
दो महीने हुए जब हबीब तनवीर रुखसत हुए तो उनके बारे में काफी-कुछ लिखा गया था. लेकिन इस बात का ज़िक्र कम ही किया गया कि वे कला की दुनिया में प्रभावी (और अब दुर्लभ) सेक्युलर उपस्थिति थे. विशुद्ध कला के पैरोकार उनके रंग कौशल पर तो काफी लिख रहे थे लेकिन आरएसएस के कुनबे से उनकी मुठभेड़ पर वे चुप ही थे. जिन लेखकों ने इस बारे में लिखा भी, वे प्रायः वही लेखक थे जिन पर लाल रंग में रंगे होने की `तोहमत` है.
यह सर्वविदित तथ्य है कि `लिविंग लीजेंड` की कला जोखिम भरे रस्ते से होकर गुजरती थी. 90 के दशक में सांप्रदायिक उभार के साथ उनके सेक्युलर मिजाज़ के नाटकों को लेकर संघ का कुनबा बेहद हमलावर हो गया था. `मोटेराम का सत्याग्रह`, `पोंगा पंडित`, `जिस लाहौर नहीं वेख्या` जैसे नाटक कट्टरपंथियों को कभी रास नहीं आये. हबीब साहब को नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भी हमले झेलने पड़े, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता और मजबूत होती गई. उन्होंने बहुत से `सेक्युलर चेम्पियनों` की तरह इसका न रोना रोया और न इसके लिए किसी वाहवाही की अपेक्षा की. उन्होंने यही कहा कि वे कला की दुनिया और सड़क दोनों जगह लड़ सकते हैं. वे होते तो `चरणदास चोर` पर छत्तीसगढ़ की संघी सरकार की पाबंदी को लेकर किसी की मदद ताकने के बजाय मोर्चा संभाले मिलते.
तो क्या मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर की मौत के साथ हमारे लेखकों, कलाकारों और जागरूक नागरिकों ने नया थियेटर और उसके मूल्यों का भी फातिहा पढ़ दिया है? क्या इस लड़ाई को आकर लड़ने की जिम्मेदारी उन मरहूमों की ही बनती है? जाहिर है कि यह लड़ाई सेक्युलर, डेमोक्रेटिक और प्रोग्रेसिव मूल्यों की हिफाज़त की लड़ाई है और ये लड़ाई इन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर कलाकार, एक्टिविस्ट और साधारण नागरिक के सामने खड़ी है.
जहाँ तक लेखकों, कलाकारों का सवाल है तो प्रेमचंद और हुसेन पर हमलों व ऐसे बहुत से दूसरे मसलों पर व्यापक एकजुटता और इच्छाशक्ति का अभाव सामने आता रहा है. हुसेन के मसले पर तो कई `प्रोग्रेसिव` लेखक अक्सर राइट लिबरल और कई बार राइट विंग की भाषा बोलते भी मिल जाते हैं. इस `बौद्धिक` वर्ग ने हाल के उदयप्रकाश-योगी आदित्यनाथ प्रकरण और प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान प्रकरण में भी हद दर्जे की अवसरवादिता, मूल्यहीनता और लिजलिजापन दिखाया है. तो क्या ताजा मामले में प्रमुख प्रोग्रेसिव संगठनों को क्रूर आत्मालोचना करते हुए और अपने बीच के रंगे सियारों को अलग करते हुए साझा रणनीति के साथ मोर्चा नहीं संभालना चाहिए?