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Wednesday, April 2, 2008

सिमोन द बउआर से पहले स्त्री विमर्श का भारतीय मुहावरा महादेवी वर्मा की कलम से निकला था

महादेवी वर्मा को अध्यापकों-आलोचकों की बदौलत पीडा, वेदना, आंसुओं की, विरह की कवयित्री कहा जाता रहा है. `नीर भरी दुःख की बदली' का जिक्र कर उन्हें अपने ढंग से याद कर लिया जाता है. उन्हें आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है. जाहिर है कि पितृसत्ता को चुनौती देने निकली मीरा की तरह ही महादेवी को भी रिड्युस करने की कोशिश लगातार हुई है. पिछले कुछ समय से इस लम्बी साजिश के खिलाफ महादेवी के पुनर्पाठ की जरूरत महसूस की जाने लगी है. हाल-फिलहाल में साहित्य अकादेमी ने तीन दिन की गोष्ठी महादेवी पर की. यों तो वहाँ (खासकर शुरू के दिन) हिन्दू सम्मेलन सा माहौल रहा. चुटियाधारियों की पा-लागी की महिमा और चलताऊ या यथास्थितिवादी और मास्टरनुमा बातें छाईं रहीं (असद जैदी की इस अकादमी के हिन्दुकरण की तस्वीर वाली कविता वाजिब ही है). हालांकि बाद के सत्रों में गौरतलब लोगों ने गौरतलब बातें कीं. उनमें से कुछ के हिस्से या सार आपके लिए दे रहा हूँ.
शुरुआत मैत्रेयी पुष्पा के पर्चे के एक टुकड़े से-
...और महादेवी वर्मा की `श्रृंखला की कडियाँ'? रोमानियत के बरक्स ठोस आधार बनाती है. आज `स्त्री विमर्श' कितनी-कितनी सहायता ले सकता है, उस पुस्तक से. खुद महादेवी ने अवसाद के गीत छोड़ दिए. अकेला पथ अब व्याकुल नहीं करता क्योंकि अपना बनाया हुआ रास्ता है. हमने अपने स्त्री-अध्ययन के दौरान यह भी पड़ताल की कि सभी की स्थिति का जैसा वर्णन `सिमोन द बउआर' ने किया है या नहीं किया, कि प्रमाणित हो जाये, स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है. मगर हमने पाया कि `श्रृंखला की कडियाँ' निश्चित ही उस अबूझ से निकली जाग्रत चेतना का वह पुंज है, जिसे हम केवल देख ही नहीं सकते, छूकर महसूस कर सकते हैं. महादेवी वर्मा, अपने रूप में वीतरागिनी, कुछ ऐसे वाक्य लिखकर अपने समाज के सामने रख सकती हैं, जिनकी उम्मीद हम सिमोन से ही कर सकते हैं. और समय जानकार आश्चर्य हुआ कि `श्रृंखला की कडियाँ' छपने का साल `द सेकेंड सेक्स' से बहुत पहले का है. सन् १९४२ में महादेवी क्रूर और बर्बर कबीलाई सामंती समाज के सामने आयीं थीं. समाज को यह बताने कि- `स्त्री का सम्पूर्ण रूप क्या होता है? कब होता है, होता भी है या नहीं?' वैसे इन बातों का निर्णय कौन करेगा? मान लीजिए एक सिपाही युद्ध क्षेत्र में है, जिसके नेत्रों में मृत्यु की छाया नाच रही है। उस सैनिक के निकट एक स्त्री है, केवल स्त्री. उस स्त्री के त्याग, तपस्या, प्रेम आदि गुणों का वह क्या करेगा? इन गुणों का विकास तो साहचार्य से ही संभव है. सवेरे तलवार के घाट उतरने या उतारने वाला तो स्त्री की रूप-मदिरा का केवल एक घूँट चाहता है. वह उसके दिव्य गुणों का मूल्य अंकन का समय कहाँ पावे? यदि पा सके तो उनको कितने क्षण अपने पास रख सकेगा?
महादेवी वर्मा हमारी चेतना को और भी जगाती हुई कहती हैं- बाहरी क्षेत्र संघर्ष का क्षेत्र है, उसे स्त्री आंसुओं से गीला नहीं करती, पुरुष के सामने कर्तव्य-अकर्तव्य का अंतर स्पष्ट करती है। बेशक उसकी ऐसी बौधिक चुनौती पुरुष को रास न आये. क्या पुरुष भी बिना स्त्री के जीवन की रुक्षता को वहन कर पाएगा?
`नीर भरी बदली' में बिजली ने प्रवेश कर लिया और विस्फोट सा हुआ की - रोम-रोम विधाता से प्रतिशोध लेने के लिए जल उठा। जो अस्त्र निष्ठुर संहार के कारण त्याज्य जान पड़ते थे, आभूषण हो गए. और महादेवी ने ऐलान कर दिया- स्त्री को अपनी अनेक इच्छाओं को कुचलकर रहना पड़ता है. राजनैतिक अधिकारों से पहले उसे ऐसी सामजिक व्यवस्था की आवश्यकता है, जिससे से जीवन में स्वावलंबन आए. आत्मविश्वास जागे. आज इतने साल बाद हमारी धरती पर महादेवी का सपना इबारत लिख रहा है- शासन व्यवस्था में स्त्री को स्थान मिले. लेकिन उसे केवल पुरुष परिषदों को अलंकृत करने के लिए नहीं रखा जाए. उसके अस्पष्ट विचारों को स्पष्ट करना और उन्हें क्रियात्मक रूपरेखा देना ही समाज के लिए हितकर होगा.आज हम धुंधलके में नहीं, २१वीं सदी चल रही है, इस के उजाले में साफ देख पा रहे हैं की महादेवी को अपने करुण तरल गीतों के लिए जितना याद किया जाएगा, उससे ज्यादा `श्रृंखला की कडियाँ' का अवदान माना जाएगा. `नीर भरी दुःख की बदली' की जगह `श्रृंखला की कडियाँ' को पाठ्यक्रम में लगाया जाए तो बात बने. सनद रहे की सिमोन द बउआर से पहले स्त्री विमर्श का भारतीय मुहावरा महादेवी वर्मा की कलम से निकला था.