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Thursday, October 25, 2018

विष्णु खरे—स्मरण : असद ज़ैदी



पंद्रह नवम्बर २०१७ की शाम दिमाग़ में नक़्श है। लोदी रोड श्मशान में कुँवर नारायण के अंतिम संस्कार के वक़्त अचानक दो लोगों पर नज़र पड़ी−−दीवार के सहारे रखी एक बेंच पर विष्णु खरे  अौर केदारनाथ सिंह बैठे थे, नीम अँधेरे में। दोनों बहुत दुर्बल, पस्त अौर लगभग प्राणहीन लग रहे थे, जैसे वहाँ हों ही नहीं, अौर कहते हों कि हमें भी मरा ही जानो। ख़ामोश अभिवादन किया, उन्होंने बड़ी बेज़ारी से सर हिलाया जैसे सरहद पार कर चुके हों। मुझे लगा अब पता नहीं इन्हें दुबारा देख पाऊँगा या नहीं। साल भी न गुज़रा अौर अब वे इस दुनिया में नहीं है। 

लेकिन यह विष्णु खरे से अंतिम ‘संवाद’ न था। इस जून के महीने में यह ख़बर सुनकर कि वह अाम अादमी पार्टी के तहत अाने वाली दिल्ली हिन्दी अकादमी के उप सभापति मनोनीत किये गए हैं, अौर इस तरह वह अपने अज़ीज़ शहर में रहने वापस अा पाएंगे, मैंने उन्हें यह संक्षिप्त ई-मेल संदेश भेजा (२३ जून)−−

“क़िबला, कुछ ख़बर सुनी है। उम्मीद है सच ही निकलेगी। लिहाज़ा बधाई... अौर ख़ुदा ख़ैर करे!” 

जल्दी ही उनका मुख़्तसर जवाब अाया−−

“इसमें ‘ख़ुदा ख़ैर करे’ ही operative part [काम की बात] है।” 

कम से कम पिछले चालीस साल से हमारे दरमियान संवाद की यही शैली बरक़रार रही। उनसे ऐसी वाक़फ़ियत मेरी ख़ुशक़िस्मती अौर दोस्ती की यह हालत मेरा अभिमान रही। यह ऐसा रिश्ता था जिसमें हम एक दूसरे से बोले कम, नाख़ुश ज़्यादा रहे।

नौ सितम्बर को उन्होँने अपने नये कार्यकाल का पहला काव्यपाठ कराया, जिसमें मैं भी अामंत्रित था। क़रीब दो-ढाई घंटे का साथ रहा। कुछ ख़ामोश लेकिन पुरसुकून नज़र अाते थे। कार्यक्रम के बाद वे जल्द ही अपने अावास के लिए निकल पड़े। दो दिन बाद पता चला ब्रेन हैमरेज के बाद वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। शरीर के एक हिस्से को लकवा मार गया था। हफ़्ते भर की बेहोशी के बाद वह इस दुनिया से चले गए। बहुत सारी बातें अधूरी छूट गईं।

हम जब कविता या कहानी लिखते हैं तो ऐसे कुछ ज़रूरी चेहरे दिमाग़ में रहते हैं जिनके बारे में या तो हमें यक़ीन होता है कि वे हमारे लिखे को पढ़ेंगे या कुछ चिंता होती है कि वे अगर पढ़ेंगे तो क्या कहेंगे। कहीं किसी जगह एक अादमी नज़र रखे हुए है। विष्णु खरे न सिर्फ़ मेरी पीढ़ी के बहुत से कवि-लेखकों के लिए, बल्कि हिन्दी मे सक्रिय बहुत सारे दूसरे लोगों के लिए भी,  ऐसा ही एक ज़रूरी चेहरा थे। वह कभी हमारे ख़यालों से दूर न रहे। उनका जाना एक , ज़रूरी अादमी का जाना अौर एक दुखद ख़ालीपन का अाना है। मेरी पीढ़ी ने एक अाधुनिक दिमाग़, तेज़ नज़र काव्य-पारखी, अालोचक, दोस्त, स्थायी रक़ीब अौर नई पीढ़ी ने अपना एक ग़ुस्सेवर लेकिन ममतालु सरपरस्त खो दिया है। इस रूप में वह हमारे सबसे क़ीमती समकालीन थे। 

चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर 
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच 
(मीर)

विष्णु खरे एक अौर घर ख़ाली कर गए हैं, वह घर जो सिर्फ़ उन्हीं के लिए बना था। उसमें कोई अौर नहीं रह सकेगा। कभी उस घर में मीर मेहमान होते थे, कभी मुक्तिबोध, कभी श्रीकांत अौर कभी रघुवीर सहाय। उस घर को बाहर से, उड़ती उड़ती नज़र से ही देखा गया, उस में दाख़िल होना सबके बूते की बात न थी। कविता के उस घर में अावाज़ें हैं, तस्वीरें हैं, बेचैन रूहें भटकती हैं, वहाँ विषाद है, अार्त्तनाद है, बार बार अपने ही से सामना है, जहाँ कल भी अाज है, अौर विस्मृति है ही नहीं। इस घर में बहुत जंजाल है, क्लेश है, पर कुछ भी अोझल अौर अमूर्त्त नहीं है। कुछ कमरे बंद पड़े हैं, जिन्हें खोलने से वह ख़ुद भी डरते थे, वो अब कभी नहीं खुलेंगे। वह इस मकान के मकीन होकर कम, पहरेदार होकर ज़्यादा रहे। इस घर का नक़्शा उनके जीवनीपरक ब्यौरों से कम उनकी कविताअों से ही झलकता रहेगा। 

वह अत्यंत भावुक, संवेदनशील अौर असुरक्षित व्यक्ति थे। अपने इस बुनियादी किरदार को, अपनी वेध्यता को, ढँकने के लिए उन्होंने एक रूखा, अाक्रामक अौर नाटकीय अंदाज़ अपनाया था। उनका यही सार्वजनिक रूप बन गया अौर इसी तर्ज़ के लिए वह जाने गए। उनके अंतरंग मित्र उनके इस स्वाभाव को समझते थे, लिहाज़ा उनकी बहुत सी बातों को नज़रअंदाज़ करते थे। सभी मित्र जहाँ तक बन पड़ता उनकी हिमायत में रहते थे, बेजा अाक्रमण से उनकी हिफ़ाज़त करते थे। वैसे भी विष्णु जी ने मुहब्बत अौर अदावत में कभी ज़्यादा फ़ासला न रखा। यह उन लोगों की कमनज़री है जिन्होंने उनकी ज़्यादतियाँ तो देखीं पर जो उनकी बेरुख़ी अौर ग़ुर्राहट में प्यार अौर हमदर्दी की झलक न देख सके। 

विष्णु खरे ने साहित्य जगत में एक तेज़-तर्रार विध्वंसक अालोचक की तरह प्रवेश किया अौर तत्काल ही अपनी प्रतिभा के लिए पहचाने गए। उनकी ताज़गी, खुले दिमाग़, ज़हानत अौर अध्यवसाय से लोग प्रभावित होते थे। वह अपेक्षाकृत युवा थे अौर उस दौर में युवा होना ख़ुशक़िस्मती की निशानी थी। ऐसा लगता था कि राजनीति, समाज, संस्कृति निर्णायक मोड़ पर है, जो बदलाव अाया चाहता है उसका कार्यभार १९४० के बाद जन्मी पीढ़ी पर है, उसमें अात्मविश्वास है, जोखिम उठाने का जज़्बा है, समस्या वही हल करेगी, उसके पास सारी चाबियाँ मौजूद हैं। १९६४ से १९७५ के बीच का काल भारतीय राजनीति अौर कलाअों में एक प्रकार का मुक्ति प्रसंग था अौर समाज की अंतरात्मा पर कई तरह की दावेदारियाँ सामने अा रही थीं। पहली बार संस्कृति में अवाँगार्द प्रवृत्तियाँ प्रधान प्रवृत्तियों की तरह स्थापित होने लगी थीं।  वाम में नव-स्फूर्ति अौर दूरगामी विघटन की प्रक्रियाएँ एक साथ चल रही थीं, गो यह बात उस वक़्त  इतनी स्पष्ट न थी। कालांतर में बहुत कुछ एक भोर का सपना ही साबित हुअा। वह दौर जिसे परिवर्तनकारी दौर की तरह देखा जा रहा था, एक लम्बे राष्ट्रीय दुखांत से पहले का अंतराल था। प्रतिभाशाली लोगों की यह पहली खेप नहीं थी जिसकी सामाजिक हस्तक्षेपकारी संभावनाएँ मूर्त्तिमान नहीं हो सकीं अौर उनकी अपनी क्षमता अौर ताक़त संस्थानों अौर प्रतिष्ठानों के भीतर ही जज़्ब होकर या अपना स्थान वहाँ बनाए रखने में ही ख़र्च होकर रह गई। विष्णु खरे इसका अपवाद न थे। 

विष्णु खरे हरदम संस्कृति अौर साहित्य की दुनिया में रमे रहकर खप जाना चाहते थे। उनके दौर के हालात साज़गार नहीं थे, अौर न सिर्फ़ उनका स्वभाव बल्कि उनकी वैचारिक प्रेरणाएँ भी रास्ते में अाती थीं। लेकिन सांस्कृतिक परिदृश्य में केन्द्रीय अौर निर्णायक भूमिका निभाने की उनकी तीव्र इच्छा उन्हें एक ग़लत जगह ले गई। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हस्तिनापुर कॉलेज (अब मोतीलाल नेहरू कॉलेज) में अंग्रेज़ी अध्यापक की स्थायी नौकरी छोड़कर साहित्य अकादमी के उप-सचिव पद के लिए अावेदन देने की ठान ली। भारतभूषण अग्रवाल ने भी उन्हें इस काम के लिए प्रेरित किया। एक रोज़ उन्होंने अपनी जीवनसाथी कुमुद को स्कूटर पर बिठाया अौर दोनों ख़ुशी ख़ुशी भारतभूषण जी के पास गए अौर उन्हीं को अावेदन देकर अा गए। वह एक संभावनामय, सार्थक अौर उज्ज्वल भविष्य की अोर नहीं, बल्कि अँधेरे में छलाँग लगा रहे थे। १९७६ में वह साहित्य अकादमी के उप-सचिव तैनात हुए। उस समय उनकी उम्र ३६ साल थी। मैं बाईस तेईस साल का था अौर उद्दंडता को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था। उसी साल या शायद उससे अगले साल एक रोज़ मैंने उनसे पूछा, “अापको संस्कृति प्रशासक बनने का इतना शौक़ कैसे पैदा हुअा? अध्यापकी में जो अाज़ादी अौर गरिमा है उसे लात मारकर कहाँ ये साहित्य अकादेमी में अा फँसे? अापको बहुत समझौते करने पड़ेंगे।” विष्णु खरे ने मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखा अौर एक क्रुद्ध साँड की तरह डकराए—“हुँह!” ज़ाहिर है उन्हें कोई मलाल न था। उन्होंने कुछ इस इस तरह की बात कही कि तुम्हें क्या लगता है मैं यहाँ क्या करने बैठा हूँ? मैंने कहा, खरे जी, यह जगह अौसतपन (मीडियॉक्रिटी) का गढ़ है। अाप नष्ट हो जाएँगे। बोले, तुम कह रहे हो मैं यहाँ अौसत काम करूँगा। मैंने कहा, देख लीजिएगा। उन्होंने कुछ स्नेह अौर कुछ नाराज़ी से कहा, “तुम्हें तुम्हारी ये काली ज़बान बहुत कष्ट देगी। तुम जे एन यू में हो। वहाँ वो नामवर भी है... उससे बचके रहना।”

मुझे अाज तक इस बातचीत पर अफ़सोस अौर ग्लानि है। अपनी धृष्टता पर, अौर इस बात पर कि मेरी ‘काली ज़बान’ से अनायास जो बात निकली थी वह एक तरह की भविष्यवाणी साबित हुई। साहित्य अकादेमी के कार्यक्रम प्रभारी वाले अपने कार्यकाल में उनके सम्पर्क अखिल भारतीय साहित्यिक अभिजन या श्रेष्ठिवर्ग अौर देशी विदेशी साहित्य संस्थानों अौर मंडलियों से अौर दूतावासों से बढ़े, अनुवाद का काम तलाशते बेरोज़गारों को छिटपुट काम दिला सके, छोटे प्रकाशकों अौर छापेख़ानों के मालिक उनके चक्कर लगाते थे, इस रुसूख़ की वजह से नए कवियों के कविता संग्रह छपाने में मददगार हुए, कविता-कहानी लिखने वाले प्रशासनिक सेवाअों में सक्रिय  नौकरशाहों से बराबरी से बात करने की सुविधा प्राप्त हुई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि साहित्य अकादेमी की अाला अफ़सरी की वजह से हिन्दी के अाचार्यगण अौर पिछड़ी समझ के लेखक कवि अब उनकी कविता को कुछ मान्यता देने लगे। लेकिन कुल मिलाकर उनके जीवन के इतने सारे वर्ष वहाँ बरबाद ही हुए। एक बुद्धिजीवी, चिंतक अौर लेखक के रूप में उनका विकास अवरुद्ध हुअा। अौर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों का अौर हिन्दी की व्यावसायिक दुनिया से संबंधों का यह जाल मायाजाल ही साबित हुअा। ये सम्पर्क अौर लगातार विस्तारमान दिखती दुनिया अंततः कामकाजी दुनिया थी, वे संबंध भी कामकाजी अौर रस्मी ही थे। वह उनकी कॉन्स्टीटुएन्सी थी ही नहीं। जब तक महफ़िल गर्म थी, उन्हें अच्छा लगता रहा। अकादेमी से जब हटे तो यह दुनिया सिकुड़ गई। संस्कृति के महाबली बनने का उनका सपना कब का ख़त्म हो चुका था। मातहती उन्हें अाती न थी, बिना मातहती के अाज की दुनिया में महाबली कोई बन नहीं सकता।

उनकी दूसरी भूल थी यह समझना कि वह हिन्दी पत्रकारिता में कुछ परिवर्तन ला पाएँगे। टाइम्स ग्रुप में वह ऐसे समय नौकरी करने लगे जब अख़बार की दुनिया में समीर जैन-विनीत जैन का अभ्युदय हो चुका था, अौर पत्रकारिता एक बुद्धिविरोधी, मुजरिमाना दौर में प्रवेश कर चुकी थी। एक पेशे के रूप में भी पत्रकारिता का महत्त्व गिर रहा था, संपादकी का दरजा घट रहा था अौर काम की शर्तें पत्रकारों के विरुद्ध बदली जा रही थीं। कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू किया जा रहा था। ऐसे समय में मैनेजमेंट के साथ होना इस प्रक्रिया की पैरोकारी करना अौर इसमें मालिकान का हाथ बटाना ही था, जो काम (मुझे खेद है कि) सुरेन्द्रप्रताप सिंह जैसे संपादकों ने जमकर किया। इस दौर में बहुत से उपयोगी लफंगे पत्रकारिता में घुसे, अौर अख़बारों में उनका महत्त्व बढ़ता गया। ऐसे ही दौर में दिल्ली, लखनऊ, जयपुर में सम्पादकी करने के बाद विष्णु खरे पत्रकारिता से बाहर अाए। ज़िंदगी के इतने साल फिर से बरबाद करके। वह ख़ुद कहते थै ‘मॉय ट्रिस्ट विद जर्नलिज़्म वाज़ अ फ़िअास्को।’ अौर सही ही कहते थे।

इस दौर के बाद का उनका जीवन एक फ़्री-लांसर का जीवन था, जो कि हिन्दी में कोई जीवन ही नहीं हैं। पेशेवरी के ऐतबार से अनुवादक का जीवन भी, जैसा कि सब जानते हैं, कोई जीवन नहीं है, अौर फ़िल्म समीक्षक या फ़िल्म अालोचक का जीवन भी कोई जीवन नहीं है। इस दौर में जो काम उन्होंने किये अच्छे ही किए, पर मुझे संदेह है कि अपनी प्राथमिकता से किए। इस सिलसिले में उन्होंने ऐसी अवांछनीय जिरहें भी कीं जो अगर वह न करते तो हिन्दी के एक रौशनख़याल, सेकुलर नज़रिए पर जीवन भर अडिग रहने वाले अादमी के रूप में उनकी छवि को नुक़सान न पहुँचता। मैं तो यही समझता हूँ कि पिछले पंद्रह बीस साल में उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य, ख़ासकर काव्य परिदृश्य, में विराट हस्तक्षेप अौर कॉन्स्टीटुएन्सी बिल्डिंग की जो कोशिशें कीं, उनके पीछे कोई सुचिंतित ख़ाका, गहरी कल्पनाशीलता या गहन सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन न था। उनके व्यक्तित्त्व में एक मुक्तिबोधीय पहलू ज़रूर था, जिसकी मांग वह पूरी न कर सके। इसका उन्हें अहसास था, ऐसा मुझे लगता है।

मुझे उनको देखकर हमेशा श्रीकांत वर्मा की याद अाई। वही बेचैनी, वैसी ही महत्त्वाकांक्षा, वैसा ही फ़्रस्ट्रेशन। उन्हें ताक़त अाज़माना अाता था लेकिन ताक़त का माक़ूल इस्तेमाल नहीं कर सकते थे—उसके प्रदर्शन में ही उनका वक़्त निकल जाता था। न वह अच्छे बॉस थे, न अच्छे मातहत। पूरा जीवन संशय अौर दुविधा से भरा था पर वह कभी यह क़ुबूल नहीं करते थे।  ऐसा वक़्त भी था — अौर बीच बीच में अभी तक अाता रहा — जब विष्णु खरे को एक कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी या सिक्काबंद वामपंथी की तरह देखा गया। अक्सर उन्हें ख़ुद भी शौक़ होता था कि उनको प्रतिबद्ध वामपंथी कहा जाए। पर इससे जो ज़िम्मेदारी अान पड़ती है उसे उठाना उनके बस में कभी न रहा। इन दोनों—श्रीकांत अौर विष्णु—पर मुक्तिबोध का साया पड़ा था। वह साया जीवन भर उनके साथ लगा रहा—वे जानते थे वे किसके प्रति जवाबदेह हैं। इनके अंतःकरण में मुक्तिबोध मौजूद थे। वे यह भी जानते है कि उनके लिए यह वरदान नहीं अभिशाप है। वे इसी अंतःकरण में मुक्तिबोधियन शाप झेलने को अभिशप्त हैं। यह कोई निन्दा नहीं, इनके व्यक्तित्त्व अौर कृतित्त्व के मर्म को समझने का प्रयास है। कम से कम विष्णु खरे को ख़ुद इस धारणा से ऐतराज़ न था। एक बार इसी ‘मुक्तिबोधियन कर्स’ पर कुछ बात हुई। वह अचानक विचलित हुए, ठंडी साँस भरकर बोले—‘हाँ भई…’ अौर चुप हो गए।

यह सब मैं इसलिए कहता हूँ कि १९७० के दशक में विष्णु खरे हिन्दी साहित्य अौर संस्कृति जगत के भावी अौर समर्थ नेता के रूप में देखे जाने लगे थे। ही वाज़ द नेक्स्ट बिग होप। वह मेरे  भी हीरो थे। वह एक अाला दर्जे का चिंतक, साहित्येतिहास लेखक, सिद्धांतकार हो सकते थे, किसी हद तक थे भी, लेकिन बेशतर काम वह किए बिना चल बसे। बेशक उनकी ये असफलताएँ या विवशताएँ हममें से बहुतों की सफलताअों से तो बेहतर ही हैं। उनकी समस्या यह थी कि वह सत्ता, रुतबे, सरपरस्ती या संस्थान से जुड़े बिना कुछ करना पसंद नहीं करते थे। सिर्फ़ अपने दम पर कुछ पहल लेने को वह अपने अात्मसम्मान के  ख़िलाफ़ समझते थै। एक तरह के विद्रोही होने के बावुजूद उन्हें सत्ता या इक़्तिदार का मोह भी था जो कि मेरी पीढ़ी के लोगों में भी कम नहीं हैं, अलबत्ता उनकी विष्णु खरे जैसी पहुँच नहीं है।  


यह मुहब्बतनामा कुछ जल्दी में लिखा गया है। अौर अच्छा ही है कि जल्दी ने कुछ लिखवा लिया अौर दुबारा ग़ौर करने का मौक़ा संपादक ने न दिया। बहरहाल मौसूफ़ ज़िंदा होते तो इसमें मीन मेख़ ज़रूर निकालते, पर कुल मिलाकर इसे मुहब्बतनामा ही जानते।








(‘समयान्तर’ में `एक और खाली घर` शीर्षक से प्रकाशित। वहीं से साभार)


Wednesday, June 20, 2018

मुक्तिबोध — उत्पीड़न और नायकत्व : असद ज़ैदी


('नया पथ' का मुक्तिबोध विशेषांक मुझे बहुत देरी से हासिल हो पाया। इस पत्रिका में छपा असद जी का यह लेख मुक्तिबोध के उत्पीड़न और हिंदी साहित्य व विचार की दुनिया में उनकी 'प्रधान उपस्थिति' का उल्लेख करते हुए 'नेहरू युग' को लेकर चली आ रही रुमानियत भरी छवि को भी ध्वस्त करता है,  'वामपंथी सांस्कृतिक धारा' की विडंबनाओं और को सामने लाता है और पुनर्विचार प्रोजेक्ट के नाम पर 'फ़ासिस्ट धमकी' से आगाह करता है। इस लेख में एक 'मर्मभेदी' ज़िक्र यह भी आया है कि मुक्तिबोध की एम्स में मृत्यु के बाद उनका शव उस शख़्स के सरकारी आवास पर रखा गया जिसने 'अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी'। उनकी स्मृति में पहली गोष्ठी भी इसी ठिकाने पर हुई। लेख में उस शख़्स का नाम नहीं आया है पर एक ज़माने में 'इंडिया टुडे' की साहित्य वार्षिकी के पाठक रहे लोगों को याद होगा कि अशोक वाजपेयी ने इस सिलसिले में प्रभाकर माचवे का नाम लिखा था। -एक ज़िद्दी धुन)

सन 1964 में गजानन माधव मुक्तिबोध की मृत्यु अाधुनिक भारतीय साहित्य की केन्द्रीय घटना है। हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक जीवन में पिछली सदी में किसी मृत्यु का इतना असर नहीं पड़ा। इसकी तुलना सिर्फ़ 1974 में कलकत्ते में उस्ताद अमीर ख़ाँ की अप्रत्याशित मृत्यु से ही की जा सकती है। अपने अपने रचना-क्षेत्र में ये दो हस्तियाँ लोगों की सामूहिक चेतना ही नहीं अवचेतन का हिस्सा — एक प्रधान उपस्थिति — बन गईं। इस मृत्यु के बाद ही से वह दौर शुरू हुअा, जिसे क़ायदे से हिन्दी साहित्य और संस्कृति-चिंतन में मुक्तिबोध-युग कहा जाना चाहिए। इस युग को कुछ और नाम देना ऐतिहासिक और साहित्य के समाजशास्त्र के ऐतबार से सही नहीं होगा। अगर ऐसा अक्सर नहीं कहा जाता तो इसका संबंध हिन्दी की दुनिया की शक्ति संरचना से है, न कि मुक्तिबोध की स्वतःसिद्ध केन्द्रीयता से। नौकरीपेशा प्राध्यापकीय तबक़े, साहित्य के कारोबार को नियंत्रित करने वाली संस्थाएँ अौर साहित्य-संस्कृति के दस-बीस स्वघोषित संरक्षक-पुरोहित मुक्तिबोध को लेकर शुरू ही से असहजता और दुचित्तेपन का इज़हार करते रहे हैं। न तो यह दुचित्तापन अाज तक ख़त्म हुअा है, और न ही हिंदी ‘रचना-संसार’ के अवचेतन पर मुक्तिबोध की हुकूमत ख़त्म होती नज़र अाती है।

मध्यवर्गीय दुचित्तेपन और उसके निहितार्थों पर काम करने वाले पहले अादमी मुक्तिबोध ही थे। उन्हें अपने दौर के बिगाड़ का, हर विचलन का पता था। वह उस समय की पेचीदगियों को भी समझते थे। यह नेहरू युग की निर्माणकारी और विध्वंसकारी दोनों प्रक्रियाओं पर गहरी नज़र रखते थे। नेहरू का दौर एक तरफ़ लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवास्था के पल्लवन, नई संस्थाओं के निर्माण और राष्ट्रीय विकास की अाधार रचना का दौर था, वहीं दूसरी तरफ़ वह कम्युनिस्ट अान्दोलन के अापराधिक दमन और शीतयुद्धीय नीति के तहत हर जगह से उनके बहिष्कार का दौर था। लोग अाज कुछ भी कहें, यह एक ऐतिहासिक सचाई है। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस संगठन पर दक्षिणपंथियों का क़ब्ज़ा था, और नेहरू के पास इस दक्षिणपंथ का सीधे सामना करने का न हौसला था, न ताक़त। केन्द्र से लेकर प्रांतों तक (संयुक्त प्रांत/उत्तर प्रदेश, मध्य भारत/मध्यप्रदेश, बम्बई, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार) कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेताओं का बोलबाला था। शिक्षा, संस्कृति और हिंदी प्रतिष्ठान पूरी तरह प्रतिक्रियावादी के क़ब्ज़े में था।

मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से नेहरू युग के समझौते, अवसरवाद और जनद्रोह की प्रवृत्तियों को पनपते हुए देखा था।  वह जानते थे कि भारतीय राजनीति का वह दौर दरअसल एक तरफ़ कांग्रेस के भीतर नेहरू धड़े की अाधुनिक, उदार प्रगतिशील वृत्ति और दूसरी तरफ़ ज़्यादा वर्चस्वशाली कठोर दक्षिणपंथी धड़ों की विचारधारा के बीच सुलह और समन्वय पर टिका है। लिहाज़ा ‘नेहरू युग’ को एकतरफ़ा ढंग से सेकुलर राजनीति, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक विवेक से संचालित समाज और राष्ट्रनिर्माण का दौर कहना एक रोमानी और ग़लत क़िस्म की समझ का नतीजा है। नेहरू युग का जो अर्थ अाज हम लेते हैं, उस अर्थ में वह नेहरू युग था ही नहीं, न मुक्तिबोध ने उसे इस तरह देखा था।  नेहरू ख़ुद कितने ही प्रगतिशील और अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहे हों, और समाजवादी देशों में उनकी जितनी भी स्वीकृति रही हो, भारतीय वामपंथी संगठनों के उतने ही दुश्मन थे जितना कि हिन्दू महासभा और अार एस एस के। कोई भी तन्ज़ीम जो कांग्रेस के बाहर प्रगतिशील काम करती हो, उसे वह कांग्रेस का, और देश का दुश्मन ही समझते थे।

ख़ुद साम्यवादी — अाज के साम्यवादी — भूल गए हैं कि नेहरू-युग में एक साम्यवादी का जीवन कितना कठिन था। जब कोई संकट में पड़ता था उस समय जाति, रिश्तेदारी, मित्रता या पहुँच कुछ काम न अाती थी। वामपंथियों को लेकर नेहरू सरकार की गृह और अांतरिक सुरक्षा नीति मैकार्थीवादी नीति थी, जिसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ पटेल जैसे लोग ही न थे, वह पूरी राज्य-व्यवस्था भी थी जो अंग्रेज़ों ने सप्रेम उन्हें सौंप दी थी।  कोई साम्यवादी न होगा जिसपर राज्य की, पुलिस की और मुख़बिरों की नज़र न हो,  जो राजकीय कोप का शिकार न हुअा हो। मुक्तिबोध का अपना जीवन इसकी मिसाल है। लगभग सभी कम्युनिस्टों ने समाज में लम्बे अरसे तक पर्सीक्यूशन झेला जिसकी छाया उनकी जीविका पर, उनके परिवारों पर, और उनकी अगली पीढ़ियों तक पड़ी। इस दौर में एक प्रगतिशील के लिए छिपने की एक ही जगह थी, कि वह कांग्रेसियों से सम्पर्क में रहे, अपनी वफ़ादारी साबित करे और कांग्रेस में अा मिले, और ज़िल्लत की रोटी खाकर गुज़ारा करे। लेकिन यह विकल्प भी सबके लिए उपलब्ध न था। नेहरू का लोकतंत्र कम्युनिस्टों के लिए नहीं बना था। कांग्रेस के बाहर का परिदृश्य और भी ख़राब था जहाँ या तो रामराज्य परिषद, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी जैसी घोर प्रतिक्रियावादी पार्टियाँ थीं या फिर ग़ैर कांग्रेसवाद के पैरोकार लोहिया और उनका समाजवादी दल जो हरदम कांग्रेस के विरुद्ध सबको एकजुट करने के पक्षधर थे, लेकिन कम्युनिस्टों के जानी दुश्मन थे। मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म-विरोध का जो काम दक्षिण और धुर दक्षिण किया करते हैं, वह भारत में लोहियावादियों ने जी-जान से सम्पन्न किया।

मुक्तिबोध ने अपनी प्रगतिशीलता  इन कठिन परिस्थिति में अर्जित की थी, और एक असुरक्षित जीवन की क़ीमत पर उसकी अाबरू बनाए रखी। वह इसी युग में चल बसे, और अागे अाने वाली और भी टेढ़ी और संदिग्ध परिस्थितियों को न देख सके। उनकी छवि एक शहीद की सी छवि की तरह अाज तक बहुत लोगों के दिलो-दिमाग़ में है। उनका जीवन और चिंतन अाज उतना ही प्रासंगिक है जितना नेहरू युग में था।


* * *


मुक्तिबोध के वैचारिक और रचनात्मक विकास का दौर शीतयुद्ध का दौर था। हिन्दी में  अज्ञेयवाद, प्रयोगवाद, नई कविता अौर लोहियावादी संस्कृति चिंतन का बोलबाला था। इन प्रवृत्तियों से स्वस्थ बहस के लिए मुक्तिबोध हमेशा तैयार अौर व्याकुल रहते थे। लेकिन यही दौर हिन्दी के वामपंथी साहित्य चिंतन के भीतर बढ़ते परम्पराप्रेम और दक्षिणोन्मुखता का दौर भी था, जिसे कम्युनिज़्म की शब्दावली में संशोधनवाद का दौर भी कहा जाता है। इस दौर में मुक्तिबोध को एक वैचारिक अौर रचनात्मक अकेलेपन में काम करना पड़ा। कोई बराबरी की संगत न थी। उनका मन वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताअों, छात्रों, वामपंथी पत्रकारों, कुछ साथी शिक्षकों के बीच लगता तो था, लेकिन साहित्य, संस्कृति अौर मार्क्सवाद से जुड़े मसलों पर गहन बहस करें ऐसे जानकारों की कमी थी। उनकी कुछ गहरी दोस्तियाँ थीं, जिनमें से एक दोस्त तो ऐसे थे जो उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी किया करते थे, उनकी गतिविधियों की जानकारी सरकार को भेजा करते थे। मुक्तिबोध को इसकी जानकारी हो गई थी अौर उनका दिल बहुत टूटा था। फिर भी वह ख़ुशक़िस्मत थे कि अपने कुछ अौर अंतरंग मित्रों अौर उनसे प्रेरित युवकों को रंग बदलने और अपने निश्चयों के ख़िलाफ़ व्यवस्था में घुल-मिल जाने के करुण दृश्य देखने से बच गए।

वामपंथी सांस्कृतिक  धारा के भीतर मुक्तिबोध की स्वीकृति और अस्वीकार दोनों शुरू ही से मौजूद रहे हैं। रामविलास शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा में उनका कोई सम्मान या सही पहचान दूर दूर तक देखने को नहीं मिलती। उनके समकालीन वामपक्षीय लेखकों में हरिशंकर परसाई और शमशेर बहादुर सिंह ही उनके सबसे महत्वपूर्ण हिमायती थे। शमशेर जी ने एक बार धीमे से कहा था कि मुक्तिबोध की मृत्यु में ही उनके पुनर्जीवन की (हिन्दी की दुनिया में) चाबी मौजूद है। जब मैंने इस का अाशय जानना चाहा तो वह बोले, “वी अाल शेयर हिज़ अाफ़्टरलाइफ़।”

मुक्तिबोध के जीवन की विडम्बना दो मर्मभेदी घटनाअों के ज़रिए सामने अाती है। 11 सितंबर 1964 के  दिन अखिल भारतीय अायुर्विज्ञाना संस्थान में जब उनकी मृत्यु हुई तो अंत्येष्टि से पहले उनके शव को दिल्ली में उसी शख़्स के सरकारी अावास पर लाकर रखा गया जिसने अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी। कुछ ही दिन बाद उनकी याद में दिल्ली में पहली गोष्ठी उनके मित्रों और प्रशंसकों ने की, वो भी उसी अादमी के अावास पर हुई! अफ़सोस की बात यह है कि किसी को भी यह अापत्तिजनक न लगा। उस अादमी के दामन का दाग़ किसी को दिखाई न दिया! न तब, न बाद में। दूसरा वाक़या मक़बूल फ़िदा हुसेन से जुड़ा है। हुसेन मुक्तिबोध की अंतिम यात्रा में शरीक थे। वह उनके मित्रों के मित्र थे और मुक्तिबोध के महत्व से कुछ हद तक वाक़िफ़ थे। शवयात्रा में चलते हुए उनके दिल में ख़याल अाया कि इतना बड़ा लेखक और बुद्धिजीवी कितने अभाव, उपेक्षा और लगभग गुमनामी की हालत में दुनिया से रुख़सत हो रहा है, और हम उसके लिए कुछ न कर सके। उन्होंने वहीं अपने जूते छोड़ दिये और तमाम रास्ते श्मशान तक नंगे पाँव चले। हुसेन का कहना था, “मुझे लगा कि इतना तो मैं कम-अज़-कम कर ही सकता हूँ।” उनके नंगे पाँव चलने में  पश्चात्ताप, शोक और अक़ीदत का मिला-जुला जज़्बा था। हुसेन साहब ने ख़ुद मुझसे कहा कि जिस चीज़ को (यानी नंगे पैर चलने को) उनकी एक जानी-पहचानी ‘अदा’ कहा जाता है, उसकी शुरुअात मुक्तिबोध की मौत के सदमे से हुई थी। ये दो मामूली घटनाएँ मुझे नेहरू युग की गहरी नैतिक फाँक का प्रतिनिधि रूपक लगती हैं।


* * *


अाज विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक दूर-दूर ही से मुक्तिबोध को रहस्यवादी, खंडित चेतना का चितेरा इत्यादि कहते रहते हैं, या कुछ ज़्यादा निर्लज्ज तत्व बार-बार उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि (महाराष्ट्रियन ब्राह्मण) में ही उनकी मूल सृजनात्मक चेतना का उत्स देखते हैं अौर उन्हें वामपंथियों से ‘मुक्त’ करके अपना लेना चाहते हैं। उधर वामपंथ के कई पहरेदारों ने भी (ख़ासकर रामविलास शर्मा और उनके अनुयायियों ने) मुक्तिबोध को डिसओन किया हुअा है। मुक्तिबोध के इस अपहरण, ‘लिबरेशन’ या बरख़ास्तगी की योजना का दिलचस्प पक्ष यह है कि मुक्तिबोध के घर पर कोई पहरा तो है नहीं, द्वार खुले हैं और मुक्तिबोध वहाँ मौजूद हैं — संगत को तैयार। सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध के ये अपहरणकर्ता उनकी बग़ल में बैठने को तैयार हैं? क्या उनकी सोहबत इन्हें गवारा होगी?

हिंदी के साहित्यिक दक्षिणपंथी और उनकी देखादेखी कुछ उदारवादी मुक्तिबोध पर पुनर्विचार की बात किया करते हैं।  विचारशील लोगों को विचार अथवा 'पुनर्विचार' के लिए किसी ऐलान या आयोजन की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विचार अपने में एक जारी सिलसिला है जो इन्सान की ज़ेहनी फ़िज़ा और बौद्धिक कार्यव्यापार को आन्दोलित किये रहता है। हर नए विचार, अकुलाहट या आकलन को पुनर्विचार कहा भी नहीं जाता। यह अधकचरापन और ख़ामख़याली है। अनुभव, प्रयोग, दिमाग़ी मेहनत, और संवाद की मंज़िलों से गुज़रकर और अपने वक़्त के हालात से मानूस होकर, उनसे गहरी जद्दो-जहद करते हुए कभी कभी लोगों का सामूहिक आलोचनात्मक श्रम और रचना-कर्म अपने कुल जमा (कुमुलेटिव) असर से पुनर्विचार की ज़मीन तैयार करता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया में बड़े परिवर्तन साल में दो बार, ख़ुद से और इतनी आसानी से, नहीं आते। मुक्तिबोध पर 'पुनर्विचार' एक संदेहास्पद अकुलाहट का नतीजा लगती है। कुछ लोग विचार से पहले पुनर्विचार के लिए बेताब है। सौवाँ साल (२०१७) पूरा हो रहा है। यानी अगले तीन-चार साल मुक्तिबोध पर सघन ‘पुनर्विचार’ के साल होंगे। चूँकि उसी साल रूसी क्रांति की सौंवी सालगिरह भी पड़ रही है, तो लाज़िम है कि यह एक दोहरा पुनर्विचार हो। इन पुनर्विचारकों के विचार वही हैं जो वे दशकों से — शीतयुद्ध काल से — बताते आ रहे हैं, वे बस नए सिरे से धावा बोलने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है परिस्थिति अब ज़्यादा अनुकूल है। कोशिश है कि फिर से मरहूम पर दावा पेश किया जाए और मुक्तिबोध जन्म शताब्दी वर्ष के आते आते भारतीय वाम-परंपरा के इस महान विचारक, कवि और लेखक की स्मृति पर नरम दक्षिण-अति दक्षिण गठबंधन के तहत एक भगवा-श्वेत दुरंगा फहरा दिया जाए। प्रतिगामिता कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। उसे भगत सिंह की 'घर वापसी' चाहिए और गजानन माधव मुक्तिबोध की भी। भारत में पूँजी हर जगह अपनी ताक़त दिखा रही है। दूसरी ही तरह के ‘पुनर्विचार’ के युग में हम आ गये हैं। पिछले संसदीय चुनाव में सिक्काबन्द हिन्दुत्ववादी राजनीतिक गठबंधन की जीत के बाद उनके सांस्कृतिक प्रवक्ताओं ने सार्वजनिक मंचों से बोलकर भी और लिखकर भी ऐलान कर दिया है कि शिक्षा, संस्कृति, नागरिक आचार और अधिकार व्यवस्था, लोगों के रंग-ढंग और जीवन शैली हर चीज़ पर पुनर्विचार और उसके आमूल-चूल पुनर्गठन का वक़्त आ गया है, और यह कि अब उन्हें जनादेश प्राप्त है। यह पुनर्विचार नहीं, समाज के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की माँग और धमकी है। मुक्तिबोध का वाक़या भी अजीब है। उनके मरणोपरांत जिन लोगों ने उनके साहित्यिक उद्धार का ज़िम्मा लिया, उनके हाथ से वह मरहूम बहुत जल्दी छूट निकले। उनमें से जो उद्धारक बचे रह गए हैं आज तक हाथ मलते हैं। अब नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में फ़िज़ा साज़गार हुई है। उन्हें अपनी ‘जागीर’ वापस चाहिए।
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Thursday, November 28, 2013

अपने से डरा हुआ बहुमत : असद ज़ैदी



क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ (ग़ालिब)

नमरूद बाइबिल और क़ुरआन में वर्णित एक अत्याचारी शासक था जिसने ख़ुदाई का दावा किया और राज्याज्ञा जारी की कि अब से उसके अलावा किसी की मूर्ति नहीं पूजी जाएगी। पालन न करने वालों को क़त्ल कर दिया जाता था। नरेन्द्र मोदी ने, जिनके नाम और कारनामे सहज ही नमरूद की याद दिलाते हैं, अब अपने आप को भारत का प्रधानमंत्री चुन लिया है। बस इतनी सी कसर है कि भारत के अवाम अगले साल होने वाले आम चुनाव में उनकी भारतीय जनता पार्टी को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं तो सबसे ज़्यादा सीट जीतने वाला दल बना दें। इसके बाद क्या होगा यह अभी से तय है। पूरी स्क्रिप्ट लिखी ही जा चुकी है। इस भविष्य को पाने के लिए ज़रूरी कार्रवाइयों की तैयारी एक अरसे से जारी है । मुज़फ़्फ़रनगर में मुस्लिम जनता पर बर्बर हमला, हत्याएँ, बलात्कार, असाधारण क्रूरता की नुमाइश और बड़े पैमाने पर विस्थापन इस स्क्रिप्ट का आरंभिक अध्याय है। यह उस दस-साला खूनी अभियान का भी हिस्सा है जिसके ज़रिए हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ हिन्दुस्तानी राज्य और समाज पर अपने दावे और आधिपत्य को बढ़ाती जा रही हैं।

यह आधिपत्य कहाँ तक जा पहुँचा है इसकी प्रत्यक्ष मिसालें देना ज़रूरी नहीं है -- क्योंकि जो देखना चाहते हैं देख ही सकते हैं -- पर जो परोक्ष में है और भी चिंताजनक है। मसलन, लेखक कवियों और कलाकारों के बीच विमर्श को जाँचिए, उस स्पर्धा और घमासान को देखिए जो हमेशा उनके बीच होता ही रहता है, हिन्दी के अध्यापकों से बात कीजिए, और मुज़फ़्फ़रनगर का ज़िक्र छेड़िये तो लगेगा मुज़फ़्फ़रनगर में शायद कोई मामूली वारदात हुई है जो होकर ख़त्म हो गई। जैसे किसी को मच्छर ने काट लिया हो! मुज़फ़्फ़रनगर की बग़ल में, दिल्ली में, बैठे हुए किसी को सुध नहीं कि पड़ोस में क्या हुआ था और हो रहा है, बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, भोपाल, पटना, चंडीगढ़ और शिमला का तो ज़िक्र ही क्या! इक्के दुक्के पत्रकारों, चंद कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों की को छोड़ दें तो किसी लेखक-कलाकार को वहाँ जाने की तौफ़ीक़ नहीं हुई। उनमें से एक शरणार्थी कैम्प तो दिल्ली की सीमा ही पर है। मात्र एक ज़िले में क़रीब एक लाख लोग अपने गाँवों और घरों से खदेड़ दिये गए, शायद अब कभी वहाँ लौट नहीं पाएँगे, उनके भविष्य में असुरक्षा और अंधकार के सिवा कुछ नहीं, उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति साहित्य, कला, संस्कृति, पत्र-पत्रिका, अख़बार, सोशल मीडिया में सरसरी तौर से भी ठीक से दर्ज नहीं हो पा रही। ऐसे है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और जो अब हो रहा है वो भी नहीं हो रहा!

मामला इतने पर ही नहीं रुकता। संघ परिवार, नरेन्द्र मोदी और भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का इस प्रसंग से जैसे कोई वास्ता ही नहीं! मीडिया को उनका नामोल्लेख करना ग़ैर-जायज़ लगता है। मामले को ऐसे बयान किया गया कि यह सिर्फ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की चुनावी चाल थी जो उल्टी पड़ गई। अगर कोई कहता है कि कैसे मुज़फ़्फ़रनगर में गुजरात का प्रयोग विधिवत ढंग से दोहराया गया है, और इस वक़्त वहाँ की दबंग जातियाँ, पुलिस और काफ़ी हद तक प्रशासन मोदी-मय हो रहा है, और यह कि मुज़फ़्फ्ररनगर क्षेत्र में संघ परिवार बहुत दिन से ये कारनामा अंजाम देने की तैयारी कर रहा था, तो आम बौद्धिक कहने वाले की तरफ़ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बहुत दूर की कौड़ी लाया हो। हिन्दी इलाक़े के बौद्धिकों में -- जिनमें अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी कम नहीं हैं -- फ़ासिज़्म को इसी तरह देखा या अनदेखा किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले हिन्दी के एक पुराने बुद्धिमान ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी पर ज़्यादा चर्चा से उसीका महत्व बढ़ता है; बेहतर हो कि हम मोदी को 'इगनोर' करना सीख लें। एक प्रकार से वह साहित्य की दुनिया में आज़माये फ़ार्मूले को राष्ट्रीय राजनीति पर लागू कर रहे थे। इतिहास में उन जैसे चिन्तकों ने पहले भी हिटलर और मुसोलिनी को 'इगनोर' करने की सलाह दी थी।

अगर यह नादानी या मासूमियत की दास्तान होती तो दूसरी बात होती। इसी तबक़े के लोगों ने यू आर अनंतमूर्ति प्रकरण में जिस मुस्तैदी और जोश से बहस में हिस्सा लिया वह कहाँ से आई? अनंतमूर्ति ने जब यह कहा कि वह ऐसे मुल्क में नहीं रहना चाहेंगे जहाँ मोदी जैसा आदमी प्रधानमंत्री हो, संघ परिवार द्वारा लोकतंत्र पर जैसी फ़ासीवादी चढ़ाई की तैयारी है, अगर वह सफल हो गई तो यह देश रहने लायक़ नहीं रह जाएगा, तो लगा जैसे क़हर बरपा हो गया! शायद ही वर्तमान या अतीत के किसी लोहियावादी को एक साथ संघ परिवार और हिन्दी के उदारमना मध्यममार्गी लोगों का ऐसा कोप झेलना पड़ा हो। अचानक साहित्य और पत्रकारिता के सारे देशभक्त जाग उठे और बुज़ुर्ग लेखक के 'देशद्रोह' की बेहूदा तरीक़े से निन्दा करने लगे। यह अनंतमूर्ति की वतनपरस्ती ही थी कि उन्होंने ऐसी बात कही। रंगे सियारों के मुँह से यह बात थोड़े ही निकलने वाली थी! कौन चाहेगा कि उसका वतन एक क़ातिल और मानवद्रोही के पंजे में आ जाए? क्या इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि हज़ारों, बल्कि लाखों बल्कि लोगों को, रोते और बिलबिलाते हुए, अपने वतन को अलविदा कहनी पड़ी? पिछली सदी में जर्मनी में और स्पेन में, और १९४७ के भारत में क्या हुआ था? हर तरह के फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक लोग क्या इसी को शुद्धिकरण और राष्ट्र-निर्माण का दर्जा नहीं देते थे? कुछ लोग तमाम जानकारी जुटा कर यह साबित करने पर तुल गए कि अनंतमूर्ति नाम का शख़्स कितना चतुर, अवसरवादी और चालबाज़ रहा है। मामला फ़ासिस्ट ख़तरे से फिसलकर एक असहमत आदमी के चरित्र विश्लेषण पर आ ठहरा। वे किसका पक्ष ले रहे थे? ऐसी ही दुर्भाग्पूर्ण ख़बरदारी वह थी जिसका निशाना मक़बूल फ़िदा हुसेन बने। कई बुद्धिजीवी और अख़बारों के सम्पादक हुसेन को देश से खदेड़े जाने और परदेस में भी उनको चैन न लेने देने के अभियान का हिस्सा बन गए थे।

मुज़फ़्फ़रनगर पर ख़ामोशी और अनंतमूर्ति के मर्मभेदी बयान पर ऐसी वाचालता दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे यह पता चलता है कि ज़हर कितना अन्दर तक फैल चुका है। फ़ासिज्‍़म लोगों की भर्ती पैदल सैनिक के रूप में लुम्पेन तबक़े से ही नहीं, बीच और ऊपर के दर्जों से भी करता है। उसका एक छोटा दरवाज़ा बायें बाज़ू के इच्छुकों के लिए भी खुला होता है। कुछ साल के अन्तराल से आप किसी पुराने दोस्त और हमख़याल से मिलते हैं तो पता चलता है वह बस हमज़बान है, हमख़याल नहीं। आपका दिल टूटता है, ज़मीन आपके पैरों के नीचे से खिसकती लगती है, अपनी ही होशमन्दी पर शक होने लगता है। वैचारिक बदलाव ऐसे ही चुपके से आते हैं। बेशक इनके पीछे परिस्थितियों का दबाव भी होता है, पर यही दबाव प्रतिरोध के विकल्प को भी तो सामने कर सकता है। ऐसा नहीं होता नज़र आता इसकी वजह है बहुमत का डर और वाम-प्रतिरोध की परंपरा का क्षय। मेरी नज़र में जब लोग लोकतंत्र के मूल्यों की जगह बहुमतवाद के सिद्धान्त को ही सर्वोपरि मानने लगें, और राजनीति-समाज-दैनिक जीवन सब जगह उसी की संप्रभुता को स्वीकार कर लें, बहुमतवाद के पक्ष में न होकर भी उसके आतंक में रहने लगें, अपने को अल्पमत और अन्य को अचल बहुमत की तरह देखने लगें और ख़ुद अपने विचारों और प्रतिबद्धताओं के साथ नाइन्साफ़ी करने लगें तो अंत में यह नौबत आ जाती है कि बहुमत के लोग ही बहुमत से डरने लगते हैं। बहुमत ख़ुद से डरने लगता है।आज हिन्दुस्तान का लिबरल हिन्दू अपने ही से डरा हुआ है, उसे बाहर या भीतर के वास्तविक या काल्पनिक शत्रु की ज़रूरत नहीं रही। फ़ासिज़्म का रास्ता इसी तरह बना है, इसी से फ़ासीवादियों की ताक़त बढ़ी है। यह वह माहौल है जिसमें प्रगतिशील आदमी भी सच्ची बात कहने से घबराने लगता है, साफ़दिल लोग भी एक दूसरे से कन्नी काटने लगते हैं। बाक़ी अक़्लमंदों का तो कहना ही क्या, उनके भीतर छिपा सौदागर कमाई का मौक़ा भाँपकर सामने आ जाता है और अपनी प्रतिभा दिखाने लगता है। अक़लमंद लोग अपनी कायरता को भी फ़ायदे के यंत्र में बदल लेते हैं।

१९८९ के बाद पंद्रह बीस साल ऐसे आए थे जब भारत का मुख्यधारा का वाम (संसदीय वामपंथ ) यह कहता पाया जाता था कि दुनिया भर में समाजवादी राज्य-व्यवस्थाएँ टूट रही हैं, कुछ बिल्कुल मिट चुकी हैं लेकिन हिन्दुस्तान में वाम की शक्ति घटी नहीं बल्कि इसी दौर में उत्तरोत्तर बढ़ी है। वाम संगठनों की सदस्यता में इज़ाफ़ा हुआ है और यह इसका प्रमाण है कि वाम दलों की नीतियाँ सही हैं, और यह कि हमारी वाम समझ ज़्यादा परिपक्व, ज़मीनी और पायेदार है। बूर्ज्वा पार्टियों का दिवालियापन अब ज़ाहिर होने लगा है। इस सूत्र को इसी दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति से मिलाकर देखें तो पता चलता है कि वाम के एक हिस्से ने अपने लिए कितनी बड़ी मरीचिका रच ली थी, और यथार्थ के प्रतिकूल पक्ष की अनदेखी करना सीख लिया था। वाम दलों ने अपनी बनाई मरीचिका में फँसकर अपने ही हौसले पस्त कर लिए हैं। इसी दौर में संघ परिवार की ख़ूनी रथयात्राएँ और सामाजिक अभियान शुरू हुए जिनकी परिणति बाबरी मस्जिद के विध्वंस और मुम्बई और सूरत के नरसंहारों में हुई। यह दौर हिन्दुत्व के राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय तथ्य बनने का है, पहले खाड़ी युद्ध के साथ पश्चिम एशिया पर अमरीकी साम्राज्य के हमलों का है, और भारत में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मसमर्पण का है। इसी दौर में भारत स्वाधीन नीति छोड़कर अमरीका का मातहत और इज़राइल का दोस्त हुआ। इसी दौर में बंगाल की लम्बे अरसे से चली आ रही वाम मोर्चा सरकार ने अवाम के एक हिस्से का समर्थन खो दिया क्योंकि वाम सरकार और वाम पार्टियों के व्यवहार में वाम और ग़ैर-वाम का फ़र्क़ ही नज़र आना बंद हो गया था। यही दौर मोदी की देखरेख में गुजरात में सन २००२ का ऐतिहासिक नरसंहार सम्पन्न हुआ जिसमें राजसत्ता के सभी अंगों ने अभूतपूर्व तालमेल का परिचय दिया और भारत में भावी फ़ासिज़्म क्या शक्ल लेगा इसकी झाँकी दिखाई। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार, निजीकरण और कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इसी हिन्दू फ़ासिस्ट मॉडल को विकास के अनुकरणीय आदर्श की तरह पेश किया जाता रहा है।

आज हिन्दुस्तान में संसाधनों की कारपोरेट लूट लूट नहीं राजकीय नीति के संरक्षण में क्रियान्वित की जाने वाली हथियारबंद व्यवस्था है। भारतीय राज्य का राष्ट्रवाद अवामी नहीं, दमनकारी पुलिसिया राष्ट्रवाद है, अर्धसैनिक और सैनिक ताक़त पर आश्रित राष्ट्रवाद है। यह अपनी ही जनता के विरुद्ध खड़ा राष्ट्रवाद है। वैसे तो सर्वत्र लेकिन उत्तरपूर्व, छत्तीसगढ़ और कश्मीर में सुबहो-शाम इसका असल रूप देखा जा सकता है। आर्थिक नीति, सैन्यीकृत राष्ट्रवाद और शासन-व्यवस्था के मामलों में कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। फ़ासिज्‍़म के उभार में इमरजेम्सी के ज़माने से ही दोनों का साझा रहा है। हिन्दुस्तान में फ़ासिज़्म के उभार का पिछली सदी में उभरे योरोपीय फ़ासिज़्म से काफ़ी साम्य है। जर्मन नात्सीवाद के नक़्शे क़दम पर चल रहा है। वह अपने इरादे छिपा भी नहीं रहा । बड़ा फ़र्क़ बस यह है कि भारतीय मीडिया और मध्यवर्ग इसी चीज़ को छिपाने में जी-जान से लगा है। फ़ासिज़्म फ़ासिज़्म न होकर कभी विकास हो जाता है कभी दंगा, गुजरात का नस्ली सफ़ाया गोधरा कांड की प्रतिक्रिया हो जाता है, मुज़फ़्फ़रनगर की व्यापक हिंसा जाट-मुस्लिम समुदायों की आपसी रंजिश का नतीजा या कवाल कांड की प्रतिक्रिया बन जाती है। हमारे बुद्धिजीवी विषयांतर में अपनी महारत दिखाकर इस फ़ासिज़्म को मज़बूत बनाए दे रहे हैं।

इस दुष्चक्र को तोड़ने का एक ही तरीक़ा है इन ताक़तों से सीधा सामना, हर स्तर पर सामना। और समय रहते हुए सामना। अपने रोज़मर्रा में हर जगह हस्तक्षेप के मूल्य को पहचानना। ऐसी सक्रिय नागरिकता ही लोकतंत्र को बचा सकती है। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है आज व्यवस्था के सताये हुए अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई), दलित और आदिवासी के साथ मज़बूती से खड़े होने की। अगर वाम शक्तियाँ और ग़ैर-दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वर्ग प्रतिबद्धता से यह कर सकें तो फ़ासिज़्म की इमारतें हिल जाएँगी और उनके आधे मन्सूबे धरे रह जाएँगे। इस समय ज़रूरत है फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ व्यापक वाम और अवामी एकता की -- अगर यह एकता राजनीतिक शऊर और ज़मीर से समझौते की माँग करे तो भी। बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी का काम इससे बाहर नहीं है।
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 `प्रभात खबर` दीवाली विशेषांक से साभार

Friday, November 15, 2013

ख्वाजादास के पद वाया मृत्युंजय



पिछले कुछ दिनों से वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी पर महाकवि ख्वाजादास की कृपा बनी हुई है। खुशी की बात यह है कि अब वे हमारे एक और बेहतरीन हिंदी कवि मृत्युंजय पर भी नाजिल हुए हैं। उन्होंने जो फरमाया, वह मृत्युंजय भाई की ही जुबानी-
 


[ख्वाजादास से असद जी ज़ैदी साहब ने तआररूफ़ करवाया था। असद जी की साखी पर मुझ नाचीज पर भी उनकी अहेतुक कृपा बरसी।]

[क]
सुबकत-अफनत ख्वाजादास !
नैहर-सासुर दोनों छूटा टूटी निर्गुनिये से आस
लतफत लोर हकासल चोला बीच करेजे अटकी फांस
गगने-पवने, माटी-पानी, अगिन काहु पर नहिं बिस्वास
थहकल गोड़ रीढ़ पर हमला जुद्धभूमि में उखड़ी  सांस  
सुन्न सिखर पर जख्म हरियरा फूलन लागे चहुंदिस बांस 
जेतने संगी सब मतिभंगी नुचड़ी-चिथड़ी दिखे उजास
बिरिछे बिरिछे टंगी चतुर्दिक फरहादो शीरीं की लाश

[ख]
ख्वाजादास पिया नहिं बहुरे !
नैनन नीर न जीव ठेकाने कथा फेरु नहिं कहु रे
यह रणभूमि नित्यप्रति खांडा गर्दन पे लपकहु रे 
ज़ोर जुलुम तन-मन-धन लूटत, जेठे कभु कभु लहुरे
कवन राहि तुम बिन अवगाहों खाय मरो अब महुरे
जहर तीर बेधत हैं तन-मन अगिन कांट करकहु रे
तुम्हरी आस फूल गूलर कै मन हरिना डरपहु रे
नाहिं कछू, हम कटि-लड़ि मरबों पाछे जनि आवहु रे

[ग]
ख्वाजा का पियवा रूठा रे !
भीतर धधकत मुंह नहिं खोलत दुबिधा परा अनूठा रे
आवहु सखि मिलि गेह सँभारो गुरु के छपरा टूटा रे
कोही कूर कुचाली कादर कुटिल कलंकी लूटा रे  
जप तप जोग समाधि हकीकी इश्क कोलाहल झूठा रे
पछिम दिसा से चक्रवात घट-पट-पनघट सब छूटा रे
मन महजिद पे मूसर धमकत राई-रत्ता कूटा रे   
सहमा-सिकुड़ा-डरा देस का पत्ता, बूटा-बूटा रे  

[घ]
ख्वाजा, संत बजार गये !
बधना असनी रेहल माला सब कुछ यहीं उतार गये
जतन से ओढ़ी धवल कामरी कचड़ा बीच लबार गये 
जनम करम की नासी सब गति करने को व्योपार गये
छोड़ि संग लकुटी-कामरि को हाथ लिये ज्योनार गये
नेम पेम जप जोग ज्ञान सब झोंकि आगि पतवार गये
हड़बड़ तड़बड़ लंगटा-लोटा बीच गली में डार गये
नये राज की नयी नीत के सिजदे को दरबार गये
 
[ङ]
ख्वाजा कहा होय अफनाये !
राजनीति बिष बेल लहालह धरम क दूध पियाये
देवल महजिद पण्य छापरी पंडित - मुल्ला छाये
सतचितसंवेदन पजारि के कुबुधि फसल उपजाये
देस पीर की झोरी - चादर साखा मृग नोचवाये
मन भीतर सौ-सौ तहखाना घृणा प्रपंच रचाये
दुरदिन दमन दुक्ख दरवाजे दंभिन राज बनाये
सांवर सखी संग हम रन में जो हो सो हो जाये

(ऊपर पेटिंग जाने-माने चित्रकार मनजीत बावा की है।)

Wednesday, October 30, 2013

विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है - असद ज़ैदी


`प्रभात खबर` अख़बार में छपा वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी का इंटरव्यू

‘कविता’ आपके लिए क्या है?

कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीक़ा है। पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ़ते हों। कविता समाज को मुख़ातिब करती बाहरी आवाज़ नहीं, समाज ही में पैदा होने वाली एक आवाज़ है। चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख़। यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है। एक बात यह भी है कि कविता आदमी पर अपनी छाप छोड़ती है - जैसी कोई कविता लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इन्सान।


लेखन की शुरुआत स्वत: स्फूर्त थी या कोई प्रेरणा थी?

खुद अपने जीवन को उलट पुलटकर देखते, और जो पढ़ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मैं लिखने की तरफ़ माइल हुआ। घर में तालीम की क़द्र तो थी पर नाविल पढ़ने, सिनेमा देखने, बीड़ी सिगरेट पीने, शेरो-शाइरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था। यह लड़के के बिगड़ने या बुरी संगत में पड़ने की अलामतें थीं। लिहाज़ा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था। पर मिज़ाज में बग़ावत है, यह सब पर ज़ाहिर था।


आपने शुरुआत कहानी से की थी फिर कविता की ओर आये. कविता विधा ही क्यों?

शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से। मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है। यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है। कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है, और उसे किफ़ायत से बरतना भी सिखाती है। कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज़ है। वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है। हर कवि के अंदर कई तरह के लोग - संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार, फ़िल्मकार, कथाकार, मिनिएचरिस्ट, अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन श्रोता और एक ख़ामोश आदमी - हरदम मौजूद होते हैं।


अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.

मैं अक्सर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूँ। जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या ख़बर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फ़लाँ बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं। कई दफ़े अवचेतन में बनती कोई तस्वीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है जैसे कोई फ़िल्म निगेटिव अचानक धुलकर छापे जाना माँगता हो। मिर्ज़ा ने बड़ी अच्छी बात कही है - 'हैं ख़्वाब में हनोज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।'

दरअसल रचना प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज़ हो जाती है। यह तो बाद में जानने या फ़िक्र में लाने की चीज़ है। यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है - चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो - जो रचना में कोई मदद नहीं करता।

मुक्तिबोध से बेहतर चिंतन इस मामले में किसी ने नहीं किया, वह इन मामलात की गहराई में गए थे। 'कला का तीसरा क्षण' निबंध और 'बाह्य के आभ्यंत्रीकरण' और 'अभ्यन्तर के बाह्यकरण' का चक्रीय सिद्धान्त जानने और समझने की चीज़ें हैं। लेकिन मुझे यक़ीन है कवि के रूप में मुक्तिबोध 'तीसरे क्षण' के इन्तिज़ार में नहीं बैठे रहते थे।


अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज और परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?

संबंध इस तरह का है कि 'दस्ते तहे संग आमदः पैमाने वफ़ा है' (ग़ालिब)। मैं इन्ही चीज़ों के नीचे दबा हुआ हूँ, इनसे स्वतंत्र नहीं हूँ। लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड़ी राहत की बात है।


क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?

पानी में गीलापन होना उचित माना जाए या नहीं, वह उसमें होता है। समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है - आदिम गुफाचित्रों के समय से ही। विचारधारा ही ज़बान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं। बाज़ार से लाकर रचना पर कोई चीज़ थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीचकर या बीनकर निकालना बुरी बात है। यह उसकी मनुष्यता का हरण है। और एक झूटी गवाही देने की तरह है।


आप अपनी कविताओं में बहुत सहजता से देश और दुनिया की राजनीतिक विसंगतियों को आम आदमी की जिंदगी से जोड़ कर एक संवाद पेश करते हैं. क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?

मौजूदा वक़्त ख़राब है, और शायद इससे भी ख़राब वक़्त आने वाला है। यह कविता के लिए अच्छी बात है। कविकर्म की चुनौती और ज़िम्मेदारी, और कविता का अंतःकरण इसी से बनता है। अच्छे वक़्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गई हो। जो लिखी भी गई है वह बुरे वक़्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही। जहाँ तक कवि की आवाज़ के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिन्ता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि ख़ुद अपनी आवाज़ सुन पा रहा है? या उसी में एबज़ॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके तो बाक़ी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा।


आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) आपके साथ ‘हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है? इसके पीछे क्या वजहें हो सकती हैं?

मैं अपना ही आकलन कैसे करूँ! या क्या कहूँ? ऐसी कोई ख़ास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई। मेरी पिछली किताब मेरे ख़याल में ग़ौर से पढ़ी गई और चर्चा में भी रही। कुछ इधर का लेखन भी। इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला।


लेखन से जुड़े पुरस्कारों को कितना अहम मानते हैं एक लेखक के लिए?

मुझे अपने मित्र पंकज चतुर्वेदी की कविता 'कृतज्ञ और नतमस्तक' की याद आ रही है। यह कालजयी रचना बहुत थोड़े शब्दों में वह सब कह देती है जो इस मसले पर कहा जा सकता है।


कृतज्ञ और नतमस्तक
पंकज चतुर्वेदी

सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे ख़ुद को
और पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना


आप अपनी सबसे प्रिय रचना के तौर पर किसका जिक्र करना चाहेंगे?

इस बारे में राय बदलता रहता हूँ, किसी समय कोई कविता ठीक लगती है किसी और समय दूसरी। मेरे दोस्तों से पूछिए तो कहेंगे मेरी ज़्यादातर रचनाएँ अप्रिय रचनाएँ हैं। यह भी ठीक बात है। उन लोगों को जो पसन्द हैं - या सख़्त नापसंद हैं - वे कविताएँ हैं : बहनें, संस्कार, आयशा के लिए कुछ कविताएँ, पुश्तैनी तोप, दिल्ली दर्शन, कविता का जीवन, अप्रकाशित कविता, सामान की तलाश, आदि।


इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं? और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?

कुछ ख़ास नहीं। वही जो हमेशा से करता रहा हूँ। मेरी ज़्यादातर प्रेरणाएँ और मशग़ले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है। समाजविज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर "थ्री एसेज़" प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूँ। और अपना लिखना पढ़ना भी करता ही रहता हूँ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख़ासकर ख़याल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुज़ार दी है।


ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ़ने के बाद ज़ेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?

चलते चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। मैं पुराना पाठक हूँ। जवाब देने बैठूँ तो बक़ौल शाइर - 'वो बदख़ू और मेरी दास्ताने-इश्क़ तूलानी / इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाए है मुझसे।' कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अन्तोन चेख़व की कहानी 'वान्का' जो मैंने किशोर उम्र में ही पढ़ ली थीं ज़ेहन में नक़्श हो गईं हैं। इसके बाद की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।
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`प्रभात खबर ` में इस बातचीत के कुछ पैराग्राफ नहीं हैं।

Sunday, July 28, 2013

मंगलेश डबराल के कविता संग्रह 'नये युग में शत्रु' पर असद ज़ैदी की टिप्पणी

ये युग में शत्रु
एक बेगाने और असंतुलित दौर में मंगलेश डबराल अपनी नई कविताओं के साथ प्रस्तुत हैं – अपने शत्रु को साथ लिए। बारह साल के अंतराल से आये इस संग्रह का शीर्षक चार ही लफ़्ज़ों में सब कुछ बता देता है – उनकी कला-दृष्टि, उनका राजनीतिक पता-ठिकाना, उनके अंतःकरण का आयतन।  यह इस समय हिन्दी की सर्वाधिक समकालीन और विश्वसनीय कविता है। भारतीय समाज में पिछले दो-ढाई दशक के फ़ासिस्ट उभार, साम्प्रदायिक राजनीति और पूँजी के नृशंस आक्रमण से जर्जर हो चुके  लोकतंत्र के अहवाल यहाँ मौजूद हैं, और इसके बरक्स एक सौंदर्य-चेतस कलाकार की उधेड़बुन का पारदर्शी आकलन भी। ये इक्कीसवीं सदी से आँख मिलाती हुई वे कविताएँ हैं जिन्होंने बीसवीं सदी को देखा है। ये नये में मुखरित नये को भी  परखती हैं और उसमें बदस्तूर जारी पुरातन को भी जानती हैं। हिन्दी कविता में वर्तमान सदी की शुरूआत ही 'गुजरात के मृतक का बयान' से होती है।

ऊपर से शांत, संयमित और कोमल दिखने वाली, लगभग आधी सदी से पकती हुई मंगलेश की कविता हमेशा सख़्तजान रही है – किसी भी चीज़ के लिए तैयार! इतिहास ने जो ज़ख़्म दिए हैं उन्हें दर्ज करने, मानवीय यातना को सोखने और प्रतिरोध में ही उम्मीद का कारनामा लिखने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध। यह हाहाकार की ज़बान में नहीं लिखी गई है; वाष्पीभूत और जल्दी ही बदरंग हो जाने वाली भावुकता से बचती है। इसकी मार्मिकता स्फटिक जैसी कठोरता लिए हुए है। इस मामले में मंगलेश  क्लासिसिस्ट मिज़ाज के कवि हैँ – समकालीनों में सबसे ज़्यादा तैयार, मँजी हुई, और तहदार ज़बान लिखने वाले।

मंगलेश के यहाँ जो असाधारण संतुलन है कभी बिगड़ता नहीं – उनकी कविता ने न यथार्थबोध को खोया है न अपने निजी संगीत को। वह अपने समय में कविता की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को अच्छे से सँभाले हुए हैं;  इस कार्यभार से दबे नहीं हैं। मंगलेश के लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अक़ीदे की पुख़्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है। हमेशा की तरह जानी पहचानी मंगलेशियत इसमें नुमायाँ है।

और इससे ज़्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साज़े-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो पहाड़ पर लालटेन से लेकर उनके पिछले संग्रह आवाज़ भी एक जगह है  में सुनाई देता रहा था। नये युग में शत्रु में उसकी सदा पूरी आबो-ताब से मौजूद है।

–असद ज़ैदी
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ग़ालिब का शेर, जिसका हल्का सा हवाला ब्लर्ब में है, इस तरह है :

नग़्माहा-ए ग़म को भी, ऐ दिल, ग़नीमत जानिये
बे-सदा हो जाएगा, ये साज़े-हस्ती, एक दिन

Saturday, January 8, 2011

फ़ैज़ पर कुछ नोट्स : दूसरी और अंतिम किस्त


फ़ैज़ अपने उस्ताद के साथ शतरंज खेलना नहीं भूलते. बल्कि यह भी उनका प्रिय व्यसन है. ग़ालिब कहते हैं : 'बुलबुल के कारोबार पे है खंदा-हाए गुल / कहते हैं जिसे इश्क ख़लल है दिमाग़ का'. फ़ैज़ की बाज़ी कुछ और है : 'गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले / चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले.' ऐसी मिसालेंबेशुमार हैं.
फ़ैज़ ग़ालिब के मज़मून पर इस तरह काम करते हैं और उसमें से ऐसी सूरतें निकलते रहते हैं जैसी कि सूरत मिक्लोश यांचो ने एलेक्त्रा के यूनानी मिथक पर काम करते हुए अपनी अमर फ़िल्म 'एलेक्त्रा माई लव' में निकाली थी.
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उर्दू में यह बात रही है कि ग़ज़ल के श्रोता और पाठक हमेशा दौरे हाज़िर के शाइरों पर ही तवज्जो देते रहे हैं, पुरानों की तरफ़ उनका ख़याल ज़्यादा नहीं रहता.इसकी वजह शायद यह होगी कि ग़ज़ल परफोर्मिंग ट्रेडीशन की तरह ज़्यादा लोकप्रिय रही. मसलन ज़ौक़, ग़ालिब और मोमिन के दौर में उनकी धूम थी,लखनऊ में अनीसो-दबीर का शोहरा था, फिर दाग़ की धूम हुई, एक दौर इक़बाल का आया, जिगर और हसरत और फ़िराक़ का ज़माना आया. एक मीर ही थे जिन्हें हर दौर में याद किया गया. ग़रज़ ये कि तरक्कीपसंद तहरीक (प्रगतिशील आन्दोलन) के ज़माने में ही यह संभव हो पाया कि ग़ालिब या मीर या या नज़ीर को पुरानों की तरह देखने के बजाए प्रासंगिक समकालीनों की तरह देखा जाए और उनसे सीधा संवाद स्थापित किया जाए.
फ़ैज़ को अपने आरंभिक दौर में ग़ालिब की कड़ी ज़रूरत पड़ी और यह रिश्ता जीवन-पर्यंत चला. फैज़ के यहाँ मीर तक़रीबन ग़ायब हैं. सिर्फ़ 1954 में जब फ़ैज़ मोंटगोमरी जेल में क़ैद थे उन्हें कुछ मीर की याद आई. दो ही ग़ज़लें ऐसी हैं जहाँ मीर की सोहबत झलकती है ('कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं', और 'कुछ मुहतसिबों की खल्वत में कुछ वाइज़ के घर जाती है'). मीर की तरफ़ इक़बाल ने भी कम ही देखा था, और ग़ौर करें तो 1947 से पहले पंजाब सूबे में मीर की ज़्यादा पूछ नहीं रही. उपमहाद्वीप के बटवारे के बाद सबको मीर याद आये और बुरी तरह छा गए. नासिर काज़मी और इब्ने इंशा जैसे दो अलग अलग मिज़ाज के शाइर मीर की ही मजलिस में रहे.
उर्दू जैसी भी बदक़िस्मत ज़बान हो उसे जिलाए रखने में पुराने बड़े मददगार रहते हैं. वह अपनी समकालीनता खोते नहीं दीखते. आज फ़ैज़ भी उन्हीं पुरानों में शामिल हैं.
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उर्दू शायरी में निस्वानी आवाज़ (स्त्री स्वर) के लिए जगह बनाने और उसे स्थापित करने में प्रगतिशीलों का, उनमें भी सबसे ज़्यादा फ़ैज़ का रोल है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है. इसके लिए फ़ैज़ ने अलहदा से कुछ नहीं किया, उनकी उपस्थिति मात्र से ही यह राह खुल गयी. फ़ैज़ ने परम्परा का जो ख़ामोश लेकिन मूलगामी आधुनिकीकरण किया उसी में स्वरों के एक वास्तविक और लोकतांत्रिक विस्तार और सह-अस्तित्व की ज़मीन मौजूद थी. ग़ज़ल और नज़्म में कवयित्रियाँ पता नहीं कब से लगभग मर्दाने लिबास में मर्दानी बोली बोलते हुए पेश होती रही हैं! जैसे पुराने नाटकों में, जहां औरतों की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाया करते थे, शाइरी में भी 'स्त्री-स्वर' पर शाइर का ही एकाधिकार था, शाइरा के लिए वह वर्जित ही था. हिंद-फ़ारसी काव्य परम्परा की यह एक पुरानी समस्या है और तसव्वुफ़ की कुछ 'खूबियों' में एक यह खूबी गौर करने लायक़ है. कथा साहित्य में भले ही रशीद जहाँ, इस्मत, कुर्रतुल ऐन हैदर के लिए (या दूसरी तरह के लेखन में सफ़िया अख्तर और अनीस किदवाई जैसी रचनाकारों के लिए) यह समस्या नहीं रही हो, पर शाइरी का रास्ता पकड़ने वाली औरत की बड़ी मुश्किल रही है. कुछ कुछ हाली के दौर से, पर ख़ास तौर पर फ़ैज़ की आमद के बाद से यह संभव हो सका कि उर्दू शाइरी में स्त्री स्त्री की तरह पेश होने लगीं और कवयित्रियाँ प्रथम पुरुष स्त्रीलिंग का बेधड़क इस्तेमाल करने लगीं. यही वजह होगी कि सारा शिगुफ्ता, परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहीद जैसी कवयित्रियों को पढ़ते हुए फ़ैज़ और मजाज़ तो याद आते हैं, नून मीम राशिद, मीराजी, अहमद नदीम क़ासिमी, नासिर काज़मी और अख्तरुल ईमान याद नहीं आते. जोश--फ़िराक़ की तो बात ही छोड़िए.
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फ़ैज़ जैसा प्रतिबद्ध और नैचुरल अंतर्राष्ट्रीयतावाद आज उर्दू कविता में दुर्लभ है. हिन्दी में मुक्तिबोध और शमशेर को छोड़ दें तो वह कम-कम ही था -- और ये भी उसी पीढ़ी के नुमाइंदे हैं. आज के शाइर/कवि की आफ़ाकियत निस्बतन अप्रतिबद्ध, अमूर्त और हल्की मालूम होती है -- वह अक्सर प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीयवाद और वर्तमान दौर के प्रतिक्रियावादी भूमंडलीकरण के बीच तमीज़ करना भूल जाता है. यह आफ़ाकियत कम, आफ़ाकियत का दावा ज़्यादा है -- असल में यह अपने यहाँ की हक़ीक़त से फ़रार का ही एक रूप है.
यहीं यह ख़याल भी आता है कि दुश्चक्रों में फँसे, अपेक्षाकृत छोटे देशों का आदमी ही सबसे ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो सकता है. उसे वैश्विक परिदृश्य, उसमें अपने समाज की लोकेशन और सामाजिक-राजनीतिक दुर्दशा से इन चीज़ों के ताल्लुक़ का तीव्र अहसास होता है. उसके लिए देश का बदल विदेश नहीं हो सकता-- जो बैरूनी है वही अंदरूनी को निर्धारित या प्रभावित करता है. हिन्दुस्तान जैसे बड़े देश में सच्चा अंतर्राष्ट्रीयतावादी होना इसीलिए मुश्किल और चुनौती भरा हैकि देश ही पूरी दुनिया नज़र आता है. अंदरूनी का इतना विस्तार है कि बैरून बहुत दूर की चीज़ लगती है. भारत से बाहर जो है विदेश है. पाकिस्तान या क्यूबा या अफ़गानिस्तान के बाहर जो भी है सिर्फ़ बहुत पास है बल्कि बुरी तरह ग़ालिब है. एक अच्छा पाकिस्तानी बुद्धिजीवी सिर्फ़ पाकिस्तान या पाकिस्तानी नियति के बारे में सोचता नहीं रह सकता. उरुग्वे, चीले, आर्हेंतीना, पेरू या निकारागुआ के लेखक अपने अपने देशों से कहीं ज़्यादा पूरे लातीनी अमरीकी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. यही बात वहाँ के क्रांतिकारियों पर लागू होती है. लगभग यही बात अरब दुनिया के बारे में सही है.
यही वजह है कि पाकिस्तान ने पिछले पचास साल में इक़बाल अहमद, हमज़ा अलवी, तारिक़ अली और फ़ैज़ जैसी आलमी शख्सियतें पैदा कीं (भले ही पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान में उनकी कोई क़द्र हो) पर हमारे पास बताने के लिए बमुश्किल अमर्त्य सेन जैसा ग़ैर-रैडिकल नाम है जो अंतर्राष्ट्रीयतावादी कम,उदारवादीवादी मानवतावाद के प्रवक्ता ज़्यादा लगते हैं
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फ़ैज़ के बाद : फ़ैज़ के बाद गुलशन का कारोबार कितना बदल गया है. बाद का दौर दक्षिण एशिया में युद्ध, गृहयुद्ध, साम्प्रदायिक हिंसा, धर्मान्धता, साम्राज्यवादी लूट, समाज और अर्थव्यवस्थाओं पर नव-उदारवादी हमलों और लोकतंत्र के पीछे हटने का दौर है. राज्य द्वारा हर तरह के प्रतिरोध का दमन, जनक्षेत्र पर निजी पूँजी का नियंत्रण हमारे दौर की सचाइयाँ हैं. पाकिस्तान का हाल हिन्दुस्तान से भी ख़राब हुआ है. वहाँ जल्दी सुधार की कोई सूरत नज़र नहीं आती. फ़ैज़ के बाद के पाकिस्तान के बुद्धिजीवी और लेखक आज हद से हद हिन्दुस्तान-जैसी 'डेमोक्रेसी' और हिन्दुस्तान जैसी 'आज़ादी' चाहते हैं -- फ़ैज़ के वंशजों के सपने अब बहुत छोटे सपने हैं. फ़ैज़ की धरोहर अब बस भारत-पाक सुलह, सिविलियन सरकार और नारी-अधिकार के अभियान में काम आती है. पाकिस्तान में समानतावादी समाज की परियोजना का कोई ज़िक्र नहीं जिससे फ़ैज़ की कविता इतनी प्रेरित थी, जिसकी वजह से फ़ैज़ ने कोई सात-आठ साल जेल में और कई साल आत्म-निर्वासन में गुज़ारे.
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फ़ैज़ के यहाँ इस्लाम के आरंभिक इतिहास और कुरानी आयतों की अनुगूँजें मिलती हैं. वह इन 'इस्लामी' सन्दर्भों का हमेशा बा-मक़सद, सेकुलर और पारदर्शी इस्तेमाल करते हैं. उनकी आवाज़ थियोलोजी में रंगी, धार्मिकता में भीगी हुई कम्पित आवाज़ नहीं है. वह किसी मज़हबी चाशनी में डूबे हुए कवि नहीं हैं. वह हिन्दी के उन प्रोग्रेसिवों की तरह हैं जिनकी दो या तीन पीढ़ियाँ ऐसी तुलसी-मय रहती आई हैं कि कोई और रंग उन पर चढ़ता ही नहीं, वे उर्दू के उन जदीदियों (आधुनिकतावादियों) की तरह हैं जो जवानी में अराजकतावाद की हदों से गुज़रकर अब तसबीह हाथ में लिए रहते हैं. उनकी मशहूर नज़्म 'हम देखेंगे' लगभग पूरी की पूरी कुरान, तसव्वुफ़, और इस्लाम के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों पर टिकी हुई है, लेकिन उसका किसी भी तरह का धार्मिक दुरुपयोग नहीं किया जा सकता.पहले वह जनरल ज़ियाउल हक़ के फ़ौजी शासन के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में अवामी बग़ावत का मुख्य प्रतीक बनती है, फिर इक़बाल बानो की आवाज़ में एक इन्किलाबी तराने का रूप ले लेती है -- एक ऐसे वक़्त में जब सभी धार्मिक रूढ़िवादी तत्व ज़िया शासन का खुला समर्थन करते थे.
कुरान में ईश्वरीय प्रकोप की चेतावनी और दैवी गर्जना यहाँ सामाजिक क्रांति का महान यूटोपियन आह्वान बन जाती है -- 'वो दिन कि जिसका वादा है / जो लौहे-अज़ल पे लिक्खा है'. 'फ़ैसले का दिन' इन्किलाबी सत्तापलट का दिन हो जाता है, जब ज़ुल्मो-सितम के भारी पहाड़ 'रूई की तरह' उड़ जाएंगे, जब'तख्तो-ताज' उछाले जाएंगे, जब शासितों के 'पाँव-तले यह धरती धड़-धड़' धड़केगी, जब 'अनल हक़' का नारा बलंद होगा, जब 'खल्क़े-खुदा' राज करेगी, 'जो तुम भी हो और मैं भी हूँ'. मैं अक्सर सोचता हूँ कि कौन सा इस्लामी प्रतिष्ठान इस नज़्म को अपने साहित्य में दाखिल करेगा, कौन वाइज़ इसे अपने वाज़ का हिस्सा बनाएगा! क्या यह कभी जुमे के रोज़ किसी मस्जिद के मिम्बर से पढ़ी जाएगी? अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है, और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कभी होगा.
इस पर कभी गौर नहीं किया गया कि फ़ैज़ तसव्वुफ़ (सूफ़ी दर्शन) को इस्लामी परम्परा के नैरन्तर्य में देखते हैं, उसके विरोध या प्रतिरोध में नहीं. जो बात इस्लाम के सन्दर्भ से नहीं कही जा सकती वह तसव्वुफ़ के सन्दर्भ से बहुत सफलता से कही जा सकती है ऐसा फ़ैज़ नहीं समझते. उनके लिए सूफ़ी मत इस्लाम का विकल्प नहीं है. अव्वल तो फ़ैज़ के यहाँ तसव्वुफ़ भी कोई विकल्प नहीं है. वह उनके लिए विचारधारा या जीवन दर्शन का रूप नहीं ले सकता. तसव्वुफ़ उनके लिए एक उपलब्ध मुहावरा और ज़बान है, जैसे वह ग़ालिब के लिए भी था. फ़ैज़ उतने ही 'आध्यात्मिक' हैं जितने महमूद दर्वीश या एडवर्ड सईद.