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Sunday, June 10, 2012

हुसेन की पहली पुण्यतिथि और शर्मिंदगी गहरी -शिवप्रसाद जोशी



मक़बूल फ़िदा हुसेन को गुज़रे एक साल हुआ. कल्पना करें कि याद में एक खुली प्रदर्शनी लगाई है और हुड़दंगियों की धमकी भी आ गई है. वे कहेंगे हुसेन मत दिखाओ. आयोजन को भंग कर देंगे, हिंसा करेंगे. धमकाएंगें. फिर आने को कहेंगे. तो आप रस्मी तौर भी अगर हुसेन को याद करेंगे तो ज़रा देखसंभाल कर करना होगा. कहीं आपको या आपके आयोजन को चोट न आए. ये अच्छा हुआ और सोचिए कितना अच्छा हुआ कि हुसेन को यहां हिंदुस्तान में दफ़ना देने की कुछ नकली उत्साही प्रगतिशीलों की मांग न मानी गईं. वे कुछ कभी न करते अपमान हो जाने देते, मरकर भी पीछा करते रहने वालों के पीछे दुबक जाते या घर चले जाते. आवाजाही का ढोल बेशक बजता रहता. इस शोर में तो फेफड़े तक सिकुड़ जाते हैं. क्या ये महज़ किसी बीमारी का जानलेवा लक्षण है. 95 साल के हुसेन को फेफड़ों में संक्रमण हो गया था. बीमारियां और भी थीं. एक तरह का देश निकाला और अपमान- अफ़सोस और उदासी ने हुसेन को जकड़ लिया था.

हुसेन का कांटा इस राष्ट्र से निकल गया. जुनूनियों को ये सुकून हो चला था. लेकिन उसे हमारी सामुहिक स्मृतियों से कैसे निकालेंगे. उस बूढ़े दाढ़ी वाले नंगे पांवों वाले लंबी कूची हाथ में लेकर डोलते से रहने वाले शख़्स को. उसकी छवि ही समाई हुई है याद में ही नहीं परंपरा में लोक में कला में जीवन में मिट्टी में. कहां कहां से क्या क्या उखाड़ेगें. फेंकेंगे. उसके रंग तो जहांतहां बिखरे हैं. अपना पीछा करने वालों का पीछा अब हुसेन कर रहा है. अपनी उम्र से भी लंबी ख़ामोशी में और एक बहुत गहरी निश्चल नींद में.

ये करेंगे संवाद. हुसेन को देश छोड़ने पर विवश कर देंगे, उन्हें जान से मारने की फ़िराक में घूमेंगे और कहेंगे हम तो सभी विचारों सभी विवादों पर संवाद करने वाली जमात हैं. विराट हिंदु दर्शन के हम प्रतिनिधि. कितना नकली भोथरा और बेशर्मी से भरा हुआ समय है. अश्लील. सरेआम घिनौना. मंचों पर आवाजाही की बात करते हैं. कि बात बनेगी, नवसाम्राज्यवाद का मुक़ाबला होगा. विचारों की धूल छंटेगी. विचारों का विकास होगा. एक ही धुन में क्यों बोले चले जा रहे हैं. सांप्रदायिकता पर चोट करेंगे या छोड़ो कल देखते हैं कहेंगे. एक साल पहले देश के एक सम्मानित बुज़ुर्ग रचनाधर्मी के निधन की वजहें गिनने जाएंगे तो हमारी कायरता का भी नंबर आता है.

किस प्रतीक की रक्षा पहले करेंगे. धार्मिक या आस्था का भावनापरक होगा वो प्रतीक या वो आत्मा का प्रतीक होगा. नैतिकता का. मनुष्यता के प्रतीक की रक्षा होगी या नहीं. एक साल बाद कहां से कहां पहुंच गए हम. अग्नि पांच हो गई. आईपीएल पांच हुआ. इतने नामुराद घोटाले हो गए. चंद गिरफ़्तारियां और रिहाइयां हो गईं. सरकारें बदल गईं, अण्णा आंदोलन का मोह हुआ फिर भंग हो गया. बड़े हिस्से में लाचारी और वेदना बढ़ गई तो एक हिस्से में खुमारी और डकारें घनी हुई.

लिहाज़ा ऐसे इस बेरहम वक़्त में हुसेन की इस पहली पुण्यतिथि पर उनका ख़ामाख़्वाह शोक और भाषण न करें, आवाजाही रोक दें, ख़ातिर जमा रखें और कुछ इतना भर ऐसा करें कि हुसेन की बनाई छवियों को फिर से देखें दिखाएं, समझे समझाएं. हमसे छूटती जाती हुई मनुष्यता शायद इस तरह कुछ रुके. शायद हमारे पास ही रह जाए.
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(हुसेन की पहली पुण्यतिथि कल 9 जून को थी। शिवप्रसाद जोशी कई दिन पहले ही यह लेख मेल कर चुके थे पर मेल देरी से देख पाने की वजह से यह पोस्ट एक दिन की देरी से लगा पा रहा हूं।- धीरेश)

Sunday, June 19, 2011

बनी रहेगी हुसेन के निर्वासन की टीस : धर्मेंद्र सुशांत



मकबूल फिदा हुसेन नहीं रहे। देश से बाहर, लंदन में 9 जून 2011 को उन्होंने अंतिम सांस ली; इस समय वह भारत में नहीं थे, बल्कि एक आत्मनिर्वासित जिंदगी जी रहे थे। इसलिए उनकी मौत का शोक और भी गहरा हो जाता है। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में विवादों में जबरन घसीटे गए हुसेन निविर्वाद रूप से आधुनिक भारत के सबसे चर्चित कलाकार थे। उनकी दुनिया भर में ख्याति थी।
उनकी तारीफ में बहुत कुछ कहा जा सकता है, कहा भी गया है, लेकिन जो चीज उन्हें सबसे अलग बनाती थी, वह थी उनकी निरंतर प्रयोगधर्मिता और अनथक उत्साह। गोकि वे बुजुर्ग थे- जन्म उनका 1915 में हुआ था- और रिटायर होने की रस्मी उम्र के लगभग चार दशक बाद भी वे जिस जज्बे के साथ कला-कर्म में सक्रिय थे, वह लोगों को हैरत में डालता था।
साहित्य में नागार्जुन तात्कालिक परिघटनाओं और विषयों पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मशहूर रहे हैं।चित्रकला के क्षेत्र में हुसेन ने भी अक्सर अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं के तात्कालिक संदर्भ को अपनी कला का विषय बनाया। चाहे इंदिरा गांधी की हत्या हो, चाहे सफदर हाशमी की हत्या, चाहे सचिन तेंदुलकर का उभरना हो, चाहे सत्यजित राय को ऑस्कर मिलना या इमरेंसी की घटना हो या फ़ैज़ और मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व- हुसैन ने अनगिनत परिघटनाओं और व्यक्तियों पर रंग-ब्रश से टिप्पणी की; यह उनका एक विरल गुण था, जो शायद ही किसी कलाकार में देखने को मिले।
आजादी के आसपास कलाकारों की जिस जमात ने अपने को पूर्व की राष्ट्रवादी और पुनरुत्थानवादी कला-प्रवृत्तियों से अलग करने की पहल की थी, हुसेन उन्हीं में से एक थे। वे 1947 में गठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में सूजा, रजा,आरा, गायतोंडे और बाकरे के साथ थे। कहना न होगा कि आजादी के बाद के कला परिदृश्य के निर्माण में इस ग्रुप की लगभग केंद्रीय भूमिका रही है। साथ ही यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में यूं तो शामिल सभी कलाकार विलक्षण हैं, लेकिन इनमें हुसेन की व्याप्ति सर्वाधिक महसूस की गई- कला जगत में भी और इसके बाहर भी। चित्रकार कृष्ण खन्ना के शब्दों में वस्तुतः वह आधुनिक भारतीय कला का मरकज (केंद्र) बन चुके थे।
हुसेन का अहम योगदान यह है कि उन्होंने आधुनिक कला को आम लोगों तक पहुंचाया। यह हुसेन ही थे, जिनके बहाने अधिकतर लोगों ने जाना कि समकालीन दौर की चित्रकला जो है उसका मुकाम क्या है। यह हुसेन ही थे, जिन्होंने कला के संदर्भ में बाजार को समझा और उसका इस्तेमाल किया। बाजारवाद बुरी चीज है और इतनी बुरी चीज है कि लोग बाजार को ही बुरा मान लेते हैं। लेकिन जैसा कि कबीर ने कहा है, ‘अमरपुर में बैठी बजरिया सौदा है करना’- हुसेन ने बाजार से घबराने की बजाय सोच-समझकर उसे अपनी शर्तों पर साधा। वह इंदौर के एक बेहद साधारण और मुफलिस-से परिवार में पैदा हुए थे और बंबई में फिल्मों की होर्डिंग पेंट करने का मेहनत भरा काम भी किया- लेकिन वह यहीं नहीं रुके। वह अपनी कीमत जानते थे और उन्होंने इसे कबूल करवाया। हालांकि वह पैसे के पीछे पागल नहीं थे। मुफलिसी से आर्थिक वैभव हासिल करने के बावजूद जेहनी तौर पर वे उससे निर्लिप्त-से इंसान बने रहे। अपनी मर्जी के मालिक!
हुसेन ने चित्र बनाने के साथ ही फिल्मों और लेखन के जरिए भी अपने को अभिव्यक्त किया। उनकी आत्मकथा साहित्यिक पैमाने पर भी एक श्रेष्ठ कृति है और भाषा के स्तर पर भी। उन्होंने लोकप्रियता को कोई अछूत चीज नहीं माना। फिल्मी अभिनेत्रियों के सौंदर्य के प्रति उनका आकर्षण जगजाहिर है, जिनकी खूबसूरती को उन्होंने अपने कैनवस पर उतारकर नई अर्थवत्ता दी। मगर हुसेन की खासियत यह थी कि उन्होंने किसी भी दौर में अपनी कला में भारत की समृद्ध कला परंपरा को ओझल नहीं होने दिया। वह उसकी सामासिकता और विविधता के गहरे जानकार थे। लेकिन भारतीयता और देश के नाम पर
उन्होंने किसी संकीर्णता को कभी स्वीकार नहीं किया। एक कलाकार के बतौर वह पूरी दुनिया को अपना दायरा मानते थे। वह उन चुनिंदा कलाकारों में थे जिन्होंने भारतीय महाकाव्यों और मिथकों को
आधुनिक और कलात्मक संदर्भों में मौलिक अंदाज में रूपायित किया। लेकिन इसी सिलसिले में उन्हें सियासी विवाद में घसीटा गया। सांप्रदायिक शक्तियों- संघ, विहिप, भाजपा वगैरह ने उन पर हिंदू देवी-देवताओं को अश्लील रूप से चित्रित करने का आरोप लगाया। एक घृणित सांप्रदायिक-राजनीतिक रणनीति के तहत जिस तरह मुस्लिम समुदाय में जन्म लेने वाले लोगों को निशाना बनाया गया,
हुसेन भी अचानक एक हिंदू विरोधी मुसलमान बना दिए गए। एक सुनियोजित अभियान चलाकर उन पर देश के विभिन्न हिस्सों में दो और दस नहीं, सैकड़ों मुकदमे किए गए। उनके चित्र जलाए गए, प्रदर्शनियों पर हमले किए गए। हरिद्वार की एक अदालत ने तो सम्मन का जवाब न देने के कारण उनकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे दिया था और इंदौर की एक अदालत ने उनके खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था। जिन पर बाद में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी थी। 2006 में लंदन में भी हिंदू फोरम ऑफ ब्रिटेन ने उनके खिलाफ अभियान चलाया जिसके कारण प्रदर्शनी को रोकना पड़ा।
आज अपनी मृत्यु के बाद इन तथाकथित राष्ट्रवाद के ठेकेदारों को अचानक हुसेन महान भारतीय कलाकार लगने लगे हैं, इतिहास इन्हें इनके कुकृत्यों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सरकार के दूसरे लोग हुसेन की मौत को अपूरणीय क्षति बता रहे हैं, लेकिन इसी सरकार के पूर्व गृहमंत्री शिवराज सिंह पाटिल ने हुसेन को सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़नेवाला समझा था। नतीजतन हुसेन ने कतर की नागरिकता ले ली।
हुसेन का यह प्रसंग भारतीय लोकतंत्र के ऊपर लगातार मंडराते सांप्रदायिक-फासीवादी खतरों का ही स्पष्ट उदाहरण है।खैर, हुसेन ने मुखर होकर कभी भी सांप्रदायिक ताकतों का विरोध नहीं किया और न ही उन्हें इस लायक समझा कि अपनी कला के जरिए उनके प्रति प्रतिक्रिया या प्रतिरोध व्यक्त करते। वे चुपचाप अपनी मर्जी से सृजन करते रहे। कतर में रहे या जीवन के आखिरी दिनों में लंदन में, वे हमेशा सृजनरत
रहे। 95 साल की उम्र में भी उनका कला के प्रति उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ था।
हुसेन ने ताजिंदगी कला और देश के लिए अपना प्यार सुरक्षित रखा। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने जीवन के आखिरी दिन अपने देश में गुजारने की ख्वाहिश जाहिर की थी, जो पूरी नहीं हुई। यह भारत और उसकी समृद्ध कला को प्रेम करने वालों के लिए हमेशा एक टीस की तरह बनी रहेगी। समकालीन जनमत की ओर से इस महान भारतीय चित्रकार को हार्दिक श्रद्धांजलि!

Thursday, June 9, 2011

हम भारत के लोग और हमारा एक नागरिक हुसैन -शिवप्रसाद जोशी




इस देश के लिए इस वक्त की सबसे बडी शर्म क्या होगी कि जब देश का सबसे बडा चित्रकार इस दुनिया से विदा हुआ तो टीवी मीडिया और हमारे इस विराट मध्यवर्ग का ध्यान हरिद्वार और दिल्ली के बीच एक बहुत ही अजीब और जुगुप्सा भरी बहस पर टिका था जिसके सूत्रधार धर्म और राजनीति के बाबा सूरमा थे.

कैसी विचलित कर देने वाली खबर नौ जून 2011 की है कि मकबूल फिदा हुसैन नहीं रहे. देश से दूर कर दिए गए और कतर की नागरिकता लेने के लिए विवश कर दिए गए हुसैन हिन्दुस्तान लौटना चाहते थे. बाबाओं और ध्वज पताकाओं और विजय जुलूसों, ललकारों, नकली किस्म के अनशनों, नाना किस्म की प्रेस कॉफ्रेंसों भगवा और न जाने कौन से साजिश भरे रंगों से लोटती पोटती घबराती उखडती सरकारों उनके नुमायंदों सौदेबाज गुटों नक्कालों की रंगीनियों और रंगबाजियों के बीच सहसा तमाम रंगों से ऊपर उठता हुआ गहरी निराशा उदासी और अवसाद का रंग फनां हो गया. जैसे ये मानो कई रंग ही न हो. जैसे अफसोस का एक बहुत बडा छाता खुल गया हो और वो हमारे ऊपर से नहीं हटेगा.

हुसैन के लिए देश में रहना दूभर कर दिया गया था और देश से बाहर रहना उनके लिए दूभर था. वो गांव देहात के हिंदुस्तान के बेटे थे. उनकी कला इस देश की मिट्टी और तहजीब में घुली मिली थी. हिंदू हिंदू चिल्लाने वाली जमात क्या अब अपने कपडे फाडेगी कि हुसैन वहीं चले गए हैं जहां तमाम आराध्य रहते हैं.
हुसैन बाहर नहीं रहना चाहते थे. वो अपनी जिद से एक काम करने के लिए कतर की नागरिकता लेकर रहने भले लगे थे लेकिन वे एक जगह रहते कहां थे. पर उनका मन देश पर अटका हुआ था. देश के लिए उनकी तडप उनकी वेदना ने उन्हें कमजोर करना शुरू कर दिया था. वो हैरान थे कि आखिर वे लोग उनके और उनकी कला के बीच में कहां से आ गए जो तय करते थे कि कौन देश में रहेगा कौन नहीं. वे हैरान थे कि उन्हें किस आसानी से किस सामरिक रणनीति के साथ बाहर ठेल दिया गया.

नवउदारवाद के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक जुनूनों के आगे नतमस्तक हो जाने वाली सरकारें हुसैन को देश नहीं वापस बुला पाईं. केंद्र सरकार की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि हुसैन के खिलाफ जो अजीबोगरीब मुकदमे पूरे देश भर में न जाने कहां कहां दर्ज हैं उन्हें रद्द कराए, कोर्ट में दलीले दें और अपने सबसे बडे चित्रकार देश के सबसे बुजुर्ग रचनाधर्मी को मान सम्मान दे पाए.

एक बेशर्म और खतरनाक किस्म की चुप्पी है. टीवी पर लाइव है सुब्होशाम और हरिद्वार से बाबा लोग और मीडिया चीख रहे हैं. भगवा रंगों से टीवी स्क्रीन पटे हुए हैं. या वहां खादी के संदेहास्पद बना दिए गए रंग हैं. हुसैन के रंग इस पाताल से कोसों दूर है. ऐसा लगता है ये जगह अनैतिकता के मलबे से भरी हुई है.
आज जब हुसैन नहीं रहे और 96 साल की उम्र देहांत के लिए अस्वाभाविक नहीं है जाहिर है इसके लिए रोने पीटने की जरूरत भी नहीं है फिर भी फिर भी न जाने कुछ ऐसा लगता है कि हम जमीन के नीचे और गड गए हैं. हम भारत के लोग. हम ये कैसी हो गईं जिंदा कौमें.
-शिवप्रसाद जोशी

Saturday, April 3, 2010

लाल्टू की एक कविता : हुसैन सागर

(दिल्ली से हैदराबाद लौटते हुए)



नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
जहाँ हुआ है, ठीक ठीक किन कारणों से हुआ है, यह मुझे नहीं मालूम
पर सोचता हूँ कि हुसैन सागर पर आज शाम कोई न जाए

सागर के साथ हुसैन का जुड़ना हिंदुओं को नागवार लग सकता है
बीचोबीच बुद्ध की प्रतिमा होने पर
कोई मुसलमान परेशान हो सकता है कि हुसैन समंदर नहीं झील ही सही में ऐसा कैसे
बौद्धों की औकात मुल्क में कम ही है, उन्हें भी समस्या कोई तो हो ही सकती है
बाकी सब का भी रब या परम पिता ईश्वर कुछ कुछ तो कहला ही सकता है अपने भक्तों से

ऐ अप्रतिम विशाल नभ, ओ निर्मल, तू जो परंपराओं को सीने में लिए शाम अँधेरे चला गया
तूने तो हुसैन को दिखला दीं झील में समंदर की लहरें
अब बड़े वामपंथी कवि लेखक भी ढूँढ रहे जीवंत परंपराएँ और आस्थाएँ

और विशाल टैंकर ट्रक सब हिंद महासागर के पार कहीं फेंक आने हुसैन सागर को उठा ले जा रहे हैं
देखने वालों में से एक पूछता है कि आप रो तो खूब लिए हल नहीं बतलाते
एक हल है कि सुबह सुबह दो से चार ग्लास पानी पिया जाए
दिमाग को दुरुस्त रखा जाए
दूसरा यह कि हो जाए कविता गद्यमय
पर बंदूक चलानी सीखा जाए

तीसरा हल यह भी कि ऐलबर्ट आइन्स्टाइन को पढ़ा जाए
कि जितना आश्चर्य आस्थावादी विचारकों की भीड़ देखकर होती है आज
उतना ही हुआ था उस महान वैज्ञानिक को भिन्न कारणों से कभी गाँधी को जानकर

नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
मैं ऐलबर्ट आइन्स्टाइन बार बार पढ़ सकता हूँ।

Wednesday, March 10, 2010

हुसेन प्रकरण : क्या विष्णु खरे ने बूढ़े कन्धों से सेक्युलरिज्म का `भार` उतार फेंका? - धीरेश सैनी



विष्णु खरे को उनके `मित्र` ज़िद की हद तक सेक्युलर कवि-चिन्तक बताते रहे हैं। `लालटेन जलाना` समेत उनकी दो किताबें (कविता की) मैंने पढ़ी हैं और वाकई मुझ पर उनकी कई कविताओं का गहरा असर हुआ है। मसलन दिल्ली में मुसलमानों की हत्या के प्रसंग को लेकर उनकी एक कविता का। लेकिन इतवार (7 march, 2010 page 6)को जनसत्ता में चित्रकार हुसेन पर उनका लेख `अपने और पराये` पढ़ने के बाद मैं लगातार सोच रहा हूँ कि यह कविता क्या उसी विष्णु खरे ने लिखी है जिस विष्णु खरे ने यह लेख लिखा है या ये दोनों खरे कोई दो हमनाम लोग हैं या फिर इनमें से बाद वाला हमेशा से पहले वाले के भीतर ही रहता रहा है।

खरे अपने इस विशाल आकार वाले लेख की शुरुआत क़तर को (उस क़तर को जिसने हुसेन को नागरिकता दी है) उसकी औकात बताने से करते हैं कि उसकी औकात खरे के मौजूदा शहर दिल्ली के मयूर विहार इलाके से भी और कच्छ जिले से भी मामूली है। वो धनवान है पर उसकी हालत ऐसे इस्लामी धनपशु की है जो कला, प्रजातंत्र आदि मूल्यों से विहीन है और हुसेन के मुस्लिम होने के नाते किसी भी मुस्लिम देश का उन पर फ़िदा होना स्वाभाविक है। तो इस तरह विष्णु खरे प्रस्तावना से ही पाठक का दिमाग एक गहरी मुस्लिम घृणा से भर देना चाहते लगते हैं। इसके बाद वे बताते हैं -
`निसंदेह भारत में हुसेन पर संकट था और है- था इसलिए कि हिन्दू देवी-देवताओं और `भारतमाता` पर बनाए गए उनके चित्रों को लेकर जो धार्मिक दुर्भावनाएं भड़काई गईं और जो सैकड़ों मुक़दमे दायर किये गए उनमें बहुत कमी आई है- दुर्भावनाएं शायद कुछ ठंडी पड़ी हैं और मुकदमे कुल तीन बच रहे हैं। उच्चतर न्यायालयों ने हुसेन की कलाकृतियों पर लगातार एक उदार, सहिष्णु और प्रबुद्ध रुख अपनाया है। देश के सैकड़ों लेखकों, बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों, कलाकारों, सक्रियतावादियों और वामपंथी पार्टियों ने हुसेन का बचाव और समर्थन किया है। हुसेन के वकील अदालतों में मौजूद हैं, लेकिन संकट अब भी इसलिए है कि अपनी विवादित कृतियों में हुसेन हमेशा भारत में हैं और उन पर आपत्ति करने वाले, कभी भी, कोई भी आन्दोलन खड़ा कर सकने वाले साम्प्रदायिक तत्व तो इस देश में रहेंगे ही।`
तो यह चतुर शैली इस पूरे लेख की खासियत है जिसमें हुसेन के लिए भी और उनके किए पर भी पर एक साथ अफ़सोस किया जाता है। मतलब खरे यह नाप लेते हैं कि हुसेन के प्रति दुर्भावनाओं में कमी आ गयी है, शायद वे संघ प्रमुख के उस बयान से मुतमईन हों जिसमें उसने कहा है कि हुसेन के भारत लौटने पर उसे एतराज नहीं है। नरसिम्हा राव भी बाबरी मस्जिद पर इस जमात के बयान से पूरी तरह मुतमईन थे (मुझे नहीं पता कि खरे ने सोनिया, अर्जुन सिंह आदि की तरह राव को भी अपनी किसी कविता से निहाल किया हो) । खरे बताते हैं कि मुक़दमे कुल तीन रह गए हैं और पूरा बुद्धिजीवी समाज हुसेन के `बचाव` में मुस्तैद है। हालाँकि जिस हिंदी में खरे लिखते हैं, उसके ही बुद्धिजीवियों और अखबारों ने हुसेन के खिलाफ निरंतर अभियान चलाये हैं और इस घृणित मुहिम में वे `समाजवादी` भी शामिल रहे हैं जिनके नेता राम मनोहर लोहिया के कहने पर हुसेन ने राम और भारतीय मिथकों पर पेंटिंग्स की सीरीज शुरू की थी। क्या इस समय भी `बुद्धिजीवियों` के हुसेन विरोधी लेख और सम्पादकीय जारी नहीं हैं। दरअसल यह पैरा इस लेख में बाद में आये इस निष्कर्ष को प्रतिपादित करने के लिए है कि हुसेन भगौड़े हैं। बकौल खरे,` खुद हुसेन बौद्धिक रूप से कुछ दुर्बल, दुविधाग्रस्त और दोमुंहे लगते हैं`। ऐसा कुतर्क करने वाले कई लोग हैं जो इस आधार पर हुसेन का पक्ष लेना उचित नहीं मानते कि वे खुद `संघर्ष` नहीं कर रहे हैं। तो क्या अगर कोई शख्स `क्रांतिकारी` नहीं है तो उस पर साम्प्रदायिक हमला वाजिब हो जाता है। हुसेन जैसे विश्वप्रसिद्ध कलाकार तो क्या किसी भी सामान्य व्यक्ति पर किसी भी फासीवादी हमले का विरोध सेक्युलरिज्म या मनुष्यता की शर्त की तरह ही है। एक बार हबीब तनवीर ने कुछ ऐसा कहा था कि बेशक मैं सांप्रदायिक ताकतों से कला और सड़क दोनों जगह लड़ता रहा हूँ। हुसेन सड़क पर नहीं लड़ते तो उन पर हमले वाजिब नहीं हो जाते।

खरे हुसेन के कुछ `विवादित` चित्रों का जिक्र करते हुए कहते है - `दुर्भाग्यवश, न तो खुद हुसेन ने कोई स्पष्टीकरण दिया है और न ही उनके प्रशंसकों-निंदकों ने उनसे पूछा है.` मानो हुसेन के स्पष्टीकरण के बाद या उनकी `माफी` के बाद मामला सुखद हो जाता. मानो बाबरी मस्जिद पर दावा (जो कितना बचा है?) छोड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताकतें मुस्लिम प्रेम में डूब जातीं. मानो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद खरे हुसेन की मंशा को लेकर संतुष्ट हो गए हों. हालांकि खुद खरे भी इसका जवाब जानते हैं और इसी लेख में एक जगह वे कहते हैं, `हम जानते हैं कि हुसेन के क्षमा मानने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि एक ओर वे अपनी विवादित कृतियों को सिर्फ़ `रिग्रेट` करते हैं और दूसरी ओर हिन्दू साम्रदायिक तत्व एन-केन-प्रकारेण इस मसले को पुनर्जीवित करते रहेंगे.`

लेकिन बात इतनी सी नहीं है, पूरा लेख बार-बार हुसेन को कठघरे में खड़ा करता है और हुसेन को सीमा तय करने की नसीहत देता है. खरे कहते हैं, `कोई मुस्लिम भी हिन्दू देवी-देवताओं के अर्द्धनग्न चित्र देखना-दिखाना नहीं चाहेगा. पश्चिमी समाजों में भी नग्नता की एक आपत्तिजनक सीमा होती है. `कामसूत्र` और खजुराहो आदि की दुहाई देना व्यर्थ और हास्यास्पद है. ......अर्द्धनग्नता भले ही हमारे अखबारों और टैबलोइड्स में बिछी पड़ी हो, भले पश्चिमी मोडेल्स की उद्दीपक तस्वीरों में, हमारे किसी भी धर्म को मानने वाले समाज में उसकी स्वीकृति कहाँ है? यह प्रश्न अलग है कि हमें वैसा करना चाहिए या नहीं, लेकिन क्या हमने `कलात्मक` नग्नता को आम भारतीय को कभी समझाया? कलाओं या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाइयां देकर हम देश को उसकी सदियों की नैतिक, सामाजिक, धार्मिक वर्जनाओं से रातोंरात मुक्त नहीं कर सकते.` लेखक की मुसलमानों और हुसेन से घृणा बार-बार छलछलाती है. वे हिन्दू कट्टरवाद को बाकायदा `नैतिक` आधार देने को उतावले हैं -` विडंबना यह है कि `खुलेपन` की वह हिन्दू `संस्कृति` भारत में इस्लाम के आने के कारण ही लुप्त हुई- जब हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व या `आम जनता` हुसेन पर हमला करते हैं तो वे एक तरह से इस्लाम की ताईद ही कर रहे होते हैं`.

खरे यह भी याद दिलाते हैं कि `हुसेन सिर्फ़ शिया नहीं हैं, उनमें भी बोहरा उप-सम्प्रदाय से हैं, जिसकी आलोचना बोहरा बुद्धिजीवी असगर अली इंजीनियर करते रहे है और उन पर जानलेवा हमले हो चुके हैं. हुसेन अपने बोहरा सम्प्रदाय के वर्तमान दाइल मुतलक सैयदना मुहम्मद बुरहानुद्दीन की शबीह भी शायद नहीं बनाना चाहते. लेकिन अपनी एक फिल्म में अभिनेत्री तब्बू द्वारा अभिनीत किरदार को `नुरुन्न्लानूर` कहलवा कर, जो कुरान में अल्लाह का एक संबोधन है, वे अपनी उँगलियाँ जला चुके हैं और उन्हें मुस्लिम समाज से माफी मांगनी पड़ी है.` इस तरह खरे वे तमाम बातें करते हैं जो संघ और दूसरे हुसेन विरोधी करते ही रहे हैं. सीता और हनुमान के चित्र की वे बाकायदा विस्तार से बेहद-बेहद भड़काने वाली व्याख्या करते हैं और पूछते हैं - `क्या इसके लिए इन्साफ माँगना `अकलात्मक`, `हिन्दुत्ववादी`, `सावरकारी` फासीवाद है?` तुर्रा यह कि एक जगह वे यह भी जोड़ते हैं, `हुसेन का अधिकांशत: पक्ष लिया ही जाना चाहिए...`. उनका एक और मजेदार (?) वाक्य है, `बदकिस्मती यह भी है कि हमारे समाज में आधुनिक प्रबुद्धों और जनसाधारण के बीच एक लगभग अपार बौद्धिक खाई है...`. पूरा लेख पढ़कर यह बदकिस्मती शब्द ऐसा ही लगता है जैसा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आडवाणी के मुंह से कोई ऐसा ही पर्यायवाची निकला था.

वही बात फिर से कि इस लेख में ऐसा कुछ भी नया नहीं है जो हुसेन के प्रति नफरत फैलाने वाले कह न चुके हों, नया सिर्फ़ यह है कि यह उस बुद्धिजीवी ने लिखा है जो सेक्युलर जाना जाता है और जलेस और जसम जैसे संगठनों के मंच से आग उगलता रहता है. उसके मित्र उसे एक मसीहा बुद्धिजीवी के रूप में `खरे जी- खरे जी` मन्त्र पढ़ते हुए यहाँ-वहाँ उल्लेखित करते रहते हैं. शुरू में किया गया वही सवाल मुझे परेशान करता है कि यह खरे अचानक प्रकट हुआ है या खरे जी के भीतर हमेशा से था और वे बड़ी व्यथा के साथ सेक्युलर बने रहते आए हैं. अगर ऐसा है तो बूढ़े कन्धों से सेक्युलरिज्म का भार ढोते रहने की ज्यादती भरी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जैसे कि ९५ बरस के बूढ़े चित्रकार से अदालत दर अदालत धक्के खाने और कट्टरवादी ताकतों से गुत्थमगुत्था होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.

कुछ मित्रों का यह भी ख्याल है कि खरे के वामपंथी मित्रों के पास अब उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है और वक़्त की नजाकत को भांपकर उनकी `खोज` युवतर लेखक भी बाएं चलने का हुनर बताते-बताते दायें चलने लगे हैं तो खरे के लिए भी अपनी उपलब्द्धता विज्ञापित करना जरूरी था. अशोक वाटिका अपने गमले में सजने को उत्सुक पुराने पेड़ों को बोनसाई बना लेने में अक्सर गुरेज नहीं करती. यहाँ तो इस लेख में पांचजन्य तक को लुभा लेने की क्षमता है. खरे जी को शुभकामनाएं.

Thursday, February 25, 2010

हम शर्मिंदा हैं हुसैन



अखबार अभी कुछ देर पहले शाम को उठाया और सन्न रह गया. `द हिन्दू` की बोटम स्टोरी `M.F. Husain gets Qatar nationality` आपने तो सुबह ही देख ली होगी. जो हाल मेरा है, इस देश के महान सेक्युलर मूल्यों में विशवास रखने वाले हर नागरिक का होगा. कुछ नहीं सूझा, कबाड़ख़ाने वाले अशोक भाई को फ़ोन लगाया कि वहाँ ब्लॉग पे इस बारे में कुछ जाए पर फोन नहीं उठ सका. हम शर्मिंदा है कि इतने महान कलाकार को इस उम्र में दरबदर कर रखा है. कांग्रेस सांप्रदायिक शक्तियों के विरोध के नाम पर वोट चाहती है लेकिन उसकी सरकार में ऐसा जरा भी गंभीर प्रयास नहीं हुआ कि यह महान कलाकार इज़्ज़त के साथ देश लौट पाए. फिलहाल `द हिन्दू` की स्टोरी ही चिपका रहा हूँ. आप पाएंगे कि यहाँ एन.राम भी क्यूँ एन.राम हैं.

M.F. Husain gets Qatar nationality

N. RAM
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M.F. Husain, India’s greatest and most celebrated artist, has been conferred Qatar nationality - something that is very rarely given. The artist gave me this news from Dubai early Wednesday morning by reading out the few lines he had written on a black-and-white line drawing that he released to The Hindu.

“Honoured by Qatar nationality” but deeply saddened by his enforced exile and the need now to give up the citizenship of the land of his birth, which he has lovingly and secularly celebrated in his art covering a period of over seven decades. India does not allow dual citizenship, even though it has instituted the category of the ‘Overseas Indian Citizen.’ Mr. Husain will no doubt seek to acquire OIC status after completing the due procedures.

It is important to note that Mr. Husain did not apply for Qatar nationality and that it was conferred upon him at the instance of the modernising emirate’s ruling family.

Since 2006, when the Hindutva hate campaign against him escalated, Mr. Husain has been living in Dubai, spending his summers in London. He travels freely except to India, where he faces legal harassment and physical threats, with the system impotent and not committed to enabling his return. Though the Supreme Court has intervened on the right side, it was too little, too late. The Congress-led government, it is clear, has done no better than the preceding BJP-led governments in protecting Mr. Husain’s freedom of creativity and peace of mind.

Almost 95, the artist works a long day, producing large canvasses and life-size glass sculptures. Never has he been as commercially successful as he is today. His work now is mostly towards two large projects, the history of Indian civilisation and the history of Arab civilisation. The latter was commissioned by Qatar’s powerful first lady – Sheikha Mozah bint Nasser al Missned, wife of the emirate’s ruler, Sheikh Hamad bin Khalifa Al Thani. The works will be housed in a separate museum in Doha.

While being a rare honour, Mr. Husain’s impending change of nationality brings to a close one of the sorriest chapters in independent India’s secular history. Mr. Husain’s time of troubles began in 1996, after a Hindi monthly published an inflammatory article on his paintings of Hindu deities done in the 1970s. This led to a slew of criminal cases, filed in far-flung places, which alleged in the main that the artist had hurt the feelings of Hindus through his paintings. Mr. Husain estimates that there are 900 cases against him in various courts of India. He has been harassed by fanatical mobs. Exhibitions of his work have been vandalised. All this has created a fear of exhibiting his work in India.

I have personally accompanied Mr. Husain to court proceedings in Indore and have first-hand experience of the harassment and terror he faced from bigoted mobs. I received him in Mumbai on his return from the first of his temporary exiles and saw what insecurity and uncertainty this creative genius had to endure in rising India. It is ironical that a country whose religious art often portrays nudity and even overt sexuality, as in the case of the Khajuraho sculptures and the murals and frescoes of south Indian temples, has grown so intolerant as to drive into permanent exile its most famous artist.

I know no one more genuinely and deeply committed to the composite, multi-religious, and secular values of Indian civilisation than M. F. Husain. He breathes the spirit of modernity, progress, and tolerance. The whole narrative of what forced him into exile, including the shameful failure of the executive and the legal system to enable his safe return, revolves round the issues of freedom of expression and creativity and what secular nationhood is all about.

The conferment of Qatar nationality is an honour to Mr. Husain, to his artistic genius, and to the India-rooted civilisational values he represents. Nevertheless, it is a sad day for India.

Wednesday, September 16, 2009

हुसेन : गुरबत में हों अगर हम...





शान-ए-हिंद, तुझे सालगिरह मुबारक हो



गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में


समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा


-इक़बाल

Thursday, March 20, 2008

होली, हुसैन और नज़ीर


हुसैन दुनिया के बड़े चित्रकार हैं, पर वह हिंदुस्तान में पैदा हुए हैं, यहाँ की मिट्टी में पले-बढे हैं, और यही मिट्टी उनके चित्रों में ढंग-ढंग से खिल उठती है। भारतीय त्यौहार, मिथ और तमाम सांस्कृतिक अनूठेपन उनके यहाँ और भी ज्यादा जीवंत, और भी ज्यादा मानीखेज, और भी ज्यादा उत्सवधर्मी हो उठते हैं। जाहिर है, होली हिन्दुस्तान का एक निराला त्यौहार है-रंगों का त्यौहार. तो यह भी स्वाभाविक है कि रंगों के इस उस्ताद के यहाँ होली का उत्सव भी मिलेगा। उसकी एक बानगी होली के मौके पर आपके लिए- (इस अफ़सोस के साथ कि इस त्यौहार के मौके पर वो निर्वासन की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं, उन की वजह से जिन्होंने देश में खून की होलियाँ खेली हैं और जिन्होंने देश की तबाही के मंज़र के सिवा कभी कुछ नही रचा है )।
नज़ीर अकबराबादी भी हुए हैं एक शायर, इसी मिटटी के..होली की मस्ती का रंग उनके यहाँ भी निराला है..उसका भी लुत्फ़ लीजिये (अब क्या कीजे, वो मरहूम हैं, वर्ना `संस्कृति` के कोतवाल उन्हें भी देशनिकाला दिला देते ) ...
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली क

परियों के रंग दमकते हों
खूँ शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की

नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की

मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली क

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आप नजीर की होली यहाँ सुन भी सकते हैं-http://www.dhaiakhar.blogspot.com/