महिला विंग तक खामोश क्यों बनी रहीं? क्या वजह है कि आपके पास बुद्धिजीवियों का बड़ा जखीरा होने के बावजूद मुश्किल मसलों पर खामोशी छा जाती थी और अरुंधति जैसे ऑथेंटिंक स्वर आप बर्दाश्त नहीं कर पाते थे? क्या आप जानते हैं कि लेफ्ट के लिए सरकार बना पाने से ज्यादा मूल्यवान अगर कुछ है तो विश्वसनीयता ही है? और क्या आप जानते हैं कि ताजा प्रकरण में आप वही खो रहे हैं?
जहां तक 2 सितंबर की हड़ताल का सवाल है, तो आपको सलाम। लेकिन अगर आप इसे और हड़ताल में शामिल `one hundred and eighty million` लोगों के शामिल होने को करात की लाइन (जो कि अब पार्टी लाइन ही लगती है), का कवच बनाएंगे तो हमें आपको बताना पड़ेगा कि इनमें एक हिस्सा उस मध्य वर्ग और सरकारी नौकरियों के पैसे से उच्च वर्ग में तब्दील हो चुके लोगों का भी था, जिसे प्राथमिकता न देने के नाम पर आपके लोग साम्प्रदायिकता के सवाल को भेडि़या-भेड़िया आया करार देने लगते हैं। और हड़ताल में शामिल होने व इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगा लेने के बावजूद इस तबके की प्राथमिकता में भी ये सब सवाल शामिल नहीं हैं। वेतन बढ़वाने के लिए इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने वालों की बड़ी संख्या बीेजपी को वोट भी करती रही। यह बात किसी हद तक कमजोर तबके के मजदूरों के बारे में भी कही जा सकती है। यह बताने का मक़सद आंदोलन को प्रश्नांकित करना नहीं है बल्कि यह याद दिलाना है कि इसकी ओट में आप एक बुरे रास्ते पर चल पड़ने का बचाव नहीं कर सकते।

(मेरी अंग्रेजी कमजोर है और आपकी बातें अंग्रेजी में ही होती हैं। मेरी मूल चिंता को न भूलिएगा और अपने कदमों को उस रास्ते से वापस खींचिएगा तो आपका सबसे बड़ा अहसान लेफ्ट लीगेसी पर होगा।)
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प्रकाश करात का इलस्ट्रेशन Hindustan Times की साइट से साभार
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(आप यह पोस्ट KAFILA पर अंग्रेजी में भी पढ़ सकते हैं।)

Monday, August 13, 2012

सीपीएम से अलबीना (Albeena Shakil) के निष्कासन के विरोध में बयान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीआई (एम) में रहना है तो खामोश रहो (केरल में लोकप्रिय नेता अच्युतानंद को प्रकाश करात यही तो कह चुके हैं)। सीपीआईएम एंटरप्राइजेज के डायरेक्टरों को करने दो, जो वे करते हैं, वर्ना आपको इस्तीफा देने का हक भी नहीं है। इस्तीफा दे चुके प्रसेनजीत बोस (पार्टी की रिसर्च यूनिट के कन्वीनर) को इस्तीफा नाकुबूल कर निष्कासित करने की हास्यास्पद सामंती कारगुजारी कर चुके पार्टी हुक्मरानों से यह शिकायत बेमानी है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठित-जुझारू नेत्री अलबीना के खिलाफ कार्रवाई करते हुए पार्टी के संविधान का अनुपालन करने की औपचारिकता तक पूरी नहीं की। अलबीना के निष्कासन के खिलाफ यह बयान गौरतलब है-


We the undersigned were expelled from the primary membership of the SFI in a SFI Delhi State Committee Meeting held on 10.07.2012 for taking a dissenting political position against the CPI (M)'s decision to support Pranab Mukherjee in the Presidential Elections. We have learnt that Comrade Albeena Shakil, who was anelected member of the CPI (M) Delhi State Committee has been expelled from the Primary Membership of theCPI (M) in a CPI (M) Delhi State Committee Meeting held on 11.08.2012.We are issuing a statement against this undemocratic expulsion.
P.S. The Show-Cause letter dated 25.07.2012 issued to Comrade Albeena Shakil by the Secretary of CPI (M) Delhi State Committee and her reply to the letter dated 31.07.2012 are attached with the mail.
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Against Kangaroo Courts to Silence Political Dissent 
12.08.2012

We the undersigned have learnt that Comrade Albeena Shakil has been expelled from the primary membership of the CPI (M) on 11.08.2012 for “indulging in anti party activities”. The decision was made in a Delhi State Committee Meeting of the CPI (M) with 17 members voting for the expulsionand 4 opposing it.Prior to this decision another CPI (M) Delhi State Committee meeting held on 20.07.2012 had decided to remove Comrade Albeena from all elected positions in the CPI (M) and Janwadi Mahila Samiti (AIDWA). This decision was in brazen violation of the norms laid down in the CPI (M) Constitution, which categorically says that all decisions regarding disciplinary action (except summary expulsion) have to be taken in the presence of the individual concerned, so that the individual gets an opportunity to offer defense in accordance with the principles of natural justice. TheDelhi CPI (M) leadership flouted the CPI (M) Constitution and initiated disciplinary action against Comrade Albeena.One Delhi State Committee Member of the CPI (M), who has also been a former secretary of the SFI Unit in JNU, had resigned from the Party after the State Committee meeting of 20.07.2012 protesting against the unconstitutional action and unjustifiable persecution. Comrade Albeena was called for the meeting on 11.08.2012 in order to sanctify the earlier unconstitutional decisions and make her listen to further malice.No concrete evidence was provided for the so-called “anti-party activities” in both these meetings except Comrade Albeena’s participation in a National Convention on Campus Democracy and Lyngdoh Recommendations organized by the JNU Students’ Union held on 21.07.2012 and an SFI-JNU Activist Meeting on the JNU student movement held on 1.08.2012. On both these occasions, no act/comment against the CPI (M) was made by her. Comrade Albeena had signed an appeal addressed to the SFI all-India President to resolve the differences with SFI-JNU in a political and democratic manner.
In the State Committee meeting of 11.08.2012 Comrade Albeena tried to persuade the Delhi State Committee members to adopt a non-confrontationist approach towards the SFI-JNU and open political dialogue with them in order to resolve the differences.The fact that this has been construed as “anti-party activities” by the Delhi CPI (M) leadership exposes its undemocratic and authoritarian mindset.
Comrade Albeena has been elected to the JNU Students’ Union 5 times since 1997, first as a councilor from the School of Languages, then as JNUSU Joint Secretary; twice as the JNUSU VicePresident and finally the JNUSU President in 2001. She was in the forefront of the struggle against the communal forces in JNU. She had also played an important role in the struggle for the formation of the Gender Sensitization Committee against Sexual Harassment in JNU. As the JNUSU President in 2001-02, Comrade Albeena provided leadership to the struggle against the imposition of the communal Xth Plan proposals by the BJP-led NDA regime in JNU. She went on to become the DelhiState Secretary and All-India Joint Secretary of the SFI in 2005. After completing her Ph.D in English literature from JNU, Comrade Albeena has been working as a whole timer of the CPI (M) in Delhi, with responsibilities in the Janwadi Mahila Samiti. She has been
an elected member of the CPI (M) Delhi State Committee since 2007 and the AIDWA Central Executive Committee since 2010. Comrade Albeena’s work in the CPI (M) and JMS included work among poor home based women workers in Delhi, especially in the Muslim dominated areas of Old Delhi and Okhla.
The disciplinary action against Comrade Albeena has to be seen in the aftermath of the draconian and vindictive action against the 4 of us and the “dissolution” of the entire SFI Unitin JNU for a taking dissenting political position vis-à-vis CPI (M)’s decision to support Pranab Mukherjee in the Presidential polls.
The desperation of the CPI (M) leadership seems to have only increased after TMC’s decision to support Mr. Mukherjee rendered the so-called “tactical masterstroke” into a laughing stock. All those who have had any association with the SFI in JNU in the past are being threatened and intimidated by the CPI (M) leadership to fall in line and contribute to their disruptive and anti-democratic agenda. The CPI (M) leadership’s paranoia has reached such proportions that all normsof party organization functioning are being thrown to the dustbin to target “suspects” and silence those who have a different opinion. In Comrade Albeena’s case, the Party leadership’s actions further betray a crass patriarchal attitude where she has been victimized for the political actions of her spouse.We appeal to all progressive and democratic sections to condemn the unjust expulsion of Comrade Albeena from the CPI (M) and firmly combat the self-destructive trends within the Left movement, epitomized by the CPI (M) leadership.

Sd/
ROSHAN KISHORE
P K ANAND
ZICO DASGUPTA
V LENIN KUMAR

Thursday, February 19, 2009

आपकी पॉलिटिक्स क्या है, कॉमरेड?

१७ फरवरी २००९ मंगलवार को The Hindu में एक कोने में सिंगल कॉलम खबर पढ़ी कि सीपीआईएम ने सिक्किम में बीजेपी से हाथ मिला लिया है. खबर चूंकि The Hindu में थी सो यह कहकर इसे उड़ा देना मुमकिन नहीं था कि यह दक्षिणपंथी मीडिया की शरारत है. खबर का टेक्स्ट इस तरह है-

CONGRESS, BJP, CPI(M) join hands in Sikkim

GANGTOK: Seting aside ideological differences, the CONGRESS, the BJP and the CPI(M) joined hands in Sikkim to fight Chief Minister Pawan Kumar Chamling`s Sikkim Democratic Front in the Assembly elections to be held later this year.
The alliance between the three national parties and two regional parties - Sikkim Himali Rajya Parishad Party and Sikkim Gorkha Prajatantrik Party - has been named the united Democratic Front (UDF), according to K.N. Upreti, Congress leader and UDF chiefcordinator. Mr. Upreti told journalsts here that there would be a direct contest between the SDF and the UDF in all 32 seats.- PTI

जाहिर है कि यह खबर दिल-दिमाग में तूफ़ान मचाती रही. अगले दिन 18 फरवरी 2009 को The Hindu में ही फिर इसी साइज़ की खबर के शीर्षक पर नज़र पड़ी तो यह जानकर राहत मिली कि ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन यह राहत पलों में काफूर हो गयी. भीतर टेक्स्ट में जो था, आप भी पढ़िए-

CPI(M) not part of Sikkim alliance
Special Correpondent
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NEW DELHI : The communist Party of India (Marxist) on Tuesday denied that it is partof an alliance comprising the Congress and the Bhartiya Janta Party in Sikkim.
The CPI(M) was reacting to news reports from Gangtok that it has joined hands to fight Chief Minister Chamling`s Sikkim Democratic Front in the Assembly elections to be held later this year.
''The person who attended the meeting, where the decision was announced the views of the Sikkim committii of the party,'' the Polit Bureau said in a statement.

दिल्ली में बैठा पोलित ब्यूरो यह नहीं कह पा रहा कि खबर मनघडंत है, वो गोलमोल सफाई भर दे पा रहा है. वो कह रहा है कि जिस मीटिंग में निर्णय हुआ (गठबंधन का), उसमें जो शख्स उपस्थित था (सीपीआईएम का), वह पार्टी की सिक्किम इकाई की राय का प्रतिनिधित्व नहीं करता. यानी पोलित ब्यूरो मान रहा है कि गठबंधन का निर्णय बाकायदा सीपीआईएम नेता की मौजूदगी में बैठक में हुआ. शायद किरकिरी के बाद आनन-फानन में दिल्ली से सफाई दी गयी. तो क्या यह सब दिल्ली के इशारे पर ही हुआ था? अगर नहीं तो उस बैठक में जाने वाले नेता (वो कौन था, क्या सिक्किम पार्टी सेक्रेट्री?) के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? वैसे भी पोलित ब्यूरो का काम आजकल शायद राज्यों में पथभ्रमित (या कम्युनिज़म से उलटी राह पकड़ने वाले) नेताओं (बुद्धदेव या पिनारय विजयन जैसे) को जेनुइन ठहराना ही हो गया है.अब कोई प्रकाश करात से पूछे कि `आपकी पॉलिटिक्स क्या है, कॉमरेड?`