Friday, February 24, 2017

प्रतिरोध की नई संवेदना से जुड़िए : शिवप्रसाद जोशी

प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं, अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.``
 

हमला पहला नहीं है. और होंगे. अभिव्यक्ति की आज़ादी और सत्ता व्यवस्था की टकराहटें और होंगी. सवाल ये है कि प्रतिरोध की संस्कृति को सत्ता की संस्कृति से सतत संघर्ष हम व्याख्याओं और विमर्शों में ही निपटते रहेंगे या ऐसा समाज बनाने की उन्मुख होंगे जहां प्रतिरोध की आवाज़ों का भी एक आयाम बना रहेगा और सत्ता के आयाम उसे निगलेंगे नहीं.
 
इस मामले में अमेरिकी लोकतंत्र की दाद देनी होगी जहां विभिन्न आवाज़ों के लिए स्पेस कभी कम नहीं हुआ है। अमेरिकी इतिहास जितना सत्ता राजनीति और भूमंडलीय वर्चस्व और अन्य देशों पर थोपे गये युद्धों का इतिहास है उतना ही प्रतिरोध और हाशिये की आवाज़ों के प्रस्फुटन और आंदोलन का इतिहास भी है.

भारत में भी प्रतिरोध की परंपरा रही है. लेकिन उसे कुचलने के लिए यहां सिस्टम भरसक सक्रिय रहता है. क्योंकि यहां एक फाशीवादी मनोवृत्ति वाली सत्ता आकांक्षा जड़े जमा चुकी हैं. वो 2014 में पहली बार नहीं प्रकट हुई थी. हमने उसका अपने अपने ढंग से निर्माण होने दिया. उसकी भूख नई और फैल गई है. वो निगल लेना चाहती है. मैंने सपना देखा कि एक सांप मेरी ओर आता है और उसका मुंह किसी शार्क की तरह खुला हुआ है. मैं पानी में पड़ा हुआ हूं लाचार और कातर. सिर्फ़ उस अजीबोग़रीब जीव को देखता हुआ.

बहुसंख्यकवाद के पास भीमकाय डैने आ गए हैं. उसने धूल उड़ा दी है और आसमान को ढकने का अभियान छेड़ा है. वे विरोध को सीधा देशद्रोह कह देता है और कार्रवाई पर उतारू रहता है. लेकिन भूल जाता है कि जितना ज़्यादा वो अपना दमन ढालता है उतना ही दबी कुचली आवाज़ें न जाने किन अनचीन्हें अनजाने कोनों से फूटने लगती हैं. 

ये कोने एक संगठन के भीतर भी हो सकते हैं एक समुदाय के भी और एक व्यक्ति के भी. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक, कवि-चिंतक प्रशांत चक्रवर्ती हों या हिंदी के वरिष्ठ कवि लेखक फिल्मकार देवीप्रसाद मिश्र, अपने अपने ढंग से उनके प्रतिरोध को सबक सिखाने की कोशिश की गई.

क्या इतना आसान है प्रतिबद्धता को ख़ामोश कर देना. भारत समेत विश्व का समकालीन, आधुनिक इतिहास और प्राचीन इतिहास भी अगर टटोल लें तो ऐसा कहां हो पाया है. कभी नहीं. अवाक, स्तब्ध, हमले से लगभग बेसुध प्रशांत हों या ऐन सड़क पर, शाम आवाजाही के प्राइम टाइममें घायल किए गए देवीप्रसाद, जिनकी नाक से बहा ख़ून भी जैसे उनकी थरथराती, बेचैन आवाज़ की भाप से वहीं थम गया हो- वे एक जीवित परंपरा में अपनी सक्रियता को उड़ेल कर अपनी रोज़मर्रा जद्दोजहद में लौट जाते हैं ख़ुद को प्रामाणिक, विश्वसनीय और सच्चा मनुष्य बनाए रखने के लिए.
जैसे आइन्शटाइन, ब्रेष्ट, दाभोलकर, पानेसर, कलबुर्गी, पेरुमल, चॉमस्की, अरुंधति लौटे थे. जैसे क़रीब 600 दिन पहले इस देश के कवि-लेखक, रंगकर्मी, इतिहासकार, वैज्ञानिक, फिल्मकार लौटे थे. एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी समुदाय का विकास हो रहा है. मीडिया और अन्य हलचलों से बाहर ये सक्रियता अपना फ़र्ज़ निभा रही है. वरना देवी को अपने दफ़्तर से सीधे घर ही लौटना था. प्रशांत भी घर लौटकर यूं आते ही. अब ख़तरे की घंटी है जिसे बादशाह नहीं बजाएंगें. ये सत्ताओं के ख़िलाफ़ है. उम्मीद बनी हुई है. लेकिन ये पीछे थमी रह जाने वाली उम्मीद न हो कि सब ठीक हो जाएगा, आखिर कब तक चलेगा आदि आदि. इस ऑप्टिमिज़्म से सावधान!  छात्र-छात्राओं की एक बिरादरी सघन उत्तेजना और उत्साह से भरी हुई है. जो लोग ये कहते हैं कि नये लोग नाकाम और नाकाफी और निस्तेज और निष्क्रिय हैं, उन्हें थोड़ा रुकना चाहिए और अपने अतीत की हलचलों में झांकना चाहिए. आप इस नई छात्र संवेदना से जुड़िए, निहारते और पीछा छुड़ाते मत रहिए.
प्रशांत ने अस्पताल से लौटकर युवाओं का आह्वान करते हुए कमोबेश यही कहा, देवी ने भी कुछ यही कहा एक ईमेल में कि मैं स्थिर हूं, ऊर्जा से भरा हूं और कोई आत्मग्लानि नहीं, अफसोस बस यह है कि proletariat में भी बर्बरता का वितरण हो रखा है.

Friday, February 3, 2017

हिन्दुत्व का विज्ञान द्वेष : मीरा नंदा
















(मीरा नंदा के इस महत्वपूर्ण लेख को हिंदी में पढ़वाने का श्रेय शुभनीत कौशिक को है।)


हिन्दू राष्ट्रवादी आरंभ से ही वैदिक विश्व-दृष्टि और आधुनिक विज्ञान के बीच मौलिक एकता के दावे करते आ रहे हैं। अगर आधुनिक विज्ञान हमारे ऋषियों को ज्ञात वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर में समाहित होने वाली महज एक तुच्छ उपधारा भर है, तब तो आधुनिक विज्ञान और पश्चिमी वैज्ञानिकों को वेदों से ईर्ष्या करनी चाहिए।
अगर ज्ञान की कोई एक परंपरा है जो जो दुनिया के हर कोने में व्यावहारिक तौर पर आधुनिक युग को पारिभाषित करती है तो वह है आधुनिक विज्ञान। अरबी, भारतीय और चीनी सभ्यताओं ने निःसंदेह विज्ञान के समूचे उद्यम में योगदान दिया है। पर इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि आधुनिक विज्ञान के जन्म के लिए उत्तरदाई विश्व-दृष्टि और प्रविधियों में युगांतरकारी बदलाव, पश्चिम में ही 16वीं-17वीं सदी के दौरान आए। आधुनिक विज्ञान की सार्वभौम महत्त्व रखने वाली पद्धतियाँ और सिद्धांत अपने योरोपीय उद्गम स्थल से ही दुनिया भर के देशों में फैले। अक्सर, ये सिद्धांत औपनिवेशिक सत्ता के साथ लगे रहकर उपनिवेशों में दाखिल हुए।
आधुनिक विज्ञान पश्चिम में जन्मा और पश्चिम से ही बाकी दुनिया में पहुँचा – ये दो ऐसे तथ्य हैं, जो पूर्व की सभी गौरवपूर्ण और प्राचीन सभ्यताओं के लिए गहरी चिंता और विद्वेष के स्रोत हैं। पर यह दंश जितना भारत में महसूस किया जाता है, उतना किसी अन्य उत्तर-औपनिवेशिक समाज में नहीं। जाहिर है कि भारत ने सबसे लंबे समय तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद का दंश भी झेला था।
समस्या यह है कि न तो हम भारतीय आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बगैर जिंदा रह सकते हैं और न ही कभी इस तथ्य को पचा पाते हैं कि सभी ज्ञान-परम्पराओं में यह सबसे उपजाऊ और शक्तिशाली परंपरा आखिरकार एक “म्लेच्छ परंपरा” है। यह बात हमें चुभती रहती है कि इन अशुद्ध, गौमांस खाने वाले भौतिकवादियों ने, जिनमें किसी आध्यात्मिक सुरूचि का सिरे-से अभाव है और सभ्यता पर जिनके दावे की हम हँसी उड़ाते रहे हैं, प्राकृतिक-ज्ञान के क्षेत्र में हमें बुरी तरह से पछाड़ दिया है। इसलिए जहाँ एक ओर हम आधुनिक विज्ञान की ओर लालायित रहते हैं, वैज्ञानिक महाशक्ति बनने के फेर में अपने संसाधन झोंकते हैं, वहीं दूसरी ओर हम आधुनिक विज्ञान के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व को कम करके भी आंकते हैं, इसके योरोकेंद्रीय होने की निंदा करते हैं। इसका मतलब ये है कि हमें पश्चिम से भौतिकवादी विज्ञान और प्रौद्योगिकी तो चाहिए, पर हम खुद को उस आध्यात्मिक श्रेष्ठता के भाव से मुक्त नहीं करेंगे, जो हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हम जगतगुरु हैं।
आरंभ से ही, चाहत, ईर्ष्या और जन्मजात आर्य श्रेष्ठता के इन्हीं मिले-जुले भावों ने भारत के पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ साक्षात्कार को पारिभाषित किया है। हिन्दू नवजागरण से जुड़े साहित्य – मसलन बंकिम चट्टोपाध्याय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट (और अन्य थियोसोफिस्ट), सर्वपल्ली राधाकृष्णन, एम.एस. गोलवलकर से लेकर अन्य तमाम गुरुओं, दर्शनिकों और प्रचारकों के लेखन को आप पढ़ें तो आपका सामना विज्ञान-द्वेष और आहत गर्व की भावना से होता है। हिन्दू राष्ट्रवादियों की हालिया पीढ़ी और उनके बौद्धिक प्रवक्ता, हिन्दू नवजागरण के इन्हीं विचारकों की संतति है और उन जैसे ही लक्षण दर्शाते हैं।

विज्ञान के स्रोत के रूप में वेद
विज्ञान विद्वेष का सबसे ताजा निरूपण हमें राजीव मल्होत्रा के उस आह्वान में मिलता है, जिसमें वे हिंदुओं से आधुनिक विज्ञान को वैदिक फ्रेमवर्क के साँचे में बिठाने के जरिए अपनी धार्मिक परम्पराओं की “भिन्नता” (पढ़ें “श्रेष्ठता”) को जताने की बात करते हैं। अब सवाल यह है कि इस योजना को अंजाम कैसे दिया जाएगा? मल्होत्रा का प्रस्ताव है कि आधुनिक विज्ञान को वैदिक श्रुतियों की स्मृति के रूप में समझा जाए। श्रुति यानी जो "शाश्वत परम सत्य है, मानव मस्तिष्क और संदर्भों से परे; जिसे हमारे प्राचीन मुनियों ने अपनी 'ऋषि अवस्था' में प्राप्त किया। और स्मृति वह जो मानव ज्ञानेन्द्रियों से अर्जित ज्ञान और तर्क पर आधारित है। व्यावहारिक तौर पर, इसका मतलब होगा कि सारी आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं को सिर्फ वैदिक वर्गीकरण का एक उपवर्ग भर ठहरा दिया जाए। मसलन, भौतिकविदों की ऊर्जा संबंधी अवधारणा को, जिसमें एक सुस्पष्ट और निर्धारित मात्रा में कार्य करने की क्षमता की अवधारणा निहित है, शक्ति की उस अवधारणा का एक उपवर्ग बता दिया जाएगा, जिससे कि हमारे योगी पूर्व-परिचित थे। भौतिक विज्ञान को, कर्म के सिद्धांत से जोड़ दिया जाएगा, महज इसलिए कि वह कार्य-कारण संबंध का अध्ययन करता है। डार्विन के सिद्धांत को योगसूत्रों में बताई गई आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया की एक निम्न और भौतिकवादी व्याख्या बताया जाएगा आदि आदि। इस तरह हम आसानी से आधुनिक विज्ञान और अपने आध्यात्मिक श्रेष्ठता दोनों का एक साथ बेहिचक आनंद ले सकते हैं। और सिर्फ यही नहीं, एक बार जब हम आधुनिक विज्ञान की धारा को वेदों के महासागर में मिला देंगे, तब भारत को विश्व-गुरू के रूप में देखने का हिन्दू राष्ट्रवादियों का स्वप्न भी साकार हो जाएगा!
असल में, वैदिक विश्व-दृष्टि और आधुनिक विज्ञान के बीच मौलिक एकता का दावा आरंभ से ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के एजेंडे में रहा है। यह असल में, हमारे विज्ञान-द्वेष का एक बहुत कुशल समाधान है: अगर आधुनिक विज्ञान हमारे ऋषियों को सदा-सर्वदा से ज्ञात वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान के महासागर में समाहित होने वाली महज एक तुच्छ उपधारा भर है, तब तो असल में, आधुनिक विज्ञान और पश्चिमी वैज्ञानिकों को वेदों से ईर्ष्या करनी चाहिए। यह समाधान न सिर्फ हमारी आहत गर्व भावना पर मलहम लगाने का काम करता है, बल्कि वेदों को वैज्ञानिकता का स्रोत साबित करने की यह रणनीति, वेदों में एक एक खास वैज्ञानिक चमक भी पैदा करती है। इसके बावजूद, विज्ञान के इतिहासकार फ्लोरिस कोहेन के शब्दों में कहें तो वेदों को विज्ञान का जनक बताने की यह रणनीति "एक भव्य अंधी गली" से बढ़कर कुछ भी नहीं है। क्योंकि इस रणनीति में न तो नए सवाल करने की संभावना है, न ही उनमें गैर-ऋषियों को उपलब्ध पद्धतियों का इस्तेमाल करते हुए, कोई नया समाधान या उत्तर देने की गुंजाइश है।

विज्ञान के इतिहास से छेड़छाड़ 
विज्ञान के इतिहास के साथ बड़े पैमाने पर, बारंबार की जा रही छेड़खानी ने, आधुनिक विज्ञान को स्मृति में बदलने की परियोजना में सहायता पहुंचाई है। इस परियोजना में, विज्ञान के इतिहास को व्याख्या और तथ्य दोनों ही स्तरों पर तोड़ा-मरोड़ा जाता है। तथ्यों के साथ छेड़छाड़ उन मामलों में की जाती है, जहाँ अन्य सभ्यताओं से मिलने वाले साक्ष्यों को पूरी तरह से दरकिनार कर, प्राचीन भारत के दावों को वरीयता दी जाती है। या तब जब मिथकों की शब्दशः व्याख्या की जाती है। यह छेड़छाड़ अपने चरम पर तब पहुँचती है, जब आधुनिक विज्ञान की देन जैसे क्वांटम फिजिक्स, कंप्यूटर विज्ञान, आनुवांशिकी, न्यूरोसाइंस आदि को भी सुदूर अतीत के ऋषियों और दार्शनिकों के कल्पनाशील विचारों में ढूँढने की कोशिश की जाती है। "वैदिक विज्ञान" की पूरी इमारत विज्ञान के इतिहास के साथ इन्हीं छेड़खानियों के आधार पर खड़ी हुई है।
तथ्यों की यह तोड़-मरोड़ नरेंद्र मोदी सरकार के शासन के पहले वर्ष में तो दिखी ही, अब वह विभिन्न राज्य सरकारों के शिक्षा विभागों, कुछ थिंक टैंकों और 'आंदोलनों' में भी अब स्पष्ट रूप से दिखने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अक्तूबर 2014 में दिया गया 'कर्ण-गणेश' वाला प्रसिद्ध भाषण या फिर उनके उनके द्वारा मुंबई में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में जनवरी 2015 में दिये गये भाषण के बारे में लोग जानते ही हैं। यह उस हिमखंड का सिर्फ ऊपरी हिस्सा भर है, जो हमें दिखाई दे रहा है, पर असल में यह हिमखंड आकार और गति दोनों में बढ़ता जा रहा है।
यद्यपि उपरोक्त घटनाओं की मीडिया में कुछ समय तक जरूर चर्चा हुई, पर तथ्यों के साथ जो असली छेड़छाड़ हुई है, उसका विज्ञान के इतिहासकारों ने गंभीरतापूर्वक अध्ययन नहीं किया। जब तक हम इन झूठे-सच्चे तथ्यों की जाँच और मिलान, अन्य प्राचीन सभ्यताओं से मिलने वाली जानकारियों और साक्ष्यों के आधार पर नहीं करते, तब तक इन्हें बार-बार दुहराया जाता रहेगा।
आगे इस लेख में, राष्ट्रवादी गल्प की पड़ताल के क्रम में, मैं विज्ञान के भारतीय इतिहास से जुड़े तीन दावों की समीक्षा करूंगी। इनमें से दो दावे गणित से जुड़े हुए हैं: पहला यह कि पाइथागोरस प्रमेय का आविष्कार असल में बौधायन ने किया था। दूसरा दावा यह कि शून्य का जन्म भारत में हुआ। तीसरा दावा आनुवांशिकी के विज्ञान और पैतृक गुणों से संबंधित प्राचीन भारतीय विचार-परंपरा से जुड़ा हुआ है। (उपरोक्त विषयों और इनसे जुड़ी विषय-वस्तुओं पर मैंने अपनी हालिया किताब, साइंस इन सैफ़्रन: स्केप्टिकल इश्यूज़ इन हिस्ट्री ऑफ साइंस में विचार किया है, यहाँ दिये गए तर्कों की ऐतिहासिक और तकनीकी पृष्ठभूमि समझने के लिए इस पुस्तक की सहायता ली जा सकती है।)

पाइथागोरस का प्रमेय
रहस्यवादी-गणितज्ञ पाइथागोरस का जन्म आधुनिक तुर्की के तटवर्ती भाग में स्थित एक द्वीप में लगभग 570 ईसा पूर्व में हुआ था। भारत में अक्सर पाइथागोरस की यह कहकर आलोचना की जाती है कि जिस प्रमेय के खोज का श्रेय पाइथागोरस को दिया जाता है, दरअसल उसकी खोज पाइथागोरस ने नहीं, बल्कि बौधायन ने की थी। बौधायन जिन्होंने बौधायन शुल्वसूत्र की रचना की थी, जिसका समय 800 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। चूंकि बौधायन द्वारा रचित इस ग्रंथ का काल पाइथागोरस से पहले का है, इसलिए यह मान लिया जाता है कि पाइथागोरस ने अवश्य ही भारत की यात्रा की होगी और हिन्दू गुरुओं से इस प्रमेय के बारे में (और इसके साथ-साथ पुनर्जन्म और शाकाहार की हिन्दू अवधारणा के विषय में भी) जाना होगा। इस तरह हिन्दू धर्म की तरफ झुकाव रखने वाले इतिहासकारों द्वारा यह मांग काफी लंबे अरसे से की जा रही है कि पाइथागोरस प्रमेय का नाम “बौधायन प्रमेय” होना चाहिए। बौधायन को सिर्फ पाइथागोरस प्रमेय का आविष्कारक ही नहीं बताया जाता, बल्कि यह दावा किया जाता है कि सर्वप्रथम बौधायन ने ही इस प्रमेय के साक्ष्य दिये थे, बौधायन ने ही सबसे पहले “पाइथागोरस ट्रिपल्स” की गणना की थी, उन्होंने ही अपरिमेय संख्याओं से लोगों को परिचित कराया और दो का वर्गमूल की गणना भी बौधायन ने ही की थी आदि आदि। ऐसे ही कुछ विचार विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पिछले वर्ष विज्ञान कांग्रेस में जाहिर किए थे।
बौधायन से जुड़े ये सभी दावे गलत हैं। जब इन दावों की समीक्षा हम उन तथ्यों के आधार पर करते हैं, जो शुल्वसूत्र की समकालीन दुनिया की अन्य सभ्यताओं में हो रही गतिविधियों से जुड़े हैं, तो ये सभी दावे निराधार साबित होते हैं।
बौधायन के पैदा होने से एक सहस्राब्दी पहले मेसोपोटामिया के बाशिंदों ने समकोण त्रिभुज की भुजाओं के बीच उस संबंध का पता लगा लिया था, जिसकी व्याख्या बाद में, पाइथागोरस ने अपने प्रमेय में की थी। मेसोपोटामियावासियों (और उनके पड़ोसी मिस्र के बाशिंदों ने भी) ने भूमि का मापन आरंभ कर दिया था, जिसका प्रयोग वे यूफ़्रेट्स-टाइग्रिस और नील नदी में आने वाली बाढ़ से मिट जाने वाली सीमाओं के पुनर्निर्धारण में किया करते थे। मिस्र में मिलने वाले इस प्रमेय से जुड़े साक्ष्य यद्यपि बाद के समय के हैं। पर मेसोपोटामिया से मिले साक्ष्य 1800 ईसा पूर्व के हैं, जो बतलाते हैं कि मेसोपोटामियावासी न सिर्फ पाइथागोरस प्रमेय की बारीकियों से परिचित थे, बल्कि वे दो का वर्गमूल निकालना भी जानते थे। यह साक्ष्य है मेसोपोटामिया से मिली मृण-पट्टिकाएँ (क्ले-टैबलेट)। इनमें से मुख्य हैं दो मृण-पट्टिकाएं, प्लिंप्टन 322 और वाईबीसी 7289, जो क्रमशः कोलंबिया और येल विश्वविद्यालयों में सुरक्षित हैं। जिन्हें पहली बार कीलाक्षर (क्यूनीफॉर्म) लिपि के अधिकारी विद्वान ओटो न्यूजेबाउर द्वारा बीसवीं सदी के चौथे दशक में पढ़ा गया। न्यूजेबाउर और उनके सहयोगियों ने यह स्थापित किया कि प्लिंप्टन मृण-पट्टिका पाइथागोरस प्रमेय के बारे में बताती है, जबकि येल विश्वविद्यालय की पट्टिका, 2 के वर्गमूल की बिलकुल शुद्ध परिगणना करती है। बौधायन से जुड़े दावों पर ये दोनों ही मृण-पट्टिकाएं सवालिया निशान खड़ा कर देती हैं।
पूर्व की ओर बढ़ें तो हम पाएंगे कि चीनियों ने भी न सिर्फ इस प्रमेय का पता लगा लिया था बल्कि कन्फ़्यूशियस के समय में (लगभग 600 ईसापूर्व) इसके प्रमाण भी जुटा लिए थे। पाइथागोरस प्रमेय से जुड़े चीनी साक्ष्य हमें जिस ग्रंथ में मिलते हैं, वह है चाउ पेई सुआन चिंग (अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद होगा “द अरिथमेटिकल क्लासिक ऑफ द नोमान ऐंड द सर्कुलर पाथ ऑफ हीवेंस”)। इस ग्रंथ की रचना 1100 ई. पू. से 800 ई. पू. के बीच हुई। बाद में, हान वंश के शासनकाल (तीसरी सदी ई. पू.) में रचे गए गणितीय ग्रंथों में इस प्रमेय को औपचारिक रूप से काउ-कु (अथवा गाउ-गु) प्रमेय की संज्ञा दी गई।
चीन की यह उपलब्धि प्रमाण के मुद्दे की ओर भी हमारा ध्यान खींचती है। शुल्वसूत्रों में, जो यज्ञवेदियों के निर्माण से जुड़े हुए नियमावलियाँ हैं, हमें हर तरह की जटिल ज्यामितीय आकारों के बारे में और उनमें होने वाले बदलावों के विषय में परिष्कृत और व्यावहारिक गणितीय सुझाव मिलते हैं। पर इन सूत्रों में इन ज्यामितीय आकारों को सिद्ध करने या उन्हें तर्कसंगत बनाने का कोई प्रयास नहीं मिलता। मेसोपोटामिया और मिस्रवासियों ने भी इसके कोई प्रमाण नहीं छोड़े हैं।
तो सवाल उठता है कि आखिरकार पाइथागोरस प्रमेय का पहला प्रमाण कहाँ से प्राप्त होता है? पाइथागोरस ने सभी समकोण त्रिभुजों के लिए कोई सामान्य प्रमाण दिया था या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। इस प्रमेय से जुड़ा पहला स्पष्ट प्रमाण ग्रीक परंपरा में यूक्लिड से मिलता है। यूक्लिड पाइथागोरस के समय के तीन सदी बाद के विद्वान हैं। सारे साक्ष्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि पाइथागोरस प्रमेय का पहला प्रमाण उपरोक्त चीनी ग्रंथ ही है, जो यूक्लिड से तीन सदी पहले लिखा गया था। यूक्लिड के विपरीत, जो तार्किक निगमन (लॉजिकल डिडक्सन) की विधि का इस्तेमाल करते हैं, चीनियों ने दृश्य-नमूने का प्रयोग किया और उसके जरिए इस प्रमेय को सिद्ध किया। इस प्रमेय को सिद्ध करने का पहला भारतीय साक्ष्य हमें 12वीं सदी के गणितज्ञ भास्कर की रचनाओं में मिलता है। और जैसा कि चीनी विज्ञान के प्रसिद्ध इतिहासकर जोसेफ नीधम और अन्य विद्वानों ने भी लिखा है कि भास्कर द्वारा दिया गया प्रमाण हू-ब-हू वही था, जो चीनी ग्रंथ चाउ पेई में दिये गए हुआन-थु चित्र में मिलता है।
तो सवाल यह भी उठता है कि पाइथागोरस प्रमेय को खोजने में पाइथागोरस का क्या योगदान था? ग्रीक परंपरा यह स्वीकारती है कि पाइथागोरस ने इस प्रमेय को अपनी युवावस्था में मेसोपोटामिया और मिस्रवासियों से सीखा था। यह प्रमेय पाइथागोरस से जुड़ी हुई गणित की शाखा में काफी महत्त्व रखता था क्योंकि इस प्रमेय ने ही अपरिमेय संख्याओं की खोज का रास्ता साफ किया। जिसने पाइथागोरस की उस मान्यता को चुनौती दी थी, जिसके अनुसार समूचे ब्रह्मांड के परम यथार्थ को संख्याओं और उनके अनुपातों के जरिए समझा जा सकता है। विज्ञान के इतिहास में पाइथागोरस का महत्त्व, “पाइथागोरस प्रमेय” की वजह से नहीं, इसलिए है कि पाइथागोरस ने यह मौलिक विचार दिया था कि प्रकृति को गणित के द्वारा समझा जा सकता है। ऐसी ही अंतर्दृष्टियों ने जोहान केपलर और गैलीलियो गैलिली सरीखे आधुनिक विज्ञान के पथप्रदर्शकों को प्रेरणा दी। इसी प्रक्रिया ने प्रयोगों के साथ, सटीक, परिमाणात्मक मापन और प्रकृति के गणितीकरण के जरिए आधुनिक विज्ञान को ज्ञान की एक प्रभावशाली शाखा में तब्दील कर दिया।

शून्य और भारत    
हिन्दुत्व से जुड़े विज्ञान लेखन का एक पवित्र तथ्य यह है कि शून्य विश्व को भारत की देन है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीय यह सोचते हुए बड़े हुए हैं कि भारत के योगदान के बगैर दुनिया भर के लोग गणना करना नहीं जान पाते, गणित में की उच्चतर शोध की कोई संभावना नहीं होती, और तो और सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति भी संभव नहीं हो पाती।    
पर क्या इस बात में सच्चाई है कि शून्य का आविष्कार पूर्णतया एक हिन्दू आविष्कार है? क्या शून्य विशुद्ध रूप से हिन्दू मस्तिष्क की उपज है, क्या इसमें अन्य क्षेत्रों में हुई खोजों का सचमुच कोई प्रभाव नहीं है?
हम इस गल्प को तब तक ही बरकरार रख सकते हैं, जब तक हम विज्ञान संबंधी अपने अध्ययन को सिर्फ भारत तक ही सीमित रखते हैं। भारतकेन्द्रित (इंडोसेंट्रिक) होना विज्ञान संबंधी भारतीय इतिहासलेखन की एक विशेषता रही है। योरोकेंद्रिक ज्ञान की तरह ही जो ग्रीक परंपरा को ही सभी विज्ञानों का मूल स्रोत मानती है, भारतकेन्द्रित ज्ञान की यह परंपरा मानती है कि प्राचीन और शास्त्रीय (यानी प्राक-इस्लामिक) भारतीय ज्ञान परंपरा सार्वभौम दाता रही है, जबकि अन्य परंपराएं महज इस परंपरा की ग्राहक रही हैं। अगर एक विचार या अवधारणा एक ही कालखंड में भारत और दुनिया के किसी अन्य हिस्से में पाई जाए, तो हमारे भारतकेन्द्रित इतिहासकार आसानी से यह निष्कर्ष निकाल लेंगे कि वह विचार जरूर ही भारत से उस क्षेत्र में गया होगा, पर वे इस संभावना से पूरी तरह इंकार कर देते हैं कि हो सकता है कि वह विचार उस क्षेत्र से भारत में आया हो।
इस भारतकेंद्रिकता के चलते ही भारतीय इतिहासकारों ने चीनी दंड अंक-पद्धति (रॉड न्यूमरल्स) के दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसार के तथ्य को बिलकुल उपेक्षित कर दिया। चीनी दंड अंक-पद्धति में दाशमिक स्थान-मानों के साथ सिफर मूल्यों के लिए रिक्त स्थान छोड़ने का भी प्रावधान था। दक्षिण-पूर्व एशिया से दुनिया के अन्य हिस्सों में शून्य के अवधारणा के प्रसार की संभावना, जोसेफ नीधम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक साइंस ऐंड सिविलाइज़ेशन इन चाईना के तीसरे खंड में जताई है। हाल ही में कुछ ऐसा ही विचार सिंगापुर नैशनल यूनिवर्सिटी के गणित के जाने-माने इतिहासकार लाम ले योंग ने जाहिर किया है। योंग के तर्कसम्मत और साक्ष्यों से पुष्ट विचारों को दुनिया भर के पेशेवर इतिहासकारों ने स्वीकार किया है और इस धारणा को अब गणित के इतिहास पर लिखी जा रही मानक-पुस्तकों में भी तरजीह दी जा रही है। पर भारत में, योंग के विचार पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

स्थान-मान (प्लेस वैल्यू) का अभाव
शून्य के भारत में उत्पन्न होने के रूढ़िवादी भारतीय विवरणों में दो असुविधाजनक, पर ऐतिहासिक, तथ्य छिपाए जाते हैं। ये तथ्य हैं: पहला, ईसा की 6वीं सदी तक भारतीय अंकों में स्थान-मान का अभाव और दूसरा, शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य भारत से नहीं कंबोडिया और भारत और चीन के बीच स्थित अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से मिलता है। आइए, हम इन दोनों ही तथ्यों की खुले दिमाग से सावधानीपूर्वक पड़ताल करें।
(“स्थान-मान” का सीधा-सा मतलब यह है कि किसी अंक का मान उस स्थान पर निर्भर होता है, जिस पर वह अंक किसी संख्या में आता है। इस प्रणाली के अंतर्गत, कोई भी संख्या चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, सिर्फ नौ अंकों और रिक्त स्थान के लिए एक संकेत के जरिए अभिव्यक्त की जा सकती है।) स्थान-मान का प्रयोग गणना की उस विधि में जरूर होता था, जिसे भूत संख्या कहते हैं। इस विधि में मूर्त प्रतीकों/संकेतों का इस्तेमाल होता था। जैसे संख्या 2 के लिए नेत्र/आँख का प्रयोग; 3 के लिए अग्नि का प्रयोग क्योंकि कर्मकांडों में तीन प्रकार की अग्नि का उल्लेख मिलता है; 6 के लिए अंग का प्रयोग क्योंकि वेदों के 6 अंग होते हैं आदि आदि। चूंकि भूत संख्या की गणना विधि में अंक संकेतों का क्रम उनका मूल्य निर्धारित करता है, इसलिए इसे स्थान-मान का प्रमाण मान लिया जाता है। इस प्रणाली का प्रयोग तीसरी सदी ई. पू. से लेकर चौदहवीं सदी तक खगोलविदों और गणितज्ञों द्वारा किया जाता रहा। जहाँ एक ओर भूत संख्या विधि छंद रचना और स्मरण करने के लिए लाभदायक थी, वहीं दूसरी ओर यह गणनाओं के लिए उपयोगी नहीं थी क्योंकि गणना के लिए आपको आखिरकार अंकों की जरूरत होती है, न कि संकेतों की।
ब्राह्मी अंकों के उद्भव के नौ सौ वर्षों बाद तक भारतीय अंकों में स्थान-मान के इस्तेमाल का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। ब्राह्मी अंको का पहला प्रमाण अशोक के समय के आस-पास (लगभग 300 ई. पू.) के दौरान मिलता है। आगे चलकर गुप्त काल के अंतिम वर्षों में (550 ई.) ये ब्राह्मी अंक देवनागरी अंकों में तब्दील हो गए। अब तक ब्राह्मी लिपि के किसी भी अभिलेख में स्थान-मान का कोई प्रमाण नहीं मिला है, नानाघाट के प्रसिद्ध अभिलेख में भी नहीं। स्थान-मान का पहले-पहल प्रयोग गुप्त काल के अंतिम वर्षों में मिलता है (वह भी अक्सर भूमि-अनुदान से जुड़े ताम्र-पत्रों पर, जिनमें से कुछ बाद में जाली भी पाये गए)। इसी समय में, रिक्त स्थान के लिए शून्य बिंदु का प्रयोग भी पहली बार मिलता है। शून्य का पहला प्रमाण हमें ग्वालियर के एक मंदिर से 876 ई. में मिलता है।
लगभग नौ सौ वर्षों तक स्थान-मान प्रणाली की गैर-मौजूदगी महत्त्व रखती है क्योंकि संख्याओं को लिखने के लिए स्थान-मान प्रणाली के इस्तेमाल के बिना शून्य के लिए एक अंक का उद्भव संभव नहीं हो सकता। क्योंकि स्थान-मान की संकेत पद्धति में ही हमें एक ऐसे संकेत की जरूरत पड़ती है, जो संख्या के अभाव को दर्शा सके। (उदाहरण के लिए, 2004 को आप रिक्त स्थान के लिए किसी शब्द का प्रयोग किए बिना भी शब्दों में अभिव्यक्त कर सकते हैं, पर इसी संख्या को अंकों में लिखते हुए 2 और 4 के बीच रिक्त स्थान को इंगित किए बिना आप नहीं लिख सकते। क्योंकि शून्य के बगैर, ‘2004’ और ‘24’ में कोई फर्क नहीं रह जाएगा।)
दाशमिक स्थान-मान की पहली प्रणाली, जो अवधारणात्मक रूप से आधुनिक “हिन्दू-अरबी” अंक-संकेतों के काफी समरूप है, पहले-पहल चौथी सदी ई. पू. में चीन में विकसित हुई। यह पद्धति रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होने वाली गणनाओं से विकसित हुई। और फिर धीरे-धीरे सरकारी अधिकारियों, खगोलविदों और संन्यासियों से लेकर समाज के हर तबके में फैल गई। इस पद्धति में गणना के लिए एक दंड (रॉड) का प्रयोग किया जाता था जो 14 मिलीमीटर का लकड़ी का एक छोटा टुकड़ा होता था। दाएँ से बाएँ की ओर बढ़ते हुए इस दंड-पद्धति का हरेक अगला स्तंभ दस के गुणांक को दर्शाता था। 1 से 9 तक सभी अंकों के लिए दंड में एक विशेष जगह निर्धारित थी। जबकि 10 से बड़ी संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिए दंड को बाएँ की ओर एक स्तंभ आगे खिसका दिया जाता था। संख्याओं को सहजता से पढ़ने के लिए क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों का मिलान करते हुए दंडों का स्थिति-निर्धारण किया जाता था। जिसे हम शून्य कहते हैं, उसे इस दंड पद्धति में “कोंग” कहा जाता था और इसे एक खाली स्तंभ से दर्शाया जाता था। चीनी गणितज्ञों ने इस दंड-पद्धति का इस्तेमाल उन गणित के सवालों को हल करने के लिए शुरू किया, जिन्हें आज हम बीजगणित के समीकरण के रूप में पहचानेंगे। गणना की यह पद्धति लगभग 12वीं सदी तक चलती रही, जब तक एबैकस का इस्तेमाल नहीं शुरू हो गया।
जल्द ही यह बात साफ हो जाएगी कि आखिर भारत में शून्य की अवधारणा के विकास को समझने के लिए चीनी दंड अंक-संकेतों को समझना क्यों जरूरी है। पर यहाँ जो महत्त्वपूर्ण बात हमें स्वीकारनी होगी वह यह है कि हमारे पड़ोसी देश चीन में, जिसके साथ हमारे प्रगाढ़ संबंध पहली सदी ई. पू. से भी पुराने हैं, हमारा परिचय एक पूर्ण दाशमिक प्रणाली से होता है, जिसमें स्थान-मान के साथ के साथ-साथ अंकों के अभाव को दर्शाने के लिए रिक्त स्थान का भी प्रयोग हो रहा था। यह सोचना असंभाव्य है कि करीब नौ सौ वर्षों बाद देवनागरी अंकों में अचानक दाशमिक स्थान की उत्पत्ति का हमारे इस पड़ोसी देश से कोई लेना-देना नहीं है?
 
शून्य का भौतिक साक्ष्य   
आइए अब हम हिन्दुत्व को असहज कर देने वाले उस दूसरे तथ्य की ओर ध्यान देते हैं, यानी शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य। हम जानते हैं कि शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य भारत में नहीं, बल्कि कंबोडिया में मिला है। यह कंबोडियाई साक्ष्य पत्थर के एक स्तम्भ से मिला है, जिस पर यह अभिलेख मिलता है “घटते हुए चंद्रमा के पांचवें दिन चक संवत 605वें वर्ष में प्रवेश कर गया”। इस अभिलेख में आने वाले वर्ष 605 में शून्य (0) को एक बिंदु से दर्शाया गया है। इस अभिलेख की तिथि 683 ई. निर्धारित की गई है। (यह अभिलेख जिस स्तंभ पर था, वह खो गया था, जिसे 2013 में अमेरिकी-इज़राइली गणितज्ञ अमीर एकज़ेल ने पुनः खोज निकाला है।) शून्य के लिए बिंदु का प्रयोग करने वाले ऐसे ही अन्य अभिलेख सुमात्रा, बांका द्वीप-समूह, मलेशिया और इंडोनेशिया में भी प्राप्त हुए हैं और उनका समय भी कंबोडिया के स्तंभ के समय आस-पास ही है।
भारत में शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य ग्वालियर के निकट विष्णु को समर्पित चतुर्भुज मंदिर से मिलता है, जो एक शैल मंदिर है। मंदिर के दीवार पर लिखे गए एक अभिलेख में भूमि के अनुदान (जिसकी माप 270 × 187 हस्त बताई गई है) और मंदिर के देवता को 50 मालाएँ प्रतिदिन चढ़ाने का उल्लेख किया गया है। ये अंक नागरी लिपि में लिखे गए हैं और रिक्त स्थान को दर्शाने के लिए छोटे, खाली वृत्तों का इस्तेमाल किया गया है। इस अभिलेख की तारीख 876 ई. तय की गई है, जो कंबोडियाई अभिलेख से दो सदी बाद की तिथि है।
अब सवाल यह उठता है कि अगर भारत शून्य का उत्पत्ति-स्थान है तो ऐसा क्यों है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में शून्य के साक्ष्य भारत से पहले के हैं? अगर हम यह भी मान लें कि दक्षिण-पूर्व एशिया पर भारत का प्रभाव रहा है तो भी यह सवाल बचा रहता है कि शून्य का पहला भौतिक साक्ष्य दक्षिण-पूर्व एशिया से ही मिलता है, भारत से क्यों नहीं?
इसकी एक व्याख्या जोसेफ नीधम द्वारा दी गई है, जिसे लाम ले योंग ने समर्थन दिया है। जोसेफ नीधम के अनुसार, दक्षिण-पूर्व एशिया वह क्षेत्र है “जहाँ हिन्दू संस्कृति के पूर्वी क्षेत्र का मिलाप चीनी संस्कृति के दक्षिणी क्षेत्र से होता है”। इस सांस्कृतिक संपर्क क्षेत्र से होकर भारत और चीन को आने-जाने वाले व्यापारियों, राज-कर्मचारियों, सैनिकों, बौद्ध तीर्थयात्रियों और भिक्षुओं की संख्या असीमित रही है। यह असंभव नहीं है कि उनके साथ परिकलन के लिए इस्तेमाल होने वाला चीनी दंड और गणक-पटु (काउंटिंग बोर्ड) भी रहे हों, क्योंकि इन्हें आसानी से यात्रा के दौरान अपने साथ रखा जा सकता है। यह भी संभव है कि भारत-चीनी सीमा क्षेत्र के बाशिंदों ने उन अंकों का इस्तेमाल तो जारी रखा, जिनसे वे पूर्व-परिचित थे, पर साथ ही उन्होंने गणना की चीनी दंड-पद्धति में निहित तर्कों को भी अपना लिया हो। भारत में आने के बाद, संभवतः चीनी गणक-पटु (काउंटिंग बोर्ड) में दर्शाया जाने वाला रिक्त स्थान, बिंदु से एक खाली वृत्त में तब्दील होता गया और धीर-धीरे शून्य ने अपना वर्तमान आकार (0) पाया, जिससे आज हम सभी परिचित हैं। नीधम के अनुसार: “रिक्तता अथवा सिफर मूल्य के लिए लिखने के संकेत शून्य का इस्तेमाल, असल में, हान गणक-पटु में मौजूद खाली/रिक्त स्थान को पहनाई गई एक भारतीय माला थी”। दूसरे शब्दों में कहें तो, दाशमिक स्थान-मान और रिक्त स्थान की अवधारणा का विकास तो चीन में हुआ, जबकि भारत ने रिक्त स्थान को दर्शाने के लिए वह भौतिक संकेत दिया, जिसे आज हम सभी शून्य के रूप में पहचानते हैं।
जाहिर है इस पूरी व्याख्या से, तमाम भारतीय असहज होंगे, क्योंकि यह तर्कसम्मत व्याख्या शून्य पर हमारे दावे को और उसे अपनी उपलब्धि मानने की भारतीय प्रवृत्ति को चुनौती देती है। पर तथ्यों से पुष्ट यह व्याख्या शून्य के भारतीय साक्ष्य देर से मिलने के ऐतिहासिक तथ्य की भी सुस्पष्ट व्याख्या करती है। यह हमारी भारतकेंद्रिकता ही है, जो हमें इस व्याख्या को गंभीरता से लेने और इसकी गहराई से पड़ताल करने से रोकती है।

मिथक और इतिहास की मिलावट
विज्ञान के इतिहास से जुड़ी छेड़-छाड़ का तीसरा और अंतिम उदाहरण खुद हमारे प्रधानमंत्री से जुड़ा है। यह उदाहरण विज्ञान के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की उस प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसमें सदियों के वैज्ञानिक शोध के बाद जिन वैज्ञानिक तथ्यों और उपकरणों से आज हम वाकिफ हो सके हैं, उन्हें प्राचीन ग्रंथों और तत्कालीन विज्ञान में ढूँढने की कोशिश की जाती है।
नरेंद्र मोदी द्वारा दिये गए कर्ण-गणेश” वाले भाषण की विषय-वस्तु से तो हम सभी परिचित ही हैं। मोदी ने महाभारत के पात्र कर्ण को “इन विट्रो बेबी” बताते हुए यह जोड़ा कि “इसका मतलब है कि उस समय आनुवंशिकी विज्ञान (जेनेटिक साइंस) मौजूद था”। और मोदी के अनुसार, गणेश का हाथी वाला सिर (गजानन) इस बात का प्रमाण है कि “उस समय जरूर ही कोई प्लास्टिक सर्जन मौजूद था”, जो अंतर-प्रजातीय हेड ट्रांसप्लांट करने में सक्षम था। 
कोई चाहे तो इस मोदी के इस भाषण की उपेक्षा कर सकता है, क्योंकि अक्सर नेता ऐसी अतिरंजित बातें किया ही करते हैं। पर यह ध्यान रखना होगा कि नरेंद्र मोदी, जो जीवनपर्यंत स्वयंसेवक रहे हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस शाखा संस्कृति से आते हैं, जिसके लिए मिथकों और ऐतिहासिक तथ्यों में कोई फर्क नहीं है। संघ की शाखाओं में इतिहास संबंधी जो व्याख्याएँ दी जाती हैं, वे भ्रामक होने के साथ-साथ कालदोष से भी भरी होती हैं। शाखाओं द्वारा प्रचारित किए जाने वाले ऐसे भ्रांतपूर्ण इतिहास में वर्तमान के विचारों, आकांक्षाओं, प्रेरणाओं और इच्छाओं को अतीत में ढूँढने, पढ़ने की कोशिश की जाती है। ऐसे नितांत भ्रामक इतिहास के बारे में एरिक हॉब्सबाम ने लिखा है कि यह इतिहास खालिस झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि यह न सिर्फ अंतर्विरोधी विचारों को बढ़ावा देता है, बल्कि यह एक स्वर्णिम अतीत की छवि भी गढ़ता है। विज्ञान पर लागू किए जाने पर इतिहास की यह भ्रामक धारा, पूर्वकालीन विज्ञान को वर्तमान विज्ञान
का स्रोत साबित करने पर तुली रहती है। या यह दर्शाने की कोशिश करती है कि वर्तमान विज्ञान, प्राचीन काल के विज्ञान का महज विस्तार भर है। इस प्रक्रिया में न सिर्फ अतीत को बारंबार संशोधित किया जाता है, बल्कि यह भी साबित किया जाता है कि हमारे पूर्वज अपने समय से बहुत आगे थे और अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के धनी थे।
नरेंद्र मोदी के उस कथन को ही ले लें, जिसमें उनका दावा है कि “[महाभारत काल में] जेनेटिक साइंस विद्यमान था”। यह महज एक नेता द्वारा कही गई अतिरंजित बात भर नहीं है। यह बात उस परंपरा में कही जा रही है, जो यूजेनिक्स का सहारा लेकर भारत में जाति-प्रथा को वैध ठहराने की कोशिश करती है। नाजी अत्याचारों के संदर्भ में यूजेनिक्स के तथाकथित “विज्ञान” के कुख्यात होने से पहले, भारतीयों द्वारा वर्ण-व्यवस्था का ऐसा वैचारिक बचाव आरंभिक बीसवीं सदी में बिलकुल आम था। ऐसे लोगों में सर्वपल्ली राधाकृष्णन सरीखे विद्वान भी शामिल थे। आज भी आनुवंशिकी का तर्क देकर खाप पंचायतों द्वारा एक ही गोत्र में विवाह न होने देने को सही ठहराने की कोशिश की जाती है। इस तरह आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) का जामा पहनाकर, धार्मिक अंध-विश्वासों, आर्थिक स्वार्थों, जाति और जेंडर के पूर्वाग्रहों की शोषणकारी प्रवृत्ति को तार्किक ठहराया जाता है।
यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि जीन की खोज से पहले आनुवांशिकी का कोई विज्ञान (जेनेटिक्स) अस्तित्व में नहीं था। आनुवांशिकता की इकाई के रूप में जीन की अवधारणा बीसवीं सदी के आरंभ से पहले हमें ज्ञात नहीं थी, जब तक कि ग्रेगर मेंडल (1822-1884) के जीन संबंधी काम का पुनराविष्कार नहीं किया गया।
यहाँ तक कि महान चार्ल्स डार्विन (1809-1882) का भी यह मानना था कि पैतृक गुण उत्तराधिकार में “जेम्यूल” के द्वारा स्थानांतरित होते हैं। डार्विन के अनुसार “जेम्यूल” शरीर की सभी कोशिकाओं द्वारा रक्त में मिलाये जाने वाले सूक्ष्म कण थे। यह मेंडल के अनवरत और अनथक प्रयासों और ह्यूगो दे व्रीज सरीखे अन्य वैज्ञानिकों के शोध का नतीजा था, जिसने आनुवांशिकी की स्वतंत्र इकाई की अवधारणा को जन्म दिया। ये तथ्य कि आनुवांशिकी गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित होती है और गुणसूत्र डीएनए (डीऑक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड) से बने होते हैं, बीसवीं सदी की महत्त्वपूर्ण खोजें हैं।
इस तरह यह बिलकुल साफ है कि जीन की धारणा के विकास से पहले दुनिया के किसी भी हिस्से में “आनुवांशिकी विज्ञान” (जेनेटिक साइंस) का कोई अस्तित्व नहीं था। इसका मतलब यह नहीं है कि लोगों ने पैतृक गुणों के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्थानांतरण के सवाल में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारत में भी लोगों ने पैतृक गुणों के स्थानांतरण की रहस्यमय गुत्थी में दिलचस्पी ली। इस संदर्भ में, उन भारतीयों के सर्वाधिक “वैज्ञानिक” सिद्धांत (उस काल को ध्यान में रखते हुए) का विवरण हमें चरक संहिता में मिलता है, जो आयुर्वेद का आधारभूत ग्रंथ है।
चरक संहिता के अनुसार, किसी जीव के जन्म में दो नहीं तीन पक्ष योगदान देते हैं: माता, पिता और आत्मा। आत्मा, जो सूक्ष्म शरीर से जुड़ी होती है और पिछले स्थूल शरीर की मृत्यु के बाद एक नए शरीर की तलाश में होती है। एस एन दासगुप्ता की व्याख्या के अनुसार, आत्मारूपी सूक्ष्म शरीर “अदृश्य होकर एक गर्भ-विशेष में अपने कर्म के अनुसार प्रवेश करता है” और इस प्रक्रिया के फलस्वरूप गर्भ में भ्रूण का निर्माण होता है। इसके अनुसार, एक बच्चे के जन्म के लिए जैविक माता-पिता आवश्यक जरूर हैं, पर पर्याप्त नहीं! यह आत्मारूपी सूक्ष्म शरीर है, जो एक मृत देह से अपने समूची अतीत की स्मृतियों और संस्कारों के साथ निकलता है और वही पैतृक गुणों की कुंजी होता है।
तो असल में, यह है महाभारतकालीन “आनुवांशिकी विज्ञान” (साइंस ऑफ जेनेटिक्स)। कहने की जरूरत नहीं कि इस अवधारणा की तुलना, वर्तमान आनुवांशिकी विज्ञान की धारणाओं से करना एक बचकानी और हास्यास्पद कोशिश ही होगी।
पर प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के महिमामंडन की हिन्दुत्व के योद्धाओं द्वारा की जा रही ऐसी बचकानी और मूर्खतापूर्ण कोशिशों में एक गहरी बात भी छिपी हुई है, अक्सर जिसकी व्याख्या नहीं की जाती। हिन्दुत्व के समर्थक यह बात जानते हैं कि आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) के आधुनिक विज्ञान में हुई प्रगति ने, हिन्दुत्व की जीवन की परिघटनाओं से जुड़ी सूक्ष्म शरीर (आत्मा) वाली व्याख्या को अप्रासंगिक और निरर्थक बना दिया है। आखिरकार हम सिंथेटिक बायोलॉजी के ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां प्रयोगशालाओं में रसायनों के जरिए समूचे जैविक अंग विकसित किए जा रहे हैं। हिन्दुत्व के समर्थक यह भी जानते हैं कि उनकी यह ब्राह्मणवादी आध्यात्मिक तत्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स) एक गंभीर वैज्ञानिक पड़ताल के सामने नहीं ठहर सकती। इस दक़ियानूसी तत्वमीमांसा को “विज्ञान” का जामा पहनाकर, हिन्दुत्व के समर्थक इसे आधुनिक विज्ञान की समीक्षा और पड़ताल से बचाने की हताश कोशिश कर रहे हैं।
इस तरह हिन्दुत्व का विज्ञान द्वेष, राष्ट्रवाद से परे चला जाता है। असल में, यह हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं को बचाने के लिए खेला गया एक दांव है। जैसा कि सीरिया के महान दार्शनिक सादिक़ अल-अज़्म ने कहा है: “विज्ञान और धर्म के बीच संघर्ष के चिह्नों को मिटाने का प्रयास धर्म को बचाने के हताशा से भरे प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है। इस युक्ति का सहारा तब-तब लिया जाता है, जब धर्म को अपने पारंपरिक स्थिति से झुकने या समझौता करने को विवश होना पड़ता है, या तब जब धर्म को उस केंद्रीय सत्ता की जगह छोड़ने पर विवश किया जाता है, जिस पर इसने कब्जा जमा रखा है।”
असल में, हिन्दुत्व के विज्ञान द्वेष की असली वजह यही है।

(मीरा नंदा आधुनिक विज्ञान के इतिहास की विशेषज्ञ हैं।)

Frontline में छपे मीरा नंदा के इस लेख Hindutva’s science envy का हिंदी अनुवाद शुभनीत कौशिक ने किया है और यह समयांतर में प्रकाशित हो चुका है।