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Tuesday, October 6, 2009

चिदम्बरम जैसे लोग सोफेसटिकेटेड माफिया हैं और बुद्धिजीवी खामोश हैं : आनंदस्वरूप वर्मा




सत्ता का दमनकारी चरित्र लगातार तीखा हो रहा है लेकिन खासकर हिन्दी पट्टी में `कोई फर्क नहीं पड़ता` जैसी स्थिति है। एकदम सन्निपात की स्थिति क्यों है? इमरजेंसी के दौरान दो-चार-दस दिन की खामोशी के बाद आन्दोलन की स्थिति बन गई थी और इसमें बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों की बड़ी संख्या थी। सीपीआई से जुड़े लोगों (चाहे वो नामवर सिंह हों या कोई भी सिंह हों या त्रिपाठी हों) की बात और है वर्ना विभिन्न धाराओं के बाकी लोगों ने इमरजेंसी का विरोध किया था। आज इमरजेंसी से भी बुरी स्थिति है। अब तो इमरजेंसी की घोषणा भी नहीं है लेकिन देश की जनता पर सेना से हमले की योजना बन रही है। वायु सेना अध्यक्ष ख़ुद हमले की इजाज़त दिए जाने का बयान दे रहा है। भारत जैसे लोकतंत्र में वायु सेना अध्यक्ष का इस तरह का बयान हैरानी भरा है। सेना ओपरेशन ग्रीन हंट पर काम कर रही है और एक महीने में माओवादियों के सफाए की योजना है। आखिर यह क्या संयोग है कि तमाम नक्सली गढ़ वही हैं, जहाँ खनिज सम्पद्दा है।

चिदम्बरम अब गृह मंत्री हैं, पहले वित्त मंत्री थे और उससे पहले वेदांत ग्रुप के डायरेक्टर थे। ऐसे क्रिमिनल, बदनाम ग्रुप के जो उड़ीसा के पर्वत बर्बाद कर चुका है और अब छतीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों को कब्जाना चाहता है। २००६ में चिदम्बरम की इस भूमिका को लेकर संसद में हंगामा भी हो चुका है। सत्ता माफिया तत्वों के हाथ में है। माफिया सिर्फ़ मुख्तार अंसारी या राजा भैया जैसे लोग नहीं हैं। चिंदबरम जैसे सोफेसटिकेटीमाफिया कोर्पोरेट के लिए आराम से लूट के अड्डे स्थापित करने में जुटे हैं। देश में ५५० सेज़ बनाने की योजना है। नंदीग्राम, कलिंगनगर, नंदवाडा, काशीपुर (उड़ीसा) आदि में आग माओवादियों की नहीं बल्कि टाटाओं, अम्बानियों, जिन्दलों की लगाई हुई है। सरकार कह रही है कि पूंजीपतियों के लिए सारी ज़मीनें खाली कर दो।

मीडिया कह रहा है कि आम जनता पिस रही है. आम जनता ही तो माओवादी है जो सरकार की नीतियों की वजह से पिस रही है. सत्तातंत्र की साजिशों को समझने की जरुरत है। विश्व बैंक के १९९० के एक दस्तावेज में राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया गया था, उसी के आधार पर सत्ता कोर्पोरेट सेक्टर के हाथों में जा रही है और सरकार का काम बतौर फेसिलिटेटर सेनाएं भेजकर जनता के विरोध को दबाना भर रह गया है. माओवादियों के दमन के नाम पर सेना भेजी जाती है, यह नहीं कहते कि सेना को मित्तलों, जिन्दलों की मदद के लिए भेजा जा रहा है.

१९९८ में आडवाणी ने कहा था कि नक्सलवाद को सबसे ज्यादा मदद बौद्धिक लोगों से मिलती है। तब चार स्टेट नक्सलवाद से प्रभावित बताये जा रहे थे. पाटिल गृह मंत्री थे तो ऐसे २०-२२ स्टेट बताते थे. उत्तर पूर्व के राज्यों और जम्मू-कश्मीर को मिलाएं तो संख्या करीब २८ होती है. फिर आप शासन कहाँ कर रहे हैं? दरअसल दमन के जरिये प्राकृतिक संसाधनों को कोर्पोरेट के हवाले करने के लिए हव्वा खडा किया गया. दमन बढ़ता गया तो जनता का विरोध भी फैलता गया.

किसी भी देश में ऐसी स्थितियां आयीं तो बौद्धिक वर्ग विरोध में अगली कतार में खड़ा नज़र आया। पर यहाँ ऐसा नहीं है। छतीसगढ़ एक्ट में माओवादियों के बारे में सोचना भी अपराध है। मान लीजिये आसपास के इलाके में ऐसी स्थिति होतीहै और लिखने-पढने वाला आदमी होने के नाते मैं इसकी पड़ताल करना चाहता हूँ, उसकी किसी बुकलेट को या इंटरनेट के जरिये उस बारे में अध्ययन करना चाहता हूँ तो मावोआदी बताया जाकर उत्पीड़न का शिकार बनाया जा सकता हूँ। या आज अचानक किसी संगठन को प्रतिबंधित कर दिया जाए और मैं उसका १० साल से सदस्य हूँ, कल मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए। हो सकता है कि जब साहित्यकारों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, वे तब खामोशी तोडें। यह ऐसा है कि क्रांति की कविताएँ-कहानियाँ लिखने वाला क्रांति की स्थिति दिखे तो चुप्पी साध ले।

(३ अक्तूबर को गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में जसम द्वारा आयोजित गोष्ठी में जैसा बोले )