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Friday, September 28, 2012

आम्बेडकर और मार्क्सवादी - आनंद तेलतुम्बडे



भारत विरोधाभासों का देश है. मगर दलित और कम्युनिस्ट आन्दोलन के दो भिन्न दिशाओं में जाते इतिहास से ज़्यादा अनुवर्ती और कोई विरोधाभास न होगा. दोनों लगभग एक ही समय उपजे थे, दोनों समान मुद्दों के पक्ष में या उनके खिलाफ खड़े हुए, दोनों में आये उभार और फूटें एक सी रहीं, और नाउम्मीदी की स्थिति भी आज दोनों में एक सी है. और इन सबके बावजूद दोनों एक दूसरे से आँखें नहीं मिलाना चाहते. इस रवैयात्मक रसातल में पड़े रहने का दोष ज़्यादातर आम्बेडकर के सर मढ़ा जाता है जिसका सीधा-साधा कारण कम्युनिस्टों और मार्क्सवाद की उनके द्वारा की गई साफ़-साफ़ समालोचना है. यह बात अगर एकदम गलत नहीं तो एकांगी ज़रूर है.

आम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में उनकी बौद्धिक परवरिश फेबियन प्रभाव में हुई. जॉन ड्यूई, जिनके लिए आम्बेडकर में मन में गहरा सम्मान था, एक अमेरिकी फेबियन थे. फेबियन जन समाजवाद चाहते थे, मगर वैसा नहीं जैसा मार्क्स ने प्रस्तावित किया था. उनका विश्वास था कि समाजवाद क्रमिक विकास (इवोल्यूशन) के द्वारा लाया जा सकता है न कि क्रान्ति (रेव्ल्यूशन) के द्वारा. इन प्रभावों के बावजूद, मार्क्स से सहमत हुए बिना आम्बेडकर ने न केवल मार्क्सवाद को गम्भीरता से लिया, बल्कि उसे जीवन भर स्वयं के फैसलों को आँकने के पैमाने के तौर पर भी इस्तेमाल किया.I

आम्बेडकर की राजनीति वर्ग-आधारित थी, यद्यपि वह मार्क्सियन समझ के अनुसार न थी. अछूतों के बारे में कहते समय भी वे 'वर्ग' का प्रयोग करते थे. अपने सर्वप्रथम प्रकाशित निबंध "कास्ट्स इन इण्डिया" में, जो उन्होंने पच्चीस साल की उम्र में लिखा था, उन्होंने जाति को "समावृत वर्ग" (एन्क्लोस्ड क्लास) बताया था. अनुमान लगाने की क्रियाकलापों  में लगे बिना कहा जा सकता है कि यह लेनिन के साथ उनकी अनिवार्य सहमति का सूचक है- लेनिन ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वर्ग विश्लेषण "ठोस परिस्थितियों" में किया जाना चाहिए न कि वैक्यूम में. जातियाँ भारत का सर्वव्यापी यथार्थ थीं और वर्ग विश्लेषण से कोई छुटकारा नहीं था. मगर तत्कालीन कम्युनिस्टों ने, जो मार्क्स और लेनिन पर अपनी मोनॉपली का दावा करते थे, आयातित 'साँचों' का इस्तेमाल किया और जातियों को "अधिरचना" में फेंक दिया. एक ही झटके में उन्होंने समस्त जाति-विरोधी संघर्षों को गौण मुद्दा बना दिया. लिखे हुए को वेदवाक्य या सर्वोपरि मानने की ब्राह्यणीय सनक का ही यह प्रतिबिम्बन था.

दलितों के प्रति होने वाले भेदभाव को कम्युनिस्टों द्वारा नज़रंदाज़ किये जाने की एक मिसाल बम्बई की कपड़ा मिलों में मिलती है. जब आम्बेडकर ने ध्यान दिलाया कि अच्छी तनख्वाह वाले बुनाई विभाग में दलितों को काम नहीं करने दिया जाता, और यह कि छुआछूत के दीगर तरीके उन मिलों में भी बहुतायत में चलन में थे जिनमें कम्युनिस्टों की गिरणी कामगार यूनियन थी-  कम्युनिस्टों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. जब उन्होंने १९२८ की हड़ताल तोड़ने की धमकी दी तो वे अनिच्छा के साथ गलतियाँ सुधारने को राज़ी हुए.

१९३७ में हुए प्रांतीय असेम्बलियों के चुनावों को देखते हुए उन्होंने अगस्त १९३६ में अपनी प्रथम राजनीतिक पार्टी, इन्डिपेंडंट लेबर पार्टी (आई एल पी) का गठन किया जिसे उन्होंने घोषित तौर पर 'मेहनतकश वर्ग' की पार्टी कहा था. पार्टी के घोषणापत्र में बहुत सारे 'प्रो-पीपुल' वादे थे, और 'कास्ट' शब्द का बस एक बार और यूँ ही उल्लेख किया गया था. क्रिस्तोफे जफ्रेलोत जैसे विद्वानों ने आई एल पी को भारत की पहली वामपंथी पार्टी माना है क्योंकि कम्युनिस्ट उस समय तक या तो अधिकतर भूमिगत थे या कांग्रेस सोशलिस्ट ब्लॉक के तहत थे.

१९३० के दशक में वे अपने रैडिकल उत्कर्ष पर थे. १९३५ में उन्होंने मुम्बई कामगार संघ की स्थापना की जिसमें वर्ग और जाति के विलय की प्रत्याशा थी जो आई एल पी में रूप में साकार हुआ. मतभेदों के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ हाथ मिलाया और १९३८ में औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट) के खिलाफ विशाल हड़ताल का नेतृत्व किया. १९४२ में क्रिप्स रिपोर्ट में  आई एल पी  को इस दलील के आधार पर शामिल नहीं किया गया कि वह किसी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इस वजह से वे आई एल पी को भंग करके शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (एस सी एफ़) का गठन करने को प्रवृत्त हुए जो प्रकट रूप में जाति आधारित थी. वाइसराय की कार्यकारी समिति का सदस्य होने के बावजूद भी उनका वामपंथी रुझान बना रहा. इसकी परिणिति उनकी पुस्तक स्टेट्स एण्ड माइनॉरिटीज़ के रूप में हुई जो भारत के संविधान में समाजवादी अर्थव्यवस्था को 'हार्डकोड' किये जाने की रूपरेखा थी. कम्युनिस्टों ने मगर उनके आन्दोलन को सर्वहारा को बाँटने के प्रयास के तौर पर लिया. इसी रुख की परिणिति हुई डांगे के उस निंदनीय आह्वान में जिसमें १९५२ के आम चुनावों में उन्होंने मतदाताओं से कहा कि भले ही उनका वोट ज़ाया हो जाए लेकिन वे आम्बेडकर के पक्ष में वोट न दें. परिणामस्वरूप चुनावों में आम्बेडकर की हार हुई.

उनके बौद्ध धर्म स्वीकार करने का भी सतही पाठ किया जाता है यह कह कर कि वह एक हताश व्यक्ति की आध्यात्मिक ललक थी और इसे उनके मार्क्सवाद विरोध के एक और प्रमाण के तौर पर पेश किया जाता है. हालाँकि बहुत से विद्वानों ने इस गलत पढ़त का खण्डन किया है, लेकिन कहा जाना चाहिए कि यह मार्क्सवाद के प्रति उनका करीब-करीब आखिरी निर्देश था. अपनी मृत्यु से महज एक पखवाड़े पहले बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की तुलना करते हुए, उन्होंने अपने निर्णय की तस्दीक करते हुए उसे हिंसा और अधिनायकवाद से रहित मार्क्सवाद के अनुरूप माना. दुख की बात है कि मार्क्स को स्वीकार कर आम्बेडकर को अस्वीकार करने की नादानी अब भी बरकरार है.

OUTLOOK से साभार (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)

Saturday, June 2, 2012

कार्टून विवाद और एक कट्टरपंथी दलित के मन की हलचल : अनूप कुमार


“मेरा दिमाग खुला है पर खाली नहीं. खुले दिमाग वाला आदमी हमेशा ही स्वागत योग्य होता है. पर जब मै ऐसा कह रहा हूँ वहाँ आपको यह भी समझना होगा कि खुला दिमाग कभी खाली भी हो सकता है. यदि एक खुला दिमाग खुशहाल स्थिति में है तो वह मानव के लिए घातक हो सकता है. वह किसी दुर्घटना का शिकार भी हो सकता है. ऐसा व्यक्ति बिना पतवार की नाव पर सवार हैं. उसके पास कोई दिशा नहीं. वह बह सकता है पर यदि वह चट्टान की दिशा में बहने लगे तो वह इससे टकरा कर नष्ट हो जायेगा.”
- डॉ. बी आर आंबेडकर उनकी किताब ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इण्डिया की प्रस्तावना का अंत करते हुए.

करीब एक महीने पहले की बात है मेरे कुछ दलित मित्रों ने मुझे एन.सी.ई.आर.टी की टेक्स्ट बुक के एक कार्टून के बारे में बताया कि उसमें डॉ. आंबेडकर पर एक अपमानजनक कार्टून है. उन्होंने मुझे इस किताब का पीडीएफ फोर्मेट भी ईमेल किया और कहा कि हम दलितों को इस  किताब के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए.
पर मैंने उनके इस सुझाव को तवज्जो नहीं दिया, क्योंकि मुझे यह विश्वास था कि  एन.सी.ई.आर.टी  जैसी संस्था अपनी किसी किताब में डॉ. आंबेडकर को अपमानित करने वाला कोई कार्टून शामिल नहीं करेगी, खासकर ऐसे समय जब दलित आंदोलन अपने उफान पर है. यही सब सोच कर मैंने इस कार्टून पर विशेष ध्यान नहीं दिया.
ईमानदारी से कहूँ तो मैंने इसमें ना पंडित नेहरु को देखा था ना उनके हाथ के कोड़े को. इसलिए मेरे मन में यह ख्याल ही नहीं आया कि एक ‘कश्मीरी ब्राह्मण डॉ आंबेडकर पर कोड़े चला रहा है’ (जैसा कि इस कार्टून पर टिपण्णी करने वाले लोग मज़ाकिया अंदाज़ में कहते हैं).
मुझे तो इस कार्टून में डॉ आंबेडकर एक घोंघे पर बैठे भर दिखाई दिए और स्वभाविकतः मन में ख्याल आया कि शायद संविधान निर्माण में होने वाली देरी की तुलना घोंघे की चाल से की गई है. वास्तव में, यदि एन.सी.ई.आर.टी. की मंशा अगर इतना भर ही दिखाने की होती तो इसे बर्दाश्त किया जा सकता था. आखिर,कुछ आलोचनाओं के साथ, संविधान निर्माण समिति पर धीमी रफ़्तार से काम करने का एक प्रमुख आरोप तो तब लगा ही था. शायद यह चित्र हमारे विद्यार्थियों को यह बात बताने में सफल हो सकता था. इस आरोप का उत्तर स्वयं डॉ. आंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 को अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में दिया भी था.
हालांकि मुझे इसमें डॉ आंबेडकर को अपमानित करने वाला कुछ नहीं लगा, फिर भी व्यक्तिगत तौर मुझे यह कार्टून पसंद नहीं आया क्योंकि, भले ही  एन.सी.ई.आर.टी के विद्वान, इस माध्यम से, हमारे विद्यार्थियों को सविधान-निर्माण प्रक्रिया में होने वाले विलम्ब के कारणों से ही अवगत कराना चाहते हो, लेकिन संविधान निर्माण की प्रक्रिया की तुलना घोंघे की चाल से करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है.
मेरी नज़र में, फिलहाल, वह स्थिति ही आदर्श होगी कि स्कूली टेक्स्ट बुक में (मैं दोहरा रहा हूँ किसी भी टेक्स्टबुक में) डॉ आंबेडकर के संघर्ष और उनकी उपलब्धियों के अतिरिक्त कोई अन्य कुछ भी किसी भी रूप में ना हो.
आप चाहे इसे मेरी हठधर्मिता कहें या नायक-पूजा या फिर दोनों ही, पर इस विरोध के पीछे मेरी तरह सोचने वाले अन्य दलितों के अपने कारण है, जिसे मानने के लिए  एन.सी.ई.आर.टी  पर कोई बाध्यता नहीं है. उसे हमसे ज्यादा ऑब्जेक्टिव होने की आज़ादी है.
भारतीय अकेडीमिशिंअस ने डॉ. आंबेडकर को ‘ऑब्जेक्टिव तरीके से’ देखने का जो आह्वान किया है, यदि हम उस आह्वान के खिलाफ खड़े दलितों के विरोध को नज़रंदाज़ कर दें तो भी आप पाएंगे कि दलितों ने तो पिछले पांच दशकों से स्कूली पुस्तकों के सन्दर्भ में डॉ आंबेडकर की अनदेखी पर धारण मौन के खिलाफ कभी कोई विरोध प्रगट नहीं किया है. हम लोग तो आरक्षण, शिक्षा, नौकरी, सामजिक भेदभाव हिंसा और शोषण जैसे ज़रुरी मुद्दों पर विभिन्न प्रकार के राजनीतिक और सांस्कृतिक  संघर्षों से ही जूझ रहे थे. इसलिए स्कूल और कॉलेज का पाठ्यक्रम तो कभी भी दलितों की प्राथमिकता बन ही नहीं पाया, हालाँकि दलितो के मन में हमेशा ही इस बात का क्षोभ रहा है कि डॉ. आंबेडकर को कभी भी किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बनाया गया. इसलिए आज जब हमारे महापुरुषों को  एन.सी.ई.आर.टी  की पाठ्यपुस्तकों में स्थान मिलने लगा है तो यह हमारे लिए हर्ष का विषय है.

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इस कार्टून से जुड़ी मेरी व्यक्तिगत असहमति मुझे कार्टून को  एन.सी.ई.आर.टी  की किताबों में शामिल करने से नहीं रोकती है. ना ही मुझे इस कमेटी से जुड़े अकेदेमिशियनो की मंशा पर कोई शक है.
लेकिन एक दशक से अधिक समय से उच्च शिक्षा एवं दलित और आदिवासी विद्यार्थियों से भेदभाव के मुद्दों पर कार्य करने के अनुभव के चलते इस कार्टून पर मेरी कुछ वाजिब चिंताए हैं. इनमें सबसे अहम चिंता इस बात की है कि इस कार्टून पर कक्षा के गैर-दलित छात्रों और शिक्षकों का क्या रुख होगा? क्या यह कार्टून इन्हें डॉ आंबेडकर पर कोई घटिया कमेन्ट करने के लिए बाध्य तो नहीं करेगा? क्या वे लोग संविधान निर्माण में हुई इस देर के लिये डॉ. आंबेडकर को ‘घोंगा’ मानते हुए ज़िम्मेदार तो नहीं ठहराएंगे? क्या यह कार्टून, छात्रों और अध्यापकों के मन में व्याप्त जातिगत पूर्वग्रहों को बाहर तो नहीं ले आएगा? हमारे दलित विद्यार्थी जो वैसे ही सवर्ण छात्रों के अनुपात में बेहद कम संख्या में होते हैं, ये उनके मन पर क्या प्रभाव छोड़ेगा! ऐसे में वे इसका सामना कैसे कर पायेंगे? क्या इस कार्टून के साथ लिखा टेक्स्ट विद्यार्थियों के मन में उपजी धारणा को हटा पाएगा जो इस कार्टून से व्यक्त हो रही है?
एक दलित के रूप में मैंने गैर-दलितों के मन में डॉ आंबेडकर के प्रति व्याप्त द्वेष देखा है. उनकी यह दुर्भावना डॉ. आंबेडकर के हर कार्य को ख़ारिज करने के रूप में प्रकट होती है और अक्सर डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ने की घटना के रूप में हमारे समाज में, वैसे भी, प्रो. योगेन्द्र यादव और प्रो. सुभाष पल्शिकर जैसे बुद्धिजीवियों की कमी है जो डॉ आंबेडकर के कार्य से वाकिफ  हो. लेकिन यदि हमारे पाठयक्रमों में पिछली पीढ़ी के समय ही डॉ. आंबेडकर के संघर्ष और दलित हकीकतों को शामिल कर लिया जाता तो माहौल कुछ और होता. ऐसी स्थिति में, निश्चित ही, हमारे पास वास्तविकता को व्यक्त करने वाले प्रोफ़ेसर बड़ी संख्या में होते.
देश को आज़ाद हुए पांच दशक बीत चुके हैं लेकिन समाज में ये द्वेष और दुर्भावना कम होने के बजाय ना केवल बढ़ी बल्कि और मज़बूत हुई है. मैं इस बात का गवाह रहा हूँ कि कैसे डॉ आंबेडकर के प्रति घृणा, आसानी से, दलितों के प्रति द्वेष में बदल जाती है और कैसे दलितों के प्रति घृणा डॉ. आंबेडकर के प्रति द्वेष में तब्दील होती है. इसके पीछे पहचान-की-राजनीति काम करती है. इस सम्बन्ध में, एम ऍफ़ हुसैन के चित्रों से उपजी घृणा को हम आम मुस्लमान के प्रति फलती नफरत के रूप में देख चुके हैं.
आप ज़रा अगस्त 1991 में घटी आंध्र प्रदेश के सुंदरू की घटना को याद कीजीये कि किस तरह डॉ. आंबेडकर की मूर्ति लगाने के प्रयास में लेकिन यह तो सिर्फ एक भोला-भाला कार्टून है. परन्तु क्या कक्षा में पड़ने वाले इसके संभावित परिणाम को नज़रंदाज़ किया जा सकता है? बहरहाल, इस परिणाम को आप मेरी कट्टरता की उपज मान सकते है. लेकिन इस पर सोचिये ज़रूर!
इन्हीं सब बातों के बीच मैं अपने, क्लास रूम में हुए, एक अनुभव को बांटना चाहता हूँ. यह वर्ष 1995 की बात है जब मायावती ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप कार्यभार ग्रहण किया था. इसी साल अगस्त में अपनी बारहवीं पास करने के बाद मैंने देश के एक पुराने व् प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया. यहाँ के विद्वान प्रोफेसरों में से एक ने हमारे इंट्रोडक्शन के समय 80 विद्यार्थियों की क्लास में हम 8 दलित और आदिवासी छात्रों की ओर उंगली दिखाते हुए कहा, “नंबर हासिल करने के लिए तुम्हें ठीक से पढना होगा. तुम्हें नंबर मायावती नहीं, मै दूँगा.” इस पर मुझे और उस प्रोफ़ेसर को छोड़ कर पूरी क्लास हंसने लगी. मै अपने बाकि दलित-आदिवासी सह्पाठियों से नहीं पूछ सका कि वे भी उस हँसी के साझीदार बने या नहीं? मै यह भी नहीं समझ पाया कि प्रोफ़ेसर का यह मजाक कोई कटाक्ष था या कुछ  और! लेकिन इतना तय है कि यह, मेरे अलावा, सभी विद्यार्थियों को हंसी दिलाने में कामयाब रहा. इस एक कथन ने मुझे स्पष्ट कर दिया था कि मैं बाकी क्लास से अलग हूँ. यहाँ मेरी पहचान को इन्होंने एक ऐसी राजनेता के साथ जोड़ दिया जिससे वह प्रोफ़ेसर नफरत किया करता था, इसीलिए उस नफरत का तार स्वाभाविक रूप से मुझसे भी आ जुड़ा, भले ही उस वक्त मेरा मायावती से कोई सम्बन्ध नहीं था.
गौरतलब है कि उस समय मायावती ने मूर्तियां और आंबेडकर पार्क नहीं बनवाये थे. तब उन पर किसी किस्म के भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे थे और ना ही उन्होंने नोटों की कोई माला ही पहनी थी. फिर भी, ऐसी किसी भी कथित बदनामी के ना चलते हुए भी मायवती आज की तरह वहाँ, मेरे इंजीनियरिंग के बाद के वर्षों में क्या हुआ, वह बताने में मुझे बहुत वक़्त लगेगा. लेकिन इस पर मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि यह एक  बुरा अनुभव था और किसी दलित और आदिवासी विद्यार्थी को ऐसे अनुभव से नहीं गुज़रना चाहिए.
[दरअसल जाति की समस्या को एक ‘समस्या’ के रूप में तब तक नहीं देखा जाता जब तक कि इसके तार आरक्षण या मायावती के भ्रष्टाचार या उसकी मूर्तियों से न जुड़ जाएँ. अधिकांश लोग तो जाति-समस्या, जाति-भेदभाव से जुड़े तजुर्बों और दलित-मुद्दों से मुहँ मोड़ कर चुप्पी ही साधे रहते हैं. इस कार्टून विवाद से तीन साल पहले तहलका द्वारा प्रकाशित एक आलेख को आप देख सकते हैं.]

जी हाँ, पिछले 15 वर्षों के मेरे अनुभव और अगर इसमें डॉ आंबेडकर के ज़माने को भी शामिल कर लिया जाए तो भारत में दलितो के प्रति माहौल क्या आज हमारे क्लास रूम जाति पूर्वग्रह से मुक्त हो गए है? 
क्या अब वहाँ गैर-दलित विद्यार्थी और शिक्षक, डॉ.आंबेडकर और संविधान निर्माण जैसे विषय पर क्रिटिकल विचार रख सकते है?

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जहाँ हमारे सांसद इस बात पर एकमत थे कि इस उम्र में विद्यार्थी परिपक्व नहीं होते इसलिए उनके पाठ्यक्रम में ऐसे कार्टून शामिल करना उचित नहीं. वहीँ हमारे अकेडेमिशिअनों ने भी एकमत से संसद का विरोध करते हुए इस कार्टून को शिक्षा पाठ्यक्रम में नया उत्साह और समझ  तथा आलोचनात्मक बुद्धि को विकसित करने के लिए ज़रूरी बताया.
मै ना ही ग्याहरवी क्लास के बच्चों को इतना कच्चा मानता हूँ कि उन्हें किसी संरक्षण की ज़रूरत है. ना ही मुझे उनकी या उन्हें पढ़ाने वालों की ‘जाति’ और ‘डॉ. आंबेडकर’ से जुड़ी उनकी आलोचनात्मक समझ पर कोई खास विश्वास है. हालाँकि इस बात पर मुझे पूरा यकीन है कि कार्टूनों को शामिल किये जाने से पढ़ाने की विधा में ताज़गी आएगी और स्कूली पाठ्यक्रम की नीरसता खत्म होगी तथा स्कूली-बच्चे किताबों को निजी जीवन के यथार्थ से साथ जोड़ पाएंगे.
और यहीं से मेरे फ़िक्र भी उठते हैं. फ़िक्र यह कि जब विद्यार्थी इस कार्टून को देखकर इसे अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर देखेंगे तब क्या वैसे भी ग्याहरवी की कक्षा या इस उम्र के छात्र जाति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं. उन्हें जातिप्रथा में निहित ऊंच-नीच की जानकारी होती है. उन्हें छुआछूत के नियमों की भी खासी जानकारी होती है, तथा वे अपने क्षेत्र के सरनेम से भी भली-भांति परिचित होते हैं
कि कौन सा सरनेम किस जाति का होता है, और साथ ही वे जाति के आधार पर बंटे मोहल्लों और बस्तियों से भी वाकिफ़ होते है.
हमारे अकेडेमिशियंस की सोच के विपरीत ये बच्चे नादान नहीं होते हैं. वे महज विद्यार्थी नहीं होते, बल्कि हकिक़त ये भी है कि वे सभी, किसी न किसी जाति के भी होते हैं और उन्हें दैनिक जीवन में हो रही जातिगत उठापटक की भी ठीकठाक जानकारी होती है. दलित विद्यार्थियों के लिए क्लास रूम ही एक ऐसी जगह होती है जहाँ वे गैर-दलित विद्यार्थियों के साथ वक्त साझा करते हैं अन्यथा शेष कहीं भी इन दोनों तबको का कोई मेल नहीं होता है.
यदि कोई दलित-अनुभवों को सुने तो उनमें उनके स्कूली दिनों की जाति-पीड़ा की ध्वनि अक्सर सुनाई देती है - कि कैसे सहपाठी, अध्यापक उनसे भेदभावपूर्ण व्यवहार किया करते थे!
[यदि कोई इनकी जानकारी चाहता हो तो वह Dalits & Adivasi students’ portal में उपलब्ध युवा दलित-आदिवासी विद्यार्थियों के साक्षात्कारों को पढ़ सकता है जिसमे उन्होंने बताया कि किस तरह उन्हें, अपने सहपाठियों और शिक्षकों से, जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ा. आज ये सभी युवा अपने-अपने क्षेत्रो में सफल हैं. लेकिन वहीँ कुछ विद्यार्थी ऐसे भी हैं जो इस पीड़ा को नहीं झेल पाए और
मजबूरन उन्हें अपनी जान गंवाने पर मजबूर होना पड़ा. ऐसे कुछ प्रकरणों की जानकारी The Death of Merit in India पर उपलब्ध है]

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इस सन्दर्भ में हमें समझना होगा कि जहाँ हमारा समाज वैसे ही जाति-पूर्वग्रह की आग से ग्रस्त है उसपर यह कार्टून घी डालने का काम कर सकता है. जाहिर है कि इस मानसिकता से हमारे समाज का महत्वपूर्ण तबका - छात्र और शिक्षक - भी ग्रसित है. पंडित नेहरु या अन्य राजनेताओं पर बने कार्टून इन नेताओं की जाति से आने वाले विद्यार्थियों के मन पर कोई विपरीत असर नहीं डालेंगे पर 
क्या प्रो. योगेन्द्र यादव और सुभाष पल्शिकर मुझे और दलित समुदाय को इस बात का आश्वासन देंगे कि डॉ आंबेडकर के सन्दर्भ में ऐसा क्या वे मुझे आश्वस्त करेंगे कि इस कार्टून से विद्यार्थियों में दलितों के प्रति जातिगत पूर्वग्रह नहीं बढ़ेगा? क्या उन्हें अब डॉ. आंबेडकर को कोसने के लिए एक और मुद्ददा नहीं मिलेगा कि इसी व्यक्ति के कारण हमारे संविधान निर्माण में इतनी देरी हुई? क्या अब गैर-दलित  छात्रों को दलित विद्यार्थियों को चिढ़ाने का एक और अवसर नहीं मिलेगा?
क्या ये फ़िक्र आपको ‘कट्टरवाद’ लगती हैं? क्या यह चिंताए आपको डॉ. आंबेडकर को पैगम्बर मानने से उपजी लगती हैं? क्या ये चिंताए डॉ. आंबेडकर के प्रति व्याप्त मेरी असहनशीलता से उभरी है?
क्या ये चिंताए इसलिए उभरी हैं कि मैं इस कार्टून को डॉ आंबेडकर का अपमान मानता हूँ और यह समझता हूँ कि इस 63 वर्षीय कार्टून से डॉ. आंबेडकर के योगदान और कार्यों पर कोई प्रभाव पड़ेगा?
इस कार्टून पर मेरी इतनी सारी चिंताओं के बावजूद भी मै इसे  एन.सी.ई.आर.टी  की पाठ्य पुस्तकों में शामिल किये जाने का विरोध नहीं करूँगा. पर समाज में डॉ. आंबेडकर और दलितो के विरोध में इतनी घृणा और इतने द्वेष को देखकर मै इतना ज़रूर कहूँगा कि यदि इसे शामिल करने से बचा जाता तो मुझे इस कार्टून से ज्यादा चिंता इस बात की है कि प्रो योगेन्द्र यादव और प्रो सुभाष पल्शिकर भारत के क्लास रूम की सच्चाई से अवगत  ही नहीं हैं और उन्हें दलित और दलित-प्रेरको की सामाजिक सच्चाई की तो थोड़ी भी जानकारी नहीं है, जबकि वे एक अच्छे शोधार्थी हैं और जाति मुद्दे पर लंबे समय तक कार्य कर चुके है.

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बहरहाल, मुझे ये कार्टून, डॉ. आंबेडकर के प्रति मेरी नायक-पूजा के बावजूद, जातीय हिन्दुओं की दलितों के प्रति असंवेदनशीलता का एक और उदहारण मानते हुए,  एन.सी.ई.आर.टी  की टेक्स्ट बुक में बर्दाश्त करना होगा. पिछले दिनों संसद के इस प्रस्ताव के खिलाफ जो तीखी प्रतिक्रिया हुई, और हमारे अकेडेमिशिअनों, पत्रकारों और टिप्पणीकारों ने यह कहकर जो गुस्सा दिखाया कि वे इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर करारी चोट मानते हैं, उनकी नजरो में डॉ. आंबेडकर, असहनशील लोगों के पैगम्बर हो गए. उन्हें संसद का यह कदम वोट बैंक पोलिटिक्स लगने लगा. उन्होंने इसे दलित-कट्टरवाद का उभार और जाने क्या क्या नाम दे अखबारों ने इन आवाज़ों को खूब स्पेस दिया. राष्ट्रिय स्तर की मैगज़ीनों ने भी इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया जिसमें कि डॉ. आंबेडकर को पैगम्बर के रूप में दर्शाया गया. इन्टरनेट ने गुस्से भरे संदेशो को अपने फेसबुक, ब्लॉग, और ईमेल के माध्यम से खूब फैलाया. हर जगह इस  कुछ लोग तो इतने अधिक आक्रोशित हो गए कि उन्होंने दलितों द्वारा कार्टून विरोध को खाकी-चड्डी वालों से भी घटिया बता डाला. एक व्यथित अकेमिडीशियन, जो अपना ब्लॉग भी चलाते हैं, ने एक कदम आगे बढ़ कर यहाँ तक कह डाला कि अब तो दलितों को ही आंबेडकर की धरोहर का विवेचन करने दो. दलितों के लिए यह दिन लगभग, माया केलेंडर अनुसार वर्ष 2012 के, संसार विनाश के किसी विशेष दिन सरीखी ही बन गया.
लेकिन जिस तरह हर बुराई में भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ अच्छाई छिपी रहती है. उसी तरह इन विवादों और चर्चाओं से मुझे ऐसा लगा मानो अंततः इस देश में डॉ आंबेडकर स्थापित हो गए.
गौरतलब है कि असंख्य दलितों ने डॉ आंबेडकर की मूर्तियों का निर्माण कर अपने संघर्ष का सूत्रपात किया और उन्होंने अपने सभी दर्द, तकलीफों और विद्रोह को दलित साहित्य में प्रस्फुटित किया. डॉ आंबेडकर के जन्म और परिनिर्वाण के अवसर पर उमडने वाली लाखों लोगों की भीड़, उनके नाम पर बने अनेक राजनीतिक और सामाजिक समूह, छात्र संगठन और कर्मचारी संगठन उनके कारवां को आगे बढ़ा रहे हैं.
सभी प्रयास कर रहे हैं उन सार्वजनिक स्थानों पर दावेदारी के लिए, जहाँ से उनको अब तक मना किया जाता रहा था. आज, उनके यह सब प्रयास डॉ आंबेडकर को सीमान्त दायरे से बाहर लाकर उन्हें राष्ट्रिय नेताओ, चिंतकों और महान क्रांतिकारियों की श्रेणी से भी ऊपर लाने साक्ष्य एकदम साफ़ हैं. इस विवाद पर आज हर एक लेखनी चाहे वह अख़बारों या मैगजीनों में कोई लेख हो या टीवी और इन्टरनेट पर इस
बारे में बातचीत, सबकुछ निरपवाद रूप से, डॉ आंबेडकर को आभामयी श्रद्धांजलि से शुरू हो रही है. अब हर कोई इस मुल्क को बनाने में उनके किरदार, उनकी विरासत की महत्ता और उनके महत्वपूर्ण दृष्टिकोण, किसी भी नायक-पूजा के खिलाफ उनकी फटकार और सविधान में उनकी भूमिका पर बात कर रहा है. वहीँ लगातार ये भी दोहराया जा रहा है कि ‘कट्टरपंथी’ दलितो को डॉ आंबेडकर के नाम पर ऐसी शर्मनाक हरकत  कर पाठ्य पुस्तक से कार्टून हटवाकर उन्हें अपमानित नहीं करना चाहिए.
यहाँ तक कि वे अकेदेमिशियन, जिन्होंने डॉ. आंबेडकर को कभी पाठयक्रमों में शामिल नहीं होने दिया और हमेशा ही उनका विरोध करते हैं, आज अपना राग बदल कर अचानक डॉ. आंबेडकर द्वारा तस्दीक ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बात याद दिलाने लग गए हैं. वैसे उनकी पिछली लेखनी देखने के बाद अब उनके मुहँ से डॉ. आंबेडकर के कार्यों की तारीफ! सच कहे तो बहुत सुकून दे रही है. 
मै यह भी समझता हूँ कि अभी जो भी शोधार्थी जाति विषय पर कार्य कर रहे हैं उनके लिए हमारे अकेडेमिशिअनों के इन तर्कों का डाक्यूमेंनटेशन करना उचित होगा कि आज दलित प्रतिरोध के दौर में इन लोगों के विचारों में आखिर कितनी ईमानदारी है!

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जब कोई युवा दलित किसी प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी जैसे आई.ए.एस. के लिए इंटरव्यू की तैय्यारी करता है तो उसके मन में हमेशा ही दो प्रश्न पूछे जाने का भय रहता है. इनमे एक आरक्षण से जुड़ा है और दूसरा संविधान के जनक के रूप में डॉ.  आंबेडकर के मुद्दे के समकालीन होने और दलितों के जीवन से सीधे जुड़े होने के कारण ऐसा पूछा जाना स्वाभाविक है, पर संविधान निर्माण में डॉ आंबेडकर की भूमिका के बारे में पूछने के पीछे भला क्या तर्क है?
आप किसी दलित प्रतियोगी से पूछिए कि वह इस तरह के व्याप्त माहौल में अपने आप को कैसे तैयार करता है - कि उसे गलती से भी डॉ. आंबेडकर को संविधान का जनक या निर्माता नहीं कहना है, बल्कि ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमेन भर कहना डॉ. आंबेडकर को संविधान के जनक कहलवाने का मिथक तो कांग्रेस ने पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से गढा है, जिसके पीछे उसकी सोच थी कि हमारे छात्र डॉ. आंबेडकर के जाति के खिलाफ क्रांतिकारी विचारों से अवगत न हो सकें और वे डॉ. आंबेडकर-गांधी विवाद से भी अनभिज्ञ ही रहें.
हालाँकि डॉ. आंबेडकर के अनुयायी, कांग्रेस के इस प्रचार को बहुत खूबसूरती के साथ उनकी हर मूर्ति, जिसमें उनके हाथ में सविधान है, बनाकर प्रदर्शित करने में कामयाब रहे हैं. डॉ. आंबेडकर के अन्य संघर्ष को याद दिलाते हुए उन्होंने इस मिथक  का देश पर अपने अधिकार के लिए भरपूर इस्तेमाल किया. कुछ हद तक यह प्रतीक सवर्णों की मेरिट को भी चुनौती देने में वैसे ऐसा नहीं कि गैर-दलितो ने डॉ. आंबेडकर के संविधान निर्माता के रूप में प्रदर्शित किये जाने का विरोध नहीं किया बल्कि इस सन्दर्भ में प्रो. योगेन्द्र यादव और प्रो. सुहास पल्शिकर के द्वारा तैयार टेक्स्ट और कार्टून पर दलितों की संवेदनशीलता इस आलेख  मैं इस मुद्दे के बहुत से भागों पर अपने विचार रखना चाहता हूँ- जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दलित नेताओं का रुख, दलित कट्टरवाद का उदय, कार्टून पर वोट बैंक पोलिटिक्स, दलितो का डॉ. आंबेडकर को उनके पैगम्बर मानने के चलते उन्हें आलोचनाओ से ऊपर रखना, एन.सी.ई.आर.टी  सलाहकार समिति से कुछ लोगों का इस्तीफा आदि.
इस बीच मै पाठकों से उन्नामती स्याम सुन्दर के कार्टून पर नज़र डालने का अनुरोध करता हूँ. मै समझता हूँ कि उनकी कार्टून कला और राजनीतिक मुद्दों पर कटाक्ष उन्हें सही रूप में शंकर पिल्लई का उत्तराधिकारी बनाता है. मै समझता हूँ कि यदि इस कार्टून को भी ने इस बात के खिलाफ खासे लेख भी लिखे. पाठ्यपुस्तक का अंग बनाया जाए तो यह समकालीन भारत की वास्तविकता का सही प्रदर्शन होगा. जय भीम!



(इस आलेख का संक्षिप्त/सम्पादित रूप जनसता, 1 जून 2012 में 'कार्टून विवाद और दलित' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है; मूल अंग्रेजी आलेख यहाँ है)

Wednesday, May 16, 2012

कार्टून विवादः एक मानवीय अवलोकन : लाल्टू


भारतीय समाज दलित और गैर-दलित दो तबकों में बँटा है। एक इंसान को औरों से अलग कर देखना मानव मूल्यों की दृष्टि से ग़लत है। पर सामाजिक गतिकी के स्रोत न्याय अन्याय के वांछित-अवांछित कारण हैं। इस आलेख में मुख्यतः गैर-दलितों से संवाद करने की कोशिश है। एक प्रताड़ित तबके के बारे में संवेदना की बात करना अहंकार हो सकता है। इसलिए एक सीमित परिप्रेक्ष्य में ही इस आलेख को पढ़ा जाना चाहिए। यहाँ जिन विद्वानों से असहमति प्रकट की गईं हैउनके प्रति हमारे मन में सम्मान है। वे जागरुक और सचेत हैंसमाज के लिए पथ-प्रदर्शक हैंऐसा हम मानते हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा जारी ग्यारहवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में संविधान पर चर्चा के साथ छपे नेहरू-अंबेदकर कार्टून पर जो विवाद छिड़ा हैउससे बुद्धिजीवियों में ध्रुवीकरण बढ़ा है। इसके पहले प्रेमचंदगाँधी बनाम अंबेदकरअंग्रेज़ी शासन के दौरान दलितों की स्थिति में बदलाव जैसे कई विषयों पर ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों के साथ हुआ है।

दलित चिंतकों ने इन बहसों में जो रुख अपनाया हैवह सही या ग़लत हैयह तो इतिहास तय करेगापर उनमें एक तरह की लामबंदी दिखती है। पर निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो गैर-दलित भी लामबंद दिखते हैं साधारण संवेदनाहीन लोगों में दलित विरोधी मान्यताओं का होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करतापर उदारवादी चिंतक जो आम तौर पर दलितों के साथ उनके संघर्षों में कंधा मिलाकर चलते हैंवे भी इन मुद्दों पर एकतरफा और दलित चिंतकों से भिन्न राय ही रखते हैं और अक्सर अपनी असहमति पुरजोर आवाज़ में सामने रखते हैं।

कार्टून वाला मौजूदा मामलाप्रेमचंद पर हुई बहस से अलग है। सामाजिक विसंगतियों और दलितों के निपीड़न पर संवेदना जगाने में जिन साहित्यकारों की सबसे अहम भूमिका रहीउनमें प्रेमचंद अग्रणी रहे। उनकी रचनाओं में से चुनी हुई पंक्तियों को प्रसंग से बाहर रख कर नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कार्टून प्रसंग ऐसा नहीं है। नए नए आज़ाद हुए मुल्क का संविधान लिखे जाने में हो रही देर पर बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया के प्रतीक के रूप में शंकर का 1949 में बनाया कार्टून 2006 में पाठ्य-पुस्तक में डाला गया। पहले महाराष्ट्र और फिर राष्ट्रीय स्तर पर दलित चिंतकों ने आपत्ति जताई कि इस कार्टून में अंबेदकर का अपमान किया गया है। संसद में शोरगुल के बाद सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए इस कार्टून को हटाने का निर्णय लिया। दलित नेतृत्व की इस माँग को भी सरकार ने मान लिया कि जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीउसके खिलाफ कार्रवाई की जाए। इसे अकादमिक समुदाय ने अपनी स्वायत्तता पर हस्तक्षेप मानते हुए हर तरह से विक्षोभ प्रकट किया है। जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीइसके दो सदस्योंयोगेंद्र यादव और सुहास पालसिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया है। पालसिकर ने इस बारे में संवाद और सहयोग की कोशिश की हैपर उनके साथ कुछ दलित युवकों ने हिंसात्मक व्यवहार किया है। योगेंद्र यादव ने संसद में हुई बहस का खुला विरोध करते हुए बयान दिए हैं। पत्र-पत्रिकाओं मेंअंतर्जाल में गैर-दलित टिप्पणीकारों ने सरकार और दलित नेताओं की कट्टर आलोचना की है।

यहाँ कई मुद्दे हैं। क्या सरकार को अकादमिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिएक्या गैर-दलितों का एक कार्टून पर दलितों की असहमति पर इतना शोर मचाना ठीक हैक्या दलित समाज में अंबेदकर को एक मसीहे की तरह माननाजिसपर कोई उँगली न उठा सकेयह ठीक है?

भारतीय राजनीति में मुख्यधारा की पार्टियों के नेतृत्व से जनता का विश्वास उठ चुका है। यहाँ हम मानकर चलेंगे कि सांसदों के हल्ले-गुल्ले को गंभीरता से लेने का कोई तुक नहीं है। कार्टून से संबंधित जो बड़े मुद्दे हैंउनको और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण को समझने की कोशिश हम करें। कार्टून में शंकर का जो उद्देश्य था और पाठ्य-पुस्तक समिति के सदस्यों ने उसे जैसे देखाउससे अलग हटकर इसे देखने की कोशिश करें।

कार्टून में अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित मुहावरे 'स्नेल्स पेस (घोंघे की गति)' से चल रहे संविधान लेखन के काम पर कटाक्ष है। जनता अपेक्षारत है,संविधान लेखन समिति के अध्यक्ष अंबेदकर घोंघे पर सवार हैं और पीछे से नेहरू चाबुक चलाते हुए घोंघे को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं। कल्पना कीजिए कि एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि के बच्चे हैं। अंबेदकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अंबेदकर के ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है। सही है कि काल्पनिक स्थितियों से घबराकर हमें निर्णय नहीं लेने चाहिए। पर किशोरों के लिए पाठ्य-पुस्तक तैयार करते हुए सचमुच इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?सुविधासंपन्न लोग अपने बच्चों की पाठन सामग्री के बारे में आमतौर पर सचेत रहते हैं। ज़रा भी शक हो तो हम सवाल उठाते हैं। यहाँ कोई चूक तो नहीं हो गई है? 1949 में शंकर के सामने ये सवाल न थेपर 2006 में समिति सदस्यों कोखास तौर को उनको जो दलितों की समस्याओं के बारे में हम सबको आगाह करते रहे हैंयह खयाल नहीं आया कि इस कार्टून में समस्या हैयह हमें सोचने को मजबूर करता है। योगेंद्र और सुहास विद्वान हैंवे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं। यह कार्टून पुस्तक में शामिल कैसे हुआ?

मान लें कि कार्टून को इस तरह से देखना ग़लत हैपर अगर किसी ने इसे ऐसे देखा और आपत्ति जताई तो इसे हटाने से कितना नुकसान होता हैयह कोई आस्था पर आधारित आपत्ति नहींसंभव है ऐसा होता तो हम इसे सहानुभूति के साथ देखतेयह तो हजारों वर्षों से चल रही हिंसा और बहिष्कार के अनुभव पर आधारित प्रतिक्रिया है। गैर-दलित इस बात को नहीं समझ पाते तो गड़बड़ दलितों में नहींहम ही में है। अक्सर दलितों की प्रतिक्रिया सही नहीं होती हैपर क्या यह आश्चर्य की बात है कि दलित बौखलाहट भरी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। निरंतर बहिष्कार की पीड़ा हमारी मानवता को हमसे छीन लेती है।

एक कार्टून वहीं तक सीमित होता हैजो दृश्य वह प्रस्तुत करता है। वह प्रेमचंद की कहानी नहीं होताजिसे पूरी पढ़कर ही हम सामान्य निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं।

कुछ लोगों को लगता है कि दलित बुद्धिजीवी आलोचना झेल नहीं सकते। उन्हें लगता है कि अंबेदकर को खुदा बनाने की कोशिश चल रही है। वे कहते हैं कि आखिर कार्टून तो गाँधी नेहरू पर भी बनते रहे हैं। प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती हैविश्व इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैँ। साठ के दशक मेंजब अमेरिका में काले लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर थाजिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थेप्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः लीरॉय जोन्सने लिखाः- 'ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।कोई भी इस हिंसक अभिव्यक्ति को सभ्य नहीं कहेगा। आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं - 'आदिम हिंस्र मानव से यदि मेरा कोई नाता हैस्वजन खोए श्मशानों में तुम्हारी चिता मैं जला कर रहूँगा।बराका की कविता आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरों ने इसका विरोध किया या नहींइसका कोई दस्तावेज नहीं हैपर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद कियायह इतिहास है। गोरों से आया विरोध निरर्थक हैपर अफ्रो-अमेरिकी समुदाय के अंदर से आया विरोध सार्थक हो गया। क्या भारतीय समाज में गैर दलितों को भी ऐसे ही धीरज रखना नहीं चाहिए?

दलित चिंतकों में यह समझ क्या हमसे कम है कि अंबेदकर को खुदा नहीं बनाना हैऐसी कोई वजह तो है नहीं कि वे हमसे कम समझदार हों। यह तो उन्हें भी पता है कि गाँधी नेहरू पर भी कार्टून बनते रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम निजी अनुभवों से आहत होकर यह मानने लगे हों कि दलित चिंतक सही निर्णय ले ही नहीं सकतेउनके लिए सही निर्णय सिर्फ हम ही ले सकते हैंनिश्चित ही ऐसी संकीर्ण सोच के शिकार योगेंद्र या सुहास नहीं हैं। तो फिर हमें इन प्रक्रियाओं के मनोविज्ञान को सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की ज़रूरत है। गाँधी नेहरू को खुदा मानने वाले लोग भी हमारे समाज में हैंपर अंबेदकर उन लोगों का खुदा है जिनके लिए और किसी मान्य खुदा के पास जाना हजारों वर्षों तक वर्जित था। 1949 में ही अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा - 'ह्वाट हैपेन्स टू अ ड्रीम डिफर्डदरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है....? शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है या फिर वह विस्फोट बन फूटता है?'

इतना तो कहा ही जा सकता है कि निपीड़ितों का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी कितनी हैहम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैंउनको झेलने की ताकत हममें होइसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता।

जहाँ तक संसद की बहस का सवाल हैवहाँ शोरगुल होता रहता है। उससे परेशान होकर योगेंद्र और सुहास समिति से निकल गए हैंयह दुखदायी है। उनके खिलाफ जो हिंसक बयान आए हैं और पुणे में हुई घटना की निंदा हर सचेत व्यक्ति कर रहा है। उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है कि वे वापस अपना काम सँभालें और गंभीरता से हमारे बच्चों को सही पाठ सिखाने का काम करते रहें।

(लाल्टू जी का यह लेख जनसत्ता में `विवाद के बीच एक संवाद` शीर्षक से छपा है।)

Monday, April 14, 2008

अम्बेडकर जयंती पर

भीमराव अम्बेडकर के विचार
-हिंदू धर्म में रहकर जातिप्रथा समाप्त करने का प्रयास मीठे जहर को चाटने के समान होगा।


-हिन्दूवाद आजादी, बराबरी और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इसी कारण इसका लोकतंत्र से कोई मेल नहीं, यह उसका विरोधी है।



-हिंदू धर्म जो असमानता और अन्याय की विचारधाराओं पर आधारित है, गरिमा एवं उत्साह के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता।



-मैं घृणा करता हूँ अन्याय से, ज़ुल्म से, आडम्बर से व पाखण्ड से, छल कपट और बकवास से। जो लोग इनके अपराधी हैं, वे सभी मेरी घृणा की लपेट में आते हैं।



-हिंदू समाज एक ऐसी मीनार के समान है जिसमें अनेक मंजिलें हैं, पर उनमें प्रवेश के लिए कोई द्वार नहीं है। व्यक्ति उसी मंजिल में दम तोड़ेगा जिसमें वह पैदा हुआ।



-हिंदू समाज व्यवस्था की जड़ में वह धर्म है जो मनुस्मृति में निर्धारित है......जब तक स्मृति-धर्म की वर्तमान नींव को उखाड़कर कोई नवीन नींव नहीं डाली जाती, तब तक हिंदू समाज से असमानता का अंत सम्भव नहीं होगा...
-भीमराव अम्बेडकर