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Friday, April 1, 2011

क्रिकेट वर्ल्ड कप और नफरत का कारोबार

यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि क्रिकेट वर्ल्ड कप की `कवरेज़` ने हिन्दुस्तानी मीडिया की पोल खोल कर रख दी है. दरअसल हमारा मीडिया पहले ही इतना नंगा हो चुका था कि `पोल खुल जाने` जैसी बातों की गुंजाइश नहीं बचती. खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने क्रिकेट वर्ल्ड कप के नाम पर जो अश्लील अभियान छेड़ रखा था, वो मोहाली सेमीफाइनल तक अपने चरम पर पहुँच चुका था. सट्टेबाजी के दौर में भी क्रिकेट के कुछ नियम हैं जिनका मैदान पर दिखावे के लिये ही सही, पर पालन किया जाता है. लेकिन हिन्दुस्तानी मीडिया जो कुछ खेल रहा था, उस खेल का कोई कायदा-कानून नहीं था, कोई जिम्मेदारी नहीं थी. खेल के बजाय नफरत का दिन-रात गुणगान किया गया. पाकिस्तान से नफरत का गुणगान और दरअसल अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी बेशर्मी के साथ मुसलामानों से नफरत का गुणगान. जो काम संघ और बीजेपी करते रहे हैं, और जिस काम में हमारा मीडिया सहायक रहता आया है, वो घिनौना काम मीडिया अब खुद आगे रहकर कर रहा था. इसका मोटा मुनाफा उसे तत्काल मिलता है, संघ और बीजेपी को तो लगातार मिलता ही रहता है. बहरहाल, पाकितान की क्रिकेट टीम हार गई है. सेमीफानल को फाइनल बता चुके हिन्दू(स्तानी?) मीडिया के लिए अब वैसी नफरत की ज़मीन तो उपलब्ध नहीं है कि वह अपना तम्बू मैदान के बजाय बाघा बोर्डर की तरह कन्याकुमारी में गाड़ ले. लेकिन पड़ोसी देश के लिए, जिसकी टीम यहाँ खेलने आई है,और जो बड़े गौरवपूर्ण ढंग से फाइनल में पहुँची है और जिसमें सर्वकालिक महान खिलाड़ी मुरलीधरन भी है, उसका विष वमन जारी है, मिथकों का सहारा लेकर ही सही. `लंका दहन` जैसे जुमले बेशर्मी से चिल्लाये जा रहे हैं. यह हमारा जिम्मेदार मीडिया है

मैन ऑफ दी मैच
सभी जानते हैं कि क्रिकेट विश्वकप का सेहरा भारत के सिर पर बंधे, इसमें अकेले हिन्दुस्तानी मीडिया का ही नहीं पूरी दुनिया की हरामखोर कंपनियों का भला है. सचिन तेंदुलकर जैसा उम्दा खिलाड़ी भी इस बाज़ार के लिए खिलाड़ी नहीं है बल्कि खिलौना बना लिया जाता है. मोहाली में उसके कैच पर कैच छोड़े जा रहे थे, नए तकनीकी अम्पायर और संदेह के लाभ भी उसे मिल रहे थे, तो मेरे जैसा उसका पक्का फैन भी यही चाह रहा था कि वो गरिमामय ढंग से आउट होकर वापस पैविलियन लौट आए. बात कई-कई जीवनदान मिलने की नहीं थी, बल्कि इस महान बल्लेबाज के पूरी तरह बेबस हो जाने की थी. उसे गेंद ढूंढें नहीं मिल पा रही थीं, खासकर स्पिनर अज़मल के हांथों फेंकी गई गेंदें. लेकिन इस पूरी तरह आभाहीन पारी के लिए उसे `मैन ऑफ दी मैच` दे दिया गया. मोहाली की बल्लेबाजी की तरह ही इस ईनाम को लेते हुए सचिन असहज लग भी रहे थे. पर दुनिया के बाज़ार के लिए यही फैसला सही था और क्रिकेट के जज इसी बाज़ार की नुमाइंदगी कर रहे थे. तमाम अटकलों को झुठलाते हुए शानदार प्रदर्शन करने वाला गेंदबाज वहाब रियाज़ आखिर हारने वाली टीम से था और वो पांच विकेट लेकर भी बाज़ार के लिए उतना ग्लेमरस नहीं था।

शाहिद अफरीदी

जबरन नफरत और तनाव पैदा किए जाने की कोशिशों के बावजूद मोहाली मैच के दौरान शाहिद अफरीदी की मुस्कान दिल जीतने वाली रही. सच्चे `मैन ऑफ दी मैच` जैसी, चैम्पियन जैसी. यह तब था, जब वे गुटबाजी में फंसे अपने ही खिलाड़ियों के रवैये को भी देख रहे थे. सचिन के कैच टपकाए जा रहे थे तो भी वे मजाक उड़ाने के बजाय एक बड़े खिलाड़ी के साथ एक बड़े खिलाड़ी जैसा व्यवहार करते नज़र आए. मैदान पर उनका बर्ताव हिन्दुस्तानी मीडिया के नफरत भरे गुब्बारे की हवा निकलता रहा. और अब जबकि पकिस्तान में अफरीदी को मैदान पर कम आक्रामक बताकर उनकी कप्तानी की कमियां निकली जा रही हैं तो उन्होंने पूछा है कि आखिर हिन्दुस्तान से इतनी नफरत क्यों. इधर,हमारे यहाँ ऐसा सवाल कौन पूछे? हरभजन अभी भी राग अलाप रहे हैं कि पकिस्तान के खिलाफ मैच ही उनका फाइनल था. सचिन जैसा खिलाड़ी भी चुप है. वैसे तो यह भी नहीं पूछा जा रहा है कि आखिर शोएब अख्तर को उनका आख़िरी मैच होने के बावजूद मोहाली मैदान पर क्यों सम्मानित नहीं किया गया. और यह भी नहीं कि मुरली भी सचिन से कम महान नहीं है (बल्कि उनका सफ़र ज्यादा मुश्किल रास्तों से भरा रहा है), वे मुम्बई में खेलते हैं तो यह उनका आख़िरी मैच होगा, तो फाइनल को सिर्फ़ सचिन का मैच क्यों प्रचारित किया जा रहा है? वैसे तो पैसे के दलदल में फंस चुके इस खेल को लेकर ऐसे सवाल अब बेमानी हो चुके हैं।