Showing posts with label समाजवाद. Show all posts
Showing posts with label समाजवाद. Show all posts

Friday, May 1, 2009

मई दिवस


हैप्पी मे डे... इस एसएमएस से नींद खुली। सेम टू यू नुमा कोई उत्साह नहीं था बल्कि कुछ कोफ़्त सी ही थी। फिर तीसरे पहर तक ऐसे कई एसएमएस मिले और कई दोस्तों ने सीधे भी हैप्पी मे डे बोला। याद आया, कई बरस पहले करनाल में कई पब्लिक स्कूल्स से मे डे की कवरेज़ का इन्विटेशन मिला था तो मुझे अचरज हुआ था। इन स्कूलों में जाकर देखा तो कोई हैरानी नहीं हुई। मजदूरों से नफरत करने वाली बिरादरी के चोंचलों में भी खुली बेशर्मी झलक रही थी। मई दिवस के इतिहास की कोई झलक इन आयोजनों में होना मुमकिन नहीं था। कुल मिलाकर एक दया भाव का लिजलिजा प्रदर्शन था।
अब इन कुछ वर्षों में भी काफी कुछ बदल चुका है। जो ख़ुद को मजदूर बताकर लाल झंडे के नीचे इकठ्ठा होते थे और अपनी तनख्वाह और अपनी तमाम सुविधाएँ बढ़वाते चले जाते थे लेकिन हमेशा दक्षिणपंथी और पूंजीवादी ताकतों का ही साथ देते थे, वे वीआरएस पाकर बिजिनेस सँभालने में जुट गए।
हालाँकि यह पहले ही तय था। १९९० से पहले मुज़फ्फरनगर में बैंक कर्मचारियों के एक समारोह में जिस महानुभाव को बार-बार कोमरेड पुकारा जा रहा था, वह कुल मिलाकर शहर के पुराने (अंगरेजी ज़माने से ही) रईस खानदान के दरबार की सजावट बन जाता था। ऐसे लोग हर शहर में और हर सरकारी विभाग में थे, जो ताकत लाल झंडे से पाते थे और ताकत देते थे मजदूर विरोधी तबके को। बेशक इन लोगों ने बड़ी हड़तालें कराई थीं लेकिन आम असंगठित क्षेत्र के मजदूर या आम आदमी के लिए इन्होने कभी कोई मुट्ठी हवा में नहीं लहराई थी। आर्थिक हितों से इतर सच्चे मायने में समाजवादी लक्ष्य के लिए मजदूरों की समझ विकसित करने की किसी पहल की तो इस वर्ग से अपेक्षा ही नहीं थी. हैरत ये कि देश का पोपुलर वाम पक्ष इसी जमात की भीड़ को देर तक पलता-पोसता रहा.
बहरहाल हर तरह के भ्रम टूट चुके हैं. कदम - कदम पर पिटते दिहाड़ी मजदूरों और ठेके पर काम कर रहे मजदूरों की हालत कल्पना से परे है. अदालतों के फैसले भी बेहद निराशाजनक हैं. लेकिन मंदी के नाम पर मची बेशर्मी में वे भी घिघियाते घूम रहे हैं जो पूंजीवाद की महानता का डंका बजाते घूम रहे थे. इनमें मीडिया के लोग भी हैं जो काम के घंटों या दूसरे सम्मानजनक अधिकारों की बात करने के बजाय किसी भी तरह नौकरी बचाए रखने के लिए परेशान हैं. हैरानी कि बात यह है कि इन्हें फिर भी न बड़े शोषित तबके से कोई हमदर्दी होती है और न ही वे पूंजीवाद व उसके आका अमेरिका की कोई आलोचना सुनना चाहते हैं.
मई दिवस शिकागो के मजदूर नेताओं अलबर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, अडोल्फ़ फिशर, जोर्ज एंजिल, सैमुअल फीलडेन, लुईस लिंग्ग, माइकल श्वाब, ओस्कर नीबे आदि के महान ऐतिहासिक बलिदानों से जुडा है. सवाल यह है कि क्या शहादत की यह परम्परा इस बेहद जटिल दौर में नई संभावनाओं के लिए संघर्ष की राह विकसित करती रहेगी या समाजवाद महज स्वप्न बनकर राह जायेगा? शायद इस दौर में मायूसी और उम्मीद दोनों छिपी हुई हैं.
ऊपर फोटो शिकागो के शहीद Albert Parsons का है