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Wednesday, August 19, 2009

प्रभाष जोशी! शर्म तुमको मगर नहीं आती




बड़ा हल्ला रहता आया है कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष हैं. उनके शीर्ष पुरुषवादी विचार हमेशा ही सामने आते रहे हैं, यह बात अलग है कि हमारे बहुत से `सेक्युलर`, `प्रगतिशील` व `उदारवादी` इस तरफ से आँखें मूंदे भक्ति-भाव से उनकी और उन जैसे कई रंगे सियारों की बंदगी किये जाते हैं. इस दौर में जबकि दुनिया भर में प्रगतिशील ताकतों का दबाव कम हुआ है और भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए अपनी असली शक्ल में आकर हुआं-हुआं करने लगे हैं तो प्रभाष जोशी जैसे शीर्ष पुरुष भी अपने फलसफे के साथ खुलकर सामने आ रहे हैं. हालाँकि सती प्रथा हो या ऐसे दूसरे मामले, वे पहले भी यही सब करते रहे हैं. फिलहाल वे मनु महाराज से भी आगे निकलकर ब्राह्मण श्रेष्ठता साबित करने के लिए जहरीली ज़िद पर उतर आए हैं. उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ प्रेम भी देखते ही बनता है जब वे संघ पर पूर्व में लगी पाबंदियों पर गुस्सा दिखलाते हैं. पेश हैं उनके raviwar.com को दिए गए साक्षात्कार से कुछ अंश-


`...सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है. क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है. तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.


अपने समाज में अलग-अलग कौशल के अलग-अलग लोग हैं. अपन ने ये माना कि राजकाज में राजपूत अच्छा राज चलाते है. क्यों माना हमने ? एक तो वो परंपरा से राज चलाते आ रहे है, दूसरा चीजों के लिए समझौते करना, सब को खुश रखना, इसकी जो समझदारी है, कौशल जो होती है, वो आपको राज चलाते-चलाते आती है. आप अगर अपने परिवार के मुखिया है तो आप जानते हैं कि आपके परिवार के लोगों को किस तरह से हैंडल किया जाये.


ब्राह्मणों का वर्चस्व
मान लीजिए कि सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेल रहे है. अगर सचिन आउट हो जाये तो कोई यह नहीं मानेगा कि कांबली मैच को ले जायेगा. क्योकि कांबली का खेल, कांबली का चरित्र, कांबली का एटीट्यूड चीजों को बनाकर रखने और लेकर जाने का नहीं है. वो कुछ करके दिखा देने का है. जिताने के लिए आप को ऐसा आदमी चाहिए, जो लंगर डालकर खड़ा हो जाये और आखिर तक उसको ले जा सके यानी धारण शक्ति वाला. अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से जो धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है. अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में. अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन है ? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण. क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता वो समझौता वो सब कर सकते है. बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके है कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा. ये मैं जातिवादिता के नाते नहीं कह रहा हूं. एक समाज में स्किल का लेवल होता है, कौशल का एक लेवल होता है, जो वो काम करते-करते प्राप्त करता है. उस कौशल का आप अपने क्षेत्र में कैसा इस्तमाल करते हैं, उस पर निर्भर करता है. इंदिरा गांधी बचपन में गूंगी गुड़ियाओं की सेना बना कर लड़ा करती थीं. जब वह प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने आसपास गूंगे लोगो की फौज खड़ी की. ऐसे लोग, जो उसके खिलाफ बोल नहीं सकते थे. या जो अपनी खुद की कैपासिटी में कुछ कर नहीं सकते है. वही एक सर्वोच्च नेता रहीं. बचपन के जो खिलौने होते हैं, वो बाद में हमारे औजार बनते है. जिससे हम चीजों को हैंडल करना सीखते है. क्रिकेट में भी आप देखेंगे, सभी क्रिकेटरों का एनॉलिसिस करके देखेंगे तो आप पाएंगे कि सबसे ज्यादा सस्टेन करने वाले, सबसे ज्यादा टिके रहने वाले कौन खिलाड़ी हैं ? सुनील गावस्कर सारस्वत ब्राह्मण, सचिन तेंदुलकर सारस्वत ब्राह्मण.


--देखिए, दो लोग थे जिन्होंने कहा कि हम आजाद नहीं हुए। एक तो कम्युनिस्टों ने कहा कि हम आजाद नहीं हुए दूसरा हिंदुत्ववादियों ने कहा था। हिंदुत्ववादी ने भी इस आंदोलन में भाग नहीं लिया और कम्युनिस्टो ने भी. कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी की थी। क्योंकि उस वक्त उनको लगता था कि रूस दुनिया में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है तो उसकी मदद करो. तो जिधर रूस है, वो उधर चले गए. हिंदुत्ववादियों को लगता था कि अगर पाकिस्तान को यह देश सौंप कर जाएंगे, टुकड़ा करके तो बाकि टुकड़ा हम हिंदुओं को मिलना चाहिए.


--जब नक्सलियों पर प्रतिबंध लगा तो कुछ पार्टियों ने कहा कि प्रतिबंध लगाना गलत है, क्योंकि हम उनसे राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं, ये कहा गया. मैंने तब लिखा कि भाई आप नक्सलाईट से तो राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं और इसलिए आप कहते हैं कि उन पर पाबंदी मत लगाओ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इस देश में तीन बार पाबंदी लगी, सन 1948 में, सन 1975 में और 1992 में बाबरी मस्जिद के बाद. तब तो किसी लोकतांत्रिक उदारवादी ने उठकर नहीं कहा कि भाई आरएसएस पर पांबदी क्यों लगाते हो. हिंदुत्व से हम विचार से निपटेंगे. हम राजनीतिक रूप से निपटेंगे हिंदुत्व वालों से. नक्सलाईट के बारे में आप कहते हैं क्योंकि नक्सलाईट से आपको सहानुभूति है. अगर इस देश को अपने हिंदुत्ववादियों से सहानुभूति नहीं होगी तो उनको वो वापस मोड़ कर नहीं ला सकते. इसलिए संवाद सबसे जारी रखना चाहिए. वह चाहे नक्सलवादी हो या फिर हिंदुत्ववादी हो क्योंकि इसके अलावा लोकतंत्र में कोई तरीका ही नहीं है.


सती हमारी परंपरा
• मुझको आपका एक बहुचर्चित लेख याद आता है सती प्रथा वाला... मैं यह मानता हूं कि सती प्रथा के प्रति जो कानूनी रवैया है, वो अंग्रेजों का चलाया हुआ है. अपने यहां सती पति की चिता पर जल के मरने को कभी नहीं माना गया. सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां ? सीता. सीता आदमी के लिए मरी नहीं. दूसरी सबसे बड़ी कौन है आपके यहां ? पार्वती. वो खुद जल गई लेकिन पति का जो गौरव है, सम्मान है वो बनाने के लिए. उसके लिए. सावित्री. सावित्री सबसे बड़ी सती मानी जाती है. सावित्री वो है, जिसने अपने पति को जिंदा किया, मृत पति को जिंदा किया. सती अपनी परंपरा में सत्व से जुड़ी हुई चीज है. मेरा सत्व, मेरा निजत्व जो है, उसका मैं एसर्ट करूं. अब वो अगर पतित होकर... बंगाल में जवान लड़कियों की क्योंकि आदमी कम होते थे, लड़कियां ज्यादा होती थीं, इसलिए ब्याह देने की परंपरा हुई. इसलिए कि वो रहेगी तो बंटवारा होगा संपत्ति में. इसलिए वह घर में रहे. जाट लोग तो चादर डाल देते हैं, घर से जाने नहीं देते. अपने यहां कुछ जगहों पर उसको सती कर देते हैं. `


http://www.raviwar.com/ से साभार लिए गए अंश

Wednesday, July 23, 2008

`दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार`

हमारे बेहद पिछडे समाज में अरसे पहले राधामोहन गोकुल, भगत सिंह, राहुल आदि नेताओं, बुद्धिजीवियों ने कट्टरताओं, अंधविश्वासों, लीचड़ मान्यताओं, सामंतवाद, जातिवाद, साम्राज्यवाद, बराबरी आदि मुद्दों पर समग्र रूप से मुखर मोर्चे लिए थे। टुकडों-टुकडों में अलग-अलग मसलों पर भी मोर्चे लिए गए और इन सभी को तब के पुरातनपंथी कथित बुद्धिजीविओं के भरी विरोध का सामना करना पड़ा था. दुर्भाग्य से आज का बुद्धीजीवी मामूली रिस्क उठाने को भी तैयार नहीं है और कल के नवजागरण विरोधी पुरातनपंथी भारतेंदु सरीखों के वंशजों के आगे घुटने टिका रहे हैं. असद जैदी जैसे लेखक-कवि जब सच को सामने रखते हैं, तो धूर्त हमले किए जाते हैं. उन पर निजी हमले कर रहे एक ब्लॉग मोहल्‍ला ने उनके जनसत्ता के सती विषयक रूख पर आलोचना के रवैये को भी ग़लत ठहराने की कोशिश की है और आधे-अधूरे ढंग से यह साबित करना चाह ही की जनसत्ता तब सती विरोध का चैम्पियन था. हकीकत यह है कि दिवराला कांड को लेकर इस अखबार ने कट्टर सम्पादकीय तक लिखे थे और उसकी थू-थू भी हुई थी. इस बारे में १० अक्टूबर १९८७ को सरला महेश्वरी का एक लेख कहीं छापा था, जो अब उनकी किताब `नारी प्रश्न`` में संगृहीत है, इसकी बानगी देता है. ब्लॉग संचालक को चाहिए ४ सितम्बर87 दिवराला कांड के बाद के अक्टूबर ८७ तक के जनसत्ता के समाद्कीय सामने रखें. जो एक समाद्कीय दिया गया है, वो भी बहुत बाद का है और जिस एक पत्रकार के साहस से यह छाप पाया था, उसे भी संपादक और उनके लग्गो-भग्गो (जो आज भी वहां ताकतवर हैं) का गुस्सा झेलना पड़ा था. खैर आप सरला महेश्वरी का इस बारे में लेख एक जिद्दी धुन पर पढ़ सकते हैं...

रूपकँवर प्रकरण में कुछ ख़ास किस्म के कलमघसीटू पोंगापंथियों ने अपने को बुरी तरह बेनकाब किया है. यद्यपि इन मामलों में वे काफी बढ़-चढ़ कर आदर्शों की बात करते हैं और ख़ुद के बारे में उनका इतना दावा है कि `जो आग से खेलते हैं उनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती`. लेकिन हम इतना अवश्य कहेंगे कि जिनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती, जरुरी नहीं कि वे अच्छे इंसान भी हों।
हमारा संकेत यहाँ बिल्कुल स्पष्ट है. पिछले दिनों जब इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप पर केन्द्रीय सरकार ने बदले की भावना से छपे मारे थे, तब जनसत्ता दैनिक के संपादक प्रभाष जोशी ने `दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार` की बात कही थी. लेकिन उस घटना के चंद दिनों बाद ही दिवराला के रूपकँवर हत्याकांड ने उनके दिमाग की उस कुटिलता को अवश्य जाहिर कर दिया जो हर कर्मकांडी का जन्मजात गुन होता है।
लगभग १५० वर्ष पहले राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ जबरदस्त शास्त्रार्थ करके इस घिनौनी प्रथा को शास्त्र सम्मत बताने की सारी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था; परम्परा के नाम पर बर्बरता को अपनाने के तर्कों की धज्जियाँ उडा दी थीं. लेकिन, जो बहुत अधिक बौद्धिक बनते हैं, जो समाज और जनता के हित की क़समें खाते नहीं थकते, ऐसे लोग जब डेढ़ सौ बरसों बाद फ़िर ख़ुद को राममोहन के वक्त के कर्मकांडी घोंघा-बसंतों की कोटि में रखने में कोई हिचक नहीं दिखाते, तो इसे कुटिलता के सिवाय और क्या कहा जाएगा, क्योंकि इसके पीछे उनका सिर्फ़ यही विश्वास काम कर रहा होता है कि लोगों ने अब तक राममोहन के कामों को विस्मृत कर दिया है तथा आज अब `राम जन्मभूमि मुक्ति` युग का सूत्रपात हो गया है; उन्हें आदिम हिंस्र बर्बरता सिर्फ़ इसलिए कबूल क्योंकि हजारों लाखों लोगों की अंधश्रद्धा उसके पीछे है. कबीर ने ऐसे ही कलमघसीटुओं को देखकर शायद कहा होगा - `पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। `
रूपकँवर को सती बनाकर मार क्या डाला गया, प्रभाष जोशी की तो बांछें खिल गयीं. तत्काल जनसत्ता का एक सम्पादकीय आया - अंगरेजी पढ़े लिखे लोग इसकी महानता को कत्तई नहीं समझ सकेंगे. ``यह तो एक समाज के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों का मामला है.`` इतिहास में पहले भी एक बार अंग्रेजी शिक्षा के असर वालों तथा ईसाई धर्म के प्रचारकों ने ``भारत के धर्म और परम्परा को बदनाम करने की कोशिश की.`` सतीप्रथा पर विचार किया जाए, लेकिन इसका अधिकार उन्हीं को है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को जानते समझाते हैं।
यह सब सतीप्रथा की नग्न वकालत नहीं तो और क्या है? शास्त्र इनकी नज़र में वही है जो सैकडों हज़ार वर्ष पहले देववाणी में कहा गया हो. विगत २०० वर्षों के बीच भारतीय चिंतन में जो नए विकास हुए हैं, राजा राममोहन राय से लेकर अन्य तमाम मनीषियों तथा प्रेमचंद तक ने हमारी मनीषा को जो कुछ दिया है, क्या वह सब किसी शास्त्र या जनता की आस्था के रूप में अपना कोई स्थान नहीं रखते? शास्त्रों की ऐसी जड़ व्याख्या किसी भी सच्चे वेदांती और तर्कशास्त्री को भी सचमुच स्तब्ध कर देगी!कुछ जनवादी महिलाओं ने जब महिला हत्या के ऐसे नग्न समर्थक को आदे हाथों लिया, तब प्रभाष जोशी ने अजीब ढंग से कलाबाजियां शुरू कर दी. तब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया की सिर्फ़ बातों से क्या होगा, क्यों नहीं वे महिलाएं लाखों उन्मत्त लोगों के मुकाबले के लिए दिवराला में उसी वक्त मैदान में उतरीं. पैंतरा बदल कर अपनी सफाई में उन्होंने लिखा ``समस्या की पेंचीदगी और गंभीरता बताने के लिए ही हमने उसे धार्मिक और सामजिक विश्वासों का मामला बताया. अगर ऐसा न होता तो रूपकँवर के चून्दडी समारोह में लाखों लोग न उमड़ पड़ते.`` -जनसत्ता, २० सितम्बर
(यह अभी अधूरा है, इसे कल तक पूरा पढ़ सकते हैं )