Showing posts with label Manmohan Poet. Show all posts
Showing posts with label Manmohan Poet. Show all posts

Monday, July 31, 2017

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन


भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।

जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, शायद उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। `समाज संशोधन` के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, वहां यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले `Age of Consent Bill` के आने पर महाराष्ट्र में `ऊंची जातियों` की ओर से तीखी प्रतिक्रिया की गई। यही नहीं लमाज सुधार की संस्था सोशल कॉन्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया। संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवादस और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी कुछ उदीयमान द्विज जातियों और मध्य जातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम` विरोध या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें `आन्दोलन` की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने `गौ रक्षा `और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और `जागरण` सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से मुंशी प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिए उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।

भाषा के मसले पर फिरक़ापरस्ती से लगातार लड़ने और हथियार न डालने का एक खास सामाजिक अर्थ था। अगर जातीय गठन के प्रश्न को प्रेमचन्द ज्यादा बुनियादी ढंग से पेश कर पाते हैं और अपनी रचनाओं में हिन्दुस्तानियत की ज्यादा मजबूत और ज़रख़ेज़ बुनियाद पर खड़े दिखाई देते हैं तो इसकी वजह यही है कि उन्होंने यथार्थ को विभाजन की बाधा के अंदर से नहीं देखा। `हिन्दू`, `मुसलमान` की अपवर्जी और बंद श्रेणियों या मिथक कल्पनाओं की मदद लिए बिना उन्होंने अपने समय के ठोस यथार्थ को, उसके ठोसपन में समझने और अपना रुख तय करने की कोशिश की। धर्म-संस्कृति की राजनीति के पाखंड को वे अच्छी तरह जानते थे, और उसकी छद्म गरिमा का कोई दबाव उन पर नहीं था। साम्प्रदायिकता किस तरह `संस्कृति` और `राष्ट्रवाद` की खाल ओढ़ कर सामने आती है और किस तरह साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन को विफल करना चाहती है, यह वे खूब समझते थे।

साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के लिए इस अचूक और निर्भ्रांत नज़र के चलते ही प्रेमचन्द के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी अन्तर्वस्तु इतनी सघन है। क्योंकि नवजागरण काल में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की राजनीति के उभार का एक अहम लक्ष्य ठीक इसी अन्तर्वस्तु को कमज़ोर करने का रहा है। इस तथ्य का भी इस चीज़ से ज़रूर एक रिश्ता है कि हिन्दी नवजागरण में प्रेमचनंद यथार्थवाद के सबसे बड़े आविष्कारक और प्रतिष्ठापक हैं। हिन्दुस्तान के देहात के अनेक ग़रीब चेहरे अपनी अनगिनत कहानियों के साथ पहली बार हिन्दी में प्रेमचन्द के ज़रिए ही दाख़िल हुए।

19वीं-20वीं सदी के हिन्दी नवजागरण में (निराला जैसे कुछ अपवादों को छोड़ कर) दलित प्रश्नों की शायद ही कोई जगह बन पाई। यह प्रेमचन्द की उदार जनतंत्रात्मकता का ही एक पहलू था कि वे जाति व्यवस्था की अतार्किता और बर्बरता को और इस में निहित झूठ, मक्कारी, फरेब और हरामखोरी को इतने निर्णायक और विस्तृत ढंग से सामने लाये। इसकी अमनुष्यता के खिलाफ लड़ना उन्हें हमेशा जरूरी लगा। उन्होंने साम्प्रदायिकता और जातिवाद के रिश्ते को ठीक-ठीक समझ लिया था। वे जानते थे कि धार्मिक पहचान को आक्रामकता देकर दलितों और स्त्रियों की अभिव्यक्तियों और प्रश्नों को आसानी से कुचला जा सकता है।

हालांकि, भारतेन्दुयुग में ही कई लेखकों ने जातपात की व्यवस्था में आ गई संकीर्णता और परजीविता की आलोचना की थी। लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य `जाति सुधार` का था। `जाति सुधार` का परिप्रेक्ष्य अन्तत: जाति के सुदृढ़ीकरण का ही परिप्रेक्ष्य था। इसमें जातिव्यवस्था के उत्पीड़क और विभेदकारी वर्चस्ववादी चरित्र को नहीं समझा गया।

प्रेमचन्द ने संस्कृति के प्रश्नों को अर्थनीति के प्रश्नों से कभी अलग नहीं किया। न ही उन्होंने आर्थिक या वर्गीय प्रश्नों को सामाजिक-वैचारिक प्रश्नों से अलग किया। यानी प्रेमचन्द न संस्कृतिवाद का सहारा लेते हैं और न अमूर्त अर्थवाद का।

हिन्दी नवजागरण में और उससे भी कहीं ज्यादा उसकी विरुद कथा में लोकवाद की मिथकीय उपस्थिति की एक बड़ी भूमिका रही है। प्रेमचन्द साधारण जनता और खास तौर पर किसानों के लेखक कहे जाते हैं। गांधी का उन पर गहरा असर था। आधुनिक पूंजीवाद को वे गहरे संशय से देखते थे। लेकिन वे किसानों के लोकवाद से संचालित नहीं थे बल्कि शहरी-देहाती गरीबों के जनवादी हितों की नज़र से ही यथार्थ को देखते थे। उन्होंने किसान का या गांव का कोई रहस्यमय मिथक नहीं बनाया जिसकी आड़ लेकर निरंकुश सामाजिक संरचनाओं की पर्दापोशी की जाती है। देहात के ऐसे लोकवादी मिथक को तोड़ कर उन्होंने इसके पीछे चल रहे शोषण और दमन के वर्चस्ववादी सामाजिक-आर्थिक-विचारधारात्मक तंत्र की निष्ठुरता और निरंकुशता को बेपर्दा किया।

हिन्दी नवजागरण का समतलीकरण करते हुए अक्सर यह भुला दिया जाता है कि रामचंद्र शुक्ल के `लोकमंगल` और प्रेमचंद की नज़र में बुनियादी अंतर है। प्रेमचंद का लोक शुक्ल जी के लोक की तरह `उदार निरंकुशतंत्र` का कोई आदर्श नमूना या कोई ख़याल या रूपक भर नहीं है जिसमें वर्चस्व की प्रणाली को चुनौती देना धर्मद्रोह समझा जाय। वह तो ठोस सामाजिक शक्तियों के हितों के पारस्परिक संघर्ष से आंदोलित (और उसी से परिभाषित) एक उपद्रवग्रस्त रणक्षेत्र है जिसमें आर्थिक सामाजिक न्याय के ज्वलंत प्रश्नों की केन्द्रीयता हमेशा बनी रहती है। प्रेमचन्द की सतत चिन्ता वंचित तबकों के हक़ में सामाजिक रूपांतरण की है, जब कि शुक्ल जी का `लोकधर्म` एक ऐसी `ऑथोरिटी` की खोज है, जो `लोकरक्षा` कर सके यानी बाहर और अन्दर से बार-बार चुनौती पाने वाली सामाजिक अनुशासन की `आदर्श` व्यवस्था को मजबूती से लागू कर सके और `छोटे-बड़े` की मर्यादाओं (`शिष्टाचार` और `शील`) की प्रतिष्ठा कर सके। जबकि प्रेमचन्द अपनी दुनिया में बराबरी के मूल्य को केन्द्रीयता देना चाहते हैं।

उसी बनारस से प्रेमचन्द का भी ताल्लुक था जिससे कभी भारतेन्दु का या प्रेमचन्द के समकालीन रामचन्द्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद का। लेकिन यह देखना मुश्किल नहीं है कि प्रेमचन्द के बनारस और जयशंकर प्रसाद की `काशी` में कुछ न कुछ अन्तर ज़रूर है। प्रेमचन्द का बनारस `संस्कृति का कलश` नहीं है। प्राच्यवादियों की मिथक कल्पना के जादू के बाहर यह गरीब हिन्दू-मुसलमान छोटे काश्तकारों, कारीगरों, जुलाहों और दूसरे किरदारों से भरा पड़ा है।

नवजागरण की प्रक्रिया सारत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया थी। और यह उर्दू-हिन्दी के समग्र आधुनिक लेखन में किसी न किसी रूप में घटित हुई। इसे प्रेमचंद में ही नहीं दूसरे नवजागरणकालीन लेखकों में भी किसी न किसी तरह लक्षित किया जा सकता है। लेकिन प्रेमचंद हिन्दी नवजागरण की आत्मबाधा के फन्दे में नहीं फंसे। वे शायद ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वे अलग जगह खड़े थे। वे अन्दर से विभक्त कर दी गई वृहत्तर हिन्दी जाति के प्रतिनिधि रचनाकार थे और इसी जगह से जातीय गठन के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, ज्यादा बुनियादी ढंग से। उन्होंने वास्तविकता को हिन्दी जाति के वर्चस्वशील सामाजिक अभिजनों की गतिशीलता के लक्ष्यों की नज़र से नहीं, इस जाति के बाहर पड़े वंचित तबकों और गरीबों के हितों की नज़र से देखा और इस जगह को कभी छोड़ा नहीं।

हिन्दी नवजागरण (या हिन्दी-उर्दू नवजागरण में) प्रेमचंद का विकासक्रम संभवत: सबसे अधिक सुसंगत और सतत है। उसमें लगातार एक निख़ार है। 1907 के प्रेमचंद, 1917-18 या 1922-24 के प्रेमचंद और 1934-36 के प्रेमचंद एक नहीं हैं। भावुक देश प्रेम, आर्य समाज की सुधार भावना, गांधीवादी करुणा की तमाम गलियों से गुजरते हुए भी वे लगातार एक समतामूलक न्यायसंगत समाज की रचना के स्वप्न में संचालित थे। और अंत में एक कठिन जगह पहुंच चुके थे जहां बिना किसी झूठी मदद, आसानी या सदाशयता के यथार्थ का बीहड़ और उलझा हुआ भू-दृश्य पूरा दिखाई देता है। अगर ऐसा न होता तो `कफ़न` या `पूस की रात` जैसी कहानियां न लिखी जातीं।

ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद आखिरी मंज़िल पर पहुंच चुके थे। बल्कि 1936 में जिस नए मोड़ पर वे खड़े थे वह एक नई शुरुआत जैसा लगता है। लैंगिक प्रश्नों पर उनके परिप्रेक्ष्य में पितृसत्तात्मक चेतना के दबाव किसी न किसी तरह आखिर तक दिखाई देते हैं। `गोदान` में भी स्त्रियों के बराबर के राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न पर वे असमंजस में हैं और स्त्रियों की नागरिक छवि की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं सके हैं।

हिन्दी नवजागरण में प्रेमचंद कुछ-कुछ उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह मध्यकालीन भक्ति आंन्दोलन में कबीर मौजूद हैं। हिन्दी नवजागरण के सनातनवादी आख्यान में उन्हें जिस तरह एक `देवमंडल` का हिस्सा बना कर शामिल कर लिया गया है, इससे यक़ीनन उनकी अपनी ख़ास जगह खो गई है।
***
मनमोहन



(यह लेख 1995 में लिखा गया था और 2006 में `सहमत-मुक्तनाद` में प्रकाशित हुआ था।)

Wednesday, December 28, 2016

मनमोहन की मशहूर कविता ‘आ राजा का बाजा’


‘आ राजा का बाजा’ कविता के बारे में
-मनमोहन
पिछले दो-ढाई साल से इस कविता का एक अजीबोगरीब पाठ फेसबुक पर घूम रहा है और जो कभी भी, कहीं भी प्रकट हो जाता है, उसके बारे में मैंने कई बार स्पष्टीकरण दिया है कि यह कविता का मूल पाठ नहीं है। लेकिन यह फिर भी जारी है। अरसे तक मेरे लिए यह गुत्थी ही बनी रही कि कविता के इस पाठ का स्रोत क्या है? बहुत बाद में पता चला कि कविता-कोश में यह कविता इसी तरह दर्ज है और वहीं से लोग इसे उठाते हैं। मेरे कहने पर अनिल जनविजय ने इसे कविता-कोश से हटा दिया। लेकिन अभी भी कविता का यही पाठ सर्कुलेशन में है। इसमें यकीनन कुछ दोष मेरा भी है कि मैं इसके मूल पाठ को पेश न कर सका।
यह कविता आपात्काल की दहशत भरी परिस्थिति में लिखी गई थी और घोर आपात्काल के दिनों में ही ‘उत्तरार्ध’ के संभवतः ग्यारहवें फासीवाद विरोधी अंक में अन्य कुछ कविताओं के साथ प्रकाशित हुई थी। उन दिनों इसका अनेक ढंग से उपयोग हुआ। आपात्काल खत्म होने के बाद के वर्षों में जन नाट्य मंच ने ‘राजा का बाजा’ नाम से बेरोजगारी पर एक नाटक किया, जिसका शीर्षक के अलावा कविता से सिर्फ इतना लेना-देना था कि उसमें इस कविता की चंद पंक्तियों को अपने ढंग से बदलकर और एक आरती की धुन में ढालकर पैरोडी की तरह इस्तेमाल कर लिया गया था। वही पंक्तियाँ शायद किसी विधि से कविता कोश वालों के हाथ लग गईं।
देश की मौजूदा परिस्थिति आपात्काल के मुकाबले कहीं ज्यादा गंभीर और भयावह है। आपात्काल के तुरंत बाद के समय की मानसिकता से तो यह और भी उलट है। ऐसे में इस कविता के नाम पर चल रहा पैरोडी पाठ और उसकी उत्फुल्ल ‘जय जगदीश हरे’ धुन मुझे खासतौर पर परेशान कर रही थी।
‘उत्तरार्ध’ के अनेक पुराने अंक नापैद हो गए हैं। मैंने उन्हेें हासिल करने की कोशिश कई बार की लेकिन नाकामयाब रहा। अचानक करीब आठ-दस साल पहले अपनी ही पत्रिकाओं में आपात्काल के दौर का एक क्षत-विक्षत जर्जर अंक हाथ लगा, तभी यह और कुछ अन्य कविताएँ किसी तरह फोटोकाॅपी कराकर रख ली थीं। उन्हीं को ढूँढ़कर निकाला है और अब (रिकाॅर्ड ठीक करने के लिए) यह पोस्ट कर रहा हूँ।


आ  राजा  का  बाजा  बजा

ता ऽ थे ई  ता ऽ
ता ऽ  गा ऽ
रो टी  खा ... न  खा ...
गा ऽ
आ ...
आ  रा जा  का  बा जा  ब जा

स च  म त  क ह
चु प   र ह...  चु प  र ह ...
स ह  स ह  स ह

रा श न
न न ... न न ...
ईं ध न ...
न न ... न न ...
ब र त न   ठ न  ठ न
चु प... चु प...
श ठ   सु न...
सु न...  चा बु क  च म का र
ज न  ग न  म न
अ धि ना य क.... ना य क ...
उ न्ना य क...     प त वा र
जी व न   खे व न हा र

त न  म न  वे त न
स ब  अ र प न  क र
तु र त   तु र त
भ ज  उ त्पा द न ... पा द न...
के व ल

मू क  ब धि र  बन
व ध  ल ख
म त  क र
कु न मु न

झु ल स न  ठि ठु र न  स ब
म न  की  त न  की  पी...
पी... जी...

ल ब  रँ ग  चु न  ज प
अ नु शा स न
शा स न
के व ल

मु ड़  तु ड़  नि चु ड़  नि चु ड़
इ त   उ त  उ ड़  म त
लु ट  पि ट  बि क
धि क्  उ फ  म त  क र

जु त    च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र
श्र म  से  न  ड र

ड ग  में  ड ग म ग  म त  क र
म ग में  म त  क र  ह र क त
ब क  ब क  ब स  क र
च ट  प ट  क र  क र त ल
सं भ ल  सं भ ल  च ल
आ ता  है  र थ
ल थ प थ  ज न प थ  प र

छ म...छ म...
ल क द क     स ज ध ज
आ ता  है  रा ज कुं व र  को म ल
ओ  रे  ख ल  ब न  ट म ट म

इ ठ  म त
ह ठ  त ज
च ल  उ ठ
झ ट प ट  क र

आ ... गा...
ता ... थे ई ...ता ...ऽ ऽ
आ ऽ

आ  रा जा  का  बा जा  ब जा।

Tuesday, October 14, 2008

मनमोहन की दो पुरानी कविताएं


कवि-लड़का (मनमोहन का मथुरा के छात्र दिनों का फोटो)
मनमोहन हमारे समय के बड़े कवि हैं, 80 के दशक की कविता का शिल्प तय करने वाले प्रमुख कवि और ठीक पहली कविता के तेवरों की वास्तविकता की पड़ताल का रिस्क उठाने वाले आलोचक भी। छपने से परहेज बरतते रहे इस कवि का एक संग्रह `ज़िल्लत की रोटी` आया है, जिसमें बाद की कविताएं है. 1969 से कविता लिख रहे इस कवि की आपातकाल में बहुचर्चित `राजा का बाजा` समेत कई पुरानी कविताएं मेरे हाथ लगी हैं, जिन्हें एक-दो सीरीज़ में ही टाइप कर पाऊंगा। हाल में उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी ने कविता पर लखटकिया सम्मान दिया है। एक लाख रुपये की यह राशि उन्होंने सामाजिक-सांस्कृितक क्षेत्र में काम कर रही संस्था `हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति` को भेंट कर दी है। इस मौके पर उनकी कविताओं पर असद जैदी की टिप्पणी और खुद उनका (मनमोहन का) वक्तव्य देने का भी इरादा है। फिलहाल उनकी दो पुरानी कविताएं- 

आग
----

आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई

सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में

आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग

आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है

लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है

चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है

गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)


मशालें...
-----------

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर

मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए

मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं

वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे

लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)