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Monday, October 12, 2015

एक बस अपील...लौटा दीजिए पुरस्कार : शिवप्रसाद जोशी



साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने चाहिए. जिनके पास जिन जिन वक़्तों के पुरस्कार हैं. वे सब आगे आएं और अपने पुरस्कार लौटा दें. इस फेर में न फंसे कि इसका कोई मूल्य नहीं, कि ये निजी शहादत है, कि इसका कोई हासिल नहीं, कि पैसा कैसे चुकाएंगें, कि साहित्य अकादमी तो सरकारी यूं भी नहीं हैं आदि आदि. और इधर तो एक जालसाज़ी ये भी हो रही है कि कह रह हैं कीर्ति भी लौटाओ. जैसे कीर्ति वहां से अर्जित हुई होगी. पूरा हिसाबकिताब ऐसे ढंग से पेश किया जा रहा है कि ख़बरदार अगर लौटाया तो ये हिसाब ध्यान रखना. ऐसी बेशर्मी, ऐसी ख़ुराफ़ात, ऐसा मज़ाक, ऐसी अपमान और ऐसा फ़ाशीवादी रवैया इस देश में आन पड़ा है तो क्या अचरज?

वरिष्ठो, आगे आइए और ये पुरस्कार लौटा दीजिए. इसके गहरे निहितार्थ होंगे. आप सब जानते हैं. दुनिया भर के लोगों में संदेश जाएगा. जा रहा है. प्रतिरोध आंदोलनों को मज़बूती मिलेगी. लोग और जुटेंगे. एक बड़ी अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का समर्थन होगा. एक चेन बनेगी. विश्व शक्तियों की नई धुरियों का नया जनतांत्रिक और अवाम केंद्रित विलोम तैयार होगा. आप पुकारे जाएंगें. आपको सलाम होगा. 

और हम, साथियो, हम लोग न ताकें न रुकें न चुप रहें. बोलें. भरसक. लिखें. आश्वासन और राहतें और छलावे और पेशकशें और ऑफ़र लौटा दें. सरकारों को ख़बरदार करें. आपने यूं ही जन्म नहीं लिया है. एक सार्थक जीवन की परिभाषा और उद्देश्य क्या होता है. ये बताने का पुरज़ोर समय है. हम लोग दलाली नहीं कर सकते हैं. हमारे वरिष्ठ दलाल नहीं हो सकते हैं. हम लोग मनुष्य हैं और हम लोगों का एक जीवन है जो सुंदर है जिसमें प्रेम है, परिवार है परिजन और दोस्त और संबंधी हैं, और ये सारी की सारी दुनिया है. हम लोग ख़ुशकिस्मत हैं फिर घेरा डाले हुए हमारे आसपास ये ताक़तें कौन हैं. ये हमारा अच्छा बुरा क्यों तय करेंगी, हम खुद क्यों नहीं? इन घेरों की जगह तो हमारी सदियों से बनाई हुई मनुष्यता के डेरे होने चाहिए.

लोग सवाल कर रहे हैं और इस विश्वव्यापी प्रायोजित जय-जय के बीच संदेह में हैं. कि आखिर ये जयगान उस देश से आ रहा है जहां मांस और इंसान के बीच जीवन और मौत का संघर्ष चल रहा है. पूंजीवादी व्यवस्थाएं जब फ़ाशीवाद से गठबंधन करती हैं तो ऐसा ही होता है. ऐसा इस देश की प्राचीनता में नहीं हुआ था. इतिहास की विकृति हावी है. और ये कहने वाले लोग कम होते जा रहे हैं कि भारत में ऐतिहासिक सच्चाई ये है कि यहां मांस खाया जाता था.
अब इस मांस भक्षण का विरोध इतना प्रबल है कि मनुष्य भक्षण पर आमादा ताक़तें फैल गई हैं और उन्होंने जैसे विचार पर ही क़ब्ज़ा कर लिया है. 

लोग या तो मांस के नाम पर मारे जा रहे हैं या महिमा न करने के अपराध में. अगर आप अनवरत जयजय में शामिल नहीं हैं तो आप समाज विरोधी, जाति विरोधी, धर्म विरोधी और देशद्रोही हैं.

तो साथियो, जो किसी भी तरह की फ़ाशीवादी सुविधा के घेरे में हैं उन्हें छोड़ें, जिनके पास सरकार के दिए पुरस्कार हैं, उन्हें लौटा दें. भले ही वो किसी भी पार्टी या समूह या गठबंधन की सत्ता के दौरान के हों. या किसी और दौर के.
आज क्या कर सकते हैं और किस चीज़ का क्या अर्थ हो सकता है, इसे सोचें. लेकिन इसमें आगामी जीवन का मोलभाव न सोचें. आगामी सिर्फ़ मौत है या उससे कम कोई दयनीय हालत. आप हंसेंगे, दैनन्दिन काम निपटाएंगें, दावतों में जाएंगें, घरबार करेंगें लेकिन मौत आपके साथ ऐसे चलेगी जैसे आप उसकी गिरवी रखी हुई कोई चीज़ हों.
वरना तो मौत स्वाभाविक रूप से आती ही है. आकस्मिक भी आती है, और लड़कर भी.... लेकिन आप उस समय इंसान होते हैं- विवशता, इच्छा, लालच, किंकर्तव्यविमूढ़ता, फ़र्माबरदारी और जहालत से भरा हुआ कोई बोरा नहीं जिसे किसी ने जीवन के कगार से हमेशा हमेशा के लिए धकेल दिया हो.


पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas

Saturday, March 1, 2014

जलेस सम्मेलन में साझा संस्कृति संगम की घोषणा

नयी साहसिक पहलक़दमी की जरूरत

जनवादी लेखक संघ के इलाहाबाद में हुए राष्ट्रीय सम्मलेन के अवसर पर आयोजित साझा संस्कृति संगम (14 फरवरी, 2014) में स्वीकृत घोषणा-

भारतीय समाज इस समय फ़ासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। सच तो यह है कि देश के अनेक हिस्सों में लोग अघोषित फ़ासीवाद की परिस्थिति में ही सांस ले रहे हैं। यह ख़तरा काफ़ी समय से मंडरा रहा था पर अब एक अलग कि़स्म के और ज्यादा निर्णायक चरण में दाखि़ल होना चाहता है। सामराजी सरमाया के दबाव में थोपे गये आर्थिक उदारीकरण ने बेतहाशा आर्थिक तबाही के साथ देश की संवैधानिक संरचना, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सामाजिक और सांस्कृतिक परस्परता के ढांचे को ध्वस्त करना शुरू किया, और ऐसी हालत आन पहुंची है कि प्रतिक्रियावाद के ये बहुमुखी आक्रमण रोके नहीं गये तो हिंदुस्तानी मुश्तरक़ा तहज़ीब, जीवन शैली और पिछले डेढ़ सौ सालों में विकसित राजनीतिक पहचान और क़ौमी परंपराएं ही लापता हो जायेंगी। संगठित पूंजी ने राज्य और राजकीय संस्थाओं पर, प्रमुख राजनीतिक दलों में, कार्यपालिका, सुरक्षातंत्र और न्यायपालिका पर अपनी घुसपैठ इतनी बढ़ा ली है कि वह लगभग सभी दूरगामी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक नीतियों की दिशा निर्धारित करने लगी है और हुक्मरान तबक़ा इसके अर्दली की तरह काम करता दिखायी देता है। मीडिया के बड़े हिस्से पर पूंजी का क़ब्ज़ा हो चुका है। सूचना, प्रचार, समाचार और मनोरंजन के साधनों पर वह लगभग एकाधिकार की स्थिति में है। कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के तंत्र अब पूंजी के चौकस प्रहरी, उसकी साजि़शों के प्रभावी वाहक और जन-हितों को कुचलने वाली हिंसक मशीन में बदल चुके हैं।

यह परिस्थिति सिर्फ़ अमरीकी दबाव या कारपोरेट घरानों के इशारे भर से नहीं बनी है; इसके पीछे प्रतिक्रियावादी ताक़तों द्वारा तालमेल के साथ भारतीय मध्यवर्ग और आम जनता के बहुत से हिस्सों की लामबंदी के संगठित प्रयास हैं और इन प्रयासों का एक लंबा इतिहास है। हमारे देश में भी फ़ासीवादी विचारधारा का एक अतीत है, वह अरसे से ताक़त इकट्ठा करती आ रही है अब वह नाजु़क हालत आ पहुंची है कि यह हमारे भविष्य को निर्धारित करना चाहती है। पिछले दो दशकों में शासक वर्ग की अवाम दुश्मन और लुटेरी नीतियों के नतीजे के तौर पर आनन फानन में धनी हुए मध्यवर्ग का एक बड़ा टुकड़ा, जिसमें नौकरीपेशा लोग भी शामिल हैं, अब इस पूंजी के पीछे लामबंद है। दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी, फि़रक़ावाराना और मज़हबी जुनून फैलाने वाली कुव्वतें, ख़ासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध दर्जनों संगठन हिंदुत्ववादी अस्मिता के निर्माण, प्रचार-प्रसार, योजनाबद्ध साजि़शों और आतंकवादी तरीक़ों से भारतीय समाज के प्रतिक्रियावादी पुनर्गठन में मुब्तिला हैं। इसी दौर में राष्ट्रीय आंदोलन की उदारवादी और जनोन्मुखी प्रेरणाएं और मूल्य तेज़ी से टूटे बिखरे हैं और बांये बाजू़ की वैकल्पिक चुनौती और प्रतिरोध की परंपरा भी कमज़ोर पड़ी है। संक्षेप में, सामराजी भूमंडलीकरण, कारपोरेट पूंजी और हिंदू राष्ट्रवाद का यह गठजोड़ हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर हिस्से पर क़ाबिज़ होना चाहता है, और ऐसी हालत बनायी जा रही है कि लोगों को लगे कि अब और कोई विकल्प बचा नहीं है। जबकि सच यह है कि ऐन इसी समय समाज के बड़े हिस्से, ख़ासतौर पर वंचित तबके़ अपनी कशमकश और अपने संगठित-असंगठित निरंतर संघर्षों से बार-बार और तरह-तरह से जनवाद के विस्तार की तीव्र और मूलगामी आकांक्षा का संकेत दे रहे हैं। विश्वविजय के अभियान को पूरा कर चुका पूंजीवाद अभी गंभीर संकट में है और अपनी विध्वंसक मुहिम को बढ़ाने के अलावा उसे कोई विकल्प दिखायी नहीं देता। दुनिया भर में उसके खि्लाफ़ व्यापक जनअसंतोष की तीव्र अभिव्यक्ति स्वत:स्फूर्त और संगठित संघर्षों के रूप में सामने आ रही है, जिसे कुचलने या विकृत करने या दिशाहीन बनाने या अराजकता की ओर ले जाने की कोशिशें भी बड़े पैमाने पर चल रही हैं। मौजूदा फ़ासीवादी उभार इसी चुनौती का मुक़ाबला करने का मंसूबा लेकर सामने आया है। लोकतांत्रिक और वामपंथी ताक़तें इस समय एक अलगाव के हालात के बीच कॉरपोरेट फ़ासीवाद के भारी दबाव और हमलों का सामना कर रही हैं। यह एक विडंबना है कि जिस समय ऐसी ताक़तों की पारस्परिकता और विशाल एकजुटता की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, वे काफ़ी कुछ बिखराव की शिकार हैं।

हमने देखा है कि हर प्रकार की तानाशाही - फि़रक़ावाराना हो या किसी और तरह की - जनाधार ढूंढ़ती है और ख़ास हालात में वह उसे हासिल भी कर लेती है। जर्मनी और इटली की मिसालें लंबे समय से हमारे सामने हैं। भारतीय समाज की सामाजिक बनावट, विचारधारात्मक तंत्र और दैनिक सांस्कृतिक जीवन में निरंकुशतावादी या फ़ासीवादी तत्वों की मौजूदगी और सक्रियता का इतिहास बहुत पुराना है। पिछले बीस-तीस वर्षों में इस प्रतिक्रियावादी अवशिष्ट का एक विशाल कारोबार ही खड़ा हो गया है और इसमें नयी जान पड़ गयी है। ‘पॉपुलर कल्चर’ के परंपरागत रूपों और मास कल्चर के नमूने की नयी लुम्पेन बाज़ारी संस्कृति में ढल कर फ़ासीवाद के अनेक तत्व इस वक्त सतत क्रियाशील हैं। साधु, संत, मठ, आश्रम, धार्मिक टी.वी. चैनल, हिंदुत्ववादी प्रचारतंत्र, रूढि़वादी सामाजिक और धार्मिक सीरियलों की बढ़ती लोकप्रियता ने जहां एक तरफ़ धर्म और ‘देवत्व’ का एक विशाल बाज़ार पैदा कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ़ नृशंसता का उत्सव मनाती सत्य कथाओं और अपराध कथाओं के ज़रिये मनोरंजन उद्योग फलफूल रहा है, जिसमें शिक्षित मध्यवर्ग सहित आबादी के विशाल तबक़े प्रशिक्षित और अनुकूलित हो रहे हैं। इस विशाल कारोबार में फ़ासीवादी कुव्वतें पूरी तरह संलग्न हैं और इसमें बेशुमार पूंजी लगी हुई है। इस तरह फ़ासीवाद के लिए अनुकूल सांस्कृतिक वातावरण पहले से तैयार है और ये कुव्वतें अपनी हेकड़ी से मीडिया में मौजूद विवेकशील स्वरों को दबाने में सफल हो रही हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगातार हमले हो रहे हैं। किताबें जलाना, सिनेमा और नाटक का प्रदर्शन रुकवाना, चित्र-प्रदर्शनियों पर हिंसक हमले करना - सांप्रदायिक फ़ासीवाद के उन्मत्त गिरोहों के द्वारा अंजाम दी जानेवाली ऐसी घटनाएं आये दिन घट रही हैं।

मुज़फ्फ़रनगर का हत्याकांड और अल्पसंख्यकों का विस्थापन बताता है कि फ़ासीवादी शक्ति किस तरह से रूढि़-पोषक खाप पंचायतों, हरित क्रांति तथा पुरुष सत्तावाद के आधार पर खड़ी राजनीति और प्रतिक्रियावादी सामाजिक संस्थाओं से तालमेल बिठाकर उन्हें अपने नियंत्रण में लेती है। उन्होंने नियोजित तरीक़े से ‘लव जिहाद’ का दुष्प्रचार करके सांप्रदायिकता को बहू-बेटी की इज्ज़त का मामला बनाया और एक साथ वर्गीय और जेंडर हिंसा का षडयंत्र रचा, जिसमें हम आज़ादी के बाद सम्पन्न हुए भूस्वामी वर्ग और पूंजीपति वर्ग की आपसी सुलह और कारस्तानियों का सबसे भद्दा रूप देख सकते है।

जिस आसानी से और बिना किसी जवाबदेही के भारतीय राज्य, विरोधी आवाज़ों को दबाता जा रहा है, जिस तरह आतंकवाद की झूठी आड़ में निरपराध मुस्लिम नवयुवकों को गिरफ्तार कर लेता है और माओवाद के नाम पर किसी भी मानवाधिकार कार्यकर्ता को पकड़ लेता है और यातनाएं देता है, जिस तरह श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ायी जाती हैं, लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शनों को जिस तरह कुचला जाता है, जिस तरह से बड़े पैमाने पर कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों में मानवाधिकार हनन हो रहा है, दलितों और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में सरकारी तंत्र कोई कार्रवाई करने के बजाय हमलावरों के बचाव में जिस तरह लग जाता है, और कॉरपोरेट मीडिया तंत्र लोगों को इन चीज़ों की ख़बर तक नहीं देता, यह सब न केवल यह दर्शाता है कि हमारे समाज और राजनीति का संकट गंभीर रूप अखि्तयार कर चुका है बल्कि यह भी बताता है कि हमारे इस संवैधानिक-लोकतांत्रिक निज़ाम के अंदर ही इन सब चीज़ों के लिए गुंजाइश बन चुकी है और यह निज़ाम अब इसी दिशा में आगे जाये, इसकी तैयारी भी पूरी है। मौजूदा फ़ासीवादी मुहिम राज्य की इसी निरंकुशता को एक नयी आपराधिक आक्रामकता और स्थायित्व देने के लक्ष्य से संचालित है। इस संदर्भ में आने वाले आम चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तों को नाकामयाब करना बेहद ज़रूरी है।

रोज़गारविहीन ‘विकास’ का जो मॉडल राज्य ने लागू किया है, उसने इस चुनौती को और विकराल बना दिया है। विस्थापन और बेदख़ली के ज़रिये संचय का नज़ारा आज का मुख्य नज़ारा है। देश के बेशक़ीमती प्राकृतिक संसाधनों और लाखों-करोडों़ की सार्वजनिक परिसंपत्तियों की बेरहम लूट और बर्बादी एक लंबे समय से जारी है। लोगों से खेत, जंगल, ज़मीन, पंचायती ज़मीनें छीनी जा रहीं हैं और खनन करने, राजमार्ग बनाने से लेकर बैंक, बीमा, जनसंचार, शिक्षा, स्वास्थ्य यहां तक कि डिफेंस जैसे क्षेत्रों को कॉरपोरेट पूंजी और विदेशी निवेशकों के हवाले करने के उपक्रम लगातार चल रहे हैं, जिससे असमानता बेतहाशा बढ़ी है और सामाजिक ध्रुवीकरण चरम बिंदु पर पहुंच रहा है। आबादियों के विशाल हिस्से उजड़ रहे हैं और रोज़ी रोटी के लिए वे मारे-मारे फिर रहे हैं। जिंदगी बसर करने के हालात कठिन से कठिनतर होते जा रहे हैं। अवाम की प्रतिरोध की ख्वाहिश को मुख्यधारा की सियासी पार्टियों का समर्थन लगभग नहीं मिल रहा। कई बार छोटे छोटे ग्रुप विभिन्न मुद्दों पर अपनी सीमित क्षमता के सहारे, कई बार बिना नेतृत्व के भी, लड़ते और कभी कभी थकते नज़र आते हैं। आदिवासियों, ग़रीब किसानों, दलितों, बेसहारा शहरी ग़रीबों, उत्पीडि़त स्त्रियों, अल्पसंख्यकों का विशाल जनसमुदाय मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिष्ठान की हृदयहीनता से हैरान और ख़फ़ा है, और उससे उसका भरोसा उठता जा रहा है। असंगठित, असहाय, हताश आबादियों और बेरोज़गार भीड़ों का गुस्सा अक़्सर आसानी से दक्षिणपंथी और फासिस्ट लामबन्दी के काम आता है। अस्मिता की प्रतिक्रियावादी राजनीति कई बार इसका उपयोग करती है। इसके लिए जहां वर्चस्ववादी अस्मिता की शासक वर्गीय राजनीति से लड़ना ज़रूरी है वहीं यह भी ज़रूरी है कि वंचित तबकों की प्रतिरोधी अस्मिता के सकारात्मक और जनतांत्रिक सारतत्व के प्रति हम ग्रहणशील हों और उसकी रक्षा करें और साथ ही वंचित तबकों की व्यापक जनतांत्रिक एकता के निर्माण की चुनौती को स्वीकार करें। हमें यह भी समझना होगा कि अल्पसंख्यकों में काम करने वाली फिरके़वाराना और दकि़यानूसी ताक़तें भी अन्ततः हिन्दुत्ववादी फासिस्ट मुहिम की खुराक़ और इसके विनाशक दुष्टचक्र को चलाने का औज़ार ही सिद्ध होती हैं। इसलिए साम्प्रदायिक फासीवाद से कारगर ढंग से लड़ने के लिए हर रंगत की साम्प्रदायिक, कट्टरतावादी और रूढि़वादी ताक़तों से एक साथ वैचारिक संघर्ष भी ज़रूरी है। इस वक्त़ जहां सियासी सतह पर वामपंथी और लोकतांत्रिक व सेक्यूलर ताक़तों और संगठनों की ऐतिहासिक जि़म्मेदारी है कि वे बिना वक्त़ गंवाये एकजुट हो कर मुक़ाबले की तैयारी करें, वहीं इसमें कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, शिक्षकों, पत्रकारों और अन्य पेशेवर लोगों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होगी। राजनीति की अक्षमता का हवाला देकर हम अपनी जि़म्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते।

लेखक और कलाकार आज के हालात में लेखक-नागरिक और कलाकार-नागरिक ही हो सकते हैं, अपने क़लम और अपनी कला के साथ इस अवामी जंग में शिरकत करते हुए। सभी तरक्क़ीपसंद, जम्हूरियतपसंद और मानवतावादी सांस्कृतिक संगठनों की इस जंग में शिरकत लाजि़म है।

हम भूले नहीं हैं कि 1930 के दशक में जब हिंदी-उर्दू इलाक़े के इंक़लाबी नौजवान लेखक और लेखिकाओं की कोशिशों के नतीजे के तौर पर प्रेमचंद की सदारत में प्रोग्रैसिव मूवमेंट की बुनियाद पड़ी तो कुछ ही समय में यह पहल किस तरह एक विराट, बहुमुखी अखिल भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन में बदल गयी थी। भारतीय संस्कृति में मध्ययुग के बाद इस पैमाने का परिवर्तन नहीं हुआ था। उस समय, 1930 और 40 के दशक में यह दुनिया विकल्पहीन नहीं लग रही थी। सब एक बेहतर, न्यायपूर्ण समाज का सपना ही नहीं देख रहे थे, उसे पूरा करने की लड़ाई में हिस्सा लेने को तत्पर थे। यही दौर यूरोप और जापान मे फ़ासीवाद के उदय, स्पेनी गृहयुद्ध और दूसरे विश्वयुद्ध का भी था। दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ चले स्वतंत्रता आंदोलन हों या फ़ासिज्म़ का प्रतिरोध, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने उनमें अग्रगामी भूमिका अदा की। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्विरोधों के चलते जैसी क्षतिग्रस्त और खून में रंगी आज़ादी हमें मिली, उसके बावजूद हमारे फनकारों और अदीबों ने हिम्मत नहीं हारी और उपमहाद्वीप की जनता के दिल में प्रगतिशील मानव-मूल्यों को परवान चढ़ाने वाली रचनाशीलता की जगह बनायी। सिनेमा, रंगमंच, संगीत, चित्रकला और साहित्य में प्रगतिशील रचनाकारों ने जनमानस को नयी दिशा देने वाले काम किये जिनका असर आज तक हमारी ज़बान और बरताव में दिखायी देता है। उस समय प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं, उसके आगे चलने वाली मशाल है, या होनी चाहिए। हम इसी परंपरा के वारिस हैं।

आज एक बड़ी और नयी साहसिक पहलक़दमी की ज़रूरत है। फ़ासीवादी ताक़तें जिस पैमाने पर सक्रिय हैं, उसी पैमाने पर उनका जवाब देना होगा। छोटे मोटे वक्तव्य या प्रतीकात्मक कार्रवाइयों की भी अहमियत है, मगर इतने भर से इस जद्दोजहद में कामयाबी हासिल नहीं होगी। स्थिति की विडंबना है कि अभी भी ऐसे बहुत से मोर्चे हैं जिन पर सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें लंबे समय से उपस्थित और आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं, उन पर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक इदारों की सक्रियता नहीं के बराबर है। लेकिन इस कठिन घड़ी में भी फ़ासीवाद का मुकाबला किया जा सकता है, उसे रोका जा सकता है और यहां तक कि उसे शिकस्त दी जा सकती है बशर्ते कि हम इसके लिए एकजुट हो कर खड़े हों। तमाम विषम चुनौतियों के बावजूद अंतत: यह हमारा समय है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम साहित्यिक परिदृश्य में व्याप्त अपसंस्कृति से खु़द को आज़ाद करें, आपाधापी, आत्मपूजा, गुटबाज़ी, लालच और तुच्छताओं से ऊपर उठते हुए, संघर्षशील चेतना के साथ आसन्न चुनौती का मिलकर सामना करें। प्रतिरोध की शक्तियों के लिए यह समय गहन पारस्परिक संवाद, सहकार और एकजुटता का समय है। आज ज़रूरी है कि देशभर में (और ख़ासकर उत्तर भारत में) तमाम प्रगतिशील, जनवादी, सेक्युलर और सच्चे उदार मानववादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन और व्यक्ति, छोटे बड़े मंच और पत्र-पत्रिकाएं, लेखक, नाट्यकर्मी, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पी और समाजविज्ञानी एक वृहत्तर संजाल बना कर काम करें, नयी योजनाएं बनायें, वर्कशाप करें, हर फ़ोरम पर वैचारिक-सांस्कृतिक अभियानों को संगठित करें, प्रदर्शनियां तैयार करें, जत्थे निकालें और तमाम सांस्कृतिक कलात्मक व वर्चुअल माध्यमों और रूपों का उपयोग करते हुए साधारण लोगों को बड़े पैमाने पर संबोधित करें। फ़ासीवाद के कुटिल कुत्सित प्रचार-तंत्र का मुक़ाबला यही चीज़ कर सकती है।

हम इस देश की ज़रख़ेज़ सेकुलर सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत और नवजागरण की संपन्न मानवतावादी जनतांत्रिक और प्रगतिशील साहित्यिक परंपराओं के सच्चे वारिस हैं। ये विरासत कहीं गयी नहीं है। बस विस्मृति की धूल में दबी हुई है। प्रतिरोध का निश्चय करते ही वह हमारे लिए फिर से जी उठेगी और उसके अर्थ चमकने लगेंगे। स्वतंत्रता, समानता और जनवाद के लिए संघर्ष और कुरबानियों की अपनी महान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील विरासत की शान के मुताबिक इस कठिन समय में भी यक़ीनन व्यापक जनतांत्रिक शक्तियों के साथ एकजुटता से इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। हमें यक़ीन है कि अपनी प्रतिबद्धता, लगन, रचनात्मक कल्पना और आविष्कारशील प्रतिभा की मदद से हम अपनी इस भूमिका का कारगर ढंग से निर्वाह कर सकेंगे।
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Saturday, December 29, 2012

बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता



नई दिल्ली। बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। दिल्ली की सड़कों पर उमड़े जनविरोध ने इस बलात्कारी संस्कृति और उसे मिले राजसत्ता के समर्थन पर हल्ला बोला है। ये विचार कल 28 जनवरी को जन संस्कृति मंच द्वारा-बलात्कार की संस्कृति और राजसत्ता- विषय पर आयोजित गोष्ठी में उभर कर सामने आए। गोष्ठी में देश भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न-बलात्कार की घटनाओं में हो रही बेतहाशा वृद्धि पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई और तुरंत कड़ी कार्रवाई की मांग की गई।  
इस गोष्ठी में बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने शिरकत की। अनहद संस्था की शबनम हाशमी ने याद दिलाया कि किस तरह से गुजरात में राज्य सरकार के प्रश्रय में महिलाओं के साथ बर्बरत यौन उत्पीड़न किया गया। शबनम ने बताया कि गुजरात जनसंहार के दौरान भी बलात्कार करने वालों ने राड और लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था। औरतों के साथ गैंगरेप करके उन्हें पेट्रोल डालकर जला दिया था। बलात्कार के खिलाफ जब पूरे देश में आंदोलन चल रहा हैउस वक्त भी वहां बलात्कार हुए हैं। गुजरात में स्टेट ने बलात्कारियों का साथ दिया। इस सवाल पर पूरे मुल्क में प्रतिरोध जारी रखना होगा।
वरिष्ठ कवि नीलाभ ने सवाल उठाया  कि क्या यह सिर्फ कानून और व्यवस्था का सवाल हैबलात्कार पावर के साथ जुड़ा है। स्टेट इस मामले में अपनी जिम्मेवारी से बचता है। क्या स्वस्थ स्त्री पुरुष संबंधों के बिना बलात्कार से मुकित का उपाय ढूंढा जा सकता है?
वरिष्ठ पत्रकार और समाजिक कार्यकर्ता किरण शाहीन ने कहा कि बलात्कार की संस्कृति स्त्री को हेय समझने की प्रवृतित से जुड़ी हुर्इ है। हमें यह देखना होगा कि उपभोक्तवाद किस तरह विषमता को बढ़ा रहा है और किस तरह वर्किग क्लास का भी लुंपानाइजेशन हो रहा है। साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को राजनीतिक होना पड़ेगा।
वरिष्ठ कवि सविता सिंह ने कहा कि हमारे देश की इकोनामी में भी रेप जैसी सिथति बनी हुर्इ है। लालचसेल्फ इंटरेस्ट और सिर्फ अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति के भीतर से ही बर्बरता पैदा होती है। इस इकोनामी में स्त्री के श्रम की मूल्यवत्ता घटी है। सित्रयों का बहुत ही गहरे स्तर पर शोषण हो रहा है। इस सिथति में क्रिएटिव रिस्पांस क्या होंगेइस बारे में सोचना होगा।
युवा कवि रजनी अनुरागी ने कहा कि भारतीय परंपरा में भी सित्रयों के प्रति भेदभाव मिलता है और यहां देवताओं द्वारा बलात्कार को जायज ठहराया जाता रहा है। आज यह हिंसा और फैल गई है और स्त्री के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि चाहे हम कितने भी दुखद क्षण और शाक से गुजर रहे हैंपर उज्जवल पक्ष यह है कि इसके पहले यौन हिंसा के खिलाफ इस स्तर का प्रतिरोध नहीं दिखा था। यह स्त्री आंदोलन के लिए ऐतिहासिक दौर है। इस देश में विषमता और अन्याय तेजी से बढ़ रहा है। जहां भी बलात्कार हो रहे हैंउन सब जगहों पर प्रतिवाद करना होगा और स्त्री विरोधी परंपरा से भी भिड़ना होगा।
कवि व महिला कार्यकर्ता शोभा सिंह ने कहा कि आज बलात्कारी संस्कृति के खिलाफ जिस तरह नौजवान सामने आए हैंवह अच्छी बात है। जिस लड़की के प्रतिरोध के बाद यह आंदोलन उभरा हैउसकी जिजीविषा को सलाम। युवा कवि व शायर मुकुल सरल ने कहा कि सिर्फ पढ़े-लिखे होने से कोर्इ स्त्री के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकता। उसके लिए अच्छे संस्कार और साहित्य-संस्कृति से जुड़ाव जरूरी है। इंडिया गेट से लेकर इस गोष्ठी तक जसम ने इस आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया है। यह सिलसिला जारी रहेगा।
कथाकार अंजलि देशपांडे ने कहा कि इस देश में लक्ष्मणों से बचना होगा और शूर्पनखा के संघर्ष को जारी रखना होगा। आजादी के लिए अपनी सुरक्षा को दांव में लगाना होगा। आजादी के नाम पर जेल जैसी सुरक्षा को कबूल नहीं किया जा सकता। हमें राज्यसत्ता को ज्यादा ताकत देते वक्त हमेशा सावधान रहना होगाक्योंकि उसी ताकत के जरिए वह हमारा दमन भी करने लगती है।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमलता वर्मा ने कहा कि ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर इस देश में आज भी राज्यतंत्र ही चल रहा है। इसलिए स्त्री इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, सड़कों पर लड़ रही है। वरिष्ठ साहित्यकार और दलित चिंतक विमल थोराट ने सवाल उठाया कि क्यों बार-बार कमजोर ही बलात्कार का शिकार होते हैंजब किसी जाति या समूह को उसकी हैसियत बतानी होती हैतो यौन हिंसा की यह संस्कृति सित्रयों को ही अपना टारगेट बनाती है। गांवों में और दलित महिलाओं के साथ जो गैंगरेप हो रहे हैंउसे लेकर इतना आक्रोश क्यों नहीं उभरता?
वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि यह एक वीभत्स कांड है। जिसमें कहा जा रहा है दोषी कुंठा के शिकार थे। लेकिन अन्य दूसरों मामलों में किस तरह की कुंठा काम कर रही थी। जिस तरह इन लोगों ने भ्रष्टाचार को जायज बनाया हैउसी तरह बलात्कार भी इनकी निगाह में जायज है। हमें देखना होगा कि इस तरह के लोगों को कौन पार्टी उम्मीदवार बनाती हैहमें इन्हें वोट नहीं देना होगा। यह मुहिम जरूरी है।
ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि 16 दिसंबर के बाद जो आंदोलन उभरावह वाकर्इ स्वत:स्फूर्त थाइसके लिए हमें नौजवान लड़के-लड़कियों को धन्यवाद देना होगा। प्रगतिशील जमात को इस तरह के आंदोलनों को संशय से देखने की प्रवृतित को छोड़ना होगा। इस आंदोलन ने महिलाओं की आजादी और बराबरी के सवाल को सामने लाया है। इसे जनता का भी जबर्दस्त समर्थन मिला। बाबा रामदेव जैसे लोग भी इस जनविक्षोभ को नेतृत्व देने आएलेकिन उन्हें बाहर होना पड़ाक्योंकि स्त्री की आजादी के सवाल पर उनकी कोर्इ विश्वसनीयता ही नहीं थी। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के जिस तरह के स्त्री विरोधी बयान आए हैंउसके मददेनजर इस देश की राजनीतिक संस्कृति में महिलाओं के लिए बुनियादी लोकतंत्र की मांग को इस आंदोलन ने केंद्र में ला दिया है। कविता ने कहा कि इस गैंगरेप के बाद जिस तरह प्रधानमंत्रीमुख्यमंत्री और कुछ कालमिस्टों द्वारा माइग्रेंट मजदूरों और स्लम में रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा हैउसका जबर्दस्त विरोध होना चाहिए।
संचालन करते हुए जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि इस आंदोलन के जरिए देश के अलग-अलग कोनों में हुई बलात्कार की भीषण घटनाओं के खिलाफ एक व्यापक जागरूकता आई है और एक निर्णायक माहौल बना है। भाषा सिंह ने कहा कि जसम स्त्रियों की आजादी और गरिमा के लिए चल रहे इस आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर करता है और महिला संगठनों की मांगों का समर्थन करता है। गोष्ठी में समाजिक कार्यकर्ता सहजो सिंह ने भी अपने विचार रखे।
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(जसम का प्रेस नोट)

उस बहादुर लड़की की मौत पर शोक संवेदना

जन संस्कृति मंच

आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है : जन संस्कृति मंच
बलात्कारियों का प्रतिरोध करने वाली युवती की मौत पर जसम की शोक संवेदना

नई दिल्ली: 29 दिसंबर 2012

हम उस बहादुर लड़की के प्रतिरोध का गहरा सम्मान करते हैं, जिसने विगत 16 दिसंबर की रात अपनी आजादी और आत्मसम्मान के लिए अपनी जान को दांव पर लगा दिया और बलात्कारियों द्वारा नृशंस तरीके से शरीर के अंदरूनी अंगों के क्षत-विक्षत कर देने के बावजूद न केवल जीवन के लिए लंबा संघर्ष किया, बल्कि न्याय की अदम्य इच्छा के साथ शहीद हुई। आजादी, बराबरी और इंसाफ तथा उसके लिए प्रतिरोध महान जीवन मूल्य है, जिसकी हमारे दौर में बेहद जरूरत है। जन संस्कृति मंच लड़की के परिजनों और करोड़ों शोकसंतप्त लोगों की प्रति अपनी संवेदनात्मक एकजुटता जाहिर करता है।
यह गहरे राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक शोक की घड़ी है। हम सबके दिल गम और क्षोभ से भरे हुए हैं। हमारे लिए इस लड़की का प्रतिरोध इस देश में स्त्रियों को साथ हो रहे तमाम जुल्मो-सितम के प्रतिरोध की केंद्रीय अभिव्यक्ति रहा है। जो राजनीति, समाज और संस्कृति स्त्रियों की आजादी और बराबरी के सवालों को अभी भी तरह-तरह के बहानों से उपेक्षित कर रही है या उनके प्रति असंवेदनशील है या उनका उपहास उड़ा रही है, उनको यह संकेत स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि जब स्वतंत्रता, सम्मान और समानता के अपने अधिकार के लिए जान तक कुर्बान करने की घटनाएं सामने आने लगें, तो वे किसी भी तरह वक्त को बदलने से रोक नहीं सकते।
इस देश में स्त्री उत्पीड़न और यौन हिंसा की घटनाएं जहां भी हो रही हैं, उसके खिलाफ बौद्धिक समाज, संवेदनशील साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और आम नागरिकों को वहां खड़ा होना होगा और जाति-संप्रदाय की आड़ में नृशंस स्त्री विरोधी मानसिकता और कार्रवाइयों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति का मुखर मुखालफत करना होगा, समाज, प्रशासन तंत्र और राजनीति में मौजूद स्त्री विरोधी सामंती प्रवृत्ति और उसकी छवि को मौजमस्ती की वस्तु में तब्दील करने वाली उपभोक्तावादी अर्थनीति और संस्कृति का भी सचेत प्रतिवाद विकसित करना होगा, यही इस शहीद लड़की के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अनियंत्रित पूंजी की संस्कृति जिस तरह हिंस्र आनंद की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही और जिस तरह वह पहले से मौजूद विषमताआंे को और गहरा बना रही है, उससे मुकाबला करते हुए हमें एक बेहतर समाज और देश के निर्माण की ओर बढ़ना होगा।
आज इस देश की बहुत बड़ी आबादी आहत है और वह अपने शोक की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करना चाहती है, वह इस दुख के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करना चाहती है, लेकिन उसके दुख के इजहार पर भी पाबंदी लगाई जा रही है। इस देश की राजधानी को जिस तरह पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया है, जिस तरह मेट्रो बंद किए गए हैं, जिस तरह बैरिकेटिंग करके जनता को संसद से दूर रखने की कोशिश की गई है, वह दिखाता है कि इस देश का शासकवर्ग जनता के शोक से भी किस तरह खौफजदा है। अगर जनता के दुख-दर्द से इस देश की सरकारों और प्रशासन की इसी तरह की दूरी बनी रहेगी और पुलिस-फौज के बल पर इस तरह लोकतंत्र चलाने की कोशिश होगी, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता की वेदना की नदी ऐसी हुकूमतों और ऐसे तंत्र को उखाड़ देने की दिशा में आगे बढ़ चलेगी।

सुधीर सुमन, जसम राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी
मोबाइल- 9868990959

Tuesday, December 11, 2012

क्या आप क्षमा सावंत को जानते हैं? : भारतभूषण तिवारी



पश्चिमी देशों में ख़ासकर अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की सफलता को लेकर हमारे मीडिया का उत्साह देखते ही बनता है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्द वैज्ञानिक डॉ. हरगोबिन्द खुराना (जो भारत में पैदा होकर अमेरिकी नागरिक बने) हों या मशहूर अंतरिक्ष-यात्री सुनीता विलियम्स (जो भारतीय माता-पिता की अमेरिका में पैदा हुई संतान हैं)हमारा कलेक्टिव सीना चौड़ा होना को तत्पर होता है। हाल ही में सिटी बैंक के सीईओ पद से हटे या हटाये गए गए विक्रम पंडित जब 2007 के अंत में उस ओहदे पर नियुक्त हुए थे तब विदर्भ के हिंदी-मराठी अखबारों ने उनके नागपुर कनेक्शन और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए औलिया संत श्री गजानन महाराज (जिनका मंदिर महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के शेगांव में स्थित है और उस मंदिर की देखभाल करने वाला ट्रस्ट 'श्री गजानन महाराज संस्थानअस्पतालस्कूलें और इंजीनियरिंग कॉलेज भी चलाता है लिहाजा उसकी आर्थिक हैसियत शिर्डी के श्री साईबाबा संस्थान ट्रस्ट से कुछ ही कम है) के परम भक्त होने की कहानियों से अपने पन्ने रंग डाले थे। स्कूली बच्चों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के कठिन और कम ज्ञात शब्दों के हिज्जे बताने वाली प्रतियोगिता 'स्पेलिंग बीमें भारतीय मूल के बच्चों की सफलता का मुद्दा हो या कुल मिलाकर अमेरिकी स्कूली शिक्षा में उनके फ़्लाइंग कलर्स” का मामलाहम अपने जींस पर गर्व करने का मौका नहीं छोड़ते। 'अपनेपनका नशा इस कदर तारी होता है कि रजत गुप्ता के अर्श से फर्श पर आ गिरने की दास्ताँ या सीएनएन से जुड़े विख्यात पत्रकार और लेखक फरीद ज़कारिया पर लगे साहित्यिक चोरी के आरोपों की कहानी से भी हमें एक रूहानी सुकून ही हासिल होता है।

हाल के कुछ वर्षों में अमेरिकी राजनीति के पटल पर दो भारतीय मूल की शख्सियतें चमकी हैं। ये हैं लुइज़ियाना राज्य के गवर्नर बॉबी जिंदल (जिन्हें अगल्रे राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी का उम्मीदवार बनाये जाने की बात जब-तब उठती रहती है और साउथ कैरोलाइना राज्य की गवर्नर निकी हेली उर्फ़ नम्रता रंधावा। इन दोनों की सफलताओं को हमने अपने स्वभाव के मुताबिक़ पर्याप्त सेलेब्रेट किया है बावजूद इसके कि इन दोनों को अपनी तहज़ीबी वल्दियत या 'कल्चरल ब्लडलाइनपर कोई ख़ास नाज़ नहीं। और वह 'नाज़भी उसी समय दृष्टिगोचर होता है जब वे अपेक्षाकृत संपन्न इन्डियन-अमेरिकन कम्युनिटी में वोट या आर्थिक सहायता माँगने जाते हैंवरना वृहत सार्वजनिक जीवन में वे अपनी बची-खुची सांस्कृतिक विरासत को लेकर न केवल खासे शर्मिंदा नज़र आते हैं बल्कि उसे सार्वजनिक तौर पर तज भी चुके हैं। हिन्दू माता-पिता की संतान बॉबी जिंदल तो बीस साल की उम्र से पहले ही कैथलिक बन गए थे। हाँये पता करना मुश्किल है कि उनका धर्म-परिवर्तन वास्तव में आध्यात्मिक ह्रदय-परिवर्तन से उपजा था या अपनी भावी (राजनीतिक अथवा पेशेवर) ज़िन्दगी की कामयाबी के लिए किये गए हिसाब-किताब का परिणाम था। सिख परिवार में जन्मीं निकी हेली ने विवाह के बाद अपने पति का धर्म स्वीकार कर लिया और अब इस बात पर जोर देती हैं कि वे एक 'प्रैक्टाइज़िन्ग क्रिश्चनहैं और सिर्फ अपने माता-पिता का मन रखने के लिए और उनकी संस्कृति के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए गुरूद्वारे जाती हैं।
याद रहे कि यहाँ मूल मुद्दा इन दोनों का अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत से दूर होना नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे बहुसांस्कृतिक देश में अश्वेतगैर-ईसाई और अप्रवासी पृष्भूठमि के नागरिक आम तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करते हैं। मगर जिंदल और हेली को अमेरिका की ग्रैंड ओल्ड पार्टी (रिपब्लिकन पार्टी) के 'फार राइटचेहरे का प्रतिनिधित्व करते देखना तकलीफदेह है।  मार्क्सवादी इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रो. विजय प्रसाद ने जिंदल के गवर्नर बनने पर उनके बारे में एक मुख़्तसर टिप्पणी की थी जो बहुत कुछ कह देती है: 'एंटी-अबॉर्शनप्रो-गनएंटी-सेकुलरप्रो-सारएंटी-साइं….सूची अंतहीन है।अमेरिका की एक प्रगतिशील पत्रिका 'दि प्रोग्रेसिवके प्रबंध सम्पादक अमिताभ पाल बताते हैं कि निकी हेली पिछले दो-तीन सालों में अमेरिका में उभरे घोर दक्षिणपंथी और प्रति-क्रांतिकारी आन्दोलन 'टी पार्टी मूवमेंटकी चहेती हैं और उन्हें अगले राष्ट्रपति चुनावों में उपराष्ट्रपति पद का उमीदवार बनाया जा सकता है। इस आधार पर जिंदल और हेली को सत्तर और उसके बाद के दशकों में भारतअमेरिका या अन्यत्र पैदा हुई और पली-बढ़ी पीढ़ी की प्रोटो-फासिस्ट प्रवृत्तियों का मूर्तन कहना अतिशयोक्ति न होगी।

वहीं दूसरी ओर क्षमा सावंत हैं जिनका कहीं कोई ज़िक्र भारतीय मीडिया ने नहीं किया। सावंत सिएटल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने `सोशलिस्ट अल्टरनेटिव` नाम की वामपंथी पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर गत नवम्बर में वाशिंगटन राज्य की प्रतिनिधि सभा का चुनाव लड़ा था। ये अलग बात है कि वे चुनाव में जीत हासिल नहीं कर सकींमगर एक चौथाई से ज़्यादा (28 फ़ीसदी) या लगभग 14,000 वोट हासिल कर उन्होंने इतिहास बनाया। उनके प्रतिद्वंद्वी थे डेमोक्रेटिक पार्टी के उमीदवार और निवर्तमान सभा के अध्यक्ष फ्रैंक चॉप जिनके लिए यह टक्कर उनके पिछले अठारह सालों के कार्यकाल में सबसे मुश्किल साबित हुई।

सोशलिस्ट अल्टरनेटिव का गठन 1986 में 'कमिटी फॉर अ वर्कर्स इंटरनेशनल' (1974 में स्थापित ट्रॉटस्कीवादी वामपंथी पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय संघ जिसका मुख्यालय लन्दन में है) से जुड़े और अस्सी के दशक में अमेरिका जा बसे सदस्यों ने'लेबर मिलिटेंटके नाम से किया था। अपने शुरूआती दिनों में लेबर मिलिटेंट ने अमेरिका के मजदूर आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और वहाँ के कई बड़े शहरों की प्रमुख यूनियनों में अपनी पैठ बनाई। 1998-99 के बाद से यह पार्टी सोशलिस्ट अल्टरनेटिव के नाम से जानी जाती है। नाम बदलने के तुरंत बाद वाले दौर में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने अमेरिका के भूमंडलीकरण विरोधी आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। 30 नवम्बर 1999 को सिएटल में विश्व व्यापार संगठन की बैठक के दौरान हुए ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन ( जिसे एन-30 के नाम से भी जाना जाता है) में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने सक्रिय भूमिका निभाई थी।

अफ़गानिस्तान और इराक़ में चल रही जंग के विरोध में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने 2004 में 'यूथ अगेंस्ट वार एंड रेसिज्मनाम से मुहिम चलाई। हाईस्कूलों में चलाई गई इस मुहिम का फोकस लड़ाइयों की खातिर की जाने वाली युवाओं की सैन्य-भर्ती से सम्बंधित नीतियों का विरोध करना था। 1996 से 2008 तक हर राष्ट्रपति चुनाव लड़ने वाले राजनीतिज्ञ राल्फ नेडर की उम्मीदवारी का सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने उन्हें बुर्जुआ प्रत्याशी मानते हुए भी हर बार समर्थन किया। नेडर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए उनके प्रति ज़ाहिर किये गए समर्थन का औचित्य सिद्ध करते हुए पार्टी का तर्क यह था कि  द्विदलीय व्यवस्था को तोड़ने और मेहनतकशों की पार्टी खड़ी करने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। पिछले साल-डेढ़ साल में सोशलिस्ट अल्टरनेटिव ने देश भर में चले ऑक्युपाई आन्दोलन में हिस्सा लेते हुए कॉर्पोरेट हितों की गुलाम और सड़ी हुई पूंजीवादी व्यवस्था की जगह लोकतांत्रिक समाजवाद को लेकर जनता में जागरूकता बढ़ाने का ज़रूरी काम किया।
  
ज़ाहिर सी बात है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के शक्तिशाली उम्मीदवारजिन्हें कॉर्पोरेट अनुदानों की कोई कमी नहीं थीके खिलाफ़ बहुत कम पैसों में अपना चुनाव अभियान चलाना क्षमा सावंत के लिए कोई आसान बात नहीं थी। चुनावों से पहले उनकी उम्मीदवारी का किस्सा भी दिलचस्प है। सावंत ने वाशिंगटन राज्य के 43वें विधान जनपद (लेजिस्लेटिव डिस्ट्रिक्ट) की सीट संख्या 1 के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत किया था। मगर दि स्ट्रेंजर नाम के अखबार ने नामजद प्रत्याशी के तौर पर सीट संख्या 2 में उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया। राज्य के निर्वाचन सम्बन्धी कानूनों के अनुसार वे दोनों में से कोई एक सीट चुन सकती थींजिसमें उन्होंने फ्रैंक चॉप के खिलाफ़ लड़ने के लिए सीट संख्या 2 को चुना। मगर सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट कार्यालय का मानना था कि निर्वाचन सम्बन्धी क़ानून के अनुसार नामजद प्रत्याशी अपनी पार्टी प्राथमिकता मतपत्र पर ज़ाहिर नहीं कर सकते। इसको लेकर क्षमा सावंत ने सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट के खिलाफ़ किंग्ज़ काउंटी निर्वाचन कार्यालय में मुकदमा दायर किया और फैसला उनके पक्ष में आने पर राज्य को उनकी पार्टी प्राथमिकता को मतपत्र में शामिल करना पड़ा।

चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद जारी अपने बयान में सावंत ने कहा कि वॉल स्ट्रीट के पास दो पार्टियाँ हैंअब ज़रूरत इस बात की है कि मेहनतकश लोगों की भी अपनी एक पार्टी हो। उन्होंने 2013 में हर नगर परिषद और मेयर के पद के लिए होने वाले चुनावों में श्रमजीवी वर्ग के प्रत्याशी खड़े करने के लिए अमेरिका की अन्य प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिलकर एक साझा मोर्चा बनाने का भी इरादा ज़ाहिर किया।

उनके इस इरादे पर बुलंद आवाज़ में आमीन कहा जाना चाहिए।
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समयांतर के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित। 

Monday, September 10, 2012

भ्रष्टाचार के साथ अन्याय-अत्याचार भी देखें- मेधा पाटकर


नर्मदा बचाओ आंदोलन की जुझारु नेत्री मेधा पाटकर इस वक़्त सरदार सरोवर बांध क्षेत्र में हैं। मध्य प्रदेश के  मेंइंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांधों के डूब क्षेत्र में चल रहे जल सत्याग्रह पर राज्य सरकार के आखिरकार कुछ पसीजने की खबरें आ रही हैं। अभी फोन पर उनसे बात हुई कि क्या समझौता हुआ। उन्होंने कहा कि मैं तो यहां सरदार सरोवर क्षेत्र के पीड़ितों के साथ हूं। यहां भी 300 घर डूब गए हैं और भी काफी नुकसान हुआ है। वहां आलोक वगैरहा हैं, कमेटी बनी है, प्रस्तावों की जांच कर रहे हैं। मुख्यमंत्री विस्थापितों को ज़मीन देने की बात कर रहे हैं लेकिन यह निर्णय तो पहले भी हो चुका है, सवाल इसके अमल का है। सरदार सरोवर पर भी 10 साल सत्याग्रह किया तब जाकर विस्थापितों को ज़मीनें मिलनी शुरू हुईं। हालांकि पूरी तरह इंसाफ मिलना अभी बाकी ही है। मध्य प्रदेश का मामला पूरी तरह अलग है। यहां तो पूरी तरह फर्जीवाड़ा है। हर बांध में कानून तोड़े गए हैं। हम यहां सरदार सरोवर पर लड़ाई लड़ रहे थे। यहां का काम अभी रुका हुआ भी है। लेकिन वहां जनता तब समझ नहीं पाई थी। जल्दी-जल्दी बांध खड़े कर दिए गए।

मेधा ने कहा कि मध्य प्रदेश सरकार लेंड बैंक की ज़मीन देने की बात कर रही है। यह खेल तो सरदार सरोवर मसले में भी किया गया। खराब और अतिक्रमित ज़मीन का क्या होगा? संयुक्त जांच के दौरान भी पाया गया कि पूरी ज़मीन अतिक्रमित या खराब है लेकिन कंपनियों को हरी-भरी कीमती ज़मीन लुटाई जा रही है।

मेधा बोलीं, लंबी लड़ाई है। लड़ने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है। करीब सात जगहों पर अलग-अलग टीमें औऱ वहां के विस्थापित नागरिक मोर्चा संभाले हुए हैं। ऐसी लड़ाइयां दिल्ली-मुंबई में बैठकर नहीं लड़ी जा सकती हैं। जिस तरह हम कई मोर्चों पर विकेंद्रित है, मीड़िया भी विकेंद्रित है। जहां तक विपक्ष का सवाल है तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस को आंदोलन के साथ आना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। हमारे लोगों ने दिल्ली में सांसद अरुण यादव को घेरा तो उन्होंने साथ देने की बात कही। अलबत्ता सीपीआई के लोग साथ दे रहे हैं पर उनकी ताकत कम है। देश भर में अन्याय के खिलाफ लडाइयां जारी हैं, यह बात अलग है कि एक बड़ी साझा लड़ाई का स्वरूप नहीं बन पाया है।

इन लड़ाइयों से  मध्य वर्ग की पूरी तरह उदासीनता पर मेधा पाटकर ने कहा कि मध्य वर्ग धीरे-धीरे आ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ वह बोलता है पर उसे समझना होगा कि भ्रष्टाचार के साथ अन्याय और अत्याचार भी लड़ाई के मुद्दे हैं।

इस बीच कोई कहता है कि सरपंच आ गए हैं। मेधा किसी से कह रही हैं, नहीं, नहीं, हम कुर्सी पर नहीं, नीचे बैठेंगे, कुर्सी सरपंच जी को दो। मेधा बाद में लंबी बातचीत का वादा कर फोन रखती हैं। 

Friday, November 18, 2011

दो अमरीकी कविताएँ







अभी नहीं

ज़रा धीरे, उन्होंने कहा.
इतनी जल्दी भी नहीं, वे बोले.
अभी नहीं.
इंतज़ार करो.

हम आपसे सहमत हैं, उन्होंने कहा, पर यह ठीक वक़्त
नहीं है.

दासता समाप्त करने के लिए.
नवीनतम युद्ध रोकने के लिए.
सही चीज़ करने के लिए.

अभी से इतनी आज़ादी दे देने से तो
अनर्थ हो जायेगा, वे कहते हैं. ज़रूरत है लोगों को सिखाने की
कि आज़ादी को कैसे बरता जाए.

हम पूछते हैं, वक़्त कब ठीक होगा?
कब होगी वह मुकम्मल स्थिति,
न ज्यादा कच्ची, न अधिक पकी?

और कैसे हमें पता चलेगा कि आ गया है वह सुनहरा क्षण
कहता हुआ, "लो, आखिर मैं आ ही गया, जिसके आने की भविष्यवाणी की गई थी
मैं वही हूँ. कानून और हथियारों के बल पर मेरा भरोसा दिलवाओ बेझिझक."

और हम अब तक यहाँ हैं, अपनी खाली कलाई घड़ियों को थपथपाते
उस फ्रीडम ट्रेन के लिए पटरियों पर यहाँ से वहाँ नज़र दौड़ते.
पटरियों से उतर गई होगी किसी वजह...

इस बीच, हमें किसी न किसी स्वर्ग की टिकटें
बेचने वाला, हमारे अपने इतिहास में प्रवेश के लिए
हमसे पैसे लेना वाला अमीर आदमी--
उसके लिए अभी क्या बजा है?

मज़े की बात है कि  उन घड़ियों पर
वक़्त हमेशा रुका हुआ होता है, या जा रहा होता है पीछे की ओर..

हमेशा वक़्त से बहुत पहले.
हमेशा वक़्त से बहुत बाद.

इब्तिदा का वक़्त हमेशा अभी होता है.



--रॉबर्ट एडवर्ड्स


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बड़ा आदमी, छोटा कुत्ता

शहर के व्यवसायिक इलाके में फुटपाथ पर
एक बहुत बड़ा आदमी एक बहुत छोटे कुत्ते को सैर करा रहा है
वह या तो पोस्ट ऑफिस जा रहा होगा या स्टोर से अचार का डिब्बा खरीदने
और इसी चक्कर में निबटा रहा है कुत्ते की आज की सैर

कसी हुई ज़ंजीर के एक तरफ वह छोटा कुत्ता है ऊर्जा और मुस्तैदी से भरपूर
कान खड़े, चुस्त, बड़े ध्यान से चारों ओर देखता
ज़ंजीर के दूसरे सिरे पर आदमी टहलते हुए परेशान सा लगा रहा है
उसकी  हवाइयन शर्ट फूली है उसकी तोंद से जो फुटपाथ को निहार रही है

शायद वह आदमी चरमराती अर्थव्यवस्था के बारे में सोच रहा है
या उसकी नौकरी छूट गई है शायद और वह सोच रहा है कि
कब तक उसे दूसरी नौकरी मिल पाएगी
और कैसे वह कुत्ते के लिए खाना खरीद पायेगा, कैसे किराया चुका पाएगा

या वह सोच रहा है मौसम के बारे में और यह कि क्यों कर
नवम्बर के आखिरी हफ्ते का यह दिन इतना गर्म है, धूप भी खिली है और न बारिश हुई है
जबकि हर हिसाब से इस दिन को होना चाहिए ठंडा, उदास और गीला
जब एक के बाद एक तूफ़ान नदी-नालों और तालाबों को भर देते हैं लबालब

यहाँ से पास ही जो खाड़ी है वहाँ लौटती हैं सैमन मछलियाँ हर बरस
और जहाँ स्थानीय लोग जाते हैं धारा में बहती मछलियों को देखने और वाहवाही करने
फेंक देते हैं अपने आप को प्रवाह के विरुद्ध
झरनों से और सीढ़ियों से

या हो सकता है कि वह मन ही मन हिसाब लगा रहा है  इराक़ और अफगानिस्तान में हुई मौतों का
हमारे मोबाइल फ़ोनों के लिए कांगो में जमा होती लाशों का
संभव है वह गाज़ा की भुखमरी के बारे में सोच रहा है
या नवाजो दादी-अम्माओं को महापर्वत से बेदखल किये जाने के बारे में

कुत्ता बेशक अर्थव्यवस्था और ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं जानता कुछ भी
वह नहीं जानता कब्जों और छद्म-युद्धों और बर्बर घेरेबंदियों और नरसंहारों के बारे में
पर उसे अंदाज़ा है कि कुछ गड़बड़ तो है जिसकी वजह से उसका मित्र तकलीफ में है
इसलिए बहुत छोटा कुत्ता बहुत बड़े आदमी को सैर करा रहा है
क्योंकि कुत्ता समझता है निराशा से हार न मानना कितना ज़रूरी है
कितना ज़रूरी है रोज़ घर से बाहर निकलना और खुली हवा का आनंद लेना
तथ्यों को सूंघ निकालना, खोद निकालना सच को, बड़े कुत्तों का सामना करना
और सारी दुनिया को यह बताना कि आप जिंदा हैं और भौंक रहे हैं

--बफ़ व्हिटमन-ब्रॅडली



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'शुक्रवार' (11 से 17 नवम्बर) से साभार, अंग्रेज़ी से अनुवाद: भारत  भूषण तिवारी 

Wednesday, October 5, 2011

संजीव भट्ट को सलाम



गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने `सद्भावना उपवास` के बाद आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को गिरफ्तार कराकर अपनी सद्भावना की असलियत पेश कर दी है. उनके शाही उपवास को उनके हृदय परिवर्तन की मिसाल बताने और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिये योग्य बताने वाले मीडिया और पोलिटिकल विश्लेषक ऐसी कारगुजारियों पर ध्यान नहीं देते हैं. मोदी के सरंक्षण में मुसलमानों के नरसंहार को कथित विकास या फिर  1984 के सिख नरसंहार की आड़ में उचित ठहराने की कोशिशें लगातार की जाती हैं. खुद मोदी अपने खूनी जबड़े छुपाने की कोशिश कभी नहीं करते, उलटे इसे वे देश भर में हिन्दू कट्टरपंथियों और आरएसएस को ख़ुश रखने के लिये प्रमाण पत्र के रूप में पेश करते हैं. गुजरात में या तो कोई उनके खिलाफ बोलता ही नहीं है और अगर कोई बोलता है तो उसे बुरी तरह सबक सिखा दिया जाता है. लेकिन गौरतलब यह है कि ऐसे भयावह माहौल में भी प्रतिरोध जिंदा रहता है. कुछ लोग सच के लिये, न्याय के लिये, मनुष्यता के लिये सब कुछ दांव पर लगाते रहते हैं. संजीव भट्ट ऐसे ही विरले लोगों में से हैं. जो उनके साथ हो रहा है, निश्चय ही उन्होंने इसकी और इससे भी बुरी स्थितयों की कल्पना कर रखी होगी. 
हैरानी  की बात यह है कि भट्ट की गिरफ्तारी के विरोध में सेक्युलर, इंसाफपसंद और लोकतान्त्रिक ताकतों की तरफ से जिस तरह की प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी, वैसी हुई नहीं है. कम संख्या में ही सही, पर लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोगों को देश भर के शहरों, कस्बों में जमा होकर कम से कम ज्ञापन आदि तो देने ही चाहिए. बाबरी मस्जिद के खिलाफ शुरू किये गए उन्माद के दिनों में जिस तरह साम्प्रदायिकता से लड़ने की कोशिशें हुई थीं, वे बाद के दिनों में कम ही होती गयीं. आखिर पोपुलर पॉलिटिक्स से प्रतिरोध की दिखावी मुद्रा भी जाती रही. `वैकल्पिक` मीडिया के साथी भी इन दिनों ऐसे सवालों से उदासीन नज़र आने लगे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि संजीव भट्ट का साहस और कर्तव्यनिष्ठा ऐसे दौर में और भी ज्यादा उल्लेखनीय है. उन्हें और उनके संघर्ष के साथियों को सलाम. 

Thursday, November 4, 2010

एक लम्हे का मौन



(एमानुएल ओर्तीज़ की यह कविता असद ज़ैदी के अनुवाद में पहली बार शायद २००७ में 'पहल' (मरहूम) में छपी थी. उसके बाद यह कई बार प्रकाशित हो चुकी है. इस कविता के अनेक नाटकीय पाठ और मंचन भी हुए हैं. राष्ट्रपति ओबामा के भारत आगमन पर हमारी तरफ़ से तोहफ़े के बतौर फिर से पेश की जाती है .)




कवितापाठ से पहले एक लम्हे का मौन

एमानुएल ओर्तीज़

अनुवाद: असद ज़ैदी



इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ

मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें

ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में

और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में

सताया गया, क़ैद किया गया

जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएँ दी गईं

जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन

अफ़ग़ानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए


और अगर आप इजाज़त दें तो


एक पूरे दिन का मौन

हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से क़ाबिज़

इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला

छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराक़ियों के लिए, उन इराक़ी बच्चों के लिए,

जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ


दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीक़ा के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने

अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन

हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी

चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,

जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि ज़िंदा हों।

एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए --

कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है --

एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो

एक गुप्त युद्ध का शिकार थे -- और ज़रा धीरे बोलिए,

हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन

कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम

उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे

फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ।


एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए

एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए

दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए

जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।

४५ सेकिंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे ४५ लोगों के लिए,

और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों ग़ुलाम अफ़्रीकियों के लिए

जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊँची कोई गगनचुम्बी इमारत भी होगी।

उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।

उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं

दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम


एक सदी का मौन


यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए

जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं

पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में --

जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ़ टिअर्स।

अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।


तो आप को चाहिए ख़ामोशी का एक लम्हा ?

जबकि हम बेआवाज़ हैं

हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें

हमारी आँखें सी दी गई हैं

ख़ामोशी का एक लम्हा

जबकि सारे कवि दफ़नाए जा चुके हैं

मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।


इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ

आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन

आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी

इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ रहे।

कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।


क्योंकि यह कविता /११ के बारे में नहीं है

यह /१० के बारे में है

यह / के बारे में है

/ और / के बारे में है

यह कविता १४९२ के बारे में है।*


यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।

और अगर यह कविता /११ के बारे में है, तो फिर :

यह सितम्बर , १९७१ के चीले देश के बारे में है,

यह सितम्बर १२, १९७७ दक्षिण अफ़्रीक़ा और स्टीवेन बीको के बारे में है,

यह १३ सितम्बर १९७१ और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।


यह कविता सोमालिया, सितम्बर १४, १९९२ के बारे में है।


यह कविता हर उस तारीख़ के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती हैं।

यह कविता उन ११० कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, ११० कहानियाँ

इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,

जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।

यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।


आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?

हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का ख़ालीपन :

बिना निशान की क़ब्रें

हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ

जड़ों से उखड़े हुए दरख़्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास

अनाम बच्चों के चेहरों से झाँकती मुर्दा टकटकी

इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं

या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ

फिर भी आप चाहेंगे कि

हमारी ओर से कुछ और मौन।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो रोक दो तेल के पम्प

बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न

डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़

फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट

बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियाँ

डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज

उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांज़िट।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल ** की खिड़की पर ईंट मारो,

और वहाँ के मज़दूरों का खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,

सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन ***

फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़ ****

डेटन की विराट १३-घंटे वाली सेल के दिन *****

या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों

और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।


अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन

तो अभी है वह लम्हा

इस कविता के शुरू होने से पहले।


(११ सितम्बर, २००२)


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टिप्पणियाँ :

* १४९२ के साल कोलम्बस अमरीकी महाद्वीप पर उतरा था।

** टैको बैल : अमरीका की एक बड़ी फ़ास्ट फ़ूड चेन है।

*** ''सुपर बॉल'' सन्डे : अमरीकी फ़ुटबॉल की राष्ट्रीय चैम्पियनशिप के फ़ाइनल का दिन। इस दिन अमरीका में ग़ैर-सरकारी तौर पर राष्ट्रीय छुट्टी हो जाती है।

**** फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई : अमरीका का ''स्वतंत्रता दिवस'' और राष्ट्रीय छुट्टी का दिन।

जुलाई १७७६ को अमरीका में ''डिक्लरेशन ऑफ इंडीपेंडेंस'' (स्वाधीनता का ऐलान) पारित किया गया था।

***** डेटन : मिनिओपोलिस नामक अमरीकी शहर का मशहूर डिपार्टमेंटल स्टोर।



एमानुएल ओर्तीज़ मेक्सिको-पुएर्तो रीको मूल के युवा अमरीकी कवि हैं। वह एक कवि-संगठनकर्ता हैं और आदि-अमरीकी बाशिन्दों, विभिन्न प्रवासी समुदायों और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए सक्रिय कई प्रगतिशील संगठनों से जुड़े हैं।