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Monday, October 12, 2015

एक बस अपील...लौटा दीजिए पुरस्कार : शिवप्रसाद जोशी



साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने चाहिए. जिनके पास जिन जिन वक़्तों के पुरस्कार हैं. वे सब आगे आएं और अपने पुरस्कार लौटा दें. इस फेर में न फंसे कि इसका कोई मूल्य नहीं, कि ये निजी शहादत है, कि इसका कोई हासिल नहीं, कि पैसा कैसे चुकाएंगें, कि साहित्य अकादमी तो सरकारी यूं भी नहीं हैं आदि आदि. और इधर तो एक जालसाज़ी ये भी हो रही है कि कह रह हैं कीर्ति भी लौटाओ. जैसे कीर्ति वहां से अर्जित हुई होगी. पूरा हिसाबकिताब ऐसे ढंग से पेश किया जा रहा है कि ख़बरदार अगर लौटाया तो ये हिसाब ध्यान रखना. ऐसी बेशर्मी, ऐसी ख़ुराफ़ात, ऐसा मज़ाक, ऐसी अपमान और ऐसा फ़ाशीवादी रवैया इस देश में आन पड़ा है तो क्या अचरज?

वरिष्ठो, आगे आइए और ये पुरस्कार लौटा दीजिए. इसके गहरे निहितार्थ होंगे. आप सब जानते हैं. दुनिया भर के लोगों में संदेश जाएगा. जा रहा है. प्रतिरोध आंदोलनों को मज़बूती मिलेगी. लोग और जुटेंगे. एक बड़ी अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का समर्थन होगा. एक चेन बनेगी. विश्व शक्तियों की नई धुरियों का नया जनतांत्रिक और अवाम केंद्रित विलोम तैयार होगा. आप पुकारे जाएंगें. आपको सलाम होगा. 

और हम, साथियो, हम लोग न ताकें न रुकें न चुप रहें. बोलें. भरसक. लिखें. आश्वासन और राहतें और छलावे और पेशकशें और ऑफ़र लौटा दें. सरकारों को ख़बरदार करें. आपने यूं ही जन्म नहीं लिया है. एक सार्थक जीवन की परिभाषा और उद्देश्य क्या होता है. ये बताने का पुरज़ोर समय है. हम लोग दलाली नहीं कर सकते हैं. हमारे वरिष्ठ दलाल नहीं हो सकते हैं. हम लोग मनुष्य हैं और हम लोगों का एक जीवन है जो सुंदर है जिसमें प्रेम है, परिवार है परिजन और दोस्त और संबंधी हैं, और ये सारी की सारी दुनिया है. हम लोग ख़ुशकिस्मत हैं फिर घेरा डाले हुए हमारे आसपास ये ताक़तें कौन हैं. ये हमारा अच्छा बुरा क्यों तय करेंगी, हम खुद क्यों नहीं? इन घेरों की जगह तो हमारी सदियों से बनाई हुई मनुष्यता के डेरे होने चाहिए.

लोग सवाल कर रहे हैं और इस विश्वव्यापी प्रायोजित जय-जय के बीच संदेह में हैं. कि आखिर ये जयगान उस देश से आ रहा है जहां मांस और इंसान के बीच जीवन और मौत का संघर्ष चल रहा है. पूंजीवादी व्यवस्थाएं जब फ़ाशीवाद से गठबंधन करती हैं तो ऐसा ही होता है. ऐसा इस देश की प्राचीनता में नहीं हुआ था. इतिहास की विकृति हावी है. और ये कहने वाले लोग कम होते जा रहे हैं कि भारत में ऐतिहासिक सच्चाई ये है कि यहां मांस खाया जाता था.
अब इस मांस भक्षण का विरोध इतना प्रबल है कि मनुष्य भक्षण पर आमादा ताक़तें फैल गई हैं और उन्होंने जैसे विचार पर ही क़ब्ज़ा कर लिया है. 

लोग या तो मांस के नाम पर मारे जा रहे हैं या महिमा न करने के अपराध में. अगर आप अनवरत जयजय में शामिल नहीं हैं तो आप समाज विरोधी, जाति विरोधी, धर्म विरोधी और देशद्रोही हैं.

तो साथियो, जो किसी भी तरह की फ़ाशीवादी सुविधा के घेरे में हैं उन्हें छोड़ें, जिनके पास सरकार के दिए पुरस्कार हैं, उन्हें लौटा दें. भले ही वो किसी भी पार्टी या समूह या गठबंधन की सत्ता के दौरान के हों. या किसी और दौर के.
आज क्या कर सकते हैं और किस चीज़ का क्या अर्थ हो सकता है, इसे सोचें. लेकिन इसमें आगामी जीवन का मोलभाव न सोचें. आगामी सिर्फ़ मौत है या उससे कम कोई दयनीय हालत. आप हंसेंगे, दैनन्दिन काम निपटाएंगें, दावतों में जाएंगें, घरबार करेंगें लेकिन मौत आपके साथ ऐसे चलेगी जैसे आप उसकी गिरवी रखी हुई कोई चीज़ हों.
वरना तो मौत स्वाभाविक रूप से आती ही है. आकस्मिक भी आती है, और लड़कर भी.... लेकिन आप उस समय इंसान होते हैं- विवशता, इच्छा, लालच, किंकर्तव्यविमूढ़ता, फ़र्माबरदारी और जहालत से भरा हुआ कोई बोरा नहीं जिसे किसी ने जीवन के कगार से हमेशा हमेशा के लिए धकेल दिया हो.


पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas

Monday, March 3, 2014

नवउदारवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार : प्रभात पटनायक


जलेस के इलाहाबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन के साझा संस्कृति संगम में प्रभात के आलेख का सम्पूर्ण पाठ


जनतंत्र की वैधता के लिए अवाम के बीच इस यक़ीन की जरूरत पड़ती है कि वे जनतांत्रिक प्रक्रिया में शिरकत करके अपनी जि़दगी में बेहतरी ला सकते हैं। यह यक़ीन झूठा भी साबित हो सकता है, यह केवल एक भ्रांति भी हो सकता है। जब यह भ्रांति नही रहती तो लोग न केवल जनतंत्र के बारे में सर्वनिषेधवादी होने लगते हैं, बल्कि उन्हें यह भी लगने लगता है कि वे अपने इन प्रयत्नों से अपनी जिंदगी में बेहतरी नहीं ला सकते। इस तरह की हताशा उन्हें किसी ‘उद्धारक’ या ‘अवतारी पुरुष’’ की खोज की ओर ले जाती है जिसमें उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे पाने की अभूतपूर्व ताक़त की झलक दिखायी देती हो और जो उनको बदहाली से उबार सके। अवाम तब ‘तर्कबुद्धि के पक्ष में’ नहीं रह जाते, वे अतर्क की दुनिया में विचरण करने लगते हैं।

वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के ज़माने में ऐसे ‘उद्धारकों’ और ‘अवतारी पुरुषों’ को अजीबोग़रीब तरीक़े से उस कारपोरेट क्षेत्र के द्वारा गढ़ा जाता है या उछाला जाता है, या ऐसे मामलों में जहां वे अपने कारनामों से उठने लगते हैं, कारपोरेट वित्तीय पूंजी अपने नियंत्रण वाले मीडिया का इसके लिए इस्तेमाल करती है, उनका निज़ाम कारपोरेट निज़ाम का समानार्थी हो जाता है। फ़ासीवाद का बीज-बिंदु यही है। (मुसोलिनी ने, जैसा कि हमें याद यहां याद आ रहा है, लिखा था कि फ़ासीवाद को वास्तविक अर्थो में कॉरपोरेटवाद कहना समीचीन होगा क्योंकि इसमें राजसत्ता कॉरपोरेट सत्ता में विलीन हो जाती है) इस तरह अवाम के, जनतंत्र के माध्यम से अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने की प्रक्रिया में यक़ीन के ख़ात्मे से वे हालात पैदा होते हैं जिनमें फासीवाद फलता फूलता है।


इसकी मिसाल जर्मनी के ‘वेइमार रिपब्लिक’ में देखी जा सकती है। अवाम की नज़रों में ‘वेइमार रिपब्लिक’ की वैधता ख़त्म हो चुकी थी क्योंकि वर्सीलीज़ संधि के फलस्वरूप मित्र शक्तियों ने हर्जाने का जो बोझ अवाम पर डाला था जिसकी वजह से अवाम की बढ़ती हुई बदहाली दूर कर पाने में एक के बाद एक चुनाव से बनी सरकार कामयाब न हो पायी थी। जनतंत्र की वैधता से यक़ीन उठ जाना ही वह विशेष कारण बना जिसने अवाम को नाज़ीवाद के आकर्षण के जाल में फंसा लिया। ‘वेइमार रिपब्लिक’ की असफलता को कम से कम उस शांति संधि में तलाश तो किया जा सकता है (जिसके खि़लाफ़ अर्थशास्त्री केंस ने आवाज़ उठायी थी)। मगर आज ‘ग्लोबलाइजे़शन’ के इस ज़माने में उसी तरह अवाम के बीच राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से बेहतर ज़िंदगी जी पाने में यक़ीन का ख़ात्मा हो गया है, साथ ही इस यक़ीन के ख़ात्मे की जड़ें इसी व्यवस्था के भीतर हैं। नव-उदारवाद के तहत यह प्रवृत्ति उभरती है कि जनतांत्रिक सस्थाओं की शक्ति पर से विश्वास उठ जाये और इसी से जुड़ा हुआ अतर्क बुद्धि का और फ़ासीवाद का विकसित होना है।

इसी तथ्य को दूसरे तरीक़े से समझा जा सकता है: नव-उदारवाद राजनीति के क्षेत्र को ‘अंत’ यानी ‘क्लोज़र’ की ओर धकेलता है जहां लोगों के सामने राजनीतिक विकल्पों में आर्थिक नीतियों पर एकरूपता दिखायी देती है, इससे अवाम की जिंदगी के हालात में उनके द्वारा चुने गये विकल्प से बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह ‘अंत’ या क्लोज़र केवल ‘नज़रिये’ का मामला नहीं है। दार्शनिक हेगेल ने इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रशियाई राजसत्ता के गठन के साथ आये अंत के रूप में देखा था। दर्शनशास्त्र में हेगेलवाद के विकास के समांतर ही अर्थशास्त्र में जो नया सिद्धांत विकसित हुआ, उसने भी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के उभार के साथ इतिहास के अंत की बात की थी। मगर ये सिर्फ ‘नज़रिये’ ही थे। इसके विपरीत, नव-उदारवाद एक साथ दो स्थितियां पैदा करता है, एक ओर वह एक वास्तविक मोड़ ले आता है जहां अवाम के सामने सचमुच का राजनीतिक विकल्प लाने के बजाय राजनीति के अंत की दशा या विकल्पहीनता होती है, इसकी प्रवृत्ति विकल्पों को एक जैसा बना देने की होती है जिससे अवाम के माली हालात में कोई सुधार नहीं होता। और यही वजह है कि अवाम की हताशा उन्हें अतार्किकता व फ़ासीवाद की ओर धकेलती है। मगर सवाल उठता है कि नवउदारवाद, ‘अंत’ का यह रुझान, क्यों उत्पन्न करता है? आइए, इस सवाल पर ग़ौर करें।

इसका जो सबसे अहम कारण है, उसे ज़्यादातर लोग जानते हैं, इसलिए इस पर यहां ज़्यादा बात करना ज़रूरी नहीं। ‘ग्लोबलाइजे़शन’ के साथ जुड़ा यह तथ्य है कि यह मालों व सेवाओं की पूरी दुनिया में आवाजाही की आज़ादी देता है, इन सबसे ऊपर, पूंजी की आवाजाही की आज़ादी है जिसमें वित्तीय पूंजी भी शामिल है। इस युग में जहां पूंजी तो पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेती है, देश उसी जगह राज्य-राष्ट्र बने रहते हैं। हर देश की आर्थिक नीतियां ‘निवेशकों का भरोसा’ बनाये रखने के विचार से नियंत्रित होती है, यानी भूमंडलीकृत पूंजी को फ़ायदा पहुंचना चाहिए, वरना वह पूंजी एकमुश्त उस देश को छोड़ कर कहीं और चली जायेगी, इस तरह वह देश बुरी तरह आर्थिक संकट की खंदक में जा गिरेगा। इस तरह के आर्थिक संकट में फंसने से बचने की ख़्वाहिश देश की तमाम राजनीतिक संरचनाओं को मजबूर करती है कि वे उसी एजेंडे को लागू करें जो भूमंडलीकृत पूंजी को मंजूर हो। यह तब तक चलता है जब तक कोई देश खुद ग्लोबलाइज़ेशन के दायरे में रहना जारी रखना चाहता है यानी वह पूंजी पर और व्यापार पर नियंत्रण लगाने की सोच कर भूमंडलीकरण की सीमा से बाहर जाने की कोशिश नहीं करता। इससे अवाम के सामने किसी सही विकल्प का चुनाव रह ही नहीं जाता। वे जिसे भी चुनें, जिस किसी की सरकार बने, वह घूम फिर कर उन्हीं ‘नवउदारवादी’ नीतियों पर चलती है।

हम यह अपने देश में भी देख रहे हैं। यूपीए सरकार और एनडीए सरकार और यहां तक कि ‘थर्ड फ्रंट’ की अल्पायु सरकार भी आर्थिक नीतियों के मामले में एक जैसी सरकारें ही रहीं। आज भी, जब चुनावी विकल्प के रूप में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का शोरशराबा हो रहा है, आर्थिक नीतियों के स्तर पर शायद ही कोई बुनियादी फ़र्क़ हो। सचाई तो यह है कि मोदी खुद इस बात पर ज़ोर देता है कि उसमें ‘शासन करने’ की यू.पी.ए. के मुक़ाबले बेहतर क्षमता है, आर्थिक नीतियों के मामले में कोई बुनियादी अंतर नहीं जिनसे अवाम की बदहाली दूर हो सके। इससे यही साबित होता है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अवाम के सामने आर्थिक नीतियों के स्तर पर वास्तविक विकल्प मौजूद नहीं है। इस बुनियादी तथ्य के अलावा इस युग में देश के वर्गीय ढांचे में कुछ ऐसे बदलाव आये हैं जिनकी वजह से भी विकल्प की ओर बढ़ पाने में दुश्वारी आ रही है। इन तब्दीलियों में एक बुनियादी तब्दीली यह है कि मज़दूरों और किसानों की शक्ति में कमी आयी है। चूंकि राज्यसत्ता की रीतिनीति तो वित्तीय पूंजी को खुश करने की है, इससे उसकी भूमिका बड़ी पूंजी के हमले से छोटे कारोबार और उत्पादन की रक्षा करना या मदद करना नहीं रह जाती। इस असुरक्षा के माहौल में छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। यह शोषण दोहरे तरीक़े से होता है, एक तो प्रत्यक्ष तौर पर बड़ी पूंजी उनकी संपदा जैसे उनकी ज़मीन वग़ैरह को कौडि़यों के मोल ख़रीद कर, दूसरे, उनकी आमदनी में गिरावट पैदा करके। इससे लघु उत्पादन के माध्यम से उनकी जि़ंदा बने रहने की क्षमता कम रह जाती है। अपनी आजीविका के साधनों से वंचित ये लोग काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं, इससे बेरोज़गारों की पांत और बढ़ती जाती है।

इसके साथ ही नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार भी सीमित ही रहते हैं, भले ही आर्थिक विकास में तेज़ी दिखायी दे रही हो। उदाहरण के तौर पर, भारत में आर्थिक विकास की चरमावस्था में भी रोज़गार की विकास दर, 2004-5 और 2009-10 में नेशनल सेम्पल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 0.8 प्रतिशत ही रही। जनसंख्या की वृद्धि दर 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही और इसे ही काम के लायक जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि दर माना जा सकता है। इसमें उन लघु उत्पादकों को भी जोड़ लें जो अपनी आजीविका से वंचित हो जाते हैं और रोज़गार की तलाश में शहर आ जाते हैं तो बेरोज़गारी की विकास दर 1.5 प्रतिशत से ज़्यादा ही ठहरेगी। उसमें केवल 0.8 प्रतिशत को रोज़गार मिलता है। तो इसका मतलब यह है कि बेरोज़गारों की रिज़र्व फ़ौज की तादाद में भारी मात्रा में इज़ाफ़ा हो रहा है। इसका असर मज़दूर वर्ग की सौदेबाज़ी की ताक़त पर पड़ता है। वह ताक़त कम हो जाती है। इस तथ्य में एक सचाई और जुड़ जाती है, यानी बेरोज़गारों की सक्रिय फ़ौज और रिज़र्व फ़ौज के बीच की अंतर-रेखा का मिट जाना। हम अक्सर सक्रिय फ़ौज को पूरी तरह रोज़गारशुदा मान कर चलते हैं, रिज़र्व फ़ौज को पूरी तरह बेरोज़गार। मगर कल्पना करिए, 100 की कुल तादाद में से 90 को रोज़गारशुदा और 10 को बेरोज़गार मानने के बजाय, यह मानिए कि ये अपने समय के 9/10 वक़्त तक ही रोज़गार में हैं, इससे वह धुंधली अंतर-रेखा स्पष्ट हो जायेगी जिसे हम रोज़गार में ‘राशन-प्रणाली’’ या सीमित रोज़गार अवसर की प्रणाली के रूप में देख पायेंगे। दिहाड़ी मज़दूर की तादाद में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, स्थायी और अस्थायी नौकरियों में लगे लोग, या खुद कभी कभी नये काम करने वाले लोग जो किसानों के पारंपरिक कामों से हट कर हैं, यही दर्शाते हैं कि रोज़गारों में सीमित अवसर ही उपलब्ध हैं। बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोतरी जहां मज़दूरों की स्थिति को कमज़ोर बनाती है। वहीं रोज़गारों के सीमित अवसर इन हालात को और अधिक जटिल बना रहे हैं।

‘रोज़गारों के सीमित होने के नियम’ में तब्दीली के अलावा रोज़गार पाने के नियम भी बदले हैं जिनके तहत स्थायी नौकरियों के बजाय ठेके पर काम कराने की प्रथा चल पड़ी है। हर जगह ‘आउटसोर्सिंग’ के माध्यम से बड़े ठेकदारों से काम लिया जाता है जो भाड़े पर वही काम कराते हैं जो पहले उस विभाग में स्थायी कर्मचारी करते थे ;रेल विभाग इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। इससे भी मज़दूरों की सौदेबाज़ी की, यानी हड़ताल करने की क्षमता में कमी आयी है। दो अन्य तथ्य इसी दिशा का संकेत देते हैं। एक उद्योगों का निजीकरण जो कि भूमंडलीकरण के दौर में तीव्र गति हासिल कर रहा है। यूनियन सदस्यों के रूप में मज़दूरों का प्रतिशत पूरी पूंजीवादी दुनिया में प्राइवेट सेक्टर के मुक़ाबले पब्लिक सेक्टर में ज़्यादा है। अमेरिका में जहां प्राइवेट सेक्टर में केवल 8 प्रतिशत मज़दूर यूनियन सदस्य हैं, वहीं सरकारी क्षेत्र में, जिसमें अध्यापक भी शामिल हैं, कुल संख्या का एक तिहाई यूनियन सदस्य है। सरकारी क्षेत्र का निजीकरण इस तरह यूनियन सदस्यता में कमी लाता है और इस तरह मज़दूरों की हड़ताल करने की क्षमता कम होती जाती है। फ्रांस में पिछले दिनों कई बड़ी हड़तालें हुईं हैं तो इसकी एक वजह यह भी है कि सारे विकसित पूंजीवादी देशों के पब्लिक सेक्टरों के यूनियनबद्ध मज़दूरों की संख्या के मुक़ाबले फ्रांस में उनकी तादाद अभी भी सबसे ज़्यादा है।

एक और कारक भी है, जिसे ‘रोज़गार बाज़ार में लचीलापन’ कहते हैं, जिसके द्वारा मज़दूरों के एक सीमित हिस्से को ;फै़क्टरी में एक ख़ास संख्या के मज़दूरों से ज़्यादा रोजगारशुदा होने पर श्रम कानूनों के तहत जो सुरक्षा मिली हुई है; जैसे मज़दूरों को निकालने के लिए तयशुदा समय का नोटिस देना, उसे भी ख़त्म करने की कोशिश चल रही है। यह अभी भारत में नहीं हो पाया है,, हालांकि इसे लागू करवाने का दबाव बहुत ज़्यादा है। ‘रोज़गार बाज़ार में लचीलापन’ का यह दबाव कम अहम लग सकता है क्योंकि इसका असर सीमित मज़दूरों की तादाद पर ही दिखायी दे सकता है, मगर इसका मक़सद उन मज़दूरों से हड़ताल करने की क्षमता छीन लेना है जो अहम सेक्टरों की बड़ी बड़ी इकाइयों में काम कर रहे हैं और जिनकी हड़ताल क्षमता सबसे ज़्यादा है। ये तमाम तब्दीलियां यानी मज़दूरों की संरचना में, सौदेबाज़ी की उनकी क्षमता में, क़ानून के तहत मिले उनके अधिकारों में आयी तब्दीलियां मज़दूर वर्ग की राजनीति की ताक़त को कमज़ोर बनाने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। ट्रेड यूनियनों के कमज़ोर पड़ने का असर स्वतः ही मजदूर वर्ग के राजनीतिक दबाव के कमज़ोर होने में घटित होता है, एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक समाधान आगे बढ़ाने की उसकी क्षमता भी कमज़ोर होती है, और उसके इर्द-गिर्द अवाम को लामबंद करने में दुश्वारियां आती हैं।  इस तरह कारपोरेट-वित्तीय पूंजी भूमंडलीकृत पूंजी से गठजोड़ करके जितनी ताक़तवर होती जाती है, उतनी ही मज़दूर वर्ग, किसान जनता और लघु-उत्पादकों की राजनीतिक ताक़त में कमज़ोरी आती है, वे ग़रीबी और ज़हालत की ओर धकेल दिये जाते हैं। भूमंडलीकरण का युग इस तरीके़ से वर्ग-शक्तियों के संतुलन में एक निर्णायक मोड़ ले आया है।

इस परिवर्तन के दो अहम नतीजे ग़ौर करने लायक़ हैं। पहला, वर्गीय राजनीति में गिरावट के साथ ‘पहचान की राजनीति’ वजूद में आती है। दरअसल, ‘पहचान की राजनीति’ एक भ्रामक अवधारणा है क्योंकि इसमें अनेक असमान, यहां तक एक दूसरे के एकदम विपरीत तरह के आंदोलन समाहित हैं। यहां तीन तरह के अलग अलग संघटकों की पहचान की जा सकती है। एक, ‘पहचान से जुडे़ प्रतिरोध आंदोलन’ जैसे दलित आंदोलन या महिला आंदोलन, जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं भी हैं; दूसरे, ‘सौदेबाज़ी वाले पहचान आंदोलन’ जैसे जाटों की आरक्षण की मांग जिसकी आड़ में वे अपनी स्थिति मज़बूत बना सकें; तीसरे, ‘पहचान की फ़ासीवादी राजनीति’; जिसकी स्पष्ट मिसाल सांप्रदायिक फासीवाद है, जो हालांकि एक ख़ास ‘पहचान समूह’ से जुड़ी हुई है और दूसरे ‘पहचान समूहों’ के खि़लाफ़ ज़हरीला प्रचार करके उन पर हमला बोलती है। इस राजनीति को कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी पालती पोसती है और इसका वास्तविक मक़सद उसी कॉरपोरेट जगत को मज़बूती प्रदान करना होता है, न कि उस पहचान समूह के हितों के लिए कुछ करना जिनके नाम पर वह राजनीति संगठित होती है।

जहां ये तीनों तरह की ‘पहचान राजनीतियां’ एक दूसरे से काफ़ी जुदा हैं, वर्गीय राजनीति में आयी कमज़ोरी का अहम असर उन सब पर है। इस तरह की राजनीति ऐसे किसी ख़ास पहचान समूह को ‘पहचान के नाम पर सौदेबा़जी की राजनीति’ के माध्यम से एक उछाल प्रदान करती है जो अपने वर्गीय संगठनों के तहत कोई असरदार काम नहीं कर सकते। इस राजनीति से ‘पहचान की फ़ासीवादी राजनीति’ को भी बल मिलता है क्योंकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजात का वर्चस्व इस तरह की राजनीति को बढ़ावा देता है। जहां तक ‘प्रतिरोध के पहचान आंदोलनों’ का सवाल है, वर्गीय राजनीति के चौतरफ़ा कमजोर पड़ने से उनमें भी प्रगतिशीलता का तत्व कमज़ोर हुआ है और इससे वे भी अधिक से अधिक ‘सौदेबाज़ी की पहचान राजनीति’ की ओर धकेल दिये गये हैं। कुल मिलाकर, वर्गीय राजनीति में गिरावट से ‘पहचान की राजनीति’ के ऐसे रूपों को मज़बूती हासिल हुई है जो व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करते बल्कि उल्टे, अवाम के एक हिस्से को दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा करके इस व्यवस्था के लिए किसी आसन्न ख़तरे की संभावना को कमज़ोर ही करते हैं। इससे उस नयी संरचना के विचार को आघात पहुंच रहा है जिसमें, देश के भीतर जाति आधारित सामंती व्यवस्था के तहत ‘पुरानी व्यवस्था’ को ढहा कर, उसकी जगह ‘नयी सामुदायिक व्यवस्था’ की स्थापना पर बल था, जो कि हमारे जनतंत्र की मांग है।

इस आघात का एक और पहलू है, जो इस समाज के लंपटीकरण से जुड़ा है। पूंजीवादी समाज की यह ख़ासियत है कि इसकी सामाजिक स्वीकार्यता इस व्यवस्था के तर्क से उद्भूत नहीं होती, बल्कि तर्क के बावजूद होती है। ऐसी दुनिया जिसमें मज़दूर अपनी तरह तरह की गुज़र बसर की जगहें छोड कर एक जगह ठूंस दिये जाते हैं, जहां वे अकेले अकेले पड़ जाते हैं, एक दूसरे के साथ बुरी तरह प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, जैसी कि पूंजीवाद के तर्क की मांग है, वह दुनिया सामाजिक रूप से असुरक्षा से घिरी दुनिया ही होगी ;जिसे शायद ही ‘समाज’ की संज्ञा दी जा सके। पूंजीवाद के तहत सामाजिक वजूद इसलिए संभव होता है क्योंकि इसके नियमों के विपरीत मज़दूर शुरू में एक दूसरे से अनजान होते हैं, बाद में वे अपने ‘समूह’ बना लेते हैं जो कि ट्रेड यूनियनों के माध्यम से वर्गीय संगठनों में विकसित हो जाते हैं। यही वह ‘नया सामुदायिक समाज’ हो सकता है जिसका अभी हमने जि़क्र किया है।

अतीत में पूंजीवाद के तहत इस तरह के समाज का विकास संभव हुआ था क्योंकि बड़े पैमाने पर आबादी के बड़े शहरों में आ जाने से और नयी अनुकूल श्वेत बस्तियों में बस जाने से स्थानीय कामगारों की फ़ौज के रूप में उनकी तादाद सीमित रही और ट्रेड यूनियनें शक्तिशाली हो गयीं। आज तीसरी दुनिया के मज़दूरों के लिए इस तरह की संभावनाएं मौजूद नहीं हैं, और नव-उदारवाद ने, जैसा कि हम देख रहे हैं, बेरोज़गारों की तादाद बढ़ा दी है, जबकि ट्रेड यूनियनों और मज़दूरवर्ग की सामूहिक संस्थाओं को कमज़ोर कर दिया है। अलग थलग पड़ जाने से लंपट सर्वहारावर्ग की वृद्धि हो रही है। आपसी सामाजिक रिश्तों में लगातार गिरावट या उनकी नामौजूदगी उन मेहनतकशों को, जो भिन्न प्रकार के रहन सहन के हालात से निकल कर आते हैं, लंपटीकरण की ओर धकेल देती है। यह एक सच्चाई है कि इस तरह का लंपटीकरण सारे पूंजीवादी समाजों में मौजूद है, मगर उन पर विकसित समाजों के मज़दूर वर्ग के सामूहिक संस्थानों का नियंत्रण रहता है, जो कि इधर नव-उदारवादी निज़ाम में ढीला भी हो रहा है, मगर तीसरी दुनिया के समाजों में तो उन संस्थानों का नियंत्रण बेअसर हो रहा है जो कि नव-उदारवाद की भयंकर चपेट में आ गये हैं। भारत में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में इधर जो बढ़ोतरी हो रही है, इस घटना विकास के बारे में मेरे नज़रिये से मेल खाती है।

नवउदारवाद के युग में मजदूर वर्ग को संगठित करने में आने वाली कठिनाइयों का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि मारुति फ़ैक्टरी में, जो कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र के इलाके़ में ही क़ायम है, अगर कोई मज़दूर किसी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता से बात करता हुआ या किसी पर्चे के साथ पकड़ा गया तो वह नौकरी से मुअत्तिल हो सकता है। नव-उदारवादी व्यवस्था का एक और बिंदु है जिसकी ओर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा। इसका संबंध ‘भ्रष्टाचार’ से है। इस तरह की अर्थव्यवस्था की ख़ासियत यह है कि इसमें बड़ी पूंजी में लघु उत्पादकों के शोषण का रुझान होता है। मगर लघु संपति उसका एकमात्र निशाना नहीं होती। उसकी प्रवृत्ति तो मुफ़्त में या कम क़ीमत पर आम संपत्ति हड़प लेने की होती है जिसमें सिर्फ़ लघु उत्पादकों की संपत्ति ही नहीं, आम संपत्ति, आदिवासियों की संपत्ति और राज्य की संपत्ति शामिल है। नव-उदारवाद का युग उस प्रक्रिया को घटित होते हुए देख रहा है जिसमें पूरी निर्ममता से ‘पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया’ चल रही है जिसके लिए राज्य तंत्र की ओर से सहमति या साझेदारी ज़रूरी होती है। ऐसी सहमति प्राप्त कर ली जाती है जिसके लिए भूमंडलीकरण के ज़माने में हर राष्ट्र-राज्य पर नीतिगत मामलों का दबाव बना हुआ है, उस सहमति के लिए जो भी क़ीमत अदा करनी होती है, वह दे दी जाती है और उसी को हम ‘भ्रष्टाचार’ कहते हैं।

हम जिसे ‘भ्रष्टाचार’ कहते हैं, वह असल में एक तरह का टैक्स है जिसे राज्य तंत्र वसूल करता है जिसमें ‘राजनीतिक वर्ग’ भी सबसे बड़े हिस्से के रूप में शामिल होता है। यह टैक्स बड़ी पूंजी के द्वारा ‘पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया’ से अर्जित लाभ पर वसूला जाता है। यह ग़ौरतलब है कि ‘भ्रष्टाचार’ के बड़े -बड़े मामले जो भारत में इधर प्रकाश में आये हैं, जैसे टू-जी स्पेक्ट्रम या कोयला ब्लाकों की औने पौने दामों पर आवंटन की प्रक्रिया आदि, उन्हें बेचने का फ़ैसला लेने वालों को बदले में जो धन मिला उसे हम ‘भ्रष्टाचार’ कहते हैं। इस तरह ‘पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया’ पर यह एक तरह का टैक्स है और इस प्रक्रिया में इधर जो तेज़ी दिखायी देती है, उसके मूल में नवउदारवादी दौर में पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया का बड़े पैमाने पर मौजूद होना ही है। ‘भ्रष्टाचार’ के रूप में इस तरह के टैक्स के स्वरूप को दो कारकों के संदर्भ से ख़ासतौर पर देखा जा सकता है। पहला कारक है, राजनीति का माल में तब्दील हो जाना। यह सच है कि भिन्न भिन्न राजनीतिक संरचनाएं जो नव-उदारवादी निज़ाम के तहत काम कर रही हैं, अलग अलग आर्थिक एजेंडा नहीं रख सकतीं, तो उनमें अवाम की सहमति किसी नये तरीके़ से लेने की होड़ रहती है। इसके लिए ख़ास कि़स्म से अपनी ‘मार्केटिंग’ के लिए, प्रचार करने वाली भाड़े की फ़र्मों का सहारा लेना पड़ता है और उन्हें मीडिया को ‘कैश दे कर ख़बर बनवाने’ का उपक्रम करना पड़ता है, हेलीकाप्टर भाड़े पर ले कर ज़्यादा से ज़्यादा जगहों की यात्रा करनी होती है जिससे अपनी सूरत ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को नज़र आ सके, वगै़रह वगै़रह। ये सारे काम बहुत ज़्यादा ख़र्चीले हैं जिसकी वजह से राजनीति को संसाधन जुटाने का काम करना पड़ता है, राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरह संसाधन जुटाती ही हैं।

इसके अलावा, ‘राजनीतिक वर्ग’ को काम चलाने के लिए संसाधन जुटाने पड़ते हैं, मगर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में उसकी भूमिका बहुत अहम नहीं रह जाती। विश्व बैंक और आइ एम एफ़ के अधिकारी रह चुके अफ़सर या बहुराष्ट्रीय बैंको और वित्तीय संस्थानों के आला अफ़सर अर्थव्यवस्था चलाने के लिए तेज़ी से नियुक्त किये जा रहे हैं, यानी ‘ग्लोबल वित्तीय समुदाय’ के लोग ही सरकारों के फ़ैसलाकुन पदों पर बिठाये जाते हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को पारंपरिक राजनीतिक वर्ग के हाथों में अर्थ नीति संबंधी फैसले लेने का दायित्व सौंपना सहन नहीं। पारंपरिक राजनीतिक वर्ग को इस पर गुस्सा आना स्वाभाविक है, मगर वह इससे कुछ हासिल कर लेता है तो उसे समझौता करने से कोई गुरेज भी नहीं। और यह ‘कुछ’ पूंजी के आदिम संचयन के लाभ में से मिलने वाले अंश या टैक्स के रूप में होता है जिसे हम ‘भ्रष्टाचार’ कहते हैं और उसकी ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि राजनीति माल में तब्दील हो चुकी है।

‘भ्रष्टाचार’ इस तरह नव-उदारवादी ऩिजाम में बहुत सक्रिय भूमिका अदा करता है। यह ‘राजनीतिक वर्ग’ में अचानक आये ‘नैतिक’ पतन का परिणाम नहीं है, यह नव-उदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है। ‘भ्रष्टाचार’ का जो असर नव-उदारवादी पूंजीवाद पैदा करता है, उससे कॉरपोरेट वित्तीय अभिजात को एक दूसरी वजह से फ़ायदा होता है। यह ‘राजनीतिक वर्ग’ को बदनाम करके छोड़ता है, वह संसद को और जनतंत्र के दूसरे प्रातिनिधिक संस्थानों को कलंकित करा देता है, और साथ ही, अपने नियंत्रण वाले संचारमाध्यमों के फ़ोकस द्वारा चालाकी से यह सुनिश्चित कर लेता है कि ‘भ्रष्टाचार’ के इन कारनामों से पैदा हुए नैतिक कलंक की कालिख उसके काम में बाधा न बने। ‘भ्रष्टाचार’ विमर्श इसके रास्ते में आने वाले रोड़ों को साफ़ करते हुए कॉरपोरेट निज़ाम के युग की शुरुआत आसान बना देता है।

बात दरअसल और आगे जाती है। हमने देखा है कि नव-उदारवाद का दौर बेरोज़गारी के सापेक्ष आकार को बढ़ाता है, जिसके चलते वह निरपेक्ष दरिद्रता की शिकार आबादी के सापेक्ष आकार में भी बढ़ोत्तरी करता है। छोटे उत्पादक- चाहे वे अपने पारंपरिक व्यवसाय में लगे रहें या रोज़गार के अवसर की तलाष में शहरी इलाक़ों, जहां ऐसे अवसर आवश्यकता से कम ही हैं, की ओर चले जाएं- उनका निरपेक्ष जीवन-स्तर और बदतर हो जाता है। कामगारों की तादाद में जो नया इज़ाफ़ा होता है, उसे बढ़ती बेरोज़गारी के कारण अपने पुरखों के मुक़ाबले व्यक्तिगत स्तर पर बदतर भौतिक जीवन-स्थितियां झेलनी पड़ती हैं। और वे कामगार भी, जो बाक़ायदा रोज़गार पा लेते हैं, श्रम की रिज़र्व फ़ौज के बढ़ते सापेक्ष आकार द्वारा थोपी गयी आपसी होड़ की वजह से उदारीकरण से पहले के दौर का वास्तविक वेतन-स्तर हासिल नहीं कर पाते। कामगार आबादी के न सिर्फ़ बड़े, बल्कि बढ़ते हुए हिस्से को प्रभावित करती भयावह ग़रीबी आम बात हो जाती है।

यह ऐसा नुक्ता  है जिसे उत्सा पटनायक लंबे समय से सामने लाती रही हैं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों पर आधारित उनके निष्कर्ष बताते हैं कि 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन (‘शहरी ग़रीबी’ के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली शहरी आबादी 1993-94 में जहां 57 फ़ीसद थी, वहीं 2004-5 में वह बढ़ कर 64.5 फ़ीसद हो गयी और 2009-10 में 73 फ़ीसद हो गयी। 2200 कैलारी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (‘ग्रामीण ग़रीबी’ के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली ग्रामीण आबादी इन्हीं वर्षों में क्रमशः 58.5, 69.5 और 76 फ़ीसद थी। यह ग़ौरतलब है कि उच्च जीडीपी बढ़ोत्तरी के दौर में, जिसके भीतर 2004-5 से 2009-10 तक के साल आते हैं, ग़रीबी में ज़बर्दस्त बढ़त हुई। संक्षेप में, नव-उदारवाद के तहत ग़रीबी में बढ़ोत्तरी एक ऐसी व्यवस्थागत परिघटना है जिसकी जड़ें इस तरह के अर्थतंत्र की फि़तरत का ही हिस्सा हैं; जी.डी.पी. की ऊंची बढ़ोत्तरी से ग़रीबी दूर हो, यह ज़रूरी नहीं।

लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया जिस विमर्श को बढ़ावा देता है, वह ‘भ्रष्टाचार’ को जनता की आर्थिक बदहाली का, और इसीलिए बढ़ती ग़रीबी का, कारण बताता है। इस तरह नवउदारवाद के व्यवस्थागत रुझान का दोश मुख्य किरदार निभाने वाले कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन के सर नहीं मढ़ा जाता, बल्कि ‘राजनीतिक वर्ग’ और संसद समेत उन तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है जहां यह राजनीतिक वर्ग मौजूद होता है। इस तरह जनता को मुसीबत में झोंकने का व्यवस्था का अंतर्निहित रुझान विडंबनापूर्ण तरीक़े से जनता की निगाह में व्यवस्था को एक सहारा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उसी कॉरपोरेट पूंजी के शासन को वैधता देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो इस काम में मुख्य किरदार निभा रहा होता है।

यह बात संकट के ऐसे दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जैसे दौर से इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था गुज़र रही है। ऊंची बढ़त का दौर निकल गया है, जो कि कतई हैरतअंगेज़ नहीं; हिंदुस्तान में ऊंची बढ़त का चरण अंतरराष्ट्रीय और घरेलू ‘बुलबुले’ के मेल पर क़ायम था। इस ‘बुलबुले’ को देर-सबेर फूटना ही था। पहला वाला 2008 में फूटा, और दूसरा कुछ साल बाद। इस संकट का मतलब है कि रोज़गार की वृद्धि दर में और कमी आ रही है, जिससे कि कामगार जनता जो बढ़त के समय भी पीसी जा रही थी, उसकी हालत तो और ख़राब हो ही रही है, वह शहरी मध्यवर्ग जो बढ़त का महत्वपूर्ण लाभार्थी था, उसकी भी हालत ख़राब हो रही है। लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन की देखरेख में ‘राजनीतिक वर्ग’ के खि़लाफ़ खड़ा किया गया विमर्श न सिर्फ़ जनता के गुस्से को आर्थिक व्यवस्था और संसद समेत लोकतांत्रिक संस्थाओं के खि़लाफ़ जाने से रोकता है, बल्कि यह समझ भी बनाता है कि आज ज़रूरत एक अधिक ‘ताक़तवर’, अधिक निर्मम नव-उदारवाद की है। और यह चीज़ ‘भ्रष्टाचार’ में लिप्त ‘राजनीतिक वर्ग’ मुहैया नहीं करा सकता, जबकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और ‘विकास पुरुष’ के रूप में पेश किए जा रहे नरेंद्र मोदी जैसे उसके भरोसेमंद राजनीतिक एजेंट करा सकते हैं। इस तरह कॉरपोरेट शासन यानी फ़ासीवाद के लिए राह हमवार की गई है। कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़ासीवाद की ओर संक्रमण को किसी एकल कड़ी के रूप में, एक घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो किसी विशेष व्यक्ति के सत्ता में आने से घटित होती है। इस मामले में हमें 1930 के दशक की सोच में नहीं फंसना चाहिए। आज के हिंदुस्तान में तो पहले से ही ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, मिसाल के लिए उत्तरप्रदेश, जहां ‘आतंकवादी’ होने के संदेह पर ही किसी मुसलमान युवक को गिरफ़्तार किया जा सकता है और बिना सुनवाई, बिना जमानत के सालों-साल जेल में रखा जा सकता है। उसे क़ानूनी मदद भी नहीं मिल सकती क्योंकि वक़ील आम तौर पर किसी ‘आतंकवादी’ की पैरवी करने से इंकार कर देते हैं; और वे वक़ील, जो क़ानूनी मदद पहुंचाने की हिम्मत रखते हैं, सांप्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तों के हाथों हिंसा झेलते हैं। अगर आरोपित की खुशकि़स्मत से एकाध दशक के बाद सुनवाई पूरी हो जाए और कि़स्मत ज़्यादा अच्छी हुई तो समुचित क़ानूनी बचाव के बग़ैर भी निर्दोष क़रार दिया जाए, तब भी जनता की निगाह में एक ‘आतंकवादी’ होने का कलंक उस पर लगा ही रहता है और उसे नौकरी नहीं मिलती; और जिन लोगों ने उसे गिरफ़्तार करके जेल में अपनी जि़ंदगी के बहुमूल्य वर्ष बिताने के लिए मजबूर किया, उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती।

इसी तरह, दिल्ली के पास मारुति कारख़ाने के सौ से ज़्यादा मज़दूर महीनों से बिना किसी सुनवाई के, बिना ज़मानत या पैरोल के, जेल में बंद हैं। उन पर एक व्यक्ति की हत्या का संदेह है (जिसकी हत्या करने का कोई कारण सीधे-सीधे नज़र नहीं आता) और इसे लेकर कोई समुचित जांच अभी तक नहीं हुई है। यह स्थिति, जिसे मैं ‘मोज़ाइक फ़ासीवाद’ की स्थिति कहता हूं, इस मुल्क में पहले से मौजूद है। अगर कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन द्वारा समर्थित सांप्रदायिक-फ़ासीवादी तत्व अगले चुनाव के बाद सत्ता में आते हैं तो उन्हें लंपट तत्वों के बाहुबल पर फलते-फूलते स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल में देखने को मिलता है। ये स्थानीय सत्ता-केंद्र कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन से सीधे-सीधे जुड़े नहीं हैं और इसीलिए सीधे-सीधे इन्हें फ़ासीवादी नहीं कहा जा सकता; पर वे शिखर पर एक फ़ासीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में मददगार हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, देश  ‘मोज़ाइक फ़ासीवाद’ से ‘फ़ेडरेटेट फ़ासीवाद’ की ओर बढ़ सकता है और ज़रूरी नहीं कि एक एकल एपीसोड के रूप में एकीकृत फ़ासीवाद का तजुर्बा हो।

इनमें से कोई बात इस पर्चे की बुनियादी बात को बदलती नहीं है। वह बात यह कि नवउदारवाद से पैदा हुआ ‘राजनीति का अंत’ फ़ासीवाद की ओर संक्रमण की ज़मीन तैयार करता है और यह संक्रमण उस तरह के संकट के दौर में तेज़ी पकड़ लेता है जिस तरह के संकट से हम आज गुज़र रहे हैं। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इन हालात में प्रगतिशील ताक़तें क्या कर सकती हैं? हेगेलीय दर्शन से उलट और इतिहास का अंत वाले अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्र से उलट, मार्क्स ने सर्वहारा को बदलाव के एजेंट के रूप में देखा था जो सिर्फ़ इतिहास को आगे नहीं ले जाता बल्कि खुद ‘इतिहास के फंदे’ से मानव जाति के निकलने की सूरत भी बनाता है।

यह बुनियादी विश्लेषण आज भी वैध है, और हमारी गतिविधियों को इससे निर्देशित होना चाहिए, बावजूद इसके कि नवउदारवाद ने वर्गीय राजनीति को कमज़ोर किया है। लेकिन इस कमज़ोरी को देखते हुए ज़रूरत इस बात की है कि न सिर्फ़ मज़दूरों को संगठित करने के लिए नये क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाये, मसलन अब तक असंगठित रहे मज़दूरों और घरेलू कामगारों को संगठित करना, बल्कि वर्गीय राजनीति के लिए नये कि़स्म के हस्तक्षेप भी किये जायें।


वर्गीय राजनीति को अधिक सोद्देश्य तरीक़े से ‘पहचान की प्रतिरोध राजनीति’ में हस्तक्षेप करना चाहिए, और उसे महज़ पहचान की राजनीति से ऊपर उठाना चाहिए। इसे अधिक सोद्देश्य विधि से दलितों, मुसलमानों, आदिवासी आबादी और महिलाओं के प्रतिरोध को संगठित करना चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर एक पहचान समूह को किसी दूसरे की क़ीमत पर राहत मुहैया करायी गयी है तो दूसरे को भी बोझ की ऐसी सिरबदली के खि़लाफ़ प्रतिरोध के लिए संगठित किया जाए। वर्गीय राजनीति और ‘पहचान की प्रतिरोध राजनीति’ का अंतर, दूसरे शब्दों में, इस बात में निहित नहीं है कि इनके हस्तक्षेप के बिंदु अलग-अलग हैं, बल्कि इस तथ्य में निहित है कि वर्गीय राजनीति ‘पहचान की प्रतिरोध राजनीति’ के मुद्दों पर भी अपने हस्तक्षेप को स्वयं ‘पहचान समूह’ से परे ले जाती है। अलग तरह से कहें तो जातिसंबंधी या स्त्री के उत्पीड़न के मुद्दों पर हस्तक्षेप करने में विफलता स्वयं वर्गीय राजनीति की विफलता है, वर्गीय राजनीति का लक्षण नहीं।

इसी तरह, वर्गीय राजनीति को एक वैकल्पिक कार्यसूची के सवाल को खुद संबोधित करना चाहिए। इसे व्यवस्था के खि़लाफ़ संघर्ष में, एक ‘संक्रमणकालीन मांग’ के तौर पर, जनता के ‘अधिकार’ के रूप में बदहाली को रोकने वाले उपायों के सांस्थानीकरण पर ख़ास तौर से फ़ोकस करना चाहिए। मिसाल के लिए, इसे सार्वभौमिक अधिकारों के एक समूह- जैसे खाद्य अधिकार, रोज़गार का अधिकार, मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार, एक ख़ास स्तर तक मुफ़्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, और एक सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के लिए वृद्धावस्था पेंशन तथा विकलांगता मदद का अधिकार- के सांस्थानीकरण के लिए अभियान चलाना चाहिए और अवसर मिलने पर इन्हें अमल में लाना चाहिए।


यह सब पहली नज़र में महज़ एन.जी.ओ. की कार्यसूची जैसा लग सकता है जिसका वर्गीय राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन वर्गीय राजनीति और पहचान की राजनीति या एन.जी.ओ. राजनीति के बीच बुनियादी अंतर मुद्दों को लेकर उतना नहीं है जितना इन मुद्दों को बरतने के पीछे निहित ज्ञानमीमांसा में है। वर्गीय राजनीति जब मुद्दों को उठाती है तो व्यवस्था के अतिक्रमण के ज़रिये ही उनके समाधान की संभावना को देखती है; और यह तथ्य उसे बाधित करने के बजाय ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए प्रेरित करता है। दूसरी ओर एन.जी.ओ. राजनीति सिर्फ़ ऐसे मुद्दों को उठाती है, या मुद्दों को उसी हद तक उठाती है, जहां वे व्यवस्था के भीतर हल होने के लायक़ हों। वस्तुतः इस पर्चे का मुख्य बल इसी रूप में वर्गीय राजनीति संबंधी नज़रिये को बदलने पर है।

यह तर्क, कि मुल्क के पास इन अधिकारों की मांग को पूरा करने के लिए संसाधन नहीं हैं, ठीक नहीं है। इनके लिए कुल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 फ़ीसदी ही दरकार होगा; और भारत जैसे मुल्क में, जहां अमीरों से बहुत कम टैक्स वसूला जाता है, वहां इस काम के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाना कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है। इसके मुमकिन होने में सबसे बड़ी बाधा नवउदारवादी शासन है, और ठीक इसी वजह से वामपंथ को बामक़सद इस मामले को उठाना चाहिए। जहां भी वाम ताक़तें सत्ता में आती हैं, उन्हें संसाधनों को जुटाने के लिए जिस हद तक जाना मुमकिन हो, जाना चाहिए।

सबसे अधिक जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह है नवउदारवाद के वैचारिक वर्चस्व को स्वीकार न करना। लोकतंत्र पर नवउदारवाद के हमले को रोकने और लोकतंत्र की हिफ़ाज़त से आगे समाजवाद के संघर्ष तक जाने के लिए नवउदारवादी वर्चस्व को नकारना और नवउदारवादी विचारों के खि़लाफ़ प्रति-वर्चस्व गढ़ने का प्रयास करना एक शर्त है। विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की भूमिका केंद्रीय है।

(हूबहू जैसा कहा ....... )

(प्राइमरी का मास्टर ब्लॉग से साभार)

Saturday, March 1, 2014

जलेस सम्मेलन में साझा संस्कृति संगम की घोषणा

नयी साहसिक पहलक़दमी की जरूरत

जनवादी लेखक संघ के इलाहाबाद में हुए राष्ट्रीय सम्मलेन के अवसर पर आयोजित साझा संस्कृति संगम (14 फरवरी, 2014) में स्वीकृत घोषणा-

भारतीय समाज इस समय फ़ासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। सच तो यह है कि देश के अनेक हिस्सों में लोग अघोषित फ़ासीवाद की परिस्थिति में ही सांस ले रहे हैं। यह ख़तरा काफ़ी समय से मंडरा रहा था पर अब एक अलग कि़स्म के और ज्यादा निर्णायक चरण में दाखि़ल होना चाहता है। सामराजी सरमाया के दबाव में थोपे गये आर्थिक उदारीकरण ने बेतहाशा आर्थिक तबाही के साथ देश की संवैधानिक संरचना, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और सामाजिक और सांस्कृतिक परस्परता के ढांचे को ध्वस्त करना शुरू किया, और ऐसी हालत आन पहुंची है कि प्रतिक्रियावाद के ये बहुमुखी आक्रमण रोके नहीं गये तो हिंदुस्तानी मुश्तरक़ा तहज़ीब, जीवन शैली और पिछले डेढ़ सौ सालों में विकसित राजनीतिक पहचान और क़ौमी परंपराएं ही लापता हो जायेंगी। संगठित पूंजी ने राज्य और राजकीय संस्थाओं पर, प्रमुख राजनीतिक दलों में, कार्यपालिका, सुरक्षातंत्र और न्यायपालिका पर अपनी घुसपैठ इतनी बढ़ा ली है कि वह लगभग सभी दूरगामी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक नीतियों की दिशा निर्धारित करने लगी है और हुक्मरान तबक़ा इसके अर्दली की तरह काम करता दिखायी देता है। मीडिया के बड़े हिस्से पर पूंजी का क़ब्ज़ा हो चुका है। सूचना, प्रचार, समाचार और मनोरंजन के साधनों पर वह लगभग एकाधिकार की स्थिति में है। कानून, व्यवस्था और सुरक्षा के तंत्र अब पूंजी के चौकस प्रहरी, उसकी साजि़शों के प्रभावी वाहक और जन-हितों को कुचलने वाली हिंसक मशीन में बदल चुके हैं।

यह परिस्थिति सिर्फ़ अमरीकी दबाव या कारपोरेट घरानों के इशारे भर से नहीं बनी है; इसके पीछे प्रतिक्रियावादी ताक़तों द्वारा तालमेल के साथ भारतीय मध्यवर्ग और आम जनता के बहुत से हिस्सों की लामबंदी के संगठित प्रयास हैं और इन प्रयासों का एक लंबा इतिहास है। हमारे देश में भी फ़ासीवादी विचारधारा का एक अतीत है, वह अरसे से ताक़त इकट्ठा करती आ रही है अब वह नाजु़क हालत आ पहुंची है कि यह हमारे भविष्य को निर्धारित करना चाहती है। पिछले दो दशकों में शासक वर्ग की अवाम दुश्मन और लुटेरी नीतियों के नतीजे के तौर पर आनन फानन में धनी हुए मध्यवर्ग का एक बड़ा टुकड़ा, जिसमें नौकरीपेशा लोग भी शामिल हैं, अब इस पूंजी के पीछे लामबंद है। दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी, फि़रक़ावाराना और मज़हबी जुनून फैलाने वाली कुव्वतें, ख़ासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध दर्जनों संगठन हिंदुत्ववादी अस्मिता के निर्माण, प्रचार-प्रसार, योजनाबद्ध साजि़शों और आतंकवादी तरीक़ों से भारतीय समाज के प्रतिक्रियावादी पुनर्गठन में मुब्तिला हैं। इसी दौर में राष्ट्रीय आंदोलन की उदारवादी और जनोन्मुखी प्रेरणाएं और मूल्य तेज़ी से टूटे बिखरे हैं और बांये बाजू़ की वैकल्पिक चुनौती और प्रतिरोध की परंपरा भी कमज़ोर पड़ी है। संक्षेप में, सामराजी भूमंडलीकरण, कारपोरेट पूंजी और हिंदू राष्ट्रवाद का यह गठजोड़ हमारे राष्ट्रीय जीवन के हर हिस्से पर क़ाबिज़ होना चाहता है, और ऐसी हालत बनायी जा रही है कि लोगों को लगे कि अब और कोई विकल्प बचा नहीं है। जबकि सच यह है कि ऐन इसी समय समाज के बड़े हिस्से, ख़ासतौर पर वंचित तबके़ अपनी कशमकश और अपने संगठित-असंगठित निरंतर संघर्षों से बार-बार और तरह-तरह से जनवाद के विस्तार की तीव्र और मूलगामी आकांक्षा का संकेत दे रहे हैं। विश्वविजय के अभियान को पूरा कर चुका पूंजीवाद अभी गंभीर संकट में है और अपनी विध्वंसक मुहिम को बढ़ाने के अलावा उसे कोई विकल्प दिखायी नहीं देता। दुनिया भर में उसके खि्लाफ़ व्यापक जनअसंतोष की तीव्र अभिव्यक्ति स्वत:स्फूर्त और संगठित संघर्षों के रूप में सामने आ रही है, जिसे कुचलने या विकृत करने या दिशाहीन बनाने या अराजकता की ओर ले जाने की कोशिशें भी बड़े पैमाने पर चल रही हैं। मौजूदा फ़ासीवादी उभार इसी चुनौती का मुक़ाबला करने का मंसूबा लेकर सामने आया है। लोकतांत्रिक और वामपंथी ताक़तें इस समय एक अलगाव के हालात के बीच कॉरपोरेट फ़ासीवाद के भारी दबाव और हमलों का सामना कर रही हैं। यह एक विडंबना है कि जिस समय ऐसी ताक़तों की पारस्परिकता और विशाल एकजुटता की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, वे काफ़ी कुछ बिखराव की शिकार हैं।

हमने देखा है कि हर प्रकार की तानाशाही - फि़रक़ावाराना हो या किसी और तरह की - जनाधार ढूंढ़ती है और ख़ास हालात में वह उसे हासिल भी कर लेती है। जर्मनी और इटली की मिसालें लंबे समय से हमारे सामने हैं। भारतीय समाज की सामाजिक बनावट, विचारधारात्मक तंत्र और दैनिक सांस्कृतिक जीवन में निरंकुशतावादी या फ़ासीवादी तत्वों की मौजूदगी और सक्रियता का इतिहास बहुत पुराना है। पिछले बीस-तीस वर्षों में इस प्रतिक्रियावादी अवशिष्ट का एक विशाल कारोबार ही खड़ा हो गया है और इसमें नयी जान पड़ गयी है। ‘पॉपुलर कल्चर’ के परंपरागत रूपों और मास कल्चर के नमूने की नयी लुम्पेन बाज़ारी संस्कृति में ढल कर फ़ासीवाद के अनेक तत्व इस वक्त सतत क्रियाशील हैं। साधु, संत, मठ, आश्रम, धार्मिक टी.वी. चैनल, हिंदुत्ववादी प्रचारतंत्र, रूढि़वादी सामाजिक और धार्मिक सीरियलों की बढ़ती लोकप्रियता ने जहां एक तरफ़ धर्म और ‘देवत्व’ का एक विशाल बाज़ार पैदा कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ़ नृशंसता का उत्सव मनाती सत्य कथाओं और अपराध कथाओं के ज़रिये मनोरंजन उद्योग फलफूल रहा है, जिसमें शिक्षित मध्यवर्ग सहित आबादी के विशाल तबक़े प्रशिक्षित और अनुकूलित हो रहे हैं। इस विशाल कारोबार में फ़ासीवादी कुव्वतें पूरी तरह संलग्न हैं और इसमें बेशुमार पूंजी लगी हुई है। इस तरह फ़ासीवाद के लिए अनुकूल सांस्कृतिक वातावरण पहले से तैयार है और ये कुव्वतें अपनी हेकड़ी से मीडिया में मौजूद विवेकशील स्वरों को दबाने में सफल हो रही हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगातार हमले हो रहे हैं। किताबें जलाना, सिनेमा और नाटक का प्रदर्शन रुकवाना, चित्र-प्रदर्शनियों पर हिंसक हमले करना - सांप्रदायिक फ़ासीवाद के उन्मत्त गिरोहों के द्वारा अंजाम दी जानेवाली ऐसी घटनाएं आये दिन घट रही हैं।

मुज़फ्फ़रनगर का हत्याकांड और अल्पसंख्यकों का विस्थापन बताता है कि फ़ासीवादी शक्ति किस तरह से रूढि़-पोषक खाप पंचायतों, हरित क्रांति तथा पुरुष सत्तावाद के आधार पर खड़ी राजनीति और प्रतिक्रियावादी सामाजिक संस्थाओं से तालमेल बिठाकर उन्हें अपने नियंत्रण में लेती है। उन्होंने नियोजित तरीक़े से ‘लव जिहाद’ का दुष्प्रचार करके सांप्रदायिकता को बहू-बेटी की इज्ज़त का मामला बनाया और एक साथ वर्गीय और जेंडर हिंसा का षडयंत्र रचा, जिसमें हम आज़ादी के बाद सम्पन्न हुए भूस्वामी वर्ग और पूंजीपति वर्ग की आपसी सुलह और कारस्तानियों का सबसे भद्दा रूप देख सकते है।

जिस आसानी से और बिना किसी जवाबदेही के भारतीय राज्य, विरोधी आवाज़ों को दबाता जा रहा है, जिस तरह आतंकवाद की झूठी आड़ में निरपराध मुस्लिम नवयुवकों को गिरफ्तार कर लेता है और माओवाद के नाम पर किसी भी मानवाधिकार कार्यकर्ता को पकड़ लेता है और यातनाएं देता है, जिस तरह श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ायी जाती हैं, लोकतांत्रिक विरोध-प्रदर्शनों को जिस तरह कुचला जाता है, जिस तरह से बड़े पैमाने पर कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों में मानवाधिकार हनन हो रहा है, दलितों और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामलों में सरकारी तंत्र कोई कार्रवाई करने के बजाय हमलावरों के बचाव में जिस तरह लग जाता है, और कॉरपोरेट मीडिया तंत्र लोगों को इन चीज़ों की ख़बर तक नहीं देता, यह सब न केवल यह दर्शाता है कि हमारे समाज और राजनीति का संकट गंभीर रूप अखि्तयार कर चुका है बल्कि यह भी बताता है कि हमारे इस संवैधानिक-लोकतांत्रिक निज़ाम के अंदर ही इन सब चीज़ों के लिए गुंजाइश बन चुकी है और यह निज़ाम अब इसी दिशा में आगे जाये, इसकी तैयारी भी पूरी है। मौजूदा फ़ासीवादी मुहिम राज्य की इसी निरंकुशता को एक नयी आपराधिक आक्रामकता और स्थायित्व देने के लक्ष्य से संचालित है। इस संदर्भ में आने वाले आम चुनावों में फ़ासीवादी ताक़तों को नाकामयाब करना बेहद ज़रूरी है।

रोज़गारविहीन ‘विकास’ का जो मॉडल राज्य ने लागू किया है, उसने इस चुनौती को और विकराल बना दिया है। विस्थापन और बेदख़ली के ज़रिये संचय का नज़ारा आज का मुख्य नज़ारा है। देश के बेशक़ीमती प्राकृतिक संसाधनों और लाखों-करोडों़ की सार्वजनिक परिसंपत्तियों की बेरहम लूट और बर्बादी एक लंबे समय से जारी है। लोगों से खेत, जंगल, ज़मीन, पंचायती ज़मीनें छीनी जा रहीं हैं और खनन करने, राजमार्ग बनाने से लेकर बैंक, बीमा, जनसंचार, शिक्षा, स्वास्थ्य यहां तक कि डिफेंस जैसे क्षेत्रों को कॉरपोरेट पूंजी और विदेशी निवेशकों के हवाले करने के उपक्रम लगातार चल रहे हैं, जिससे असमानता बेतहाशा बढ़ी है और सामाजिक ध्रुवीकरण चरम बिंदु पर पहुंच रहा है। आबादियों के विशाल हिस्से उजड़ रहे हैं और रोज़ी रोटी के लिए वे मारे-मारे फिर रहे हैं। जिंदगी बसर करने के हालात कठिन से कठिनतर होते जा रहे हैं। अवाम की प्रतिरोध की ख्वाहिश को मुख्यधारा की सियासी पार्टियों का समर्थन लगभग नहीं मिल रहा। कई बार छोटे छोटे ग्रुप विभिन्न मुद्दों पर अपनी सीमित क्षमता के सहारे, कई बार बिना नेतृत्व के भी, लड़ते और कभी कभी थकते नज़र आते हैं। आदिवासियों, ग़रीब किसानों, दलितों, बेसहारा शहरी ग़रीबों, उत्पीडि़त स्त्रियों, अल्पसंख्यकों का विशाल जनसमुदाय मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिष्ठान की हृदयहीनता से हैरान और ख़फ़ा है, और उससे उसका भरोसा उठता जा रहा है। असंगठित, असहाय, हताश आबादियों और बेरोज़गार भीड़ों का गुस्सा अक़्सर आसानी से दक्षिणपंथी और फासिस्ट लामबन्दी के काम आता है। अस्मिता की प्रतिक्रियावादी राजनीति कई बार इसका उपयोग करती है। इसके लिए जहां वर्चस्ववादी अस्मिता की शासक वर्गीय राजनीति से लड़ना ज़रूरी है वहीं यह भी ज़रूरी है कि वंचित तबकों की प्रतिरोधी अस्मिता के सकारात्मक और जनतांत्रिक सारतत्व के प्रति हम ग्रहणशील हों और उसकी रक्षा करें और साथ ही वंचित तबकों की व्यापक जनतांत्रिक एकता के निर्माण की चुनौती को स्वीकार करें। हमें यह भी समझना होगा कि अल्पसंख्यकों में काम करने वाली फिरके़वाराना और दकि़यानूसी ताक़तें भी अन्ततः हिन्दुत्ववादी फासिस्ट मुहिम की खुराक़ और इसके विनाशक दुष्टचक्र को चलाने का औज़ार ही सिद्ध होती हैं। इसलिए साम्प्रदायिक फासीवाद से कारगर ढंग से लड़ने के लिए हर रंगत की साम्प्रदायिक, कट्टरतावादी और रूढि़वादी ताक़तों से एक साथ वैचारिक संघर्ष भी ज़रूरी है। इस वक्त़ जहां सियासी सतह पर वामपंथी और लोकतांत्रिक व सेक्यूलर ताक़तों और संगठनों की ऐतिहासिक जि़म्मेदारी है कि वे बिना वक्त़ गंवाये एकजुट हो कर मुक़ाबले की तैयारी करें, वहीं इसमें कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों, समाजविज्ञानियों, शिक्षकों, पत्रकारों और अन्य पेशेवर लोगों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होगी। राजनीति की अक्षमता का हवाला देकर हम अपनी जि़म्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते।

लेखक और कलाकार आज के हालात में लेखक-नागरिक और कलाकार-नागरिक ही हो सकते हैं, अपने क़लम और अपनी कला के साथ इस अवामी जंग में शिरकत करते हुए। सभी तरक्क़ीपसंद, जम्हूरियतपसंद और मानवतावादी सांस्कृतिक संगठनों की इस जंग में शिरकत लाजि़म है।

हम भूले नहीं हैं कि 1930 के दशक में जब हिंदी-उर्दू इलाक़े के इंक़लाबी नौजवान लेखक और लेखिकाओं की कोशिशों के नतीजे के तौर पर प्रेमचंद की सदारत में प्रोग्रैसिव मूवमेंट की बुनियाद पड़ी तो कुछ ही समय में यह पहल किस तरह एक विराट, बहुमुखी अखिल भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन में बदल गयी थी। भारतीय संस्कृति में मध्ययुग के बाद इस पैमाने का परिवर्तन नहीं हुआ था। उस समय, 1930 और 40 के दशक में यह दुनिया विकल्पहीन नहीं लग रही थी। सब एक बेहतर, न्यायपूर्ण समाज का सपना ही नहीं देख रहे थे, उसे पूरा करने की लड़ाई में हिस्सा लेने को तत्पर थे। यही दौर यूरोप और जापान मे फ़ासीवाद के उदय, स्पेनी गृहयुद्ध और दूसरे विश्वयुद्ध का भी था। दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ चले स्वतंत्रता आंदोलन हों या फ़ासिज्म़ का प्रतिरोध, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने उनमें अग्रगामी भूमिका अदा की। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्विरोधों के चलते जैसी क्षतिग्रस्त और खून में रंगी आज़ादी हमें मिली, उसके बावजूद हमारे फनकारों और अदीबों ने हिम्मत नहीं हारी और उपमहाद्वीप की जनता के दिल में प्रगतिशील मानव-मूल्यों को परवान चढ़ाने वाली रचनाशीलता की जगह बनायी। सिनेमा, रंगमंच, संगीत, चित्रकला और साहित्य में प्रगतिशील रचनाकारों ने जनमानस को नयी दिशा देने वाले काम किये जिनका असर आज तक हमारी ज़बान और बरताव में दिखायी देता है। उस समय प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं, उसके आगे चलने वाली मशाल है, या होनी चाहिए। हम इसी परंपरा के वारिस हैं।

आज एक बड़ी और नयी साहसिक पहलक़दमी की ज़रूरत है। फ़ासीवादी ताक़तें जिस पैमाने पर सक्रिय हैं, उसी पैमाने पर उनका जवाब देना होगा। छोटे मोटे वक्तव्य या प्रतीकात्मक कार्रवाइयों की भी अहमियत है, मगर इतने भर से इस जद्दोजहद में कामयाबी हासिल नहीं होगी। स्थिति की विडंबना है कि अभी भी ऐसे बहुत से मोर्चे हैं जिन पर सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें लंबे समय से उपस्थित और आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं, उन पर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक इदारों की सक्रियता नहीं के बराबर है। लेकिन इस कठिन घड़ी में भी फ़ासीवाद का मुकाबला किया जा सकता है, उसे रोका जा सकता है और यहां तक कि उसे शिकस्त दी जा सकती है बशर्ते कि हम इसके लिए एकजुट हो कर खड़े हों। तमाम विषम चुनौतियों के बावजूद अंतत: यह हमारा समय है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम साहित्यिक परिदृश्य में व्याप्त अपसंस्कृति से खु़द को आज़ाद करें, आपाधापी, आत्मपूजा, गुटबाज़ी, लालच और तुच्छताओं से ऊपर उठते हुए, संघर्षशील चेतना के साथ आसन्न चुनौती का मिलकर सामना करें। प्रतिरोध की शक्तियों के लिए यह समय गहन पारस्परिक संवाद, सहकार और एकजुटता का समय है। आज ज़रूरी है कि देशभर में (और ख़ासकर उत्तर भारत में) तमाम प्रगतिशील, जनवादी, सेक्युलर और सच्चे उदार मानववादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन और व्यक्ति, छोटे बड़े मंच और पत्र-पत्रिकाएं, लेखक, नाट्यकर्मी, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पी और समाजविज्ञानी एक वृहत्तर संजाल बना कर काम करें, नयी योजनाएं बनायें, वर्कशाप करें, हर फ़ोरम पर वैचारिक-सांस्कृतिक अभियानों को संगठित करें, प्रदर्शनियां तैयार करें, जत्थे निकालें और तमाम सांस्कृतिक कलात्मक व वर्चुअल माध्यमों और रूपों का उपयोग करते हुए साधारण लोगों को बड़े पैमाने पर संबोधित करें। फ़ासीवाद के कुटिल कुत्सित प्रचार-तंत्र का मुक़ाबला यही चीज़ कर सकती है।

हम इस देश की ज़रख़ेज़ सेकुलर सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत और नवजागरण की संपन्न मानवतावादी जनतांत्रिक और प्रगतिशील साहित्यिक परंपराओं के सच्चे वारिस हैं। ये विरासत कहीं गयी नहीं है। बस विस्मृति की धूल में दबी हुई है। प्रतिरोध का निश्चय करते ही वह हमारे लिए फिर से जी उठेगी और उसके अर्थ चमकने लगेंगे। स्वतंत्रता, समानता और जनवाद के लिए संघर्ष और कुरबानियों की अपनी महान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील विरासत की शान के मुताबिक इस कठिन समय में भी यक़ीनन व्यापक जनतांत्रिक शक्तियों के साथ एकजुटता से इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। हमें यक़ीन है कि अपनी प्रतिबद्धता, लगन, रचनात्मक कल्पना और आविष्कारशील प्रतिभा की मदद से हम अपनी इस भूमिका का कारगर ढंग से निर्वाह कर सकेंगे।
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Thursday, February 13, 2014

पेंगुइन को अरुंधति की फटकार



अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:

तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे।

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।

चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें? क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइन से छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।
-अरुंधति रॉय

Thursday, September 26, 2013

गणेश विसपुते की कविता


प्रयोगशाला

कुछ भी हो सकता है वहाँ
मतलब कुछ भी करवाया जाना
संभव होता है उनके लिए वहाँ
इल्जामों  के पौधे बोए जा सकते हैं
अफवाहों के फ़व्वारे उड़ाकर
उस कुहासे में
कवि के होने को न होना किया सकता है

कब्र हुई उसकी तो वह भी उखाड़कर
नामोनिशाँ मिटा दिया जा सकता  उसका
किसी को कानोंकान खबर नहीं होती
इबादतगाहों का क्या
गाँव तक ज़मींदोज़ किए जा सकते हैं
खांडववन का तो 
अच्छा-ख़ासा अनुभव है उनके पास
लिखा हुआ मिटाया जा सकता है
जो घटा नहीं वह लिखवाया जा सकता है

नष्ट की जा सकती हैं सदा हरी रहने वाली फसलें
सरकंडे उगाकर

बहुत ही अद्भुत है
उनकी प्रयोगशाला
बहुत प्राचीन है
उनके ज़हरीले रसायनों का वंश.



~ गणेश विसपुते 
मराठी कवि, चित्रकार, अनुवादक. आलोचना, कला और सिनेमा पर भी लेखन.
 
मराठी से अनुवाद- भारतभूषण तिवारी
चित्र यहां से