Tuesday, June 3, 2008

धीरेश का जिद्दी राग

परसों धीरेश से मुलाकात हुई। दफ्तर आया था। अपनी बीमारी को आधे से ज्यादा परास्त कर चुका है वह। चेहरे पर थकान तो थी, पर पहले के मुकाबले बेहद कम। अभी महीने भर और छुट्टी पर रहेगा।
उसने ब्लॉग पर लिखा भी था :

'साथियो! मनमोहन की ये टिपण्णी अधूरी है. कई दिन पहले मैंने खासी दिक्कत में टाइप की थी. अब आगे टाइप करने के आसार फिलहाल नहीं. अधूरी चीजों में भी सार महसूस किया जा सकता है यही सोचकर इसे पेस्ट कर रहा हूँ. गर ठीक होता हूँ तो लौटकर फिर सिलसिला शुरू करने की कोशिश करूंगा।'

सचमुच, उसका शरीर उससे दगा कर रहा था। पर मन और मस्तिष्क की हिम्मत उसके दगाबाज शरीर को वफादार बना रही है।

दफ्तर में जब वह आया, कई साथी उसे घेर कर हालचाल लेते रहे। इसी बीच उसने कागज के एक टुकड़े पर इस ब्लॉग का लॉगइन नेम और पासवर्ड लिखा और मुझे थमा गया। बीमारी के दौरान भी उसे इस ब्लॉग की चिंता लगी रहती थी। एक-दो दफे कहा भी, अनुराग भाई कुछ डाल देना। तभी मुझे लगा कि वह जिद्दी धुन है। वैसे, सही है कि वह जिद्दी भी है और धुनी भी।

बहरहाल, उससे इस बार मिलना और उसके चेहरे पर ताजगी देखना बहुत सुकून दे गया। उम्मीद है बेहद जल्द वह लौटेगा अपने इस ब्लॉग पर हमसबों के लिए अपने और हमारे टेस्ट की चीजों के साथ। फिलहाल, इस जिद्दी धुन की पसंद की कुछ पंक्तियां हमसबों के लिए :

तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर
अगर है कहीं स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
सितम के ये चार दिन, ये गम के और चार दिन
ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजर गए हजार दिन
कभी तो होगी इस चमन पर बहार की नजर
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर