अन्यतम ख़ुशी के अन्यतम संघर्ष की दास्तान
अरुंधति रॉय का नया उपन्यास: द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस
(मर गई बुलबुल कफ़स में कह गयी सय्याद से......)
-शिवप्रसाद जोशी
धीरे धीरे हर व्यक्ति बनकर.
नहीं.
धीरे धीरे हर चीज़ बनकर.
(उपन्यास से)
द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस का कैज़ुअल हिंदी अनुवाद भी थोड़ा मुश्किल है. क्या ये हो सकता हैः अन्यतम ख़ुशी की विज़ारत? या अन्यतम ख़ुशी का समूह? यहां मिनिस्ट्री ठीक ठीक मंत्रालय की ध्वनि में नहीं है. इस मिनिस्ट्री के तार आदिम ईसाइयत से भी जुड़े प्रतीत होते हैं. वो वंचितों का बसेरा है जहां से ख़ुशी को संजोए रखने की जद्दोजहद चलती है तो वो कोई मंत्रालय तो नहीं है. उपन्यास में ये तमाम ऐसे साधारण नागरिकों का एक बिखरा हुआ लेकिन किसी न किसी मोड़ पर एकजुट समूह है जो मुख्यधारा के समाज से अनाधिकारिक तौर पर बहिष्कृत हैं.
सामाजिक अलगाव ने उन्हे बाहरी किनारों पर फेंक दिया है. लेकिन किनारों को ही वे लोग अपना आशियाना बना चुके हैं और अपनी एक जन्नत उन्होंने बना ली है. उपन्यास में ये जन्नत गेस्ट हाउस ही है जो बेघरों, संदिग्धों, उत्पीड़ितों, हिजड़ों, नशेड़ियों, फक्कड़ों, ड्राइवरों, गायकों, लेखकों और एक्टिविस्टों का ठिकाना बन जाता है. वे अपनी निजी ज़िंदगियों की उथलपुथल से लड़ते भिड़ते हुए निकलते हैं और उम्मीद की मद्धम रोशनियों की दुनिया में दाखिल होते हैं. वे बहुत सारी भाषाएं बोलते हैं, बहुत सारे तरीकों से खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वे विस्फोटक गालियां देते हैं, वे कब्रिस्तान को एक ऐसी जगह बना देते है जहां ख़ुशी, उत्सव और मोहब्बत का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है, दुख और तकलीफ़े भी जैसी इस अन्यतम ख़ुशी की शाखाएं हैं. उसी से फूटी कुछ राहे हैं जो आगे जाकर लौट आती हैं. ख़ुशी यहां कोई स्थूल भाव नहीं है, वो किरदारों का आंतरिक सौंदर्य है. उनकी विचारधारा है. क्योंकि इसका जन्म एक अघोषित एकजुटता से हुआ है. अरुंधति इस तरह उपेक्षितों का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं.
कथा के भीतर कथा और उसके भीतर भी एक कथा है और उसके भीतर भी एक कथा. उस सबसे भीतरी कथा की आंतरिकता भी एक कथा से बनी है जिसके उस कथा का बाह्य निर्मित हुआ है. इस तरह जैसे मात्र्युश्का का जादू हो. गुड़िया के भीतर गुड़िया. तहें. परतदार जीवन. दिल्ली की परत के ऊपर गुजरात की परत, उस परत पर कश्मीर की परत, उस परत पर मध्य भारत की परत, फिर तेलंगाना, आंध्रप्रदेश की परत. और भूगोल की परतें ही नहीं. किरदारों की भी. आफताब पर अंजुम की परत. मिस जेबीन प्रथम पर मिस जबीन द्वितीय की परत और उस जेबीन द्वितीय पर उदया की परत. विश्वास पर हर्बर्ट की परत. मूसा पर उसके विभिन्न रूपों की परत. ये रिश्तों का और किरदारों का जैसे एक नक्शा है. शहर भी एक किरदार की तरह शामिल है. लकीरें कहीं से खुलती कहीं उतरतीं और मुड़ती हैं. अरुंधति एक एक किरदार को जैसे पूछने बैठी हैं. वे अपनेआप उठते हैं और अपना रोल अदा करने निकल जाते हैं. लेखक उन्हें फॉलो कर रहा है. इस नॉवल की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसमें इतने सारे लोग, इतने सारे जीव, इतने सारे जानवर, पशु-पक्षी, फल-फूल और वनस्पति हैं कि जैसे कोई एक पूरी मुकम्मल पृथ्वी उन पन्नों पर फूट रही है.
अरुंधति अपनी कल्पना के यथार्थ में एक ऐसा सामूहिक जीवन देख रही हैं जहां सबके लिए जगह है. आवाजाही है. और सांस है. हमारी पाठक नज़र को इतनी सारी चीज़ें पहले शायद कभी नहीं मिली थीं. या वो तोल्स्तोय में ही मिली होंगी या मार्केस में. ये अनायास नहीं है कि आलोचक इतने किरदारों की आमद से बहुत प्रसन्न नहीं है. लेकिन ये जो हम लोग हैं, इतने बहुत सारे, इस वास्तविक जीवन में, इस विदग्ध समय में, हम कहां जाएं? अपनी आमद को वापस खींच लें?
प्रेम इस उपन्यास का केंद्रीय तत्व है. इस उपन्यास की धुरी. उसके आसपास सारी तबाहियां हैं. सारी खुराफातें सारे बुखार. इस प्रेम का निर्माण किया है एक अवर्णनीय उद्विग्नता है. उत्ताप सपने और बेचैनियां और अपनी कौम को बचाने की कामना, आसमान पर बिना हिलेडुले टंग गए कौवे की तक़लीफ़ की शिनाख्त, एक ऐसे नागरिक बोध के बारे में बताती है जो हम इधर अपने मध्यवर्गीय गुमानों में भूल गए हैं. हमारी एक नकली जन्नत है, अगर वो है कहीं. हमने अपने जीवन में कभी उसे नहीं देखा है. बेशक उसके लिए मालअसबाब जुटाए हैं, धार्मिकताएं और जुलस जलसे किए हैं, रोज बुदबुदाए हैं और घंटे घड़ियाल बजाए हैं. वो हमें नही मिली. अरुंधति के किरदारों ने उसे बनाया है. वो कहीं रखी नहीं मिली है. उसे अंजुम और सद्दाम हुसैन की बेचैन आत्माओं ने ढूंढा है और संवारा है. उनके साथ अराजकों का एक कुनबा है, तिलोत्तमा है, अंजुम की गोद ली बेटी जैनब, डॉ आज़ाद भारतीय, बूढ़ा मोची, निम्मो गोरखपुरी, उस्ताद हमीद, सईदा, इशरत, डॉ भगत, मिस जेबीन द्वितीय, इमाम ज़ियाउद्दीन और वे अपने हैं और अपनों को अपने हैं जो जन्नत गेस्टहाउस के इर्दगिर्द दफ़न हैं. उसमें उस्ताद हमीद का संगीत है. पहले जैनब और फिर मिस जेबीन द्वतीय की किलकारियां हैं, पायल घोड़ी की इतराहट है, बीरू कुत्ते का आलस है और कॉमरेड लाली की नरम भौंक. इस कब्रिस्तान में ही इस तरह का एक जीवन संभव है जहां मनुष्यों के साथ पशुओं पक्षियों फूलों और वृक्षों का वास है. यहां तक कि गेस्ट हाउस की दीवारें, कब्रें, छत, भी जैसे इस जीवित धड़कते संसार में एक प्राणयुक्त उपस्थिति हैं. एक अपरिहार्य सूत्र में सब बंधे हुए हैं. प्रेम का नहीं तो फिर किस चीज़ का ये सूत्र होगा. व्यक्तियों के बीच ही नहीं, जगहें और भूगोल भी इस सूत्र में गुंथे हुए हैं. अरुंधति शायद पहली लेखक होंगी जिनकी रचना में दिल्ली ख़ासकर पुरानी दिल्ली और राजधानी का हाशिया इतनी सूक्ष्म डिटेल्स के साथ आया है. ये ज़बर्दस्त ऑब्सर्वेशन है. और ये सिर्फ़ लेखकीय नोट्स का मामला नहीं है. इसे सहा गया है. हर धूल का ब्यौरा है. हर दीवार हर फुटपाथ हर गली हर झुग्गी. एक ऐसा समय जब, “महादेश की मूर्खता अविश्वसनीय दर से बढ़ती जा रही थी और उसे तब किसी सैन्य क़ब्ज़े की ज़रूरत भी नहीं थी.”
कश्मीर की दास्तान को सुनाने के लिए फिक्शन का सहारा लिया गया हो, बात ये नहीं है. बात ये है कि फिक्शन ही इस दास्तान के जरिए रचा गया है. एक ऐसे समय में जब, कवि मंगलेश डबराल के शब्दों में ‘यथार्थ बहुत ज्यादा यथार्थ’ हो तो कल्पना ही एक नया वैकल्पिक यथार्थ बन जाती है. नॉवल को पढ़ते हुए जादुई यथार्थ की जैसी बुनावट प्रतीत होती है लेकिन जैसा कि अरुंधति ने कहा है ये कुछ अलग ही यथार्थ है जो जादुई हो गया हो सकता है. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स और द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में 20 साल का फासला है. भाषा और बनावट का भी उतना ही बड़ा फासला है. या इस फ़ासले को आप किसी मेज़रमेंट में नहीं ला सकते हैं. लेकिन कुछ समानताएं हैं. सतह पर अस्पष्ट लेकिन मर्म में उद्घाटित. द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स, द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में विलीन हो जाता है. मामूली चीज़ों का देवता, अन्यतम ख़ुशी के समूह में बाख़ुशी अपनी जगह पा जाता है. बाज़ दफ़ा ये मिनिस्ट्री ऑफ़ स्मॉल थिंग्स है. कब्रिस्तान में मामूली चीज़ें मामूली लोग मामूली देवता मामूली जानवर, मामूली वनस्पतियां, मामूली खुशियां मामूली दुख एक मामूली से मंत्रालय का सृजन करती हैं. जो एक गैरमामूली जीवन और गैरमामूली संघर्ष का प्रतीक है. अगर किसी को लगता है कि नये नॉवल में अरुंधति ने बड़े प्रतीकों का सहारा लिया है, तो वे शायद गलत होंगे. इसके लिए उपन्यास को एकबारगी पढ़कर किनारे रख देना काफ़ी नहीं होगा. नॉवल उन उपन्यास की दो या तीन रीडिंग्स चाहिए तब आपको सहज ही ये अंदाज़ा लग जाएगा कि मामूली चीज़ें और मामूली लोग ही इस उपन्यास की असाधारणता की हिफ़ाज़त करते हैं. यहां तक कि अमलतास का पेड़ भी भी दिल्ली की जानलेवा गर्मी और लू के थपेड़ों के ख़िलाफ़ उतप्त खड़ा है. “अमलतास का फूल खिलता है एक चमकदार, सुंदर, जिद्दी फूल. हर झुलसाती गर्मी में ये ऊपर उठता है और गरम भूरे आसमान को फुसफुसा कर कहता हैः फ़क यू.”
नॉवल एक सिनेमाई नैरेटिव की तरह भी हमारे भीतर गूंजता है. दृश्यों पर ये पकड़ बहुत विशिष्ट है. आपको व्यथा का वर्णन नहीं करना है, उसका दृश्य दिखाना है. ये ख़ूबी है. 2014, 2004, 2002, 1990 का दशक, यूपीए सरकार, तत्कालीन प्रधानमंत्री, कॉरपोरेट, इकोनमी, ठुंसा हुआ सब कुछः किताबों से लेकर कला तक और इन्हीं सब के बीच गुजरात का लल्ला, मंदिर, ईंटें और भगवा झंडे. भगवा जुलूस, भगवा हाहाकार, और भगवा सुग्गे (पैराकीट). लुटीपिटी और बरबाद अंजुम कब्रिस्तान का रुख़ करती है तो ये दृश्य जैसे पेज पर नहीं पर्दे पर घटित हो रहा है. “बूढ़े परिंदे मरने के लिए कहां जाते हैं?” नाम का पहला अध्याय इस तरह शुरू होता हैः
“वो कब्रिस्तान में एक पेड़ की तरह रहती थी. भोर में वो कौवों को विदा करती थी और चमगादड़ों के घर लौटने का स्वागत करती थी. सांझ में वो इसका ठीक उलटा करती थी. पालियों के दरम्यान, वो गिद्धों के प्रेतों से गप करती थी जो उसकी ऊंची शाखाओं में मंडराते रहते थे. उनके नाखूनों की नरम जकड़ को वो एक कटे हुए अंग पर दर्द की तरह महसूस करती थी. उसने पाया कि अलग होकर कहानी से निकल जाने को लेकर वे कुल मिलाकर नाख़ुश तो नहीं थे.”
“जब वो पहली बार आई, तो फ़ौरी क्रूरता के कुछ महीने उसने वैसे ही सहन किये थे जैसा एक पेड़ करता ही है- बेहिचक, अडिग.” वो ये देखने के लिए नही मुड़ती थी कि किस छोटे लड़के ने उसे पत्थर मारा, अपनी छाल पर अपमान की खरोंचों को पढ़ने के लिए वो गर्दन नहीं निकालती थी. जब लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया, उस पर फ़ब्तियां कसीं- बिना सर्कस की जोकर, बिना महल की रानी- तो वो अपनी चोट को अपनी शाखाओं के बीच से एक झोंके की तरह बहा देती थी और अपने सरसराते पत्तों के संगीत को दर्द कम करने वाले बाम की तरह इस्तेमाल करती थी.”
और जन्नत गेस्ट हाउस के वे उत्सव, वे मौजें, वे दावतें- फ़ेदेरिको फ़ेलिनी की “ला स्त्रादा” की याद दिलाती हैं. बरबादियों से उठकर जीवन राग फैल जाता है. भारतीय लेखकों में अरुंधति रॉय ने अपने फ़िक्शन को एक रोमानी कथानक से आगे दर्द और लड़ाई की तफ़्सील कुछ ऐसे निराले ढंग से बना दी है कि उनके साहस का अनुमान लगाया जा सकता है. वहां एक ऐसी फटकार है जिससे किसी को निजात नहीं. पुरानी दिल्ली के शाहजहांबाद में जहांआरा बेगम के घर, हजरत सरमद शहीद की दरगाह, उस्ताद कुलसुम बी की ख्वाबगाह, कब्रिस्तान और उसकी जन्नत, जंतरमंतर, मेजर अमरीक सिंह का यातना कक्ष, डल झील की हाउस बोट, नागराज हरिहरन यानी नागा का विशाल घर, या बिप्लब दासगुप्ता यानी गरसन होबार्ट का मकान और तिलो को किराए पर दिया कमराः हर जगह एक फटकार जैसे बरस रही है. और हिसाब मांग रही है. उत्पीड़ितों की आहें कभी हंसती है कभी रोती हैं चक्कर काटती रहती हैं, दिल्ली और सत्ता के दुष्चक्रों में फंसी हुई अंततः वे मानो पुराने परिंदों की तरह कब्रिस्तान के किसी पेड़ में जा अटकती हैं, वहां फड़फड़ाती हैं. जहां एक स्त्री है. “वो जानती थी कि वो लौटेगा. भले ही ये जटिल पहेली थी लेकिन उसने देखते ही अकेलेपन को पहचान लिया था.. उसने भांप लिया था कि कुछ अजीब ऊपरी तौर पर उसे उसकी छांह की उतनी ही ज़रूरत थी जितना कि उसे थी. और उसने अनुभव से जाना हुआ था कि ज़रूरत एक गोदाम थी जिसमें अच्छीख़ासी मात्रा में क्रूरता को भरा जा सकता था.”
शेक्सपियर के शुरुआती प्रभाव के बाद तोल्सतोय और जॉन बर्जर जैसे लेखकों से अरुंधति रॉय प्रेरित रही हैं. नॉन फ़िक्शन में उन्हें एडुआर्डो गालियानों का लेखन प्रभावित करता है. “ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका,” इस उपन्यास में ओपन वेन्स ऑफ़ कश्मीर भी बन जाती हैं, और ओपन वेन्स ऑफ़ डेहली भी. फर्क यही है कि गालियानो का वो दस्तावेजी गद्य है जिसमें रक्तरंजित दास्तान और मूल निवासियों के संघर्ष की तफ़सील है और अरुंधति का ये फ़साना है जिसमें यथार्थ और कल्पना घुलमिल गए हैं. षडयंत्रों और मुठभेड़ों और हत्याओं और प्रदर्शनों की धमधम दिल पर गुजरती धमधम है. जैसे टूटा कोई एक पुल या घर नहीं बल्कि एक ख़्वाब है. कश्मीर पर सैन्य अतिवाद का सामना एक प्रेम कहानी करती है जो बंदूक के साए में ही नहीं बल्कि मजारों, कब्रों, बागीचों, फलों के बागानों, फूलों के पेड़ों और घाटी और नदी और झील के अंधेरों उजालों और झिलमिलाहटों और जगमगाहटों और करुण पुकारों के बीच मंडराती हुई सी है. कोई तितली अपने विशाल पंखों के साथ फड़फड़ाते हुए स्वप्न, स्मृति और यथार्थ के कश्मीर में यहां से वहां उड़ रही है. बमों, बारुदी सुरंगों, बंदूकों, और यातना गृहों की चीखों के गुबार को काटते हुए अपनी उड़ान बनाती हुई. सबसे ऊपर आख़िरकार मोहब्बत और जज़्बा और जुनून है. मेजर अमरीक सिंह की बर्बरता भी मानो इस मोहब्बत के आगे ढेर हो जाती है. वो दूर अमेरिका जाकर परिवार सहित अपनी जान लेता है. कोई दुश्मन नहीं कोई हमला नहीं कोई साज़िश नहीं फिर क्यों दुर्दांत अमरीक सिंह अपने ही हाथों मारा जाता है, ये जैसे किसी शाप से पीछा छुड़ाने की यातना का आखिरी जायज़ अंत है. अपनी ही क्रूरता का प्रेत.
अरुंधति के उपन्यास के बारे में कहा जा सकता है कि ये बेसिरपैर का है. इसमें भावुकताएं और घिसापिटा तानाबाना है. ये एक तेज़ ड्रामा और थ्रिल वाली मसाला फिल्म है. जिसमें गालियां और सेक्स और उत्तेजना और एक्शन के छींटे हैं. इसमें भाषायी सजगता और गद्य का अनुशासन नहीं है. आख़िरी बातें इतनी जल्दी पूरी कर ली गई हैं मानो लेखिका उकता गई है, ब्यौरों और वर्णनों से और उसका धीरज टूटा है या अंत स्थिरता में नहीं हड़बड़ी का है. ये भी कह देना मुमकिन है कि अरुंधति ने एक “सेक्युलर” नॉवल लिखा है. एक सेट टार्गेट पाठक को ध्यान में रखकर. पश्चिम के पाठक को ध्यान में रखकर इसमें करुणा, अहिंसा, सर्वधर्म सद्भाव, पशु-पक्षी प्रेम और ईसाइयत की प्रचुरताएं जानबूझ कर हैं. ये भी कहा जा सकता है कि ये अरुंधति के अहम का उपन्यास है. इसमें उनका अहंकार बिखरा हुआ है. और ये भी कि कश्मीर पर रिपोर्ताज को नॉवल का हिस्सा बड़ी चतुराई से बनाकर अरुंधति ने एक तीर से दो निशाने या ज़्यादा या न जाने कितने निशाने साधने की कोशिश की है. क्या पुरस्कार भी कोई निशाना है. आदि आदि. उनके उपन्यास की आलोचना में ये कहा गया है कि इसमें बहुत सारे पात्र बहुत सारी आवाज़ें बहुत सारा शोर है. ये फंतासी, यथार्थ और साक्ष्यों का एक घोल सरीखा है. अरुंधति की आलोचना में ये भी कह दिया गया है कि इस उपन्यास पर उनकी निबंध शैली और उनके निबंध तेवरों का प्रभाव है. ये गल्प नहीं है. आलोचनाएं अपनी जगह हैं. निंदाएं भी. एक सही किताब एक सही आलोचना की हकदार है. आक्षेपों की नहीं. आलोचना, जब आक्षेप बन कर आती है तो वो हिसाब बराबर करने जैसा मामला बन जाता है. ठोस आलोचना ऐसी नहीं होती. उसमें जीवंतता और पारदर्शिता होती है. वो लेखक की छानबीन करती है. वो पंक्तियों से और विवरणों से साक्ष्य जुटाती है और औजार जुटाती है. वो सुपठित और व्यापक और तीक्ष्ण होती है. उसे इस उपन्यास की अंजुम की तरह खुरदुरा और नाजुक, सच्चा और साहसी, निर्भय और बेलौस होना होगा. हम आगे बढ़ते हैं.
द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस में उछाड़ पछाड़ है. औपन्यासिक पैटर्न को रिलीजियसली फॉलो नहीं किया गया है. कुछ आलोचक कहेंगे कि अरुंधति ने सबकुछ समेटने के चक्कर में भाषा और नैरेटिव का संतुलन खो दिया. लेकिन आप ध्यान से नॉवल की रीडिंग लेंगे तो आप जानेंगे कि ऐसा जानबूझकर होने दिया गया है. सेट पैटर्न नहीं है. तोड़फोड़ है. अरुंधति ने अपनी कहानी को पूरी तरह से उसके किरदारों के हवाले कर दिया है. ये एक बहुत बड़ा जोखिम है. उनके हाथ में डोर है तो सही लेकिन उसका लगता है कोई बहुत इस्तेमाल करने की इच्छा उनकी नहीं रही होगी.
उपन्यास ऐसे भी लिखा जा सकता है. अपनी आलोचना कराता हुआ. लेकिन अंदर ही अंदर अपना काम करता हुआ. आलोचना का भी ये कड़ा इम्तहान है. सब्र चाहिए. देखिए कि लेखिका ने आपके लिए जानबूझकर वे सवाल रख छोड़े हैं. क्या मक़सद हो सकता है. क्या चाहती हैं वो. क्या ये पाठ में डूबने का एक विलक्षण और अजीबोग़रीब सा न्यौता है. गहराई का अंदाज़ा लगाना है तो डूबिए. ऊपर से तो नादानियां और कमियां और लूपहोल्स हैं. लेखक ऐसा ‘जाल’ भी बिछाता है! सोचिए. मेहनत और जज़्बे और पाठ का जाल! किसी लेखकीय बाजीगरी का नहीं बल्कि उसे खींच लाने का. कुछ आलोचक इस ‘जाल’ में फंसते हैं और वे लिखते हैं जो आमफ़हम है. लेकिन चुनौती इस ‘जाल’ को हटाने की है. अब सवाल ये है कि आखिर इस ‘जाल’ की ज़रूरत ही क्या है. तो बात यही है जो इस नॉवल ने रचाई है. वो इतनी आसानी से पकड़ में नहीं आना चाहता जबकि है वो इतने ‘मामूली’ लोगों की तफ़्सील. अरुंधति इस लिहाज़ से नटखट हैं.
अरुंधति के नॉवल में ‘हड़बड़ी’ है. एकदम संज्ञा की तरह, जैसी कि वो होती ही है, और वो ज़रूरत से नहीं स्वाभाविक रूप से होती है. बेचैनियां बनाती हैं उसे. कौन ‘संवेदनशील’ नहीं चाहेगा तिलो की तरह उस विशाल विलासी इलीट पारिवारिक जीवन से निकलकर अपनी एक थरथराती ऊब में लौट आने को. ये एक मानवीय हड़बड़ी है. जल्दी से कहीं पहुंच जाने का भी और देर तक वहीं कहीं किसी कुर्सी या किसी कब्र के पास बैठ जाने का भी इंतज़ार है. कथाओं-उपकथाओं-अंतर्कथाओं का कोई छोर नहीं है. वे शुरू एक पेड़ से होती हैं और शहर की रोशनियों पर ख़त्म होती हैं. लेकिन ये भी देखिए कि वे एक स्त्री से शुरू होती हैं और अनेक स्त्रियों तक जाती हैं. पूरा कहना भी जैसे अधूरी बात कहना है क्योंकि कथाएं शहर के नक्शे की तरह हैं. उनके प्रवेश और निकास का किसी को अंदाज़ा नहीं. ख़ुद लेखक की भी जैसे कोई इच्छा नहीं. वो बाज़दफ़ा लापरवाह है, भटकता हुआ, घिसटता हुआ, कहीं न जाने कुछ न बताने की घुप्प चुप्पी से घिरा हुआ. लेकिन वो आगे बढ़ता तो है. वो भी किरदारों की रचाई जा रही करामात में भागीदार है. लेखक के तौर पर ये अरुंधति की कामयाबी है कि उन्होंने किरदारों से अपनी बात नहीं कहलवाई है, वे भुगतते हुए सहमे हुए वंचित लोग हैं, अपनी बात को अपने उखड़े हुए ढंग से कहते हैं. वे ज़बान से भी उखड़े हैं और जगह से भी. कश्मीर की दास्तान में नक्सल बेल्ट की दास्तान घुलमिल जाती है और गुजरात की भी. दिल्ली की भी और दिल्ली में रहने वाले किन्नर समुदाय की भी. ये कई सारी दास्तानों का मानो जंतरमंतर है. आपको खुद की तलाश करनी है और खुद को पाना है. इस तरह क्या अरुंधति ने दो उपन्यास, एक बुकर अवार्ड, एक पटकथा और नॉन फ़िक्शन में राजनैतिक निबंधों की सात तूफ़ानी और उत्पात मचाती किताबें लिखकर, अपने लिए और इस देश के लिए आगामी समयों के नोबेल दावे में जगह बना ली है, कहना मुश्किल है लेकिन ये मानना न दूर की कौड़ी है न अतिरंजना. इंतज़ार करना चाहिए.
इस उपन्यास की एक ओर ख़ूबी है. इसका लचीलापन. पहला अध्याय अनिवार्यतः पहला अध्याय नहीं है. न ही आखिरी अध्याय आखिरी. आख़िरी वाक्य भी जैसे उपन्यास की शुरुआत है. वो पुनर्पाठ की बेकली जगाता है. बीच से आप इस उपन्यास का कोई पन्ना खोले. वहां से कहानी उभरने लगती है. मिसाल के लिए, 438 पृष्ठों वाली किताब का मैं 283वां पेज खोलता हूं और मेरी नज़र एक शीर्षक पर पड़ती है- “नथिंग”- कुछ नहीं. “मैं उन परिष्कृत कहानियों में से कोई कहानी लिखना चाहती हूं जिसमें भले ही बहुत कुछ न होता हो तो भी लिखने को बहुत कुछ रहता है. कश्मीर मे ये नहीं किया जा सकता है. जो वहां होता है, वो सफ़िस्टिकेटड नहीं है. अच्छे साहित्य के सामने बहुत ज़्यादा ख़ून है.” यहीं पर हम एक बार फिर गालियानो को याद कर सकते हैः लातिन अमेरिका की उधड़ी हुई नसों से जिनका गद्य रिसता है. एक बच्ची जो आदमी की देह में एक औरत की तरह बड़ी हो रही है, हो रहा है, हो रही-हो रहा है. पता नहीं कैसे उस वेदना को समझाएंगे जिसे वो आफताब से अंजुम बनी किन्नर ही जानती है जिसकी एक अदम्य चाहत ये है कि वो, “नेल पॉलिश से सजा और चूड़ियों से भरी कलाई वाला हाथ निकाले और मोलभाव करने से पहले, नाज़ुक अंदाज़ में मछली का गलफड़ा उठाकर देखे कि वो कितनी ताज़ा है.” इस उपन्यास में घटनाओं और स्थितियों की बेचारगियों के बावजूद कोई भी किरदार दयनीय नहीं है. वे दया नहीं मांगते. दलित युवक दयाचंद उर्फ़ सद्दाम हुसैन निजी सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड रह चुका है. राष्ट्रीय कला संग्रहालय में इस्पात के एक इंस्टालेशन की एकटक सुरक्षा, और स्टील के चमकते विशाल पेड़ पर सूरज की रोशनी ने उसकी नज़र तबाह कर दी है. उसे रात में भी आंख में दर्द होता है और पानी बहता है लिहाज़ा वो हर वक्त काला चश्मा पहने रहता है. लेकिन काले चश्मे वाला ये हमारा सबसे बिंदास और बहादुर और चपल और चतुर नायक है. सफेद घोड़ी पायल पर सवार होकर वो मानो कोई अघोषित रॉबिनहुड या कोई आदिवासी देवता है. मध्य भारत के जंगलों में भटकती नक्सली कॉमरेड रेवती, बलात्कार की शिकार होकर भी और समूह से अलगाई जाने के बावजूद अंत में बंदूक के साथ ही मरना चाहती है. क्योंकि वही उसका अब सच रह गया है. बलात्कार से पैदा हुई बेटी को जन्म के कुछ समय बाद ही वो जंतरमंतर पर छोड़ आती है. जहां से उसे नाटकीय हालात में जन्नत गेस्ट हाउस में अंजुम मैडम के पास ले आया जाता है. मिस जेबीन द्वितीय का नाम धारण करते हुए, वास्तविकता पता चलने के बाद मिस उदया जेबीन कहलाती है. इंटेलिजेंस ब्यूरो में सरकारी कार्यभार से लस्तपस्त बिप्लब भी आखिरकार अपने से लड़ता है, अपने कमरे में प्रेम और विवशताओं में छटपटाता एकालाप करता है. आखिर में वो भी आगे बढ़ने के लिए कोई दया नहीं, एक ड्रिंक चाहता है. जहांआरा बेगम, जो बेटा चाहती है लेकिन उसकी कोख में आती है एक लड़की जिसकी योनि बंद है. वो भी आफ़ताब से अंजुम तक के सफ़र में कहीं भी आत्मदया से पीड़ित नहीं है. एक ख़ूबसूरत, खुद्दार साहसी बेलाग बिंदास किन्नर के रूप में ख्याति पाती है और एक दिन किन्नरों के प्रसिद्ध ठिकाने को छोड़कर अपना जहां बना लेती है. तिलोत्तमा, प्रेम करती है. सच्चाई का साथ देती है. नाइंसाफ़ी से अपने ही अंदाज़ में टकराती है. आरामदायक जीवन ठुकराती है और कब्रिस्तान के उस घर में शरण लेती है जहां उसे आख़िरकार लगता है कि उसके होने का कोई अर्थ है, उसकी एक आत्मा है और उस दिन वो एक बहुत लंबी रात की गिरफ़्त से मुक्त हुई है. “अपनी ज़िंदगी में पहली बार, तिलो को महसूस हुआ था कि उसकी देह में अपने तमाम अंगों को एकोमोडेट करने के लिए पर्याप्त जगह थी.”
सारे पात्र जैसे अपने अपने युद्ध के लिए तैयार हैं. इस तरह ये नायकीय किरदारों का नॉवल है. अरुंधति से सीखना चाहिए कि स्त्री अधिकारों की सच्ची पुकार किसे कहते हैं. इसके लिए आपको उत्तर-नारीवादी नारों की आड़ में जाने की ज़रूरत नहीं है. आपको बस अपना जीवन देखना और जीना आना चाहिए. मुक्ति के मायने समझाने वाला नॉवल ये है. वो कैसे एक अमिट इच्छा बन जाती है. एक नया निशान. जहां ट्रांसजेंडर औरतों या हिजड़ों का उत्पाती या जघन्य ‘स्त्रीत्व’, जैविक वास्तविक औरतों के स्त्रीत्व से कमतर नहीं. उपन्यास में कुल 12 अध्याय हैं. द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस नाम से दसवां अध्याय है. अध्याय से पहले, नादेज़्दा मंदलस्ताम का एक कोट आता हैः “फिर मौसम बदलने लगे. ‘ये भी एक सफ़र है, एम ने कहा, ‘और वे इसे हमसे छीन नहीं सकते हैं.’
द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस, एक लगातार बनी हुई सिहरन है. या तो आप इश्क में कांपते हैं या ख़ौफ़ में या हमले में या अपना सच खोज लेने में या शांति पा लेने में या फिर नयी दुनिया बसा लेने की उम्मीद में. एमओयूएच, धकियाए गये खदेड़े गये लौटाए गये मारे गये सताए गये समुदायों में एक उम्मीद की कामना है. वे चीखते नहीं है चिल्लाते नहीं है रोकर बिखर नहीं जाते हैं. उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता है. वे फिर जमा हो जाते हैं. वे आंतरिक एकजुटता के माहिर लोग हैं. मिट्टी के लाल. उन्हें एक सुंदर सहज जीवन की एक साधारण सी आकांक्षा हैं. उनकी दास्तानें हमें जख़्मी भी करती है. दिल पर एक भारी पत्थर बजता रहता है. धम धम. धम धम. किन्नर जीवन, दंगे, मुसलमानों पर हमले, जंतरमंतर से लेकर मध्य भारत के जंगलों के आंदोलनों तक की तपिश, आग और हिंसा, नफ़रत, विभाजन, प्रेम और त्रासदियां. ख़ुशी जैसे एक औजार भी है और आगामी लड़ाइयों के लिए एक हथियार भी. वो एक वासना नहीं है. वो चाहत है लेकिन उसमें एक निरर्थक खोखला नकली आशावाद नहीं है. वो एक बहुत दुर्लभ उम्मीद है जो उलटा आशावाद से आगाह ही कराती है. इस उम्मीद को नॉवल में दो महत्त्वपूर्ण उल्लेखों से समझ सकते हैं. आखिरी पेज में रात की रोशनियों में शहर घुमाने अंजुम, मिस जेबीन द्वितीय यानी मिस उदया जेबीन को ले जाती है, एक जगह उदया कहती है उसे सूसू लगी है. वो सड़क किनारे पेशाब कर खड़ी होती है तो उसके पेशाब के छोटे से तालाब में तारे और एक हज़ार साल पुराना शहर दमकने लगता है. नॉवल का एक्टिविस्ट और सरकार सेना गठजोड़ की फ़ाइलों में आतंकी मूसा, अलविदा कहने से पहले अपने पूर्व सहपाठी और आलोचक और पूर्व इंटेलिजेंस अधिकारी बिप्लब को संबोधित हैः “एक रोज़ कश्मीर, भारत को आत्मविनाश पर विवश कर देगा. तुम हमें तबाह नहीं कर रहे हो हमें निर्मित कर रहे हो. तुम खुद को तबाह कर रहे हो.” जब वो धीरे धीरे मद्धम नीची आवाज़ में लेकिन पूरी गहराई और सघनता के साथ ये बात कहता है तो एक सिहरन दौड़ जाती है, फिर फ़्रायड का विख्यात कथन ख़्याल में आता हैः डि श्टिमे डेर फ़ेरनुन्फ्ट इस्ट लाइज़े, आबर ज़ी रूह्ट निश्ट एहे ज़ी सिश गेह्योर फरशाफ्ट हाट. (The voice of Reason is low, but it does not rest until it is heard.)
और आख़िर में एक शेर. ये जैसे नॉवल में बिखरे हुए कल्पनातीत आशावाद का झंडा थामे हुए है. ये हमारी अभिजात नरमदिली और भौतिक और बौद्धिक नफ़ासत और भद्रता को जैसे डंक मारता है. मिट जाने की गरिमा के सामने किसी तरह जिए जाने की फजीहत की पोल खोलता है. ये अपना मखौल उड़ाता है. ये एक निर्भीक देसीपना है. डॉ आज़ाद भारतीय ने जेल में पुलिस पूछताछ के दौरान ये शेर सुना दिया था. और हर सवाल और हर पिटाई के जवाब में वो यही शेर कहते गए. उनसे सीखकर बाद में तिलोत्तमा ने अपने प्रेमी मूसा को जन्नत गेस्ट हाउस में ये शेर उस रात सुनाया था जिसके बाद उन्हें फिर कभी नहीं मिलना थाः
“मर गई बुलबुल कफ़स में/ कह गई सय्याद से/ अपनी सुनहरी गांड में/ तू ठूंस ले फस्ले-बहार”
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समयांतर से साभार