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Wednesday, February 1, 2012

कठघरे में सरदार पटेल



(महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल रहे मदनलाल पाहवा ने इस बारे में बंबई में प्रो. डॉ. जगदीशचंद्र जैन को महत्वपूर्ण जानकारियां दी थीं। गांधी की प्रार्थना सभा में बम विस्फोट के बाद जैन ने पाहवा से मिली जानकारियों को गंभीरता से लिया और उन्होंनें बंबई सरकार के तत्कालीन प्रीमियर बी. जी. खेर और वहां के गृह मंत्री मोरारजी देसाई को विस्तार से सब कुछ बता दिया था। इसके बावजूद न तो षडयंत्रकारी गिरफ्तार हुए और न गांधीजी की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम उठाए गए। बाद में जैन को ही प्रताड़ित किया गया। अभियोजन पक्ष के मुख्य गवाह जैन की डायरी बाद में बतौर किताब प्रकाशित हुई। यहां इसी किताब के एक छोटे से टुकड़े `SARDAR PATEL IN DOCK` का अनुवाद प्रस्तुत है।)

कठघरे में सरदार पटेल
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30 जनवरी 1948 की महान त्रासदी के बाद देश भर में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रति गहरा गुस्सा था कि वह अग्रणी भूमिका में होने के बावजूद महात्मा का जीवन बचाने में नाकाम रहे। गांधीजी के निधन से उत्पन्न आतंक और दुख के सिलसिले में कांग्रेस पार्टी द्वारा बुलाई गई एक मीटिंग में पार्टी के समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने जोर देकर कहा कि पटेल हत्या की जिम्मेदारी (जवाबदेही) से बच नहीं सकते हैं। उन्होंने इस बारे में पटेल के स्पष्टीकरण की मांग की कि गांधीजी की हत्या के लिए लोगों को उकसाने का खुला प्रोपेगेंडा होने और हत्या वाले दिन से 10 रोज पहले भी उन (गांधीजी) पर बम फेंका जा चुकने के बावजूद कोई विशेष कदम (क्यों) नहीं उठाए गए।

जैसा कि महात्मा गांधी के सचिव प्यारेलाल ने इशारा किया है, यह सच था कि गांधीजी ने प्रार्थना सभा में आने वाले हर शख्स की जांच के प्रस्ताव को तुरंत खारिज कर दिया था। दरअसल, बंबई से मिली सूचना के आधार पर पटेल सुरक्षा इंतजामात कड़े करने का आदेश दे चुके थे। गांधीजी ने इससे यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि प्रार्थना के दौरान जब वे खुद ईश्वर की एकमात्र सुरक्षा में हों तो उनकी आस्था किसी तरह की मानवीय सुरक्षा को स्वीकार करने की इजाजत नहीं देती है।

चक्कर में डालने वाली बात यह थी कि अथॉरिटीज षड़यंत्र की निश्चित और ठोस जानकारी होने के बावजूद षड़यंत्रकारियों को पहचानकर गिरफ्तार करने और उनकी योजना को नाकाम करने में विफल रहे जबकि हत्यारे दल के सभी सदस्य मुख्य प्रवेश द्वार से ही भीतर पहुंचे थे। असल में यह नाकामी उस सड़न की इंतिहा की गवाह थी जो सुरक्षा एजेंसियों की पुलिस समेत बहुत सी शाखाओं में फैल चुकी थी। बाद में यह उजागर किया गया कि आरएसएस की एंट्री सरकारी महकमों तक में थी और बहुत से पुलिस अधिकारी (पद और श्रेणी का उल्लेख नहीं) न केवल आरएसएस की गतिविधियों में संलिप्त एक्टिविस्टों से सहानुभूति रखते थे, बल्कि उनकी सक्रिय मदद भी करते थे। नेहरू ने इस स्थिति को गंभीरता से लिया और 26 फरवरी 1948 को तत्कालीन गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल को चेतावनी दी, `आरएसएस हमारे दफ़्तरों और पुलिस फोर्स में घुसपैठ कर चुका है और इस तरह ऑफिसियल सीक्रेसी मुमकिन नहीं रह गई है।`

बंटवारे के वक़्त देश में कांग्रेस का मुख्य प्रतिद्वंद्वी आरएसएस बंटवारे के लिए सीधे-सीधे गांधीजी की `मुस्लिम तुष्टिकरण नीति` को जिम्मेदार ठहरा रहा था। उधर, हिन्दू और सिख शरणार्थियों का जबरदस्त रेला पहुंच रहा था जो अपनी भयावह दुर्दशा के लिए कांग्रेस को, खासतौर से गांधीजी को कोस रहा था। यहां तक कि 20 जनवरी 1948 के बम विस्फोट से पहले भी दिल्ली के कुछ शरणार्थी शिविरों में गांधीजी और साम्प्रदायिक विचारधारा के विरोधी दूसरे कांग्रेस नेताओं की हत्या की बातों की गूंज दर्ज की जा चुकी थी। एक अतिवादी हिंदू ग्रुप के हाथों महात्मा के त्रासद अंत ने पहले से ही आवेश भरे माहौल को और ज्यादा संगीन कर दिया। नतीजतन, आरएसएस पर पाबंदी आयद कर दी गई और उसके तत्कालीन मुखिया माधव सदाशिवराव गोलवलकर समेत महत्वपूर्ण ओहदेदारों को हिरासत में ले लिया गया।

सरदार पटेल ने गांधीजी की हत्या के सिलसिले में 1 फरवरी 1948 को लोगों से ओछी प्रतिक्रियाओं से बचने की अपील की। इंडियन एक्सप्रेस ने प्रकाशित किया, `आज रात उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने सभी वर्गों के लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है। उन्होंने कहा है कि वे यह जानकर व्यथित हैं कि बंबई और मद्रास में दिग्भ्रमित लोग हिंदू महासभा और आरएसएस के  सदस्यों के खिलाफ हिंसा की कार्रवाइयों में शामिल हुए हैं। उन्होंने कहा है, `यदि हम बदले की भावना के अधीन होते हैं तो हम खुद को महात्मा गांधी के सिद्धांतो और विश्वास के अयोग्य साबित करेंगे।`-API`

30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद राष्ट्र के नाम संबोधन में नेहरू ने कहा, `` एक पागल आदमी ने उनके जीवन का अंत कर दिया, मैं उसे केवल पागल ही कह सकता हूँ जिसने ऐसा किया और पिछले वर्षों और महीनों में इस मुल्क में काफी जहर फैलाया जा चुका है और इस जहर ने लोगों के दिमागों पर असर डाला है। हमें इस जहर का मुकाबला करना होगा, और हमें उन सभी खतरों का मुकाबला करना होगा जिनसे हम घिरे हैं, और पागलपन या खराब ढंग से नहीं बल्कि जिस तरह कि हमारे प्यारे रहनुमा ने हमें मुकाबला करना सिखाया है।` बाद में दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सभा में उन्होंने फिर जोर देकर कहा, `हमें यह देखना है कि कैसे और क्यों 400 मिलियन्स में से एक भी आदमी हमारे देश पर इस भयानक जख़्म की वजह बना। ऐसा माहौल कैसे पैदा कर दिया गया था कि उसके जैसे लोग इस तरह की हरकत कर सके और फिर भी खुद को हिंदुस्तानी कहने की धृष्टता करते हैं।` नेहरू तो फिर भी शुरू से ही आरएसएस को लेकर शंकाग्रस्त थे और यहां तक कि महान त्रासदी से कुछ दिनों पहले ही पंजाब में अमृतसर की एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने आगाह किया था,`आरएसएस मुल्क को बेहद नुकसान पहुंचा चुका है, यह पक्का सामने आ जाएगा।`

पंडित नेहरू ने 26 फरवरी 1948 को सरदार पटेल को लिखे पत्र में आरएसएस में बद्धमूल `जहर` को चिह्नित करते हुए जोर देकर कहा, `उत्तरोत्तर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि बापू की हत्या कोई छुटपुट ढंग से अंजाम दी गई गतिविधि नहीं थी बल्कि बड़े पैमाने पर खासतौर से आरएसएस द्वारा सुनियोजित किए गए व्यापक अभियान का हिस्सा थी।` ठीक अगले दिन नेहरूजी को पहुंचे फौरी जवाब में पटेल ने निर्णायात्मक वक्तव्य दिया, `मैं बापू हत्याकांड की जांच के सिलसिले में हो रही प्रगति को लेकर लगभग रोजाना संपर्क में हूं...सभी मुख्य अभियुक्त अपनी गतिविधियों के बारे में लंबे और विस्तृत बयान दे चुके हैं। बयानों से यह भी साफतौर पर सामने आ जाता है कि इसमें आरएसएस की कतई भी संलिप्तता नहीं है।` `भारत के लौह पुरुष` कहे जाने वाले पटेल ने आरएसएस के बारे में पार्टी के दूसरे साथियों से पूरी तरह उलट निरंतर एक अलग दृष्टिकोण रखा। भयानक हत्याकांड से कुछ दिनों पहले ही जबकि आरएसएस का खूंखारपन मुल्क का सफाया कर रहा था, 6 जनवरी 1948 को लखनऊ की एक जनसभा में पटेल ने ऐलान किया,
`कांग्रेस में जो लोग ताकतवर हैं, इस भ्रम में हैं कि वे अपने ओहदों के प्रभाव के चलते आरएसएस को कुचलने में कामयाब हो जाएंगे। आप एक संस्था को डंडे के इस्तेमाल से कुचल नहीं सकते हो। डंडा चोरों और डकैतों के लिए मायने रखता है। आखिरकार आरएसएस के लोग चोर-डाकू नहीं हैं। वे अपने देश को प्यार करने वाले देशभक्त हैं।`

सौभाग्य से मैं कुछ गोपनीय खुफिया दस्तावेज देख सका जो पुख्ता तौर पर यह इशारा करते थे कि भले  ही तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने सीधे तौर पर आरएसएस को (इस मामले में) फंसाया नहीं था लेकिन तत्कालीन आरएसएस संघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर इस घटना के किसी भी तरह खिलाफ नहीं थे। 6 दिसंबर 1947 को गोलवलकर ने दिल्ली के पास ही गोवर्धन कस्बे में आरएसएस कार्यकर्ताओं की बैठक आयोजित की थी। पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस बैठक में `कांग्रेस के अग्रणी नेताओं की हत्या कर जनता को आतंकित करने और उन पर पकड़ कायम करने` की योजना पर विचार किया गया था। 

दो दिन बाद गोलवलकर ने दिल्ली में रोहतक रोड रिफ्यूजी कैम्प में हजारों स्वयंसेवकों की भीड़ को संबोधित किया। वहां मौजूद रहे पुलिस रिपोर्टर के मुताबिक आरएसएस नेता ने कहा, `पाकिस्तान को मिटा देने तक संघ चैन से नहीं बैठेगा। जो रास्ते में आएगा, हम उसे भी मिटा देंगे, फिर वह नेहरू सरकार हो या कोई अन्य सरकार...` मुसलमानों का जिक्र करते हुए उसने कहा कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें हिंदुस्तान में नहीं रख पाएगी। उन्हें यह देश छोड़ना ही पड़ेगा...` अगर वे यहां रुके तो सरकार जिम्मेदार होगी, हिंदू समुदाय जिम्मेदार नहीं होगा। महात्मा गांधी उन्हें अब और गुमराह नहीं कर सकते हैं। हमारे पास अपने शत्रुओं को फौरन खामोश कर देने के उपाय मौजूद हैं।`

गांधीजी जहां आरएसएस को `निरंकुश दृष्टिकोण वाले साम्प्रदायिक ढांचे` के रूप में कैरेक्टराइज करते हुए उसके `अनुशासन, हौसले और कठिन परिश्रम की कुव्वत` की तुलना हिटलर के नाज़ियों और मुसोलिनी के फ़ासिस्टों से कर रहे थे तो इसके विपरीत पटेल की दृष्टि में आरएसएस के सदस्य `राष्ट्रभक्त, गोकि गुमराह` थे। गोलवलकर को एक पत्र में आरएसएस सदस्यों के लिए कांग्रेस में शामिल होने का पटेल का व्यापक प्रस्ताव महत्वपूर्ण था। सरदार पटेल संभवत: कांग्रेस के अकेले ऐसे सदस्य थे जिनकी आरएसएस के साथ सहानुभूति एक आम रहस्य के तौर पर जानी जाती थी, और जिनके निधन पर हिंदू महासभा ने एकमत से दृढ़तापूर्वक प्रस्ताव पारित कर दृढ़निश्चयी, भारत के हिंदू मानसिकता वाले बिस्मार्क - सरदार वल्लभभाई पटेल के विछोह पर गहरा दुख जताया था। हिंदू राष्ट्रपति (हिंदू महासभा के) डॉ. खरे ने असेंबली के सामने खुद प्रस्ताव रखा और कहा, `हम कांग्रेस के लोगों की तरह संकुचित मानसिकता वाले नहीं हैं जिन्होंने हिंदू महासभा के नेताओं धर्मवीर डॉ. मूनजी और श्री एन. सी. केलकर जो एक वक़्त में कांग्रेस के भी वफादार लेफ्टिनेंट रह चुके थे, की मृत्यु पर सहानुभूति और अफसोस का एक शब्द भी नहीं बोला था। दूसरी ओर, हम महासभाई सरदार के प्रति अपना सम्मान व श्रद्धा प्रकट करने के लिए अपना अध्यक्षीय प्रसेशन स्थगित करते हैं।` 


Monday, August 17, 2009

आज़ादी की छाँव में : बेगम अनीस किदवई



फिर सितम्बर आ गया। हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए अभी पन्द्रह दिन न बीते थे कि दिल्ली में मार-धाड़ शुरू हो गई। मकानों, दुकानों और गली-कूचों में लहराते हुए तिरंगे झंडे अभी मैले भी न हो पाए थे कि उन पर खून की छींटें पड़ने लगीं। गड़बड़ी, बदमनी, दंगे-फसादों का एक सैलाब था जो पंजाब से चला आ रहा था। उसमें दिल्ली, मसूरी और देहरादून सब गर्क हो गए थे। कहते हैं, एक बार महफ़िल में हिन्दू-मुस्लिम फसाद का जिक्र हो रहा था। किसी ने कहा, फसादों की गंगा तो सारे हिन्दुस्तान में बह रही है। बापू हँसे और बोले- मगर उसकी गंगोतरी तो पंजाब में है। और सचमुच गंगोतरी वहीं से निकली। टेलीफोन गायब, डाक बंद, रेलें बंद, पुल टूटे हुए और इंसान थे कि कीड़े-मकोड़ों की तरह सड़कों पर, गलियों और मैदानों में रेंग रहे थे, मर रहे थे, कुचले जा रहे थे, लूटे जा रहे थे। लेकिन भगदड़ थी कि खुदा की पनाह! इधर से उधर खुदा की बेअवाज लाठी उनको हंका रही थी। मार-काट का इतना बड़ा तूफ़ान शायद ही कभी हिन्दुस्तान के इतिहास में आया हो। सुनती हूँ, बखते-नसर* यरूशलम की आबादी को गुलाम बनाकर बाबुल ले आया था। हजरत मूसा चालीस हजार यहूदियों को लेकर मिस्र से निकल गए थे। करताजना वाले जिस मुल्क को फतह करते थे उसके बाशिंदों को गुलाम बनाकर ले जाते थे और उनसे ईंट पथवाते थे। हिन्दुस्तान में भी महाभारत जैसी बड़ी जंग हुई और फिर नादिरशाह ने भी तीन दिन दिल्ली में कत्लेआम किया था। मगर ये तो सब पुरानी कहानियां थीं। तब तो एक सूबा और एक जिला भी मुल्क कहलाता था। कितना ही जुल्म होता, दस-बीस हजार से ज्यादा आदमी न मरते होंगे. लेकिन यह जो कुछ हमारी आँखों ने सामने हुआ है, दुनिया में शुरू से आज तक कहीं न हुआ होगा।

*ईरान का बादशाह
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(यह छोटा सा टुकड़ा एक महान किताब `आज़ादी की छांव से` लिया गया है. दरअसल यह किताब नहीं है बल्कि हिन्दुस्तान को आज़ादी के साथ मिली बदनसीबी की दास्तां है जो बेगम अनीस किदवई ने अपने लहू के आंसुओं से बयां की है। फिरकापरस्ती की आग ने खुद उनके घर को जला डाला पर वे गांधी के उसूलों में यकीन रखते हुए सेवा कार्यों में जुटी रहीं। इस दौरान देश के बड़े नेता और अफसर किस तरह इस आग को भड़काने में मशगूल थे और इंसानियत किस तरह तार-तार हो रही थी, उसकी सच्ची और दिल दहला देने वाली तस्वीरें इस किताब में हैं।)

Sunday, September 14, 2008

दिल्ली के धमाके - मुश्किल वक्त में कुछ ज़रूरी बातें


सांप्रदायिक ताकतों का काम हमेशा बेहद आसान होता है और इनके खिलाफ लडाई उतनी ही मुश्किल होती है। कई बार या कहें अधिकतर समय यह रास्ता बेहद तनहा, बार-बार हार का अहसास कराने वाला और खतरे व अपमान पैदा कराने वाला होता है. हम पाते हैं कि मुश्किल लड़ाई में शामिल कोई प्यारा साथी साम्प्रदायिक बहाव का शिकार हो गया है या फ़िर लोकतंत्र, न्याय, निष्पक्षता जैसे तर्कों का इस्तेमाल करते हुए ही वह घोर फासीवादी बातें करने लगा है.

साम्प्रदायिक ताकतों की असल जीत किसी धमाके में कुछ या बहुत सी जिंदगियां ले लेना नहीं होती, बल्कि यही होती है कि लोग उनके एजेंडे पर सोचना और रिअक्ट करना शुरू कर दें।

दिल्ली के धमाके मुझे भी बेहद दुखी और परेशां कर रहे हैं पर मैं ऐसे मौकों के लिए उत्साह से बयानों में भडास निकालने वाले पत्रकारों, नेताओं और राष्ट्रभक्तों से और भी ज्यादा परेशां होता हूँ। मसलन - आतंकवाद से आर-पार की लड़ाई का वक्त आ गया है, पकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, पोटा-सोटा कुछ हो, चूडियाँ कब तक पहने रहेंगे (और मुसलमानों को सबक सिखाना होगा) जैसी बातें वो काम कर रही होती हैं, जो बम के धमाके भी नहीं कर पाते। या कहें जो धमाका करने वाले लोग चाहते हैं।

ऐसे मौके बीजेपी और पूरे संघ परिवार के लिए टोनिक का काम करते हैं। १९४७ में देश के बंटवारे और हाल के दो दशकों में इसी तरह की राजनीति से देश को छिन्न-भिन्न कर देने की कीमत पर ताकतवर होता गया संघ परिवार ऐसे धमाकों की इंतज़ार ही नहीं करता बल्कि ऐसी स्थितियां पैदा करने के लिए खाद-पानी भी देता है।

देखने में यह बेहद सामान्य और बेहद साफ़ बात है कि कोई भी सिमी-विमी किसी भी संघ-वंघ को और संघ-वंघ,सिमी-विमी को अपने-अपने अस्तित्व के लिए कितना जरूरी मानते हैं। दुर्भाग्य यह है कि सामान्य और साफ़ बातें देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहता आया है. यह देखने के लिए मूलगामी नज़र की जरूरत होती है, जो माइंड सेट को तोड़ सके. यह नज़र एक चेतना का हिस्सा होती है, जो इस तरह के धमाकों को किसी धर्म के लोगों से नफरत की शक्ल में नहीं देखने लगती बल्कि यह पड़ताल कर लेती है कि इस साजिश से क्या चीज बन रही है. सांप्रदायिक ताकतों से मूलगामी नजर के साथ लम्बी लड़ाई लड़ते रहे मार्क्सवादी आन्दोलन के ही बहुत से साथी इस चेतना के अभाव में जब-तब अजीबोगरीब बातें करते दिख जाते हैं (हाल में हुसेन के चित्रों को लेकर और असद जैदी की कुछ कविताओं को लेकर भी यह देखा गया). लिब्रेलिज्म की आड़ में तो वैसे भी साम्प्रदायिकता और तमाम तरह का फासीवाद इत्मीनान से पलता रहता है। ऐसे लिबरल गुडी-गुडी बातें करते हुए मजे से डेमोक्रेसी की दुहाई देते रहते हैं और मौका मिलते ही साम्प्रदायिक नफरत उनके पेट से बाहर आ जाती है.

हाँ जरूरी नहीं कि हर कोई एक मूलगामी नज़र पैदा करने की कुव्वत रखता हो, पर अगर उसमें वैल्यूज़ की गहरी जड़ें हैं तो भी वह सांप्रदायिक साजिशों का शिकार होने से बचा रह सकता है. नेहरू ने एक सेकुलर और प्रगतिशील समाज की लडाई लड़ी थी तो प्रगतिशीलता और वैल्यूज़ उनकी बड़ी ताकत थी लेकिन गाँधी अपने पिछडेपन के बावजूद इंसानी वैल्यूज़ में गहरी आस्था के बूते ही साम्प्रदायिकता के खिलाफ इतनी बड़ी लडाई लड़ सके थे. अगर मूलगामी नज़र और वैल्यूज़ दोनों ही न हों, तो फ़िर साम्प्रदायिकता ही क्या, जाति और जेंडर के सवालों पर भी कोई लडाई लड़ना मुमकिन नहीं हो सकता. हम देखें कि हम किस नज़र और किन वैल्यूज़ को लेकर फासीवाद से लड़ना चाहते हैं.

(पेंटिंग The Wolf at the Door; water colour on paper by Atul Dodiya`सहमत` से साभार)