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Sunday, August 2, 2020

अपने विद्वेषी पूर्वजों के मोह में धूर्तता कर रहे हैं अपूर्वानंद?

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अपूर्वानंद से बात कर रहे युवकों ने एक सीधे सवाल के जवाब में `कलाकार के अपने भीतर रहने` जैसी तमाम बातें झेलने के बाद फिर से अपने सवाल पर लौटने की कोशिश की। दब्बूपन से ही सही पर अपना सवाल और साफ़ करने की कोशिश करते हुए मेजबान युवा ने पूछा, ``…हम लोग एक्चुअली सवाल के जरिये जानना चाहते थे कि जहाँ कुछ लोग इस पर सवाल उठाते हैं कि वो एक फेक राष्ट्रवाद था, उन्होंने क्यों लिखा, लोग ये देखना भूल जाते हैं कि उस वक़्त और भी लेखक थे जो बिल्कुल जैसा आपने कहा, खुद में जीकर, आर्ट में छुपकर जो उस समय की सरकार थी, उस समय अंग्रेज थे, उनको बढ़ावा देने वाली, उस समय की जो पार्टी इन्वॉल्व थी, उनको बढ़ावा देने वाला लिटरेचर लिख रहे थे…``
सवाल में और भी तमाम बातें थीं पर शायद अपूर्वानंद के सीने में लगने वाली बात यही थी। वे बोले, देखिए पहले तो हम इसको समझ लें कि ऐसा शायद ही कोई लेखक था जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए काम कर रहा हो। ब्रिटिश हुक़ूमत के बारे में हम अभी जैसा सोचते हैं, उस वक़्त के सारे लोग उसी तरह नहीं सोचते थे। यह कहकर अपूर्वानंद का हृदय अपने `पूर्वजों` से एकमेक होने लगा और वे मुग़ल सल्तनत में जा पहुंचे। अपूर्वानंद बोले, जैसे मुग़लिया-मुग़ल सल्तनत थी  या कोई और राज्य, वो तो आख़िर राज की ही चीज़ थी। बादशाह की चीज़ थी। उसमें जनता की तो भागीदारी नहीं थी। फिर उन्होंने तुलसी द्वारा मंथरा के मुँह से बुलवाई गई उस मशहूर पंक्ति का सहारा लिया कि कोई भी नृप हो, हम को क्या फ़र्क़ पड़ता है। अपूर्वानंद बोले कि मैं तो तय नहीं कर सकता कि राज्य कैसा हो। तो मुग़ल बादशाहों की जगह अगर अंग्रेज आ गए तो उसे हमारे गाँव की ज़िंदगी, बाकी ज़िंदगियों पर बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा।
यह एक ऐसा आदमी बोल रहा था जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग का प्रोफेसर है और जिसने हिन्दी के बाहर अपनी अच्छी-ख़ासी नेटवर्किंग करके अपनी पहचान एक बड़े सुलझे हुए विद्वान की बना रखी है। आख़िर उसे यह बताने में क्या दिक्कत थी कि प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन में घुसे हुए थे। मुग़ल शासन और अंग्रेजी राज के बीच 1857 की क्रांति भी हुई थी। जनता में गहरा उबाल था और उसे राजनीतिक नेतृत्व भी मिल रहा था। आंदोलन की भी कई धाराएं थीं और अंग्रेजों के पिट्ठुओं की भी जमात थी। हिन्दी लेखक भी थे जो अपूर्वानंद जैसी ही बातें करते थे और मुगल सल्तनत जैसे धूर्त तर्कों के जरिये अंग्रेजों के राज को फायदा पहुँचाने वाली साम्प्रदायिक और विद्वेषी चालें चला करते थे। प्रेमचंद ऐसे अभियानों से भी गुत्थमगुत्था थे। अपूर्वानंद ने धूर्तता और निर्लज्जता का अपूर्व परिचय देते हुए पहले मुगल काल में छलांग लगाई और फिर राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही चल रहे समाज सुधार आंदोलनों को सवाल के बरक्स खड़ा करने लगे। राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्या सागर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि बाल विवाह समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू करने या विधवा विवाह शुरू करने की प्रक्रिया अंग्रेजी राज के बाद लोगों ने उनकी सहायता से ही शुरू की। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के साथ थे या नहीं थे, इस तरह देखने से महात्मा फुले, रमाबाई, आंबेडकर आदि के साथ अन्याय होगा। सवाल को उसकी जगह से हटाकर कहीं और ले जाने के पीछे अपूर्वानंद का मकसद क्या था? हिन्दी में प्रेमचंद अपने लेखन के जरिये राष्ट्रीय आंदोलन में मुब्तिला थे और उनके समकालीन क्या कर रहे थे या नहीं कर रहे थे, इस पर बात करने के बजाय सवाल को ही संदिग्ध बनाकर जो ओट लेने की कोशिश अपूर्वानंद ने की, वह इतनी धूर्तता भरी थी कि समझ तो बातचीत कर रहे युवा भी गए होंगे पर अपने ही सीनियर्स के द्वारा गोबर को देवता बना कर खड़ा कर देने की वजह से बोल नहीं पा रहे थे।
क्या मेजबान युवाओं का सवाल और अपूर्वानंद के जवाब में कोई तअल्लुक़ बनता है? अगर प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा थे तो क्या वे समाज सुधार आंदोलनों या बराबरी के दूसरे संघर्षों के ख़िलाफ़ खड़े थे या अगर उनके कोई समकालीन विभाजनकारी राह पर चलकर राजसत्ता को फायदा पहुँचा रहे थे तो क्या इसलिए कि राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, आंबेडकर, फुले, रमाबाई आदि शख़्सियतें विभिन्न मसलों पर सक्रिय थीं? प्रेमचंद के यहाँ तो उनकी समझ और सीमाओं के साथ सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, स्त्रियों की स्थिति आदि सवाल केंद्रीयता पा रहे थे। राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का मतलब भी इन सभी बातों से मिलकर बनता है। अपूर्वानंद को बताना चाहिए था कि हिन्दी में वे कौन लोग थे जो साम्प्रदायिकता, छुआछूत, स्त्री शोषण आदि मसलों पर प्रेमचंद्र के ही विरोध में खड़े थे। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके वे कौन पूर्वज थे जो बाल विवाह और विधवा विवाह का उग्र विरोध कर रहे थे। हिन्दी की गौरवाशाली परंपरा के ज़िक्र से उन्हें सांप क्यों सूंघ गया और विभाजनकारी `पुरोधाओं` के बचाव में वे शातिराना कुतर्कों पर क्यों उतर आए? और अपूर्वानंद फिर से उसी ज्ञान पर लौट आए कि प्रेमचंद की दिलचस्पी ज़िंदगी में थी। लोग कैसे जी रहे हैं, वे बहुत रुचि के साथ देख रहे थे और उनका चित्रण करने की कोशिश कर रहे थे। उस जीवन के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास कर रहे थे।

अपूर्वानंद ने प्रेमचंद की कहानी `मंदिर और मस्जिद` पर चर्चा करते हुए अज्ञेय वगैराह के हवाले दिए और कहा कि प्रेमचंद को इंसानियत की अच्छाइयों में यक़ीन है। कोई अपने धर्मस्थल की नहीं बल्कि दूसरे के धर्मस्थल की भी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त न करे, खून खौल उठे। अगर ऐसा हो सकता है तो आप पूरे इंसान हैं और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो आप की इंसानियत में कुछ कमी है। यह है ज़िंदगी का वो पैमाना है जो प्रेमचंद पेश करते हैं।  लेखिका सुसेन का हवाला देकर उन्होंने कहा कि इतना ऊंचा पैमाना जिस पर खरा उतरना मुमकिन न हो, उससे लोग चिढ़ जाते हैं और कहते हैं कि ऐसा करने वाला या तो मूर्ख है या इलीट। इस से वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों लोग चिढ़ जाते हैं। आखिर, अपूर्वानंद अपने इन दिनों के अपने मुख्य एजेंडे पर आए और बोले कि (बहुत लोग मानते हैं) जो मेरे मुताबिक नहीं होता तो उसे मारना ही पड़ेगा न! मेजबान युवा ने मूर्खता से हामी में सिर हिलाते हुए कहा, और कोई रास्ता ही नहीं है। अपूर्वानंद ने कहा कि सत्ताएं निरंकुश हो जाती हैं, वो लेनिन की हों, स्टालिन की हों, माओजेजोंग की हों या हिटलर की हों। वे विश्वास करतीं हैं कि मैं जिस तरह देख रहा हूँ, आपको जिस ढांचे में डाल रहा हूँ, आप बस वही हैं। चूंकि मैं अच्छा हूँ और आप अच्छे नहीं हैं तो आपको खत्म होना चाहिए। प्रेमचंद कहते हैं कि मनुष्य वह है जिसको अहसास है कि वह अधूरा है…।
तो इस धूर्तता भरे प्रवचन के आयोजन के लिए और ऐसे धूर्तों के लिए सीढ़ी बनते रहने वाले वाम बुद्धिजीवियों को बधाई देनी चाहिए?
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अपू्र्वानंद की नई उपलब्धि : वाम के मंच से वाम पर हमला

भारत में वाम और उसकी सांस्कृतिक इकाइयां क्या बौद्धिक रूप से इतनी दरिद्र हो चुकी हैं कि वे लेनिन के विरुद्ध घृणा भरे अभियान चलाकर राजसत्ता की चापलूसी पर उतारु शख़्स को ही अपना मेंटर बना लें? इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) के लाइव में अपूर्वानंद को देखकर मैं चौंक पड़ा। तीन महीने पहले जो शख़्स `अक्तूबर क्रांति` और उसके नायक लेनिन को लेकर विष-वमन कर रहा था, भारतीय वाम उसके लिए लाल कालीन बिछा रहा हो तो मेरा चौंकना ग़ैर-वाजिब नहीं कहा जा सकता। अपूर्वानंद के लिए तो यह एक मज़ेदार उपलब्धि की तरह रही होगी कि वह वाम के मंच से ही वाम विरोधी दुष्प्रचार कर आया हो।
31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती के मौके पर बिहार इप्टा के ऑनलाइन आयोजन ('एक सौ चालीस वर्ष के प्रेमचंद' संवाद और कहानी पाठ) के संवाद सत्र में अपूर्वानंद को आमंत्रित किया गया था। इप्टा की केंद्रीय इकाई के पेज पर इस लाइव को शेयर किया जा रहा था। आज़ादी के आंदोलन के दौरान इंडियन प्रग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के गठन के सिलसिले में ही इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) की स्थापना हुई थी। प्रेमचंद पीडब्ल्यूए की स्थापना में शामिल थे। कहना न होगा कि लेनिन और उसके साथियों ने दुनियाभर में राजनीतिक और सांस्कृतिक हलकों में जो प्रगतिशील तड़प पैदा की थी, पीडब्ल्यूए और इप्टा उसी की देन थे। इप्टा की धूम, धमक और इसका शानदार प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उसने आज़ादी की लड़ाई से लेकर राजनीतिक व सामाजिक बराबरी की तमाम लड़ाइयों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उसका असर सिनेमा जैसे मनोरंजन के पॉपुलर और ताक़तवर माध्यमों को भी किसी हद तक सेकुलर और ग़रीबों का हिमायती बनाए रहा। उसकी रौशनी अभी तक चली आती है। कहते है कि इप्टा के पराभव की वजह भी भारतीय वाम नेतृत्व के विवादास्पद फ़ैसले ही थे। अफ़सोस कि ऐसे जगमग आंदोलन के मंच पर एक ऐसा शख़्स प्रवचन दे रहा था जिसका मुख्य एजेंडा ही इस आंदोलन को रौशन बनाने वाले विचार पर हमला करना हो। हाल ही में 23 अप्रैल को अपूर्वानंद ने `इंडियन एक्सप्रैस` में लेख लिखकर अक्तूबर क्रांति और लेनिन को लेकर जमकर ज़हर उगला था। देने वालों ने जवाब दिए पर हैरानी यह थी कि लेनिन को आदर्श मानकर चलने वाली भारत की तीनों बड़ी वाम पार्टियों के सांस्कृतिक संगठनों ने चुप्पी साथ ली थी और उनके नेतृत्व ने `ससुर-दामाद` के प्रति जातिगत निष्ठा का निर्वाह किया था।
अपूर्वानंद के लिए रेड कार्पेट बिछाने वाले कह सकते हैं कि उन्होंने अपूर्वानंद को वाम या लेनिन पर बोलेन के लिए नहीं बुलाया था बल्कि बतौर `प्रेमचंद विशेषज्ञ` आमंत्रित किया था। लेकिन, अपूर्वानंद ने ऐसी गुंजाइश छोड़ी ही नहीं। प्रेमचंद पर बोलते-बोलते वे लेनिन, माओ और हिटलर के साथ खड़ा कर हिंसा-अहिंसा पर नसीहत देने आ गए। एक तरह से उन्होंने फिर ऐलान किया कि अब उनका एजेंडा यही है। दिलचस्प यह है कि इस लाइव को सुनने के बाद ही यह ज्ञान हुआ कि अपूर्वानंद इस बीच प्रेमचंद विशेषज्ञ भी बन चुके है। अपूर्वानंद से बातचीत कर रहे दो युवा बार-बार प्रेमचंद पर उनकी किसी प्रेमचंद श्रृंखला का पारायण कर चुकने का ज़िक्र कर रहे थे। इन दोनों युवाओं के हृदय में अपूर्वानंद के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उसकी धूर्तता भरी बातों का प्रतिवाद करना तो दूर, वे `जी सर`, `जी सर` करते जाते थे।
प्रेमचंद पर अपूर्वानंद का ज्ञान-दान पूरी तरह धूर्तता भरा रहा। फेसबुक पर ऐसे कई योद्धाओं को हम देखते हैं जो आरएसएस व भाजपा के प्रवक्ताओं की तरह सवाल को छोड़कर अपना मनचाहा ज्ञान पेलने लगते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने कहा कि वे 140 साल के नहीं, 110 साल के प्रेमचंद पर बात करेंगे क्योंकि प्रेमचंद के रूप में साहित्यिक अवतार 1910 में हुआ। अपूर्वानंद की पूरी बातचीत इसी शैली पर टिकी हुई थी। वे बातचीत में शामिल युवाओं की श्रद्धा और मूर्खता का लाभ उठाकर सवालों का जवाब देने के बजाय प्रेमचंद को एक ऐसा राजनीतिक चेतना विहीन लेखक साबित करने में जुटे रहे जिस पर न उस समय के राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों का असर था और न वह अपने लेखन से सचेत रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कोई भूमिका निभा रहा था। कोई मूर्ख या धूर्त ही कहेगा कि प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उपज नहीं थे या भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर वे असर नहीं डाल रहे थे। असल में अपूर्वानंद का कष्ट है - नवजागरण में प्रेमचंद की भूमिका। वह भूमिका जो अपने समकालीन और अपने पूर्व के हिन्दी लेखकों में व हिन्दी समाज और राजनीति में सक्रिय साम्प्रदायिक, जातिवादी और राजभक्त शक्तियों से टकराती थी। वह भूमिका जो हिन्दी की दुनिया में पहली बार एक बड़ा निर्णायक प्रतिरोध पैदा करती है। अपूर्वानंद को इस भूमिका पर परदा डालना था और हिन्दी के खलनायकों को नाम लिए बिना सर्टिफिकेट देना था कि प्रेमचंद हों या कोई भी लेखक सभी `एक जैसे होते हैं`। अपूर्वानंद के मुताबिक, प्रेमचंद की दिलचस्पी कहानी-क़िस्से लिखने-पढ़ने में थी और यही वे करते थे।
`सोज़े वतन` का ज़िक्र आ चुका था। सवाल करने वाले ने अपूर्वानंद से पूछा कि नवाब राय-महताब राय वाले फेज़ में प्रेमचंद की कहानियां देशभक्ति से ओतप्रोत थीं जिस पर अंग्रेजी सरकार ने सख़्ती बरती तो क्या वे प्रेमचंद के रूप में देशभक्ति पर लौटे या उसको छोड़ कर चले। क्योंकि आजकल हम देखते है कि ये जो फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद चल रहा है, तो क्या प्रेमचंद का वो राष्ट्रवाद वहीं पे विराम लग गया था या उसको उन्होंने अपनी रचना में कहीं न कहीं दिखाने की कोशिश की है? अपूर्वानंद ने जवाब में लंबा ज्ञान दिया पर मूल सवाल से पूरी तरह कन्नी काट गए कि प्रेमचंद देशभक्ति की तरफ़ लोटे थे या नहीं और कि उनकी रचनाओं में यह आई थी या नहीं। वजह वही कि वे जिस एजेंडे को लेकर इस बातचीत में आए थे, उस पर ही बोलना मात्र उनका ध्येय था। वे कलाकार के अपने भीतर रहने, कला प्रचार का माध्यम न होने जैसे पुराने घिसे-पिटे जुमले बोलते गए। अपूर्वानंद ने कहा - ``जिस तरह हम सोचते हैं, लेखक-कलाकार उस तरह अपना काम नहीं करता है। प्रेमचंद की पहली दिलचस्पी थी कहानी से और वो कहानी पढ़ना चाहते थे और कहानी लिखना चाहते थे। आप कह रहे हैं, देशभक्त, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, जनता। ये सारी चीज़ें थीं पर पहली बात थी ज़बान में दिलचस्पी औप कहानी कहने में दिलचस्पी। ये बात अटपटी लग सकती है लेकिन अंग्रेजी हक़ूमत में रहते हुए, मैं हो सकता है, सिर्फ़ अपने भीतर रहा हूँ। अपने भीतर रहने का मतलब है, अपनी कला के भीतर रहा हूँ। क्योंकि प्रेमचंद की रुचि थी कहानियों में, कथा में। और उन्होंने अपने पहले का कथा-साहित्य काफ़ी घोटा था। उनकी परवरिश उसी में हुई थी। क़िस्से उन्हें अपनी ओर खींचते थे। प्रेमचंद का काम कहानी-क़िस्से लिखना था। प्रेमचंद का काम यह नहीं था कि देशभक्ति का प्रसार करने के लिए क़िस्सा लिखा जाए या राष्ट्रवाद का प्रचार करने के लिए कहानी लिखी जाए। कहानी कोई माध्यम नहीं है कि कहानी लिखी जाए। इसको यूं समझना चाहिए कि कहानी हो, कविता हो या उपन्यास हो, वह किसी प्रचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होता है।``
अपूर्वानंद शायद प्रचार की जगह विचार बोलना चाह रहे थे कि कहानी या कोई कला तो कला होती है, किसी विचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होती है। लेकिन, कोई कहेगा कि यह उनके मुँह में अपनी बात घुसेड़ने की कोशिश हुई तो यह छोड़कर उस सवाल के जवाब में चल रहे उनके भाषण के अगले वाक्य सुनते हैं जिनके लिए उन्होंने इतनी लंबी मशक्कत की थी।
``कविता या नाटक या कहानी या उपन्यास या कोई भी कला-माध्यम या कोई भी कला, उसका विचार उसका अपना विचार होता है। वो गांधी का विचार नहीं है, वो कोई दादा भाई नौरोज़ी का विचार नहीं है, सरोजनी नायडू का नहीं है। उसका ख़ुद का प्रेमचंद का अपना विचार प्रेमचंद का विचार है। वह कोई गांधीवाद, मार्क्सवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं।``
अपूर्वानंद को सीधे यह कहने में शायद शर्म आ रही थी कि प्रेमचंद का लेखन सचेत राजनीतिक लेखन भी है। अपनी कहानियों में भी वे कोई ग़ाफिल कहानीकार भी नहीं हैं। उनका लेखन एक निरंतर यात्रा है। गांधीवाद का उन पर गहरा प्रभाव रहा और दुनियाभर के रचनाकारों को उद्वेलित कर रहे मार्क्सवाद से भी वे अछूते नहीं हैं। हालांकि, ये तमाम बहसें हो चुकी हैं और उनके पत्रों व बाद के उनके भाषणों से यह सब पटाक्षेप भी हो चुका है पर इससे डरे अपूर्वानंद ने गांधीवाद के प्रभाव को भी नकारने का नाटक करते हुए दादा भाई नौरोज़ी और सरोजनी नायडू का भी नाहक ही घसीट लिया। ऐसे लंपट बुद्धिजीवियों का यही तरीक़ा है। जाहिर है कि हर लेखक का विचार उसका अपना ही विचार होता है और वह किसी विचार को अपने ही ढंग से ग्रहण करता है। जैसे वाम विचार को अपने ससुर नंद किशोर नवल की तरह अपूर्वानंद ने करियर और बौद्धिक दुनिया में जुगाड़बाजी के लिए इस्तेमाल कर लिया और प्रेमचंद ने अपनी पक्षधरता और प्रखरता के तौर पर हासिल किया था।
अपूर्वानंद ने समझाया कि प्रेमचंद ज़िंदगी जीने का एक पैमाना आपके सामने रख रहे हैं या ज़िंदगी का मेयार पेश कर रहे हैं। कहानीकार की प्राथमिक दिलचस्पी ज़िंदगी में होती है, लोगों में होती और वो उनके बारे में बात करना चाहता है। अपूर्वानंद की इस बात से क्या इंकार हो सकता है कि प्रेमचंद की दिलचस्पी लोगों में थी और उनके यहाँ वीरता, त्याग, उत्सर्ग, दोस्ती, दयानतदारी, सहानुभिति वगैराह भावनवाओं और संवेदनाओं का बड़ा महत्व था। लेकिन, प्रेमचंद निरा राजनीतिक कहानीकार थे यह साबित करने की कोशिश करना या इस सीधे सवाल कि क्या `सोज़े-वतन` जला दिए जाने के बाद देशभक्ति उनकी रचनाओं में लौटी, पर ऐसा प्रवचन जो उनकी वैचारिक यात्रा को छुपाने की कोशिश करता हो, असल में अपूर्वानंद की वैचारिक धूर्तता का प्रमाण है।
(जारी)

Monday, July 31, 2017

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन


भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।

जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, शायद उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। `समाज संशोधन` के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, वहां यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले `Age of Consent Bill` के आने पर महाराष्ट्र में `ऊंची जातियों` की ओर से तीखी प्रतिक्रिया की गई। यही नहीं लमाज सुधार की संस्था सोशल कॉन्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया। संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवादस और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी कुछ उदीयमान द्विज जातियों और मध्य जातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम` विरोध या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें `आन्दोलन` की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने `गौ रक्षा `और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और `जागरण` सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से मुंशी प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिए उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।

भाषा के मसले पर फिरक़ापरस्ती से लगातार लड़ने और हथियार न डालने का एक खास सामाजिक अर्थ था। अगर जातीय गठन के प्रश्न को प्रेमचन्द ज्यादा बुनियादी ढंग से पेश कर पाते हैं और अपनी रचनाओं में हिन्दुस्तानियत की ज्यादा मजबूत और ज़रख़ेज़ बुनियाद पर खड़े दिखाई देते हैं तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने यथार्थ को विभाजन की बाधा के अंदर से नहीं देखा। `हिन्दू`, `मुसलमान` की अपवर्जी और बंद श्रेणियों या मिथक कल्पनाओं की मदद लिए बिना उन्होंने अपने समय के ठोस यथार्थ को, उसके ठोसपन में समझने और अपना रुख तय करने की कोशिश की। धर्म-संस्कृति की राजनीति के पाखंड को वे अच्छी तरह जानते थे, और उसकी छद्म गरिमा का कोई दबाव उन पर नहीं था। साम्प्रदायिकता किस तरह `संस्कृति` और `राष्ट्रवाद` की खाल ओढ़ कर सामने आती है और किस तरह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन को विफल करना चाहती है, यह वे खूब समझते थे।

साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के लिए इस अचूक और निर्भ्रांत नज़र के चलते ही प्रेमचन्द के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी अन्तर्वस्तु इतनी सघन है। क्योंकि नवजागरण काल में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की राजनीति के उभार का एक अहम लक्ष्य ठीक इसी अन्तर्वस्तु को कमज़ोर करने का रहा है। इस तथ्य का भी इस चीज़ से ज़रूर एक रिश्ता है कि हिन्दी नवजागरण में प्रेमचनंद यथार्थवाद के सबसे बड़े आविष्कारक और प्रतिष्ठापक हैं। हिन्दुस्तान के देहात के अनेक ग़रीब चेहरे अपनी अनगिनत कहानियों के साथ पहली बार हिन्दी में प्रेमचन्द के ज़रिए ही दाख़िल हुए।

19वीं-20वीं सदी के हिन्दी नवजागरण में (निराला जैसे कुछ अपवादों को छोड़ कर) दलित प्रश्नों की शायद ही कोई जगह बन पाई। यह प्रेमचन्द की उदार जनतंत्रात्मकता का ही एक पहलू था कि वे जाति व्यवस्था की अतार्किता और बर्बरता को और इस में निहित झूठ, मक्कारी, फरेब और हरामखोरी को इतने निर्णायक और विस्तृत ढंग से सामने लाये। इसकी अमनुष्यता के खिलाफ लड़ना उन्हें हमेशा जरूरी लगा। उन्होंने साम्प्रदायिकता और जातिवाद के रिश्ते को ठीक-ठीक समझ लिया था। वे जानते थे कि धार्मिक पहचान को आक्रामकता देकर दलितों और स्त्रियों की अभिव्यक्तियों और प्रश्नों को आसानी से कुचला जा सकता है।

हालांकि, भारतेन्दुयुग में ही कई लेखकों ने जातपात की व्यवस्था में आ गई संकीर्णता और परजीविता की आलोचना की थी। लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य `जाति सुधार` का था। `जाति सुधार` का परिप्रेक्ष्य अन्तत: जाति के सुदृढ़ीकरण का ही परिप्रेक्ष्य था। इसमें जातिव्यवस्था के उत्पीड़क और विभेदकारी वर्चस्ववादी चरित्र को नहीं समझा गया।

प्रेमचन्द ने संस्कृति के प्रश्नों को अर्थनीति के प्रश्नों से कभी अलग नहीं किया। न ही उन्होंने आर्थिक या वर्गीय प्रश्नों को सामाजिक-वैचारिक प्रश्नों से अलग किया। यानी प्रेमचन्द न संस्कृतिवाद का सहारा लेते हैं और न अमूर्त अर्थवाद का।

हिन्दी नवजागरण में और उससे भी कहीं ज्यादा उसकी विरुद कथा में लोकवाद की मिथकीय उपस्थिति की एक बड़ी भूमिका रही है। प्रेमचन्द साधारण जनता और खास तौर पर किसानों के लेखक कहे जाते हैं। गांधी का उन पर गहरा असर था। आधुनिक पूंजीवाद को वे गहरे संशय से देखते थे। लेकिन वे किसानों के लोकवाद से संचालित नहीं थे बल्कि शहरी-देहाती गरीबों के जनवादी हितों की नज़र से ही यथार्थ को देखते थे। उन्होंने किसान का या गांव का कोई रहस्यमय मिथक नहीं बनाया जिसकी आड़ लेकर निरंकुश सामाजिक संरचनाओं की पर्दापोशी की जाती है। देहात के ऐसे लोकवादी मिथक को तोड़ कर उन्होंने इसके पीछे चल रहे शोषण और दमन के वर्चस्ववादी सामाजिक-आर्थिक-विचारधारात्मक तंत्र की निष्ठुरता और निरंकुशता को बेपर्दा किया।

हिन्दी नवजागरण का समतलीकरण करते हुए अक्सर यह भुला दिया जाता है कि रामचंद्र शुक्ल के `लोकमंगल` और प्रेमचंद की नज़र में बुनियादी अंतर है। प्रेमचंद का लोक शुक्ल जी के लोक की तरह `उदार निरंकुशतंत्र` का कोई आदर्श नमूना या कोई ख़याल या रूपक भर नहीं है जिसमें वर्चस्व की प्रणाली को चुनौती देना धर्मद्रोह समझा जाय। वह तो ठोस सामाजिक शक्तियों के हितों के पारस्परिक संघर्ष से आंदोलित (और उसी से परिभाषित) एक उपद्रवग्रस्त रणक्षेत्र है जिसमें आर्थिक सामाजिक न्याय के ज्वलंत प्रश्नों की केन्द्रीयता हमेशा बनी रहती है। प्रेमचन्द की सतत चिन्ता वंचित तबकों के हक़ में सामाजिक रूपांतरण की है, जब कि शुक्ल जी का `लोकधर्म` एक ऐसी `ऑथोरिटी` की खोज है, जो `लोकरक्षा` कर सके यानी बाहर और अन्दर से बार-बार चुनौती पाने वाली सामाजिक अनुशासन की `आदर्श` व्यवस्था को मजबूती से लागू कर सके और `छोटे-बड़े` की मर्यादाओं (`शिष्टाचार` और `शील`) की प्रतिष्ठा कर सके। जबकि प्रेमचन्द अपनी दुनिया में बराबरी के मूल्य को केन्द्रीयता देना चाहते हैं।

उसी बनारस से प्रेमचन्द का भी ताल्लुक था जिससे कभी भारतेन्दु का या प्रेमचन्द के समकालीन रामचन्द्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद का। लेकिन यह देखना मुश्किल नहीं है कि प्रेमचन्द के बनारस और जयशंकर प्रसाद की `काशी` में कुछ न कुछ अन्तर ज़रूर है। प्रेमचन्द का बनारस `संस्कृति का कलश` नहीं है। प्राच्यवादियों की मिथक कल्पना के जादू के बाहर यह गरीब हिन्दू-मुसलमान छोटे काश्तकारों, कारीगरों, जुलाहों और दूसरे किरदारों से भरा पड़ा है।

नवजागरण की प्रक्रिया सारत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया थी। और यह उर्दू-हिन्दी के समग्र आधुनिक लेखन में किसी न किसी रूप में घटित हुई। इसे प्रेमचंद में ही नहीं दूसरे नवजागरणकालीन लेखकों में भी किसी न किसी तरह लक्षित किया जा सकता है। लेकिन प्रेमचंद हिन्दी नवजागरण की आत्मबाधा के फन्दे में नहीं फंसे। वे शायद ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वे अलग जगह खड़े थे। वे अन्दर से विभक्त कर दी गई वृहत्तर हिन्दी जाति के प्रतिनिधि रचनाकार थे और इसी जगह से जातीय गठन के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, ज्यादा बुनियादी ढंग से। उन्होंने वास्तविकता को हिन्दी जाति के वर्चस्वशील सामाजिक अभिजनों की गतिशीलता के लक्ष्यों की नज़र से नहीं, इस जाति के बाहर पड़े वंचित तबकों और गरीबों के हितों की नज़र से देखा और इस जगह को कभी छोड़ा नहीं।

हिन्दी नवजागरण (या हिन्दी-उर्दू नवजागरण में) प्रेमचंद का विकासक्रम संभवत: सबसे अधिक सुसंगत और सतत है। उसमें लगातार एक निख़ार है। 1907 के प्रेमचंद, 1917-18 या 1922-24 के प्रेमचंद और 1934-36 के प्रेमचंद एक नहीं हैं। भावुक देश प्रेम, आर्य समाज की सुधार भावना, गांधीवादी करुणा की तमाम गलियों से गुजरते हुए भी वे लगातार एक समतामूलक न्यायसंगत समाज की रचना के स्वप्न में संचालित थे। और अंत में एक कठिन जगह पहुंच चुके थे जहां बिना किसी झूठी मदद, आसानी या सदाशयता के यथार्थ का बीहड़ और उलझा हुआ भू-दृश्य पूरा दिखाई देता है। अगर ऐसा न होता तो `कफ़न` या `पूस की रात` जैसी कहानियां न लिखी जातीं।

ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद आखिरी मंज़िल पर पहुंच चुके थे। बल्कि 1936 में जिस नए मोड़ पर वे खड़े थे वह एक नई शुरुआत जैसा लगता है। लैंगिक प्रश्नों पर उनके परिप्रेक्ष्य में पितृसत्तात्मक चेतना के दबाव किसी न किसी तरह आखिर तक दिखाई देते हैं। `गोदान` में भी स्त्रियों के बराबर के राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न पर वे असमंजस में हैं और स्त्रियों की नागरिक छवि की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं सके हैं।

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद कुछ-कुछ उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह मध्यकालीन भक्ति आंन्दोलन में कबीर मौजूद हैं। हिन्दी नवजागरण के सनातनवादी आख्यान में उन्हें जिस तरह एक `देवमंडल` का हिस्सा बना कर शामिल कर लिया गया है, इससे यक़ीनन उनकी अपनी ख़ास जगह खो गई है।
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मनमोहन



(यह लेख 1995 में लिखा गया था और 2006 में `सहमत-मुक्तनाद` में प्रकाशित हुआ था।)

Saturday, July 31, 2010

हिंदी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन (1)





भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे राष्ट्रीय जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।


जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। एक तो यही लगने लगा कि `समाज संशोधन` तो `पत्ते` हैं, असल `जड़` तो राजनीतिक आन्दोलन है। ``जब तक दण्ड का भय दिखाने की ताकत हम हिन्दुस्तानियों के पास न होगी समाज सुधार भी न होगा। राजनीतिक संशोधन जड़ है, समाज संशोधन पत्ते! राजनीतिक संशोधन हुआ तो समाज संशोधन की अलग से ज़रूरत ख़त्म हो जायगी।``1 इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। समाज संशोधन के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले सहवास बिल के आने पर महाराष्ट्र में तीखी प्रतिक्रिया की गई। सोशल कान्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया।2 संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवाद और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी उदीयमान द्विज जातियों और मध्यजातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ-साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम विरोध` या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें आन्दोलन की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने गौ रक्षा और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और जागरण सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिये उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।
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