Friday, December 16, 2011

शिवांजलि की कवितायें


कंडीशंस अप्लाई
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अब भी
चौराहों पर बालक खड़े हैं
भूखे
अब भी घूंघट में मुखड़ा छिपाये
पनिहारिनें दूर तक जाती हैं
कोई पलक टकटकी लगाये
आज भी किसी की बाट जोहती है
आसमान का नीला फलक
आज भी
अपनी ओर उठने वाली नज़रों से
बिंध जाता है
आज जबकि `सब है` का दम भरते
बेदम पड़े कुछ आम
बिल्कुल चूस कर फेंक दिये गये हैं
चारों तरफ इश्तिहार
और नीचे छपा है-
कंडीशंस अप्लाई.



समय
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कुछ करूँ.
अब मेरी जड़ें खोखली होती जा रहीं
एक दाना भीख का
मुट्ठियों के शिकंजे में कसता
उस दाने की दरयाफ्त सुनूं
कि चरमराहट की आवाज के साथ
पिसते दानों पर
भूख का भार बढ़ रहा.
अब तो कुछ करूं
कि चमड़े की महक
भ्रम पैदा करती
निर्माण और उपभोग के बीच
वह भीतर ही भीतर सुराख बढ़ाती
पैबन्दों के
जड़ों में पड़ती पानी की पतली धार
कि उन सुराखों में
कि उन गलियों में
आँखों की नमी नहीं सूखती
उन भीख के दानों से भूख नहीं मिटती
बढ़ती है ज्वाला ओहदों की
फैले हुए हाथ
कसती मुट्ठियाँ
खोखली पड़ती जड़ें
और अपने रसूख से कटते लोग
दिखते हैं
बाज़ार पर बसर बनाये हुए.




गवाह
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सड़क के इस छोर से
उस छोर तक
पैबस्त जख्म
चुप्पी से सुन उनकी खामोश धड़कनें
ये हैं गवाह
अनगिनत गुजरते काफिलों के
लोग भूलते जाते
कि जिस पर होकर वे गुजरे थे
पर उनकी खामोश धड़कनें
अपने में समेट लेतीं
चुप रह सहतीं
अनगिनत पड़ते कोड़ों का दर्द
सड़कों पर पटकते
लाचारी वाले पैरों को महसूस कर
कभी उनकी झल्लाहट तो कभी उनकी बेबसी
का राग पढ़ते
पर कभी न सिमटते
न ही फैलते
जख्मों से रिसते
पानी का दर्द
कौन देखता?
सड़कों पर पड़े अलकतरे, मोरंग और बालुओं की तह में
पर कभी न सिमटते
न ही फैलते
जख्मों से रिसते पानी का दर्द
कौन देखता?
सड़कों पर पड़े
अलकतरे, मोरंग और बालुओं की तह में
पैबस्त जख्म
सबके गवाह.





चिथड़ों में लिपटे सुख का गीत
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सूखे हुए सरकंडे
तन कर खड़े हैं
गीत गाती बुलबुल रानी
दलदली भूमि पर खड़े
सरकंडों पर बैठी
निहार रही
अपने आसपास की
वीरान जिंदगियों को
बिखरे हुए झोपड़ों को
और वह निहार रही
नीले आसमान में फटे बादलों को
देख रही है-
माँ खुश है भूखी रह कर
बच्चों के पेट आज बाहर निकले हैं
वह गा रही है -
चिथड़ों में लिपटे सुख का गीत
वह प्रसन्न है
मज़दूरी मिली है
कई दिनों के बाद
चरमराती खाट पर आज
अंगड़ाइयां लेता मज़दूर
बुलबुल के गीत गा रहा है
बुलबुल सोच रही है -
आसमान के फटे बादल जुड़ेंगे
तो बारिश होगी.
 
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोध छात्र शिवांजलि श्रीवास्तव की ये कवितायें
`दस्तक टाइम्स` पत्रिका में छपी हैं.



4 comments:

iqbal abhimanyu said...

ये कविताएँ टीस की कविताएँ है..
ये कविताएँ घुटन की भी हैं..
और सबसे बढ़कर ये अनुभवों की चोट से उभरी कविताएँ है..
ख़ास कर चीथड़ों में लिपटा हुआ सुख और कंडीशंस अप्लाय ने बहुत प्रभावित किया..
आगे शिवांजलि जी की कविताओं का इंतज़ार रहेगा..
साधुवाद !

परमेन्द्र सिंह said...

बुलबुल सोच रही है -
आसमान के फटे बादल जुड़ेंगे
तो बारिश होगी
बहुत बढ़िया कवयित्री से परिचय कराया आपने. ज़ोरदार कविताएँ. आभार.

Vandana Ramasingh said...

एक दाना भीख का
मुट्ठियों के शिकंजे में कसता
उस दाने की दरयाफ्त सुनूं
कि चरमराहट की आवाज के साथ
पिसते दानों पर
भूख का भार बढ़ रहा.
अब तो कुछ करूं
कि चमड़े की महक
भ्रम पैदा करती
निर्माण और उपभोग के बीच

बहुत संवेदनशील रचनाएं ..आभार

वर्षा said...

पहले एक बार जल्दबाज़ी में पढ़कर निकल गई थी, दोबारा पढ़ी, बहुत सुंदर। मुझे भी यही लाइन ख़ास पसंद आई...बुलबुल सोच रही है, आसमान के फटे बादल जुड़ेंगे, तो बारिश होगी।