भारत में वाम और उसकी सांस्कृतिक इकाइयां क्या बौद्धिक रूप से इतनी दरिद्र हो चुकी हैं कि वे लेनिन के विरुद्ध घृणा भरे अभियान चलाकर राजसत्ता की चापलूसी पर उतारु शख़्स को ही अपना मेंटर बना लें? इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) के लाइव में अपूर्वानंद को देखकर मैं चौंक पड़ा। तीन महीने पहले जो शख़्स `अक्तूबर क्रांति` और उसके नायक लेनिन को लेकर विष-वमन कर रहा था, भारतीय वाम उसके लिए लाल कालीन बिछा रहा हो तो मेरा चौंकना ग़ैर-वाजिब नहीं कहा जा सकता। अपूर्वानंद के लिए तो यह एक मज़ेदार उपलब्धि की तरह रही होगी कि वह वाम के मंच से ही वाम विरोधी दुष्प्रचार कर आया हो।
31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती के मौके पर बिहार इप्टा के ऑनलाइन आयोजन ('एक सौ चालीस वर्ष के प्रेमचंद' संवाद और कहानी पाठ) के संवाद सत्र में अपूर्वानंद को आमंत्रित किया गया था। इप्टा की केंद्रीय इकाई के पेज पर इस लाइव को शेयर किया जा रहा था। आज़ादी के आंदोलन के दौरान इंडियन प्रग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के गठन के सिलसिले में ही इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) की स्थापना हुई थी। प्रेमचंद पीडब्ल्यूए की स्थापना में शामिल थे। कहना न होगा कि लेनिन और उसके साथियों ने दुनियाभर में राजनीतिक और सांस्कृतिक हलकों में जो प्रगतिशील तड़प पैदा की थी, पीडब्ल्यूए और इप्टा उसी की देन थे। इप्टा की धूम, धमक और इसका शानदार प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उसने आज़ादी की लड़ाई से लेकर राजनीतिक व सामाजिक बराबरी की तमाम लड़ाइयों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उसका असर सिनेमा जैसे मनोरंजन के पॉपुलर और ताक़तवर माध्यमों को भी किसी हद तक सेकुलर और ग़रीबों का हिमायती बनाए रहा। उसकी रौशनी अभी तक चली आती है। कहते है कि इप्टा के पराभव की वजह भी भारतीय वाम नेतृत्व के विवादास्पद फ़ैसले ही थे। अफ़सोस कि ऐसे जगमग आंदोलन के मंच पर एक ऐसा शख़्स प्रवचन दे रहा था जिसका मुख्य एजेंडा ही इस आंदोलन को रौशन बनाने वाले विचार पर हमला करना हो। हाल ही में 23 अप्रैल को अपूर्वानंद ने `इंडियन एक्सप्रैस` में लेख लिखकर अक्तूबर क्रांति और लेनिन को लेकर जमकर ज़हर उगला था। देने वालों ने जवाब दिए पर हैरानी यह थी कि लेनिन को आदर्श मानकर चलने वाली भारत की तीनों बड़ी वाम पार्टियों के सांस्कृतिक संगठनों ने चुप्पी साथ ली थी और उनके नेतृत्व ने `ससुर-दामाद` के प्रति जातिगत निष्ठा का निर्वाह किया था।
अपूर्वानंद के लिए रेड कार्पेट बिछाने वाले कह सकते हैं कि उन्होंने अपूर्वानंद को वाम या लेनिन पर बोलेन के लिए नहीं बुलाया था बल्कि बतौर `प्रेमचंद विशेषज्ञ` आमंत्रित किया था। लेकिन, अपूर्वानंद ने ऐसी गुंजाइश छोड़ी ही नहीं। प्रेमचंद पर बोलते-बोलते वे लेनिन, माओ और हिटलर के साथ खड़ा कर हिंसा-अहिंसा पर नसीहत देने आ गए। एक तरह से उन्होंने फिर ऐलान किया कि अब उनका एजेंडा यही है। दिलचस्प यह है कि इस लाइव को सुनने के बाद ही यह ज्ञान हुआ कि अपूर्वानंद इस बीच प्रेमचंद विशेषज्ञ भी बन चुके है। अपूर्वानंद से बातचीत कर रहे दो युवा बार-बार प्रेमचंद पर उनकी किसी प्रेमचंद श्रृंखला का पारायण कर चुकने का ज़िक्र कर रहे थे। इन दोनों युवाओं के हृदय में अपूर्वानंद के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उसकी धूर्तता भरी बातों का प्रतिवाद करना तो दूर, वे `जी सर`, `जी सर` करते जाते थे।
प्रेमचंद पर अपूर्वानंद का ज्ञान-दान पूरी तरह धूर्तता भरा रहा। फेसबुक पर ऐसे कई योद्धाओं को हम देखते हैं जो आरएसएस व भाजपा के प्रवक्ताओं की तरह सवाल को छोड़कर अपना मनचाहा ज्ञान पेलने लगते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने कहा कि वे 140 साल के नहीं, 110 साल के प्रेमचंद पर बात करेंगे क्योंकि प्रेमचंद के रूप में साहित्यिक अवतार 1910 में हुआ। अपूर्वानंद की पूरी बातचीत इसी शैली पर टिकी हुई थी। वे बातचीत में शामिल युवाओं की श्रद्धा और मूर्खता का लाभ उठाकर सवालों का जवाब देने के बजाय प्रेमचंद को एक ऐसा राजनीतिक चेतना विहीन लेखक साबित करने में जुटे रहे जिस पर न उस समय के राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों का असर था और न वह अपने लेखन से सचेत रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कोई भूमिका निभा रहा था। कोई मूर्ख या धूर्त ही कहेगा कि प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उपज नहीं थे या भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर वे असर नहीं डाल रहे थे। असल में अपूर्वानंद का कष्ट है - नवजागरण में प्रेमचंद की भूमिका। वह भूमिका जो अपने समकालीन और अपने पूर्व के हिन्दी लेखकों में व हिन्दी समाज और राजनीति में सक्रिय साम्प्रदायिक, जातिवादी और राजभक्त शक्तियों से टकराती थी। वह भूमिका जो हिन्दी की दुनिया में पहली बार एक बड़ा निर्णायक प्रतिरोध पैदा करती है। अपूर्वानंद को इस भूमिका पर परदा डालना था और हिन्दी के खलनायकों को नाम लिए बिना सर्टिफिकेट देना था कि प्रेमचंद हों या कोई भी लेखक सभी `एक जैसे होते हैं`। अपूर्वानंद के मुताबिक, प्रेमचंद की दिलचस्पी कहानी-क़िस्से लिखने-पढ़ने में थी और यही वे करते थे।
`सोज़े वतन` का ज़िक्र आ चुका था। सवाल करने वाले ने अपूर्वानंद से पूछा कि नवाब राय-महताब राय वाले फेज़ में प्रेमचंद की कहानियां देशभक्ति से ओतप्रोत थीं जिस पर अंग्रेजी सरकार ने सख़्ती बरती तो क्या वे प्रेमचंद के रूप में देशभक्ति पर लौटे या उसको छोड़ कर चले। क्योंकि आजकल हम देखते है कि ये जो फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद चल रहा है, तो क्या प्रेमचंद का वो राष्ट्रवाद वहीं पे विराम लग गया था या उसको उन्होंने अपनी रचना में कहीं न कहीं दिखाने की कोशिश की है? अपूर्वानंद ने जवाब में लंबा ज्ञान दिया पर मूल सवाल से पूरी तरह कन्नी काट गए कि प्रेमचंद देशभक्ति की तरफ़ लोटे थे या नहीं और कि उनकी रचनाओं में यह आई थी या नहीं। वजह वही कि वे जिस एजेंडे को लेकर इस बातचीत में आए थे, उस पर ही बोलना मात्र उनका ध्येय था। वे कलाकार के अपने भीतर रहने, कला प्रचार का माध्यम न होने जैसे पुराने घिसे-पिटे जुमले बोलते गए। अपूर्वानंद ने कहा - ``जिस तरह हम सोचते हैं, लेखक-कलाकार उस तरह अपना काम नहीं करता है। प्रेमचंद की पहली दिलचस्पी थी कहानी से और वो कहानी पढ़ना चाहते थे और कहानी लिखना चाहते थे। आप कह रहे हैं, देशभक्त, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, जनता। ये सारी चीज़ें थीं पर पहली बात थी ज़बान में दिलचस्पी औप कहानी कहने में दिलचस्पी। ये बात अटपटी लग सकती है लेकिन अंग्रेजी हक़ूमत में रहते हुए, मैं हो सकता है, सिर्फ़ अपने भीतर रहा हूँ। अपने भीतर रहने का मतलब है, अपनी कला के भीतर रहा हूँ। क्योंकि प्रेमचंद की रुचि थी कहानियों में, कथा में। और उन्होंने अपने पहले का कथा-साहित्य काफ़ी घोटा था। उनकी परवरिश उसी में हुई थी। क़िस्से उन्हें अपनी ओर खींचते थे। प्रेमचंद का काम कहानी-क़िस्से लिखना था। प्रेमचंद का काम यह नहीं था कि देशभक्ति का प्रसार करने के लिए क़िस्सा लिखा जाए या राष्ट्रवाद का प्रचार करने के लिए कहानी लिखी जाए। कहानी कोई माध्यम नहीं है कि कहानी लिखी जाए। इसको यूं समझना चाहिए कि कहानी हो, कविता हो या उपन्यास हो, वह किसी प्रचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होता है।``
अपूर्वानंद शायद प्रचार की जगह विचार बोलना चाह रहे थे कि कहानी या कोई कला तो कला होती है, किसी विचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होती है। लेकिन, कोई कहेगा कि यह उनके मुँह में अपनी बात घुसेड़ने की कोशिश हुई तो यह छोड़कर उस सवाल के जवाब में चल रहे उनके भाषण के अगले वाक्य सुनते हैं जिनके लिए उन्होंने इतनी लंबी मशक्कत की थी।
``कविता या नाटक या कहानी या उपन्यास या कोई भी कला-माध्यम या कोई भी कला, उसका विचार उसका अपना विचार होता है। वो गांधी का विचार नहीं है, वो कोई दादा भाई नौरोज़ी का विचार नहीं है, सरोजनी नायडू का नहीं है। उसका ख़ुद का प्रेमचंद का अपना विचार प्रेमचंद का विचार है। वह कोई गांधीवाद, मार्क्सवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं।``
अपूर्वानंद को सीधे यह कहने में शायद शर्म आ रही थी कि प्रेमचंद का लेखन सचेत राजनीतिक लेखन भी है। अपनी कहानियों में भी वे कोई ग़ाफिल कहानीकार भी नहीं हैं। उनका लेखन एक निरंतर यात्रा है। गांधीवाद का उन पर गहरा प्रभाव रहा और दुनियाभर के रचनाकारों को उद्वेलित कर रहे मार्क्सवाद से भी वे अछूते नहीं हैं। हालांकि, ये तमाम बहसें हो चुकी हैं और उनके पत्रों व बाद के उनके भाषणों से यह सब पटाक्षेप भी हो चुका है पर इससे डरे अपूर्वानंद ने गांधीवाद के प्रभाव को भी नकारने का नाटक करते हुए दादा भाई नौरोज़ी और सरोजनी नायडू का भी नाहक ही घसीट लिया। ऐसे लंपट बुद्धिजीवियों का यही तरीक़ा है। जाहिर है कि हर लेखक का विचार उसका अपना ही विचार होता है और वह किसी विचार को अपने ही ढंग से ग्रहण करता है। जैसे वाम विचार को अपने ससुर नंद किशोर नवल की तरह अपूर्वानंद ने करियर और बौद्धिक दुनिया में जुगाड़बाजी के लिए इस्तेमाल कर लिया और प्रेमचंद ने अपनी पक्षधरता और प्रखरता के तौर पर हासिल किया था।
अपूर्वानंद ने समझाया कि प्रेमचंद ज़िंदगी जीने का एक पैमाना आपके सामने रख रहे हैं या ज़िंदगी का मेयार पेश कर रहे हैं। कहानीकार की प्राथमिक दिलचस्पी ज़िंदगी में होती है, लोगों में होती और वो उनके बारे में बात करना चाहता है। अपूर्वानंद की इस बात से क्या इंकार हो सकता है कि प्रेमचंद की दिलचस्पी लोगों में थी और उनके यहाँ वीरता, त्याग, उत्सर्ग, दोस्ती, दयानतदारी, सहानुभिति वगैराह भावनवाओं और संवेदनाओं का बड़ा महत्व था। लेकिन, प्रेमचंद निरा राजनीतिक कहानीकार थे यह साबित करने की कोशिश करना या इस सीधे सवाल कि क्या `सोज़े-वतन` जला दिए जाने के बाद देशभक्ति उनकी रचनाओं में लौटी, पर ऐसा प्रवचन जो उनकी वैचारिक यात्रा को छुपाने की कोशिश करता हो, असल में अपूर्वानंद की वैचारिक धूर्तता का प्रमाण है।
(जारी)
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