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Thursday, October 25, 2018

विष्णु खरे—स्मरण : असद ज़ैदी



पंद्रह नवम्बर २०१७ की शाम दिमाग़ में नक़्श है। लोदी रोड श्मशान में कुँवर नारायण के अंतिम संस्कार के वक़्त अचानक दो लोगों पर नज़र पड़ी−−दीवार के सहारे रखी एक बेंच पर विष्णु खरे  अौर केदारनाथ सिंह बैठे थे, नीम अँधेरे में। दोनों बहुत दुर्बल, पस्त अौर लगभग प्राणहीन लग रहे थे, जैसे वहाँ हों ही नहीं, अौर कहते हों कि हमें भी मरा ही जानो। ख़ामोश अभिवादन किया, उन्होंने बड़ी बेज़ारी से सर हिलाया जैसे सरहद पार कर चुके हों। मुझे लगा अब पता नहीं इन्हें दुबारा देख पाऊँगा या नहीं। साल भी न गुज़रा अौर अब वे इस दुनिया में नहीं है। 

लेकिन यह विष्णु खरे से अंतिम ‘संवाद’ न था। इस जून के महीने में यह ख़बर सुनकर कि वह अाम अादमी पार्टी के तहत अाने वाली दिल्ली हिन्दी अकादमी के उप सभापति मनोनीत किये गए हैं, अौर इस तरह वह अपने अज़ीज़ शहर में रहने वापस अा पाएंगे, मैंने उन्हें यह संक्षिप्त ई-मेल संदेश भेजा (२३ जून)−−

“क़िबला, कुछ ख़बर सुनी है। उम्मीद है सच ही निकलेगी। लिहाज़ा बधाई... अौर ख़ुदा ख़ैर करे!” 

जल्दी ही उनका मुख़्तसर जवाब अाया−−

“इसमें ‘ख़ुदा ख़ैर करे’ ही operative part [काम की बात] है।” 

कम से कम पिछले चालीस साल से हमारे दरमियान संवाद की यही शैली बरक़रार रही। उनसे ऐसी वाक़फ़ियत मेरी ख़ुशक़िस्मती अौर दोस्ती की यह हालत मेरा अभिमान रही। यह ऐसा रिश्ता था जिसमें हम एक दूसरे से बोले कम, नाख़ुश ज़्यादा रहे।

नौ सितम्बर को उन्होँने अपने नये कार्यकाल का पहला काव्यपाठ कराया, जिसमें मैं भी अामंत्रित था। क़रीब दो-ढाई घंटे का साथ रहा। कुछ ख़ामोश लेकिन पुरसुकून नज़र अाते थे। कार्यक्रम के बाद वे जल्द ही अपने अावास के लिए निकल पड़े। दो दिन बाद पता चला ब्रेन हैमरेज के बाद वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। शरीर के एक हिस्से को लकवा मार गया था। हफ़्ते भर की बेहोशी के बाद वह इस दुनिया से चले गए। बहुत सारी बातें अधूरी छूट गईं।

हम जब कविता या कहानी लिखते हैं तो ऐसे कुछ ज़रूरी चेहरे दिमाग़ में रहते हैं जिनके बारे में या तो हमें यक़ीन होता है कि वे हमारे लिखे को पढ़ेंगे या कुछ चिंता होती है कि वे अगर पढ़ेंगे तो क्या कहेंगे। कहीं किसी जगह एक अादमी नज़र रखे हुए है। विष्णु खरे न सिर्फ़ मेरी पीढ़ी के बहुत से कवि-लेखकों के लिए, बल्कि हिन्दी मे सक्रिय बहुत सारे दूसरे लोगों के लिए भी,  ऐसा ही एक ज़रूरी चेहरा थे। वह कभी हमारे ख़यालों से दूर न रहे। उनका जाना एक , ज़रूरी अादमी का जाना अौर एक दुखद ख़ालीपन का अाना है। मेरी पीढ़ी ने एक अाधुनिक दिमाग़, तेज़ नज़र काव्य-पारखी, अालोचक, दोस्त, स्थायी रक़ीब अौर नई पीढ़ी ने अपना एक ग़ुस्सेवर लेकिन ममतालु सरपरस्त खो दिया है। इस रूप में वह हमारे सबसे क़ीमती समकालीन थे। 

चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर 
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच 
(मीर)

विष्णु खरे एक अौर घर ख़ाली कर गए हैं, वह घर जो सिर्फ़ उन्हीं के लिए बना था। उसमें कोई अौर नहीं रह सकेगा। कभी उस घर में मीर मेहमान होते थे, कभी मुक्तिबोध, कभी श्रीकांत अौर कभी रघुवीर सहाय। उस घर को बाहर से, उड़ती उड़ती नज़र से ही देखा गया, उस में दाख़िल होना सबके बूते की बात न थी। कविता के उस घर में अावाज़ें हैं, तस्वीरें हैं, बेचैन रूहें भटकती हैं, वहाँ विषाद है, अार्त्तनाद है, बार बार अपने ही से सामना है, जहाँ कल भी अाज है, अौर विस्मृति है ही नहीं। इस घर में बहुत जंजाल है, क्लेश है, पर कुछ भी अोझल अौर अमूर्त्त नहीं है। कुछ कमरे बंद पड़े हैं, जिन्हें खोलने से वह ख़ुद भी डरते थे, वो अब कभी नहीं खुलेंगे। वह इस मकान के मकीन होकर कम, पहरेदार होकर ज़्यादा रहे। इस घर का नक़्शा उनके जीवनीपरक ब्यौरों से कम उनकी कविताअों से ही झलकता रहेगा। 

वह अत्यंत भावुक, संवेदनशील अौर असुरक्षित व्यक्ति थे। अपने इस बुनियादी किरदार को, अपनी वेध्यता को, ढँकने के लिए उन्होंने एक रूखा, अाक्रामक अौर नाटकीय अंदाज़ अपनाया था। उनका यही सार्वजनिक रूप बन गया अौर इसी तर्ज़ के लिए वह जाने गए। उनके अंतरंग मित्र उनके इस स्वाभाव को समझते थे, लिहाज़ा उनकी बहुत सी बातों को नज़रअंदाज़ करते थे। सभी मित्र जहाँ तक बन पड़ता उनकी हिमायत में रहते थे, बेजा अाक्रमण से उनकी हिफ़ाज़त करते थे। वैसे भी विष्णु जी ने मुहब्बत अौर अदावत में कभी ज़्यादा फ़ासला न रखा। यह उन लोगों की कमनज़री है जिन्होंने उनकी ज़्यादतियाँ तो देखीं पर जो उनकी बेरुख़ी अौर ग़ुर्राहट में प्यार अौर हमदर्दी की झलक न देख सके। 

विष्णु खरे ने साहित्य जगत में एक तेज़-तर्रार विध्वंसक अालोचक की तरह प्रवेश किया अौर तत्काल ही अपनी प्रतिभा के लिए पहचाने गए। उनकी ताज़गी, खुले दिमाग़, ज़हानत अौर अध्यवसाय से लोग प्रभावित होते थे। वह अपेक्षाकृत युवा थे अौर उस दौर में युवा होना ख़ुशक़िस्मती की निशानी थी। ऐसा लगता था कि राजनीति, समाज, संस्कृति निर्णायक मोड़ पर है, जो बदलाव अाया चाहता है उसका कार्यभार १९४० के बाद जन्मी पीढ़ी पर है, उसमें अात्मविश्वास है, जोखिम उठाने का जज़्बा है, समस्या वही हल करेगी, उसके पास सारी चाबियाँ मौजूद हैं। १९६४ से १९७५ के बीच का काल भारतीय राजनीति अौर कलाअों में एक प्रकार का मुक्ति प्रसंग था अौर समाज की अंतरात्मा पर कई तरह की दावेदारियाँ सामने अा रही थीं। पहली बार संस्कृति में अवाँगार्द प्रवृत्तियाँ प्रधान प्रवृत्तियों की तरह स्थापित होने लगी थीं।  वाम में नव-स्फूर्ति अौर दूरगामी विघटन की प्रक्रियाएँ एक साथ चल रही थीं, गो यह बात उस वक़्त  इतनी स्पष्ट न थी। कालांतर में बहुत कुछ एक भोर का सपना ही साबित हुअा। वह दौर जिसे परिवर्तनकारी दौर की तरह देखा जा रहा था, एक लम्बे राष्ट्रीय दुखांत से पहले का अंतराल था। प्रतिभाशाली लोगों की यह पहली खेप नहीं थी जिसकी सामाजिक हस्तक्षेपकारी संभावनाएँ मूर्त्तिमान नहीं हो सकीं अौर उनकी अपनी क्षमता अौर ताक़त संस्थानों अौर प्रतिष्ठानों के भीतर ही जज़्ब होकर या अपना स्थान वहाँ बनाए रखने में ही ख़र्च होकर रह गई। विष्णु खरे इसका अपवाद न थे। 

विष्णु खरे हरदम संस्कृति अौर साहित्य की दुनिया में रमे रहकर खप जाना चाहते थे। उनके दौर के हालात साज़गार नहीं थे, अौर न सिर्फ़ उनका स्वभाव बल्कि उनकी वैचारिक प्रेरणाएँ भी रास्ते में अाती थीं। लेकिन सांस्कृतिक परिदृश्य में केन्द्रीय अौर निर्णायक भूमिका निभाने की उनकी तीव्र इच्छा उन्हें एक ग़लत जगह ले गई। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हस्तिनापुर कॉलेज (अब मोतीलाल नेहरू कॉलेज) में अंग्रेज़ी अध्यापक की स्थायी नौकरी छोड़कर साहित्य अकादमी के उप-सचिव पद के लिए अावेदन देने की ठान ली। भारतभूषण अग्रवाल ने भी उन्हें इस काम के लिए प्रेरित किया। एक रोज़ उन्होंने अपनी जीवनसाथी कुमुद को स्कूटर पर बिठाया अौर दोनों ख़ुशी ख़ुशी भारतभूषण जी के पास गए अौर उन्हीं को अावेदन देकर अा गए। वह एक संभावनामय, सार्थक अौर उज्ज्वल भविष्य की अोर नहीं, बल्कि अँधेरे में छलाँग लगा रहे थे। १९७६ में वह साहित्य अकादमी के उप-सचिव तैनात हुए। उस समय उनकी उम्र ३६ साल थी। मैं बाईस तेईस साल का था अौर उद्दंडता को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था। उसी साल या शायद उससे अगले साल एक रोज़ मैंने उनसे पूछा, “अापको संस्कृति प्रशासक बनने का इतना शौक़ कैसे पैदा हुअा? अध्यापकी में जो अाज़ादी अौर गरिमा है उसे लात मारकर कहाँ ये साहित्य अकादेमी में अा फँसे? अापको बहुत समझौते करने पड़ेंगे।” विष्णु खरे ने मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखा अौर एक क्रुद्ध साँड की तरह डकराए—“हुँह!” ज़ाहिर है उन्हें कोई मलाल न था। उन्होंने कुछ इस इस तरह की बात कही कि तुम्हें क्या लगता है मैं यहाँ क्या करने बैठा हूँ? मैंने कहा, खरे जी, यह जगह अौसतपन (मीडियॉक्रिटी) का गढ़ है। अाप नष्ट हो जाएँगे। बोले, तुम कह रहे हो मैं यहाँ अौसत काम करूँगा। मैंने कहा, देख लीजिएगा। उन्होंने कुछ स्नेह अौर कुछ नाराज़ी से कहा, “तुम्हें तुम्हारी ये काली ज़बान बहुत कष्ट देगी। तुम जे एन यू में हो। वहाँ वो नामवर भी है... उससे बचके रहना।”

मुझे अाज तक इस बातचीत पर अफ़सोस अौर ग्लानि है। अपनी धृष्टता पर, अौर इस बात पर कि मेरी ‘काली ज़बान’ से अनायास जो बात निकली थी वह एक तरह की भविष्यवाणी साबित हुई। साहित्य अकादेमी के कार्यक्रम प्रभारी वाले अपने कार्यकाल में उनके सम्पर्क अखिल भारतीय साहित्यिक अभिजन या श्रेष्ठिवर्ग अौर देशी विदेशी साहित्य संस्थानों अौर मंडलियों से अौर दूतावासों से बढ़े, अनुवाद का काम तलाशते बेरोज़गारों को छिटपुट काम दिला सके, छोटे प्रकाशकों अौर छापेख़ानों के मालिक उनके चक्कर लगाते थे, इस रुसूख़ की वजह से नए कवियों के कविता संग्रह छपाने में मददगार हुए, कविता-कहानी लिखने वाले प्रशासनिक सेवाअों में सक्रिय  नौकरशाहों से बराबरी से बात करने की सुविधा प्राप्त हुई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि साहित्य अकादेमी की अाला अफ़सरी की वजह से हिन्दी के अाचार्यगण अौर पिछड़ी समझ के लेखक कवि अब उनकी कविता को कुछ मान्यता देने लगे। लेकिन कुल मिलाकर उनके जीवन के इतने सारे वर्ष वहाँ बरबाद ही हुए। एक बुद्धिजीवी, चिंतक अौर लेखक के रूप में उनका विकास अवरुद्ध हुअा। अौर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों का अौर हिन्दी की व्यावसायिक दुनिया से संबंधों का यह जाल मायाजाल ही साबित हुअा। ये सम्पर्क अौर लगातार विस्तारमान दिखती दुनिया अंततः कामकाजी दुनिया थी, वे संबंध भी कामकाजी अौर रस्मी ही थे। वह उनकी कॉन्स्टीटुएन्सी थी ही नहीं। जब तक महफ़िल गर्म थी, उन्हें अच्छा लगता रहा। अकादेमी से जब हटे तो यह दुनिया सिकुड़ गई। संस्कृति के महाबली बनने का उनका सपना कब का ख़त्म हो चुका था। मातहती उन्हें अाती न थी, बिना मातहती के अाज की दुनिया में महाबली कोई बन नहीं सकता।

उनकी दूसरी भूल थी यह समझना कि वह हिन्दी पत्रकारिता में कुछ परिवर्तन ला पाएँगे। टाइम्स ग्रुप में वह ऐसे समय नौकरी करने लगे जब अख़बार की दुनिया में समीर जैन-विनीत जैन का अभ्युदय हो चुका था, अौर पत्रकारिता एक बुद्धिविरोधी, मुजरिमाना दौर में प्रवेश कर चुकी थी। एक पेशे के रूप में भी पत्रकारिता का महत्त्व गिर रहा था, संपादकी का दरजा घट रहा था अौर काम की शर्तें पत्रकारों के विरुद्ध बदली जा रही थीं। कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू किया जा रहा था। ऐसे समय में मैनेजमेंट के साथ होना इस प्रक्रिया की पैरोकारी करना अौर इसमें मालिकान का हाथ बटाना ही था, जो काम (मुझे खेद है कि) सुरेन्द्रप्रताप सिंह जैसे संपादकों ने जमकर किया। इस दौर में बहुत से उपयोगी लफंगे पत्रकारिता में घुसे, अौर अख़बारों में उनका महत्त्व बढ़ता गया। ऐसे ही दौर में दिल्ली, लखनऊ, जयपुर में सम्पादकी करने के बाद विष्णु खरे पत्रकारिता से बाहर अाए। ज़िंदगी के इतने साल फिर से बरबाद करके। वह ख़ुद कहते थै ‘मॉय ट्रिस्ट विद जर्नलिज़्म वाज़ अ फ़िअास्को।’ अौर सही ही कहते थे।

इस दौर के बाद का उनका जीवन एक फ़्री-लांसर का जीवन था, जो कि हिन्दी में कोई जीवन ही नहीं हैं। पेशेवरी के ऐतबार से अनुवादक का जीवन भी, जैसा कि सब जानते हैं, कोई जीवन नहीं है, अौर फ़िल्म समीक्षक या फ़िल्म अालोचक का जीवन भी कोई जीवन नहीं है। इस दौर में जो काम उन्होंने किये अच्छे ही किए, पर मुझे संदेह है कि अपनी प्राथमिकता से किए। इस सिलसिले में उन्होंने ऐसी अवांछनीय जिरहें भी कीं जो अगर वह न करते तो हिन्दी के एक रौशनख़याल, सेकुलर नज़रिए पर जीवन भर अडिग रहने वाले अादमी के रूप में उनकी छवि को नुक़सान न पहुँचता। मैं तो यही समझता हूँ कि पिछले पंद्रह बीस साल में उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य, ख़ासकर काव्य परिदृश्य, में विराट हस्तक्षेप अौर कॉन्स्टीटुएन्सी बिल्डिंग की जो कोशिशें कीं, उनके पीछे कोई सुचिंतित ख़ाका, गहरी कल्पनाशीलता या गहन सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन न था। उनके व्यक्तित्त्व में एक मुक्तिबोधीय पहलू ज़रूर था, जिसकी मांग वह पूरी न कर सके। इसका उन्हें अहसास था, ऐसा मुझे लगता है।

मुझे उनको देखकर हमेशा श्रीकांत वर्मा की याद अाई। वही बेचैनी, वैसी ही महत्त्वाकांक्षा, वैसा ही फ़्रस्ट्रेशन। उन्हें ताक़त अाज़माना अाता था लेकिन ताक़त का माक़ूल इस्तेमाल नहीं कर सकते थे—उसके प्रदर्शन में ही उनका वक़्त निकल जाता था। न वह अच्छे बॉस थे, न अच्छे मातहत। पूरा जीवन संशय अौर दुविधा से भरा था पर वह कभी यह क़ुबूल नहीं करते थे।  ऐसा वक़्त भी था — अौर बीच बीच में अभी तक अाता रहा — जब विष्णु खरे को एक कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी या सिक्काबंद वामपंथी की तरह देखा गया। अक्सर उन्हें ख़ुद भी शौक़ होता था कि उनको प्रतिबद्ध वामपंथी कहा जाए। पर इससे जो ज़िम्मेदारी अान पड़ती है उसे उठाना उनके बस में कभी न रहा। इन दोनों—श्रीकांत अौर विष्णु—पर मुक्तिबोध का साया पड़ा था। वह साया जीवन भर उनके साथ लगा रहा—वे जानते थे वे किसके प्रति जवाबदेह हैं। इनके अंतःकरण में मुक्तिबोध मौजूद थे। वे यह भी जानते है कि उनके लिए यह वरदान नहीं अभिशाप है। वे इसी अंतःकरण में मुक्तिबोधियन शाप झेलने को अभिशप्त हैं। यह कोई निन्दा नहीं, इनके व्यक्तित्त्व अौर कृतित्त्व के मर्म को समझने का प्रयास है। कम से कम विष्णु खरे को ख़ुद इस धारणा से ऐतराज़ न था। एक बार इसी ‘मुक्तिबोधियन कर्स’ पर कुछ बात हुई। वह अचानक विचलित हुए, ठंडी साँस भरकर बोले—‘हाँ भई…’ अौर चुप हो गए।

यह सब मैं इसलिए कहता हूँ कि १९७० के दशक में विष्णु खरे हिन्दी साहित्य अौर संस्कृति जगत के भावी अौर समर्थ नेता के रूप में देखे जाने लगे थे। ही वाज़ द नेक्स्ट बिग होप। वह मेरे  भी हीरो थे। वह एक अाला दर्जे का चिंतक, साहित्येतिहास लेखक, सिद्धांतकार हो सकते थे, किसी हद तक थे भी, लेकिन बेशतर काम वह किए बिना चल बसे। बेशक उनकी ये असफलताएँ या विवशताएँ हममें से बहुतों की सफलताअों से तो बेहतर ही हैं। उनकी समस्या यह थी कि वह सत्ता, रुतबे, सरपरस्ती या संस्थान से जुड़े बिना कुछ करना पसंद नहीं करते थे। सिर्फ़ अपने दम पर कुछ पहल लेने को वह अपने अात्मसम्मान के  ख़िलाफ़ समझते थै। एक तरह के विद्रोही होने के बावुजूद उन्हें सत्ता या इक़्तिदार का मोह भी था जो कि मेरी पीढ़ी के लोगों में भी कम नहीं हैं, अलबत्ता उनकी विष्णु खरे जैसी पहुँच नहीं है।  


यह मुहब्बतनामा कुछ जल्दी में लिखा गया है। अौर अच्छा ही है कि जल्दी ने कुछ लिखवा लिया अौर दुबारा ग़ौर करने का मौक़ा संपादक ने न दिया। बहरहाल मौसूफ़ ज़िंदा होते तो इसमें मीन मेख़ ज़रूर निकालते, पर कुल मिलाकर इसे मुहब्बतनामा ही जानते।








(‘समयान्तर’ में `एक और खाली घर` शीर्षक से प्रकाशित। वहीं से साभार)


Thursday, November 28, 2013

अपने से डरा हुआ बहुमत : असद ज़ैदी



क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ (ग़ालिब)

नमरूद बाइबिल और क़ुरआन में वर्णित एक अत्याचारी शासक था जिसने ख़ुदाई का दावा किया और राज्याज्ञा जारी की कि अब से उसके अलावा किसी की मूर्ति नहीं पूजी जाएगी। पालन न करने वालों को क़त्ल कर दिया जाता था। नरेन्द्र मोदी ने, जिनके नाम और कारनामे सहज ही नमरूद की याद दिलाते हैं, अब अपने आप को भारत का प्रधानमंत्री चुन लिया है। बस इतनी सी कसर है कि भारत के अवाम अगले साल होने वाले आम चुनाव में उनकी भारतीय जनता पार्टी को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं तो सबसे ज़्यादा सीट जीतने वाला दल बना दें। इसके बाद क्या होगा यह अभी से तय है। पूरी स्क्रिप्ट लिखी ही जा चुकी है। इस भविष्य को पाने के लिए ज़रूरी कार्रवाइयों की तैयारी एक अरसे से जारी है । मुज़फ़्फ़रनगर में मुस्लिम जनता पर बर्बर हमला, हत्याएँ, बलात्कार, असाधारण क्रूरता की नुमाइश और बड़े पैमाने पर विस्थापन इस स्क्रिप्ट का आरंभिक अध्याय है। यह उस दस-साला खूनी अभियान का भी हिस्सा है जिसके ज़रिए हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ हिन्दुस्तानी राज्य और समाज पर अपने दावे और आधिपत्य को बढ़ाती जा रही हैं।

यह आधिपत्य कहाँ तक जा पहुँचा है इसकी प्रत्यक्ष मिसालें देना ज़रूरी नहीं है -- क्योंकि जो देखना चाहते हैं देख ही सकते हैं -- पर जो परोक्ष में है और भी चिंताजनक है। मसलन, लेखक कवियों और कलाकारों के बीच विमर्श को जाँचिए, उस स्पर्धा और घमासान को देखिए जो हमेशा उनके बीच होता ही रहता है, हिन्दी के अध्यापकों से बात कीजिए, और मुज़फ़्फ़रनगर का ज़िक्र छेड़िये तो लगेगा मुज़फ़्फ़रनगर में शायद कोई मामूली वारदात हुई है जो होकर ख़त्म हो गई। जैसे किसी को मच्छर ने काट लिया हो! मुज़फ़्फ़रनगर की बग़ल में, दिल्ली में, बैठे हुए किसी को सुध नहीं कि पड़ोस में क्या हुआ था और हो रहा है, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, भोपाल, पटना, चंडीगढ़ और शिमला का तो ज़िक्र ही क्या! इक्के दुक्के पत्रकारों, चंद कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों की को छोड़ दें तो किसी लेखक-कलाकार को वहाँ जाने की तौफ़ीक़ नहीं हुई। उनमें से एक शरणार्थी कैम्प तो दिल्ली की सीमा ही पर है। मात्र एक ज़िले में क़रीब एक लाख लोग अपने गाँवों और घरों से खदेड़ दिये गए, शायद अब कभी वहाँ लौट नहीं पाएँगे, उनके भविष्य में असुरक्षा और अंधकार के सिवा कुछ नहीं, उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति साहित्य, कला, संस्कृति, पत्र-पत्रिका, अख़बार, सोशल मीडिया में सरसरी तौर से भी ठीक से दर्ज नहीं हो पा रही। ऐसे है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और जो अब हो रहा है वो भी नहीं हो रहा!

मामला इतने पर ही नहीं रुकता। संघ परिवार, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का इस प्रसंग से जैसे कोई वास्ता ही नहीं! मीडिया को उनका नामोल्लेख करना ग़ैर-जायज़ लगता है। मामले को ऐसे बयान किया गया कि यह सिर्फ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की चुनावी चाल थी जो उल्टी पड़ गई। अगर कोई कहता है कि कैसे मुज़फ़्फ़रनगर में गुजरात का प्रयोग विधिवत ढंग से दोहराया गया है, और इस वक़्त वहाँ की दबंग जातियाँ, पुलिस और काफ़ी हद तक प्रशासन मोदी-मय हो रहा है, और यह कि मुज़फ़्फ्ररनगर क्षेत्र में संघ परिवार बहुत दिन से ये कारनामा अंजाम देने की तैयारी कर रहा था, तो आम बौद्धिक कहने वाले की तरफ़ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत दूर की कौड़ी लाया हो। हिन्दी इलाक़े के बौद्धिकों में -- जिनमें अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी कम नहीं हैं -- फ़ासिज़्म को इसी तरह देखा या अनदेखा किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले हिन्दी के एक पुराने बुद्धिमान ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी पर ज़्यादा चर्चा से उसीका महत्व बढ़ता है; बेहतर हो कि हम मोदी को 'इगनोर' करना सीख लें। एक प्रकार से वह साहित्य की दुनिया में आज़माये फ़ार्मूले को राष्ट्रीय राजनीति पर लागू कर रहे थे। इतिहास में उन जैसे चिन्तकों ने पहले भी हिटलर और मुसोलिनी को 'इगनोर' करने की सलाह दी थी।

अगर यह नादानी या मासूमियत की दास्तान होती तो दूसरी बात होती। इसी तबक़े के लोगों ने यू आर अनंतमूर्ति प्रकरण में जिस मुस्तैदी और जोश से बहस में हिस्सा लिया वह कहाँ से आई? अनंतमूर्ति ने जब यह कहा कि वह ऐसे मुल्क में नहीं रहना चाहेंगे जहाँ मोदी जैसा आदमी प्रधानमंत्री हो, संघ परिवार द्वारा लोकतंत्र पर जैसी फ़ासीवादी चढ़ाई की तैयारी है, अगर वह सफल हो गई तो यह देश रहने लायक़ नहीं रह जाएगा, तो लगा जैसे क़हर बरपा हो गया! शायद ही वर्तमान या अतीत के किसी लोहियावादी को एक साथ संघ परिवार और हिन्दी के उदारमना मध्यममार्गी लोगों का ऐसा कोप झेलना पड़ा हो। अचानक साहित्य और पत्रकारिता के सारे देशभक्त जाग उठे और बुज़ुर्ग लेखक के 'देशद्रोह' की बेहूदा तरीक़े से निन्दा करने लगे। यह अनंतमूर्ति की वतनपरस्ती ही थी कि उन्होंने ऐसी बात कही। रंगे सियारों के मुँह से यह बात थोड़े ही निकलने वाली थी! कौन चाहेगा कि उसका वतन एक क़ातिल और मानवद्रोही के पंजे में आ जाए? क्या इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि हज़ारों, बल्कि लाखों बल्कि लोगों को, रोते और बिलबिलाते हुए, अपने वतन को अलविदा कहनी पड़ी? पिछली सदी में जर्मनी में और स्पेन में, और १९४७ के भारत में क्या हुआ था? हर तरह के फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक लोग क्या इसी को शुद्धिकरण और राष्ट्र-निर्माण का दर्जा नहीं देते थे? कुछ लोग तमाम जानकारी जुटा कर यह साबित करने पर तुल गए कि अनंतमूर्ति नाम का शख़्स कितना चतुर, अवसरवादी और चालबाज़ रहा है। मामला फ़ासिस्ट ख़तरे से फिसलकर एक असहमत आदमी के चरित्र विश्लेषण पर आ ठहरा। वे किसका पक्ष ले रहे थे? ऐसी ही दुर्भाग्पूर्ण ख़बरदारी वह थी जिसका निशाना मक़बूल फ़िदा हुसेन बने। कई बुद्धिजीवी और अख़बारों के सम्पादक हुसेन को देश से खदेड़े जाने और परदेस में भी उनको चैन न लेने देने के अभियान का हिस्सा बन गए थे।

मुज़फ़्फ़रनगर पर ख़ामोशी और अनंतमूर्ति के मर्मभेदी बयान पर ऐसी वाचालता दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे यह पता चलता है कि ज़हर कितना अन्दर तक फैल चुका है। फ़ासिज्‍़म लोगों की भर्ती पैदल सैनिक के रूप में लुम्पेन तबक़े से ही नहीं, बीच और ऊपर के दर्जों से भी करता है। उसका एक छोटा दरवाज़ा बायें बाज़ू के इच्छुकों के लिए भी खुला होता है। कुछ साल के अन्तराल से आप किसी पुराने दोस्त और हमख़याल से मिलते हैं तो पता चलता है वह बस हमज़बान है, हमख़याल नहीं। आपका दिल टूटता है, ज़मीन आपके पैरों के नीचे से खिसकती लगती है, अपनी ही होशमन्दी पर शक होने लगता है। वैचारिक बदलाव ऐसे ही चुपके से आते हैं। बेशक इनके पीछे परिस्थितियों का दबाव भी होता है, पर यही दबाव प्रतिरोध के विकल्प को भी तो सामने कर सकता है। ऐसा नहीं होता नज़र आता इसकी वजह है बहुमत का डर और वाम-प्रतिरोध की परंपरा का क्षय। मेरी नज़र में जब लोग लोकतंत्र के मूल्यों की जगह बहुमतवाद के सिद्धान्त को ही सर्वोपरि मानने लगें, और राजनीति-समाज-दैनिक जीवन सब जगह उसी की संप्रभुता को स्वीकार कर लें, बहुमतवाद के पक्ष में न होकर भी उसके आतंक में रहने लगें, अपने को अल्पमत और अन्य को अचल बहुमत की तरह देखने लगें और ख़ुद अपने विचारों और प्रतिबद्धताओं के साथ नाइन्साफ़ी करने लगें तो अंत में यह नौबत आ जाती है कि बहुमत के लोग ही बहुमत से डरने लगते हैं। बहुमत ख़ुद से डरने लगता है।आज हिन्दुस्तान का लिबरल हिन्दू अपने ही से डरा हुआ है, उसे बाहर या भीतर के वास्तविक या काल्पनिक शत्रु की ज़रूरत नहीं रही। फ़ासिज़्म का रास्ता इसी तरह बना है, इसी से फ़ासीवादियों की ताक़त बढ़ी है। यह वह माहौल है जिसमें प्रगतिशील आदमी भी सच्ची बात कहने से घबराने लगता है, साफ़दिल लोग भी एक दूसरे से कन्नी काटने लगते हैं। बाक़ी अक़्लमंदों का तो कहना ही क्या, उनके भीतर छिपा सौदागर कमाई का मौक़ा भाँपकर सामने आ जाता है और अपनी प्रतिभा दिखाने लगता है। अक़लमंद लोग अपनी कायरता को भी फ़ायदे के यंत्र में बदल लेते हैं।

१९८९ के बाद पंद्रह बीस साल ऐसे आए थे जब भारत का मुख्यधारा का वाम (संसदीय वामपंथ ) यह कहता पाया जाता था कि दुनिया भर में समाजवादी राज्य-व्यवस्थाएँ टूट रही हैं, कुछ बिल्कुल मिट चुकी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में वाम की शक्ति घटी नहीं बल्कि इसी दौर में उत्तरोत्तर बढ़ी है। वाम संगठनों की सदस्यता में इज़ाफ़ा हुआ है और यह इसका प्रमाण है कि वाम दलों की नीतियाँ सही हैं, और यह कि हमारी वाम समझ ज़्यादा परिपक्व, ज़मीनी और पायेदार है। बूर्ज्वा पार्टियों का दिवालियापन अब ज़ाहिर होने लगा है। इस सूत्र को इसी दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति से मिलाकर देखें तो पता चलता है कि वाम के एक हिस्से ने अपने लिए कितनी बड़ी मरीचिका रच ली थी, और यथार्थ के प्रतिकूल पक्ष की अनदेखी करना सीख लिया था। वाम दलों ने अपनी बनाई मरीचिका में फँसकर अपने ही हौसले पस्त कर लिए हैं। इसी दौर में संघ परिवार की ख़ूनी रथयात्राएँ और सामाजिक अभियान शुरू हुए जिनकी परिणति बाबरी मस्जिद के विध्वंस और मुम्बई और सूरत के नरसंहारों में हुई। यह दौर हिन्दुत्व के राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य बनने का है, पहले खाड़ी युद्ध के साथ पश्चिम एशिया पर अमरीकी साम्राज्य के हमलों का है, और भारत में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मसमर्पण का है। इसी दौर में भारत स्वाधीन नीति छोड़कर अमरीका का मातहत और इज़राइल का दोस्त हुआ। इसी दौर में बंगाल की लम्बे अरसे से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार ने अवाम के एक हिस्से का समर्थन खो दिया क्योंकि वाम सरकार और वाम पार्टियों के व्यवहार में वाम और ग़ैर-वाम का फ़र्क़ ही नज़र आना बंद हो गया था। यही दौर मोदी की देखरेख में गुजरात में सन २००२ का ऐतिहासिक नरसंहार सम्पन्न हुआ जिसमें राजसत्ता के सभी अंगों ने अभूतपूर्व तालमेल का परिचय दिया और भारत में भावी फ़ासिज़्म क्या शक्ल लेगा इसकी झाँकी दिखाई। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार, निजीकरण और कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इसी हिन्दू फ़ासिस्ट मॉडल को विकास के अनुकरणीय आदर्श की तरह पेश किया जाता रहा है।

आज हिन्दुस्तान में संसाधनों की कारपोरेट लूट लूट नहीं राजकीय नीति के संरक्षण में क्रियान्वित की जाने वाली हथियारबंद व्यवस्था है। भारतीय राज्य का राष्ट्रवाद अवामी नहीं, दमनकारी पुलिसिया राष्ट्रवाद है, अर्धसैनिक और सैनिक ताक़त पर आश्रित राष्ट्रवाद है। यह अपनी ही जनता के विरुद्ध खड़ा राष्ट्रवाद है। वैसे तो सर्वत्र लेकिन उत्तरपूर्व, छत्तीसगढ़ और कश्मीर में सुबहो-शाम इसका असल रूप देखा जा सकता है। आर्थिक नीति, सैन्यीकृत राष्ट्रवाद और शासन-व्यवस्था के मामलों में कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। फ़ासिज्‍़म के उभार में इमरजेम्सी के ज़माने से ही दोनों का साझा रहा है। हिन्दुस्तान में फ़ासिज़्म के उभार का पिछली सदी में उभरे योरोपीय फ़ासिज़्म से काफ़ी साम्य है। जर्मन नात्सीवाद के नक़्शे क़दम पर चल रहा है। वह अपने इरादे छिपा भी नहीं रहा । बड़ा फ़र्क़ बस यह है कि भारतीय मीडिया और मध्यवर्ग इसी चीज़ को छिपाने में जी-जान से लगा है। फ़ासिज़्म फ़ासिज़्म न होकर कभी विकास हो जाता है कभी दंगा, गुजरात का नस्ली सफ़ाया गोधरा कांड की प्रतिक्रिया हो जाता है, मुज़फ़्फ़रनगर की व्यापक हिंसा जाट-मुस्लिम समुदायों की आपसी रंजिश का नतीजा या कवाल कांड की प्रतिक्रिया बन जाती है। हमारे बुद्धिजीवी विषयांतर में अपनी महारत दिखाकर इस फ़ासिज़्म को मज़बूत बनाए दे रहे हैं।

इस दुष्चक्र को तोड़ने का एक ही तरीक़ा है इन ताक़तों से सीधा सामना, हर स्तर पर सामना। और समय रहते हुए सामना। अपने रोज़मर्रा में हर जगह हस्तक्षेप के मूल्य को पहचानना। ऐसी सक्रिय नागरिकता ही लोकतंत्र को बचा सकती है। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है आज व्यवस्था के सताये हुए अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई), दलित और आदिवासी के साथ मज़बूती से खड़े होने की। अगर वाम शक्तियाँ और ग़ैर-दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वर्ग प्रतिबद्धता से यह कर सकें तो फ़ासिज़्म की इमारतें हिल जाएँगी और उनके आधे मन्सूबे धरे रह जाएँगे। इस समय ज़रूरत है फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ व्यापक वाम और अवामी एकता की -- अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी। बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी का काम इससे बाहर नहीं है।
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 `प्रभात खबर` दीवाली विशेषांक से साभार

Friday, November 15, 2013

ख्वाजादास के पद वाया मृत्युंजय



पिछले कुछ दिनों से वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी पर महाकवि ख्वाजादास की कृपा बनी हुई है। खुशी की बात यह है कि अब वे हमारे एक और बेहतरीन हिंदी कवि मृत्युंजय पर भी नाजिल हुए हैं। उन्होंने जो फरमाया, वह मृत्युंजय भाई की ही जुबानी-
 


[ख्वाजादास से असद जी ज़ैदी साहब ने तआररूफ़ करवाया था। असद जी की साखी पर मुझ नाचीज पर भी उनकी अहेतुक कृपा बरसी।]

[क]
सुबकत-अफनत ख्वाजादास !
नैहर-सासुर दोनों छूटा टूटी निर्गुनिये से आस
लतफत लोर हकासल चोला बीच करेजे अटकी फांस
गगने-पवने, माटी-पानी, अगिन काहु पर नहिं बिस्वास
थहकल गोड़ रीढ़ पर हमला जुद्धभूमि में उखड़ी  सांस  
सुन्न सिखर पर जख्म हरियरा फूलन लागे चहुंदिस बांस 
जेतने संगी सब मतिभंगी नुचड़ी-चिथड़ी दिखे उजास
बिरिछे बिरिछे टंगी चतुर्दिक फरहादो शीरीं की लाश

[ख]
ख्वाजादास पिया नहिं बहुरे !
नैनन नीर न जीव ठेकाने कथा फेरु नहिं कहु रे
यह रणभूमि नित्यप्रति खांडा गर्दन पे लपकहु रे 
ज़ोर जुलुम तन-मन-धन लूटत, जेठे कभु कभु लहुरे
कवन राहि तुम बिन अवगाहों खाय मरो अब महुरे
जहर तीर बेधत हैं तन-मन अगिन कांट करकहु रे
तुम्हरी आस फूल गूलर कै मन हरिना डरपहु रे
नाहिं कछू, हम कटि-लड़ि मरबों पाछे जनि आवहु रे

[ग]
ख्वाजा का पियवा रूठा रे !
भीतर धधकत मुंह नहिं खोलत दुबिधा परा अनूठा रे
आवहु सखि मिलि गेह सँभारो गुरु के छपरा टूटा रे
कोही कूर कुचाली कादर कुटिल कलंकी लूटा रे  
जप तप जोग समाधि हकीकी इश्क कोलाहल झूठा रे
पछिम दिसा से चक्रवात घट-पट-पनघट सब छूटा रे
मन महजिद पे मूसर धमकत राई-रत्ता कूटा रे   
सहमा-सिकुड़ा-डरा देस का पत्ता, बूटा-बूटा रे  

[घ]
ख्वाजा, संत बजार गये !
बधना असनी रेहल माला सब कुछ यहीं उतार गये
जतन से ओढ़ी धवल कामरी कचड़ा बीच लबार गये 
जनम करम की नासी सब गति करने को व्योपार गये
छोड़ि संग लकुटी-कामरि को हाथ लिये ज्योनार गये
नेम पेम जप जोग ज्ञान सब झोंकि आगि पतवार गये
हड़बड़ तड़बड़ लंगटा-लोटा बीच गली में डार गये
नये राज की नयी नीत के सिजदे को दरबार गये
 
[ङ]
ख्वाजा कहा होय अफनाये !
राजनीति बिष बेल लहालह धरम क दूध पियाये
देवल महजिद पण्य छापरी पंडित - मुल्ला छाये
सतचितसंवेदन पजारि के कुबुधि फसल उपजाये
देस पीर की झोरी - चादर साखा मृग नोचवाये
मन भीतर सौ-सौ तहखाना घृणा प्रपंच रचाये
दुरदिन दमन दुक्ख दरवाजे दंभिन राज बनाये
सांवर सखी संग हम रन में जो हो सो हो जाये

(ऊपर पेटिंग जाने-माने चित्रकार मनजीत बावा की है।)

Wednesday, October 30, 2013

विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है - असद ज़ैदी


`प्रभात खबर` अख़बार में छपा वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का इंटरव्यू

‘कविता’ आपके लिए क्या है?

कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीक़ा है। पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ़ते हों। कविता समाज को मुख़ातिब करती बाहरी आवाज़ नहीं, समाज ही में पैदा होने वाली एक आवाज़ है। चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख़। यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है। एक बात यह भी है कि कविता आदमी पर अपनी छाप छोड़ती है - जैसी कोई कविता लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इन्सान।


लेखन की शुरुआत स्वत: स्फूर्त थी या कोई प्रेरणा थी?

खुद अपने जीवन को उलट पुलटकर देखते, और जो पढ़ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मैं लिखने की तरफ़ माइल हुआ। घर में तालीम की क़द्र तो थी पर नाविल पढ़ने, सिनेमा देखने, बीड़ी सिगरेट पीने, शेरो-शाइरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था। यह लड़के के बिगड़ने या बुरी संगत में पड़ने की अलामतें थीं। लिहाज़ा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था। पर मिज़ाज में बग़ावत है, यह सब पर ज़ाहिर था।


आपने शुरुआत कहानी से की थी फिर कविता की ओर आये. कविता विधा ही क्यों?

शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से। मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है। यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है। कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है, और उसे किफ़ायत से बरतना भी सिखाती है। कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज़ है। वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है। हर कवि के अंदर कई तरह के लोग - संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार, फ़िल्मकार, कथाकार, मिनिएचरिस्ट, अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन श्रोता और एक ख़ामोश आदमी - हरदम मौजूद होते हैं।


अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.

मैं अक्सर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूँ। जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या ख़बर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फ़लाँ बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं। कई दफ़े अवचेतन में बनती कोई तस्वीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है जैसे कोई फ़िल्म निगेटिव अचानक धुलकर छापे जाना माँगता हो। मिर्ज़ा ने बड़ी अच्छी बात कही है - 'हैं ख़्वाब में हनोज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।'

दरअसल रचना प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज़ हो जाती है। यह तो बाद में जानने या फ़िक्र में लाने की चीज़ है। यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है - चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो - जो रचना में कोई मदद नहीं करता।

मुक्तिबोध से बेहतर चिंतन इस मामले में किसी ने नहीं किया, वह इन मामलात की गहराई में गए थे। 'कला का तीसरा क्षण' निबंध और 'बाह्य के आभ्यंत्रीकरण' और 'अभ्यन्तर के बाह्यकरण' का चक्रीय सिद्धान्त जानने और समझने की चीज़ें हैं। लेकिन मुझे यक़ीन है कवि के रूप में मुक्तिबोध 'तीसरे क्षण' के इन्तिज़ार में नहीं बैठे रहते थे।


अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज और परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?

संबंध इस तरह का है कि 'दस्ते तहे संग आमदः पैमाने वफ़ा है' (ग़ालिब)। मैं इन्ही चीज़ों के नीचे दबा हुआ हूँ, इनसे स्वतंत्र नहीं हूँ। लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड़ी राहत की बात है।


क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?

पानी में गीलापन होना उचित माना जाए या नहीं, वह उसमें होता है। समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है - आदिम गुफाचित्रों के समय से ही। विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं। बाज़ार से लाकर रचना पर कोई चीज़ थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीचकर या बीनकर निकालना बुरी बात है। यह उसकी मनुष्यता का हरण है। और एक झूटी गवाही देने की तरह है।


आप अपनी कविताओं में बहुत सहजता से देश और दुनिया की राजनीतिक विसंगतियों को आम आदमी की जिंदगी से जोड़ कर एक संवाद पेश करते हैं. क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?

मौजूदा वक़्त ख़राब है, और शायद इससे भी ख़राब वक़्त आने वाला है। यह कविता के लिए अच्छी बात है। कविकर्म की चुनौती और ज़िम्मेदारी, और कविता का अंतःकरण इसी से बनता है। अच्छे वक़्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गई हो। जो लिखी भी गई है वह बुरे वक़्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही। जहाँ तक कवि की आवाज़ के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिन्ता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि ख़ुद अपनी आवाज़ सुन पा रहा है? या उसी में एबज़ॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके तो बाक़ी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा।


आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) आपके साथ ‘हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है? इसके पीछे क्या वजहें हो सकती हैं?

मैं अपना ही आकलन कैसे करूँ! या क्या कहूँ? ऐसी कोई ख़ास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई। मेरी पिछली किताब मेरे ख़याल में ग़ौर से पढ़ी गई और चर्चा में भी रही। कुछ इधर का लेखन भी। इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला।


लेखन से जुड़े पुरस्कारों को कितना अहम मानते हैं एक लेखक के लिए?

मुझे अपने मित्र पंकज चतुर्वेदी की कविता 'कृतज्ञ और नतमस्तक' की याद आ रही है। यह कालजयी रचना बहुत थोड़े शब्दों में वह सब कह देती है जो इस मसले पर कहा जा सकता है।


कृतज्ञ और नतमस्तक
पंकज चतुर्वेदी

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे ख़ुद को
और पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना


आप अपनी सबसे प्रिय रचना के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?

इस बारे में राय बदलता रहता हूँ, किसी समय कोई कविता ठीक लगती है किसी और समय दूसरी। मेरे दोस्तों से पूछिए तो कहेंगे मेरी ज़्यादातर रचनाएँ अप्रिय रचनाएँ हैं। यह भी ठीक बात है। उन लोगों को जो पसन्द हैं - या सख़्त नापसंद हैं - वे कविताएँ हैं : बहनें, संस्कार, आयशा के लिए कुछ कविताएँ, पुश्तैनी तोप, दिल्ली दर्शन, कविता का जीवन, अप्रकाशित कविता, सामान की तलाश, आदि।


इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं? और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?

कुछ ख़ास नहीं। वही जो हमेशा से करता रहा हूँ। मेरी ज़्यादातर प्रेरणाएँ और मशग़ले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है। समाजविज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर "थ्री एसेज़" प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूँ। और अपना लिखना पढ़ना भी करता ही रहता हूँ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख़ासकर ख़याल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुज़ार दी है।


ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद ज़ेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?

चलते चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। मैं पुराना पाठक हूँ। जवाब देने बैठूँ तो बक़ौल शाइर - 'वो बदख़ू और मेरी दास्ताने-इश्क़ तूलानी / इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे।' कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अन्तोन चेख़व की कहानी 'वान्का' जो मैंने किशोर उम्र में ही पढ़ ली थीं ज़ेहन में नक़्श हो गईं हैं। इसके बाद की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
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`प्रभात खबर ` में इस बातचीत के कुछ पैराग्राफ नहीं हैं।

Wednesday, May 9, 2012

याकोब का मुर्ग़ा


(अपने समय के विख्यात चेक बाल कथा लेखक मिलोश मात्सोउरेक (1926-2002) की 'प्राणिशास्त्र' नाम की बाल कथा सीरीज़ से कुछ कहानियों का अनुवाद असद ज़ैदी ने पैंतीस साल पहले किया था जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से निकलने वाली पत्रिका 'कथ्य' में छपा था। 'कथ्य' का एक ही अंक निकल सका। इसी लेखक की कुछ और बाल कहानियों के ताज़ा अनुवाद 'जलसा' के आगामी संकलन - 'जलसा - - में आने जा रहे हैं। 'जलसा' के मुफ़्त इश्तिहार व अग्रिम झाँकी के बतौर एक कहानी यहाँ दी जा रही है।)

याकोब का मुर्ग़ा
मिलोश मात्सोउरेक की एक बाल कथा

मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही होता है, वह कैसा दिखता है तुम सब जानते हो, जानते हो न, तो फिर मुर्ग़े का चित्र बनाओ, अध्यापिका ने बच्चों से कहा, अौर सब बच्चे अपनी पेंसिल अौर क्रेयॉनों को चूसते हुए मुर्ग़े का चित्र बनाने में जुट गए, काले क्रेयॉन अौर भूरे क्रेयॉन से उनमें काला अौर भूरा रंग भरने लगे, लेकिन तुम तो जानते ही हो याकोब को, देखो ज़रा उसे, क्रेयॉन के बॉक्स में जितने रंगों के क्रेयॉन अाते हैं सब उसने इस्तेमाल कर लिए, फिर लॉरा से भी उधार लेकर कुछ अौर रंग भर डाले, इस प्रकार याकोब का जो मुर्ग़ा बना उसका सर नारंगी था, डैने नीले, जाँघें लाल, देखकर टीचर बोली अरे ये कैसा अजीबो-ग़रीब मुर्ग़ा है ज़रा देखो तो बच्चो, कक्षा के सारे बच्चे हँसी से लोटपोट हैं अौर टीचर कहे जा रही है कि यह सब लापरवाही का नतीजा है, कक्षा में याकोब का ध्यान कहीं अौर होता है, अौर सच तो यह है कि याकोब का मुर्ग़ा मुर्ग़ा नहीं पीरू या मुर्ग़ाबी की तरह नज़र अाता है, नहीं, बल्कि मोर की तरह, अाकार में बटेर के बराबर अौर अबाबील की तरह दुबला, मुर्ग़ा है कि अजूबा, याकोब को उसके प्रयास के लिए एफ़ मिलता है अौर उसके बनाए मुर्ग़े को दीवार पर टाँगने के बजाए टीचर की अल्मारी के ऊपर दूसरी रद्दी अौर बेमेल चीज़ों के बीच पटक दिया जाता है, बेचारे मुर्ग़े की भावनाअों को इससे बड़ी ठेस पहुँचती है, टीचर की अल्मारी के ऊपर धूल फाँकने के ख़याल से ही उसे घबराहट होती है, भला यह भी कोई ज़िन्दगी है, वह हिम्मत करके पर तौलता है अौर ज़ोर लगाकर खुली खिड़की के रास्ते उड़ जाता है।

लेकिन मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही हुअा न, वह ज़्यादा दूर तक उड़ नहीं सकता, लिहाज़ा उसकी उड़ान स्कूल के बग़ल में बने घर के बाग़ीचे में ख़त्म होती है, क्या ही शानदार ये बाग़ीचा है, चारों तरफ़ सफ़ेद चेरी के पेड़, नीले अंगूर की बेलें, बाग़बान की मेहनत अौर प्यार की गवाही देती जगह, अौर बाग़बान भी कोई ऐसे वैसे नहीं, प्रोफ़ेसर कापोन, जाने माने पक्षी-विज्ञानी जो पक्षियों पर सात ग्रंथों की रचना कर चुके हैं अौर अब अाठवीं किताब को पूरा करने में लगे हैं, वह उसका आख़िरी पैरा लिखना शुरू करते हैं कि अचानक उन्हें थकान घेर लेती है, अौर वह उठकर थोड़ी सी बाग़बानी अौर चहलक़दमी के लिए बाग़ीचे में अा जाते हैं, इससे उन्हें आराम मिलता है अौर चिड़ियों के बारे में सोचने का वक़्त भी, दुनिया में इतनी चििड़याँ हैं, बेशुमार, प्रोफ़ेसर कापोन अपने अाप से कहते हैं, लेकिन आह बदक़िस्मती कि एक भी चििड़या को खोजने का श्रेय मुझे नहीं जाता, वह उदास हो जाते हैं, फिर बेखुदी के अालम में सपना देखने लगते हैं कि अब तक अज्ञात रही एक चिड़िया को उन्होंने खोज निकाला है, तभी उनकी नज़र उस मुर्ग़े पर पड़ती है जो उनके दुलारे नीले अंगूरों को चुगे जा रहा है, उन दुर्लभ अंगूरों को, बताइये क्या ये अंगूर इसलिए लगाए गए थे कि मुर्ग़े-मुिर्ग़यों का दाना बनें, देखकर किसका ख़ून नहीं खौल उठेगा, प्रोफ़ेसर को ग़ुस्सा आ जाता है, ग़ुस्से में वह आपे से बाहर हो जाते हैं, उनकी इच्छा होती है कि पकड़कर मुर्ग़े की गरदन मरोड़ दें, पर अंत में वह उसे पकड़कर अहाते से बाहर फेंक देते हैं, मु्र्ग़ा घबराता हुआ उड़ जाता है, पर अरे यह क्या, प्रोफ़ेसर उसके पीछे पीछे भागने लगे हैं, अपने अहाते की दीवार फाँद जाते हैं, जैसे तैसे करके उसे फिर पकड़ने में सफल हो जाते हैं अौर प्यार से घर ले अाते हैं, काफ़ी अजीब सा यह मुर्ग़ा है, शर्त बद सकता हूँ आज तक किसी ने ऐसा मुर्ग़ा नहीं देखा होगा, नारंगी सर, नीले पंख अौर सुर्ख़ जाँघें, प्रोफ़ेसर यह सब काग़ज़ पर दर्ज कर रहे हैं, दिखने में कुछ पीरू या मुर्ग़ाबी जैसा, पर कुछ गौरैया की अौर कुछ मोर की याद दिलाता, बटेर की तरह गोल मटोल अौर अबाबील की तरह दुबला, अौर इस तरह अपनी अाठवीं किताब के लिए ये तफ़सील दर्ज करके प्रोफ़ेसर रोमांच से थरथराते हुए मुर्ग़े का नामकरण अपने नाम पर कर देते हैं अौर मुर्ग़े को ले जाकर काँपते हाथों से चििड़याघर में सौंप आते हैं।

मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही होता है, अाप सोचते हैं किसे दिलचस्पी होगी एक मुर्ग़े से, पर इस मुर्ग़े ने तो पूरे चिड़ियाघर में तहलका मचा दिया है, ऐसी दुर्लभ चीज़ बीस-पच्चीस साल में एकाध बार प्रकट हो तो हो, चिड़ियाघर का डाइरेक्टर उत्तेजना में हाथ मल रहा है, कर्मचारी पिंजरा बनाने में लगे हैं, पेन्टर मसरूफ़ है अौर डाइरेक्टर कह रहा है पिंजरा शानदार होना चाहिए अौर बिस्तर ज़रा नर्म, अौर लीजिए यह नामपट्ट भी बनकर आ गया, कापोनी मुर्ग़ा -- गलीना कापोनी -- अच्छा नाम है न, कानों को भला लगने वाला, क्या ख़याल है अापका ... उधर मुर्ग़े की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं, ऐसा स्वागत ऐसा सत्कार देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं, उसे अब इस दुनिया से कोई शिकायत नहीं, वह चिड़ियाघर का मुख्य आकर्षण है, सबकी आँखों का तारा, चिड़ियाघर में कभी इतने दर्शक नहीं आये, कैशियर कह रहा है, जनता उमड़ पड़ी है, टिकट खिड़की पर लाइन लम्बी होती चली जा रही है, अौर लीजिए हमारी वही अध्यापिका पूरी कक्षा के साथ पिंजरे के सामने हाज़िर है बच्चों को बताती हुई कि अभी अभी तुमने प्रेवाल्क्स्की अश्व को देखा था, अौर अब तुम्हारे सामने है एक अौर दुर्लभ जीव, गलीना कापोनी यानी कापोनी मुर्ग़ा जो देखने में कुछ पीरू या मुर्ग़ाबी जैसा लगता है, पर कुछ गौरैया अौर कुछ मोर से मिलता जुलता है, देखो यह कैसे बटेर की तरह गोल मटोल भी है अौर अबाबील की तरह दुबला भी, ज़रा देखो तो कैसा हसीन नारंगी सर है इसका, नीले पंख, लाल-सुर्ख़ जंघाएँ, बच्चे विस्मित हैं, ज़ोर से साँस छोड़ते हुए कहते हैं अाह कितना सुन्दर मुर्ग़ा है, है न टीचर, पर लॉरा को जैसे करंट लग गया हो, वह टीचर की आस्तीन खींचती है अौर कहती है, ये तो याकोब का मुर्ग़ा है, सच में टीचर ये वही मुर्ग़ा है, टीचर झल्लाती है ये बेवक़ूफ़ लड़की क्या बकबक कर रही है याकोब का मुर्ग़ा याकोब का ... अरे याद आया देखना ये याकोब कहाँ गया, उसका ध्यान फिर कहीं अौर है, देखो कहाँ पहुँच गया एंटईटर के पिंजरे के सामने, कापोनी मुर्ग़े को देखने के बजाय चींटीख़ोर पशु को देखता हुआ, याकोब, अपने फेफड़ों की पूरी ताक़त के साथ ऊँचे सुर में टीचर चीख़ती है, अगली बार से मैं तुम्हें घर वापस भेज दूँगी, तुम्हारा बरताव अब बरदाश्त के बाहर हो चुका है याकोब, सही बात है टीचर की, यह सब देखकर किसी भी ख़ून खौल सकता है। 
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मात्सोउरेक की एक अंग्रेज़ प्रशंसिका ने, जो निश्चय ही अध्यापिका रही होगी, इस कहानी के अपने अनुवाद के साथ बच्चों के लिए निम्नलिखित प्रश्नावली भी अपनी तरफ़ से जोड़ दी थी।


प्रश्न
. याकोब के मुर्ग़े के जीवन को कम से कम चार चरणों में बाँटते हुए वर्णित कीजिए।
. अपने बाग़ीचे में बेमेल पक्षी को देखकर पक्षी-विज्ञानी ने क्या किया अौर क्यों?
. अगर आपके मुर्ग़े को चिड़ियाघर में रख दिया जाए तो आपकी प्रतिक्रिया कैसी होगी?
. अध्यापिका ने मुर्ग़े को देखकर दो भिन्न अवसरों पर -- () क्लासरूम में () चिड़ियाघर में -- जो भाव व्यक्त किए, उनका तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए।
. चिड़ियाघर में अपने मुर्ग़े को देखकर याकोब की अंतिम प्रतिक्रिया क्या थी?
. इस प्रसंग के आधार पर याकोब के भविष्य के बारे में अनुमान लगाइए।


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Tuesday, April 10, 2012

नरेन्द्र जैन की कविताएं और असद ज़ैदी की टिपण्णी

वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन के नए कविता संग्रह `चौराहे पर लोहार` (आधार प्रकाशन) से कुछ कविताएं

चौराहे पर लोहार

विदिशा का लोहाबाज़ार जहाँ से शुरू होता है
वहीं चौराहे पर सड़कें चारों दिशाओं की ओर
जाती हैं
एक बांसकुली की तरफ़
एक स्टेशन की तरफ़
एक बस अड्डे
और एक श्मशानघाट
वहीं सोमवार के हाट के दिन
सड़क के एक ओर लोहार बैठते हैं
हँसिये, कुल्हाड़ी, सरौते और
खुरपी लेकर
कुछ खरीदने के लिये हर आने-जाने वाले से
अनुनय करते रहते हैं वे
शाम गये तक बिक पाती हैं
बमुश्किल दो-चार चीज़ें
वहीं आगे बढ़कर
लोहे के व्यापारी
मोहसीन अली फख़रूद्दीन की दुकान पर
एक नया बोर्ड नुमायां है
`तेज़ धार और मज़बूती के लिये
ख़रीदिये टाटा के हँसिये`
यह वही हँसिया है टाटा का
जिसका शिल्प वामपंथी दलों के चुनावी
निशान
से मिलता जुलता है
टाटा के पास हँसिया है
हथौड़ा है, गेहूँ की बाली और नमक भी है
चौराहे पर बैठे लोहार के पास क्या है
एक मुकम्मिल भूख के सिवा?
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जोधपुर डायरी सीरीज से एक कविता

क़िले में अब
तोप, तमंचों, बंदूकों
तलवारों, गुप्तियों
बघनखों, लाठियों और
बल्लमों की भरमार है
महाराजा की शान में
पेश की गयी तलवार पर
अंकित है प्रशस्ति का वाक्य
और लिखा है नाम
उसे पेश करने वाले ग़ुलाम का
क़िले के झरोखों से उड़ता है
पक्षियों का गोलबंद झुंड
और तलवारों में कंपकंपी पैदा करता
क़िले के पार चला जाता है
क्यूरियो शॉप में
290 वर्ष पुरानी शराब की ख़ाली बोतल का दाम रुपये
दो हजार एक सौ ठहरा
लुभाने के लिए बहुत हैं अतीत के नाचते खण्डहर.
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अतियथार्थ

जैसे भागते-भागते किसी तेज़ गति के संग
किसी के हाथ से छूट जाता है
रेल का डिब्बा
या खाई से गिरते हुए नीचे
छूट जाता है रस्सी का अंतिम सिरा
या
विस्फोट के मुहाने तक
पहुँचते ही बुझ जाती है दियासलाई
हममे से
हर किसी के हाथ से
कुछ न कुछ छूट गया है
कहीं रखी होती है
ऐसी भी थाली
जिस पर रोटी का चित्र बना होता है
एक भूखे आदमी के हाथ का कौर
वहीं छूट जाता है हाथ से
इस काली सफ़ेद पुरानी तस्वीर में
यह शख़्स
ऐसा दिखलाई दे रहा
जैसे अभी-अभी भरपेट खाकर
थाली से उठा ही हो
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इधर

(विध्वंस : बाबरी मस्ज़िद)
कुछ कालिख
यहाँ वहाँ हाथों पर
चेहरे पर
शब्दों पर
कुछ कालिख
साज़ों पर बजती धुन पर
इधर सबसे ज़्यादा
आँखें चुरायी बच्चों से मैंने
हुआ तब्दील
शर्म के
जीते जागते जीवाश्म की शक्ल में
मार गया पाला
इधर आवाज़ को
इधर हुआ शर्मसार
दिवंगत् कवियों के समक्ष
इधर
और ज़्यादा
थक गया मैं
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विदिशा डायरी सीरीज से एक कविता

जिन घरों में बड़े भाई की कमीज़
छोटे भाई के काम आ जाती है
इसी तरह जूते, चप्पल और पतलून तक
साल-दर साल उपयोग में आते रहते हैं
वे कभी-कभार आते हैं बांसकुली
पतलून कमर से एक इंच छोटी करवाने
या घुटने पर फटे वस्त्र को रफू करवाने
अक्सर इन घरों में यदि पिता हुए तो
वे बीसियों बारिश झेल चुकी जैकिट पहनते हैं
और फ़लालैन की बदरंग कमीज़
जिन्हें सूत के बटन भी अब मयस्सर नहीं होते
रफ़ूगर की दुकान से
दस कदम आगे रईस अहमद
पुराने वाद्य-यंत्रों के बीच बैठे
क्लेरनेट पर बजाते रहते हैं कोई उदास धुन
यह धुन होती है कि
अपने चाक वक़्त को रफ़ू कर रहे होते हैं वे
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इससे पहले 2010 में आधार प्रकाशन से ही छपे नरेन्द्र जैन के कविता संग्रह `काला सफ़ेद में प्रविष्ट में होता है` की कविताएं और उस संग्रह पर छपी वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की टिपण्णी भी याद आ रही हैं। इस पोस्ट के साथ वह टिपण्णी भी यहां दे रहा हूं। -

`नरेन्द्र जैन की कविता को हम क़रीब 35 साल से जानते हैं. वक़्त के साथ इस जान-पहचान में पुख्तगी भी आई है. वह अपनी पीढ़ी के उन चंद खुशनसीब कवियों में हैं जिनकी कविता ने अपने समय की रचनाशीलता से एक ऐसा पायेदार रिश्ता बनाया है जिसमें कभी कोई अधीरता या बेजा आग्रह नहीं रहा : एक रचनात्मक तन्मयता, फ़िक्रमंदी लेकिन अपनी कविता के कैरियर से एक हद तक बेनियाज़ी नरेन्द्र का वह दुर्लभ गुण है जो उन्हें अपने समकालीनों के बीच आदर और प्यार का पात्र बनाता है।

नरेन्द्र जैन सहज ही अपने काव्य व्यक्तित्व और अनुभव-जगत की सम्पूर्णता के साथ अपनी कविता में मौजूद रहते हैं.हर नई कविता के लिए नुक्ता ढूँढ़ने और उसके इर्द-गिर्द अपनी काव्यकला को माँजने (या हथियार की तरह भाँजने) की ज़रूरत उन्हें कभी नहीं होती. एक आंतरिक संगीत, अक्षय रागदारी और नागरिक हयादारी की लौ उनकी कविताओं में हरदम मौजूद रहती है. अपने हमअस्रों के बीच उनकी शख्सियत इन्हीं चीज़ों की जुस्तजू से बनी है. वह अपनी गहन निजता और आन्तरिकता को भी अपने नागरिक और सामाजिक मन के माध्यम से ही पाने के हामी हैं. उनकी कविताएँअपने तग़ाफ़ुल में भी बहुत सी चीज़ों की ख़बर एक साथ रखती हैं समाज, राजनीति, देश-विदेश, आसपास, कवि का अंतर्मन. यहाँ ऐसी सम्पूर्णता है जिसका सम्बन्ध लिखे जाने से कम, जिए जाने और घटित होने से ज़्यादा है.ज़िम्मेदारी और अकेलापन. दरअसल तनहाई की सच्ची गरिमा और अर्थवत्ता भी ऐसी ही कविता में रौशन होती है.

आज कविता एक भयावह सरलीकरण के दौर से गुज़र रही है और यह सरलीकरण मोटी समझ या ठसपन वाला सरलीकरण नहीं, एक नैतिक और राजनीतिक सरलीकरण है. चूंकि घुटन, पीड़ा, दुःख और क्रोध से, अन्याय और विषमता के प्रतिकार से, अंतर्विरोध की मार से बचकर कविता नहीं लिखी जा सकती, और लिखी जाए तो समकालीन कविता नहीं हो सकती, इसलिए यथास्थितिवादी रचनाकारों ने वास्तविक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की जगह काल्पनिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की भूलभुलैयाँ रचनी शुरू की है. बिना विद्रोह किए, बिना उस विद्रोह की क़ीमत चुकाने को तैयार हुए ये लोग विद्रोह और प्रतिरोध का एक रुग्ण रोमांटिक और उत्तर-आधुनिकतावादी संसार कलाओं में रच रहे हैं. अब मुठभेड़ और प्रतिरोध की जगह 'जेस्चर' और 'मेटाफर' ने ले ली है. देखते देखते आज ऐसे कवि काफ़ी तादाद में इकट्ठे हो गए हैं जो इस तरीक़े को ही असल 'तरीक़ा' और सच्चा 'सिलसिला' मानते हैं. इस परिदृश्य में नरेन्द्र जैन की कविता क्लैसिकल प्रतिरोध की बाख़बर कविता है, जहाँ अत्याचारी का चेहरा दिखाई देता है, और कवि जिन पीड़ितों की हिमायत कर रहा है उनके चहरे भी दिखाई देते हैं. उनकी कविता ने अपना पैना राजनीतिक फ़ोकस खोया नहीं है, बल्कि उसे मामूली जीवन की तरह जिया है.

नरेन्द्र की कविता एक राजनीतिक विभीषिका, विराट दुर्घटना, आपातकालीन परिस्थिति, अर्जेंट अपील या ख़तरे और चेतावनी के लिए जागने वाली कविता नहीं बल्कि दैनिक जीवन में राजनीतिक चेतना और व्यवहार के दाख़िल होने,जज़्ब होने और ज़ाहिर होने की कविता है. उनका सरोकार उस रोज़मर्रा से है जहाँ 'राजनीतिक' और 'ग़ैर-राजनीतिक' की कोई विभाजक रेखा नहीं होती, और जहाँ राजनीति अलग शख्सियत के साथ, मुखौटा लगाकर, खुद अपनी पैरोडी बनकर नहीं, मानवीय अनुभव के अनिवार्य पहलू की तरह आती है.

नरेन्द्र ने अपनी वामपक्षीय प्रतिबद्धता को बोझ की तरह नहीं ढोया; उसे अपने रचनात्मक और नैतिक जीवन में जज़्ब किया है और एक गहरी ज़िम्मेदारी से उसे बरता है. उनके पास मुक्तिबोध के उस मशहूर सवाल का जवाब है.` -असद ज़ैदी

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आधार प्रकाशन, एससीएफ 267, सेक्टर-16 पंचकूला 134113 (हरियाणा)