Saturday, September 26, 2009

हवा में रहेगी ख़यालों की बिजली...



दरजे पांच की हिन्दी की किताब में भगत सिंह पर एक पाठ (सबक यानी लेसन) था। इसकी शुरुआत भगत सिंह के उस ख़त की काव्यपंक्तियों के अनुवाद से होती थी जो उन्होंने फांसी से पहले अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखा था। भगत सिंह का नाम हमारे लिए बेहद जाना-पहचाना था और इस नाम के प्रति गहरी आस्था भी थी। पर कोर्स के इस पाठ की शुरुआती लाइनें दिल-दिमाग (दिमाग तो खैर इतना काबिल नहीं था) को छू गईं थीं। ये लाइनें कुछ इस तरह थीं - ऊषा काल के दीपक की लौ की भांति बुझा चाहता हूँ। इससे क्या हानि है जो ये मुट्ठी भर राख विनष्ट की जाती है। मेरे विचार विद्युत की भांति आलोकित होते रहेंगे। मुझे तब न समाजवाद के बारे में कुछ पता था, न कम्युनिज्म के बारे में। ६-७ बरसों बाद अचानक एक पत्रिका में भगत सिंह का मशहूर लेख `मैं नास्तिक क्यों हूँ?` पढने को मिला। मैं दयानंद के अनुयायी परिवार का पक्का ईश्वरवादी था और आर्यसमाज के तार्किक होने के तमाम दावों के बावजूद ईश्वर के अस्तित्व को लेकर किसी तरह की शंका का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन इस लेख का जैसा असर मुझ पर हुआ, वैसा शायद ही किसी दूसरे लेख या किताब का हुआ हो। तत्काल मैं किसी तरह के भावावेश में नहीं था पर धीरे-धीरे मैंने पाया कि ईश्वर के अस्तित्व जैसी कोई धारणा मेरे भीतर कतई नहीं है। बाद में भगत सिंह की लिखी दूसरी उपलब्ध सामग्री मिली और हमेशा ही उनके आलोचनात्मक विवेक को लेकर हैरत होती रही।

हैरत यह कि इत्ती कम उम्र में ऐसा विवेक और साहस जो विचार और एक्शन को हर किस्म के झूठे फंदे से मुक्त कर दे। आखिर बड़े से बड़े प्रगतिशील लेखक, विचारक, एक्टिविस्ट कई तरह की संकीर्णताएं के छीटों से अपने लेखन और जीवन को बचा नहीं पाते हैं. कुछ जाति के मसले पर तो कुछ साम्प्रदायिकता के मसले पर तमाम किन्तु-परन्तु लगाकर काम चलाते हैं. सामंतीपन और आत्ममुग्धता तो खैर इन लोगों के जेवरों की तरह मौजूद रहते हैं. लेकिन आप भगत सिंह को जाति के सवाल पर पढ़िए तो अपनी छोटी सी टिप्पणी में ही वे धर्म और राष्ट्र की दुहाई देकर जाति और वर्ण की रक्षा को आतुर दुसरे `अछूत उद्धारकों` जैसा रवैया नहीं अपनाते बल्कि इस मुद्दे पर उनके यहाँ आंबेडकर और पेरियार जैसे दलित नेताओं जैसा दो टूक आह्वान मिलता है. धर्म और साम्प्रदायिकता के सवाल पर भी उनके विचार बेमिसाल हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि उनके दस्तावेज लम्बे समय तक अँधेरे में रहे और इसका फायदा उठाकर संघ जैसी सांप्रदायिक और जातिवादी ताकतें उनके नाम का इस्तेमाल करने की कोशिश करती रहीं।
भगत सिंह का एक और गुण जो मुझे बेहद आकर्षित करता है, वह है उनका खुद तक के प्रति भी निर्मम आलोचनात्मक रवैया रखना. ऐसे लोग कम ही मिलेंगे (और राजनीति में तो और भी कम और खुद को आभामंडल से घिरा महसूस करने वाले तो नहीं के बराबर) जो अपने पिछले कदम की गलतियों को स्वीकार कर सकें. इस दौर में जब दुनिया में और अपने देश में पूंजीवादी व साम्राज्यवादी ताकतें न्याय व बराबरी के सवाल को बेशर्मी से कुचलने को उतारू हैं तो भगत सिंह का ऐतिहासिक बयान - जब तक शोषण है, संघर्ष जारी रहेगा - बिखरी हुई लडाइयों के रूप में ही सही पर सच साबित हो रहा है. बेशक इन संघर्षों को ऐसे नायकों की ज्यादा से ज्यादा जरूरत है जो धर्म, जाति, पुनरुत्थानवाद और ऐसे तमाम धूर्त फंदों से पूरी तरह मुक्त हों.

Saturday, September 19, 2009

सैर-सपाटा







ये तस्वीरें कबीर ने भेजी हैं. कबीर दिल्ली में रहता है, नौवीं-दसवीं का छात्र है और अपना कई बरस पुराना दोस्त है.

Wednesday, September 16, 2009

हुसेन : गुरबत में हों अगर हम...





शान-ए-हिंद, तुझे सालगिरह मुबारक हो



गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में


समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा


-इक़बाल

Tuesday, September 15, 2009

मसला - वीरेन डंगवाल



बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?

कातिल मज़े में हैं
तो क्या हम मान लें कि क़त्ल करना मज़ेदार काम है?

मसला मनुष्य का है
इसलिए हम हरगिज़ नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए बना है मनुष्य

Wednesday, September 2, 2009

चरनदास चोर नहीं है – मंगलेश डबराल


हमारे पीढ़ी के बहुचर्चित कथाकार और कवि उदय प्रकाश की इस चिंता (जनसत्ता, 16 अगस्त) में ज्यादातर लोग शरीक होंगे कि ‘जब सारे अंदेशे और बुरे सपने सच होने लगते हैं तो उनकी परछाईं देर-सबेर सारे देश और बृहत्तर समाज पर भी गिरती है।' दरअसल ये छायाएं देश और समाज ही नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों और संवेदनाओं पर भी मंडराती रहती हैं। हिटलर सरीखा तानाशाह अपनी मांद में दयनीय ढंग से नष्ट हो जाता है लेकिन उसके वर्षों बाद भी पूरा यूरोप हिटलर की वापसी की आशंका से मुक्त नहीं हो पाता, यातना शिविरों के शिकार हुए लोग मिट जाते हैं लेकिन यातना की स्मृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। इन पंक्तियों के लेखक को उदय प्रकाश के कई तर्कों को पढ़ते हुए यूनान के कवाफ़ी और जॉर्ज सेफरिस के समकक्ष मानेजाने वाले महाकवि यानिस रित्सोस की याद आती है, जिन्हें टीबी जैसे रोग से ग्रस्त होने के बावजूद मैटाक्सस से लेकर पापादिपूलोस जैसे तानाशाहों की सरकारों ने करीब पंद्रह वर्ष तक जेल में रखा या विभिन्न द्वीपों में निर्वासित किया और जिनकी महान रचनाओं पर करीब पच्चीस वर्ष तक प्रतिबंध लगा रहा। ऐसा इसलिए हुआ कि रित्सोस यूनान की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और उनकी एक लंबी कविता ‘एपीताफ़िओस’ मिकिस थिओदोराकिस की लिपि में संगीतबद्ध होकर जनसाधारण का प्रतिरोध-गीत बन गयी थी। लेकिन इतनी लंबी यंत्रणा झेलने के बाद 11 नवंबर 1990 को यानिस रित्सोस के निधन पर ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में उनके प्रति जो श्रद्धांजलि प्रकाशित हुई, उसमें कहा गया था कि ‘यानिस रित्सोस की क्रान्तिकारी राजनीति के बावजूद यूनान की कट्टरपंथी सरकार ने घोषणा की कि उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जायेगा। हमारे देश के कालजयी रंगकर्मी और सांस्कृतिक व्यक्तित्व हबीब तनवीर के निधन पर जब मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने, बक़ौल उदय प्रकाश, 21 बंदूकों की सलामी का राजकीय सम्मान दिया तो यह जैसे रित्सोस के अंतिम संस्कार की पुनरावृत्ति ही थी।

उदय प्रकाश का यह कहना सच नहीं है कि छत्तीसगढ़ में ‘प्रतिबंधित’ हबीब तनवीर मध्यप्रदेश में उसी भाजपा के शासन के तहत ‘अभिनंदित’ थे। दुनिया भर के लोकतंत्रों में रंगकर्म राज्य के अनुदान पर निर्भर रहता है और सच यह है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर’ को मिलने वाली सहायता राशि में कई तरह की रुकावटें पैदा की गयीं, उनके रंगमंडल का घर खाली करवाने और उन्हें भोपाल छोड़कर जाने के लिए विवश करने की सरकारी कोशिशें हुईं, और जैसा कि उस समय की अखबारी रिपोर्टों और हबीब साहब पर बनी एक फिल्म ‘मोर नाँव हबीब तनवीर’ से जाहिर होता है, उनके नाट्य प्रदर्शनों को जगह-जगह रोका गया, धमकियां दी गयीं और उपद्रव मचाकर दर्शकों से भरे हुए हॉल खाली करवाये गये। कुल मिलाकर यह हबीब तनवीर जैसे कड़ियल का दमखम था या उनकी वैचारिक ताकत थी कि वे भोपाल में ही डटे रहे हालांकि उन्हें जिन रोजमर्रा परेशानियों का सामना करना पड़ा उनकी कहानी शायद कभी कोई – जैसे उनकी बेटी नगीन – लिखे तो हम 21 बंदूकों की सलामी देने वाली सत्ताओं की असलियत कुछ समझ पायेंगे। अभी हम सिर्फ यही पूछ सकते हैं कि क्या कोई सभ्य सत्ता-व्यवस्था हबीब तनवीर जैसे कालजयी व्यक्तित्व का घर खाली कराती है? यहां हम यह याद कर सकते हैं कि 1967 में जब ज्यां पॉल सार्त्र को पेरिस के छात्र विद्रोह का सक्रिय समर्थन करने के कारण गिरफ्तार किया गया तो तत्कालीन राष्ट्रपति शार्ल द गॉल ने उन्हें तुरंत रिहा करते हुए कहा था : 'वोल्तेअर को कौन गिरफ्तार कर सकता है!’

आखिर ऐसा क्यों है कि अपने बड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों को तरह-तरह से सताने वाली सत्ता व्यवस्थाएं उन्हें मरणोपरांत राजकीय सम्मान प्रदान करती हैं, उनकी स्मृति में स्मारक बनाती हैं या उनके नाम पर पुरस्कार स्थापित करती हैं जो उन लोगों को भी दिये जाते हैं जिनके मूल्य अक्सर उन दिवंगत बुद्धिजीवियों के विपरीत होते हैं? हम जानते हैं कि मध्यप्रदेश में मुक्तिबोध जैसे महाकवि की इतिहास संबंधी एक पाठ्य-पुस्तक पर कांग्रेस के शासन में प्रतिबंध लगा था जिससे मुक्तिबोध मानसिक रूप से हमेशा संतापित रहे और बार-बार अपने पत्रों में इसे हटाने की मांग किया करते थे। यह प्रतिबंध आज भी जारी है जबकि मध्य प्रदेश से निकल कर बने राज्य छत्तीसगढ़ में सरकार ने बाकायदा मुक्तिबोध का स्मारक बना दिया है और उसे एक लेखकीय तीर्थ के रूप में प्रचारित किया जाता है। सवाल यह है कि क्या रित्सोस और हबीब तनवीर के शवों को दी गयी राजकीय सलामी और मुक्तिबोध के स्मारक के निर्माण का उद्देश्य इन कालजयी व्यक्तित्वों का सम्मान और अभिनन्दन करना होता है या फिर ऐसी विरूप प्रतीकात्मकता के जरिये अमानुषिक, सांप्रदायिक, तानाशाह सत्ताएं अपनी तथाकथित उदारता और लोकतांत्रिकता को स्थापित करना चाहती हैं ताकि उनके पिछले दुष्कृत्यों पर पर्दा पड़ सके।

अब तक मिली खबरें बताती हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सतनामी पंथ के मुखिया महंथ बालदास द्वारा धमकी दिये जाने के बाद हबीब तनवीर के नाटक ‘चरनदास चोर’ की पाठ चर्चा पर प्रतिबंध लगाया था क्योंकि नाटक से पहले हबीब साहब की लिखी हुई एक बेहद रोचक भूमिका में हस्बे-मामूल यह उल्लेख किया गया है कि सतनामी पंथ के प्रवर्तक गुरु घासीदास पहले एक डाकू थे। समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की ‘संस्कृतकरण’ व्याख्या को छोड़ दें तो इस जनश्रुति के सच या झूठ होने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ‘चरनदास’ नाटक का मूल संदेश तो उसके एक गीत में ही निहित है: ‘सुनो सुनो संगवारी, भाई मोर चरनदास चोर नहीं है।’ कुछ लोगों द्वारा यह कहकर भी इस घटना को मामूली बताने की कोशिश की गयी कि ‘चरनदास चोर’ के मंचन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा है। लेकिन जब इस नाटक का कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं तो प्रतिबंध लगाने या न लगाने की बात अप्रसांगिक है हालांकि यह कल्पना की जा सकती है कि एक सरसरे उल्लेख के आधार पर अगर किताब पढ़ाये जाने पर रोक लग सकती है तो नाटक का मंचन हुआ होता तो उस पर जरूर कोई उपद्रव होता, पूरा प्रतिबंध लगता और मध्यप्रदेश की ही तरह, ‘चरनदास चोर’ सांप्रदायिक तत्वों का शिकार बन चुका होता। गनीमत है कि ऐसा नहीं हुआ।

अपनी टिप्पणी में उदय प्रकाश जगह-जगह निम्नवर्गीय-सबऑल्टर्न-विमर्श के जरिये महावृत्तान्तों को प्रश्नांकित किये जाने की वास्तविकता को उभारते हैं, लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि महंथ बालदास भी एक सत्ता संरचना के शीर्ष पर हैं और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे सतनामी पंथ के सभी सदस्यों के प्रतिनिधि हैं या उनकी चेतना और उनका विवेक हैं। ठीक उसी तरह जैसे गोरखपुर स्थित गुरु गोरखनाथ की पीठ के आधुनिक दौर के मुखिया महंथ दिग्विजय नाथ और आदित्य नाथ को इस पीठ का सच्चा उत्तराधिकारी मानना कठिन है क्योंकि वे एक समय के मूलगामी प्रेम और ध्यानमग्नता के दर्शन को सांप्रदायिक विद्वेष, घृणा और आक्रामकता के अभियान में बदलकर एक गहरे रसातल में ले जा चुके हैं। ये हमारे समय की क्रूर-निर्मम विपर्यय हैं जिनमें अतीत के क्रान्तिकारी अभियान आज के पतित मठ बन जाते हैं, जातिवाद का विरोध खुद अपने को जातियों में विभाजित कर लेता है, उत्पीड़ित दलित चेतना एक बहुसंख्यक और उत्पीड़क सवर्ण विमर्श से हाथ मिला लेती है, मुंबई की मैली चालों से उभर कर अपने समय की मराठी कविता को बदल देने वाला कवि नामदेव ढसाल समूची दलित चेतना को धता बताता हुआ शिवसेना के माफिया की शरण में चला जाता है, कोई स्वघोषित क्रान्तिकारी रचनाकार किसी सांप्रदायिक नेता से कोई भी पुरस्कार ग्रहण कर लेता है, कोई स्वघोषित क्रांतिकारी रचनाकार किसी साम्प्रदायिक नेता के कर-कमलों से किसी व्यापारी संघ द्वारा स्थापित कोई पुरस्कार ग्रहण कर लेता है, मध्य प्रदेश में भाजपा-शासित भारत भवन का बहिष्कार करने वाले प्रगतिशील साहित्यिक नेतागण दूसरे भाजपा-शासित राज्य और सलवा जुडुम जैसे कुख्यात संगठनों के जनक छत्तीसगढ़ की पुलिस के मुखिया द्वारा आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में जाने से कोई परहेज नही करते और अंत में हम देखते हैं कि सारे विचार एक ही थाली में आराम से खाना खा रहे हैं। उदय प्रकाश द्वारा गोरखपीठ के संचालक आदित्य नाथ के हाथों पुरस्कार लेने का प्रकरणी भी इसी विमर्श का एक हिस्सा है हालांकि उसकी आलोचना को किसी सत्ताधारी गिरोह की निजी कुंठा की तरह देखा गया।

दमनकारी सत्ताओं की ‘भर्त्सना’, ‘निंदा’ और ‘विरोध प्रस्ताव’ जैसी कार्रवाइयों को उदय प्रकाश ने ‘सुविधावादी और सरलीकृत राजनीतिक समझ और रणनीति’ करार दिया है और कहा है कि ‘ये बासी और खोखले तरीके अब गैर-ईमानदार और चतुर लोगों के हाथ के झुनझुने’ बन चुके हैं। इस सन्दर्भ में पहली बात यह है कि प्रतिरोध की संस्कृति कुछ चालाक लोगों के हाथों में आकर अपना मूल्य नहीं खो देती, गो कि तात्कालिक रूप से ऐसा लग सकता है। यहां हम देश के सबसे बड़े आधुनिक चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन की जानी-पहचानी त्रासदी को देख सकते हैं। वे कई साल से स्व-निर्वासन में हैं और कुछ संगठन समय-समय पर उनकी देश-वापसी और इसके लिए एक अनुकूल वातावरण की मांग सरकार से करते हैं। सरकार हमेशा यह तर्क देती है कि हुसेन जब चाहें भारत आ सकते हैं, उनके लिए दरवाजे खुले हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि हुसेन भारत आ नहीं सकते और शायद अब आना भी नहीं चाहते होंगे, क्योंकि उन पर भाजपा के सहस्रमुख वैध-अवैध संगठनों की ओर से एक सौ से अधिक मुकदमे दायर किये गये हैं और वे जब कभी भारत आयेंगे, किसी न किसी धारा के तहत गिरफ्तार कर लिये जायेंगे। अब हुसेन की देश-वापसी की मांग लगभग एक अनुष्ठान में बदलने जा रही है और हमारे समकालीन कलाकार अपनी कला को बेचने में इस कदर डूब चुके हैं कि उन्हें हुसेन का खयाल भी नहीं आता। संभव है कि कुछ लोग इस मांग को झुनझुने की तरह ‘जब चाहतें हैं तब बजा देते’ हों, लेकिन इससे क्या यह पूरी मांग और यह आवाज महज एक झुनझुना बन जाती है? उदय ने तसलीमा नसरीन के प्रकरण का भी उल्लेख किया है जिसकी राजनीतिक पेचीदगियों में गए बिना भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि बांगलादेश के कट्टरपंथी मुल्लाओं के विरोध के बाद पश्चिम बंगाल की सरकार ने ही उन्हें पनाह दी थी.

उदय प्रकाश जिन सरलीकरणों की आलोचना करते दिखते हैं, खुद भी उनके शिकार लगते हैं। वे उत्तर-आधुनिक फैशन में महावृत्तांतों और मोनोलिथ वैचारिकताओं को सरलीकृत और उनके टूटने से पैदा हुई अस्मिताओं को जटिल संरचना मानते हैं। महावृत्तांतों को वे एक गहरे संशय से देखते हैं, लेकिन लघुविविमर्शों के लिए कोई आलोचनात्मक कसौटी नहीं अपनाते। इस तरह देखने पर उत्तर भारतीय दलित राजनीति में कांसीराम और मायावती को तमाम संदेहों से परे दलित नेतृत्व का अंतिम विकल्प मान लिया जायेगा। और यह कहना भी चतुराई या भोलापन या फिर दोनों हैं कि चरनदास चोर, हबीब तनवीर और टाटा की छोटी कार नैनो का एक भूगोल से दूसरे भूगोल में स्थानांतरित हो जाना महज एक स्थानिक-सांख्यिकीय परिघटना है जिसके राजनीतिक निहितार्थ नहीं हैं। उदय प्रकाश अपने को ‘प्रचलित राजनीतिक भाषा और उसकी चालू प्रतिक्रयाओं‘ से थोडा सा अलग हटकर सोचने और बोलने’ वाला व्यक्ति मानते हैं लेकिन विडंबना यह है कि उनकी सारी शब्दावली उस प्रचलित राजनीति की ही है, जिसमें ‘दबी-कुचली जातियों’ और ‘अनगिनत पंथों’ के ‘स्वाभिमान’ और ‘अधिकारों’ और सत्ताओं में उनके हिस्से को बिना किसी आलोचनात्मक पड़ताल के बारबार रेखांकित किया जाता है। जिस महावृत्तांत के खोखलेपन की तरफ वे इशारा करते हैं वह दरअसल मार्क्सवाद है, लेकिन इससे कौन इनकार करेगा कि आज यह वैचारिक दर्शन एक सत्ता के रूप में ध्वस्त और बहिष्कृत है – महज एक लाल कपड़ा, जिसे देखते ही दुनिया के संपन्न शासक वर्ग, बहुराष्ट्रीय निगम, देसी पूंजीपति, खाता-पीता मध्यवर्ग, बाजार, मीडिया सब मुहावरे की बैल की तरह भड़क उठते हैं? साथी, यह विचार तो सबसे किनारे के हाशिये पर है, इसके पास कौन सी सत्ता है?

हमारे समाज में अगर यह बाजार का युग है तो साहित्य में इसे अंधकार का ही युग कहा जाना चाहिए। खासकर हिंदी समाज में अब न कोई बड़ा विचार रह गया है न कोई बड़ा स्वप्न और न कोई बड़ी रचना जो इन दोनों के मेल से उपजती है। इस अंधेरे में कभी कोई महाश्वेता देवी, कोई अरुंधति रॉय, कोई वरवर राव दिख जाते हैं जो प्रतिरोध के विचार को अपनी नैतिकता की तरह मानते हैं और हमें चेतावनियां देते रहते हैं जिन्हें हम उतनी ही तत्परता से अनसुना कर देते हैं। कई वर्ष पहले रघुवीर सहाय ने लगभग भविष्य-कथन करती हुई अपनी कई कविताओं में से एक कविता में लिखा था :

मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो
खतरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे
तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा
बेकार हो चुकी होगी।


उदय प्रकाश ने पूछा है कि ‘विरोध और भर्त्सना के अलावा हम और क्या कर सकते हैं।’ इसका जवाब यही हो सकता है कि हम विरोध और भर्त्सना का मूल कर्तव्य न छोड़ें। खासकर तीसरी दुनिया के लिए एडवर्ड सईद की यह सलाह शायद हमेशा याद रखने लायक है कि बुद्धिजीवियों को प्रतिपक्ष की ही भूमिका निभानी होगी। उदय प्रकाश की इस आशंका का जवाब कि अगर उनकी कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ पर कोई फिल्म बनी तो उसके साथ भी ‘परजानिया’ या गौहर रजा की फिल्मों जैसा सलूक हो सकता है, इसी प्रतिश्रुति में निहित है। दुर्भाग्य से, अगर ऐसा हुआ तो इसका विरोध करने वालों की अब भी कमी नहीं होगी।

(जनसत्ता से साभार)