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Wednesday, June 20, 2018

मुक्तिबोध — उत्पीड़न और नायकत्व : असद ज़ैदी


('नया पथ' का मुक्तिबोध विशेषांक मुझे बहुत देरी से हासिल हो पाया। इस पत्रिका में छपा असद जी का यह लेख मुक्तिबोध के उत्पीड़न और हिंदी साहित्य व विचार की दुनिया में उनकी 'प्रधान उपस्थिति' का उल्लेख करते हुए 'नेहरू युग' को लेकर चली आ रही रुमानियत भरी छवि को भी ध्वस्त करता है,  'वामपंथी सांस्कृतिक धारा' की विडंबनाओं और को सामने लाता है और पुनर्विचार प्रोजेक्ट के नाम पर 'फ़ासिस्ट धमकी' से आगाह करता है। इस लेख में एक 'मर्मभेदी' ज़िक्र यह भी आया है कि मुक्तिबोध की एम्स में मृत्यु के बाद उनका शव उस शख़्स के सरकारी आवास पर रखा गया जिसने 'अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी'। उनकी स्मृति में पहली गोष्ठी भी इसी ठिकाने पर हुई। लेख में उस शख़्स का नाम नहीं आया है पर एक ज़माने में 'इंडिया टुडे' की साहित्य वार्षिकी के पाठक रहे लोगों को याद होगा कि अशोक वाजपेयी ने इस सिलसिले में प्रभाकर माचवे का नाम लिखा था। -एक ज़िद्दी धुन)

सन 1964 में गजानन माधव मुक्तिबोध की मृत्यु अाधुनिक भारतीय साहित्य की केन्द्रीय घटना है। हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक जीवन में पिछली सदी में किसी मृत्यु का इतना असर नहीं पड़ा। इसकी तुलना सिर्फ़ 1974 में कलकत्ते में उस्ताद अमीर ख़ाँ की अप्रत्याशित मृत्यु से ही की जा सकती है। अपने अपने रचना-क्षेत्र में ये दो हस्तियाँ लोगों की सामूहिक चेतना ही नहीं अवचेतन का हिस्सा — एक प्रधान उपस्थिति — बन गईं। इस मृत्यु के बाद ही से वह दौर शुरू हुअा, जिसे क़ायदे से हिन्दी साहित्य और संस्कृति-चिंतन में मुक्तिबोध-युग कहा जाना चाहिए। इस युग को कुछ और नाम देना ऐतिहासिक और साहित्य के समाजशास्त्र के ऐतबार से सही नहीं होगा। अगर ऐसा अक्सर नहीं कहा जाता तो इसका संबंध हिन्दी की दुनिया की शक्ति संरचना से है, न कि मुक्तिबोध की स्वतःसिद्ध केन्द्रीयता से। नौकरीपेशा प्राध्यापकीय तबक़े, साहित्य के कारोबार को नियंत्रित करने वाली संस्थाएँ अौर साहित्य-संस्कृति के दस-बीस स्वघोषित संरक्षक-पुरोहित मुक्तिबोध को लेकर शुरू ही से असहजता और दुचित्तेपन का इज़हार करते रहे हैं। न तो यह दुचित्तापन अाज तक ख़त्म हुअा है, और न ही हिंदी ‘रचना-संसार’ के अवचेतन पर मुक्तिबोध की हुकूमत ख़त्म होती नज़र अाती है।

मध्यवर्गीय दुचित्तेपन और उसके निहितार्थों पर काम करने वाले पहले अादमी मुक्तिबोध ही थे। उन्हें अपने दौर के बिगाड़ का, हर विचलन का पता था। वह उस समय की पेचीदगियों को भी समझते थे। यह नेहरू युग की निर्माणकारी और विध्वंसकारी दोनों प्रक्रियाओं पर गहरी नज़र रखते थे। नेहरू का दौर एक तरफ़ लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवास्था के पल्लवन, नई संस्थाओं के निर्माण और राष्ट्रीय विकास की अाधार रचना का दौर था, वहीं दूसरी तरफ़ वह कम्युनिस्ट अान्दोलन के अापराधिक दमन और शीतयुद्धीय नीति के तहत हर जगह से उनके बहिष्कार का दौर था। लोग अाज कुछ भी कहें, यह एक ऐतिहासिक सचाई है। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस संगठन पर दक्षिणपंथियों का क़ब्ज़ा था, और नेहरू के पास इस दक्षिणपंथ का सीधे सामना करने का न हौसला था, न ताक़त। केन्द्र से लेकर प्रांतों तक (संयुक्त प्रांत/उत्तर प्रदेश, मध्य भारत/मध्यप्रदेश, बम्बई, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार) कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेताओं का बोलबाला था। शिक्षा, संस्कृति और हिंदी प्रतिष्ठान पूरी तरह प्रतिक्रियावादी के क़ब्ज़े में था।

मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से नेहरू युग के समझौते, अवसरवाद और जनद्रोह की प्रवृत्तियों को पनपते हुए देखा था।  वह जानते थे कि भारतीय राजनीति का वह दौर दरअसल एक तरफ़ कांग्रेस के भीतर नेहरू धड़े की अाधुनिक, उदार प्रगतिशील वृत्ति और दूसरी तरफ़ ज़्यादा वर्चस्वशाली कठोर दक्षिणपंथी धड़ों की विचारधारा के बीच सुलह और समन्वय पर टिका है। लिहाज़ा ‘नेहरू युग’ को एकतरफ़ा ढंग से सेकुलर राजनीति, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक विवेक से संचालित समाज और राष्ट्रनिर्माण का दौर कहना एक रोमानी और ग़लत क़िस्म की समझ का नतीजा है। नेहरू युग का जो अर्थ अाज हम लेते हैं, उस अर्थ में वह नेहरू युग था ही नहीं, न मुक्तिबोध ने उसे इस तरह देखा था।  नेहरू ख़ुद कितने ही प्रगतिशील और अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहे हों, और समाजवादी देशों में उनकी जितनी भी स्वीकृति रही हो, भारतीय वामपंथी संगठनों के उतने ही दुश्मन थे जितना कि हिन्दू महासभा और अार एस एस के। कोई भी तन्ज़ीम जो कांग्रेस के बाहर प्रगतिशील काम करती हो, उसे वह कांग्रेस का, और देश का दुश्मन ही समझते थे।

ख़ुद साम्यवादी — अाज के साम्यवादी — भूल गए हैं कि नेहरू-युग में एक साम्यवादी का जीवन कितना कठिन था। जब कोई संकट में पड़ता था उस समय जाति, रिश्तेदारी, मित्रता या पहुँच कुछ काम न अाती थी। वामपंथियों को लेकर नेहरू सरकार की गृह और अांतरिक सुरक्षा नीति मैकार्थीवादी नीति थी, जिसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ पटेल जैसे लोग ही न थे, वह पूरी राज्य-व्यवस्था भी थी जो अंग्रेज़ों ने सप्रेम उन्हें सौंप दी थी।  कोई साम्यवादी न होगा जिसपर राज्य की, पुलिस की और मुख़बिरों की नज़र न हो,  जो राजकीय कोप का शिकार न हुअा हो। मुक्तिबोध का अपना जीवन इसकी मिसाल है। लगभग सभी कम्युनिस्टों ने समाज में लम्बे अरसे तक पर्सीक्यूशन झेला जिसकी छाया उनकी जीविका पर, उनके परिवारों पर, और उनकी अगली पीढ़ियों तक पड़ी। इस दौर में एक प्रगतिशील के लिए छिपने की एक ही जगह थी, कि वह कांग्रेसियों से सम्पर्क में रहे, अपनी वफ़ादारी साबित करे और कांग्रेस में अा मिले, और ज़िल्लत की रोटी खाकर गुज़ारा करे। लेकिन यह विकल्प भी सबके लिए उपलब्ध न था। नेहरू का लोकतंत्र कम्युनिस्टों के लिए नहीं बना था। कांग्रेस के बाहर का परिदृश्य और भी ख़राब था जहाँ या तो रामराज्य परिषद, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी जैसी घोर प्रतिक्रियावादी पार्टियाँ थीं या फिर ग़ैर कांग्रेसवाद के पैरोकार लोहिया और उनका समाजवादी दल जो हरदम कांग्रेस के विरुद्ध सबको एकजुट करने के पक्षधर थे, लेकिन कम्युनिस्टों के जानी दुश्मन थे। मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म-विरोध का जो काम दक्षिण और धुर दक्षिण किया करते हैं, वह भारत में लोहियावादियों ने जी-जान से सम्पन्न किया।

मुक्तिबोध ने अपनी प्रगतिशीलता  इन कठिन परिस्थिति में अर्जित की थी, और एक असुरक्षित जीवन की क़ीमत पर उसकी अाबरू बनाए रखी। वह इसी युग में चल बसे, और अागे अाने वाली और भी टेढ़ी और संदिग्ध परिस्थितियों को न देख सके। उनकी छवि एक शहीद की सी छवि की तरह अाज तक बहुत लोगों के दिलो-दिमाग़ में है। उनका जीवन और चिंतन अाज उतना ही प्रासंगिक है जितना नेहरू युग में था।


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मुक्तिबोध के वैचारिक और रचनात्मक विकास का दौर शीतयुद्ध का दौर था। हिन्दी में  अज्ञेयवाद, प्रयोगवाद, नई कविता अौर लोहियावादी संस्कृति चिंतन का बोलबाला था। इन प्रवृत्तियों से स्वस्थ बहस के लिए मुक्तिबोध हमेशा तैयार अौर व्याकुल रहते थे। लेकिन यही दौर हिन्दी के वामपंथी साहित्य चिंतन के भीतर बढ़ते परम्पराप्रेम और दक्षिणोन्मुखता का दौर भी था, जिसे कम्युनिज़्म की शब्दावली में संशोधनवाद का दौर भी कहा जाता है। इस दौर में मुक्तिबोध को एक वैचारिक अौर रचनात्मक अकेलेपन में काम करना पड़ा। कोई बराबरी की संगत न थी। उनका मन वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताअों, छात्रों, वामपंथी पत्रकारों, कुछ साथी शिक्षकों के बीच लगता तो था, लेकिन साहित्य, संस्कृति अौर मार्क्सवाद से जुड़े मसलों पर गहन बहस करें ऐसे जानकारों की कमी थी। उनकी कुछ गहरी दोस्तियाँ थीं, जिनमें से एक दोस्त तो ऐसे थे जो उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी किया करते थे, उनकी गतिविधियों की जानकारी सरकार को भेजा करते थे। मुक्तिबोध को इसकी जानकारी हो गई थी अौर उनका दिल बहुत टूटा था। फिर भी वह ख़ुशक़िस्मत थे कि अपने कुछ अौर अंतरंग मित्रों अौर उनसे प्रेरित युवकों को रंग बदलने और अपने निश्चयों के ख़िलाफ़ व्यवस्था में घुल-मिल जाने के करुण दृश्य देखने से बच गए।

वामपंथी सांस्कृतिक  धारा के भीतर मुक्तिबोध की स्वीकृति और अस्वीकार दोनों शुरू ही से मौजूद रहे हैं। रामविलास शर्मा और उनकी शिष्य परम्परा में उनका कोई सम्मान या सही पहचान दूर दूर तक देखने को नहीं मिलती। उनके समकालीन वामपक्षीय लेखकों में हरिशंकर परसाई और शमशेर बहादुर सिंह ही उनके सबसे महत्वपूर्ण हिमायती थे। शमशेर जी ने एक बार धीमे से कहा था कि मुक्तिबोध की मृत्यु में ही उनके पुनर्जीवन की (हिन्दी की दुनिया में) चाबी मौजूद है। जब मैंने इस का अाशय जानना चाहा तो वह बोले, “वी अाल शेयर हिज़ अाफ़्टरलाइफ़।”

मुक्तिबोध के जीवन की विडम्बना दो मर्मभेदी घटनाअों के ज़रिए सामने अाती है। 11 सितंबर 1964 के  दिन अखिल भारतीय अायुर्विज्ञाना संस्थान में जब उनकी मृत्यु हुई तो अंत्येष्टि से पहले उनके शव को दिल्ली में उसी शख़्स के सरकारी अावास पर लाकर रखा गया जिसने अंतरंग मित्र होते हुए उनके ख़िलाफ़ मुख़बिरी की थी। कुछ ही दिन बाद उनकी याद में दिल्ली में पहली गोष्ठी उनके मित्रों और प्रशंसकों ने की, वो भी उसी अादमी के अावास पर हुई! अफ़सोस की बात यह है कि किसी को भी यह अापत्तिजनक न लगा। उस अादमी के दामन का दाग़ किसी को दिखाई न दिया! न तब, न बाद में। दूसरा वाक़या मक़बूल फ़िदा हुसेन से जुड़ा है। हुसेन मुक्तिबोध की अंतिम यात्रा में शरीक थे। वह उनके मित्रों के मित्र थे और मुक्तिबोध के महत्व से कुछ हद तक वाक़िफ़ थे। शवयात्रा में चलते हुए उनके दिल में ख़याल अाया कि इतना बड़ा लेखक और बुद्धिजीवी कितने अभाव, उपेक्षा और लगभग गुमनामी की हालत में दुनिया से रुख़सत हो रहा है, और हम उसके लिए कुछ न कर सके। उन्होंने वहीं अपने जूते छोड़ दिये और तमाम रास्ते श्मशान तक नंगे पाँव चले। हुसेन का कहना था, “मुझे लगा कि इतना तो मैं कम-अज़-कम कर ही सकता हूँ।” उनके नंगे पाँव चलने में  पश्चात्ताप, शोक और अक़ीदत का मिला-जुला जज़्बा था। हुसेन साहब ने ख़ुद मुझसे कहा कि जिस चीज़ को (यानी नंगे पैर चलने को) उनकी एक जानी-पहचानी ‘अदा’ कहा जाता है, उसकी शुरुअात मुक्तिबोध की मौत के सदमे से हुई थी। ये दो मामूली घटनाएँ मुझे नेहरू युग की गहरी नैतिक फाँक का प्रतिनिधि रूपक लगती हैं।


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अाज विभिन्न प्रकार के सैद्धान्तिक दूर-दूर ही से मुक्तिबोध को रहस्यवादी, खंडित चेतना का चितेरा इत्यादि कहते रहते हैं, या कुछ ज़्यादा निर्लज्ज तत्व बार-बार उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि (महाराष्ट्रियन ब्राह्मण) में ही उनकी मूल सृजनात्मक चेतना का उत्स देखते हैं अौर उन्हें वामपंथियों से ‘मुक्त’ करके अपना लेना चाहते हैं। उधर वामपंथ के कई पहरेदारों ने भी (ख़ासकर रामविलास शर्मा और उनके अनुयायियों ने) मुक्तिबोध को डिसओन किया हुअा है। मुक्तिबोध के इस अपहरण, ‘लिबरेशन’ या बरख़ास्तगी की योजना का दिलचस्प पक्ष यह है कि मुक्तिबोध के घर पर कोई पहरा तो है नहीं, द्वार खुले हैं और मुक्तिबोध वहाँ मौजूद हैं — संगत को तैयार। सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध के ये अपहरणकर्ता उनकी बग़ल में बैठने को तैयार हैं? क्या उनकी सोहबत इन्हें गवारा होगी?

हिंदी के साहित्यिक दक्षिणपंथी और उनकी देखादेखी कुछ उदारवादी मुक्तिबोध पर पुनर्विचार की बात किया करते हैं।  विचारशील लोगों को विचार अथवा 'पुनर्विचार' के लिए किसी ऐलान या आयोजन की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विचार अपने में एक जारी सिलसिला है जो इन्सान की ज़ेहनी फ़िज़ा और बौद्धिक कार्यव्यापार को आन्दोलित किये रहता है। हर नए विचार, अकुलाहट या आकलन को पुनर्विचार कहा भी नहीं जाता। यह अधकचरापन और ख़ामख़याली है। अनुभव, प्रयोग, दिमाग़ी मेहनत, और संवाद की मंज़िलों से गुज़रकर और अपने वक़्त के हालात से मानूस होकर, उनसे गहरी जद्दो-जहद करते हुए कभी कभी लोगों का सामूहिक आलोचनात्मक श्रम और रचना-कर्म अपने कुल जमा (कुमुलेटिव) असर से पुनर्विचार की ज़मीन तैयार करता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया में बड़े परिवर्तन साल में दो बार, ख़ुद से और इतनी आसानी से, नहीं आते। मुक्तिबोध पर 'पुनर्विचार' एक संदेहास्पद अकुलाहट का नतीजा लगती है। कुछ लोग विचार से पहले पुनर्विचार के लिए बेताब है। सौवाँ साल (२०१७) पूरा हो रहा है। यानी अगले तीन-चार साल मुक्तिबोध पर सघन ‘पुनर्विचार’ के साल होंगे। चूँकि उसी साल रूसी क्रांति की सौंवी सालगिरह भी पड़ रही है, तो लाज़िम है कि यह एक दोहरा पुनर्विचार हो। इन पुनर्विचारकों के विचार वही हैं जो वे दशकों से — शीतयुद्ध काल से — बताते आ रहे हैं, वे बस नए सिरे से धावा बोलने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है परिस्थिति अब ज़्यादा अनुकूल है। कोशिश है कि फिर से मरहूम पर दावा पेश किया जाए और मुक्तिबोध जन्म शताब्दी वर्ष के आते आते भारतीय वाम-परंपरा के इस महान विचारक, कवि और लेखक की स्मृति पर नरम दक्षिण-अति दक्षिण गठबंधन के तहत एक भगवा-श्वेत दुरंगा फहरा दिया जाए। प्रतिगामिता कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। उसे भगत सिंह की 'घर वापसी' चाहिए और गजानन माधव मुक्तिबोध की भी। भारत में पूँजी हर जगह अपनी ताक़त दिखा रही है। दूसरी ही तरह के ‘पुनर्विचार’ के युग में हम आ गये हैं। पिछले संसदीय चुनाव में सिक्काबन्द हिन्दुत्ववादी राजनीतिक गठबंधन की जीत के बाद उनके सांस्कृतिक प्रवक्ताओं ने सार्वजनिक मंचों से बोलकर भी और लिखकर भी ऐलान कर दिया है कि शिक्षा, संस्कृति, नागरिक आचार और अधिकार व्यवस्था, लोगों के रंग-ढंग और जीवन शैली हर चीज़ पर पुनर्विचार और उसके आमूल-चूल पुनर्गठन का वक़्त आ गया है, और यह कि अब उन्हें जनादेश प्राप्त है। यह पुनर्विचार नहीं, समाज के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की माँग और धमकी है। मुक्तिबोध का वाक़या भी अजीब है। उनके मरणोपरांत जिन लोगों ने उनके साहित्यिक उद्धार का ज़िम्मा लिया, उनके हाथ से वह मरहूम बहुत जल्दी छूट निकले। उनमें से जो उद्धारक बचे रह गए हैं आज तक हाथ मलते हैं। अब नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में फ़िज़ा साज़गार हुई है। उन्हें अपनी ‘जागीर’ वापस चाहिए।
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Sunday, July 28, 2013

मंगलेश डबराल के कविता संग्रह 'नये युग में शत्रु' पर असद ज़ैदी की टिप्पणी

ये युग में शत्रु
एक बेगाने और असंतुलित दौर में मंगलेश डबराल अपनी नई कविताओं के साथ प्रस्तुत हैं – अपने शत्रु को साथ लिए। बारह साल के अंतराल से आये इस संग्रह का शीर्षक चार ही लफ़्ज़ों में सब कुछ बता देता है – उनकी कला-दृष्टि, उनका राजनीतिक पता-ठिकाना, उनके अंतःकरण का आयतन।  यह इस समय हिन्दी की सर्वाधिक समकालीन और विश्वसनीय कविता है। भारतीय समाज में पिछले दो-ढाई दशक के फ़ासिस्ट उभार, साम्प्रदायिक राजनीति और पूँजी के नृशंस आक्रमण से जर्जर हो चुके  लोकतंत्र के अहवाल यहाँ मौजूद हैं, और इसके बरक्स एक सौंदर्य-चेतस कलाकार की उधेड़बुन का पारदर्शी आकलन भी। ये इक्कीसवीं सदी से आँख मिलाती हुई वे कविताएँ हैं जिन्होंने बीसवीं सदी को देखा है। ये नये में मुखरित नये को भी  परखती हैं और उसमें बदस्तूर जारी पुरातन को भी जानती हैं। हिन्दी कविता में वर्तमान सदी की शुरूआत ही 'गुजरात के मृतक का बयान' से होती है।

ऊपर से शांत, संयमित और कोमल दिखने वाली, लगभग आधी सदी से पकती हुई मंगलेश की कविता हमेशा सख़्तजान रही है – किसी भी चीज़ के लिए तैयार! इतिहास ने जो ज़ख़्म दिए हैं उन्हें दर्ज करने, मानवीय यातना को सोखने और प्रतिरोध में ही उम्मीद का कारनामा लिखने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध। यह हाहाकार की ज़बान में नहीं लिखी गई है; वाष्पीभूत और जल्दी ही बदरंग हो जाने वाली भावुकता से बचती है। इसकी मार्मिकता स्फटिक जैसी कठोरता लिए हुए है। इस मामले में मंगलेश  क्लासिसिस्ट मिज़ाज के कवि हैँ – समकालीनों में सबसे ज़्यादा तैयार, मँजी हुई, और तहदार ज़बान लिखने वाले।

मंगलेश के यहाँ जो असाधारण संतुलन है कभी बिगड़ता नहीं – उनकी कविता ने न यथार्थबोध को खोया है न अपने निजी संगीत को। वह अपने समय में कविता की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को अच्छे से सँभाले हुए हैं;  इस कार्यभार से दबे नहीं हैं। मंगलेश के लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अक़ीदे की पुख़्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है। हमेशा की तरह जानी पहचानी मंगलेशियत इसमें नुमायाँ है।

और इससे ज़्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साज़े-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो पहाड़ पर लालटेन से लेकर उनके पिछले संग्रह आवाज़ भी एक जगह है  में सुनाई देता रहा था। नये युग में शत्रु में उसकी सदा पूरी आबो-ताब से मौजूद है।

–असद ज़ैदी
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ग़ालिब का शेर, जिसका हल्का सा हवाला ब्लर्ब में है, इस तरह है :

नग़्माहा-ए ग़म को भी, ऐ दिल, ग़नीमत जानिये
बे-सदा हो जाएगा, ये साज़े-हस्ती, एक दिन

Saturday, January 8, 2011

फ़ैज़ पर कुछ नोट्स : दूसरी और अंतिम किस्त


फ़ैज़ अपने उस्ताद के साथ शतरंज खेलना नहीं भूलते. बल्कि यह भी उनका प्रिय व्यसन है. ग़ालिब कहते हैं : 'बुलबुल के कारोबार पे है खंदा-हाए गुल / कहते हैं जिसे इश्क ख़लल है दिमाग़ का'. फ़ैज़ की बाज़ी कुछ और है : 'गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले / चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले.' ऐसी मिसालेंबेशुमार हैं.
फ़ैज़ ग़ालिब के मज़मून पर इस तरह काम करते हैं और उसमें से ऐसी सूरतें निकलते रहते हैं जैसी कि सूरत मिक्लोश यांचो ने एलेक्त्रा के यूनानी मिथक पर काम करते हुए अपनी अमर फ़िल्म 'एलेक्त्रा माई लव' में निकाली थी.
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उर्दू में यह बात रही है कि ग़ज़ल के श्रोता और पाठक हमेशा दौरे हाज़िर के शाइरों पर ही तवज्जो देते रहे हैं, पुरानों की तरफ़ उनका ख़याल ज़्यादा नहीं रहता.इसकी वजह शायद यह होगी कि ग़ज़ल परफोर्मिंग ट्रेडीशन की तरह ज़्यादा लोकप्रिय रही. मसलन ज़ौक़, ग़ालिब और मोमिन के दौर में उनकी धूम थी,लखनऊ में अनीसो-दबीर का शोहरा था, फिर दाग़ की धूम हुई, एक दौर इक़बाल का आया, जिगर और हसरत और फ़िराक़ का ज़माना आया. एक मीर ही थे जिन्हें हर दौर में याद किया गया. ग़रज़ ये कि तरक्कीपसंद तहरीक (प्रगतिशील आन्दोलन) के ज़माने में ही यह संभव हो पाया कि ग़ालिब या मीर या या नज़ीर को पुरानों की तरह देखने के बजाए प्रासंगिक समकालीनों की तरह देखा जाए और उनसे सीधा संवाद स्थापित किया जाए.
फ़ैज़ को अपने आरंभिक दौर में ग़ालिब की कड़ी ज़रूरत पड़ी और यह रिश्ता जीवन-पर्यंत चला. फैज़ के यहाँ मीर तक़रीबन ग़ायब हैं. सिर्फ़ 1954 में जब फ़ैज़ मोंटगोमरी जेल में क़ैद थे उन्हें कुछ मीर की याद आई. दो ही ग़ज़लें ऐसी हैं जहाँ मीर की सोहबत झलकती है ('कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं', और 'कुछ मुहतसिबों की खल्वत में कुछ वाइज़ के घर जाती है'). मीर की तरफ़ इक़बाल ने भी कम ही देखा था, और ग़ौर करें तो 1947 से पहले पंजाब सूबे में मीर की ज़्यादा पूछ नहीं रही. उपमहाद्वीप के बटवारे के बाद सबको मीर याद आये और बुरी तरह छा गए. नासिर काज़मी और इब्ने इंशा जैसे दो अलग अलग मिज़ाज के शाइर मीर की ही मजलिस में रहे.
उर्दू जैसी भी बदक़िस्मत ज़बान हो उसे जिलाए रखने में पुराने बड़े मददगार रहते हैं. वह अपनी समकालीनता खोते नहीं दीखते. आज फ़ैज़ भी उन्हीं पुरानों में शामिल हैं.
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उर्दू शायरी में निस्वानी आवाज़ (स्त्री स्वर) के लिए जगह बनाने और उसे स्थापित करने में प्रगतिशीलों का, उनमें भी सबसे ज़्यादा फ़ैज़ का रोल है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है. इसके लिए फ़ैज़ ने अलहदा से कुछ नहीं किया, उनकी उपस्थिति मात्र से ही यह राह खुल गयी. फ़ैज़ ने परम्परा का जो ख़ामोश लेकिन मूलगामी आधुनिकीकरण किया उसी में स्वरों के एक वास्तविक और लोकतांत्रिक विस्तार और सह-अस्तित्व की ज़मीन मौजूद थी. ग़ज़ल और नज़्म में कवयित्रियाँ पता नहीं कब से लगभग मर्दाने लिबास में मर्दानी बोली बोलते हुए पेश होती रही हैं! जैसे पुराने नाटकों में, जहां औरतों की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाया करते थे, शाइरी में भी 'स्त्री-स्वर' पर शाइर का ही एकाधिकार था, शाइरा के लिए वह वर्जित ही था. हिंद-फ़ारसी काव्य परम्परा की यह एक पुरानी समस्या है और तसव्वुफ़ की कुछ 'खूबियों' में एक यह खूबी गौर करने लायक़ है. कथा साहित्य में भले ही रशीद जहाँ, इस्मत, कुर्रतुल ऐन हैदर के लिए (या दूसरी तरह के लेखन में सफ़िया अख्तर और अनीस किदवाई जैसी रचनाकारों के लिए) यह समस्या नहीं रही हो, पर शाइरी का रास्ता पकड़ने वाली औरत की बड़ी मुश्किल रही है. कुछ कुछ हाली के दौर से, पर ख़ास तौर पर फ़ैज़ की आमद के बाद से यह संभव हो सका कि उर्दू शाइरी में स्त्री स्त्री की तरह पेश होने लगीं और कवयित्रियाँ प्रथम पुरुष स्त्रीलिंग का बेधड़क इस्तेमाल करने लगीं. यही वजह होगी कि सारा शिगुफ्ता, परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहीद जैसी कवयित्रियों को पढ़ते हुए फ़ैज़ और मजाज़ तो याद आते हैं, नून मीम राशिद, मीराजी, अहमद नदीम क़ासिमी, नासिर काज़मी और अख्तरुल ईमान याद नहीं आते. जोश--फ़िराक़ की तो बात ही छोड़िए.
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फ़ैज़ जैसा प्रतिबद्ध और नैचुरल अंतर्राष्ट्रीयतावाद आज उर्दू कविता में दुर्लभ है. हिन्दी में मुक्तिबोध और शमशेर को छोड़ दें तो वह कम-कम ही था -- और ये भी उसी पीढ़ी के नुमाइंदे हैं. आज के शाइर/कवि की आफ़ाकियत निस्बतन अप्रतिबद्ध, अमूर्त और हल्की मालूम होती है -- वह अक्सर प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीयवाद और वर्तमान दौर के प्रतिक्रियावादी भूमंडलीकरण के बीच तमीज़ करना भूल जाता है. यह आफ़ाकियत कम, आफ़ाकियत का दावा ज़्यादा है -- असल में यह अपने यहाँ की हक़ीक़त से फ़रार का ही एक रूप है.
यहीं यह ख़याल भी आता है कि दुश्चक्रों में फँसे, अपेक्षाकृत छोटे देशों का आदमी ही सबसे ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो सकता है. उसे वैश्विक परिदृश्य, उसमें अपने समाज की लोकेशन और सामाजिक-राजनीतिक दुर्दशा से इन चीज़ों के ताल्लुक़ का तीव्र अहसास होता है. उसके लिए देश का बदल विदेश नहीं हो सकता-- जो बैरूनी है वही अंदरूनी को निर्धारित या प्रभावित करता है. हिन्दुस्तान जैसे बड़े देश में सच्चा अंतर्राष्ट्रीयतावादी होना इसीलिए मुश्किल और चुनौती भरा हैकि देश ही पूरी दुनिया नज़र आता है. अंदरूनी का इतना विस्तार है कि बैरून बहुत दूर की चीज़ लगती है. भारत से बाहर जो है विदेश है. पाकिस्तान या क्यूबा या अफ़गानिस्तान के बाहर जो भी है सिर्फ़ बहुत पास है बल्कि बुरी तरह ग़ालिब है. एक अच्छा पाकिस्तानी बुद्धिजीवी सिर्फ़ पाकिस्तान या पाकिस्तानी नियति के बारे में सोचता नहीं रह सकता. उरुग्वे, चीले, आर्हेंतीना, पेरू या निकारागुआ के लेखक अपने अपने देशों से कहीं ज़्यादा पूरे लातीनी अमरीकी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. यही बात वहाँ के क्रांतिकारियों पर लागू होती है. लगभग यही बात अरब दुनिया के बारे में सही है.
यही वजह है कि पाकिस्तान ने पिछले पचास साल में इक़बाल अहमद, हमज़ा अलवी, तारिक़ अली और फ़ैज़ जैसी आलमी शख्सियतें पैदा कीं (भले ही पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान में उनकी कोई क़द्र हो) पर हमारे पास बताने के लिए बमुश्किल अमर्त्य सेन जैसा ग़ैर-रैडिकल नाम है जो अंतर्राष्ट्रीयतावादी कम,उदारवादीवादी मानवतावाद के प्रवक्ता ज़्यादा लगते हैं
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फ़ैज़ के बाद : फ़ैज़ के बाद गुलशन का कारोबार कितना बदल गया है. बाद का दौर दक्षिण एशिया में युद्ध, गृहयुद्ध, साम्प्रदायिक हिंसा, धर्मान्धता, साम्राज्यवादी लूट, समाज और अर्थव्यवस्थाओं पर नव-उदारवादी हमलों और लोकतंत्र के पीछे हटने का दौर है. राज्य द्वारा हर तरह के प्रतिरोध का दमन, जनक्षेत्र पर निजी पूँजी का नियंत्रण हमारे दौर की सचाइयाँ हैं. पाकिस्तान का हाल हिन्दुस्तान से भी ख़राब हुआ है. वहाँ जल्दी सुधार की कोई सूरत नज़र नहीं आती. फ़ैज़ के बाद के पाकिस्तान के बुद्धिजीवी और लेखक आज हद से हद हिन्दुस्तान-जैसी 'डेमोक्रेसी' और हिन्दुस्तान जैसी 'आज़ादी' चाहते हैं -- फ़ैज़ के वंशजों के सपने अब बहुत छोटे सपने हैं. फ़ैज़ की धरोहर अब बस भारत-पाक सुलह, सिविलियन सरकार और नारी-अधिकार के अभियान में काम आती है. पाकिस्तान में समानतावादी समाज की परियोजना का कोई ज़िक्र नहीं जिससे फ़ैज़ की कविता इतनी प्रेरित थी, जिसकी वजह से फ़ैज़ ने कोई सात-आठ साल जेल में और कई साल आत्म-निर्वासन में गुज़ारे.
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फ़ैज़ के यहाँ इस्लाम के आरंभिक इतिहास और कुरानी आयतों की अनुगूँजें मिलती हैं. वह इन 'इस्लामी' सन्दर्भों का हमेशा बा-मक़सद, सेकुलर और पारदर्शी इस्तेमाल करते हैं. उनकी आवाज़ थियोलोजी में रंगी, धार्मिकता में भीगी हुई कम्पित आवाज़ नहीं है. वह किसी मज़हबी चाशनी में डूबे हुए कवि नहीं हैं. वह हिन्दी के उन प्रोग्रेसिवों की तरह हैं जिनकी दो या तीन पीढ़ियाँ ऐसी तुलसी-मय रहती आई हैं कि कोई और रंग उन पर चढ़ता ही नहीं, वे उर्दू के उन जदीदियों (आधुनिकतावादियों) की तरह हैं जो जवानी में अराजकतावाद की हदों से गुज़रकर अब तसबीह हाथ में लिए रहते हैं. उनकी मशहूर नज़्म 'हम देखेंगे' लगभग पूरी की पूरी कुरान, तसव्वुफ़, और इस्लाम के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों पर टिकी हुई है, लेकिन उसका किसी भी तरह का धार्मिक दुरुपयोग नहीं किया जा सकता.पहले वह जनरल ज़ियाउल हक़ के फ़ौजी शासन के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में अवामी बग़ावत का मुख्य प्रतीक बनती है, फिर इक़बाल बानो की आवाज़ में एक इन्किलाबी तराने का रूप ले लेती है -- एक ऐसे वक़्त में जब सभी धार्मिक रूढ़िवादी तत्व ज़िया शासन का खुला समर्थन करते थे.
कुरान में ईश्वरीय प्रकोप की चेतावनी और दैवी गर्जना यहाँ सामाजिक क्रांति का महान यूटोपियन आह्वान बन जाती है -- 'वो दिन कि जिसका वादा है / जो लौहे-अज़ल पे लिक्खा है'. 'फ़ैसले का दिन' इन्किलाबी सत्तापलट का दिन हो जाता है, जब ज़ुल्मो-सितम के भारी पहाड़ 'रूई की तरह' उड़ जाएंगे, जब'तख्तो-ताज' उछाले जाएंगे, जब शासितों के 'पाँव-तले यह धरती धड़-धड़' धड़केगी, जब 'अनल हक़' का नारा बलंद होगा, जब 'खल्क़े-खुदा' राज करेगी, 'जो तुम भी हो और मैं भी हूँ'. मैं अक्सर सोचता हूँ कि कौन सा इस्लामी प्रतिष्ठान इस नज़्म को अपने साहित्य में दाखिल करेगा, कौन वाइज़ इसे अपने वाज़ का हिस्सा बनाएगा! क्या यह कभी जुमे के रोज़ किसी मस्जिद के मिम्बर से पढ़ी जाएगी? अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है, और मुझे नहीं लगता कि ऐसा कभी होगा.
इस पर कभी गौर नहीं किया गया कि फ़ैज़ तसव्वुफ़ (सूफ़ी दर्शन) को इस्लामी परम्परा के नैरन्तर्य में देखते हैं, उसके विरोध या प्रतिरोध में नहीं. जो बात इस्लाम के सन्दर्भ से नहीं कही जा सकती वह तसव्वुफ़ के सन्दर्भ से बहुत सफलता से कही जा सकती है ऐसा फ़ैज़ नहीं समझते. उनके लिए सूफ़ी मत इस्लाम का विकल्प नहीं है. अव्वल तो फ़ैज़ के यहाँ तसव्वुफ़ भी कोई विकल्प नहीं है. वह उनके लिए विचारधारा या जीवन दर्शन का रूप नहीं ले सकता. तसव्वुफ़ उनके लिए एक उपलब्ध मुहावरा और ज़बान है, जैसे वह ग़ालिब के लिए भी था. फ़ैज़ उतने ही 'आध्यात्मिक' हैं जितने महमूद दर्वीश या एडवर्ड सईद.