
आरएसएस और शिव सेना `आमने-सामने` हैं। शिवसेना और संघ दोनों आदमखोर हैं, दोनों सदियों पुराने दोस्त हैं और एक-दूसरे के दांव-पेंच या कहें कि नूरा कुश्ती लड़ना बखूबी जानते हैं। देखा जाए तो शिवसेना जिस महाराष्ट्र की उपज है, आरएसएस भी वहीं की पैदाइश है। आरएसएस का राष्ट्रविरोधी `राष्ट्रवाद` शिवसेना का भी हथियार है लेकिन आरएसएस इसका राष्ट्रव्यापी कामयाब इस्तेमाल कर चुकी है। शिवसेना इसका इस्तेमाल मुस्लिमों के प्रति घृणा फैलाने के लिए जमकर करती है। शाहरुख़ खान पर हमला इसका ताजा उदाहरण है। पर शिवसेना जानती है कि इस क्षेत्र में संघ का फैलाव व्यापक है और महाराष्ट्र में भीड़ को कब्जाए रखने के लिए महाराष्ट्र में रह रहे गैर मराठी भारतीयों पर हमला ही सबसे कारगर हथियार है (और यहाँ भी चाचा-भतीजा कम्पीटीशन है)।
यह आरएसएस भी जानता ही है कि बीजेपी के लिए अपने परंपरागत इलाके को लुभाने के लिए उत्तर भारतीयों (संघ का भारतीयता का जो भी परमिट हो) की शिवसेना से रक्षा का शिगूफ़ा जरूरी है। एक तो यह उत्तरभारत के अलावा दूसरे गैर मराठियों को भी रिझा सकता है और उससे भी पहले यह कि इससे शिवसेना से बीजेपी के गठबंधन पर उत्तर भारतीयों के गुस्से को कंट्रोल किया जा सकता है। बीजेपी चाहे तो इस मसले पर चुप रह सकती है क्योंकि आरएसएस ऐसे ही मौकों के लिए तो है। अब महाराष्ट्र में जहाँ शिवसेना से पिटा गैर मराठी मजबूरी में कांग्रेस या एनसीपी (जो इस मसले पर आखिरकार शिवसेना की ही चाल चलती हैं) के साथ जाता है, वो बीजेपी की झोली भर सकता है। आखिर यह नूरा कुश्ती दोनों आदमखोरों की लहू की प्यास का ही इंतजाम करेगी।
आरएसएस गुजरात और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को उनके उत्तर भारतीय विरोधियों के प्रति उगले जाने वाले जहर को लेकर दण्डित क्यों नहीं करता, ऐसे सवाल का जवाब सब जानते ही हैं। और कांग्रेस की बात - तो वह आरएसएस की नीतियों का ही अनुसरण करती रहती है।
पुनश्च : मुम्बई में उत्तर भारतीय लोगों (खासकर मध्य वर्ग व उच्च वर्ग के नागरिकों) पर हमले के दौरान यूपी और बिहार के शहरियों के सेंटिमेंट देखने लायक होते हैं। अपने गहरे नस्लवाद और जातिवाद को पोसते हुए वे ठाकरे को खूब गलियां निकालते हैं (अपने ब्लॉग में, अखबारों में और आपस में बातचीत में)। लेकिन ये लोग आईपीएल के बेशर्म रवैये पर ठाकरे से भी आगे निकल जाना चाहते हैं।