Tuesday, December 29, 2009

आदिवासीजन धरती को बचाने की लड़ाई के वॅनगार्ड हैं- ह्यूगो ब्लांको




साठ के दशक में पेरू की दमनकारी सामंती कृषि व्यवस्था के खिलाफ ह्यूगो ब्लांको ने किसानों के सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया. सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने पर उन्हें उम्र-क़ैद की सजा सुनाई गई- उनकी रिहाई के लिए चली अंतर्राष्ट्रीय मुहिम के फलस्वरूप उन्हें मुक्त कर देश-निकाला दे दिया गया. निर्वासन के कुछ साल स्वीडन, मेक्सिको और चिले में बिताने के बाद देश लौटकर उन्होंने वर्कर्स रेवोल्यूशनरी पार्टी की स्थापना की और संसद के लिए चुने गए. 1992 में अल्बर्टो फुजीमोरी द्वारा सत्ता हथिया कर आपातकाल लागू करने पर उन्हें फिर देश छोड़कर मेक्सिको में शरण लेनी पडी. सम्प्रति वे और उनका मासिक पत्र ला लूचा इन्डीजेना (आदिवासी संघर्ष) अमेज़ॉन घाटी के बाशिन्दों के संघर्ष के सबसे बुलंद हिमायती हैं. पेरू के दक्षिणी शहर अराकीपा के विश्वविद्यालय में 28 अगस्त को हुई कृषि सुधारों सम्बन्धी कांफ्रेंस में हिस्सा लेने के एक दिन बाद ही वैकल्पिक मीडिया समूह वर्ल्ड वार 4 रिपोर्ट ने उनसे बात की.

आपने कल रात कहा कि आज अमेज़ॉन घाटी के आदिवासीजन पेरू में संघर्ष के वॅनगार्ड है. क्या आप इस बारे में और कुछ कहना चाहेंगे?

संघर्ष केवल भूमि को मुक्त कराने के लिए नहीं है, बल्कि सिएरा (पहाड़ों) में उत्खनन कंपनियों द्वारा हो रहे ज़मीन के विषाक्तीकरण, सेल्वा में
तेल और गैस प्रकल्पों, नदियों में ज़हर घोले जाने, मछलियों के मारे जाने, पंछियों के मारे जाने और लोगों के मारे जाने के खिलाफ भी संघर्ष है. सिएरा में अब भी बहुत सारे संघर्ष जारी हैं- काहामरका में, पिउरा में. कल ही इस अराकीपा प्रांत के इज़ले जनपद में संघर्ष हुआ जिसमें बहुत से लोग घायल हुए. पर यह सभी संघर्ष बिखरे हुए हैं, छितरे हुए हैं. तिस पर 50 विभिन्न राष्ट्रीयताओं और भाषाओं के बावजूद अमेज़ॉनिको लोग एकजुट हुए हैं. उत्तर के, मध्य के, दक्षिण के अमेज़ॉनिको. एक लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण संघर्ष तैयार करने के लिए वे एकजुट हुए हैं. पिछले साल उन्होंने एक संघर्ष में जीत हासिल कर सरकार से रियायतें पाईं. अब वे दूसरी लड़ाई लड़ रहे हैं, और सरकार ने हथियारों से जवाब दिया है. मगर फिर सरकार को पीछे हटना पड़ा और इन दो कानूनों को उलट दिया गया. उन्होंने एक और फतह हासिल की.
यह एक शांतिपूर्ण संघर्ष था जिस पर सरकार ने छलपूर्वक हमला किया, पर आदिवासियों ने पुलिस से हथियार छीन कर अपनी रक्षा खुद की. इसलिए मुझे लगता है कि यह एक सबक है- न केवल पेरू के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए भी. दुनिया भर में काफी लोग पर्यावरण के बारे में चिंतित हैं - और अच्छे अर्थों में, क्योंकि जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वीकार किया है अगले सौ सालों में मानवता नष्ट हो सकती है.
और यह संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ है. अपने अगले कदम को जाँचने-परखने के लिए इस महीने उनके नेताओं की बैठक होने वाली है. पिछले कुछ महीनों से जारी नाकेबंदियों पर शायद वे न लौटें. पर कंपनियों को वे अपने इलाकों में घुसने तो नहीं देंगे. इसलिए मैं कहता हूँ कि अमेज़ॉनिको पेरूवासियों और सारी दुनिया को सिखा रहे हैं कि प्रकृति और इंसानी नस्लों के अस्तित्व की रक्षा कैसे की जाती है.

पर आपकी अपनी विरासत तो काम्पेसिनो (खेतिहर) संघर्ष के नेता के तौर पर है....

हाँ, हमें संघर्ष करना पड़ा था. स्पेन के लोग यहाँ मसालों की तलाश में आये पर उन्हें मसाले नहीं मिले, बल्कि उन्हें मिले सोना-चांदी. पर कृषि-सम्बन्धी समस्या में उन्होंने योरप की सामंती व्यवस्था लागू कर दी- जिसमें सामंतों के पास बेहतर ज़मीनें होती थीं और दास उनकी सेवा करते थे जिसकी एवज में उन्हें खुद के लिए ज़रा सी ज़मीन जोतने दी जाती थी. यह व्यवस्था आज़ादी के लिए हुई क्रान्ति के बाद भी बरकरार रही, इन्दिओस के लिए कुछ भी नहीं बदला. ज़पाटा के विद्रोह के साथ ही मेक्सिको में यह स्थिति बदली. 1952 में बोलीविया में वहां के विद्रोह के बाद यह व्यवस्था दूर हुई . मगर यहाँ पेरू में यही व्यवस्था बनी रही. 1962 में हमने संघर्ष शुरू किया- जो ज़मीनें जोत रहे हैं उनके लिए ज़मीन हासिल करने के लिए. और जब सरकार ने हम पर हिंसक तरीके से हमला किया तो हमें मजबूरी में हथियार उठाने पड़े. पर अंततः सरकार को कृषि सुधार कानून पारित करना पड़ा जिसमें यह स्वीकार किया गया कि ज़मीन पर काम्पेसिनो का हक़ है.
मैं आठ सालों तक जेल में रहा. वे मुझे मौत की सजा देना चाहते थे पर शुक्र है अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का कि मैं जीत गया, वे मुझे मार नहीं सके. अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का शुक्रिया कि आठ सालों बाद मैं आजाद हुआ. इसलिए मुझे लगता है कि अमेज़ॉन के संघर्ष में बंदी बनाए गए लोगों के लिए संघर्ष करना मेरी ज़िम्मेदारी है, ज़िम्मेदारी है उनके लिए लड़ने की जो मेरे लिए लड़े.

अब तक अमेज़ॉन घाटी के लोग अलग-थलग से रहे हैं और पेरू के वर्ग संघर्ष में शामिल नहीं रहे हैं. क्या आपको लगता है कि अब वैश्वीकरण की प्रक्रिया में वे देश के वृहत्तर सामाजिक संघर्ष का हिस्सा बन रहे हैं? 

उनका संघर्ष वर्ग को लेकर नहीं है. उनका संघर्ष उस प्राकृतिक परिवेश की रक्षा को लेकर है जिसमें वे सहस्त्राब्दियों से रहते आए हैं. पर अब यह प्रकृति ही - जिसे वे अपनी माता समझते हैं- खतरे में है. पेड़ों को काटती टिम्बर कम्पनियाँ, नदियों में ज़हर घोलती तेल कम्पनियाँ- इन चीज़ों के खिलाफ उनका विद्रोह है. वे इसे वर्ग संघर्ष के तौर पर नहीं देखते. इसके बावजूद भी यह संघर्ष बहुराष्ट्रीय निगमों के खिलाफ है जिनकी रक्षा सरकार कर रही हैं. इसलिए हम समझते हैं कि यह वर्ग संघर्ष से सम्बन्धित ही है.


1968 की आपकी पुस्तक तिएरा ओ मुएरते में बहुत कुछ ट्रोत्स्की की विचारधारा है. क्या अब भी आप ट्रोत्स्कीवादी हैं? 
यह एक पोलेमिकल कृति है जो मैंने इसलिए लिखी क्योंकि हमारी बहस स्तालिनवाद के साथ थी- जिसकी नीति थी कि कानून के अन्दर रहकर काम किया जाए, न्यायिक व्यवस्था के द्वारा संघर्ष किया जाए इत्यादि. जबकि हमारी यह मान्यता थी कि क्रान्ति के लिए छापामार आन्दोलन ज़रूरी है. तो यह इन दो विचारों के बीच की बहस थी- एक तरफ सुधारवादी विचार और दूसरी तरफ छापामार-पद्धति समर्थक विचार जो मानता है कि जनता को खुद संगठित होना पड़ेगा और जब जनता फैसला ले कि हथियार उठाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है तो हथियार उठाने होंगे. पर फैसला जनता का होगा न कि किसी समूह या पार्टी का.
मैंने ट्रोत्स्की का बचाव इसलिए किया क्योंकि संघर्ष स्तालिनवाद के खिलाफ था. क्या मैं अब भी ट्रोत्स्कीवादी हूँ? पता नहीं. कुछ अर्थों में हूँ और कुछ में नहीं. नौकरशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी विचारों की हिफाजत करने में ट्रोत्स्की का विश्वास था. मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम पर आगे बढ़ाए जा रहे स्तालिनवादी विचारों जैसे 'एक देश में समाजवाद' और 'प्रगतिशील बुर्जुआ' और 'अलग अलग चरणों में क्रान्ति' के खिलाफ उन्होंने विश्व क्रान्ति का बचाव किया.
ट्रोत्स्की की कही एक बात जो सच साबित हुई वह यह है कि अगर मेहनतकश अवाम ने नौकरशाही से ताकत नहीं हथियाई, तो नौकरशाही की जगह पूंजीवाद ले लेगा. और ऐसा ही हुआ. आज सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख डाइरेक्टर्स रूस के सबसे बड़े नवउदारवादी हैं. ट्रोत्स्की ने कहा था कि या तो मेहनतकश अवाम की जीत होगी या बुर्जुआ की. उन्होंने यह भी कहा था कि नौकरशाही कोई सामाजिक वर्ग नहीं और उसका कोई ऐतिहासिक भविष्य नहीं. दुर्भाग्यवश नौकरशाही की ताक़त को मेहनतकश अवाम ने नहीं तोड़ा, इसलिए उसे तोड़ा बुर्जुआ ने.
पर अब जब स्तालिनवाद नहीं है तो मैं ट्रोत्स्कीवादी क्यों होने लगा? मुझे इसकी कोई ज़रूरत नहीं महसूस होती. बेशक कुछ चीज़ें हैं जो मैंने मार्क्स से सीखी हैं, कुछ लेनिन से, कुछ ट्रोत्स्की से- और कुछ दीगर क्रांतिकारियों से, रोज़ा लक्ज़मबर्ग से, ग्राम्शी से, चे ग्वेवारा से. पर अब मुझे नहीं लगता कि ट्रोत्स्कीवादी पार्टी बनाना तर्कसंगत है. जिन युवाओं ने कल कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था - वे आज के सवालों का जवाब चाहते हैं. गुज़री सदी की पुरानी बहसों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता नहीं है. यही बहुत है कि अब भी भरोसा रखें कि दूसरी दुनिया संभव है. मैं उम्रदराज़ हूँ और अगर मार्क्स, लेनिन, ट्रोत्स्की और दूसरों के बारे में कुछ पढ़ा सकता हूँ तो बस इतना ही. मैं अब भी विश्वास रखता हूँ उठ खड़े होने में, संघर्ष करने में- न कि सरकार से याचना करने में, तो इस मायने में मैं अब भी ट्रोत्स्कीवादी हूँ. पर मुझे यह कहने की ज़रुरत नहीं महसूस होती कि "सब सुनो रे, यह ट्रोत्स्कीवाद ही सही जवाब है!"
और जब मैं अमेज़ॉन के आदिवासियों का वॅनगार्ड के तौर पर ज़िक्र करता हूँ, तो मेरा मतलब मार्क्सवादी-लेनिनवादी अर्थों में नहीं है, बल्कि यह कि दूसरों ने उनके तरीके अपनाने चाहिए. और जब मैं आदिवासी लोगों से बात करता हूँ, मैं 'समूहवाद' की बात करता हूँ न कि 'साम्यवाद' की.

पेरू में आपकी ख्याति एक छापामार योद्धा के तौर पर है जबकि वह आपकी ज़िन्दगी का एक मुख्तसर दौर था. वर्तमान स्थिति में सशस्त्र संघर्ष के बारे में आपका क्या विचार है?

मुझे लगता है कि अमेज़ॉनिको हमें सिखा रहे हैं कि संघर्षों को विशाल और शांतिपूर्ण होना चाहिए- मगर हम पर हमला हुआ तो हमें अपनी रक्षा करने का अधिकार है. नाकेबंदियों पर अमेज़ॉनिको तीर-कमानों, बरछी-भालों और ब्लोगनों से लैस होते हैं. पर वे उनका उपयोग अपनी और अपने इलाके पर धावा बोलने वालों से रक्षा के लिए करते हैं. अगर आप पर हथियारों से हमला किया जाए तो आपको हथियारों से अपनी रक्षा करने का अधिकार है.
मसलन, मैं सेंदेरो लुमिनोसो से सहमत नहीं हूँ- और न ही उनसे जो चुनावों द्वारा ताक़त हथियाने में विश्वास रखते हैं. चाहे हथियारों से हो या चुनावों से, दोनों ताक़त के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इन अर्थों में मैं ज़पातिस्ता हूँ. मैं ताक़त हथियाने के लिए संघर्ष में विश्वास नहीं रखता, बल्कि मेरी आस्था ताक़त खड़ी करने में है. ताक़त खड़ी कर रहे हैं सिएरा के गाँव जो उत्खनन कंपनियों से लोहा ले रहे हैं. ताक़त खड़ी कर रहे हैं सेल्वा के आदिवासी जो अपने इलाके का नियंत्रण कर रहे हैं.
पर जब जनता को लगे कि उन्हें हथियारों से अपनी रक्षा करनी होगी तो उन्हें यह निर्णय लेने का अधिकार है. बोलीविया में, सांता क्रूज़ में दक्षिणपंथी जनता को शासन नहीं करने देना चाहते, उनके शांतिपूर्ण संघर्षों पर
गोलियां चलवाते हैं. तो जनता को इस शक्ति का सामना गोलियों से करने का, लोकतंत्र की रक्षा गोलियों से करने का हक़ है.

आप कहते हैं कि आज एक नया "औद्योगिक लातिफुन्डियो (इस्टेट)' उभर रहा है?

सही है. तटीय क्षेत्र में औद्योगिक पैमाने की बड़ी कंपनियाँ खेतिहर सर्वहारा का, जिनमें ज्यादातर संगठित नहीं हैं, भीषण तरीके से शोषण कर रही है. उन्हें कोई अवकाश नहीं मिलता, उनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है. और ये उद्योग एग्रोकेमिकल्स इस्तेमाल करते हैं जो ज़मीन को ख़त्म कर देते हैं. और यह सब आतंरिक उपभोग के लिए नहीं बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात करने के लिए है.

तो यह नया 'औद्योगिक लातिफुन्डियो' कृषि और उत्खनन दोनों में है?

बिल्कुल - कृषि, उत्खनन, तेल, टिम्बर. यह सब प्राकृतिक परिवेश को लूट रहे हैं. इन लुटेरे निगमों से छुटकारा पाने के लिए नए कृषि सुधार की ज़रूरत है.
पेरू और कोलंबिया के अलावा आज दक्षिण अमेरिका की लगभग हर सरकार थोड़ी-बहुत मात्र में वामपंथी हुई है. इस परिघटना को आप किस रूप में देखते हैं? 
संघर्ष तो जारी रहना चाहिए न? जैसे होन्दुरस के तख्ता-पलट के खिलाफ संघर्ष, सिएरा की उत्खनन कंपनियों, अमेज़ॉन की तेल कंपनियों के खिलाफ संघर्ष. संभव है अगले चुनावों में यहाँ पेरू में नवउदारवाद का कोई चाकर जीत जाए. मेरी दिलचस्पी सामाजिक संघर्षों में है जो जारी रहने चाहिए चाहे जो भी सरकार हो.

वेनेजुएला, बोलीविया, इक्वेडोर की सरकारों के बारे में आप क्या सोचते हैं? आपने कल रात कहा कि आप इन्हें 'अवस्थांतर की सरकारें' मानते हैं?

हाँ, बिल्कुल. साम्राज्य के खिलाफ विमर्श में शावेज़ और कोरिया और मोरालेस कभी कभी बहुत अच्छे लगते हैं. पर फिर भी हम कह नहीं सकते यह एकदम ज़मीन के लोगों की सरकारें हैं. मसलन, शावेज़ समूचे श्रमिक आन्दोलन को उनकी सरकार का औजार बनाना चाहते हैं. मगर आन्दोलन को स्वतंत्र रहना होगा और अपने विचार रखने होंगे. इसलिए मैं उनसे सहमत नहीं हूँ. और इसी वजह से मुझे वेनेजुएला में आमंत्रित नहीं किया गया. (हंसते हैं).
बोलीविया में संसदीय समिति के गठन के बाद हुई रायशुमारी में हुए समझौते मुझे पसंद नहीं जिसमें उन्होंने यह फैसला लिया कि पांच हज़ार हेक्टेयर का एक लातिफुन्डियो होता है. पेरू में ऐसा कहना कुत्सित माना जाएगा. यह मीडिया लुना की प्रतिक्रियावादी सरकारों के साथ हुआ समझौता था.
और जब सांता क्रूज़ में आज़ादी के लिए रायशुमारी हुई तो मोरालेस ने कहा कि बोलीविया के सभी लोग सांता क्रूज़ के लिए आगे आयें और इस अवैधता को रोकें. बोलीवियाई लोग आगे बढ़ रहे थे, पर फिर मोरालेस ने कहा नहीं, जाना ठीक नहीं होगा. काम्पेसिनो रास्ता रोकने के लिए तैयार थे पर मोरालेस ने कहा, नहीं कृपया ऐसा न करें.
सामाजिक आन्दोलनों पर इन रुकावटों से मुझे चीले में अयेन्दे द्वारा लगाई गई रुकावटों का स्मरण होता है जिसने पिनोशे-प्रभाव की मदद ही की. यह रुकावटें प्रति-क्रन्तिकारी प्रवृत्तियों की प्रतीक हैं. मैं इनका विरोध करता हूँ. पर इन प्रवृत्तियों का यह मतलब नहीं कि बोलीविया की सरकार प्रति-क्रन्तिकारी है- ना! आदिवासी समितियों का गठन और दीगर घटनाएं- प्रगति की सूचक हैं. मगर यह भी समग्र प्रभाव प्रदर्शन नहीं है.

तो जब आप कहते हैं 'अवस्थांतर की सरकारें' तो किस अवस्था की ओर?

सभी लोगों की सरकार. बोलीविया और इक्वेडोर और वेनेजुएला में 'सुशासन समितियों' की ओर.

यह तो आप चिआपस के ज़पातिस्ता विद्रोहियों की संचालन समितियों का सन्दर्भ दे रहे है.
तो ज़पातिस्ता आन्दोलन को आप आदर्श के तौर पर देखते हैं?


मैं ज़पातिस्ता आन्दोलन का पूरी तरह समर्थन करता हूँ; वह मुझे सही रास्ता लगता है. जिस तरह का समाज हम भविष्य में बनाना चाहते हैं वे उसका उदाहरण पेश करते हैं. ऐसी सरकार जो लोगों के प्रति उत्तरदायी है, वे उसका उदाहरण पेश करते हैं. सुशासन समितियों का कोई आदिवासी नेता अगर ठीक काम नहीं कर रहा है तो उसे वापिस बुलाया जा सकता है. और ज़पातिस्ता राष्ट्रीय मुक्ति सेना इस क्षेत्र पर शासन नहीं करती. वह सुनिश्चित करती है कि मेक्सिको की राष्ट्रीय सेना जनता को सता न पाए. सुशासन समितियां शासन करती हैं, शिक्षा प्रदान करती हैं वगैरह वगैरह, सरकार से एक भी पैसा लिए बिना.
सान अन्द्रेस समझौते के ज़रिये वे इस व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता दिलाना चाहते थे, और जब मेक्सिको की संसद ने सरकार के प्रस्तावों के पक्ष में इस बात को नामंजूर किया तो उन्होंने मेक्सिको की सभी राजनैतिक पार्टियों को गद्दार घोषित कर दिया और तब से वे किसी भी चुनाव में हिस्सा नहीं लेते. इसके बजाय 2006 के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान उन्होंने अदर कॅंपेन चलाया, और देशभर में घूम घूम कर जनता से पूछा उनकी क्या समस्यायें हैं, और उनका सामना कैसे किया जाये. किसी भी प्रकार की भाषणबाज़ी के बिना जनता के साथ मिलकर काम किया.
वे यह सब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कर रहे हैं. मसलन, न्यू यॉर्क के लोग जो अपने घर बचने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी इस अदर कॅंपेन में सहभागी हुए. इसी वर्ष ज़पातिस्ता इलाके में हुए फेस्टिवल ऑफ़ डिग्नीफाइड रेज में इस ग्रुप का एक वीडियो दिखाया गया था.

हाँ, अल बरियो का मूवमेंट ऑफ़ जस्टिस. आप इस बैठक के लिए मेक्सिको गए थे?

हाँ. मुझे ताक़त खड़ी करने का यह सही तरीका प्रतीत होता है.

पर मेक्सिकन वामपंथी दलों ने ज़पातिस्ता की चुनावों में हिस्सा लेने से इन्कार करने की नीति की आलोचना की है जिसके कारण दक्षिणपंथी जीत सके. 
पर सभी पार्टियाँ जनता को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही हैं. चुनाव ताकत खड़ी करने का जरिया नहीं हैं. सिएरा के समुदाय जो उत्खनन कम्पनियों का सामना कर रहे हैं, और अमेज़ॉन की जनता जो तेल कंपनियों से लोहा ले रही है-वे ताकत खड़ी कर रहे हैं, ज़पातिस्ता की तरह.

आपने कल रात कहा कि साठ के दशक में आप अधिक न्यायपूर्ण समाज हेतु संघर्ष कर रहे थे, पर आज तो यह भीषण मुद्दा है मतलब मनुष्य जाति का अस्तित्व? 
सही है. अमेज़ॉन घाटी के बाशिंदे ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. आप उनसे पूछेंगे तो वे कहेंगे कि वे अपनी भूमि की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मगर वास्तव में वे ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं. आदिवासी लोग पिछले पांच सौ वर्षों से एको-सोशलिज्म के लिए लड़ रहे हैं.

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अनुवाद: भारत भूषण तिवारी

Wednesday, December 23, 2009

हिंदुस्तान अखबार द्वारा पत्रकारों के शोषण की मुहिम का विरोध करें

हिंदुस्तान टाइम्स समूह के दैनिक अखबार हिंदुस्तान में इन दिनों पत्रकारों से एक एग्रीमेंट पर ज़ोर-ज़बरदस्ती से हस्ताक्षर कराया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि उनका मुख्य कार्य पत्रकारिता नहीं है बल्कि वे शौकिया अखबार को कुछ समाचार या रिपोर्ट देते हैं जिनके बदले उन्हें एक फ़िक्स्ड अमाउंट का भुगतान किया जाता है. इस एग्रीमेंट के ज़रिए बिहार, यू.पी. और दूसरे राज्यों के दर्जनों संस्करणों में वर्षों से काम कर रहे सैकड़ों स्ट्रिंगरों को बंधुआ मज़दूर बनाने का काम हो रहा है.
डेढ़ दशक पहले जब हिंदुस्तान में छोटे-छोटे शहरों से संस्करणों के प्रकाशन की श्रृंखला शुरू हुई तो उन्हें बड़ी संख्या में पत्रकारों की ज़रूरत पड़ी. तब हिंदुस्तान के प्रबंधकों ने सस्ते में पत्रकारों की भर्ती के लिए एक नया तरीका ईजाद किया. हिंदुस्तान के कार्यालयों में स्ट्रिंगरों और सुपर स्ट्रिंगरों की दो श्रेणियां बनाकर पत्रकारों की भर्ती की गई
. नियुक्ति के समय इनको कोई नियुक्ति-पत्र आदि नहीं दिया गया और उन्हें भरोसा दिलाया गया कि जल्द ही उन्हें स्थाई कर दिया जाएगा. स्ट्रिंगर और सुपर-स्ट्रिंगर बनने वाले अधिकतर पत्रकार नए थे और कैरियर बनने की जद्दोजहद कर रहे थे. उन्हें समाचारपत्र समूहों में श्रम के शोषण के बारे में ज़्यादा कुछ भान नहीं था. उनमें एक आदर्शवाद था और वे समझते थे कि समाचार-पत्र मालिक अखबार निकालकर देश की सेवा कर रहे है और वे खुद पत्रकारिता के ज़रिए सामाजिक बदलाव लाने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं. इतना महत्वपूर्ण कार्य करने के बदले यदि उन्हें एक या दो हजार रुपए मिल जाते हैं तो कोई बात नहीं है. वे नहीं जानते थे कि अखबार मालिक जो देश के बड़े पूंजीपति हैं उनके इसी जज़्बे का फ़ायदा उठाकर लाखों-करोड़ों रुपए की मजदूरी की लूट करते हैं और अपनी तिजोरी भरते हैं.
समय बीतता रहा. हिंदुस्तान अखबार की ग्रोथ दिन-दूनी
-रात -चौगुनी बढ़ती रही. संस्करण पर संस्करण आते रहे. हिंदुस्तान देश का सबसे तेज़ी से बढ़ता अखबार बन गया. दनादन बढ़ता गया हिंदुस्तान. हिंदुस्तान एच.टी. मीडिया लिमिटेड में बदला और अब हिंदी हिंदुस्तान अलग कम्पनी बनकर हिंदुस्तान मीडिया वेंचर्स लिमिटेड बन गया. बीच के दौर में संपादकों के कुछ दुलारे स्ट्रिगर स्टाफ़ रिपोर्टर बन गए लेकिन ९० फ़िसदी जैसे थे, वैसे ही बने रहे. तीन चार वर्षों के अंतराल में उनका मानदेय कभी पांच फ़ीसदी तो कभी दस फ़ीसदी बढ़ा. चूंकि वे दो या तीन हज़ार पाते थे इसलिए यह बढ़ोत्तरी डेढ़ सौ रुपए और अधिकतम पांच सौ रुपए से ज़्यादा नहीं हुई. कहने के लिए वे स्ट्रिंगर थे लेकिन अखबार निकालने का पूरा काम वे ही करते थे. एक संस्करण के अंतर्गत ज़िलों में स्थापित ब्यूरो या कर्यालय में एक स्टाफ़ रिपोर्टर के अलावा सभी स्ट्रिंगर ही थे और उन्हीं के ऊपर अखबार निकालने की ज़िम्मेदारी थी
. इनके काम के घंटे व साप्ताहिक अवकाश तय नहीं थे. समाचार कवरेज के लिए होने वाली दौड़-धूप के लिए कोई खर्च नहीं दिया जाता. मोबाइल और फ़ोन का खर्च खुद उठाना पड़ता है. यहां तक कि अखबार की अपनी प्रति भी पैसा देकर खरीदनी पड़ती. देढ़ दशक में अखबार के संपादक पद पर अनेक स्वनामध्न्य लोग आसीन हुए जिनकी संवेदनशीलता, न्यायप्रियता,गरीब और मज़दूर की पक्षधरता की दूर दूर तक चर्चा थी.स्ट्रिंगरों ने अपनी व्यथा आंतरिक बैठकों में कई बार बयां की. हर बार उन्हें बतौर पत्रकार राष्ट्रीय कर्तव्य की याद दिलाई गई और कर्म करते रहने और फल की इच्छा संपादकों के विवेक पर छोड़ देने का उपदेश दिया गया.
और अब डेढ़ दशक बाद सभी स्ट्रिंगरों के पास एकएग्रीमेंट का कागज़ आया है जिस पर उन्हें हस्ताक्षर करना है. इसमें लिखा है, "
मैं कभी कभार खेल, राजनीति, संस्कृति, शिक्षा, अपराध ,सामाजिक मुद्दों आदि पर न्यूज़, रिपोर्ट्स और स्टोरीज़ हिंदुस्तान के संस्करण में देता हू. मेरा मुख्य काम पत्रकारिता नहीं है. मैं कुछ और काम करता हूं."
यह एग्रीमेंट एक दिसम्बर, २००९ से एक वर्ष की अवधि के लिए होगा. यदि पत्रकार इससे मुक्त होना चाहे तो कम्पनी को एक महीने पूर्व सूचित कर एक महीने के एडवांस के साथ जा सकता है और कम्पनी जब चाहे कोई नोटिस दिए बगैर उसे हटाने का अधिकार रखती है.
इस एग्रीमेंट के साथ एक छोटा सा पत्र भी है जिसमें पत्रकार को लिखना है कि वह स्वेच्छा से एच.टी. मीडिया लिमिटेड से डिस-एसोसिएट कर रहा है
.
डेढ़ दशक तक अपने जीवन के सबसे अच्छे दिन एक पूंजीपति के अखबार के लिए होम कर देने वाले पत्रकारों के सामने गुलामी के इस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने के अलावा रास्ता क्या है?
यहां पर एग्रीमेंट पेपर साथ में दिया जा रहा है जिससे किसी को यह कहानी न लगे.
(1)
From :
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........................................
.........................................

To :

Hindustan Media Ventures Limted
Pocket-2, Vibhuti khand,
Gomatinagar
Lucknow
Dear sir
I wish to occasionally contribute news reports/ stories for publication in the publication of hindi Hindustan. I will do this work as hobby and journalism is not my whole time avocation. My principal avocation is ………………………………..
Kindly let me know the termes and conditions of this arrangement between the Hindi Hindustan and me. My particular are as under :
1. Name :…………………………………….
2. Father’s / husband’s name :…………………….
3. date of birth
3. Adress :

5. Contact No :……………………………….
6. Education :
7. Experience : …………………………..

date signature



(2)


Hindustan Media
Ventures Limited







Dear
Apropos to your application dated ………………….that you intend to contribute news, reports and stories for publication in our hindi daily, Hindustan ……………..Edition from ……..and that your principal avocation is …………………and not journalism, we wish to inform you that your application has been accepted on the following terms and conditions.

I. you will be sending news reports/ stories about sports, political, cultural, social matters, education, crime etc. which you consider of public intrest and fit to be published in our paper.
II. you will be paid a fix amount of Rs ........... per month for sending news reports/stories. you will also be reimburshed fax/ E-mail charged based on approval from resident Editor/ Unit Head.
III. you will not be getting any other expenses spent on collecting news reports/ stories nor will you be reimbursed secretarial expenses on this account except to the extent, which may be specifically agreed to by the cmpany. you will also not be supplied any stationary.
IV. you will inform the company at least one month in advanced in case you changed your principal avocation.
this arrangement will come into force with effect from december 1, 2009 for a period of one year and is liable to be terminated any time without notice at the discretion of the Management.

your signature on the duplicate copy of this letter will signify your unequivocal acceptance of the above terms and conditions.
with best wishes,
Amit chopra
Business Head-Hindi publaction

(3)
To,
The HR Manager
HT Media Ltd
Human Resources
New Delhi.





Kindly be informed that i would like to disassociate myself with HT Media Ltd. w.e.f. 29 th nov’ 09. please acknowledge the receipt of this letter as token of acceptance.

Warm regards
....................
......................

Tuesday, December 15, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक (रघुवीर सहाय पर मनमोहन) अंतिम किस्त




(पिछली दो किस्तों से जारी) :

रघुवीर सहाय के काव्य संसार में यह चीज बड़ी आश्वस्त करने वाली रही है कि यहाँ हम अपनी उन अनेक बनी-अधबनी चीजों को देखते हैं जिन पर अभी काम चल रहा है और जिनकी जगहें या शक्लें अंतिम रूप से तय नहीं हो गयी हैं। कई महाकवियों के यहाँ जो `आलीशान सन्नाटा` खिंचा दिखायी देता है, जिसमें देखने-दिखाने वाली तमाम चीजें होती हैं जो नाप-तौलकर चमका-चमकाकर रख दी जाती हैं, जैसे वे आख़िरी बार रख दी गयी हों, वैसा यहाँ नहीं है। लगता है रघुवीर सहाय अपनी कविताएँ काफी मेहनत, सावधानी और मनोयोग से लिखते थे लेकिन वह उनके लिए शायद ऐसी किसी विराट और महत्वाकांक्षी परियोजना का रूप नहीं लेती थी कि जिसकी सफलता अनिवार्य हो। उनकी कविता पूरी तरह जीवन-आलोचना के उन सूत्रों में व्याप्त रहती है जो निरंतर सजग-सक्रिय उनकी कविता में हर तरफ फैले रहते हैं। अक्सर वह अपने कामधाम में इतनी व्यस्त दिखायी देती है कि शायद ही वहां `कविताई` के लिए अलग से कोई जगह बच पाती है।

रघुवीर सहाय यथार्थ के साथ खुला हुआ विकासशील सम्बन्ध बनाने वाले कवि हैं। ऐसा कवि जो हर बार यथार्थ की गति का धीरज, सादगी, विवेक और दिलचस्पी के साथ पीछा करता है, अधबीच में भटक जाये या थककर लौट आये तो अपने अधूरे अनुभव को बताने में शर्म महसूस नहीं करता लेकिन `कविता पकड़ने` के लालच में हरगिज नहीं फंसता। शायद इसीलिए रघुवीर सहाय की कविता सबसे कम दावा करने वाली और सबसे कम नाज-नखरे उठाने वाली कविता है। शायद यह भी एक वजह है कि बहुत से कलाविदों को उनकी कविताएँ इतनी कम कविताएँ या लगभग गैर-कविताएँ लगती हैं।

रघुवीर सहाय यह दिखाने के लिये भी याद किये जायेंगे कि कविता अलग से शिल्पकारिता या काव्यात्मकता का कतई कोई भार उठाये बिना भी सीधे-सीधे अपना काम संभाल सकती है और इस तरह नए शिल्प का आविष्कार ज्यादा स्वतंत्रतापूर्वक कर सकती है। उन्होंने कविता की शिल्पकारिता को पूरी तरह उसके काम में ही शामिल कर लिया था। ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने चीजों को बिना किसी सहारे या बहाने के सीधे उनके नाम से पुकारने की मुश्किल लेकिन कारगर शुरुआत की थी। यहाँ यह याद दिलाना शायद उपयोगी होगा कि भाषा की `प्रतीकात्मक जड़ता` को लगभग निर्णायक रूप से ध्वस्त करने का उनका उपक्रम (शायद जिसे हर महत्वपूर्ण कवि अपने ढंग से करता ही है) किसी नयी भाषिक तरकीब की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। वह कवि की `प्रयोगशीलता` या कोई नया शिल्पगत पूर्वग्रह नहीं था। यह उस फासले को कम करने (या शायद स्पष्ट करने) की कोशिश थी जो रचनाकार के संज्ञान और यथार्थ की गतिविधि के बीच सहज ही बन जाता है और जिसमें तमाम तरह के धोखे और स्वांग डेरे डाले रहते हैं। यह कोशिश दरअसल यथार्थ की छटाओं को, उनकी तमाम गतिविधियों और प्रपंचों को खुली आँखों, सादगी के साथ, उसकी स्वाभाविकता में, गद्यात्मकता और लौकिकता में देखने-जाने और उसी भाषा में रचने की योजना का ही हिस्सा थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि रघुवीर सहाय ने कवि के संज्ञान की विधि को कई तरह की रूढ़ियों और कर्मकांडों से आजाद कर दिया और उसकी सृजनशील कल्पना के क्षेत्र को भी काफी कुछ बदल दिया। इस नए मैदान में कविकर्म के लिये जहाँ ढेरों नयी (कई बहुत भारी) असुविधाएं हैं, वहीं यह तय है कि इससे रचना की बिलकुल विरल, व्यापक और वास्तविक संभावनाएं खुली हैं। आधुनिक कविता और मुक्तिबोध की परम्परा में यह एक चीज रघुवीर सहाय का अपना योगदान कही जा सकती है।

रघुवीर सहाय का निधन एक ऐसे समय हुआ है जब तमाम रचनाशील जनतांत्रिक तत्वों के बीच गहरे संवाद और एक नयी किस्म की एकता की जरूरत सबसे ज्यादा बन रही थी। रघुवीर सहाय इस संवाद का शायद सबसे जरूरी पक्ष थे।

पिछले दिनों से (खासकर पिछले दो संग्रहों की कविताओं में) रघुवीर सहाय अधिक अकेले दिखायी देते थे। वहां वह नागरिक दिखायी देता था जो व्यथा के भार से थक चला था, अपने अकेलेपन में जो अपने आपसे और अपने लोगों से इस तरह जुड़ गया था जैसे किसी अप्रत्याशित हमले का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो रहा हो। मृत्यु की नीली रेखा जो जब-तब दिखायी देने लगी थी वह यकीनन अपनी मृत्यु की नहीं थी। शायद फासिस्ट घेराबंदी में घेरा जाता हुआ वह हमारा अपना वक्त ही था।
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Monday, December 14, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक /(रघुवीर सहाय पर मनमोहन) दूसरी किस्त



(पिछली किस्त से जारी)

इसी तरह यह बात भी गौरतलब है कि उन्होंने अपने समय के इस शीतयुद्धीय सुझाव को अमान्य कर दिया था कि `जनतांत्रिक मूल्यों` या `मानव-मूल्यों`, व्यक्ति और `अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता` को अपनी जाहिल और निजी निर्विघ्न दुनिया की ढाल बनाकर खड़ा कर दिया जाय। अपने बहुत से समकालीनों से वे इस बात में महत्वपूर्ण भिन्नता लिए हुए थे कि उन्होंने अपनी आधुनिकता और अपने जनतांत्रिक आदर्शों को एक कहावत की तरह नहीं पा लिया था बल्कि उन्हें अपने रचनात्मक और सामाजिक व्यवहार से बार-बार खोजते, स्थिर करते, बरतते और बदलते हुए अर्जित किया था। एक तरह से रघुवीर सहाय पांचवें-छठे दशक की आधुनिकतावादी निर्मिति के सतही अंतर्विरोधों को बाहर लाकर उसकी स्वतः सम्पूर्णता को ध्वस्त करने वाले कवि भी कहे जा सकते हैं।

रघुवीर सहाय के रचनाशील व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी शायद उनकी संपन्न और आत्मप्रबुद्ध जनतांत्रिक संवेदनशीलता ही थी। लेकिन उनकी शक्ति इस बात में नहीं थी कि वे जनतांत्रिक मूल्यों के `पक्षधर`, उदघोषक या वकील थे बल्कि इस बात में थी कि उन्होंने इन मूल्यों को निर्दिष्ट और इनके पक्ष को परिभाषित मानकर इस तरफ़ से आँखें नहीं मूँद लीं। उन्होंने किसी जड़ अमूर्तता में इन्हें ग्रहण नहीं किया बल्कि ठोस सामजिक आलोचना करते हुए बार-बार परखा। यह निरंतर जाग्रत, सचेत, चीजों को उलटती-पलटती, खोजती, बचाती और नष्ट करती हुई कठोर आलोचनाशीलता ही रघुवीर सहाय की संवेदनशीलता की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है। जो विद्वान इसे `निरी आधुनिकता` (या नयी कविता की `बौद्धिकता`!) मानकर बड़ी आसानी से पल्ला झाड़ लेते हैं, वे यह नहीं देख पाते कि कवि ने इस विवेक को समाज के भीतर, मनुष्यों और संस्थाओं के आपसी संबंधों के भीतर; अत्याचार, अन्याय और पतन के अनगिन दृश्य-अदृश्य रूपों की वर्षों की व्यथा भरी मुश्किल छानबीन के दौरान विकसित किया था।

रघुवीर सहाय ने बहुत सारे मसलों पर जिस तरह अपना रुख तय किया उससे द्वंद्वों को पहचानने वाली उनकी आधुनिक और कुशाग्र आलोचनात्मक बुद्धि का परिचय मिलता है। शायद इसे वजह से वे कई तरह के उन फंदों से बचे रहे जो उनसे बहुत दूर नहीं थे। मसलन रघुवीर सहाय उन लोगों में शामिल नहीं हुए जिनको एक झटके में आधुनिक होने के लिए पहले `कास्मोपालिटन` होने की जरूरत हुई और फिर `भारतीय` होने के लिए `जड़ों`और `जातीय स्मृति` के अन्धकार में शरण लेना जरूरी लगा। `राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत` से भी उन्होंने कोई `मिथकीय तादाम्य` कायम नहीं किया कि वे उस विरासत का भारी मुकुट बस सर पर उठाये घुमते। इसके बजाय उन्होंने इस परम्परा के जीवित अंश को सामाजिक जीवन में पहचानने की कोशिश की। यह पता लगाया कि पहले की इन इन परम्पराओं को अलग-अलग सामाजिक शक्तियां किस तरह व्यवहार में ला रही हैं और यह कि इनके जीवन पोषक तत्वों की रक्षा आज किस तरह की जा सकती है। यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती कि रघुवीर सहाय ने पश्चिमपरस्ती या पश्चिम-विरोध (या एक साथ दोनों) के कुटिल चक्र में फँसने के बजाय ठोस यथार्थ की सकारात्मक और विवेकपूर्ण आलोचना से ही अपनी दिशा तय की जबकि आधुनिकतावादी या `समाजवादी`चिंतन के प्रभाव में आने वाले अल्पविकसित मध्यवर्गीय तत्व अधिकतर इससे बच नहीं सके।

मुक्तिबोध के बाद संभवतः वे पहले कवि हैं जिन्होंने हमारे समय के गंभीर और सर्वव्यापी संकट की ऐतिहासिकता को इतनी सम्पूर्णता के साथ सामने रखा है। इस संकट का वर्णन बहुत से कवि करते हैं लेकिन रघुवीर सहाय की कविता एक तरह से इस संकट की प्रखर और विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करती है जो यह बताती चलती है कि आखिर क्या-क्या दाँव पर लगा हुआ है और अभी बचा हुआ है।

एक सरलचित्त,सहजविश्वासी कवि अक्सर अपनी सदाशयता से कई तरह के काम चला लेता है। अक्सर इस सदाशयता में एक बौद्धिक आलस्य छिपा रहता है जो कवि के सामने कोई असुविधाजनक स्थिति खड़ी हो इससे पहले ही बच निकलने का रास्ता दिखा देता है। रघुवीर सहाय उन सरलचित्त कवियों में न थे। वे ऐसी सुविधाओं का इस्तेमाल करने से वितृष्णापूर्वक परहेज करते थे। इसके बजाय पूरी चुनौती स्वीकार करने का रास्ता उन्हें ज्यादा आकर्षित करता था। बल्कि हम जानते हैं कि रचना के बीच में ऐसे चोर दरवाजों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पकड़ना और बंद करना उन्हें अलग से प्रिय था।

भारतीय समाज और राज्यव्यवस्था के फासीवादी पुनर्गठन की भूमिका ख़ास तौर पर पिछले बीस वर्षों में जिस तरह बनकर सामने आयी है, रघुवीर सहाय की कविता की एक नज़र लगातार उसकी क्रियाविधि पर रही है। इस कठिन दौर में अपमान और व्यथा का भार उठाये हुए भी वह इसकी अन्तरंग कथा को खोलकर कहती रही है। आने वाले दिनों में रघुवीर सहाय हमारे समय के इस उदीयमान फासीवाद के उन पूर्व प्रतिरूपों और विधियों की पहचान की एक साहसिक और बड़ी पहल करने वाले कवि के रूप में जाने जायेंगे जिन्हें पिछले दिनों हमारे सामाजिक जीवन में, रिश्तों में, देखने, महसूस करने,सोचने-समझने के तौर तरीकों में बड़े कपटपूर्ण और रहस्यमय ढ़ंग से शामिल किया गया है। आज जबकि और माध्यमों की तरह कविता की भाषा भी अभिव्यक्ति के इन झूठे साँचों की व्यूह रचना के भीतर चक्कर लगाने में ही परिपूर्ण हो जाती है, रघुवीर सहाय की कविता इन साँचों को तोड़कर बार-बार हमें हमारे वक्त के मनुष्य का जीवन, उसकी जीती-जागती वास्तविकता,उसकी तमाम सुन्दरता और क्रियाशीलता दिखला जाती है। कई बार ऐसे दुर्लभ कोण से, जहाँ से उसे बिना क्षति के पूरा देखा जा सकता है। ऐसा कई बार होता है कि वे एक सधे हुए, मेहनती, कुशल सर्जन की तरह मानवीय स्थितियों को,खासकर उनमें निहित ज्यादा नाजुक और कीमती चीजों को तमाम तरह के खतरों से खेलते हुए बचाकर निकाल लाते हैं। ऐसा अनुभव उनकी अनेक कविताएँ (मसलन `दयाशंकर`) पढ़कर होता है।

(जारी)

Thursday, December 10, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक /(रघुवीर सहाय पर मनमोहन)



(मैं यह लेख कल ९ दिसंबर को सहाय जी के जन्मदिन पर देना चाहता था पर यह मुमकिन न हो पाया। सहाय जी पर यह संभवतः सबसे अच्छे आलोचनात्मक लेखों में से है। यह सहाय जी के निधन के बाद लिखा गया था और बाद में असद जैदी और विष्णु नागर द्वारा संपादित पुस्तक `रघुवीर सहाय` में संकलित किया गया. लम्बा है, इस वजह से थोड़े धैर्य की अपेक्षा तो है ही। )


पिछले एक अरसे से हमारी पीढ़ी के लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकार इस बात को जान रहे थे कि रघुवीर सहाय की रचनाशीलता उनकी दुनिया में न सिर्फ़ किसी न किसी तरह शामिल हो गयी है बल्कि उसका एक ऐसा जीवंत हिस्सा बन गयी है जिससे उनका वास्ता अब बार-बार पड़ता है। रघुवीर सहाय कोई ऐसे लेखक न थे जो अपनी बात कह चुका हो, अपनी कारगुजारी दिखा चुका हो और अब जल्दी से उसका साहित्यिक मूल्यांकन कर डालना या स्मारक बना देना शेष रह गया हो। उनका निधन सिर्फ़ उस तरह असामयिक नहीं है जिस तरह कहने का चलन है। वह ज्यादा गहरे, ऐतिहासिक अर्थों में असामयिक है।



रघुवीर सहाय हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के पिछ्ले४०-४५ वर्ष के इतिहास की उलझनों से गुजरकर रचनातमक अभिव्यक्ति का निरंतर संघर्ष करते हुए उस जगह आ पहुंचे थे जहाँ कोई कवि फिर से अपने तमाम पिछले अनुभव पर एक बड़ी नज़र डालता है। उनका रचनात्मक संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था, बल्कि जैसा वे महसूस भी करते थे, एक नए, विषम और कठिन दौर में दाखिल हो रहा था। इस तरह उनकी रचा अभी बीचोंबीच और अधूरी थी क्योंकि वे वास्तव में इसी नए दौर के रचनाकार थे जो एक अर्थ में अभी-अभी शुरू हुआ है।



रघुवीर सहाय उस पीढ़ी के सदस्य थे जो आजादी की लड़ाई के ख़त्म होने के बाद (या लगभग उसके दौरान) सजग और रचनाशील हुई थी। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी संवेदनशीलता के बहुत से अंदरूनी सूत्र इसी दौर की खूबियाँ लिए हों। मसलन, एक तरह की स्वचेतनता और एक व्यक्ति, एक नागरिक होने का अहसास जो उनमें भरपूर था, शायद इसी दौर की देन था। लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो गए है कि आजादी के बाद जो नयी काव्यधारा उभरकर सामने आयी उसमें कई तरह के मध्यवर्गीय तत्व शामिल थे,जो अपने-अपने कारणों से एक जगह आ मिले थे। उनका एक साथ होना लगभग एक तरह का ऐतिहासिक संयोग था। इतनी सहमति जरूर थी कि ये सभी तत्व नयी aइतिहासिक परिस्थिति में एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना चाहते थे। इस धुंधली इच्छा में एक बड़ी ऐतिहासिक जरूरत भी शामिल थी। लेकिन प्रबल यह इच्छा नहीं, सामजिक शक्तियों का नया संतुलन सिद्ध हुआ जो इसके कुहासे में बन रहा था और जो बाद के वर्षों में धीरे-धीरे व्यवस्थित होता चला गया और इन तत्वों के भवितव्य को भी अपनी तरह तय करता चला गया। पिछले ३० साल की परीक्षाओं में यह भी स्पष्ट हो गया कि स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समझौते की विरासत की तरह सामने आए इन मध्यवर्गीय तत्वों में जनतांत्रिक सारवस्तु और जीवनी शक्ति एक जैसी नहीं है। रघुवीर सहाय के बारे आज शायद यह अलग से प्रमाणित नहीं करना होगा कि वे उस दौर में सामने आयीं उन विरल प्रतिभाओं में थे जिनका रचनात्मक व्यक्तित्व जनतांत्रिक प्रेरणाओं और अनुरोधों के ज्यादा मौलिक, विकासमान और वास्तविक अंशों को आत्मसात करते हुए बना था। मेरे विचार से वे उस दौर के उन सबसे अधिक संवेदनशील, आधुनिक, विवेकशील और प्रबुद्ध मध्यवर्गीय तत्वों में थे जिनमें राष्ट्रीय नवजागरण की विकासशील, जीवित और श्रेष्ठ परम्पराओं का खोजपूर्ण और रचनाशील उपयोग करके उसे आगे विकसित करने की योग्यता और इच्छा इतनी थी कि उसे आसानी से कुचला नहीं जा सकता था।



अनेक सामाजिक-राजनीतिक कारणों से आजादी के बाद हमारे शासकों को यह जरूरत महसूस हुई कि वे नए मध्यवर्ग मध्यवर्ग की आदर्श भावना और जनतांत्रिक आकांक्षाओं को सामाजिक रूपांतरण के बड़े उद्देश्य से काट दें। `विकास` का नक्शा वे खुद बनाकर दें और बाके लोग उसी में रंग भरें। इस नयी ऊर्जा को अनुकूलित करने के लिए उन्होंने बड़े कौशल से इसे इसी की सीमा में बांधकर छोड़ दिया। इस तरह इन तत्वों को आत्म-परिष्कार के संघर्ष में भी अलग और लगभग मुक्त कर दिया गया। अब यह एक तथ्यहै कि नए मध्यवर्ग का यह जो नमूना तैयार करके सामने रखा गया उसकी नाप में उस दौर की अनेक समा ठीक-ठीक समा गयीं बल्कि उसी में मरखपकर सम्पूर्ण भी हो गयीं. लेकिन रघुवीर सहाय का मामला ऐसा नहीं था. उस दौर के अनेक कवियों की तरह अपने सामाजिक सरोकारों को धो-पोंछकर `आधुनिक` बनने के बजाय उन्होंने ज्यादा मुश्किल रास्ता चुना. मुफ्त की आधुनिकता और जाहिल आत्मप्रेम के जिस मकड़जाल में उस युग की अनेक प्रतिभाओं ने अपनी उम्र सुखपूर्वक गुजार दी, उसके प्रति रघुवीर सहाय शुरू से ही सशंकित और सावधान थे. बल्कि उसके साथ उनकी कुछ बुनियादी शत्रुता थी। उन्होंने अपनी मनुष्यता और अपनी रचना को समाज के बीचोंबीच, उसके भीतर और उसके साथ-साथ ही पहचाना और साथ-साथ ही बचाना चाहा. आजादी के बाद के दौर की यह हकीकत एक बड़ी दुर्घटना की तरह हमेशा उनकी स्मृति में जीवित रही कि हमारे शासक वर्गों ने सत्ता का निरंकुश संचय करने के क्रम में जनता के व्यापक हिस्सों से यह अधिकार भी छीनकर अपने पास रख लिया है कि वे अपने मानवीय अस्तित्व को खुद पहचान और बदल सकते हैं. संस्कृति और समाज की संस्कृति और समाज की रचना के अधिकार से साधारण जनता को वंचित करने और अभिव्यक्ति के तमाम उपलब्ध साधनों पर धीरे-धीरे कब्जा जमाते हुए ही सत्ताधारी वर्गों के लिए यह संभव हो सका है कि वे विकृति और विनाश की आक्रामक मुहिम को बिना किसी बड़े प्रतिरोध का सामना किये चला सकें. रचना को रघुवीर सहाय ने इसी खोयी हुई पहलकदमी को छीनने के अर्थ में पहचाना था.
            (जारी)... 

`व्यावहारिक` लोग न पढ़ें

`मुझे उन तथाकथित व्यावहारिक लोगों की बुद्धि पर हंसी आती है, अगर कोई बैल बनना चाहे तभी वह मानवता की पीड़ाओं से मुंह मोड़कर अपनी ख़ुद की चमड़ी की रखवाली कर सकता है.' - मार्क्स

Monday, December 7, 2009

रोटी और तारे : ओक्तई रिफ़त



गोद में रखी है रोटी
और सितारे बहुत दूर
मैं अपनी रोटी खाता हूँ सितारों को तकते हुए
ख़यालों में इस कदर गुम कि कभी कभी
मैं गलती से खा जाता हूँ एक सितारा
रोटी के बजाए

(इस तुर्की कविता का अनुवाद असद ज़ैदी का है. इसे ८० के दशक की पत्रिका कथ्य से लिया गया है जिसका सिर्फ एक अंक निकला था पर शानदार निकला था.)

Saturday, December 5, 2009

छह दिसंबर



मलबा
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समतल नहीं होगा कयामत तक
पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा
ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग
इबादतगाह की आख़िरी अज़ान
विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई ।
-सुदीप बनर्जी

Tuesday, December 1, 2009

हिन्दी कविता के पिछले बीस साल : असद ज़ैदी



(असद ज़ैदी ने यह लेख 'संबोधन' पत्रिका के `युवा कविता विशेषांक` के अतिथि संपादक के तौर पर लिखा है। `यह ऐसा समय है` और `दस बरस` की भूमिकाओं की तरह ही यहाँ भी वे कविता को निरा कविताई की तरह देखने के बजाय मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक सवालों के साथ जूझने की उसकी क्षमता और इच्छाशक्ति की पड़ताल करते हुए देखते हैं. )

ऐजाज़ अहमद ने कहीं लिखा है कि हिन्दुस्तान में बीसवीं सदी के पटाक्षेप का क्षण बाक़ी दुनिया से तीन साल पहले ही आ गया था – वह क्षण जब दिल्ली में लाल क़िले की प्राचीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक कार्यकर्ता प्रधानमंत्री के रूप में देश को संबोधित करने में सफल हो गया। कुछ इसी अंदाज़ से इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने अभूतपूर्व राजनीतिक-सामाजिक तूफानों से भरी बीसवीं सदी को 'संक्षिप्त सदी' ('ए शॉर्ट ट्वेन्टिएथ सेंचुरी') कहते हुए इसका जीवनकाल 1914 -1989 बताया है। इस काल-निर्धारण को भी चुनौती देना आसान नहीं है. अगर हम वैश्विक से भारतीय या दक्षिण एशियाई सन्दर्भ की और लौटें – हमारा इतिहास अंततः विश्व इतिहास का ही हिस्सा है, न कि इससे बाहर की कोई चीज़ – तो हमारे सामने तारीखों के कई विकल्प हैं : 1919-1997, 1919-1992, 1905-2002, 1937-1992 ... और इन तारीखों से बाहर जाने की स्वतंत्रता भी कहीं गयी नहीं है. यह कहना कि कविता का (या किसी भी सांस्कृतिक माध्यम का) अपना कैलेंडर होता है एक बारीक स्तर पर, बल्कि अनेक स्तरों पर, सही है, पर इसका सरलीकरण और सामान्यीकरण करना विवेक और कल्पना दोनों से विदाई लेना है. अपने ऐतिहासिक हाल की तशवीश, अपनी ख़बर, अगर कविता में नहीं होगी तो कहाँ होगी?
कुल मिलाकर, इतिहासबोध का मामला समकालीन कविता का मुँह ताकता खड़ा है। इससे संबोधित हुए बिना नए का संधान नहीं किया जा सकता. इसकी चिंता काव्यालोचना और साहित्येतिहास वाले करें या न करें कवियों को करनी ही होती है. उनके लिए यह स्वेच्छा का मामला भी नहीं है. आज कविता के सामने जो बड़ा संकट है वह तथाकथित जातीय स्मृति या अस्मिता का संकट नहीं, बल्कि आधुनिक स्मृति के लोप का संकट है. हमारे सामने मसला आधुनिकता और जनवाद की परियोजना की रिकवरी या पुनर्प्राप्ति का मसला है, जो कि बड़े संघर्ष, आत्मसंघर्ष और आलोचनात्मक श्रम की मांग करता है, न कि सामंती-छद्म्लोकधर्मी यूटोपिया की पुनर्प्राप्ति का जो कि बड़े चैन से प्रदत्त संवेदना से ही अपनी खुराक लेता रहता है.

हम जिस युग में रह रहे हैं उसकी शुरूआत 1989-90 से हुई है; इससे पहले की दुनिया कुछ और थी। यह कोई सांस्कृतिक विभाजक रेखा नहीं, आलमी पैमाने पर समाजार्थिक और ऐतिहासिक विभाजक रेखा है. वक़्त गुज़रने के साथ यह तथ्य और भी स्पष्ट होता जाएगा. इस दौर की पहचान भूमंडलीकरण (या पूंजीवादी नव-साम्राज्यवाद) के जिन विशेष पहलुओं से की जा सकती है वे हैं परिवर्तन की समकालिकता (simultaneity of change) और अपरिवर्तनीय गति (absolute speed). कोई समाज या इलाक़ा अब परिवर्तन या adaptation अपनी मर्जी या रफ़्तार से नहीं कर सकता, नए आलमी श्रम-विभाजन में जिस को जो भूमिका और मक़ाम मिला है उसका तत्काल और प्रभावी क्रियान्वयन अब न सिर्फ़ मध्यस्थ तबकों की बल्कि राज्य और राज्यसत्ता की प्रमुख ज़िम्मेदारी है. पूंजी की ऐसी सार्वभौमिक तानाशाही पहले कभी न थी – इसने राजनीतिक समय और सांस्कृतिक समय को एक कर देने का अभियान छेड़ रखा है, और इस अभियान के नतीजे हमारे मुल्क में, हमारे दैनिक जीवन में और हमारे राष्ट्रीय आचरण में हरदम दिखाई देते हैं.

यह तो स्पष्ट है कि कविता का कैलेंडर सामाजिक-राजनीतिक कैलेंडर से अक्सर तालमेल बनाकर नहीं चलता। तो हमारी सांस्कृतिक घड़ियाँ कौन सा समय बता रही हैं – यह कैसा सांस्कृतिक समय है? यह कलावादियों और उत्तर-आधुनिकतावादियों के लिए कोई मसला ही नहीं है : उनका कैलेंडर हमेशा अपने समय के शक्ति-समीकरणों के अनुरूप संशोधित होता रहता है, उनका तालमेल हमेशा बना रहता है, वे अपनी घड़ियाँ हर समय मिलाये रखते हैं. यह मसला प्रतिरोध की संस्कृति और राजनीति का मसला है, जहां सांस्कृतिक स्वायत्तता का इस्तेमाल मानव-मुक्ति के मूलभूत परिवर्तनकारी आयोजन के पक्ष में किया जाता है न कि उसके विपक्ष में. इसी प्रक्रिया में कविता अपने सच्चे द्वंद्व को हासिल कर पाती है. कविता की स्वायत्तता इतिहास-निरपेक्ष नहीं होती. आखिर रघुवीर सहाय की मृत्यु और बाबरी मस्जिद के ध्वंस फासला इतना भी नहीं है कि इस संयोग के मर्म को अनदेखा रहने दिया जाए या रेखांकित न किया जाए.

जल्द ही रघुवीर सहाय को गुज़रे भी बीस साल हो जाएंगे – स्मृति और विस्मरण के दो दशक। इन दो दशकों के दौरान उभरे नए कवियों की रचनाशीलता का एक मुख्तसर जायजा लेता हुआ यह अंक आपके सामने है.

समकालीन हिन्दी कविता को लेकर करीब 15 -20 साल से कई सवाल कभी ब-आवाज़े-बुलंद तो कभी स्वगत या बुदबुदाते हुए पूछे जा रहे हैं, जिनमें मुख्य चिंता यह है कि कविता कुछ रुक सी गयी है। क्या यह एक अवरोध है या आराम का एक वक़्फ़ा? या क्या यह शक्ति-अर्जन/कन्सॉलिडेशन का, उपलब्ध संसाधनों के बेहतर नियोजन और मानकीकरण/स्तरीकरण का दौर है? ऐसा दौर जिसमें एक पूरी परम्परा की अनुभव संपदा परिपक्वता और सांद्रता अर्जित करती है? या यह किसी ऐतिहासिक कार्यसूची के त्याग और खामोश पलायन का दौर है? क्या ऐसा हो सकता है कि कविता जैसी अराजक विधा में सतह पर नज़र आती यह शान्ति और नॉर्मल्सी अपने भीतर आगामी हलचल या बड़े युगीन परिवर्तन तो छुपाये हुए है जिसपर ग़ौरो-फ़िक्र की दरकार है? क्या आज के दौर की कविता सिर्फ प्रतीक्षा की कविता है? प्रतीक्षा की कविता भी बेकली की कविता होती है; पूछने की बात यह है कि वह बेकली कहाँ अवस्थित है, और वह बेकली कैसी है. क्या आज की कविता अपने आज के यथार्थ को जागरूक ढंग से देख और आँक रही है और लिहाज़ा प्रतिपक्ष बना रही है, या एक अस्तित्वगत प्रवाह है जिसमें सब लोग बहे जा रहे हैं? इस अंक के कवि आपनी रचनाओं के साथ इन परेशानाकुन सवालों का अपनी अपनी तरह से जवाब देते हैं.

हम यह भी चाहते हैं कि इस संकलन के बहाने हिन्दी कविता की नई फसल पर स्थगित या बिखरे हुए विमर्श को जीवंत संवाद की सूरत मिले। हम सुधी पाठकों और हमदर्द आलोचकों से आग्रह करते हैं कि वे इस उपक्रम में आगे आयें, और 'संबोधन' के एक आगामी अंक के लिए आज की कविता पर और उससे जुड़े सवालों पर अपनी बात सामने रखें.

इसे पिछले बीस सालों में बनी और उभरी कविता का प्रतिनिधि संकलन कहना मुनासिब नहीं होगा – कई अच्छे और संभावनाशील कवि यहाँ हमारी कोशिश के बावुजूद संकलित नहीं हो पाए हैं – पर यह एक अच्छी-खासी झांकी ज़रूर है। यहाँ अपवादस्वरूप दो-एक कवि ऐसे भी हैं जो उम्र में लगभग वरिष्ठ हैं पर कवि के बतौर उनकी आमद देर से हुई है या देर से मानी गयी है. कोई ऐसी ही वजह है कि हम यहाँ कृष्ण कल्पित की 'रेख़ते के बीज' जैसी कविता को छापने का मोह नहीं छोड़ पाए हैं.

हम यह अंक प्रतिभाशाली कवि और गद्यकार ज्योत्स्ना शर्मा (1965 -2008) की स्मृति को समर्पित करते हैं. अपने संक्षिप्त और असाधारण जीवन के दौरान उन्होंने बहुत कुछ लिखा और सोचा पर प्रकाशन से गुरेज़ करती रहीं. भारी मन से हम अपने पाठकों को यह बता रहे हैं कि यह उनकी रचनाओं का प्रथम प्रकाशन है।
(ज्योत्स्ना की कुछ अप्रकाशित कवितायेँ जल्द ही अनुनाद पर और कृष्ण कल्पित की 'रेख़ते के बीज' इसी ब्लॉग पर देने की कोशिश रहेगी.)

Thursday, November 19, 2009

नक्सलबाड़ी विद्रोह का सांस्कृतिक पक्ष : प्रणय कृष्ण



नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह (१९६७) ने भारत की एक नई कल्पना का सृजन किया जिसने कला, संस्कॄति और साहित्य पर गहरा अखिल भारतीय असर डाला. किसी आंदोलन में उतार-चढ़ाव, आत्म-संघर्ष, निराशा, बिखराव और उत्साह के तमाम मंज़र आते और जाते रह सकते हैं, लेकिन नक्सलबाड़ी से प्रेरित आंदोलनों के भू-राजनीतिक विस्तार से कहीं बड़ा रहा है उसकी सृजनात्मक कल्पना और सपनों का आकाश.
नक्सलबाड़ी के आरम्भिक नेताओं के सामने यह स्पष्ट था कि भारतीय क्रांति के स्वप्न के पीछे इस देश की किसान और मेहनतकश जनता के गौरवशाली संघर्षों की लंबी विरासत है। उन्होंने १८५७ के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों की लम्बी परंपरा की खुद को एक कड़ी माना। उन्होंने भाकपा(माले) नाम की नई पार्टी बनाई लेकिन सदैव खुद को गदर पार्टी के समय से ही चली आ रही कम्यूनिस्ट विरासत का हिस्सा माना. इस आधार पर खड़े होकर उन्होंने देश और देशभक्ति की एक अभिनव परिभाषा गढ़ी. अभिजन के राष्ट्र्वाद के विरुद्ध क्रांतिकारियों की देशभक्ति. '७० के क्रांतिकारियों का सबसे प्रिय गीत 'मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि' अकारण न था. वे अपनी निगाह में भारत की मुक्ति का संघर्ष ही छेड़े हुए थे-

फैलता उजाला दसों दिशा में
मिट जाए रात का अंधार
लाल सूरज की किरणों में
करेगी मातृभूमि मुक्तिस्नान


वे १८५७, भगतसिंह, तेलंगाना की असफ़लता की जितनी जल्दी हो सके क्षतिपूर्ति कर देना चाहते थे, भूमिपुत्रों के नए मुक्तिसंग्राम के ज़रिए. १९७०-७१ में नक्सलबाड़ी से प्रेरित युवकों ने बांगला पुनर्जागरण के कई मनीषियों की मूर्तियां तोड़ीं क्योंकि उन्होंने १८५७ के महासमर का विरोध किया था और कई अंग्रेज़ों के पक्ष में खड़े हुए थे. आज यह अतिरेकपूर्ण लग सकता है लेकिन मातृभूमि पर उत्सर्ग की जो भावना हज़ारों नौजवानों को सड़कों पर खींच लाई थी, उनके भावना का ज्वार ही कुछ और था. कई लोग नक्सलबाड़ी के चार दशक बाद भी तमाम दमन और बिखराव के बीच उससे प्रेरित आंदोलनों के जीवित रहने के बावजूद आज भी इस मूर्खतापूर्ण विचार को पाले हुए हैं कि नक्सलबाड़ी का विद्रोह चीन के इशारे पर हुआ था. उन्हें चारु मजुमदार का वह लेख पढना चाहिए, जिसका शीर्षक ही है-"चीन के चेयरमैन, हमारे चेयरमैन". इस लेख में वे लिखते हैं,"जनता का जनवादी भारतवर्ष अब दूर की चीज़ नहीं रहा.लाल सूर्य की पहली किरणें आंध्र के तट पर आन पड़ी हैं, देखते ही देखते अब अन्य राज्यों को भी रंग देंगी. इस लाल सूर्य की रोशनी में नहा कर भारतवर्ष हमेशा-हमेशा के लिए जगमगाता रहेगा." हां, यह अवश्य है कि उन्होंने चीन की क्रांति और माओ से वैसे ही प्रेरणा ली जैसे कि रूसी क्रांति से आज़ादी की लड़ाई में भगतसिंह सहित तमाम क्रांतिकारी देशभक्तों और बुद्धिजीवियों ने ली थी .खालिस्तानी आतंकवादियों के हाथों मारे गए नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित कवि 'पाश' ने लिखा था-
"भारत-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
.........................................
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है जहां सेंध लगती है..."


नक्सलबाड़ी से प्रेरित कवि अकेले हैं जो देश और देशभक्ति के शासकवर्गीय भाष्य को उलटते हैं., ' शायनिंग इंडिया' के झूठ को जो ४० साल पहले से जानते हैं और सिर्फ़ यही नहीं बताते कि उनका प्यारा भारतवर्ष क्या है, बल्कि यह भी कि उसे क्या नहीं होना चाहिए-
"यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लासमंच नहीं है मेरा देश..."(नबारुण भट्टाचार्य)


इस विद्रोह के महान शिल्पी चारू मजूमदार का व्यक्तित्व ही गहरे में सांस्कृतिक था.१९५० से ही सिलीगुडी़ में राजनीतिक कामकाज सम्भाल चुके युवा चारू मजूमदार की पहलकदमी पर ही सिलिगुड़ी शहर के मुख्य क्लब में 'रवीन्द्र-नज़रुल-सुकांत दिवस' , बांगला वैशाख(बांगला कैलेंडर में वैशाख से वर्ष की शुरुआत होती है और इसका पहला दिन रवीन्द्रनाथ के जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है) आदि मौकों पर क्रांतिकारी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा शुरू हुई. चारूबाबू का शास्त्रीय संगीत के प्रति भी प्रबल आकर्षण था और बड़े गुलाम अली का गाया 'बाजूबंद खुल खुल जाए' उनका ऎसा पसंदीदा गीत था जो भूमिगत जीवन की कठिनाइयों में भी उनका साथी रहा.सन १९६४ में जब उन्हें गंभीर दिल की बीमारी डाक्टरों ने बताई और तबकी उनकी पार्टी का नेतृत्व उनके इलाज के प्रति उदासीन बना रहा तो 'कथा ओ कलम' नामक सांस्कृतिक संगठन ने अपने प्रदर्शन आयोजित कर उनके इलाज के लिए जितना बन पड़ा, पैसा इकट्ठा किया.१९६७ का विद्रोह जब शुरु हुआ और चारूबाबू के घर देशी-विदेशी पत्रकारों की भीड़ लगी रहती, तो उन्हीं दिनों धर्मयुग के पत्रकार ने उनसे पूछा, " आपके घर में रवींद्रनाथ की फोटो लगी हुई है. क्या आप उनको मानते हैं? चारूबाबू ने जवाब दिया,"सवाल मानने या न मानने का नहीं है. सवाल तो है एक महान शिल्पी के सकारात्मक पहलू के विवेचन का'. इसके बाद उन्होंने रवींद्र की 'मृत्युंजय' शीर्षक कविता पूरी सस्वर सुनाई. १९६१ की पार्टी की ६ठीं विजयवाड़ा कांग्रेस में चारुबाबू नहीं गए. इन दिनों अचानक उन्होंने नाटकों के निर्देशन का मन बना लिया. 'कथा ओ कलम' के नाटकों का रिहर्सल कराते, वे मानिक बंदोपाध्याय के सपनों के समाजवाद 'मैनाद्वीप' का मर्म साथी कलाकारों को समझाते हुए घंटों बोलते चले जाते. उनके साथी सरोजदत्त न केवल क्रांतिकारी नेता थे, बल्कि बांगला के उत्कृष्ट कवि भी. वे भी चारुबाबू की तरह जेल में ही शहीद हुए. समीर मित्र, मुरारी मुखोपाध्याय, द्रोणाचार्य घोष भी ऎसे बांगला कवि थे जिन्होंने नक्सलबाडी विद्रोह में भाग लिया और पुलिस के हाथों शहीद कर दिए गए. चारूबाबू शासक वर्ग के हाथों में हिंसा के एकाधिकार को तोडने के पक्षधर थे, न कि बेलगाम, प्रतिशोधात्मक और उद्देश्यहीन हिंसा के. यही कारण है कि १८७० के दशक की क्रांतिकारी बांगला कविता में बराबर गरीबों, मेहनतकशों पर बर्बर सामंती और पुलिसिया दमन के चित्र, जेल में दी जाने वाली यातनाओं और फ़र्ज़ी मुठभेडों में में ढेर किए जा रहे नौजवानों के चित्र ज़्यादा मिलते हैं, प्रतिशोधात्मक हिंसा का उत्सव विरल ही है-
इस तरह पीटो कि
सिर से पांव तक कोड़े का दाग बना रहे
इस तरह पीटो कि
दाग काफ़ी दिनों तक जमा रहे.
इस तरह पीटो कि
तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर
मैं धारीदार शेर की तरह लगूं
('तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर' शीर्षक विपुल चक्रवर्ती की कविता से)


यह श्वेत आतंक का मंज़र है, १९७० के दशक का कलकत्ता और बंगाल जहां हर थाना कत्लगाह बना हुआ था. प्रेम और वात्सल्य की भावनाएं भी दमन के अभिशप्त परिवेश और क्रांति के उत्ताप के द्वंद्व में तप कर कविता में ढल रही थीं. बहुत से लोग जो अंधी हिंसा को ही नक्सलबाड़ी का पर्याय मानते हैं, वे इस मंज़र को भूल जाते हैं. राजसत्ता और शासक जमातें आज भी गरीबों और जन-आंदोलनों के प्रति पर्याप्त हिंसक हैं. लेकिन मुश्किल तब बढ़ जाती है जब खुद उससे प्रेरणा लेने की बात करनेवाले माओवादी भी बहुधा अपने अतिरेकी व्यवहार से लोगों के मन में इस महान आंदोलन की महज हिंसक छवि ले जाते हैं और जाने अनजाने जनता को दक्षिणपंथ की ओर ढकेल देते हैं. लेकिन नक्सलबाड़ी से प्रेरित अनेक बड़े कलाकारों ने खुलकर किसी भी बददिमाग हिंसा की आलोचना की, जबकि वे किसी भी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे. मलयाली कवि सच्चिदानंदन, तेलुगु कवि ज्वालामुखी और बांग्ला नाटककार बादल सरकार ने बाकायदा इस के विरुद्ध बयान देकर और लिखित तौर पर अपनी राय ज़ाहिर की है.
क्रांति के आह्वान पर सैकड़ों नौजवान बंगाल में शहीद हुए थे. ऎसे में शहीद बेटे की मां का चित्र इस दौर की कविता में बार बार कौंधता है-
जेल के सींकचे पकड़ सब कुछ खोई, हे जननी
अलग से
किसका चेहरा ढूंढ लेना चाहती हो?
('जेल के सींकचे पकड़कर' शीर्षक धूर्जटि चटोपाध्याय की कविता से)

सृजन सेन की 'थाना गारद थेके मां के' (थाना हवालात से मां को) शीर्षक कविता या रंजित गुप्त की 'खुली चिट्ठी' शीर्षक कविता भी ऎसी ही कविताओं हैं। महाश्वेता देवी के उपन्यास 'हज़ार चौरासी की मां' की महाकाव्य वेदना इसी संवेदना का का विस्तार है। ऊपर उद्धृत कवियों के अलावा विनय घोष,कमलेश सेन, पार्थ बंदोपाध्याय, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय, अमित दास, केस्टो पोड़ेल,शोभन सोम,अनिंद्य बसु, सत्येन बंदोपाध्याय,तुषार चंद, समीर राय, अर्जुन गोस्वामी, अमिय चट्टोपाध्याय,मणिभूषण भट्टाचार्य,इंद्र चौधुरी, आलोक बसु ने बांगला कविता के ७० और ८० के दशक पर अमिट छाप छोड़ी। यह परंपरा बांगला कविता में आज भी जीवित है। आज के बांगला साहित्य के संभवत: सबसे चर्चित नाम नबारुण भट्टाचार्य सहित तमाम कवि आज भी नंदीग्राम, सिंगूर या लालगढ़ में जनता के कत्लेआम के खिलाफ़ उसी तेवर से सृजनरत हैं.कथा सहित्य में भी उत्पलेंदु जैसे रचनाकारों ने नया आवेग पैदा किया. क्रांतिकरी नुक्कड़ नाटकों का मंचन तो नक्सलबाड़ी विद्रोह से उपजे जनांदोलन का हर कहीं एक आवश्यक हिस्सा था ही, लेकिन बांग्ला थियेटर भी इससे अछूता न रहा. थिएटर यूनिट के आशीष चटर्जी और 'सिलूएट'' के प्रबीर दत्त तो क्रमश: १९७२ और १९७४ में शहीद ही हो गए. १९७० में विख्यात रंगकर्मी उत्पल दत्त, जिन्हें हिंदी दर्शक फ़िल्मी हास्य अभिनेता के रूप में जानते हैं, ने लिखा," क्रांतिकारी थियेटर को क्रांति का प्रचार करना चाहिए. उसे न केवल व्यवस्था का भंडाफोड़ करना चाहिए, बल्कि राज्य मशीनरी के हिंसक खात्मे का आह्वान करना चाहिए." आश्चर्य नहीं कि' ७० के दशक में उत्पल दत्त ने 'जात्रा' के ज़रिए थियेटर को लोक कलारूपों से समृद्ध करते हुए उसे गांव के गरीबों की ऒर मोड़ दिया. इस दौर के उनके तमाम नाटक 'टीनेर तलवार('७३), बैरीकेड('७७), सूर्यशिकार(' ७८) और दुष्स्वप्नेर नगरी ('७९-'८०) सरकार के कोप का भाजन बने। कर्जन पार्क, कलकत्ता में जहां 'मुक्ति आश्रम' नाटक खेलते वक्त प्रबीर दत्त शहीद हुए, ठीक उसी जगह एक महीने बाद,उनकी याद में , बादल सरकार ने २४ अगस्त,१९७४ में अपना नाटक 'जुलूस' प्रस्तुत किया. बादल सरकार ने '७० के दशक में 'तीसरा रंगमंच' यानी भारत का ग्रामीण रंगमंच स्थापित किया.प्रोसेनियम को तिलांजलि देकर उन्होंने कम खर्चीला, लचीला और गांव-देहात के सुदूर इलाकों तक ले जाया जा सकने वाले नाट्यरूप का आविष्कार किया. १९६७ में बादल सरकार ने 'सगीन महतो' नाटक लिखने के साथ ही इस नए प्रयोग की शुरुआत की 'जुलूस', 'भोमा', 'बासी खबर' और 'खाट-माट-किंग'आदि नाटक इसी नाट्य संवेदना का विस्तार थे. 'भोमा' नाटक के इस अंश में '७० के दशक की प्रतिरोध की चेतना का अक्स देखा जा सकता है-
"भोमा जंगल। भोमा आबाद.भोमा गांव.हिंदुस्तान की पचहत्तर फ़ीसदी आबादी गांव में रहती है. भोमाओं का खून पीकर हम रहते हैं शहरों में"


बंगाल में सृजन की हर विधा को नक्सलबाड़ी की चेतना ने भीतर तक मथा। '९० के दशक तक में शहरी मध्यवर्ग से आए लोकप्रिय गायकों की एक पीढ़ी जिसमें सुमन चट्टोपाध्याय, नचिकेता, प्रतुल और प्रबीर बल विशेष उल्लेखनीय हैं,'७० के क्रांतिकारी दशक के रोमान को आज भी अपनी कला में जीते हैं. आश्चर्य है कि खुद को नक्सलबाड़ी की चेतना से प्रेरित मानने वाले बहुत से बांग्ला बुद्धिजीवी आज वाममोर्चा के कुशासन के खिलाफ़ तृणमूल के साथ खड़े हैं. नक्सलबाड़ी ने और उसके बौद्धिकों ने क्रूरतम दमन झेलकर भी पारंपरिक वाम का एक स्वतंत्र वाम विकल्प ही रचा था, किसी पूंजीवादी दल का दामन नहीं थामा था.
क्रांतिकारी गीतों और नाटकों के प्रति समर्पित चारुबाबू जन नाट्य संगठन बनाए जाने के खिलाफ़ रहा करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ये मध्यवर्ग का अड्डा बन जाएंगे. लेकिन जिस आंदोलन के वे महानायक थे, उससे प्रेरणा लेकर तमाम सांस्कृतिक और लेखक संगठन बने. नक्सलबाड़ी के ही समानांतर चल रहे 'श्रीकाकुलम' के किसान विद्रोह की प्रेरणा से तेलुगू साहित्यकारों ने पहले १९६६ में वरवर राव की पहल पर 'साहिति मित्रलु'(साहित्य के मित्र), फ़िर 'तिरगबदु'(विद्रोही, १९७०) जैसे संगठन बनाए जिनका अंतत: 'विप्लव रचयिताल संघम' (विरसम:१९७०) यानी 'क्रांतिकारी लेखक संघ' के रूप में विकास हुआ. तेलुगु में आधुनिक चेतना के जनक महाकवि श्री श्री जिन्होंने १९६२ के हिंद-चीन युद्ध के समय कम्यूनिस्टों की सामूहिक गिरफ़्तारी के खिलाफ़ १९६५-६६ में पहले नागरिक अधिकार संगठन की नींव रखी थी नौजवान संस्कृतिकर्मियों के साथ आ मिले. महान मुक्तियोद्धा और कवि सुब्बाराव पाणिग्रही १९६९ में शहीद हुए.'विरसम' ने पाणिग्रही को ही अपना प्रेरणा-स्रोत घोषित किया. श्री श्री, आर.वी. शास्त्री, के.वी. रमन रेड्डी,चेराबंडराजू, वरवर राव, सी. विजयलक्ष्मी, ज्वालामुखी, सत्यमूर्ति,निखिलेश्वर,अशोक टंकसाला आदि ने तेलुगू साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव लाया. बीच बीच में विरसम प्रतिबंधित भी होता रहा लेकिन मंच के रूप में इन संगठनों से जुड़े लेखकों की 'सृजन' पत्रिका २०० से ज़्यादा अंक निकाल चुकी है और समकालीन तेलुगू साहित्य को इसने दूर तक प्रभावित किया है. १९७१ में गद्दर ने 'जन नाट्यमंडली' की स्थापना की. तब से आज तक गद्दर गांव गांव में अपने नृत्य-गीत-नाटकों का ज़बर्दस्त प्रदर्शन कर जनता में क्रांतिकारी चेतना फ़ैलाते रहे हैं. चेराबंडराजू का यह लोकप्रिय गीत गद्दर झूमझूम कर गाते हुए जनता में क्रांतिकारी प्रश्नाकुलता पैदा करते हैं-
'पर्वतों को तोड़कर, पर्थरों को फोड़कर
बनाईं योजनाएं ईंट लोहू से जोड़कर
श्रम किसका है?
धन किसका है?
जंगल को काटकर धरती को जोतकर
फ़सलें उगाई स्वेद लहरों से सींचकर
भात किसका है?
माड़ किसका है?


मलयालम में 'जनकीय सांस्कारिक वेदी' का गठन १९८० में हुआ जो न केवल सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक संघर्षों को भी चलाने वाला संगठन था। केरल के सांस्कृतिक जगत को उसने न केवल नयी तरह की क्रांतिकारी कविताओं- नाटकों, 'प्रेरणा' पत्रिका,बल्कि अपनी ज़बर्दस्त बहसों से झकझोरा और बाद में भारी दमन और आंतरिक विघटन का शिकार होने के बाद भी मलयाली साहित्य पर उसके संस्कार अमिट हैं. कदमनिता रामाकृष्नन, के.जी. शंकर पिल्लई, कें सच्चिदानंदन, सिविक चंद्रन, अत्तूर रवि, एन. सुकुमारन,यू.जी. जयराज,तोप्पिल भासी,बालचंद्रन चुल्लीकाड आदि ने कविता, कहानी और नाटक, सभी विधाओं में अमिट छाप छोड़ी. वेदी द्वारा सैकड़ों स्थानों पर खेला गया नाटक 'नाडूगड्डिका' आदिवासी कलाकारों को लेकर उनके ही अनुष्ठानों को कलारूप में बदलकर कम्यूनिस्ट आदर्शों की विजय का अनमोल नाटक है.पंजाबी में अमरजीत चंदन, अवतार सिंह 'पाश', लालसिंह 'दिल', सुरजीत पातर, संतराम उदासी, गुरुशरण सिंह, स्वदेश दीपक आदि तमाम गीतकार, कवि, नाटककार जो आज भी पंजाबी साहित्य के सिरमौर हैं, इसी आंदोलन की पैदावार हैं। मराठी के दलित साहित्य आंदोलन में नामदेव ढसाल, दया पवार, राजा ढाले आदि ने नक्सलबाड़ी की चेतना से युक्त होकर उसे नया विस्तार दिया. 'एक नक्षलवादया चा जन्म' शीर्षक विलास मनोहर का मराठी उपन्यास एक आदिवासी द्वारा नक्सलबाड़ी का रास्ता अख्तियार करने की कथा कहता है. अरुंधति राय के चर्चित उपन्यास 'गाड आफ़ स्माल थिंग्स' का नायक भी नक्सल कार्यकर्ता है. मन्नू भंडारी के 'महाभोज' की पृष्ठभूमि में इस आंदोलन की गूंज है. उड़िया, कश्मीरी, उर्दू, नेपाली, कन्नड़,असमिया आदि भाषाओं के साहित्य में भी नक्सलबाड़ी की चेतना के प्रभाव में महत्वपूर्ण रचनाएं प्रकाश में आईं. जिस तरह नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम की प्रेरणा ने तेलुगू के 'दिगम्बर कवलु' जैसे काव्यांदोलन के ज़्यादातर कवियों में चेतनागत रूपांतरण उपस्थित किया, जैसे कि बांगला की 'क्षुधित पीढी़' का काव्यांदोलन इस क्रांतिकारी ज्वार में बह गया, कुछ उसी तरह हिंदी में अकविता और अकहानी आंदोलन समाप्त हुए.हिंदी-उर्दू क्षेत्र की कविता में पूरे उत्कर्ष के साथ नक्सलबाड़ी के आंदोलन की चेतना की धमक धूमिल, आलोकध्न्वा, कुमार विकल,लीलाधर जगूड़ी, गोरख पाण्डेय, माहेश्वर, तड़ित कुमार, हरिहर द्विवेदी, ध्रुवदेव 'पाषाण', देवेंद्र कुमार, कुमारेंद्र पारस नाथ सिंह, वेणुगोपाल, जैसे कवियों में पहले पहल सुनाई पड़ी. साथ साथ उनसे भी युवतर नीलाभ, वीरेन डंगवाल, ज्ञानेंद्रपति,विजेंद्र अनिल,मदन कश्यप,पंकज सिंह,बल्ली सिंह 'चीमा', मंगलेश डबराल,शंभू बादल की रचनाओं में वह आज भी हिंदी कविता की ताकतवर आवाज़ है जबकि इसके असर के व्यापक दायरे में अन्य भी महत्वपूर्ण कवि जैसे कि दिनेश कुमार शुक्ल की तमाम कविताएं आती हैं. प्रगतिशील धारा की तब की नव्यतर पीढ़ी के कवि अरूण कमल की कविताओं पर भी इस चेतना की छाप मिलती है. यों इनसे भी नवतर पीढ़ी ने इस चेतना को अंगीकार किया है. नक्सलबाड़ी की चेतना के प्रभाव में प्रगतिशील धारा के वरिष्ठ कवि नागार्जुन की 'मैं तुम्हें चुम्बन दूंगा', 'भोजपुर' और 'हरिजन गाथा' और त्रिलोचन की 'नगई महरा' जैसी ताकतवर कविताएं प्रकाश में आईं. नई कविता के अग्रणी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना १९८५ में दिल्ली में गठित हिंदी-उर्दू क्षेत्र में नक्सलबाड़ी धारा के पहले सांस्कृतिक संगठन "जन संस्कृति मंच" के साथ हो लिए. इस संगठन के पहले महासचिव गोरख पांडेय और अध्यक्ष विख्यात नाटककार गुरुशरन सिंह निर्वाचित हुए. एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह हुई कि मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान आंदोलन ने भोजपुरी रचनाधर्मिता को एक नूतन आवेग दिया. कवि-विचारक-संगठक गोरख पाण्डॆय खुद ही भोजपुरी के इस नवोन्मेष का नेतृत्व कर रहे थे. भोजपुर के आंदोलन की ताकतवर आवाज़ थे भोजपुरी कवि और आज़ादी की लड़ाई के सेनानी रमाकांत द्विवेदी 'रमता'. द्र्गेंद्र अकारी, निर्मोही आदि तमाम भोजपुरी कवियों ने इसी आंदोलन से ऊर्जा पाई. नाटक की दुनिया में स्वदेश दीपक,ज़हूर आलम,राजेश कुमार,अनिलरंजन भौमिक, चित्रकार-रंगकर्मी-कवि-कथाकार अशोक भौमिक, आलोचना में मैनेजर पाण्डेय, वीरभारत तलवार, चमनलाल,अनिल सिनहा, रविभूषण आदि लगातार अपने सृजन में इस आंदोलन की चेतना के वाहक रहे हैं. कथा साहित्य के क्षेत्र में काशीनाथ सिंह,महेश्वर, मधुकर सिंह,विजयकांत, नीरज सिंह, संजीव,धीरेंद्र अस्थाना,अवधेश प्रीत, शैवाल,कुमार संभव.श्रीकांत, सृंजय, मनीष राय,सुरेश कांटक,सिरिल मैथ्यू,शेखर, शिवकुमार यादव, रामदेव सिंह,अरविन्द कुमार, कैलाश बनबासी सहित लेखकों की लम्बी कतार है जिन्होंने इस आंदोलन के असर में अपने सृजन कर्म का विशिष्ट विन्यास पाया. आज बाज़ार और भूमंडलीकरण के दौर में यदि साहित्य और कला को प्रतिरोध का क्षेत्र मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है, तो असंदिग्ध रूप से यह नक्सलबाड़ी की सांस्कृतिक चेतना के अप्रतिहत प्रवाह का असर है. हिंदी सहित सभी भाषाओं के नक्सलबाड़ी धारा के संस्कृतिकर्म में पहले से चली आ रही मानवतावादी और प्रगतिशील परंपरा अपना पुनर्जीवन पाती है. कवियो की वाणी में उनके पुरखे भी बोलते हैं, जैसे कि गोरख पाण्डेय की इस कविता में निराला का ध्वनि-विन्यास और शमशेर की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्ति नए अर्थ धारण करती है-

कविता युग की नब्ज़ धरो
अफ़्रीका, लातीन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर सी उतरो!
.........................................
शोषण छल-छंदों के गढ़ पर,
टूट पड़ो नफ़रत सुलगाकर
क्रुद्ध अमन के राग,
युद्ध के पन्नों से गुज़रो!
उल्टे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो!
(गोरख पाण्डेय, 'कविता युग की नब्ज़ धरो')


फ़िल्मों की दुनिया में 'जुक्ति ताक्को गप्पो'(रित्विक घटक,बांगला,१९७४), 'नक्सलाइट' (ख्वाज़ा अहमद अब्बास, हिंदुस्तानी,१९८०), चोख(उत्पलेंदु चक्रवर्ती,बांग्ला, १९८३), अम्मा आरियां( जान अब्राहम, मलयालम, १९८६), पिरावी (शाजी एन। करुना, मलयालम, १९८८) के ज़रिए इस आंदोलन का अक्स उकेरा गया. कन्नड़ में 'वीरप्पअ नायक'(एस. नारायण,१९९०), 'माथाद माथाद मल्लिगे'( नागातिहल्ली चंद्रशेखर, २००७) जैसी फ़िल्में नक्सलबाड़ी की चेतना के पक्ष से गांधीवाद के साथ संवाद और विवाद की फ़िल्में हैं. मलयाली फ़िल्म 'तलप्पवु' (२००९) '७० के दशक में शहीद क्रांतिकारी वरगीज़ के जीवन पर केंद्रित है॥मलयाली फ़िल्म 'गोलमोहर'(जयराज, २००८) भी नक्सल थीम पर आधारित है.' हज़ार चौरासी की मां'(गोविंद निहलानी,हिंदी,१९९८) इसलिए भी काफ़ी चर्चित रही और देखी गई क्योंकि महाश्वेता जी के उस उपन्यास से लोग पहले से ही परिचित थे,जिसपर फ़िल्म बनी. इससे पहले भी निहलानी १९८४ में 'आघात' बनाकर मुबई में गुंडा गिरोहों द्वारा वामपंथी ट्रेड यूनियनों के खात्मे से निपटने के लिए 'तीसरे रास्ते' का संकेत दे चुके थे. 'लाल सलाम'( गगनविहारी बोराटे,२००२) 'हज़ारों ख्वाहिशें ऎसी' (सुधीर मिश्रा, २००५) वगैरह भी चर्चित फ़िल्में रही हैं.

आज नक्सलबाड़ी विद्रोह के चालीस साल बाद भी उससे नया सृजन उन्मेष पाने वालों को कवि वीरेन डंगवाल के ताज़ा संग्रह `स्याही ताल` की ये पंक्तियां जितना आश्वस्त करेंगी, उतना ही बेचैन भी करेंगी-
"दरअसल मैनें तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फ़कत फ़ितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैनें...."

(वीरेन डंगवाल,`कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा`,'स्याही-ताल' कविता-संग्रह, २००९ से)

( 'प्रभात खबर' के 'दीपावली विशेषांक', नवम्बर, २००९ में प्रकाशित)
चित्र मनोज कचंगल का है जो रवीन्द्र व्यास जी के ब्लॉग `हरा कोना` से लिया है.

Friday, November 13, 2009

मुक्तिबोध के जन्मदिन पर उनके लिए एक कविता



मनुष्य की परिभाषा

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यहाँ सामान बदला जाता है

और एक ख़ास रिआयत के साथ

पकने दी जाती है कविता

वैज्ञानिक अवसाद में


चेतना से छुड़ा देते हैं हम धब्बे

दुनिया से ख़राबी

जूतों से उनकी उदासी और नमी

और उन्हें दूसरे अन्तरिक्ष के अनाम

नक्षत्रों पर उतार आते हैं


आते हैं हमारे युग के आदिकवि राख और

धूल से सने

और कहते हैं सुनो लोग समझते हैं मैं

मर गया बोलो मैं क्या सचमुच मर गया

धैर्य से हम उन्हें समझाते हैं बाऊ तुम

मरे नहीं हो तुम तो अमर हो

हिन्दी साहित्य में कौन भला तुम्हें

मार सकता है

वह फफक-फफक कर रोने लगते हैं


सुनो-सुनो मुझे तुम्हारी बातें साफ़ सुनाई

नहीं देतीं हैं सिर्फ़

पानी की आवाज़ तुम्हारे और मेरे बीच

मुझे दिखाई देती है बस बारिश

बारिश बारिश


बाऊ चलो हम तुम्हें उस यान में

बिठा देते हैं जो क्षरण से भय से

गुरुत्वाकर्षण से मुक्त है


बाऊ नहीं सुनते-अच्छा तुम कहते हो

तुम लोग मेरे ऋणी हो : लाओ

वापस करो मेरा क़र्ज़ मैं इसी बारिश में

भीगता अकेला अपनी वास्तविकता के

तलघर में वापस चला जाऊँगा


असद ज़ैदी की यह कविता उनके पहले कविता संग्रह `कविता का जीवन` से ली गई है। कवि ने यह `मुक्तिबोध के लिए` है, जैसी कोई टिप्पणी अलग से नहीं की है और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं लगती है। मुक्तिबोध के जन्मदिन पर इस कविता को विशेष रूप से यहाँ दिया जा रहा है।

Sunday, November 8, 2009

वीरेन डंगवाल के कविता संग्रह पर मधुसूदन आनंद



`स्याही ताल` वीरेन डंगवाल का तीसरा कविता संग्रह है। इससे से पहले `इसी दुनिया में` (१९९१) और `दुश्चक्र में सृष्टा` (२००२) उनके दो कविता संग्रह आए और पर्याप्त प्रशंसा पाई। उनका ताजा संग्रह सात साल बाद आया है जो बताता है कि डंगवाल का अपनी कविता के साथ संबंध बेहद धैर्य, संयम और परफेक्शन वाला होना चाहिए। डंगवाल की कविता में आज का समय अपनी समस्त ध्वनियों, छवियों और मुद्राओं के साथ उपस्थित है और उनकी सफलता इस बात में है कि वे तमाम प्रतिकूलताओं और संकटों के बीच भी जीवन की लय ढूंढ लेते हैं। इस तरह इस बुरे समय में भी वे बुनियादी रूप से जीवन के कवि बन जाते हैं। उनकी कविता की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है और जब वह संग्रह की पहली ही कविता `कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा` में कहते हैं: `दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता/ वह छोटा नहीं था न आसान/ फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन/ एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने,` तो उसका मतलब जीवन को उसकी समस्त साधारणता में देखने, समझने और उसे बिना किसी नाटकीयता के पूरी ईमानदारी के साथ व्यक्त करने से होता है। वैसे भी कौन सा ऐसा महत्वपूर्ण रचनाकार है जो अलग रास्ता नहीं पकड़ता। महत्वपूर्ण यह होता है कि उस काव्य अनुभव से गुजरने के बाद वह अन्ततः खोज कर क्या लाता है और वह खोज मनुष्यता को किस तरह समृद्ध करती है। यह कविता उत्तर भारतीय समाज में तेजी से बेरोजगार होती जा रही उन बेसहारा स्त्रियों के दुःख, शोषण, मामूली से सपनों और सबसे बढ़कर जिजीविषा को हमारे सामने लाती है, जिन्हें सफेदपोश अपराधी पुरुषों ने अपने जैसा बना लिया है और वह सुरक्षा कवच दिया है कि बस्ती का कोई आदमी उनकी तरफ़ आँख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर पाता। एक कछार में जहां हरी सब्जियां पैदा हो रही हैं और जिनकी अपनी शोभा है, पिछड़ी जाति की एक विधवा कच्ची (शराब) खींचने को विवश है। उसका एक बेटा मार दिया गया है और दूसरा जेल में है। बची १४ साल की रुकुमिनी जिस पर सबकी लोलुप नज़र है। चौदह बरस की रुकुमिनी और उसकी बूढी मां जानती हैं कि `सड़ते हुए जल में मलाई सा उतरने को उद्यत/ काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा भविष्य भी/ क्या तमाशा है।` उसकी मां का दिल भी उपले की तरह सुलगता रहता है और वह हर पल शरीर और आत्मा को गला देने वाले अपने दुःख को अच्छी तरह जानती भी है लेकिन वह इस स्थिति को बदल भी नहीं सकती। कवि उसके दुःख को अनेक अदेखे सुदूर अनाम लोगों की अश्रु विगलित सहानुभूति से जोड़ देता है और उसे यहाँ आकर कहना पड़ता है कि `मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है।` अनाम साधारण लोगों पर कवि का यह भरोसा कविता को असाधारण बना देता है। फीके पड़ते आकाश के अकेलेपन में टिमटिमाते भोर के तारे के तले कछार में फैला नरम हरा कच्चा संसार अपनी संरचना और सौन्दर्य से भी इस कविता को समृद्ध करता है। फिर इसमें स्त्री अपने दुखों के साथ आती है मगर वह रोती नहीं सुलगती है और अंत में आती है प्रतीक्षा, जो इस कविता को यादगार बना दती है। यह कविता बड़े अर्थों में एक शाश्वत संसार से कछार की दुनिया और कछार की दुनिया से एक असहाय स्त्री की दुनिया में जिस खूबी के साथ प्रवेश करती है, वह उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। और दिलचस्प यह है कि कवि को इसे सम्भव करने के लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जैसे कवि एक दुनिया से दूसरी और दूसरी से तीसरी में अत्यन्त सहजता से हमें ले जा रहा हो और फिर भी उसमें कोई दर्प क्या उसका बोध तक न हो।

डंगवाल की कविता में कहीं नन्हा पीला पहाड़ी फूल है, कहीं वसंत के विनम्र कांटे हैं, कहीं पुराना तोता है, कहीं बकरियां हैं, कहीं साइकिल है, कहीं रद्दी बेचने वाला लड़का है, पिता और उनका शव है तो गंगा भी है और इलाहाबाद-कानपुर भी हैं और नैनीताल में दीवाली भी है। सबसे बढ़कर जो चीज है वह अपने संसार के प्रति गहन आत्मीयता है। प्रकृति इन कविताओं में कुछ अलग तरह से आती है। संग्रह की कुछ कवितायें तो बार-बार पढ़े जाने को विवश करती हैं।
(यह टिप्पणी `नई दुनिया` में `अलग रास्ते पर चलने वाला कवि` शीर्षक से छप चुकी है।)




कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा
(क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय*)


मैं थक गया हूं
फुसफुसाता है भोर का तारा
मैं थक गया हूं चमकते-चमकते इस फीके पड़ते
आकाश के अकेलेपन में।
गंगा के खुश्क कछार में उड़ती है रेत
गहरे काही रंग वाले चिकने तरबूज़ों की लदनी ढोकर
शहर की तरफ चलते चले जाते हैं हुचकते हुए ऊंट
अपनी घंटियां बजाते प्रात की सुशीतल हवा में

जेठ विलाप के रतजगों का महीना है

घंटियों के लिए गांव के लोगों का प्रेम
बड़ा विस्मित करने वाला है
और घुंघरुओं के लिए भी।

रंगीन डोर से बंधी घंटियां
बैलों-गायों-बकरियों के गले में
और कोई-कोई बच्चा तो कई बार
बत्तख की लंबी गर्दन को भी
इकलौते निर्भार घुंघरू से सजा देता है

यह दरअसल उनका प्रेम है
उनकी आत्मा का संगीत
जो इन घंटियों में बजता है

यह जानकारी केवल मर्मज्ञों के लिए।
साधारण जन तो इसे जानते ही हैं।

♦♦♦

दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने।

जब मैं उतरा गंगा की बीहड़ कटरी में
तो पालेज में हमेशा की तरह उगा रहे थे
कश्यप-धीमर-निषाद-मल्लाह
तरबूज़ और खरबूज़े
खीरे-ककड़ी-लौकी-तुरई और टिंडे।

खटक-धड़-धड़ की लचकदार आवाज़ के साथ
पुल पार करती
रेलगाड़ी की खिड़की से आपने भी देखा होगा कई बार
क्षीण धारा की बगल में
सफेद बालू के चकत्तेदार विस्तार में फैला
यह नरम-हरा-कच्चा संसार।

शामों को
मढ़ैया की छत की फूंस से उठता धुआं
और और भी छोटे-छोटे दीखते नंगधड़ंग श्यामल
बच्चे-
कितनी हूक उठाता
और सम्मोहक लगता है
दूर देश जाते यात्री को यह दृश्य।

ऐसी ही एक मढ़ैया में रहती है
चौदह पार की रुकुमिनी
अपनी विधवा मां के साथ।

बड़ा भाई जेल में है
एक पीपा कच्ची खेंचने के ज़ुर्म में
छोटे की सड़ी हुई लाश दो बरस पहले
कटरी की उस घनी, ब्लेड-सी धारदार
पतेल घास के बीच मिली थी
जिसमें गुज़रते हुए ढोरों की भी टांगें चिर जाती हैं।

लड़के का अपहरण कर लिया था
गंगा पार के कलुआ गिरोह ने
दस हज़ार की फिरौती के लिए
जिसे अदा नहीं किया जा सका।

मिन्नत-चिरौरी सब बेकार गयी।

अब मां भी बालू में लाहन दाब कर
कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है
कटरी के और भी तमाम मढ़ैयावासियों की तरह।

♦♦♦

कटरी के छोर पर बसे
बभिया नामक जिस गांव की परिधि में आती है
रुकुमिनी की मढ़ैया
सोमवती, पत्नी रामखिलौना
उसकी सद्य:निर्वाचित ग्रामप्रधान है।
प्रधानपति - यह नया शब्द है
हमारे परिपक्व हो चले प्रजातांत्रिक शब्दकोश का।

रामखिलौना ने
बन्दूक और बिरादरी के बूते पर
बभिया में पता नहीं कब से दनदना रही
ठाकुरों की सिट्टी-पिट्टी को गुम किया है।
कच्ची के कुटीर उद्योग को संगठित करके
उसने बिरादरी के फटेहाल उद्यमियों को
जो लाभ पहुंचाये हैं
उनकी भी घर-घर प्रशंसा होती है।
इस सब से उसका मान काफी बढ़ा है।
रुकुमिनी की मां को वह चाची कहता है
हरे खीरे जैसी बढ़ती बेटी को भरपूर ताककर भी
जिस हया से वह अपनी निगाह फेर लेता है
उससे उसकी सच्चरित्रता पर
मां का कृतज्ञ विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है।

रुकुमिनी ठहरी सिर्फ चौदह पार की
भाई कहकर रामखिलौना से लिपट जाने का
जी होता है उसका
पर फिर पता नहीं क्या सोचकर ठिठक जाती है।

♦♦♦

मैंने रुकुमिनी की आवाज़ सुनी है
जो अपनी मां को पुकारती बच्चों जैसी कभी
कभी उस युवा तोते जैसी
जो पिंजरे के भीतर भी
जोश के साथ सुबह का स्वागत करता है।

कभी सिर्फ एक अस्फुट क्षीण कराह।
मैंने देखा है कई बार उसके द्वार
अधेड़ थानाध्यक्ष को
इलाके के उस स्वनामधन्य युवा
स्मैक तस्कर वकील के साथ
जिसकी जीप पर इच्छानुसार विधायक प्रतिनिधि
अथवा प्रेस की तख्ती लगी रही है।

यही रसूख होगा या बूढ़ी मां की गालियों और कोसनों का धाराप्रवाह
जिसकी वजह से
कटरी का लफंगा स्मैक नशेड़ी समुदाय
इस मढ़ैया को दूर से ही ताका करता है
भय और हसरत से।

एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द समाज का मानी भी पता नहीं।

सोचो तो,
सड़ते हुए जल में मलाई-सा उतराने को उद्यत
काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है

और स्त्री का शरीर!
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से
तब उसमें से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।

यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुज़रता है मेरा अलग रास्ता।

♦♦♦

रुकुमिनी का हाल जो हो
इस उमर में भी उसकी मां की सपने देखने की आदत
नहीं गयी।
कभी उसे दीखता है
लाठी से गंगा के छिछले पेटे को ठेलता
नाव पर शाम को घर लौटता
चौदह बरस पहले मरा अपना आदमी नरेसा
जिसकी बांहें जैसे लोहे की थीं;
कभी पतेल लांघ कर भागता चला आता बेटा दीखता है
भूख-भूख चिल्लाता
उसकी जगह-जगह कटी किशोर
खाल से रक्त बह रहा है।

कभी दीखती है दरवाज़े पर लगी एक बरात
और आलता लगी रुकुमिनी की एड़‍ियां।

सपने देखने की बूढ़ी की आदत नहीं गयी।

उसकी तमन्ना ही रह गयी:
एक गाय पाले, उसकी सेवा करे, उसका दूध पिए
और बेटी को पिलाए
सेवा उसे बेटी की करनी पड़ती है।

काष्ठ के अधिष्ठान खोजती वह माता
हर समय कटरी के धारदार घास भरे
खुश्क रेतीले जंगल में
उसका दिल कैसे उपले की तरह सुलगता रहता है
इसे वही जानती है
या फिर वे अदेखे सुदूर भले लोग
जिन्हें वह जानती नहीं
मगर जिनकी आंखों में अब भी उमड़ते हैं नम बादल
हृदयस्थ सूर्य के ताप से प्रेरित।
उन्हें तो रात भी विनम्र होकर रोशनी दिखाती है,
पिटा हुआ वाक्य लगे फिर भी, फिर भी
मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है
मुंह अंधेरे जांता पीसते हुए।

इसीलिए एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने
फितूर सरीखा एक पक्का यकीन
इसीलिए भोर का थका हुआ तारा
दिगंतव्यापी प्रकाश में डूब जाने को बेताब।
(*उप-शीर्षक : बहुत ही कम आयु में दिवंगत हो गये बांग्ला कवि सुकांत भट्टाचार्य की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक : क्षुधार राज्ये पृथिबी गोद्योमोय अर्थात भूख के राज्य में धरती गद्यमय है)

Thursday, November 5, 2009

इरोम शर्मिला के समर्थन में



दमनकारी कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ मणिपुर की विख्यात कवयित्री इरोम शर्मिला की ऐतिहासिक भूखहडताल के १० साल होने पर `राज्य, हिंसा, भेदभाव और उत्तरपूर्व राज्यों में जनसंघर्ष` विषय के तहत राजनीतिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन शुक्रवार, ६ नवम्बर, २००९ को दिन में २ बजे दिल्ली विश्वविद्यालय (उत्तरी परिसर), विवेकानंद की मूर्ति के सामने आयोजित किया जा रहा है। इस मौके पर अरुंधति रॉय, अचिन विनायक, कॉलिन गोंजत्विस, बिमोल अकाइजाम, येंखोम जिलान्गाम्बा, मयूर चेतिया, और सुधा वासन अपने विचार रखेंगे।

जॉन थॉमस, संजीव और उनके साथी, चन्बम के सिंह और अहद के सदस्य सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करेंगे।

यह आयोजन न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के बैनर तले हो रहा है। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिए ०११-२७८७६५२३, ९९९९७७३२६८ नंबरों पर फ़ोन भी कर सकते हैं।

Monday, November 2, 2009

कार्तिक-स्नान : मनमोहन

एक ही दिन
एक ही मुहूर्त में
हत्यारे स्नान करते हैं

हज़ारों-हज़ार हत्यारे

सरयू में, यमुना में
गंगा में
क्षिप्रा, नर्मदा और साबरमती में
पवित्र सरोवरों में

संस्कृत बुदबुदाते हैं और
सूर्य को दिखा-दिखा
यज्ञोपवीत बदलते हैं

मल-मलकर गूढ़ संस्कृत में
छपाछप छपाछप
खूब हुआ स्नान

छुरे धोए गए
एक ही मुहूर्त में
सभी तीर्थों पर

नौकरी न मिली हो
लेकिन कई खत्री तरुण क्षत्रिय बने
और क्षत्रिय ब्राह्मण

नए द्विजों का उपनयन संस्कार हुआ
दलितों का उद्धार हुआ

कितने ही अभागे कारीगरों-शिल्पियों
दर्ज़ियों, बुनकरों, पतंगसाज़ों,
नानबाइयों, कुंजडों और हम्मालों का श्राद्ध हो गया
इसी शुभ घड़ी में

(इनमें पुरानी दिल्ली का एक भिश्ती भी था!)

पवित्र जल में धुल गए
इन कमबख्तों के
पिछले अगले जन्मों के
समस्त पाप
इनके खून के साथ-साथ
और इन्हें मोक्ष मिला

धन्य है
हर तरह सफल और
सम्पन्न हुआ
हत्याकांड

Tuesday, October 6, 2009

चिदम्बरम जैसे लोग सोफेसटिकेटेड माफिया हैं और बुद्धिजीवी खामोश हैं : आनंदस्वरूप वर्मा




सत्ता का दमनकारी चरित्र लगातार तीखा हो रहा है लेकिन खासकर हिन्दी पट्टी में `कोई फर्क नहीं पड़ता` जैसी स्थिति है। एकदम सन्निपात की स्थिति क्यों है? इमरजेंसी के दौरान दो-चार-दस दिन की खामोशी के बाद आन्दोलन की स्थिति बन गई थी और इसमें बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों की बड़ी संख्या थी। सीपीआई से जुड़े लोगों (चाहे वो नामवर सिंह हों या कोई भी सिंह हों या त्रिपाठी हों) की बात और है वर्ना विभिन्न धाराओं के बाकी लोगों ने इमरजेंसी का विरोध किया था। आज इमरजेंसी से भी बुरी स्थिति है। अब तो इमरजेंसी की घोषणा भी नहीं है लेकिन देश की जनता पर सेना से हमले की योजना बन रही है। वायु सेना अध्यक्ष ख़ुद हमले की इजाज़त दिए जाने का बयान दे रहा है। भारत जैसे लोकतंत्र में वायु सेना अध्यक्ष का इस तरह का बयान हैरानी भरा है। सेना ओपरेशन ग्रीन हंट पर काम कर रही है और एक महीने में माओवादियों के सफाए की योजना है। आखिर यह क्या संयोग है कि तमाम नक्सली गढ़ वही हैं, जहाँ खनिज सम्पद्दा है।

चिदम्बरम अब गृह मंत्री हैं, पहले वित्त मंत्री थे और उससे पहले वेदांत ग्रुप के डायरेक्टर थे। ऐसे क्रिमिनल, बदनाम ग्रुप के जो उड़ीसा के पर्वत बर्बाद कर चुका है और अब छतीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों को कब्जाना चाहता है। २००६ में चिदम्बरम की इस भूमिका को लेकर संसद में हंगामा भी हो चुका है। सत्ता माफिया तत्वों के हाथ में है। माफिया सिर्फ़ मुख्तार अंसारी या राजा भैया जैसे लोग नहीं हैं। चिंदबरम जैसे सोफेसटिकेटीमाफिया कोर्पोरेट के लिए आराम से लूट के अड्डे स्थापित करने में जुटे हैं। देश में ५५० सेज़ बनाने की योजना है। नंदीग्राम, कलिंगनगर, नंदवाडा, काशीपुर (उड़ीसा) आदि में आग माओवादियों की नहीं बल्कि टाटाओं, अम्बानियों, जिन्दलों की लगाई हुई है। सरकार कह रही है कि पूंजीपतियों के लिए सारी ज़मीनें खाली कर दो।

मीडिया कह रहा है कि आम जनता पिस रही है. आम जनता ही तो माओवादी है जो सरकार की नीतियों की वजह से पिस रही है. सत्तातंत्र की साजिशों को समझने की जरुरत है। विश्व बैंक के १९९० के एक दस्तावेज में राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया गया था, उसी के आधार पर सत्ता कोर्पोरेट सेक्टर के हाथों में जा रही है और सरकार का काम बतौर फेसिलिटेटर सेनाएं भेजकर जनता के विरोध को दबाना भर रह गया है. माओवादियों के दमन के नाम पर सेना भेजी जाती है, यह नहीं कहते कि सेना को मित्तलों, जिन्दलों की मदद के लिए भेजा जा रहा है.

१९९८ में आडवाणी ने कहा था कि नक्सलवाद को सबसे ज्यादा मदद बौद्धिक लोगों से मिलती है। तब चार स्टेट नक्सलवाद से प्रभावित बताये जा रहे थे. पाटिल गृह मंत्री थे तो ऐसे २०-२२ स्टेट बताते थे. उत्तर पूर्व के राज्यों और जम्मू-कश्मीर को मिलाएं तो संख्या करीब २८ होती है. फिर आप शासन कहाँ कर रहे हैं? दरअसल दमन के जरिये प्राकृतिक संसाधनों को कोर्पोरेट के हवाले करने के लिए हव्वा खडा किया गया. दमन बढ़ता गया तो जनता का विरोध भी फैलता गया.

किसी भी देश में ऐसी स्थितियां आयीं तो बौद्धिक वर्ग विरोध में अगली कतार में खड़ा नज़र आया। पर यहाँ ऐसा नहीं है। छतीसगढ़ एक्ट में माओवादियों के बारे में सोचना भी अपराध है। मान लीजिये आसपास के इलाके में ऐसी स्थिति होतीहै और लिखने-पढने वाला आदमी होने के नाते मैं इसकी पड़ताल करना चाहता हूँ, उसकी किसी बुकलेट को या इंटरनेट के जरिये उस बारे में अध्ययन करना चाहता हूँ तो मावोआदी बताया जाकर उत्पीड़न का शिकार बनाया जा सकता हूँ। या आज अचानक किसी संगठन को प्रतिबंधित कर दिया जाए और मैं उसका १० साल से सदस्य हूँ, कल मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए। हो सकता है कि जब साहित्यकारों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, वे तब खामोशी तोडें। यह ऐसा है कि क्रांति की कविताएँ-कहानियाँ लिखने वाला क्रांति की स्थिति दिखे तो चुप्पी साध ले।

(३ अक्तूबर को गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में जसम द्वारा आयोजित गोष्ठी में जैसा बोले )

Friday, October 2, 2009

एक परिंदा उड़ता है



अपने प्यारे कवि मनमोहन के जन्मदिन पर उनकी यह कविता-

एक परिंदा उड़ता है
-------------

एक परिंदा उड़ता है
मुझसे पूछे बिना
मुझे बताये बिना
उड़ता है परिंदा एक
मेरे भीतर
मेरी आँखों में

Saturday, September 26, 2009

हवा में रहेगी ख़यालों की बिजली...



दरजे पांच की हिन्दी की किताब में भगत सिंह पर एक पाठ (सबक यानी लेसन) था। इसकी शुरुआत भगत सिंह के उस ख़त की काव्यपंक्तियों के अनुवाद से होती थी जो उन्होंने फांसी से पहले अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखा था। भगत सिंह का नाम हमारे लिए बेहद जाना-पहचाना था और इस नाम के प्रति गहरी आस्था भी थी। पर कोर्स के इस पाठ की शुरुआती लाइनें दिल-दिमाग (दिमाग तो खैर इतना काबिल नहीं था) को छू गईं थीं। ये लाइनें कुछ इस तरह थीं - ऊषा काल के दीपक की लौ की भांति बुझा चाहता हूँ। इससे क्या हानि है जो ये मुट्ठी भर राख विनष्ट की जाती है। मेरे विचार विद्युत की भांति आलोकित होते रहेंगे। मुझे तब न समाजवाद के बारे में कुछ पता था, न कम्युनिज्म के बारे में। ६-७ बरसों बाद अचानक एक पत्रिका में भगत सिंह का मशहूर लेख `मैं नास्तिक क्यों हूँ?` पढने को मिला। मैं दयानंद के अनुयायी परिवार का पक्का ईश्वरवादी था और आर्यसमाज के तार्किक होने के तमाम दावों के बावजूद ईश्वर के अस्तित्व को लेकर किसी तरह की शंका का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन इस लेख का जैसा असर मुझ पर हुआ, वैसा शायद ही किसी दूसरे लेख या किताब का हुआ हो। तत्काल मैं किसी तरह के भावावेश में नहीं था पर धीरे-धीरे मैंने पाया कि ईश्वर के अस्तित्व जैसी कोई धारणा मेरे भीतर कतई नहीं है। बाद में भगत सिंह की लिखी दूसरी उपलब्ध सामग्री मिली और हमेशा ही उनके आलोचनात्मक विवेक को लेकर हैरत होती रही।

हैरत यह कि इत्ती कम उम्र में ऐसा विवेक और साहस जो विचार और एक्शन को हर किस्म के झूठे फंदे से मुक्त कर दे। आखिर बड़े से बड़े प्रगतिशील लेखक, विचारक, एक्टिविस्ट कई तरह की संकीर्णताएं के छीटों से अपने लेखन और जीवन को बचा नहीं पाते हैं. कुछ जाति के मसले पर तो कुछ साम्प्रदायिकता के मसले पर तमाम किन्तु-परन्तु लगाकर काम चलाते हैं. सामंतीपन और आत्ममुग्धता तो खैर इन लोगों के जेवरों की तरह मौजूद रहते हैं. लेकिन आप भगत सिंह को जाति के सवाल पर पढ़िए तो अपनी छोटी सी टिप्पणी में ही वे धर्म और राष्ट्र की दुहाई देकर जाति और वर्ण की रक्षा को आतुर दुसरे `अछूत उद्धारकों` जैसा रवैया नहीं अपनाते बल्कि इस मुद्दे पर उनके यहाँ आंबेडकर और पेरियार जैसे दलित नेताओं जैसा दो टूक आह्वान मिलता है. धर्म और साम्प्रदायिकता के सवाल पर भी उनके विचार बेमिसाल हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि उनके दस्तावेज लम्बे समय तक अँधेरे में रहे और इसका फायदा उठाकर संघ जैसी सांप्रदायिक और जातिवादी ताकतें उनके नाम का इस्तेमाल करने की कोशिश करती रहीं।
भगत सिंह का एक और गुण जो मुझे बेहद आकर्षित करता है, वह है उनका खुद तक के प्रति भी निर्मम आलोचनात्मक रवैया रखना. ऐसे लोग कम ही मिलेंगे (और राजनीति में तो और भी कम और खुद को आभामंडल से घिरा महसूस करने वाले तो नहीं के बराबर) जो अपने पिछले कदम की गलतियों को स्वीकार कर सकें. इस दौर में जब दुनिया में और अपने देश में पूंजीवादी व साम्राज्यवादी ताकतें न्याय व बराबरी के सवाल को बेशर्मी से कुचलने को उतारू हैं तो भगत सिंह का ऐतिहासिक बयान - जब तक शोषण है, संघर्ष जारी रहेगा - बिखरी हुई लडाइयों के रूप में ही सही पर सच साबित हो रहा है. बेशक इन संघर्षों को ऐसे नायकों की ज्यादा से ज्यादा जरूरत है जो धर्म, जाति, पुनरुत्थानवाद और ऐसे तमाम धूर्त फंदों से पूरी तरह मुक्त हों.

Saturday, September 19, 2009

सैर-सपाटा







ये तस्वीरें कबीर ने भेजी हैं. कबीर दिल्ली में रहता है, नौवीं-दसवीं का छात्र है और अपना कई बरस पुराना दोस्त है.

Wednesday, September 16, 2009

हुसेन : गुरबत में हों अगर हम...





शान-ए-हिंद, तुझे सालगिरह मुबारक हो



गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में


समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा


-इक़बाल

Tuesday, September 15, 2009

मसला - वीरेन डंगवाल



बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?

कातिल मज़े में हैं
तो क्या हम मान लें कि क़त्ल करना मज़ेदार काम है?

मसला मनुष्य का है
इसलिए हम हरगिज़ नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए बना है मनुष्य

Wednesday, September 2, 2009

चरनदास चोर नहीं है – मंगलेश डबराल


हमारे पीढ़ी के बहुचर्चित कथाकार और कवि उदय प्रकाश की इस चिंता (जनसत्ता, 16 अगस्त) में ज्यादातर लोग शरीक होंगे कि ‘जब सारे अंदेशे और बुरे सपने सच होने लगते हैं तो उनकी परछाईं देर-सबेर सारे देश और बृहत्तर समाज पर भी गिरती है।' दरअसल ये छायाएं देश और समाज ही नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों और संवेदनाओं पर भी मंडराती रहती हैं। हिटलर सरीखा तानाशाह अपनी मांद में दयनीय ढंग से नष्ट हो जाता है लेकिन उसके वर्षों बाद भी पूरा यूरोप हिटलर की वापसी की आशंका से मुक्त नहीं हो पाता, यातना शिविरों के शिकार हुए लोग मिट जाते हैं लेकिन यातना की स्मृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। इन पंक्तियों के लेखक को उदय प्रकाश के कई तर्कों को पढ़ते हुए यूनान के कवाफ़ी और जॉर्ज सेफरिस के समकक्ष मानेजाने वाले महाकवि यानिस रित्सोस की याद आती है, जिन्हें टीबी जैसे रोग से ग्रस्त होने के बावजूद मैटाक्सस से लेकर पापादिपूलोस जैसे तानाशाहों की सरकारों ने करीब पंद्रह वर्ष तक जेल में रखा या विभिन्न द्वीपों में निर्वासित किया और जिनकी महान रचनाओं पर करीब पच्चीस वर्ष तक प्रतिबंध लगा रहा। ऐसा इसलिए हुआ कि रित्सोस यूनान की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और उनकी एक लंबी कविता ‘एपीताफ़िओस’ मिकिस थिओदोराकिस की लिपि में संगीतबद्ध होकर जनसाधारण का प्रतिरोध-गीत बन गयी थी। लेकिन इतनी लंबी यंत्रणा झेलने के बाद 11 नवंबर 1990 को यानिस रित्सोस के निधन पर ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में उनके प्रति जो श्रद्धांजलि प्रकाशित हुई, उसमें कहा गया था कि ‘यानिस रित्सोस की क्रान्तिकारी राजनीति के बावजूद यूनान की कट्टरपंथी सरकार ने घोषणा की कि उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जायेगा। हमारे देश के कालजयी रंगकर्मी और सांस्कृतिक व्यक्तित्व हबीब तनवीर के निधन पर जब मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने, बक़ौल उदय प्रकाश, 21 बंदूकों की सलामी का राजकीय सम्मान दिया तो यह जैसे रित्सोस के अंतिम संस्कार की पुनरावृत्ति ही थी।

उदय प्रकाश का यह कहना सच नहीं है कि छत्तीसगढ़ में ‘प्रतिबंधित’ हबीब तनवीर मध्यप्रदेश में उसी भाजपा के शासन के तहत ‘अभिनंदित’ थे। दुनिया भर के लोकतंत्रों में रंगकर्म राज्य के अनुदान पर निर्भर रहता है और सच यह है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर’ को मिलने वाली सहायता राशि में कई तरह की रुकावटें पैदा की गयीं, उनके रंगमंडल का घर खाली करवाने और उन्हें भोपाल छोड़कर जाने के लिए विवश करने की सरकारी कोशिशें हुईं, और जैसा कि उस समय की अखबारी रिपोर्टों और हबीब साहब पर बनी एक फिल्म ‘मोर नाँव हबीब तनवीर’ से जाहिर होता है, उनके नाट्य प्रदर्शनों को जगह-जगह रोका गया, धमकियां दी गयीं और उपद्रव मचाकर दर्शकों से भरे हुए हॉल खाली करवाये गये। कुल मिलाकर यह हबीब तनवीर जैसे कड़ियल का दमखम था या उनकी वैचारिक ताकत थी कि वे भोपाल में ही डटे रहे हालांकि उन्हें जिन रोजमर्रा परेशानियों का सामना करना पड़ा उनकी कहानी शायद कभी कोई – जैसे उनकी बेटी नगीन – लिखे तो हम 21 बंदूकों की सलामी देने वाली सत्ताओं की असलियत कुछ समझ पायेंगे। अभी हम सिर्फ यही पूछ सकते हैं कि क्या कोई सभ्य सत्ता-व्यवस्था हबीब तनवीर जैसे कालजयी व्यक्तित्व का घर खाली कराती है? यहां हम यह याद कर सकते हैं कि 1967 में जब ज्यां पॉल सार्त्र को पेरिस के छात्र विद्रोह का सक्रिय समर्थन करने के कारण गिरफ्तार किया गया तो तत्कालीन राष्ट्रपति शार्ल द गॉल ने उन्हें तुरंत रिहा करते हुए कहा था : 'वोल्तेअर को कौन गिरफ्तार कर सकता है!’

आखिर ऐसा क्यों है कि अपने बड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों को तरह-तरह से सताने वाली सत्ता व्यवस्थाएं उन्हें मरणोपरांत राजकीय सम्मान प्रदान करती हैं, उनकी स्मृति में स्मारक बनाती हैं या उनके नाम पर पुरस्कार स्थापित करती हैं जो उन लोगों को भी दिये जाते हैं जिनके मूल्य अक्सर उन दिवंगत बुद्धिजीवियों के विपरीत होते हैं? हम जानते हैं कि मध्यप्रदेश में मुक्तिबोध जैसे महाकवि की इतिहास संबंधी एक पाठ्य-पुस्तक पर कांग्रेस के शासन में प्रतिबंध लगा था जिससे मुक्तिबोध मानसिक रूप से हमेशा संतापित रहे और बार-बार अपने पत्रों में इसे हटाने की मांग किया करते थे। यह प्रतिबंध आज भी जारी है जबकि मध्य प्रदेश से निकल कर बने राज्य छत्तीसगढ़ में सरकार ने बाकायदा मुक्तिबोध का स्मारक बना दिया है और उसे एक लेखकीय तीर्थ के रूप में प्रचारित किया जाता है। सवाल यह है कि क्या रित्सोस और हबीब तनवीर के शवों को दी गयी राजकीय सलामी और मुक्तिबोध के स्मारक के निर्माण का उद्देश्य इन कालजयी व्यक्तित्वों का सम्मान और अभिनन्दन करना होता है या फिर ऐसी विरूप प्रतीकात्मकता के जरिये अमानुषिक, सांप्रदायिक, तानाशाह सत्ताएं अपनी तथाकथित उदारता और लोकतांत्रिकता को स्थापित करना चाहती हैं ताकि उनके पिछले दुष्कृत्यों पर पर्दा पड़ सके।

अब तक मिली खबरें बताती हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सतनामी पंथ के मुखिया महंथ बालदास द्वारा धमकी दिये जाने के बाद हबीब तनवीर के नाटक ‘चरनदास चोर’ की पाठ चर्चा पर प्रतिबंध लगाया था क्योंकि नाटक से पहले हबीब साहब की लिखी हुई एक बेहद रोचक भूमिका में हस्बे-मामूल यह उल्लेख किया गया है कि सतनामी पंथ के प्रवर्तक गुरु घासीदास पहले एक डाकू थे। समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की ‘संस्कृतकरण’ व्याख्या को छोड़ दें तो इस जनश्रुति के सच या झूठ होने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ‘चरनदास’ नाटक का मूल संदेश तो उसके एक गीत में ही निहित है: ‘सुनो सुनो संगवारी, भाई मोर चरनदास चोर नहीं है।’ कुछ लोगों द्वारा यह कहकर भी इस घटना को मामूली बताने की कोशिश की गयी कि ‘चरनदास चोर’ के मंचन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा है। लेकिन जब इस नाटक का कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं तो प्रतिबंध लगाने या न लगाने की बात अप्रसांगिक है हालांकि यह कल्पना की जा सकती है कि एक सरसरे उल्लेख के आधार पर अगर किताब पढ़ाये जाने पर रोक लग सकती है तो नाटक का मंचन हुआ होता तो उस पर जरूर कोई उपद्रव होता, पूरा प्रतिबंध लगता और मध्यप्रदेश की ही तरह, ‘चरनदास चोर’ सांप्रदायिक तत्वों का शिकार बन चुका होता। गनीमत है कि ऐसा नहीं हुआ।

अपनी टिप्पणी में उदय प्रकाश जगह-जगह निम्नवर्गीय-सबऑल्टर्न-विमर्श के जरिये महावृत्तान्तों को प्रश्नांकित किये जाने की वास्तविकता को उभारते हैं, लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि महंथ बालदास भी एक सत्ता संरचना के शीर्ष पर हैं और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे सतनामी पंथ के सभी सदस्यों के प्रतिनिधि हैं या उनकी चेतना और उनका विवेक हैं। ठीक उसी तरह जैसे गोरखपुर स्थित गुरु गोरखनाथ की पीठ के आधुनिक दौर के मुखिया महंथ दिग्विजय नाथ और आदित्य नाथ को इस पीठ का सच्चा उत्तराधिकारी मानना कठिन है क्योंकि वे एक समय के मूलगामी प्रेम और ध्यानमग्नता के दर्शन को सांप्रदायिक विद्वेष, घृणा और आक्रामकता के अभियान में बदलकर एक गहरे रसातल में ले जा चुके हैं। ये हमारे समय की क्रूर-निर्मम विपर्यय हैं जिनमें अतीत के क्रान्तिकारी अभियान आज के पतित मठ बन जाते हैं, जातिवाद का विरोध खुद अपने को जातियों में विभाजित कर लेता है, उत्पीड़ित दलित चेतना एक बहुसंख्यक और उत्पीड़क सवर्ण विमर्श से हाथ मिला लेती है, मुंबई की मैली चालों से उभर कर अपने समय की मराठी कविता को बदल देने वाला कवि नामदेव ढसाल समूची दलित चेतना को धता बताता हुआ शिवसेना के माफिया की शरण में चला जाता है, कोई स्वघोषित क्रान्तिकारी रचनाकार किसी सांप्रदायिक नेता से कोई भी पुरस्कार ग्रहण कर लेता है, कोई स्वघोषित क्रांतिकारी रचनाकार किसी साम्प्रदायिक नेता के कर-कमलों से किसी व्यापारी संघ द्वारा स्थापित कोई पुरस्कार ग्रहण कर लेता है, मध्य प्रदेश में भाजपा-शासित भारत भवन का बहिष्कार करने वाले प्रगतिशील साहित्यिक नेतागण दूसरे भाजपा-शासित राज्य और सलवा जुडुम जैसे कुख्यात संगठनों के जनक छत्तीसगढ़ की पुलिस के मुखिया द्वारा आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में जाने से कोई परहेज नही करते और अंत में हम देखते हैं कि सारे विचार एक ही थाली में आराम से खाना खा रहे हैं। उदय प्रकाश द्वारा गोरखपीठ के संचालक आदित्य नाथ के हाथों पुरस्कार लेने का प्रकरणी भी इसी विमर्श का एक हिस्सा है हालांकि उसकी आलोचना को किसी सत्ताधारी गिरोह की निजी कुंठा की तरह देखा गया।

दमनकारी सत्ताओं की ‘भर्त्सना’, ‘निंदा’ और ‘विरोध प्रस्ताव’ जैसी कार्रवाइयों को उदय प्रकाश ने ‘सुविधावादी और सरलीकृत राजनीतिक समझ और रणनीति’ करार दिया है और कहा है कि ‘ये बासी और खोखले तरीके अब गैर-ईमानदार और चतुर लोगों के हाथ के झुनझुने’ बन चुके हैं। इस सन्दर्भ में पहली बात यह है कि प्रतिरोध की संस्कृति कुछ चालाक लोगों के हाथों में आकर अपना मूल्य नहीं खो देती, गो कि तात्कालिक रूप से ऐसा लग सकता है। यहां हम देश के सबसे बड़े आधुनिक चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन की जानी-पहचानी त्रासदी को देख सकते हैं। वे कई साल से स्व-निर्वासन में हैं और कुछ संगठन समय-समय पर उनकी देश-वापसी और इसके लिए एक अनुकूल वातावरण की मांग सरकार से करते हैं। सरकार हमेशा यह तर्क देती है कि हुसेन जब चाहें भारत आ सकते हैं, उनके लिए दरवाजे खुले हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि हुसेन भारत आ नहीं सकते और शायद अब आना भी नहीं चाहते होंगे, क्योंकि उन पर भाजपा के सहस्रमुख वैध-अवैध संगठनों की ओर से एक सौ से अधिक मुकदमे दायर किये गये हैं और वे जब कभी भारत आयेंगे, किसी न किसी धारा के तहत गिरफ्तार कर लिये जायेंगे। अब हुसेन की देश-वापसी की मांग लगभग एक अनुष्ठान में बदलने जा रही है और हमारे समकालीन कलाकार अपनी कला को बेचने में इस कदर डूब चुके हैं कि उन्हें हुसेन का खयाल भी नहीं आता। संभव है कि कुछ लोग इस मांग को झुनझुने की तरह ‘जब चाहतें हैं तब बजा देते’ हों, लेकिन इससे क्या यह पूरी मांग और यह आवाज महज एक झुनझुना बन जाती है? उदय ने तसलीमा नसरीन के प्रकरण का भी उल्लेख किया है जिसकी राजनीतिक पेचीदगियों में गए बिना भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि बांगलादेश के कट्टरपंथी मुल्लाओं के विरोध के बाद पश्चिम बंगाल की सरकार ने ही उन्हें पनाह दी थी.

उदय प्रकाश जिन सरलीकरणों की आलोचना करते दिखते हैं, खुद भी उनके शिकार लगते हैं। वे उत्तर-आधुनिक फैशन में महावृत्तांतों और मोनोलिथ वैचारिकताओं को सरलीकृत और उनके टूटने से पैदा हुई अस्मिताओं को जटिल संरचना मानते हैं। महावृत्तांतों को वे एक गहरे संशय से देखते हैं, लेकिन लघुविविमर्शों के लिए कोई आलोचनात्मक कसौटी नहीं अपनाते। इस तरह देखने पर उत्तर भारतीय दलित राजनीति में कांसीराम और मायावती को तमाम संदेहों से परे दलित नेतृत्व का अंतिम विकल्प मान लिया जायेगा। और यह कहना भी चतुराई या भोलापन या फिर दोनों हैं कि चरनदास चोर, हबीब तनवीर और टाटा की छोटी कार नैनो का एक भूगोल से दूसरे भूगोल में स्थानांतरित हो जाना महज एक स्थानिक-सांख्यिकीय परिघटना है जिसके राजनीतिक निहितार्थ नहीं हैं। उदय प्रकाश अपने को ‘प्रचलित राजनीतिक भाषा और उसकी चालू प्रतिक्रयाओं‘ से थोडा सा अलग हटकर सोचने और बोलने’ वाला व्यक्ति मानते हैं लेकिन विडंबना यह है कि उनकी सारी शब्दावली उस प्रचलित राजनीति की ही है, जिसमें ‘दबी-कुचली जातियों’ और ‘अनगिनत पंथों’ के ‘स्वाभिमान’ और ‘अधिकारों’ और सत्ताओं में उनके हिस्से को बिना किसी आलोचनात्मक पड़ताल के बारबार रेखांकित किया जाता है। जिस महावृत्तांत के खोखलेपन की तरफ वे इशारा करते हैं वह दरअसल मार्क्सवाद है, लेकिन इससे कौन इनकार करेगा कि आज यह वैचारिक दर्शन एक सत्ता के रूप में ध्वस्त और बहिष्कृत है – महज एक लाल कपड़ा, जिसे देखते ही दुनिया के संपन्न शासक वर्ग, बहुराष्ट्रीय निगम, देसी पूंजीपति, खाता-पीता मध्यवर्ग, बाजार, मीडिया सब मुहावरे की बैल की तरह भड़क उठते हैं? साथी, यह विचार तो सबसे किनारे के हाशिये पर है, इसके पास कौन सी सत्ता है?

हमारे समाज में अगर यह बाजार का युग है तो साहित्य में इसे अंधकार का ही युग कहा जाना चाहिए। खासकर हिंदी समाज में अब न कोई बड़ा विचार रह गया है न कोई बड़ा स्वप्न और न कोई बड़ी रचना जो इन दोनों के मेल से उपजती है। इस अंधेरे में कभी कोई महाश्वेता देवी, कोई अरुंधति रॉय, कोई वरवर राव दिख जाते हैं जो प्रतिरोध के विचार को अपनी नैतिकता की तरह मानते हैं और हमें चेतावनियां देते रहते हैं जिन्हें हम उतनी ही तत्परता से अनसुना कर देते हैं। कई वर्ष पहले रघुवीर सहाय ने लगभग भविष्य-कथन करती हुई अपनी कई कविताओं में से एक कविता में लिखा था :

मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो
खतरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे
तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा
बेकार हो चुकी होगी।


उदय प्रकाश ने पूछा है कि ‘विरोध और भर्त्सना के अलावा हम और क्या कर सकते हैं।’ इसका जवाब यही हो सकता है कि हम विरोध और भर्त्सना का मूल कर्तव्य न छोड़ें। खासकर तीसरी दुनिया के लिए एडवर्ड सईद की यह सलाह शायद हमेशा याद रखने लायक है कि बुद्धिजीवियों को प्रतिपक्ष की ही भूमिका निभानी होगी। उदय प्रकाश की इस आशंका का जवाब कि अगर उनकी कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ पर कोई फिल्म बनी तो उसके साथ भी ‘परजानिया’ या गौहर रजा की फिल्मों जैसा सलूक हो सकता है, इसी प्रतिश्रुति में निहित है। दुर्भाग्य से, अगर ऐसा हुआ तो इसका विरोध करने वालों की अब भी कमी नहीं होगी।

(जनसत्ता से साभार)