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Sunday, September 27, 2020

आलोचना की आलोचना : फ़ासीवाद सम्बंधी अंक पर कृष्ण मोहन की समीक्षा

 


पिछले दिनों नामवर सिंह पर हिन्दी के `विद्वानों` के ताबड़तोड़ लाइव कार्यक्रमों के दौरान किसी ने उनके संपादन में `आलोचना` का पुनर्प्रकाशन शुरू होने पर पहला अंक (फ़ासीवाद और संस्कृति का संकट') फ़ासीवाद पर केंद्रित किए जाने को उनकी प्रमाणिकता के तौर पर पेश किया था। इस अंक पर 2000 में छपी आलोचक कृष्ण मोहन की विस्तृत समीक्षा (उदारवादी भ्रमों का पुलिंदा - आलोचना का फ़ासीवादी अंक) पढ़ी। यह अंक `फ़ासीवाद संबंधी लेखों का दिशाहीन और भ्रामक ढेर` क्यों है, इस पर उन्होंने गंभीरता से विभिन्न लेखों के उदाहरण सामने रखते हुए विचार किया है। यूँ यह एक ज़रूरी बात है कि लेखक जैसा समझता है, उसे ईमानदारी से लिखे पर जैसा कि साहित्य की दुनिया का पावर स्ट्रक्चर है और जवाब में विमर्श के बजाय हिसाब चुकता करने का रिवाज़ है, एक साथ इतने सारे प्रभावशाली और फ़ितरती लेखकों से बेबाकी के साथ तीखी असहमति व्यक्त करन साहस की बात है।

बेहतर तो यह होता कि इस लेख से एक के बाद एक कई हिस्से यहाँ उद्धृत करता या पूरा लेख ही यहाँ देता। फ़िलहाल, लंबा टाइप न कर पाने की स्थिति से यह संभव नहीं है। आलोचना के फ़ासीवादी अंक में एजाज़ अहमद के एक पूर्व प्रकाशित लेख को भी शामिल किया गया था जिसे कृष्ण मोहन सबसे महत्वपूर्ण और विचारणीय मानते हैं और पर विस्तार से बात करते हुए अपनी असहमतियां भी जताते हैं। लेकिन खिन्नता पैदा करने वाले वे हिस्से हैं जिन्हें हिन्दी के विद्वानों के लेखों से लिया गया है। यह अंक `आलोचना` का है लेकिन जो विशेषांक लेखक संगठनों द्वारा निकाले जाते रहे हैं, उनमें भी यही लेखक अपनी फ़ासिस्ट समर्थक, कम्युनल, सेमी-कम्यूनल या सवर्ण अवधारणाओं के साथ उपस्थित रहते आए हैं और सर्व-स्वीकार्य रहे हैं। कृष्ण मोहन इस अंक के संपादक और प्रभाष जोशी के `रेनेसां पर्सन` नामवर सिंह की `मासूम` शिकायत का ज़िक्र भी करते हैं कि पटेल तो नेहरु की बात मान लेते थे पर अटल की बात आड़वाणी नहीं मानते। जसम के विचारक रविभूषण आरएसएस द्वारा ही पेश किए जाते रहे जुमले `वस्तुत; संघ परिवार जिस `हिन्दुत्व``को धर्म मानता है, वह एक जीवन-शैली है`, दोहरा रहे हैं उनके लेख से ऐसे वाक्य उद्धृत कर कृष्ण मोहन जो सवाल उठाते हैं, वे असल में हिन्दी के पूरे बौद्धिक समाज से हैं। प्रभाष जोशी फ़ासीवाद से लड़ने के लिए सनातन धर्म का सहारा लेने और संघ के स्वयंसेवकों से प्रेरणा लेने की सीख देते हैं।

खगेंद्र ठाकुर के लेखन का अद्भुत कमाल तो जलेस के `1857 पर आए विशेषांक` में देखा था। भारतेंदु की जिन पंक्तियों को फेरबदल कर रामविलास शर्मा ने 1857 से जोड़ दिया था, उनका असल रूप वीरभारत तलवार सप्रमाण हिन्दी वालों के सामने रख चुके थे पर खगेंद्र ठाकुर ने उन्हें बदले हुए रूप में ही इस्तेमाल किया। अकारण नहीं कि ऐसे झूठे उद्धरणों और विवादित अवधारणाओं से भरा वह (खगेंद्र ठाकुर का) लेख, उस अंक के कुछ बेहतरीन लेखों का प्रतिपक्ष ही था। फ़ासीवाद सम्बंधी `आलोचना` में छपे खगेंद्र ठाकुर के लेख से कृष्ण मोहन ने कुछ उद्धरण देते हुए लिखा है,-

``खगेंद्र ठाकुर और उनके भाकपाई मित्रों की यह पुरानी कमज़ोरी है कि वे शासक वर्ग से बार-बार उसका अंध-राष्ट्रवादी हथियार उधार मांगते हैं ताकि वे उनसे भी बड़े `राष्ट्रवादी` दिखें और एक ही झटके में पूरे राष्ट्र के नेता बन जाएँ।``

राजकिशोर के लेख से उद्धृत अंश देखिए- ``दुर्भाग्य यह है कि इतिहास फ़ासीवादियों के साथ है। भारत में मुस्लिम शासन के बारे में सेकुलरवादियों का नज़रिया साफ़ नहीं है। वे यह नहीं देख पाते कि शासन जैसा भी रहा हो, मूलत: एक अल्पसंख्यक शासन था। भारत की बहुसंख्या हिन्दुओं की थी, अत: यहाँ का सामंतवाद भी हिन्दू सामंतवाद होना चाहिए।``

इस पर कृष्ण मोहन टिप्पणी करते हैं-

``मध्यकाल के बारे में औपनिवेशिक इतिहास लेखन की इसी साम्प्रदायिक दृष्टि में साझा करने के कारण उदारवाद अपने को कट्टरवाद के सामने कुंठित पाता है। उसे लगता है कि एक बार इस दृष्टि को सर्वस्वीकृति मिल जाए तो वह अपने ही जैसे उदार हिन्दू मन को भूल जाने और माफ़ करने के लिए मना लेगा। उसका सरल चित्त यह नहीं समझ पाता कि वह जितनी बार इस झूठ को शिरोधार्य करता है, उतनी ही बार कट्टरवादी शक्तियों को बल प्रदान करता है। उसकी वह मांग संघ परिवार की उस बुनियादी मांग से अलग नहीं है कि अगर अयोध्या, काशी, मथुरा पर उनका दावा मान लिया जाए तो वे बाकी मसले छोड़ देंगे। सामंतवाद सिर्फ़ सामंतवाद होता है। वह हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता। और वह अनिवार्यत: अल्पसंख्यक का शासन होता है। राजकिशोर आधुनिकता की बातें बहुत करते हैं लेकिन धर्म के परदे के पार कुछ देख नहीं पाते। उनकी उदारता उन्हें बहुसंख्यकवाद की वक़ालत तक ले जाती है जो फ़ासीवादियों का एक प्रिय तर्क है। वे इतिहास की न्यूनतम आवश्यक छानबीन भी नहीं करते वरना उनके विश्वास भी ख़ुद ब ख़ुद खंडित हो जाते। संख्या की दृष्टि से उन्हें लगता है कि शासन तंत्र में मुसलमानो का बहुमत होता होगा जबकि मध्यकाल के सबसे मजहबी माने जाने वाले शासक औरंगेजेब के समय उसके सामंतों में लगभग अस्सी प्रतिशत हिन्दू थे।``  

कृष्ण मोहन के लेख से ही हमें विष्णु खरे के इस `जागरूक समर्थन` का पता चलता है - ``सिनेमा, टी.वी. में भारतीय मानव-मूल्य बनाए रखने का बीजेपी का नारा भी प्रबुद्धता से फ़ासिज़्म-विरोध के पक्ष में लेने में कोई हर्ज नहीं है। उनका हिंसा और सेक्स में डूबी अमेरिकी फिल्मो के विरोध का हमें जागरूक समर्थन करना चाहिए।``

खरे के इस आह्वान पर कृष्ण मोहन लिखते हैं, ``इसे कहते हैं प्रबुद्धता और जागरूकता। सिनेमा में `भारतीय` मूल्यों को बचाने के भाजपाई नारे का समर्थन! हिंसा और अश्लीलता अमरीकी मूल्य हैं, भारतीय समाज में हिंसा और अश्लीलता कहाँ। भारतीय संस्कृति के स्वयंभू, लंपट ठेकेदारों के सुर में सुर मिलाने वाले खर साहब किसे धोखा देने चले हैं। सवाल यह है कि भारतीय फ़ासीवाद के सांस्कृतिक एजेंडे का समर्थन करने वाला यह लेख कहीं आलोचना की संपादकीय नीति का हिस्सा तो नहीं है।``

जाहिर है कि इस अंक के संपादक नामवर सिंह की नीति तो कहीं ज़्य़ादा भयानक रही ही है। खरे के बाद के हुसेन पर लिखे गए हमलावर लेख को `अरे, उन्हें क्या हुआ` कहकर हैरान होने वालों को इस टिप्पणी में उनके दिल-दिमाग़ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। मीर पर उनके लिखे को भी। इस टिप्पणी में उनके तर्क के आधार पर तो यह भी लगता है कि वे आज होते तो बॉलीवुड में दीपिका वगैराह के ख़िलाफ़ चल रही कार्रवाइयों के `जागरूक समर्थन` में भी खड़े मिल सकते थे।

भगवान सिंह हिन्दी के वामपंथियों के प्रिय लेखक रहे हैं और अपने खुले साम्प्रदायिक लेखन के बावजूद अभी भी हैं। नामवर के फ़ासीवाद सम्बंधी अंक में वे न हों और अपने इसी रंग में न हों तो इस अंक की सार्थकता ही भला क्या होती? कृष्ण मोहन लिखते हैं-

``भगवान सिंह ने अपने लेख में मार्क्सवाद को दुनिया का सबसे नया, वैज्ञानिक और प्राधिकारवादी धर्म माना है तथा `एक ही सामाजिक वातावरण में उपजे होने के कारण` इसे ईसाइयत औऱ इस्लाम के समतुल्य कहा है। साम्प्रदायिकता की आलोचना करने के लिए उन्होंने मार्क्सवादियों की खिंचाई की है। उनका ख़याल है कि इसी वजह से साम्प्रदायिक पार्टियों की ताक़त बढ़ी है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को वे दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं, लेकिन `राजनीतिक लाभ` के लिए उसकी बरसी मनाने को उससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण। वे मुसलमानों को भारत में अल्पपसंख्यक नहीं मानते और चिंता व्यक्त करते हैं कि अगर यही रवैया रहा तो भारत में ख़ुद हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे। यह लेख शुरू से अंत तक ऐसी ही भ्रामक अवधारणाओं और आत्ममुग्ध लफ़्फ़ाज़ी से भरा पड़ा है।``

असल में भगवान सिंह के लेख की ये अवधारणाएं और `आत्ममुग्ध लफ़्फ़ाज़ी` उनकी अपनी हैं ही नहीं। `मार्क्सवाद भी ईसाइयत और इस्लामियत के समतुल्य धर्म है` या `भारत में ख़ुद हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे` जैसी बातें आरएसएस के प्रचारकों के `बौद्धिकों` में प्रमुखता से बताई जाती रही हैं। यहाँ तक कि ऐसे वचनों की कवरेज मैंने ही कई बार की है। यह बात अलग है कि हिन्दी के वामपंथी कवि-लेखक यह जानना-मानना नहीं चाहते हैं।

एक ज़माने के वामपंथी और साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यशालओं के आयोजक पुरुषोत्तम अग्रवाल इन दिनों मुख्य रूप से कबीर विशेषज्ञ हैं। नामवर सिंह पर लाइव श्रृंखला में ही कुछ महीने पहले रामजन्मभूमि शिलान्यस की वेला में उन्होंने घोषणा की थी कि `गुरुजी` की इच्छा के अनुरूप उनकी अगली किताब तुलसी पर होगी। यूँ, कबीर भी उनके लिए तुलसी ही हैं। इस बात को आलोचना के फ़ासीवाद अंक के कबीर खंड में छपे पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेख पर कृष्ण मोहन की यह टिप्पणी पढ़कर समझा जा सकता है-

पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर की कविता को दलितों की पहचान के साथ जोड़ने को अस्मितावाद क़रार देते हुए उसे मूलत: आध्यात्मिक अनुभव की कविता कहते हैं। ``कवि कबीर की संवेदना का सत्य है वह अमरलोक जिसकी कसौटी पर वे जगत के तथ्य को कसते हैं…इस असीमित ब्रह्मांड में अपनी असीमित सत्ता के साथ होने का अनुभव;इस सीमित सत्ता के निस्सीम ब्रह्मांड के साथ सम्बद्ध होने की महिमा का अनुभव। ` `शंभुनाथ ने अपने लेख में समग्र का अंश होने के जिस अनुभव को सामाजिक अनुभव माना है और कबीर की कविता की रहस्यवादी व्याख्या से इनकार किया है, उस श्री अग्रवाल अध्यात्म की चाशनी में लपेटते हैं। इसका नतीज़ा निकालते हुए वे कहते हैं, ``कबीर अपने ख़ास दो-टूक ढंग से बताते हैं कि अनुभव का अपरिहार्य, अंतिम सत्य है मृत्यु। एक नाम-अनाम ही नित्य है बाक़ी सब अनित्य।`` श्री अग्रवाल ने अपने लेख में जिन यथास्थितिवादी आचार्यों को बार-बार कबीर निंदा का दोषी ठहराया है उनका भी विरोध कबीर के सामाजिक सरोकारों से ही था। हाँ, वे इतने कुशल अवश्य ही नहीं थे कि कबीर के नख-दंत तोड़कर उन्हें अपने ब्राह्मणवादी प्रोजेक्ट में शामिल करने की सोचते।

`परख` में छपा यह लेख `आलोचना` में छपता तो क्या हिन्दी विद्वानों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों का नज़रिया अपने इन विद्वानों को लेकर कुछ अलग होता? नहीं, क्योंकि ऐसी बातें या तो कही नहीं जातीं और कही जाती हैं तो उन पर चर्चा नहीं की जाती। यह भी कह दिया जाता है कि ऐसी बातें लड़ाई को कमज़ोर करती हैं। हालांकि, रघुवीर सहाय की पंक्ति ``अगर वही हो तुम जिससे तुम लड़ते हो तो लड़ते क्यों हो`` उनके सामने होती है। इस लेख का महत्व यही है कि बातें कही ज़रूर गई थीं। नामवर सिंह और उनके संपादन में निकले उस अंक की याद में `आलोचना` के वर्तमान संपादक चाहें तो इस लेख को अब प्रकाशित कर सकते हैं।

Saturday, May 5, 2018

नामवरी में कोई कमी नहीं - धीरेश सैनी



प्राइम टाइम में नामवर
रवीश कुमार की वजह से एनडीटीवी इंडिया कई मामलों में अनूठा है। 4 मई 2018, शुक्रवार रात के प्राइम टाइम में हिंदी के किसी बड़े साहित्यकार को देखना इस दौर के लिहाज से कोई मामूली बात नहीं थी। अमितेश ने हिंदी आलोचना के `शीर्ष पुरुष` कहे जाने वाले 90 पार के नामवर सिंह से उनके घर जाकर बड़ी विनम्रता के साथ बातचीत की थी जिसे दिखाने से पहले रवीश ने भी नामवर के नाम पर पूरे सम्मान और विनम्रता के साथ रोशनी डाली। मीडिया घरानों में जब `हिंदी साहित्य और विचार` से नाक-भौं सिकोड़ने का चलन हो तब एक बड़े हिंदी पत्रकार का एक वरिष्ठ-बुजुर्ग हिंदी साहित्यकार के प्रति ऐसा भाव सुखद था। रवीश जेएनयू में `धोती-धज-बनारस` को लेकर अतिशय भावुक भी थे और नामवर की रीढ़ को लेकर अतिश्यक्ति में भी। उन्होंने कहा, ``नामवर की पीठ और रीढ़ आज भी उसी तरह तनी हुई है जैसे स्टील की बनी हो।`` 90 साल की स्टील की यह रीढ़ केंचुए की तरह लिजलिजी होकर केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा से `बूढ़े बैल` का खिताब व `संरक्षण` की आशवस्ति पा रही थी और मैनेजर पांडे इस `महान` निर्लज्ज परंपरा का सच्चा अनुयायी होने का परिचय दे रहे थे तो तब आलोचना से भक्तमंडली अग़र थोड़ा-बहुत आहत हुई होगी, अब रवीश के शब्दों से तर गई होगी।

हमारा ईश्वर उनसे कमज़ोर है?
बहरहाल, 90 पार के नामवर सिंह को देखना `भारतीय परंपरा` के लिहाज से किसी पुरुष के इस आयु में इस तरह स्वस्थ और चेतन दिखाई देने पर आनंदित होने जैसा रहा। वे धीमे-धीमे चल पा रहे थे। आवाज़ मद्धम पड़ जाने के बावजूद बिल्कुल पुराने अंदाज़ में शेर सुना रहे थे, गीत के बोल उद्धृत कर रहे थे। उन्होंने बेशक एक लंबा सफल, निर्द्वंद्व, सदैव सत्ता समर्थक, सुविधावादी, करियरवादी जीवन जिया है पर ऐसी ज़िंदगी जीने वाले भी इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अक्सर स्मृतिलोप का शिकार हो जाया करते हैं या बहकी-बहकी बात करने लग जाते हैं। यह सुखद आश्चर्य की बात थी कि नामवर पूरी तरह चेतन दिखाई दे रहे थे। उन्होंने कहा भी कि ``भगवान की कृपा से मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है। पढ़ी हुई किताबें याद हैं।`` वाकई, उनकी बातों में उनकी जानी-पहचानी `वैचारिक परंपरा` और `प्रतिबद्धता` खुलकर अभिव्यक्त हुई। आश्चर्य नहीं हुआ, जब उन्होंने साक्षात्कार ले रहे अमितेश से ही जोर देकर सवाल किया, ``हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से (उन लोगों के ख़ुदा से) कमज़ोर है? ख़राब है?``

स्टील की रीढ़, मनुष्य की रीढ़ 
इस उम्र में भी यह पुरुष उतना ही निर्लज्ज और सामप्रदायिक है, ऐसा कुछ सोचकर मैं तो सो गया था पर यह सब लिखने की वजह सुबह वॉट्सएप पर एक मुग्ध भक्त का भेजा लिंक रहा। रात के कार्यक्रम का लिंक भेजते हुए, उसने अद्भुत-अद्भुत करते हुए `नामवर जी` की बेबाकी के कसीदे भी काढ़ रखे थे। ख़ैर, उसे बताने के लिए ही कि ऐसी बेशर्म और निरापद बेबाकी तो नामवर के यहां हमेशा ही रही है, कुछ बातें दोहराना ज़रूरी लग रहा है। सबसे पहले नामवर से बातचीत की प्रस्तुति से पहले रवीश की भूमिका की विनम्र शुरुआत, ``मैं हिंदी साहित्य का व्यक्ति नहीं हूँ। साहित्य से बहुत दूर भी नहीं हूँ और बहुत पास भी नहीं रहता। मगर इस बात का अहसास जरूर रहा कि हिंदी के पास दो ही चीज़ें श्रेष्ठ हैं- हिंदी भाषी मज़दूर और हिंदी के साहित्यकार। यही हमारे हीरो हैं।`` मज़दूरों के प्रति पक्षधरता की कोशिश मेरी भी रही है और अरसे तक साहित्यकार अतार्किकता की हद तक मेरे लिए हीरो रहे हैं। दिलचस्पी अब भी है पर नायक-पूजा का पुराना भाव नहीं बचा है। रवीश तो हिंदी साहित्य के व्यक्ति हैं। किताब भी आ चुकी है और बतौर पत्रकार फिलहाल उनकी जो भूमिका है, किसी सच्चे लेखक, पत्रकार और मनुष्य की भूमिका वही होनी चाहिए। `स्टील की रीढ़` वाले हजार नामवरों के मुकाबले अपने लिए रवीश की यह `मनुष्य की रीढ़` सम्मान के काबिल है।


हे ईश्वर!
``हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से (उन लोगों के ख़ुदा से) कमजोर है? ख़राब है?``
नामवर कहते हैं, ``उम्र अब 90 के पार है हमारी। जी गए, ये भगवान की कृपा है।`` अमितेश कहते हैं, ``अब लोग कहेंगे कि आप भगवान को याद कर रहे हैं। आप तो सर किसी ज़माने में कम्युनिस्ट और प्रगतिशील...।`` नामवर - ``मुहावरा है ये।`` अमितेश- ```मने किसी न किसी को तो धन्यवाद कहना है...।`
नामवर- ``वो ही। किसी के मुंह से निकलता है, माय गॉड। निकल जाता है न? या ख़ुदा। मुसलमान कहता है। कहता है न? कहते हैं न? बोल पड़ते हैं न, ऑह माय गॉड, या ख़ुदा? तो हम हे ईश्वर कहते हैं, तो क्या बुरा? (हमारा) ईश्वर कोई उन लोगों से कमज़ोर है? ख़राब है? तो इसलिए, हे ईश्वर।``
नामवर सिंह कहते कि उन्हें भगवान में विश्वास है तो भी कोई बुराई नहीं थी। मान सकते थे कि ठीक है, वे सीपीआई पर आजीवन लदे रहे, चुनाव लड़े और प्रगतिशील लेखक संघ के भी अगुआ (अगवा?) रहे पर भगवान की परिकल्पना को लेकर आस्तिक रहे। वे  कहते कि आदतन जबान पर चढ़ा मुहावरा है तो भी ठीक। लेकिन, वे यहां मुसलमानों को लाते हैं। `माय गॉड` और `या ख़ुदा` से `हे ईश्वर` को तौलते हैं और कहते हैं, `` हमारा ईश्वर कोई उन लोगों से कमज़ोर है? ख़राब है? तो इसलिए, हे ईश्वर।``

शीर्ष पुरुष की परंपरा 
यह `हिंदी की परंपरा` के `शीर्ष पुरुष` का `सुसंगत` और `तार्किक` कथन है। (कोई चाहे तो जैसा कि नामवर के मामले में आम हिंदी वालों और अधिकतर प्रगतिशीलों का चलन है, मुग्ध भाव से इसकी भक्ति भरी व्याख्या में गोते लगा सकता है।) नामवर से बातचीत के दौरान उनके लिए जो पट्टियां चलाई जा रही थीं, उनमें एक पट्टी थी- `भारतीय भाषा केंद्र की स्थापना की`। संयोग नहीं है कि नामवर की इस बातचीत में छलक रही साम्प्रदायिक घृणा जेएनयू के उस केंद्र में उनकी भूमिका में भी इसी तरह छलकती रही थी। अव्वल तो जिस तरह उन्हें केंद्र का संस्थापक घोषित कर दिया गया, वह एक कोरा झूठ है। इस केंद्र में नामवर सिंह के पदार्पण से पहले इसका ब्लू प्रिंट ही तैयार नहीं हो चुका था बल्कि छात्रों का पहला बैच भी मौजूद था। नाम से ही बड़े फलक वाले भारतीय भाषा केंद्र (सेंटर ऑफ इंडियन लेंग्वेजेज) की शुरुआत मोटे तौर पर हिंदी-उर्दू के केंद्र के रूप में हुई थी। दोनों भाषाओं का एक कॉमन पेपर भी तैयार किया गया था। इस दौरान नामवर सिंह का रुख न तब और न अब कोई छुपी चीज़ रहा है। उनकी खुली भूमिका इस केंद्र में भाषाई साम्प्रदायिक घृणा के आधार पर दरार डालने की थी। वे कॉमन पेपर को क्रेडिट कोर्स न होने देने पर आमादा थे और केंद्र के `पाकिस्तान` बन जाने तक की टिप्पणी करने से नहीं चूके थे। लेकिन, तब जमाना जरा कुछ और था और रेक्टर मुनीस रज़ा से लेकर स्टूडेंट्स तक उनसे सहमत नहीं थे। नामवर के रवैये को लेकर बाद की पीढ़ी के जिस किसी को कोई शक हो, वह `हंस` में नामवर का लिखा `बासी भात में ख़ुदा का साझा` भी तलाश कर पढ़ सकता है। आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र शर्मा आदि काफी लेखकों ने तब नामवर को कड़े जवाब भी दिए थे।

तिकड़म, पतन और पतन
बहरहाल, उस भारतीय भाषा केंद्र जिसकी स्थापना का श्रेय नामवर सिंह को दिया गया, उसमें उनके आगमन की कथा भी भ्रष्टाचार का कोई मामूली उदाहरण नहीं है। असल में यह `गिव एंड टेक` अपॉइंटमेंट था। जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में अपनी नियुक्ति से पहले नामवर सिंह को सावित्री चंद्रा को रीडर नियुक्त करने के लिए जोधपुर से बुलाया गया था। सावित्री चंद्रा की एकमात्र योग्यता यह थी कि वे यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन सतीश चंद्रा की पत्नी थी। इस तरह की नियुक्ति के लिए जेएनयू और यूजीसी दोनों पर ही लानत है और इस तिकड़म में शामिल नामवर पर भी। जेएनयू के इस प्रतिष्ठित भारतीय भाषा केंद्र का दुर्भाग्य था कि उसके पहले ही बैच के लिए ऐसी रीडर को नियुक्त कर दिया गया जो पढ़ा ही नहीं सकती थी। नामवर को इससे क्या, उन्हें तो यूजीसी के चेयरमैन और जेएनयू प्रशासन को एक साथ उपकृत करने का मौका मिल गया और सौदेबाजी के रूप में इस केंद्र में प्रफेसर बनकर आ गए। क्या इस बात से नामवर के भक्त भी इंकार कर सकेंगे कि पढ़ा पाने में पूरी तरह अयोग्य-अक्षम सावित्री चंद्रा को लेकर छात्रों को आंदोलन चलाना पड़ा और नामवर सिंह बेशर्मी से छात्रों के खिलाफ खड़े हो गए। इसी केंद्र में उनके हाथों एक ऐसी नियुक्ति (चिंतामणि) से भी सभी वाकिफ हैं जिसकी योग्यता नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी का मकान तैयार करना थी। अफसोस कि हिंदी के इस `शीर्ष पुरुष` का जीवन ऐसी ही तिकड़मबाजियों, मुखर और योग्य छात्रों के उत्पीड़न, सत्ता के साथ खड़े होकर प्रतिरोधी परंपरा के दमन, वामपंथ के साथ गलबहियां करते हुए दक्षिणपंथी रास्ते के निर्माण जैसी नीच हरकतों से भरा पड़ा है जो इतना कामयाब है कि उसे किंवदंती की तरह पेश कर वैसा होने की चाह रखने वालों की कमी नहीं है।

पावर स्ट्रकचर के साथ
जेएनयू में भारतीय भाषा केंद्र की शुरुआत का दौर ही देश में इमरजेंसी का दौर भी है। सौभाग्य से जेएनयू ने और उसके हिंदी-उर्दू के भी बहुत से स्टूडेंट्स ने करियर की परवाह किए बिना दमनकारी सत्ता से लोहा लिया था। नामवर सिंह उस समय सत्ता के साथ खड़े थे। जब छात्रों की धरपकड़ के लिए जेएनयू में पुलिस के छापे लगा करते थे, नामवर सिंह अपनी तिकड़मों को निर्विरोध संपन्न करने के लिए छात्रों को गिरफ्तारी का भय दिखाया करते थे। उनका यह अवसरवाद और पावर स्ट्रकचर के साथ खड़े होने की आदत हमेशा बनी रही। वे इतने, इतने, इतने बड़े थे कि शीर्ष पुरुष थे और शीला संधु के जमाने से ही हिंदी के `शीर्ष प्रकाशक` के प्रिय थे। पर क्या मजाल कि वे कभी प्रकाशक और लेखक के बीच किसी मसले में लेखक के साथ खड़े हुए हों! हिंदी के `शीर्ष पुरुष` और `शीर्ष प्रकाशक` दोनों एक-दूसरे के लिए हिंदी साहित्य की सत्ता को नियंत्रित करने के टूल बने रहे। नामवर को राजा राममोहन राय फाउंडेशन का चेयरमैन होने का मौका मिला तो चहेते प्रकाशक के वारे-न्यारे करने के लिए किस हद तक बदनामी उठाने से नहीं झिझके थे, उसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि मालिनी भट्टाचार्य को यह मामला संसद तक में उठाना पड़ा था।
यह सत्ता की छतरी के नीचे रहने की नामवर सिंह की पुरानी अदा थी या बदले जमाने में खुलकर संघ के आगे समर्पण की चाह कि वे 90 साल की उम्र में `ज़लील` होने के लिए  `इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र` में पहुंच गए थे। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने वहां कहा था कि बूढ़े बैलों के संरक्षण की जिम्मेदारी हमारी है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी `कभी मार्क्सवादी थे` नामवर सिंह के लिए `मर्यादा का कभी अतिक्रमण नहीं करसकते` कहा था तो सही ही कहा था। ख़ामोशी से यह सब सुनकर, `सम्मानित` होकर लौटे हिंदी के शीर्ष पुरुष नामवर और उनके अनुचर वामपंथी मैनेजर पांडे के अलावा वहां विश्वनाथ त्रिपाठी थे जिनको लेकर इतनी भी आलोचना का कोई मतलब नहीं बनता है।


यात्राओं के सरोकार
नामवर सिंह ने जब अपनी देश-विदेश की यात्राओं की बात कर रहे थे तो उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि वे कभी कहीं अपने पैसे से नहीं गए। लोगों ने प्यार से बुलाया। हवाई यात्रा का भी किराया दिया और जहां रेल का रास्ता हुआ, वहां रेल का किराया दिया। वास्तव में यह बड़ी बात है। लेकिन, ठीक इसी वक़्त यह कहना चाहता हूँ कि इसमें उनके आलोचक की नहीं, जेएनयू शक्तिपीठ और उसके जरिये साहित्य की तमाम शक्तिपीठों से उनके रिश्तों की भूमिका ज्यादा बड़ी है। देश भर में हिंदी विभागों की नियुक्तियों और सेमिनारों आदि का स्तर इन यात्राओं से शायद उन्होंने रद्दीपन से ऊपर खींचा हो? पर मेरे लिए एक दूसरी बात महत्वपूर्ण है कि वे इतनी ठसक से कैसे कह सकते हैं कि कभी अपने पैसे से नहीं गया। क्या उन्हें कभी मज़दूर संगठनों ने नहीं बुलाया? अपने तो परिचित कई लेखक ऐसे आयोजनों में अपने किराये से दौड़े चले आए। हम भी ऐसे आयोजनों में अपने किराए से ही गए और यथासंभव सहयोग राशि भी देकर आए। विष्णु नागर सिरसा में ऐसे ही एक कार्यक्रम में बस में बैठकर ही गए जबकि उन्हें गाड़ी से आने का प्रस्ताव दिया गया था। सुभाष गाताडे तो कितनी बार इसी तरह हमारे बुलावे पर दौड़ते रहे। उनके पास न इस तरह के वेतन रहे, न आय के दूसरे साधन।

सवर्ण-सामंती सोच
रवीश ने नामवर सिंह के `विवादित और मर्यादित` होने की बात का भी जिक्र उसी ग्लेमरस अंदाज में किया है जिस अंदाज में पहले भी किया जाता रहा है। लेकिन, ऐसा कर पाना हर किसी के लिए इतना सरल नहीं है। नामवर के साम्प्रदायिक, जातिवादी, स्त्रीविरोधी, सामंती और तिकड़मी व्यक्तित्व पर लिखा भी जा चुका है और उनके भक्त भी निजी महफिलों में इन किस्सों को कभी प्रशंसा भाव से और कभी चटखारे लेकर सुनाते रहे हैं। लेकिन, प्रगतिशील परंपरा के साथ दिखते रहकर चतुर रेहटरिक का इस्तेमाल करते हुए धीरे-धीरे दक्षिणपंथी राह बनाते रहे नामवर के एक के बाद एक चलाए जाने वाले शब्द बाणों से बिंधा हुआ महसूस करते रहे हमारे जैसे लोग कैसे मुग्ध हो सकते हैं? यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, जब उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में ही आरक्षण के खिलाफ जहर उगला था और कहा था कि इस तरह तो ब्राह्मणों-ठाकुरों के लड़के भीख मांगा करेंगे। कब, क्या बोलना है, इसमें माहिर माने जाने वाले नामवर का यह बयान मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान की तरह दिल से निकला हुआ पर पूरी तरह केलकुलेटेड बयान था। साहित्य के बहुत से सवर्णवीरों को आपसी बातचीत में उनके इस बयान पर रीझते हुए भी पाया जाता ही है।

दांत और मनुष्यता
और अंत में नामवर सिंह के दांत का दिलचस्प जिक्र यूं ही। बाबरी मस्जिद को लेकर लखनऊ खंडपीठ का फैसला आया था तो मैंने उस पर हिंदी के कुछ लेखकों से `समयांतर` के लिए प्रतिक्रियाएं ली थीं। नामवर सिंह को जब भी फोन किया, उन्होंने बताया कि उनके दांत में दर्द है। तब `दांत का निरंतर दर्द` ही `समयांतर` में उनकी प्रतिक्रिया थी। रात एनडीटीवी पर `भगवान विश्वनाथ की नगरी` के पान खाने के शौक का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि इस कुटेव का दांत पर असर हुआ है, टूटा-फूटा भी है। ``लेकिन मैंने दांत नया नहीं बनवाया है। सारे बिल्कुल मेरे ही हैं। मैंने ये काम नहीं किया। नकली दांत बनवाकर जवान दिखना ये मनुष्यता का अपमान है।`` सुनकर बहुत हंसी आई। पिताजी भी याद आए जो दांतों के दर्द से कराहते रहते थे पर मॉडर्न डेंटिस्ट्री में दांत बचाने और नये बनाने के बेहतर तरीकों के नाम पर वे तरह-तरह के बहाने तलाशते थे। नामवर सिंह के मुंह में काफी दांत मौजूद हैं और मैं इसे खुशी और प्रशंसा के रूप में ही देखता हूँ पर नकली दांत बनवाकर लगवाना न जवान दिखने का ही मसला है और न मनुष्यता का अपमान है। बहुत से बुजुर्ग और कम उम्र के लोग भी डेंचर के सहारे खाना खा रहे हैं तो यह मेडिकल साइंस की प्रशंसनीय देन है।
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नामवर सिंह का चित्र `Opinion Post` से साभार।