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Saturday, December 29, 2012

बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता



नई दिल्ली। बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। दिल्ली की सड़कों पर उमड़े जनविरोध ने इस बलात्कारी संस्कृति और उसे मिले राजसत्ता के समर्थन पर हल्ला बोला है। ये विचार कल 28 जनवरी को जन संस्कृति मंच द्वारा-बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता- विषय पर आयोजित गोष्ठी में उभर कर सामने आए। गोष्ठी में देश भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न-बलात्कार की घटनाओं में हो रही बेतहाशा वृद्धि पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई और तुरंत कड़ी कार्रवाई की मांग की गई।  
इस गोष्ठी में बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने शिरकत की। अनहद संस्था की शबनम हाशमी ने याद दिलाया कि किस तरह से गुजरात में राज्य सरकार के प्रश्रय में महिलाओं के साथ बर्बरत यौन उत्पीड़न किया गया। शबनम ने बताया कि गुजरात जनसंहार के दौरान भी बलात्कार करने वालों ने राड और लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। औरतों के साथ गैंगरेप करके उन्हें पेट्रोल डालकर जला दिया था। बलात्कार के खिलाफ जब पूरे देश में आंदोलन चल रहा हैउस वक्त भी वहां बलात्कार हुए हैं। गुजरात में स्टेट ने बलात्कारियों का साथ दिया। इस सवाल पर पूरे मुल्क में प्रतिरोध जारी रखना होगा।
वरिष्ठ कवि नीलाभ ने सवाल उठाया  कि क्या यह सिर्फ कानून और व्यवस्था का सवाल हैबलात्कार पावर के साथ जुड़ा है। स्टेट इस मामले में अपनी जिम्मेवारी से बचता है। क्या स्वस्थ स्त्री पुरुष संबंधों के बिना बलात्कार से मुकित का उपाय ढूंढा जा सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार और समाजिक कार्यकर्ता किरण शाहीन ने कहा कि बलात्कार की संस्कृति स्त्री को हेय समझने की प्रवृतित से जुड़ी हुर्इ है। हमें यह देखना होगा कि उपभोक्तवाद किस तरह विषमता को बढ़ा रहा है और किस तरह वर्किग क्लास का भी लुंपानाइजेशन हो रहा है। साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को राजनीतिक होना पड़ेगा।
वरिष्ठ कवि सविता सिंह ने कहा कि हमारे देश की इकोनामी में भी रेप जैसी सिथति बनी हुर्इ है। लालचसेल्फ इंटरेस्ट और सिर्फ अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति के भीतर से ही बर्बरता पैदा होती है। इस इकोनामी में स्त्री के श्रम की मूल्यवत्ता घटी है। सित्रयों का बहुत ही गहरे स्तर पर शोषण हो रहा है। इस सिथति में क्रिएटिव रिस्पांस क्या होंगेइस बारे में सोचना होगा।
युवा कवि रजनी अनुरागी ने कहा कि भारतीय परंपरा में भी सित्रयों के प्रति भेदभाव मिलता है और यहां देवताओं द्वारा बलात्कार को जायज ठहराया जाता रहा है। आज यह हिंसा और फैल गई है और स्त्री के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि चाहे हम कितने भी दुखद क्षण और शाक से गुजर रहे हैंपर उज्जवल पक्ष यह है कि इसके पहले यौन हिंसा के खिलाफ इस स्तर का प्रतिरोध नहीं दिखा था। यह स्त्री आंदोलन के लिए ऐतिहासिक दौर है। इस देश में विषमता और अन्याय तेजी से बढ़ रहा है। जहां भी बलात्कार हो रहे हैंउन सब जगहों पर प्रतिवाद करना होगा और स्त्री विरोधी परंपरा से भी भिड़ना होगा।
कवि व महिला कार्यकर्ता शोभा सिंह ने कहा कि आज बलात्कारी संस्कृति के खिलाफ जिस तरह नौजवान सामने आए हैंवह अच्छी बात है। जिस लड़की के प्रतिरोध के बाद यह आंदोलन उभरा हैउसकी जिजीविषा को सलाम। युवा कवि व शायर मुकुल सरल ने कहा कि सिर्फ पढ़े-लिखे होने से कोर्इ स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छे संस्कार और साहित्य-संस्कृति से जुड़ाव जरूरी है। इंडिया गेट से लेकर इस गोष्ठी तक जसम ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया है। यह सिलसिला जारी रहेगा।
कथाकार अंजलि देशपांडे ने कहा कि इस देश में लक्ष्मणों से बचना होगा और शूर्पनखा के संघर्ष को जारी रखना होगा। आजादी के लिए अपनी सुरक्षा को दांव में लगाना होगा। आजादी के नाम पर जेल जैसी सुरक्षा को कबूल नहीं किया जा सकता। हमें राज्यसत्ता को ज्यादा ताकत देते वक्त हमेशा सावधान रहना होगाक्योंकि उसी ताकत के जरिए वह हमारा दमन भी करने लगती है।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमलता वर्मा ने कहा कि ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर इस देश में आज भी राज्यतंत्र ही चल रहा है। इसलिए स्त्री इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, सड़कों पर लड़ रही है। वरिष्ठ साहित्यकार और दलित चिंतक विमल थोराट ने सवाल उठाया कि क्यों बार-बार कमजोर ही बलात्कार का शिकार होते हैंजब किसी जाति या समूह को उसकी हैसियत बतानी होती हैतो यौन हिंसा की यह संस्कृति सित्रयों को ही अपना टारगेट बनाती है। गांवों में और दलित महिलाओं के साथ जो गैंगरेप हो रहे हैंउसे लेकर इतना आक्रोश क्यों नहीं उभरता?
वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि यह एक वीभत्स कांड है। जिसमें कहा जा रहा है दोषी कुंठा के शिकार थे। लेकिन अन्य दूसरों मामलों में किस तरह की कुंठा काम कर रही थी। जिस तरह इन लोगों ने भ्रष्टाचार को जायज बनाया हैउसी तरह बलात्कार भी इनकी निगाह में जायज है। हमें देखना होगा कि इस तरह के लोगों को कौन पार्टी उम्मीदवार बनाती हैहमें इन्हें वोट नहीं देना होगा। यह मुहिम जरूरी है।
ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि 16 दिसंबर के बाद जो आंदोलन उभरावह वाकर्इ स्वत:स्फूर्त थाइसके लिए हमें नौजवान लड़के-लड़कियों को धन्यवाद देना होगा। प्रगतिशील जमात को इस तरह के आंदोलनों को संशय से देखने की प्रवृतित को छोड़ना होगा। इस आंदोलन ने महिलाओं की आजादी और बराबरी के सवाल को सामने लाया है। इसे जनता का भी जबर्दस्त समर्थन मिला। बाबा रामदेव जैसे लोग भी इस जनविक्षोभ को नेतृत्व देने आएलेकिन उन्हें बाहर होना पड़ाक्योंकि स्त्री की आजादी के सवाल पर उनकी कोर्इ विश्वसनीयता ही नहीं थी। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के जिस तरह के स्त्री विरोधी बयान आए हैंउसके मददेनजर इस देश की राजनीतिक संस्कृति में महिलाओं के लिए बुनियादी लोकतंत्र की मांग को इस आंदोलन ने केंद्र में ला दिया है। कविता ने कहा कि इस गैंगरेप के बाद जिस तरह प्रधानमंत्रीमुख्यमंत्री और कुछ कालमिस्टों द्वारा माइग्रेंट मजदूरों और स्लम में रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा हैउसका जबर्दस्त विरोध होना चाहिए।
संचालन करते हुए जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि इस आंदोलन के जरिए देश के अलग-अलग कोनों में हुई बलात्कार की भीषण घटनाओं के खिलाफ एक व्यापक जागरूकता आई है और एक निर्णायक माहौल बना है। भाषा सिंह ने कहा कि जसम स्त्रियों की आजादी और गरिमा के लिए चल रहे इस आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर करता है और महिला संगठनों की मांगों का समर्थन करता है। गोष्ठी में समाजिक कार्यकर्ता सहजो सिंह ने भी अपने विचार रखे।
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(जसम का प्रेस नोट)

उस बहादुर लड़की की मौत पर शोक संवेदना

जन संस्कृति मंच

आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है : जन संस्कृति मंच
बलात्कारियों का प्रतिरोध करने वाली युवती की मौत पर जसम की शोक संवेदना

नई दिल्ली: 29 दिसंबर 2012

हम उस बहादुर लड़की के प्रतिरोध का गहरा सम्मान करते हैं, जिसने विगत 16 दिसंबर की रात अपनी आजादी और आत्मसम्मान के लिए अपनी जान को दांव पर लगा दिया और बलात्कारियों द्वारा नृशंस तरीके से शरीर के अंदरूनी अंगों के क्षत-विक्षत कर देने के बावजूद न केवल जीवन के लिए लंबा संघर्ष किया, बल्कि न्याय की अदम्य इच्छा के साथ शहीद हुई। आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है, जिसकी हमारे दौर में बेहद जरूरत है। जन संस्कृति मंच लड़की के परिजनों और करोड़ों शोकसंतप्त लोगों की प्रति अपनी संवेदनात्मक एकजुटता जाहिर करता है।
यह गहरे राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक शोक की घड़ी है। हम सबके दिल गम और क्षोभ से भरे हुए हैं। हमारे लिए इस लड़की का प्रतिरोध इस देश में स्त्रियों को साथ हो रहे तमाम जुल्मो-सितम के प्रतिरोध की केंद्रीय अभिव्यक्ति रहा है। जो राजनीति, समाज और संस्कृति स्त्रियों की आजादी और बराबरी के सवालों को अभी भी तरह-तरह के बहानों से उपेक्षित कर रही है या उनके प्रति असंवेदनशील है या उनका उपहास उड़ा रही है, उनको यह संकेत स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि जब स्वतंत्रता, सम्मान और समानता के अपने अधिकार के लिए जान तक कुर्बान करने की घटनाएं सामने आने लगें, तो वे किसी भी तरह वक्त को बदलने से रोक नहीं सकते।
इस देश में स्त्री उत्पीड़न और यौन हिंसा की घटनाएं जहां भी हो रही हैं, उसके खिलाफ बौद्धिक समाज, संवेदनशील साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और आम नागरिकों को वहां खड़ा होना होगा और जाति-संप्रदाय की आड़ में नृशंस स्त्री विरोधी मानसिकता और कार्रवाइयों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति का मुखर मुखालफत करना होगा, समाज, प्रशासन तंत्र और राजनीति में मौजूद स्त्री विरोधी सामंती प्रवृत्ति और उसकी छवि को मौजमस्ती की वस्तु में तब्दील करने वाली उपभोक्तावादी अर्थनीति और संस्कृति का भी सचेत प्रतिवाद विकसित करना होगा, यही इस शहीद लड़की के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अनियंत्रित पूंजी की संस्कृति जिस तरह हिंस्र आनंद की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही और जिस तरह वह पहले से मौजूद विषमताआंे को और गहरा बना रही है, उससे मुकाबला करते हुए हमें एक बेहतर समाज और देश के निर्माण की ओर बढ़ना होगा।
आज इस देश की बहुत बड़ी आबादी आहत है और वह अपने शोक की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करना चाहती है, वह इस दुख के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करना चाहती है, लेकिन उसके दुख के इजहार पर भी पाबंदी लगाई जा रही है। इस देश की राजधानी को जिस तरह पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया है, जिस तरह मेट्रो बंद किए गए हैं, जिस तरह बैरिकेटिंग करके जनता को संसद से दूर रखने की कोशिश की गई है, वह दिखाता है कि इस देश का शासकवर्ग जनता के शोक से भी किस तरह खौफजदा है। अगर जनता के दुख-दर्द से इस देश की सरकारों और प्रशासन की इसी तरह की दूरी बनी रहेगी और पुलिस-फौज के बल पर इस तरह लोकतंत्र चलाने की कोशिश होगी, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता की वेदना की नदी ऐसी हुकूमतों और ऐसे तंत्र को उखाड़ देने की दिशा में आगे बढ़ चलेगी।

सुधीर सुमन, जसम राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी
मोबाइल- 9868990959

Friday, November 19, 2010

जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन


लूट और दमन की संस्कृति के खिलाफ सृजन और संघर्ष को समर्पित जसम का बारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन 13-14 नवंबर को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। सम्मेलन में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए। प्रो. मैनेजर पांडेय और प्रणय कृष्ण को पुनः जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष और महासचिव रूप में चुनाव किया गया। सम्मेलन में 115 सदस्यीय नई राष्ट्रीय परिषद का चुनाव किया गया। कामकाज के विस्तार के लिहाज से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के प्रतिनिधियों को भी राष्ट्रीय पार्षद बनाया गया। प्रलेस के संस्थापक सज्जाद जहीर की पुत्री प्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार और नृत्यांगना नूर जहीर समेत 19 नए नाम राष्ट्रीय परिषद में शामिल किए गए। मंगलेश डबराल, अशोक भौमिक, शोभा सिंह, वीरेन डंगवाल, रामजी राय, मदन कश्यप, रविभूषण, रामनिहाल गुजन, शंभु बादल और सियाराम शर्मा को जसम का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी 35 सदस्यों की है, जिसमें सुधीर सुमन, भाषा सिंह, दीपक सिन्हा, सुरेंद्र सुमन, संतोष झा, अनिल अंशुमन, अजय सिंह, के. के. पांडेय, आशुतोष कुमार, बलराज पांडेय, संजय जोशी, सुभाष कुशवाहा, हिमांशु पंड्या, गोपाल प्रधान, कौशल किशोर, पंकज चतुर्वेदी, कैलाश बनवासी और सोनी तिरिया शामिल हैं।
सृजन और संघर्ष के दो बडे नाम- मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी सम्मेलन के केंद्र में थे। सम्मेलन के तमाम सत्रों में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर दोनों की तस्वीरें थीं। दुर्ग के शंकर गुहा नियोगी हाल (बाकलीवाल स्मृति भवन) में हिरावल (पटना) के कलाकारों द्वारा मुक्तिबोध की ‘अधेरे में’ कविता के एक उत्प्रेरक अंश ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया/ जीवन क्या जीया’ के बेहद प्रभावशाली गायन से सम्मेलन की शुरुआत हुई और समापन हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अधेरे में’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। सम्मेलन ने बिहार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का. रामनरेश राम, छात्र नेता राजेश, ‘सही समझ’ के संपादक और कथाकार सोहन शर्मा, रंगकर्मी शिवराम, जनकवि गिर्दा, रंगकर्मी अमिताभ दासगुप्ता और अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता को एक मिनट का मौन रखकर अपनी श्रद्धांजलि दी।
प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल ने ‘सत्ता और संस्कृति’ विषय पर मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यान दिया, जो कि सम्मेलन का उद्घाटन वक्तव्य भी था। मंगलेश डबराल ने इराक, अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले और भारतीय शासकवर्ग द्वारा आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मजदूरों और किसानों के बर्बर दमन का जिक्र करते हुए कहा कि आज सत्ता को अपने किसी भी दुष्कृत्य के लिए कोई ग्लानिबोध नहीं रह गया है। साधारणजन की तकलीफों के प्रति सत्ता बिल्कुल संवेदनहीन हो चुकी है। कश्मीर में जनप्रदर्शनों के हिंसक दमन, अरुंधति राय को जेल भेजने की धमकी, दंतेवाड़ा में आदिवासियों की हत्याओं और विस्थापन, कामन वेल्थ गेम के नाम पर मजदूरो को दिल्ली से भगाए जाने जैसे कई प्रसगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सत्ता बिल्कुल प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट हो चुकी है। एक अनियंत्रित आर्थिक उदारवाद की जो संस्कृति है, भाजपा और कांग्रेस उसके प्रवक्ता और वाहक हैं और उन्हें भारत में पनपे नवधनाढ़य नए मध्यवर्ग का निर्लज्ज साथ मिल रहा है। साधारण जनता के जो बड़े सांस्कृतिक मूल्य है सत्ता उसे खत्म कर देना चाहती है और लूट, बर्बरता के मूल्यों के प्रचार में लगी है, मीडिया उसका एक ताकतवर माध्यम है। मंगलेश डबराल ने कहा कि आज संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को ऐसी सत्ताओं से अपने संबंध को पुनर्परिभाषित करना होगा। राज्य, पूंजी, बाजार या उसके उत्पाद और उसकी राजनीति के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध संगठित करना होगा।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि जो आतताई, निर्मम, लुटेरी और झूठ की सत्ता है, उसका होना ही मनुष्यता के प्रति अपराध है। उसके विकल्प के प्रति सोचना ही पड़ेगा। आज पूंजीवाद समाजवाद से लड़ने के लिए उसी सामंतवाद और धार्मिक प्रवृत्तियों का सहारा ले रहा है, जिसका कभी उसने विरोध किया था। हमारे पास जनता, समाजवाद और माक्र्सवाद से जुड़े लेखकों और संस्कतिकर्मियों के त्याग, समर्पण और संघर्ष की मिसालें हैं, उनकी स्मृति हमारी ताकत है, हमें उस ताकत के साथ मौजूदा सत्ताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्याय और बुराई के खिलाफ जनता में जो बेचैनी और आक्रोश है, उसे अभिव्यक्ति देनी होगी। उद्धाटन सत्र में प्रलेस के महासचिव कमला प्रसाद, जलेस की केंद्रीय कार्यकारिणी की ओर से मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और चंचल चैहान द्वारा भेजा गया शुभकामना संदेश भी पढ़ा गया। कवि आलोक धन्वा ने भी सम्मेलन के लिए अपना संदेश भेजा था, जिसका पाठ किया गया। सम्मेलन को जलेस के नासिर अहमद सिकंदर और प्रलेस के रवि श्रीवास्तव ने भी संबोधित किया। मंच पर वीपी केशरी, रविभूषण, राजेंद्र कुमार, रामजी राय, अशोक भौमिक आदि भी मौजूद थे। संचालन अवधेश ने किया।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध कवि नवारुण भट्टाचार्य ने कहा कि मुक्तिबोध और शंकर गुहा नियोगी को याद करते हुए आज फिर से ‘संघर्ष और निर्माण’ के नारे की याद आती है। जिस तरह से आज का साम्राज्यवाद और उसके देशी दलाल अपने स्वार्थ में आदिवासियों और देश के मेहनतकशों के लिए विनाश और विस्थापन का चक्र चला रहे हैं, उसके खिलाफ फिर उसी नारे के साथ उठ खड़ा होना वक्त की जरूरत है।
दूसरे दिन सांगठनिक सत्र की शुरुआत मसविदा दस्तावेज के पाठ से हुई। दस्तावेज की शुरुआत जनभाषा में अवधेश प्रधान द्वारा रचित एक गीत से हुई, जो अपने आप में जसम के लक्ष्य की ओर भी संकेत करता है। उस गीत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट के हित में भारतीय शासकवर्गों द्वारा की जा रही लूट और लूट को जारी रखने के लिए किए जा रहे बर्बर दमन के यथार्थ के साथ उसके खिलाफ एक ताकतवर जनप्रतिरोध का आह्वान है। दस्तावेज ने इसे चिह्नित किया कि अमेरिका अपने देश में बेरोजगारी दूर करने लिए भारतीय बाजार के आखेट में लगा है। ओबामा इसी मकसद से भारत आए थे। विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों, जंगल, पहाड़, जल, जमीन के दोहन, भारी पैमाने पर विस्थापन, पर्यावरण विनाश और जनसंहार की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जाहिर करते इस दस्तावेज में यह कहा गया कि आज पूंजीवादी लोकतंत्र के हर खंभे की निष्पक्षता और स्वायत्तता स्वांग लगने लगी है। न्यायपालिका तक सत्ता की राजनीति और पूंजी के तकाजों से घिरी नजर आ रही है। अयोध्या और यूनियन कार्बाइड मामले में जो फैसला आया है, वह इसी का उदाहरण है। पेड न्यूज, अंधविश्वास, युद्धोन्माद, सांप्रदायिकता के सहयोगी होने और जनांदोलनों के प्रति विरोधी रुख के कारण मीडिया की भूमिका भी जनपक्षधर नहीं रह गई है। अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी कंपनियों-एजेंसियों के साथ सरकार, संसद, सैन्यबल, नौकरशाही, वित्तीय संस्थाओं, एनजीओ और मीडिया के स्वार्थपूर्ण समझौतों तथा शैक्षणिक, बौद्धिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक लूट और दमन की संस्कृति के विस्तार पर गहरी फिक्र जाहिर करते सम्मेलन के इस दस्तावेज में जनता के प्रतिरोध की संस्कृति को संगठित करने पर जोर दिया गया। किसानों की आत्महत्या और आनर किलिंग के संदर्भ में जसम की ओर से मजबूत सांस्कृतिक हस्तक्षेप की जरूरत पर भी दस्तावेज में जोर दिया गया।
दस्तावेज पर विचार विमर्श की शुरुआत करते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा कि आज आशा के जो स्रोत हैं, उन्हें भी याद करने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ क्यूबा, वेनेजुएला जैसे देशों का प्रतिरोध और सेज के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को उम्मीद की तरह देखना होगा। उन्होंने कहा कि संघर्ष की छोटी सी छोटी कोशिशों को भी दर्ज करना होगा। उन्होंने कहा कि कला-संस्कृति की सारी विधाओं में जनता के जीवन की जो अभिव्यक्ति हो रही है, उसे एक सुचिंतित वैचारिक दिशा देनी होगी। समाजवाद आज और भी प्रासंगिक हो गया है। समाजवादी सपनों की दिशा में संस्कृतिकर्म को गति देनी होगी। उड़ीसा से आए राधाकांत, पश्चिम बंग गण सांस्कृतिक परिषद् के नीतीश, जेवियर कुजूर-झारखंड, राकेश दिवाकर, सुनील चौधरी-आरा, सूर्यनारायण-इलाहाबाद, सुरेश पंजम-लखनऊ, आशुतोष कुमार-दिल्ली, संजय जोशी-गाजियाबाद, शोभा सिंह-लखनऊ, पंकज चतुर्वेदी-कानपुर, कपिल शर्मा-दिल्ली, समता राय-पटना, जय प्रकाश नायर-छत्तीसगढ़, मंगलेश डबराल-दिल्ली और के.के.पांडेय-इलाहाबाद ने सांगठनिक सत्र में चले विचार विमर्श में हिस्सा लिया। सांगठनिक सत्र की अघ्यक्षता रामजी राय, राजेंद्र कुमार, शंभू बादल और रामनिहाल गुंजन ने की।
जसम के इस सम्मेलन में कला-संस्कृति की कई विधाओं और शैलियों की छटाएं देखी गई। कला का हर रंग इस स्वप्न को सामने ला रहा था कि कैसे देश दुनिया में जनपक्षधर व्यवस्थाएं निर्मित हों, किस तरह मानवीय सभ्यता-संस्कृति की प्रगति हो। जो है उससे बेहतर चाहिए, मुक्तिबोध की यह चिंता जैसे सम्मेलन के केंद्र में थी। मुक्तिबोध के चारों पुत्र- रमेश, दिवाकर, गिरीष और दिलीप सम्मेलन में आए, यह सम्मेलन एक सुखद संयोग था।

भारतीय चित्रकला के प्रगतिशील पक्ष से अवगत हुए दर्शक

प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने भारतीय चित्रकला का प्रगतिशील पक्ष’ विषय पर काफी जानकारीपूर्ण और सरोकारों के लिहाज से अत्यंत उपयोगी व्याख्यान दिया। उन्होंने भारतीय चित्रकला के इतिहास को, उस पर मौजूद राजनैतिक-आर्थिक प्रभावों का जिक्र करते हुए, पेश किया। धर्म, सामंती मूल्यबोध, मुगल और यूरोपीय कला से भारत की चित्रकला किस कदर प्रभावित रही और किस तरह बंगाल के भीषण अकाल और तेभागा आंदोलन के दौर में भारतीय चित्रकला में आम मेहनतकश जन के दुख-सुख और संघर्ष का दस्तावेजीकरण हुआ, इसकी भी उन्होंने चर्चा की। उन्होंने भारतीय चित्रकला को जनोन्मुख बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया। अशोक भौमिक अपने कविता पोस्टरों के लिए भी चर्चित रहे हैं। जसम सम्मेलन स्थल पर लगाए गए राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए पोस्टर उसी परंपरा को विकसित करने की एक कोशिश लगे।

कविता पोस्टरों के जरिए याद किए गए मशहूर कवि और शाय

यह वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर शायर फैज अहमद फैज,मजाज, हिंदी कवि नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय का जन्मशताब्दी वर्ष है। राधिका-अर्जुन ने उनकी कविताओं पर आधारित बडे़ प्रभावशाली पोस्टर बनाए थे। इन कविता पोस्टरों के जरिए इन शायरों और कवियों की विचारधारा, काव्य-संवेदना और उनकी प्रतिबद्धता से दर्शक रूबरू हुए। नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘प्रतिबद्ध हूं’ के संकल्प के साथ एक पोस्टर में यह दिशानिर्देश भी नजर आया कि ‘साधारण जनों से/ अलहदा होकर रहो मत/ कलाधर या रचयिता होना नहीं है पर्याप्त/ पक्षधर की भूमिका धारण करो।’ पोस्टरों में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ के अंश थे तो शासकीय दमन के प्रतिरोध में उतरे मुक्ति सैनिकों की तलाश भी थी। फैज के मशहूर नज्म ‘लाजिम है’ का यकीन एक ओर था तो दूसरी ओर आदमी में मौजूद लोहे की ताकत का बयान करती केदारनाथ अग्रवाल की कविता का अंश तो तीसरी ओर शमशेर की कविता में मौजूद ‘वज्र कठिन कमकर की मुट्ठी में पथ प्रदर्शिका मशाल’। अधिकांश कविता पोस्टरों में साधारण मेहनतकश जनता की इंकलाबी ताकत के प्रति गहन आस्था की अभिव्यक्ति थी। रक्तपायी शासकवर्ग के हित में जनता की बदहाली, शोषण-दमन आदि के सवाल पर चुप रहने वाले साहित्यिक-कविजन, चिंतक, शिल्पकार आदि के प्रति सख्त आलोचना मुक्तिबोध के साथ-साथ सर्वेश्वर, गोरख, मायकोव्स्की, पाब्लो नेरुदा, आलोक धन्वा की कविताओं पर आधारित पोस्टरों में भी थी। गुर्राते हुए भेड़ियों के खिलाफ मशाल जलाने और बेजुबानों की आवाज बनने का आह्वान और संकल्प का इजहार भी थे ये पोस्टर।
सांगठनिक सत्र में मंच की दायीं ओर लगा मशहूर कवि और गायक पाल राबसन की कविता पर आधारित पोस्टर एक तरह से जसम के राष्ट्रीय सम्मेलन के मकसद की अभिव्यक्ति था-

प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक
प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना
होगा कि वह कहां खड़ा है
सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठभाग
नहीं है.....कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी- उसे
किसी एक को चुनना ही होगा....
और कोई विकल्प नहीं है।

लोकार्पण

नवारुण भट्टाचार्य ने जसम सम्मेलन की स्मारिका का लोकार्पण किया। जिसमें जन्मशताब्दी वर्ष वाले रचनाकारों के अतिरिक्त पहल के संपादक ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, रघुवीर सहाय, निराला आदि की रचनाएं हैं। संपादन कैलाश बनवासी ने किया है। इस अवसर पर झारखंड के संस्कृतिकर्मी कालेश्वर गोप के कहानी संग्रह ‘मैं जीती हूं’ का लोकार्पण कैलाश बनवासी ने किया।
चित्र और मूर्ति प्रर्दशनी सम्मेलन में गिलबर्ट जोसेफ, सुनीता वर्मा, डीएस विद्यार्थी, एफ.आर. सिन्हा, बृजेश तिवारी, रश्मि भल्ला, जीके निर्मलकर और प्रांजली के चित्र तथा धनंजय पाल के चित्र प्रदर्शित थे, जो सम्मेलन का महत्वपूर्ण आकर्षण थे।

जनगीत, बाउल, डाक्युमेंटरी और फिल्म का प्रदर्शन

पश्चिम बंग गण परिषद की ओर से आए बाउल गायकों-नर्तकों ने अपनी प्रस्तुति के जरिए अद्भुत समां बांधा। भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के महानायक का. रामनरेश राम के निधन के तुरत बाद बनाई गई नीतिन की डाक्यूमेंटरी और ईरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ भी सम्मेलन में दिखाई गई। शहीद गुरु बालकदास बाल मंच (जामुल/छत्तीसगढ़) और हिरावल (भिलाई) के बालकलाकारों की प्रस्तुति जितनी मनमोहक थी, उतना ही भविष्य की संभावनाओं से लैस थी। सम्मेलन में हिरावल (भिलाई), हिरावल (बिहार), दस्ता(इलाहाबाद) और युवानीति (आरा) के कलाकारों ने जनगीत पेश किए।

कविता पाठ

सम्मेलन के आखिरी सत्र के आरंभ में कविता पाठ हुआ, जिसमें नवारुण भट्टाचार्य ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' का अंश सुनाया। मीता दास ने हिंदी में अनुदित उनकी कविताओं का पाठ किया। मंगलेष डबराल ने टार्च, भूख और भूत, मैं तैयार नहीं हूं, दरवाजे और खिड़कियां जैसी अपनी प्रसिद्ध कविताओं को सुनाया। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपनी तीन कविताओं का पाठ किया, जिसमें हमारे दौर की कई ज्वलंत समस्याओं को लेकर चिंता मौजूद थी। शोभा सिंह ने कश्मीर के हालात पर रची गई दो कविताओं और शमशेर की याद में लिखी गई अपनी कविता का पाठ किया। रमाशंकर विद्रोही ने नूर मियां के सूरमे और मानव सभ्यता में स्त्रियों के उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लिखी गई अपनी लंबी कविता का पाठ किया। राजेंद्र कुमार की कविता में शासकों-प्रशासकों की खबर ली गई थी तो शंभू बादल की छोटी कविताएं जनजीवन की छोटी-छोटी उम्मीदें को बटोरने की एक कोशिश थी।
सम्मेलन का समापन हिरावल (बिहार) द्वारा गोरख पांडेय की स्मृति में रचित दिनेष कुमार शुक्ल की कविता ‘जाग मेरे मन मछंदर’ के गायन और हिरावल (भिलाई) द्वारा ‘अंधेरे में’ कविता की नाट्य प्रस्तुति से हुआ।
सम्मेलन में लेनिन पुस्तक केंद्र (लखनऊ), गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से बुकस्टाल भी लगाए गए थे।

--सुधीर सुमन

Monday, October 4, 2010

अयोध्या फैसले पर जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (2 अक्टूबर 2010, नई दिल्ली) में अयोध्या मसले पर हाल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पारित प्रस्ताव


जन संस्कृति मंच विवादित अयोध्या मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उससे भी ज्यादा विवादित फैसले पर सदमे और दुख का इजहार करता है. यूं तो सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर बाकी है, लेकिन इस फैसले के पक्ष में एक ओर संघ परिवार तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी जिस तरह राजनीतिक सर्वानुमति बनाने का प्रयास कर रही हैं, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यह फैसला सत्ता की राजनीति के तकाजों को पूरा करने वाला, तथ्यों और न्याय-प्रक्रिया के ऊपर धार्मिक आस्था को तरजीह देने वाला और पुरातत्व सर्वेक्षण की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट से निकाले गए मनमाने निष्कर्षों पर आधारित है. इस फैसले ने अप्रामाणिक, निराधार, तर्कहीन ढंग से इस बात पर मुहर लगा दी है कि जहां रामलला की मूर्ति 1949 में षड्यंत्रपूर्वक रखी गई थी, वही राम का जन्मस्थान है. ऐसा करके न्यायालय के इस फैसले के परिणामस्वरूप न केवल 1949 की उस षड्यंत्रकारी हरकत, बल्कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की बर्बर कार्रवाई को भी प्रकारांतर से वैधता मिल गई है. सवाल यह भी है कि क्या यह फैसला देश के संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रतिज्ञाओं के भी विरुद्ध नहीं है?

यह पहली बार हुआ है कि आस्था और विश्वास को सियासत के तकाजे से दीवानी मुकदमे की अदालती प्रक्रिया में निर्णय के एक वैध आधार के रूप में मान्यता दी गई. मिल्कियत का विवाद सिद्ध किए जा सकने योग्य सबूतों के आधार पर नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक आस्थापरक आधारों पर निपटाकर इस फैसले ने न्याय की समूची आधुनिक परिभाषा को ही संकटग्रस्त कर दिया है. इतना सबकुछ करने के बाद भी यह फैसला इस विवाद को सुलझाने में न केवल नाकामयाब रहा है, बल्कि उसने धर्मस्थानों को लेकर तमाम दूसरे सियासी विवादों के लिए भविष्य का रास्ता खोल दिया है. एक तो पुरातत्व सर्वेक्षण खुद में ही मिल्कियत के विवाद निबटाने के लिए एक संदिग्ध आधार है, दूसरे देश के तमाम बड़े इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने सर्वेक्षण की प्रक्रिया और तौर-तरीकों पर लगातार एतराज जताया है. अनेक विश्वप्रसिद्ध पुरातत्वविद पहले से ही कहते आए हैं कि इस भूखंड की खुदाई में ऐसे कोई भी खंभे नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर पुरातत्व की रिपोर्ट वहां मंदिर होने की संभावना व्यक्त करती है, दूसरी ओर पशुओं की हड्डियों और अन्य पुरावशेषों से वहां दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का अवश्य ही प्रमाण मिलता है. ऐसे में न्यायालय की खंडपीठ द्वाराबहुमत से यह मान लेना कि मस्जिद से पहले वहां कोई हिंदू धर्मस्थल था, पूरी तरह गैरवाजिब प्रतीत होता है.

‘‘वर्तमान की सियासत को जायज ठहराने के लिए हम अतीत को झुठला नहीं सकते."- इतिहासकार रोमिला थापर के इस वक्तव्य में निहित एक अध्येता, एक नागरिक और एक देशप्रेमी की पीड़ा में अपना स्वर मिलाते हुए हम इतना और जोड़ना चाहेंगे कि अमूल्य कुर्बानियों से हासिल आजादी, लोकतंत्र, न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों के खिलाफ जाकर ‘आस्था की राजनीति’ के तकाजों को पूरा करने वाले किसी भी अदालती निर्णय को कठोर राजनैतिक-वैचारिक बहस के बगैर स्वीकार करना देश के भविष्य के साथ एक अक्षम्य समझौता होगा.


प्रणय कृष्ण
महासचिव, जन संस्कृति मंच
द्वारा जारी

Monday, August 2, 2010

विभूति के बयान पर जसम

जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म. गा हिं. वि. वि. के कुलपति श्री विभूति राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिंदी रत्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निंदा करता है. यह साक्षात्कार उन्होंने नया ज्ञानोदय पत्रिका को दिया था. हमारी समझ से यह बयान न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है , बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक हैं. इतना ही नहीं बल्कि बयान हिंदी के स्त्रीलेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है. आश्चार्य है की पूरे साक्षात्कार में यह बयान पैबंद की तरह अलग से दीखता है क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कॊई सम्बन्ध् भी नहीं है. अच्छा हो कि श्री राय अपने बयान पर सफाई देने की जगह उसे वापस लें और लेखिकाओं से माफ़ी मांगें. नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींद्र कालिया अगर चाहते तो इस बयान को अपने सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन के लिए, चर्चा के लिए उपयोगी समझा. आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई सम्पादक , लेखक बेचैन हैं. इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्रकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएँ हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री-अस्तित्व. रवींद्र कालिया को भी इसके लिए माफी माँगना चाहिए. जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते. साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री-विरोधी, अराजक भाषा की ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन संभव है और न विमर्श. जसम हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धनजन कॆ साथ है जिन्हॊनॆ इस बयान पर अपना रॊष‌ व्यक्त किया है.
-प्रणय कृष्ण, महासचिव, जसम

Friday, February 12, 2010

प्रतिरोध का सिनेमा




फोटो 1- दास्तानगोई प्रस्तुत करते राणा प्रताप और उस्मान शेख

फोटो 2- गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सईद मिर्ज़ा


चार दिनों तक चलने वाला पांचवां गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल ४ फ़रवरी,२०१० के दिन समानांतर सिनेमा के अद्वितीय फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा द्वारा उदघाटन के साथ शुरु हुआ. मंच पर उनके साथ फ़िल्मकार कुंदन शाह , जसम के उपाध्यक्ष अजय कुमार और महासचिव प्रणय कृष्ण मौजूद थे. उदघाटन सत्र में ही फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का विमोचन हुआ जिसमें दिखाई जाने वाली फ़िल्मों और उनसे जुड़े विमर्शों पर अनेक सुंदर लेख संगृहीत हैं. जन पक्षधर पत्रकार अमितसेन गुप्त के चुनिंदा लेखों के संग्रह "Colour of Gratitude is Green" का विमोचन भी सईद मिर्ज़ा ने किया. यह समारोह विख्यात मानवाधिकारवादी के. बालगोपाल और विख्यात मराठी कवि दिलीप चित्रे की स्मृति को समर्पित था. हरेक कार्यकर्ता के चेहरे पर इस बात का वाजिब गर्व झलकता था कि पांचवें साल लगातार तो यह समारोह गोरखपुर में हो ही रहा था, साथ ही इन सालों में ये 'मूविंग फ़िल्म फ़ेस्टिवल' की तर्ज़ पर लखनऊ,पटना, भिलाई, नैनीताल और तमाम छोटे कस्बों तक पहुंचा, वह भी बगैर कारपोरेट, सरकारी या फ़िर एन.जी.ओ. स्पांसरशिप के, संस्कृतिकर्मियों की और जनता की भागीदारी की बदौलत. जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी के तत्वावधान में आयोजित होने वाला यह फ़ेस्टिवल कभी भी शुद्धत: फ़िल्मों तक सीमित नहीं रहा है. हर साल इसमें चित्रकला, काव्य-पाठ, नाटक, नृत्य, संगीत, बहस-मुबाहिसे का समावेश रहता है. इस बार भी यह महमूद फ़ारुकी की टीम द्वारा प्रस्तुत 'दास्तानगोई'( कहानी कहने की एक खास पुरानी परंपरा) से शुरु हुआ और असम के क्रांतिकारी लोक-गायक लोकनाथ गोस्वामी के गायन से ७ फ़रवरी को समाप्त हुआ. बीच में, दूसरे दिन श्री जवरीमल्ल पारेख के आलेख "आम आदमी का सिनेमा बनाम सिनेमा का आम आदमी" पर और तीसरे दिन तरूण भारती के लेक्चर-डिमांस्ट्रेशन "बहस की तलाश और डाक्यूमेंट्री संपादन की राजनीति' पर दर्शक समुदाय ने बहस मे अच्छी-खासी तादाद में शिरकत की. फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा, कुंदन शाह ( 'जाने भी दो यारों' जैसी प्रसिद्ध हास्य-फ़िल्म के निर्माता), देबरंजन सारंगी, आनंदस्वरूप वर्मा, अतुल पेठ,अनुपमा श्रीनिवासन, प्रमोद सिंह और तरुण भारती लगातार दर्शकों से रू-ब-रू रहे और इस अंत:क्रिया ने दर्शकों में फ़िल्म की समझ में ज़रूर इज़ाफ़ा किया. मालूम हो कि जन संस्कृति मंच द्वारा किए जाने वाले फ़िल्मोत्सवों की लगातार स्थायी मेगाथीम है 'प्रतिरोध का सिनेमा', लेकिन इस वृहत्तर थीम के अंतर्गत हर फ़िल्मोत्सव किसी विशेष थीम पर केंद्रित होता है जैसे कि इस बार का उत्सव 'समाज के हाशिए' पर ढकेले जा रहे लोगों की बढ़ती तादाद पर केंद्रित था. फ़िल्मों का चयन, सईद मिर्ज़ा का उदघाटन वक्तव्य और जसम के महासचिव का अध्यक्षीय वक्तव्य इसी थीम पर केंद्रित थे. इस बार मह्त्वपूर्ण बात यह भी थी कि फ़िल्मोत्सव में ही चार फ़िल्मों के प्रीमियर (प्रथम प्रदर्शन) हुए. ये फ़िल्में थीं 'इन कैमरा' (रंजन पालित), नेपाल की राजशाही को समाप्त करने वाली लोकतांत्रिक क्रांति पर आधारित 'बर्फ़ की लपटें' ( आनंदस्वरूप वर्मा और आशीष श्रीवास्तव), 'ग्लोबल शहर से चिट्ठे' ( सुरभि शर्मा) तथा कंधमाल में साम्प्रदयिक हिंसा और कारपोरेट पूंजी द्वारा लाए जा रहे आदिवासियों के विस्थापन के अंतर्संबंधों की पड़ताल करती "टकराव: किसकी हानि, किसका लाभ'( देबरंजन सारंगी) .
सईद मिर्ज़ा ने पहले ही दिन कहा कि हिंदी में न्यू वेव सिनेमा का अंत १९९० के दशक के भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के ज़रिए हुआ. इन नीतियों के निर्माताओं ने देश और समाज में सेंसेक्स की उछाल से तय होने वाले विकास औए अंधाधुंध बाज़ारीकरण को लोकतंत्र का नाम दिया जबकि इसने लोकतंत्र को और कमज़ोर बनाया तथा गरीबों की तादाद में बेतहाशा वृद्धि की. यह समाज के अमानवीयकरण की प्रक्रिया थी.सारे बुनियादी मुद्दों को राजनैतिक सर्वानुमति से हाशिए पर डाल दिय गया और उनकी जगह भावनात्मक और विभाजनकारी मुद्दों की राजनीति का युग शुरु हुआ. ऎसे में आम आदमी के सिनेमा को चोट तो पहुंचनी ही थी. सिनेमा समाज से अलग नहीं होता. आज सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को भला कौन सा साबुन, कौन सा तेल और कौन सी कार स्पांसर करेगी? सार्थक और सोद्देश्य सिनेमा को जनता के आंदोलनों के साथ ही बढ़ना होगा, क्योंकि न तो सरकार और न ही कारपोरेट घरानों को इसकी कोई ज़रूरत है. सईद ने बातचीत के दौरान प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के विरोध का दमन 'आपरेशन ग्रीनहंट' जैसे तरीकों से किए जाने की घोर भर्त्सना की. उन्होंने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को आज के सिनेमाई परिड्रुश्य में रामायण और महाभारत के बीच 'नुक्कड़'( सईद द्वारा निर्मित प्रसिद्ध टेलिसीरियल) की उपमा दी. सईद ने कहा कि वे एक 'लेफ़्टिस्ट सूफ़ी' कहलाना पसंद करेंगे. यह भी कहा कि १९९६ के बाद उन्होंने फ़िल्में इसलिए नहीं बनाईं कि वे एक अंतर्यात्रा पर हैं. ऎसे में उन्होंने कैमरा रखकर कलम उठा ली है और उपन्यास लिखा है. 'अम्मी: लेटर टू ए डिमोक्रेटिक मदर' उनका आत्मकथात्मक उपन्यास मां की यादों, सूफ़ी नीतिकथाओं और बचपन की स्मृतियों के ताने-बाने से बुना हुआ है.
प्रणय कृष्ण ने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सिर्फ़ न्यू वेव सिनेमा ही नहीं , बल्कि किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन और तमाम मूल्य भी भूमंडलीकरण की मार से हाशिए पर गए हैं. नौजवानों के भीतर आदर्शवाद, मध्यवर्ग के भीतर गरीबों के प्रति करुणा, बुद्धिजीवियों के भीतर ईमान और जनता के बीच एकजुट हो लड़ने की क्षमता भी हाशिए पर गई है. फ़िर भी जगह जगह भारत के भूमंडलीकरण के दूसरे दौर में लोग बगैर किसी संगठित पार्टी या विचार के भी लड़ने उठ खड़े हो रहे हैं. कलिंगनगर, मणिपुर की मनोरमा से लेकर लालगढ़ तक संघर्षरत जन हम संस्कृतिकर्मियों को हाथ हिला-हिलाकर बुला रहे हैं. हमें उनके पास जाना है और उन्हें अपने रचनाकर्म में लाना है.