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Sunday, October 5, 2014

रामचंद्र गुहा की प्रॉब्लम क्या है?


रामचंद्र गुहा के बेसिक्स में ही कोई प्रॉब्लम है या एक सधी हुई चतुरता। उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत के नागपुर भाषण को दूरदर्शन पर लाइव करने की आलोचना की। उन्होंने ट्वीट किया,`आरएसएस एक सांप्रदायिक हिंदू संगठन है। अगली बार मस्जिद के इमाम, चर्च के पादरी भी लाइव स्पीच दिखाने की बात करेंगे।'
गुहा पहली लाइन में जो बात बोल रहे हैं, अगली लाइन में उस बात को सिर के बल खड़ा कर देते हैं। आरएसएस एक साम्प्रदायिक हिंदू संगठन है, ठीक है। आगे इस लाइन का क्या मतलब है-`अगली बार मस्जिद के इमाम, चर्च के पादरी भी लाइव स्पीच दिखाने की बात करेंगे।` क्या गुहा मस्जिद और चर्च को साम्प्रदायिक संस्था मानते हैं या फिर आरएसएस को मंदिर? संघ तो खुद को किसी भी हिंदू धर्माचार्य या धार्मिक संस्था से ज्यादा आधिकारिक हिंदू घोषित करता ही है। उसने अपने धर्माचार्य औऱ धर्म संसद खड़ी की। साम्प्रदायिकता से असहमत धर्माचार्यों को खारिज किया। गुहा उसे इसी तरह मान्यता देते दिखाई देते हैं। गुहा जितना संघ पर हमला नहीं करते हैं, उससे ज्यादा मस्जिद, चर्च औऱ इमाम, पादरी को कठघरे में खड़ा कर संघ के एजेंडे पर मुहर लगाते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि गुहा धर्म और उसकी संस्थाओं को सिरे से खारिज करने वाले, उन्हें ही साम्प्रदायिकता की जड़ मानने वाले और नास्तिकता में विश्वास रखने वाले विद्वान हैं। ऐसा होता भी तो भी संघ पर बात करते हुए मस्जिद-चर्च पर कूद पड़ना हैरान ही करता। एक अजीब तरीका यह रहा है कि जब संघ की साम्प्रदायिकता की बात करो तो हर हाल में किसी मुस्लिम औऱ चाहो तो ईसाई कट्टर संगठन की भी निंदा जरूर करो। यहां गुहा इस परंपरा से कई कदम आगे बढ़ गए हैं और संघ की आलोचना में एक लाइन बोलकर सीधे मस्जिद के इमाम और चर्च के पादरी को घसीट लेते हैं। गुहा जी बेफिक्र रहिए, इमाम और पादरी ऐसी कोई मांग नहीं करने जा रहे हैं, होने दीजिए भागवत को दूरदर्शन पर लाइव!

Monday, February 1, 2010

आरएसएस और शिव सेना यानी दो आदमखोर



आरएसएस और शिव सेना `आमने-सामने` हैं। शिवसेना और संघ दोनों आदमखोर हैं, दोनों सदियों पुराने दोस्त हैं और एक-दूसरे के दांव-पेंच या कहें कि नूरा कुश्ती लड़ना बखूबी जानते हैं। देखा जाए तो शिवसेना जिस महाराष्ट्र की उपज है, आरएसएस भी वहीं की पैदाइश है। आरएसएस का राष्ट्रविरोधी `राष्ट्रवाद` शिवसेना का भी हथियार है लेकिन आरएसएस इसका राष्ट्रव्यापी कामयाब इस्तेमाल कर चुकी है। शिवसेना इसका इस्तेमाल मुस्लिमों के प्रति घृणा फैलाने के लिए जमकर करती है। शाहरुख़ खान पर हमला इसका ताजा उदाहरण है। पर शिवसेना जानती है कि इस क्षेत्र में संघ का फैलाव व्यापक है और महाराष्ट्र में भीड़ को कब्जाए रखने के लिए महाराष्ट्र में रह रहे गैर मराठी भारतीयों पर हमला ही सबसे कारगर हथियार है (और यहाँ भी चाचा-भतीजा कम्पीटीशन है)।


यह आरएसएस भी जानता ही है कि बीजेपी के लिए अपने परंपरागत इलाके को लुभाने के लिए उत्तर भारतीयों (संघ का भारतीयता का जो भी परमिट हो) की शिवसेना से रक्षा का शिगूफ़ा जरूरी है। एक तो यह उत्तरभारत के अलावा दूसरे गैर मराठियों को भी रिझा सकता है और उससे भी पहले यह कि इससे शिवसेना से बीजेपी के गठबंधन पर उत्तर भारतीयों के गुस्से को कंट्रोल किया जा सकता है। बीजेपी चाहे तो इस मसले पर चुप रह सकती है क्योंकि आरएसएस ऐसे ही मौकों के लिए तो है। अब महाराष्ट्र में जहाँ शिवसेना से पिटा गैर मराठी मजबूरी में कांग्रेस या एनसीपी (जो इस मसले पर आखिरकार शिवसेना की ही चाल चलती हैं) के साथ जाता है, वो बीजेपी की झोली भर सकता है। आखिर यह नूरा कुश्ती दोनों आदमखोरों की लहू की प्यास का ही इंतजाम करेगी।


आरएसएस गुजरात और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को उनके उत्तर भारतीय विरोधियों के प्रति उगले जाने वाले जहर को लेकर दण्डित क्यों नहीं करता, ऐसे सवाल का जवाब सब जानते ही हैं। और कांग्रेस की बात - तो वह आरएसएस की नीतियों का ही अनुसरण करती रहती है।


पुनश्च : मुम्बई में उत्तर भारतीय लोगों (खासकर मध्य वर्ग व उच्च वर्ग के नागरिकों) पर हमले के दौरान यूपी और बिहार के शहरियों के सेंटिमेंट देखने लायक होते हैं। अपने गहरे नस्लवाद और जातिवाद को पोसते हुए वे ठाकरे को खूब गलियां निकालते हैं (अपने ब्लॉग में, अखबारों में और आपस में बातचीत में)। लेकिन ये लोग आईपीएल के बेशर्म रवैये पर ठाकरे से भी आगे निकल जाना चाहते हैं।

Wednesday, January 20, 2010

संघ की `संस्कृति`



अभी-अभी दिल्ली से एक दोस्त का मेल मिला जिससे पता चला कि दिल्ली विश्वविद्यालय केम्पस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुंडों ने जनचेतना की बुक वेन पर हमला कर तोड़फोड़ की। संघ और उनकी तरह की ताकतें ऐसा अक्सर करती हैं। राष्ट्रभक्ति और संस्कृति का राग अलापने वाली ये ताकतें भगत सिंह, प्रेमचंद जैसे लेखकों को दुश्मन मानती हैं। आर्ट गेलरियों, किताबों के स्टालों, नाटकों और किसी भी तरह के स्वस्थ सांस्कृतिक-सामाजिक अभियान से उन्हें डर लगता है। यह उनकी `संस्कृति` है जो नरसंहारों तक जाती है।

Monday, August 10, 2009

क्या हबीब आएंगे यह लड़ाई लड़ने?



दो महीने हुए जब हबीब तनवीर रुखसत हुए तो उनके बारे में काफी-कुछ लिखा गया था. लेकिन इस बात का ज़िक्र कम ही किया गया कि वे कला की दुनिया में प्रभावी (और अब दुर्लभ) सेक्युलर उपस्थिति थे. विशुद्ध कला के पैरोकार उनके रंग कौशल पर तो काफी लिख रहे थे लेकिन आरएसएस के कुनबे से उनकी मुठभेड़ पर वे चुप ही थे. जिन लेखकों ने इस बारे में लिखा भी, वे प्रायः वही लेखक थे जिन पर लाल रंग में रंगे होने की `तोहमत` है.
यह सर्वविदित तथ्य है कि `लिविंग लीजेंड` की कला जोखिम भरे रस्ते से होकर गुजरती थी. 90 के दशक में सांप्रदायिक उभार के साथ उनके सेक्युलर मिजाज़ के नाटकों को लेकर संघ का कुनबा बेहद हमलावर हो गया था. `मोटेराम का सत्याग्रह`, `पोंगा पंडित`, `जिस लाहौर नहीं वेख्या` जैसे नाटक कट्टरपंथियों को कभी रास नहीं आये. हबीब साहब को नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भी हमले झेलने पड़े, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता और मजबूत होती गई. उन्होंने बहुत से `सेक्युलर चेम्पियनों` की तरह इसका न रोना रोया और न इसके लिए किसी वाहवाही की अपेक्षा की. उन्होंने यही कहा कि वे कला की दुनिया और सड़क दोनों जगह लड़ सकते हैं. वे होते तो `चरणदास चोर` पर छत्तीसगढ़ की संघी सरकार की पाबंदी को लेकर किसी की मदद ताकने के बजाय मोर्चा संभाले मिलते.
तो क्या मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर की मौत के साथ हमारे लेखकों, कलाकारों और जागरूक नागरिकों ने नया थियेटर और उसके मूल्यों का भी फातिहा पढ़ दिया है? क्या इस लड़ाई को आकर लड़ने की जिम्मेदारी उन मरहूमों की ही बनती है? जाहिर है कि यह लड़ाई सेक्युलर, डेमोक्रेटिक और प्रोग्रेसिव मूल्यों की हिफाज़त की लड़ाई है और ये लड़ाई इन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर कलाकार, एक्टिविस्ट और साधारण नागरिक के सामने खड़ी है.
जहाँ तक लेखकों, कलाकारों का सवाल है तो प्रेमचंद और हुसेन पर हमलों व ऐसे बहुत से दूसरे मसलों पर व्यापक एकजुटता और इच्छाशक्ति का अभाव सामने आता रहा है. हुसेन के मसले पर तो कई `प्रोग्रेसिव` लेखक अक्सर राइट लिबरल और कई बार राइट विंग की भाषा बोलते भी मिल जाते हैं. इस `बौद्धिक` वर्ग ने हाल के उदयप्रकाश-योगी आदित्यनाथ प्रकरण और प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान प्रकरण में भी हद दर्जे की अवसरवादिता, मूल्यहीनता और लिजलिजापन दिखाया है. तो क्या ताजा मामले में प्रमुख प्रोग्रेसिव संगठनों को क्रूर आत्मालोचना करते हुए और अपने बीच के रंगे सियारों को अलग करते हुए साझा रणनीति के साथ मोर्चा नहीं संभालना चाहिए?